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पण्डितप्रवर श्री टोडरमल जी विरचित
मोक्षमार्ग प्रकाशक
* प्रधान सम्पादक * सिद्धान्ताचार्य पं. जवाहरलाल सिद्धान्तशास्त्री
उदयपुर (राजस्थान)
सम्पादक मण्डल. पण्डित श्री नीरज जैन, सतना डॉ. चंतनप्रकाश पाटनी, जोधपुर पं. हसमुख जैन, धरियावाद
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-: प्रकाशक :प्रतिष्ठाचार्य पं० विमलकुमार जैन सोरया
एम. ए. शास्त्री, आ. रल अध्यक्ष-वीतरागवाणी दस्ट रजिस्टर्ड सैलसागर, टीकमगढ़ (म. प्र.) ४७२००१
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सम्पादकीय
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मोक्षमार्ग-प्रकाशक का यह अभिनव संस्करण
हिन्दी में जैन दर्शन के प्राचीन जैन माहित्य की चर्चा करें तो अनिवार्य रूप से उसमें आचार्यकल्प पंडित श्री टोडरमलजी के मोक्षमार्ग-प्रकाशक का समावेश करना ही पड़ेगा। प्राप्त ग्रन्थ नौ अधिकार प्रमाण है। नौ अधिकारों में क्रमशः १. पंचपरमेष्ठी का स्वरूप, २. संसारावस्था को स्वरूप ३. संसारदु:ख तथा मोक्षसुख, ४. मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्र, ५. विविध मत समीक्षा ६. असत्यायतनों का स्वरूप, ७. जैन मिथ्यादृष्टि का विवेचन ८, आगम का स्वरूप तथा ९. मोक्षमार्ग का स्वरूप वर्णित है। यद्यपि ग्रन्थ का मूल विषय मोक्षमार्ग का प्रकाशन है तथापि प्रकरणवश इसमें कर्मसिद्धान्त, निमित्त उपादान, स्याद्वाद-अनेकान्त, निश्चय-व्यवहार, पुण्य-पाप, दैव-पुरुषार्थ आदि विषयों पर भी तात्त्विक एवं आध्यात्मिक विवेचना की गई है। इस प्रकार इसमें एक तरह से जैनागम का सार आ गया है। समग्र जैन विचार-पद्धति की सटीक और चुस्त रूपरेखा प्रस्तुत करने में इस ग्रन्थ को अद्वितीय माना गया है। अब तक शायद इस ग्रन्थ की एक लाख से अधिक प्रतियाँ छप चुकी होंगी। कहना न होगा कि इतना विस्तृत प्रचार-प्रसार बिरले ही ग्रन्थों को प्राप्त होता है। प्रकाशन का प्रारम्भ :
सवा दो सौ साल पूर्व विक्रम संवत् १८२४-२५ में रचित मोक्षमार्ग-प्रकाशक की हस्तलिखित प्रतियाँ इतनी प्रचलित होती रही कि हिन्दीभाषी प्रदेशों के प्राय: हर जिनालय में वे मिल जाती हैं। मुद्रणयंत्रों के प्रादुर्भाव के साथ ही इस उपयोगी ग्रन्थ के प्रकाशन के प्रयास प्रारम्भ हो गये। प्राप्त मन्चनाओं के आधार पर सबसे पहले सन् १८९७ में बाबू ज्ञानचन्दजी जैनी ने लाहौर से मोक्षमार्गकाशक का पहला संस्करण प्रकाशित किया था। इसके चौदह वर्ष पश्चात् सन् १९११ में श्री नाथूराम प्रेमी ने अपने हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई से इसे प्रकाशित किया। प्रेमीजी इसी संस्करण में पण्डितजी का जीवन परिचय देना चाहते थे परन्तु किसी कारणवश यह सम्भव नहीं हुआ। बाबू ज्ञानचन्दजी ने पण्डितजी की ढूंढारी भाषा में "बहुरि" "जाते" और "जाकरि'' आदि शब्दों को बदल दिया था, परन्तु प्रेमीजी ने यह बदलाव पसन्द नहीं किया और अपना संस्करण मूल प्रति के अनुरूप 'जस-का-तस' ढूंढारी में ही प्रकाशित किया।
सन् १९३९ में श्री दुलीचन्द परवार ने जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता से इस ग्रन्थ को प्रेमीजी के १९११ के संस्करण की अक्षरश: प्रति कराकर प्रकाशित किया। इस बीच मुम्बई से ही पं. रामप्रसादजी शास्त्री द्वारा एक और संस्करण प्रकाशित किया जा चुका था पर उसकी प्रति हमारे देखने में नहीं आई। मात्र उसकी सूचना है।
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________________ खड़ी बोली में रूपान्तरण : मोक्षमार्ग-प्रकाशक की मूल भाषा ढूंढारी राजस्थान के एक छोटे से भू-भाग की भाषा है। पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों में उस भाषा में कुछ परिवर्तन भी हुए हैं। हिन्दी का क्षेत्र बहुत बड़ा है और किसी भी ग्रन्थ को ढूंढारी की अपेक्षा प्रचलित हिन्दी या खड़ी बोली में पढ़ना-समझना अधिकाधिक पाठकों के लिए अधिक से अधिक आसान होता है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर इस उपयोगी ग्रन्थ को खड़ी बोली में रूपान्तरित करके प्रस्तुत करने की आवश्यकता का अनुभव किया गया। 1897 में बाबू ज्ञानचन्दजी जैनी ने जिसका मंगलाचरण किया था, रूपान्तरण का वह कार्य, पचास वर्ष के बाद 1947 में पहली बार सामने आया। सर्वप्रथम पमारी (आगरा) निवासी पण्डित लालबहादुरजी शास्त्रीने 1942 में मोक्षमार्गप्रकाशक के भाषा-रूपान्तरण का कार्य हाथ में लिया जिसे उन्होंने दो वर्ष के कठोर परिश्रम से 1944 में समाप्त कर लिया। परन्तु उसका प्रकाशन भारतवर्षीय दिगम्बर जैनसंघ, चौरासी मथुरा द्वारा सन् 1948 में, जैन संघ ग्रन्थमाला के दूसरे पुष्प के रूप में सम्भव हुआ। पण्डित लालबहादुरजी शास्त्री ने इस कार्य में बहुत परिश्रम किया। उन्होंने श्री नाथूरामजी प्रेमी द्वारा 1911 में प्रकाशित प्रति को ही मानक प्रति जनाकर कार्य किया। कोई प्राचीन हस्तलिखित प्रति उन्हें उपलब्ध नहीं हो सकी। शास्त्रीजी को श्री प्रेमीजी से इस कार्य में मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। पं. परमानन्दजी से उन्हें सहयोग प्राप्त हुआ तथा पं. कैलाशचन्द जी शास्त्री का कार्य-निष्पादन में सर्वोपरि योगदान रहा। मथुरा संघ से प्रकाशित संस्करण में ग्रन्थ को अधुनातन सम्पादकीय पद्धति तथा मुद्रण पति से संवारकर प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया था। उस समय तक ग्रन्थ के पाँच विभिन्न संस्करण सम्पादक के समक्ष थे। मूल हस्तलिखित प्रतियों में तो अल्प-विराम और पूर्ण-विराम लगाने का प्रचलन ही नहीं था। पैरा भी कहीं कदाचित् ही दर्शाये जाते थे। विषयवार शीर्षक और उपशीर्षक भी नहीं होते थे। पूरे ग्रन्थ में विषयवार शीर्षक/उपशीर्षक देने का कार्य 1911 में प्रेमीजी ने कर लिया था, परन्तु वे सारे शीर्षक ग्रन्थ की सूची में ही दिये गये थे। ग्रन्ध के पृष्ठों पर कोई शीर्षक नहीं थे। पण्डित लालबहादुरजी ने प्रेमीजी द्वारा सूचित शीर्षकों का भरपूर लाभ उठाया और उन्हें कुछ और संवार कर ग्रन्थ में ही यथास्थान जोड़ दिया। इससे पाठकों को बहुत सुभीता हुआ। पण्डित टोडरमलजी ने मतान्तरों के खण्डन में जगह-जगह उनकी मान्यताओं का उल्लेख तो किया था परन्तु उनके स्रोत स्पष्ट नहीं किये थे। पण्डित लालबहादुरजी ने उन सभी स्थलों को खोज कर ग्रन्थ-प्रकरण-अध्याय और श्लोक सहित उनके संदर्भ अंकित कर दिये और पूरे-पूरे उद्धरण भी सामने ला दिये। यह बहुत परिश्रम-साध्य कार्य था। शास्त्रीजी ने ग्रन्थ के अन्त में विस्तृत परिशिष्ट देकर भी एक बड़ा कार्य किया। परिशिष्ट को दो भागों में विभक्त करके प्रस्तुत किया गया है। पहले भाग में ग्रन्थ के विशेष-स्थलों को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है और दूसरे भाग में वे कथाएँ प्रस्तुत की गई हैं
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गिनका पण्डित टोडरमलजी ने ग्रन्थ में दृष्टान्त रूप में उपयोग किया था। शास्त्रीजी ने इस सम्पादन कार्य में प्रयुक्त ९९ ग्रन्थों की जो तालिका ग्रन्थ के प्रारम्भ में दी है, उसके अवलोकन मात्र से उनके परिश्रम और अध्यवसाय का संकेत मिल जाता है। अन्य भाषाओं में अनुवाद :
__पं. लालबहादुरजी शास्त्री के इसी संस्करण के आधार पर श्री धन्यकुमार गंगासा भोरे ने मोक्षमार्ग-प्रकाशक का मराठी अनुवाद तैयार किया, जो सन् १९५६ में कारंजा से प्रकाशित हुआ। यद्यपि इस प्रकाशन के पूर्व पं. कालप्पा भरमप्पा निटवे ने मराठी अनुवाद का कार्य प्रारम्भ किया पा परन्तु उसके कुछ अंश "जैन बोधक' में छपकर ही रह गये । शायद वह अनुवाद पूरा ही नहीं हुआ। सन् १९५६ में मराठी अनुवाद सामने आने तक गुजराती में भी ग्रन्थ के दो संस्करण सामने आ चुके थे।
त्या के प्रताप इन् लाने गानों ने सरः साप मूल ढूंढारी में भी उसकी मांग बराबर बनी हुई थी। मूल भाषा की विश्वसनीयता एक ऐसा प्रलोभन था जिसके लिए स्वाध्यायप्रेमी कुछ कठिनाई उठाकर भी उसी भाषा में ग्रन्थ का स्वाध्याय करना सुरक्षित मानते थे। दिल्ली की 'सस्ती ग्रन्थमाला कमेटी ने उसी पचास के दशक में, ग्रन्थ का मूल ढूंढारी संस्करण प्रेमीजी के प्रकाशन के आधार पर प्रकाशित किया। इसमें मथुरा संघ के आधार पर शीर्षक आदि यथास्थान जोड़ दिये गये थे। यह संस्करण सस्ता और सुलभ होने के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ। १९६५ तक सस्ती ग्रन्थमाला चार संस्करण करके दस हजार ग्रन्थ वितरित कर चुकी थी। दिल्ली से ही श्री मुसद्दीलाल जैन चेरिटेबल ट्रस्ट ने १९८४ में एक संस्करण प्रकाशित किया। इसके पूर्व सन् १९२४ में बाबू पन्नालाल चौधरी, वाराणसी द्वारा तथा १९३६ में मुनि अनन्तकीर्ति ग्रन्थमाला, बम्बई द्वारा भी एक-एक संस्करण प्रकाशित हो चुका था। बहुत बाद में दिल्ली से उर्दू में भी एक संस्करण प्रकाशित हुआ है। टोडरमल स्मारक का योगदान :
___ सुरुचिपूर्ण मुद्रण और वाजिब मूल्य पर, प्रचुर मात्रा में प्रसार की दृष्टि से मोक्षमार्ग-प्रकाशक का उल्लेखनीय प्रकाशन श्री टोडरमल स्मारक, जयपुर से हुआ है। मोटे बड़े टाइप में, अपेक्षाकृत मोटे कागज पर, अच्छी जिल्द के साथ, लागत से भी कम दामों पर इस ग्रन्थ को सबसे पहले सोनगढ़ के 'जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट' के नाम से १९६५-६६ में सामने लाया गया। पिछले तीस-बत्तीस वर्षों में जबपुर से लगभग अस्सी हजार प्रतियाँ वितरित हो चुकी हैं। यह एक सराहनीय कार्य कहा जाना चाहिए।
___ सोनगढ़ में इस ग्रन्थ को ढूंढारी भाषा से आधुनिक खड़ी बोली में जब भाषान्तरित किया गया तब इसकी प्रामाणिकता पर अनेक प्रश्न चिह्न लगाये गये थे, पर वह बात दब गई और उस समय उठाये गये प्रश्नों के आज तक कोई समाधान या स्पष्टीकरण जयपुर से नहीं दिये गये। इनका पहला संस्करण
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निकलने के पूर्व स्व. पं. परमानन्दजी शास्त्री द्वारा सम्पादित चार संस्करण ढूंढारी में सस्ती ग्रन्थमाला, दिल्ली से निकल चुके थे। सोनगढ़ वालों ने उस प्रति का भी अनुकरण किया और जयपुर के वधीचन्द्र दीवान मन्दिर से हस्तलिखित प्रति मँगाकर उसके फोटो लिये तथा उसके सहारे ही बड़ी बोली का संस्करण तैयार किया था।
जब स्वाध्याय मन्दिर का पहला संस्करण आया और उसकी प्रामाणिकता पर संदेह किया गया, तब पं. बालचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री और पं. परमानन्दजी शास्त्री ने जयपुर से वह फोटो प्रति मँगाकर उससे प्रकाशित प्रति का मिलान किया और उसमें ५७ जगह स्खलन या परिवर्तन ढूंढ निकाले । इन दोनों विद्वानों ने ग्रन्थ के कतिपय प्रसंगों पर आठ प्रश्न भी उठाये जिन पर विचार करना आवश्यक था। इस सारे उहापोह को 'मोक्षमार्ग प्रकाशक का प्रारूप' नामक एक विस्तृत लेख में दिल्ली की 'अनेकान्त' पत्रिका के वर्ष २०, किरण ६ में पृष्ठ २६१ से २७० तक दस पृष्ठों पर छापा गया। सोनगढ़ पक्ष की ओर से इन आगे या प्रपनों का आज तक कोई उत्तर नहीं दिया गया। यद्यपि इस लेख के आधार पर कुछ सुधार अवश्य कर लिये गये ।
इस प्रकार वास्तविकता यह है कि
१. मोक्षमार्ग प्रकाशक परिपूर्ण ग्रन्थ नहीं है। वह अधूरा ग्रन्थ है अतः लेखक की सारी विवक्षाएँ उसमें समाहित नहीं हो सकी हैं।
२. ग्रन्थ की स्वयं लेखक द्वारा तैयार की गई कोई शुद्ध पाण्डुलिपि अब तक उपलब्ध नहीं हुई। दीवानजी का मन्दिर, जयपुर से जो प्रति मिली, जिसके आधार पर सोनगढ़ ट्रस्ट ने अपना संस्करण तैयार किया, वह ग्रन्थ का प्राग्रूप मात्र था। उसके प्रारम्भ के ५५ पत्र ( १०९ पृष्ठ ) किसी अन्य व्यक्ति के हाथ के लिखे हुए हैं। इनमें पद -अक्षर और मात्राओं की प्रचुर अशुद्धियाँ हैं और इनका संशोधन पं. टोडरमलजी नहीं कर पाये। आगे के पत्र अपेक्षाकृत शुद्ध लिखे गये हैं और संशोधित भी
हैं।
३.
उस प्रति में अंत के कुछ पृष्ठ भी किसी अन्य व्यक्ति द्वारा लिखकर लगाये गये हैं । यहाँ इन बातों का उल्लेख करने से हमारा अभिप्राय किसी व्यक्ति या संस्था पर दोषारोपण का नहीं है। हमारा तो इतना ही राग है कि स्व. पं. टोडरमलजी का यह लेखन जिनागम की छाया है, अतः इसे अधिक से अधिक आगमानुकूल और शुद्ध रूप पाठकों के हाथ में देने का सम्यक् प्रयास किया जाना चाहिए। इसमें जोड़-तोड़ करके अपनी कषाय की पुष्टि करने या हठाग्रह करने का मान- प्रेरित कार्य नहीं किया जाना चाहिए। यदि कोई अध्येता विद्वान् इस आलेख पर प्रश्न उठाता है, या उसके किसी अंश को आगम के आलोक में पुनर्परिभाषित करने का ईमानदार प्रयत्न करता है, तो धमकी भरे पत्र लिखकर उसकी कलम छीनने के बजाय, वास्तविकता को प्रगट करना चाहिए और आगम की मूलभूत विशेषताओं की रक्षा की चिन्ता रखनी चाहिए। आवक का यही कर्तव्य है।
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श्री टोडरमल स्मारक की ओर से ही मोक्षमार्ग प्रकाशक का अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया जा चुका है। यद्यपि अनुवादक विद्वान् ब्र. हेमचन्द्रजी श्रुतझ मुमुक्षु हैं, परन्तु उनके अनुवाद में भी कुछ विसंगतियाँ देखने में आई हैं। दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् के कोषाध्यक्ष श्री अमरचन्द्र ने उन भूलों की ओर संस्थान का ध्यानाकर्षण किया है। आशा है, अगले संस्करण में उन पर विचार किया जायेगा । अधूरे ग्रन्थ की पूर्णता के प्रयास :
यह सर्वमान्य तथ्य है कि मोक्षमार्ग प्रकाशक परिपूर्ण ग्रन्थ नहीं है। लेखक की ग्रन्थ-प्रतिज्ञा तथा अन्य स्पष्ट संकेतों' के अनुसार यह एक अधूरा ग्रन्थ है। अधिकांश विद्वानों का तो यह मूल्यांकन है कि पण्डितजी के मन में जिस विस्तारपूर्वक ग्रन्थ लिखने का संकल्प था, उसके सामने यह लिखित भाग, ग्रन्थ का प्रारम्भ भी नहीं है। यह तो मात्र उसकी भूमिका है। पण्डितजी के व्यक्तित्व और कृतित्व. पर अपना शोधग्रन्थ प्रस्तुत करते हुए डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल ने स्पष्ट लिखा है कि यदि यह ग्रन्थ, जो मात्र साढ़े तीन सौ पृष्ठों का ही हमें मिला है, कभी पण्डितजी के हाथों से पूरा हो पाता तो कम-से-कम पाँच हजार पृष्ठों का अवश्य होता। इस प्रकार भारिल्लजी की मान्यता में संकल्पित लेखन की मात्र सात - आठ प्रतिशत सामग्री ही हमारे सामने उपलब्ध है।
पंडितजी के असमय देहावसान के तुरन्त बाद से ही इस ग्रन्थ को पूरा करने के बारे में सोचा जाने लगा था, परन्तु विषय की गहनता और वर्णन की सहजता को देखकर किसी ने भी इस काम को हाथ में लेने का साहस नहीं किया ।
इस सम्बन्ध में पं. लालबहादुरजी शास्त्री ने अपनी प्रस्तावना में लिखा है.
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"उस समय के विद्वान् स्वतंत्र ग्रन्थ-रचना के लिए अपने आपको अधिकारी विद्वान् न पाते थे। उस सम्बन्ध में हम अपनी तरफ से कुछ न लिखकर टोडरमलजी से लगभग पचास वर्ष बाद लिखी गई पं. जयचन्द्रजी के ही एक पत्र की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर देना ठीक समझते हैं। यह पत्र कवि वृन्दावनदासजी काशी को लिखा गया था और 'वृन्दावन - बिलास' के अंत में ज्यों का त्यों छापा गया है। पत्र की ये पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
'और लिख्या कि टोडरमलजी कृत मोक्षमार्ग प्रकाश ग्रन्थ पूरण भया नाहीं ताकों पूरण करना योग्य है। सो कोई एक मूलग्रन्थ की भाषा होइ तौ पूरण करें। उनकी बुद्धि बड़ी थी यातें बिना मूलग्रन्थ के आश्रय उनने किया। हमारी एती बुद्धि नाहीं । कैसे पूरण करें।"
"इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि उस समय के विद्वान् स्वतन्त्र रचना के लिए अपने आपको
१. देखिए इसी संस्करण के पृष्ठ २६, ११२, १२९, १३६, १७०, १९१, १९६, २१८, २७७ पर स्वयं पण्डितजी द्वारा लिखे गये वाक्यखण्ड (आगे वर्णन करेंगे, आगे कहेंगे आदि) - जिनसे उनकी लेखनयोजना का संकेत मिलता है. परन्तु जिसे वे लिख नहीं पाये ।
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अधिकारी न पाते थे। पद्मपुराण, हरिवंशपुराण आदि ग्रन्थों के सफल टीकाकार श्री पंडित दौलतरामजी टोडरमलजी के समकालीन विद्वान थे किन्तु टोडरमलजी के स्वर्गारोहण के पश्चात् उनके अधूरे ग्रन्थों में से वे पुरुषार्थसि पाय की ही टीका पूरी कर सके। मोक्षमार्ग-प्रकाशक को उन्होंने भी पूरा नहीं किया।
-~मथुरा संस्करण / प्रस्तावना | पृष्ठ २ ब्र. शीतलप्रसादजी का प्रयास :
पं. टोडरमलजी के इस अधूरे अनुष्ठान को पूरा करने का एक प्रयास १९३० में ब्र. शीतलप्रसादजी ने किया था। उन्होंने श्री प्रेमीजी के १९११ के संस्करण के माध्यम से मोक्षमार्गप्रकाशक का अध्ययन किया और स्वयं पं, टोडरमलजी के संकेतों के अनुसार विष्य निर्धारित करके छोटे आकार के ३४४ पृष्ठों के कलेवर में 'मोक्षमार्ग-प्रकाशक-द्वितीय भाग' की रचना करके इस अधूरे ग्रन्थ को पूर्ण करने का दावा किया। शायद अपने लेखन को एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की श्रेणी में रखना भी ब्रह्मचारीजी का लक्ष्य रहा हो क्योंकि उन्होंने इसमें नये सिरे से सम्यग्दर्शन, देव-शास्त्र-गुरु और सात तत्त्वों का सविस्तार वर्णन किया। अंतिम दो सौ पृष्ठों में करणानुयोग के विषय का निरूपण करके उन्होंने कुछ संदृष्टियाँ प्रस्तुत की हैं जो महत्त्वपूर्ण कही जा सकती हैं। परन्तु इस पुस्तक से बात कुछ बनी नहीं। पण्डितजी का संकल्प जैसा सर्वांग, परिपूर्ण और विशाल था, उसके आगे ब्रह्मचारीजी का प्रयास एक बौना सा प्रयास ही रहा।
ब्र.शीतलप्रसादजी अपने सुधारक विचारों के लिए विख्यात हो चुके थे। उनके विधवा-विवाह समर्थक होने के कारण समाज में उनका विरोध भी होने लगा था। इसी पृष्ठभूमि में जब उनके द्वारा मोक्षमार्ग-प्रकाशक का द्वितीय भाग लिखने की घोषणा हुई तो उसका विरोध भी हुआ। ग्रन्थ के प्रकाशन के पूर्व ही "जैन गजट'' में उसके विरोध में कुछ लेख आदि प्रकाशित हुए और इन्दौर की महिला परिषद् ने ग्रन्थ के विरोध में एक प्रस्ताव भी पारित किया। परन्तु ब्रह्मचारीजी ने विरोध की आवाज को अनसुना करते हुए ग्रन्थ को सूरत से प्रकाशित किया और 'जैन-मित्र' के ग्राहकों को नि:शुल्क भेंट कराया।
भूमिका में ब्रह्मचारीजी ने अपनी लघुता और पं. टोडरमलजी की महत्ता को स्वीकार करते हुए इसे मात्र एक वैकल्पिक प्रयास कहा था परन्तु उनके लेखन ने पं. टोडरमलजी के संकल्प के शायद शतांश को भी पूरा नहीं किया। इसीलिए उनकी वह रचना काल के गाल में विलीन होकर रह गई। फिर दुबारा उसकी कोई आवृत्ति निकली हो ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला। मोक्षमार्ग-प्रकाशक में और उसके इस द्वितीय भाग में उतना ही अंतर था जितना अंतर आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी और ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी में था।
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श्रीमद राजचन्द्र का मोक्षमार्ग प्रकाश :
यह पुस्तक श्री राज-सौभाग सत्संग मण्डल, सायला (सौराष्ट्र) से १९८२ में प्रकाशित हुई है। देखने पर पता चला कि यह श्रीमद्जी के कतिपय पत्रों का संकलन मात्र है। पं. टोडरमलजी के मोक्षमार्ग-प्रकाशक से इसका कोई साम्य, सम्बन्ध या समतुल्यता नहीं है। यह संस्करण और विशेषार्थ का औचित्य :
__ मोक्षमार्ग-प्रकाशक निर्विवाद रूप से एक अधूरा ग्रन्थ माना गया है। यदि पण्डितजी का वर्ण्य विषय मोक्षमार्ग या रत्नत्रय था तो उसमें से सम्यग्दर्शन की चर्चा ही नवें अध्याय से प्रारम्भ हो पाई है। जब हम पाते हैं कि यह प्रारम्भिक अध्याय ही अधूरा छूट गया, तब हमें यह कहना भी उचित प्रतीत होता है कि ग्रन्थ के आठों अध्याय मात्र उसकी भूमिका ही हैं। उससे ग्रन्थ की रूपरेखा तो स्पष्ट होती है, परन्तु उसके वर्ण्य-विषय का विस्तार सामने नहीं आता।
आगमनिष्ठ अध्येता विद्वानों के पास से ही यह न टिनाई रही है जिसम्पूर्ण लिहार के अभाव में मोक्षमार्ग-प्रकाशक के कतिपय विवेचन एकान्त का पोषण करते और आगम के विरोध में स्थापित प्रतीत होते हैं। आगम के आलोक में उनका परीक्षण करके, जब तक उन्हें विवक्षापूर्वक स्पष्ट न किया जाये, तब तक वे स्थल जिनवाणी के हार्द को प्रकट करने में सफल नहीं होते। कहीं-कहीं उनके आधार पर संशय या विपर्यास की भी स्थिति निर्मित हो जाती है। यद्यपि इसमें ग्रन्थकार का प्रमाद जरा भी नहीं है, परन्तु प्रमुखता से दो ऐसे कारण रहे हैं जिनसे स्वयमेव ऐसे प्रसंग बनते गये लगते हैं।
सरलमति पाठकों के लिए भ्रान्तियों की सम्भावनाएँ शेष रह जाने में पहला कारण तो ग्रन्थ की अपूर्णता ही रहा है। किसी भी विषय को अतिसंक्षेप में निर्णयात्मक ढंग से कह देना अलग बात है और आगम के आलोक में उसे विस्तार से समझाकर समस्त विवक्षाओं के साथ तालमेल बिठाकर निरूपण करना कुछ अलग बात है। इसीलिए कुछ स्थानों पर सामान्य रूप से कही गई बातें इसलिए प्रश्नचिह्नांकित हो गई क्योंकि उनका विस्तार नहीं हुआ और उस कथन की सारी विवक्षाएँ सामने नहीं आ पाई। इसका एक कारण और रहा कि पण्डितजी के सामने षट्खण्डागम नहीं था। प्रथमानुयोग को छोड़कर शेष तीनों अनुयोगों को जैसी सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्ररूपणाधवल-जयधवल और महाधवल महाग्रन्थों में हुई है, वैसी सूक्ष्मता से वह प्ररूपणा पण्डितजी के सामने नहीं थी।
__ स्खलनाओं और अपूर्णताओं का दूसरा सबसे बड़ा कारण यह रहा कि ग्रन्थ का वास्तविक प्रारम्भ करके, लिखते-लिखते अकस्मात् उनका प्राणहरण हो गया। उन्हें एक बार भी अपना लिखा बांचने का अवसर नहीं मिला।
लेखक कितना ही प्रबुद्ध और अम्यस्त हो पर उसे अपने लेखन में संशोधन और परिमार्जन करने की आवश्यकता होती ही है। एक बार पढ़ने पर ही लेखक अपनी रचना की पूर्णता-अपूर्णता और दोष-हीनता की परख कर पाता है। हर लेखक को यह करना ही पड़ता है और यही "पुनरवलोकन'
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उसकी रचना को प्रस्तुति के योग्य बनाता है। दुर्भाग्य से पण्डित टोडरमलजी को मोक्षमार्ग प्रकाशक का जितना भाग वे लिख सके, उस अपने लेखन के पुनरवलोकन का अथवा उसकी कमियों और खामियों को जाँचने-परखने और सुधारने का अवसर नहीं मिला। यदि वे प्रकरण पूरा कर पाते तो निश्चित ही उसका पुनरवलोकन करते और उसमें आवश्यक सुधार भी करते। यह लेखन का सामान्य नियम है।
सर्वश्री पं. नाथूराम प्रेमी, पं. युगलकिशोर मुख्तार, पं. परमानन्द शास्त्री, पं. कैलाशचन्द शास्त्री, पं. राजेन्द्रकुमार और पं. लालबहादुर शास्त्री प्रभृति विद्वानों ने अध्येताओं की इस कठिनाई को समझा और उसके प्रतिकार की आवश्यकता का भली भाँति अनुभव किया। उन सभी विद्वानों के चिन्तन का ही सुफल था कि मथुरा संघ से १९४८ में प्रकाशित लालबहादुरजी शास्त्री वाले संस्करण में ग्रन्थ के प्रश्नचिह्नांकित प्रसंगों को स्पष्ट करने के लिए ग्रन्थ के अन्त में ४४ पृष्ठों का एक परिशिष्ट जोड़ा गया। इस परिशिष्ट में २०-२२ प्रसंगों पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया। परन्तु ये प्रसंग प्राय: करणानुयोग से ही सम्बन्धित रहे। दूसरी बात यह रही कि धवल ग्रन्थों के अध्ययन का लाभ इन टिप्पणियों में पूरी तरह समाहित नहीं हो पाया। कहीं-कहीं तो ऐसा लगा कि स्पष्टीकरण ने प्रसंग को कुछ और अधिक जटिलता प्रदान कर दी है।
प्रस्तुत संस्करण मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ का एक नवीन संस्करण है। इसकी विशेषता यह है कि इसके सम्पादन हेतु हमने टोडरमलजी की ही हस्तलिखित मूल प्रति की फोटोस्टेट कॉपी को प्रामाणिक प्रति माना है। मूल में सर्वत्र पण्डित टोडरमलजी के वाक्यों को एक अक्षर प्रमाण भी परिवर्तन किये बिना ज्यों का त्यों रखा है। मात्र इतनी विशेषता है कि हमने इसमें यथास्थान विशेष (विशेषार्थ ) संकलित कर दिये हैं। ऐसे कुल ३६ विशेषार्थ हैं। अनेक पादटिप्पण भी दिये गये हैं। ये विशेषार्थ या तो उस विवक्षित विषय को स्पष्ट करने, खुलासा करने के लिए संकलित किये गये हैं या फिर ग्रन्थान्तरों का तत्सम्बन्धी मतान्तर दिखाने हेतु या फिर श्रद्धेय लेखक द्वारा सूक्ष्मतम विषय को स्पष्ट न करने से भी विशेषार्थ संकलित किया गया है। इस संस्करण में पं. लालबहादुरजी शास्त्री के टिप्पणवाले प्रसंगों को भी आधार नहीं बनाया गया है क्योंकि इस बीच के दीर्घ अन्तराल में, . धवलादि ग्रन्थों के प्रकाशन- अध्ययन- वाचन और प्रचार-प्रसार से अनेक विषयों की जटिलताएँ स्वयमेव दूर हो चुकी हैं तथा मथुरा संस्करण के अनेक टिप्पण विषय को विस्तार ही देते हैं। इस संस्करण के 'विशेष' की प्रस्तुति लालबहादुरजी की टिप्पणियों से कुछ अलग हट कर अपनी विशेषता लिये हुए है। दोनों में प्रमुख अन्तर इस प्रकार है
(i) मथुरा संस्करण में टिप्पण अलग पृष्ठों पर ग्रन्थ के अन्त में दिये गये हैं, जबकि इस संस्करण में जहाँ वांछित समझे गये वहीं 'विशेष' शीर्षक देकर, खड़ी बोली में मूलपाठ से भिन्न बड़े टाइप में। इस प्रकार विषय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया हैं कि पाठक स्वाध्याय के साथ-हीसाथ विषय को सही सन्दर्भ में समझ कर आगे बढ़ सके।
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(ii) इस संस्करण में सभी विशेषार्थ आगम के सन्दर्भ, ग्रन्यनाम, संस्करण, श्लोक तथा पृष्ठ संख्या सहित वहीं के वहीं दे दिये हैं। इससे स्वाध्याय की धारा खण्डित नहीं होती।
(iii) मथुरा संघ के संस्करण में कुल २१ टिप्पण जोड़े गये थे। प्रस्तुत संस्करण में ३६ स्थानों पर 'विशेष' शीर्षक के अन्तर्गत प्रकरण का खुलासा प्रस्तुत किया गया है, अधिकांश प्रकरण नये हैं।
___ संकलित विशेषार्थों में से कतिपय पूर्व प्रकाशित हैं और कतिपय पहली बार प्रखर स्वाध्यायियों की स्वाध्याय-प्रतियों से यहाँ संकलित किये गये हैं। इस संस्करण के पृष्ठ २०५ से २१२ तक का सबसे लम्बा विशेषार्थ (नय विषयक) जैन गजट दिनांक ३१.१२.६४ तथा १४.१.६५ के अंकों से संकलित है। पृष्ठ २९३ का विशेषार्थ जैन गजट के ६.६.६३ के अंक में प्रकाशित है। काललब्धि विषयक (पृ. २६६) विशेषार्थ क्रमबद्धपर्याय समीक्षा' पुस्तक के पृष्ठ १९४ से उद्धृत है। अन्तरायाम अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण होता है, मुहूर्त प्रमाण नहीं (पृ. २२५), यह टिप्पण 'मोक्षमार्ग-प्रकाशक' के सस्ती ग्रन्थमाला कमेटी के संस्करणों में बराबर छपता ही रहा है। क्षयोपशम लब्धि की परिभाषा जैन सन्देश दिनांक (१७.७.५८ अंक) में प्रकाशित हुई है। इसके अतिरिक्त 'वीतरागवाणी' मासिक के जून १९८८ से फरवरी १९८९ तक के अंकों में मोक्षमार्ग-प्रकाशक के कतिपय स्थल' शीर्षक से प्रकाशित प्रकरणों की समीक्षा को भी यहाँ विशेषार्थ के रूप में संकलित किया गया है। शेष विशेषार्थ दीर्घकालीन व्यक्तिगत व सामूहिक स्वाध्याय के अन्तर्गत उपजी जिज्ञासाओं के परिणाम हैं जो यदाकदा स्वाध्यायियों के बीच साक्षात् चर्चा से या पत्रों के माध्यम से निस्सृत हुए हैं।
ये विशेषार्थ उपयुक्त और आवश्यक हैं, पर आगे अन्य विशेषार्थ नहीं लिखे जा सकते, ऐसा सम्पादकों का कोई दावा नहीं है। सम्पादकीय दृष्टि इतनी ही रही है कि स्थापनाएँ खुलासा हों, उन पर आगम के परिप्रेक्ष्य में नयदृष्टि से विचार हो । ग्रन्थान्तरों के मत भी सामने हों।
पृष्ठ २ पर सिद्धों के आत्मप्रदेशों के आकार के सम्बन्ध में दो मत उद्धृत हैं। एक मत से उनका आकार 'चरम शरीर नैं किंचित् ऊन पुरुषाकारवत्' है। दूसरे मत से अन्तिम शरीर के दो तिहाई भाग प्रमाण आकार है। 'परमात्म प्रकाश' में एक तीसरा मत भी मिलता है -
कारण बिरहिउ सुद्ध जिउ, वड्ढइ खिरए ण जेण।
घरम सरीर पमाणु जिउ जिणवर बोल्लहिं तेण ॥५४॥ अर्थात् सिद्धों के आत्मप्रदेशों का आकार चरम शरीर प्रमाण होता है।
पृष्ठ १५९ पर कहा है – 'सो शुद्ध-अशुद्ध अवस्था पर्याय है। किन्तु सर्वथा ऐसा नहीं है। 'प्रवचनसार' में द्रव्य की अशुद्धता की बात भी कही है। पर्याय अशुद्ध है तो द्रव्य भी अशुद्ध होगा। पृष्ठ १८६ पर लिखा है -"सो एक कारण ते पुण्य बन्ध भी मानै अर संवर भी मानै सो बनै नाहीं।" सर्वथा ऐसा नहीं है क्योंकि एक ही दीपक कालिमा व प्रकाश दोनों का कारण देखा जाता है। श्री
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पूज्यपादाचार्य ने कहा भी है - "ननु च तपोऽभ्युदयाङ्गमिष्टं देवेन्द्रादिस्थानप्राप्तिहेतुत्वाभ्युपगमात्, तत् कथं निर्जराङ्ग स्यादिति? नैष दोषः, एकस्यानेक-कार्यदर्शनादग्निवत् । यथाऽग्निरेकोऽपि विक्लेदनभस्माङ्गारादिप्रयोजन उपलभ्यते तथा तपोऽभ्युदयकर्मक्षयहेतुरित्यत्र को विरोधः । शंकातप को अभ्युदय का कारण मानना इष्ट है, सोंकि वह देवेन्द्र आदि विगो दी प्राप्ति के हेतमप से स्वीकार किया गया है, इसलिए वह निर्जरा का कारण कैसे हो सकता है? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अग्नि के समान एक होते हुए भी इसके अनेक कार्य देखे जाते हैं। जैसे अग्नि एक है तो भी उसके विक्लेदन, भस्म और अंगार आदि अनेक कार्य उपलब्ध होते हैं वैसे ही तप अभ्युदय और कर्मक्षय इन दोनों का हेतु है, ऐसा मानने में क्या विरोध है।
पृष्ठ १८१ पर कहा है - "भक्ति तो राग रूप है, रागतें बंध है। तातैं मोक्ष का कारण नाहीं।" "इस शुभोपयोग को बंध का ही कारण जानना, मोक्ष का कारण न जानना'' (पृ. २१७)। आचार्यों ने प्रशस्त राग को परम्परा मोक्ष का कारण माना है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं -
एसा पसत्यभूवा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं। चरिया परेत्ति भणिदा ता एव परं लहदि सोक्खं ॥२५४ प्रवचनसार॥
अर्थ : यह प्रशस्तचर्या (शुभोपयोग) श्रमणों के गौण होती है और गृहस्थों के मुख्य होती है। ऐसा जिनागम में कहा है। उसी से गृहस्थ परमसौख्य को प्राप्त होते हैं।
इसकी टीका में श्री अमृतचन्द्र सूरि कहते हैं – “गृहिणां तु समस्तविरतेरभावेन शुद्धात्मप्रकाशस्याभावात् कषायसभावात् प्रवर्तमानोऽपि स्फटिकसम्पर्केणार्फतेजस इवैधसां रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवनात्क्रमत: परमनिर्वाणसौख्यकारणत्याच मुख्यः ।
अर्थ - वह शुभोपयोग गृहस्थों के तो, सर्वविरति के अभाव से, शुद्धात्म प्रकाशन का अभाव होने से कषाय के सद्भाव के कारण प्रवर्तमान होता हुआ भी मुख्य है, क्योंकि जैसे ईंधन को स्फटिक के सम्पर्क से सूर्य के तेज का अनुभव होता है (इसीलिए वह क्रमश: जल उठता है), उसी प्रकार गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है और (इसीलिए वह शुभोपयोग) क्रमश: परम निर्वाणसुख का कारण होता है।
पृष्ठ २१८ पर लिखित यह कथन "तातै मिथ्यादृष्टी का शुभोपयोग तो शुद्धोपयोग को कारण है नाहीं।' यह जिज्ञासा पैदा करता है कि क्या मिथ्यादृष्टि के शुभोपयोग सम्भव है? जयसेनाचार्य प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति १/९ में लिखते हैं-मिथ्यात्व-सासादन-मिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभोपयोग: तदनन्तरमसंयतसम्यग्दृष्टि-देशविरत-प्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये तारतम्येन गुभोपयोग:, तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तगुणस्थानषट्के तारतम्येन शुद्धोपयोगः, तदनन्तरं सयोग्ययोगीजिनगुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति भावार्थः ॥१-९॥
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यद्यपि आगे चलकर पण्डितजी ने स्वयं भी इसका खुलासा कर दिया है कि यहाँ उपयोग से उनका तात्पर्य केवलीज्ञानगम्य परिणामों से नहीं, छद्मस्थ के ज्ञानगम्य मन-वचन-काय की चेष्टा से है। अर्थात् वे योग की बात करते हैं, उपयोग की नहीं, इससे प्रकरण स्पष्ट हो जाता है।
उपर्युक्त स्थापनाओं पर अनेक बार चर्चा, परिचर्धा, वाद-विवाद होते रहे हैं, आज भी हैं। 'वादे वादे जायते तत्त्वबोधः।' पर इन सबको सम्मिलित-संकलित करने से ग्रन्थ का कलेवर बढ़ जाता अत: ऐसी लम्बी चर्चाओं को छोड़कर मात्र ३६ विशेषार्थ ही संकलित किये गये हैं जो ग्रन्थ के मात्र ३० पृष्ठों में ही आ गये हैं।
___यहाँ पाठकों के मन में यह प्रश्न सहज ही उठ सकता है, उठना भी चाहिए कि क्या पण्डित टोडरमलजी के लेखन में कोई कमी है या कोई ऐसी त्रुटियाँ हैं जिनके निराकरण के लिए आज के विद्वानों को उनके लेखन में टिप्पण या विशेषार्थ जोड़ने पड़ रहे हैं?
इस स्वाभाविक प्रश्न के उत्तर में इतना ही कहा जा सकता है कि मोक्षमार्ग-प्रकाशक की रचना-संयोजना इतने बड़े फलक पर रेखाङ्कित की गई थी जिसमें पं. टोडरमलजी ने समूचे मोक्षमार्ग को लोकभाषा में प्रस्तुत करने का ऐतिहासिक संकल्प किया था। दुर्भाग्य से वे अपने संकल्प की आंशिक पूर्ति भी नहीं कर पाये और उनकी पर्याय पूरी हो गई। इस ग्रन्थ का अपूर्ण रह जाना ही अपने आप में एक बड़ी कमी है, जिसे पूरा करने का कोई उपाय हमारे पास नहीं है। कई विषय ऐसे हैं जिनकी व्याख्याओं को वांछित विस्तार नहीं मिल पाने के कारण उनमें कतिपय भ्रान्तियों की आशंका को स्थान मिलता है।
ऐसी स्थिति में, ग्रन्थकार के हार्द को समझने के लिए और उसके वर्ण्यविषय को सही सन्दों सहित सूक्ष्मता से जानने के लिए अनेक स्थलों पर कुछ स्पष्टता लाना आवश्यक समना गया, इसी प्रयोजन से प्रस्तुत संस्करण प्रकाशित किया गया है। हमारा यह प्रयास न तो अधूरे ग्रन्थ को पूरा करने के लिए हुआ है, न ही उसमें त्रुटियाँ निकालकर उनका परिमार्जन करने के लिए हुआ है। यह तो पण्डितजी के कथन को आगम की विवक्षाओं और प्रमागों के आलोक में समझने का एक लघु प्रयत्न मात्र है।
किसी भी ग्रन्थकार के लेखन में किसी विशेष स्थल को अधिक स्पष्ट करने के लिए टिप्पण लिखने की परम्परा अतिप्राचीन और मान्य परम्परा है। अनेक बड़े-बड़े आचार्यों के लेखन पर इस प्रकार के टिप्पण परवर्ती आचार्यों ने लिखे हैं और शास्त्रों में उन्हें मान्य किया गया है। पूज्यपाय स्वामी की 'सर्वार्थसिद्धि' टीका के अनेक स्थलों पर सैकड़ों वर्षों बाद आचार्य प्रभाचन्द्र ने टिप्पणी लिखी थी। पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री द्वारा अनूदित, सम्पादित होकर जब यह ग्रन्थ भारतीय ज्ञानपीठ से पहली बार प्रकाशित हुआ तब ये टिप्पण इसमें नहीं दिये गये। परन्तु उनकी उपयोगिता देखते हुए पं. कैलाशचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री ने दूसरे संस्करण में उनका समावेश किया जो अब तक बराबर छप रहे हैं। निश्चित ही उन टिप्पणियों से सम्बन्धित प्रकरणों को समझने में आसानी होती है।
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इस संस्करण में संकलित-सम्पादित विशेषार्थों का औचित्य तर्क या परम्परा से नहीं समझाया जा सकता। अनाग्रही मन मे स्वाध्याय करके उसे समझा अवश्य जा सकता है। पूर्वाग्रह रहित होकर जो भी अध्येता इन सारे स्थलों का अवलोकन-मनन करेंगे, उन्हें प्रस्तुत विशेषार्थों का औचित्य भर नहीं, वरन् उनकी महत्ता और अनिवार्यता भी सहन ही समझ में आ जायेगी। पाठकों से हमारा अनुरोध है कि वे इस सत्प्रयास को इसी भावना से ग्रहण करें, किसी भी दृष्टि से उसे अन्यथा ग्रहण न करें। फिर भी चिन्तन का आकाश सबके लिए खुला है, सदा के लिए खुला है। .
हमें विश्वास है कि 'मोक्षमार्ग-प्रकाशक' का यह संस्करण इस ग्रन्थ की लोकप्रियता में अवश्य वृद्धि करेगा। फिर भी यदि किसी भव्यात्मा को हमारे इस प्रयत्न से किसी प्रकार का मानसिक क्लेश पहुँचा हो तो उसके लिए हम उनसे सविनय क्षमा चाहते हैं। स्वयं पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं
'सावधानी करते भी कहीं सूक्ष्म अर्थ का अन्यथा वर्णन होय जाय तो विशेष बुद्धिमान होइ सो सँवारि करि शुद्ध करियो, यह मेरी प्रार्थना है।'' (पृष्ठ १३)
आशा है, प्रबुद्ध पाठकों के बीच, प्रखर स्वाध्यायियों के बीच इस संस्करण का सम्मान होगा। इसके माध्यम से पण्डित टोडरमलजी के इस कृतित्व को अधिक सार्थकता पूर्वक पढ़ा समझा जायेगा और अल्पकाल में ही इस संस्करण की पुनरावृत्ति करने की आवश्यकता पड़ेगी।
__ इस संस्करण के सम्बन्ध में पूज्य आचार्यों, मुनिराजों, आर्यिकाओं और विद्वानों ने अपने आशीर्वाद/अभिमत/अनुशंसा/प्रतिक्रिया भेजकर हमें अनुगृहीत किया है, एतदर्थ हम उनके हृदय से आभारी हैं।
ग्रन्थ के सम्पादन हेतु पं. टोडरमलजी की ही हस्तलिखित मूल प्रति की फोटोस्टेट कॉपी विद्वद्वर श्री राजमलजी जैन, भोपाल ने बड़ी कृपा करके हमें भेजी थी। एतदर्थ हम उनके आभारी
ग्रन्थ-प्रकाशन में समर्पित भाव से सहयोग करने वाले सभी सहयोगी हमारे हार्दिक धन्यवाद के पात्र हैं। अर्थ-सहयोग प्रदान करने वाले सभी उदार दातारों के हम अतिशय आभारी हैं।
पण्डित नीरज जैन, सतना डॉ. चेतनप्रकाश पाटनी, जोधपुर पण्डित हंसमुख जैन, धरियावद
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आचार्यकल्प पं. टोडरमल जी का |
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जीवन परिचय
महाकवि आशाधर के अनुपम व्यक्तित्व की तुलना करनेवाला व्यक्तित्व आचार्यकल्प पं. टोडरमल जी का है। इन्हें प्रकृतिप्रदत्त स्मरणशक्ति और मेधा प्राप्त थी । एक प्रकार से ये स्वयंबुद्ध थे । इनका जन्म जयपुर में हुआ था । पिता का नाम जोगीदास और माता का नाम रमा या लक्ष्मी था । इनकी जाति खण्डेलवाल और गोत्र गोदीका था । ये शैशव से ही होनहार थे । गृढ़-से-गृढ़ शंकाओं का समाधान इनके पास मिलता था । इनकी योग्यता एवं प्रतिभा का ज्ञान तत्कालीन साधर्मी भाई रायमान ने इन्द्रध्वज पूजा के निमंत्रण पत्र में जो उद्गार प्रकट किये हैं उनसे स्पष्ट हो जाता है । इन उद्गारों को न्यों-का-त्यों दिया जा रहा है
"यहाँ घणां भायां और धणी बायां के व्याकरण व गोम्मटसार जी की चर्चा का ज्ञान पाइए हैं । मारा ही विर्षे भाई जी टोडरमल जी के ज्ञान का क्षयोपशम अलौकिक है, जो गोम्मटसागदि गंधों की सम्पूर्ण लाख श्लोक टीका बणाई, और पाँच-सात ग्रंथों की टीका बणायवे का उपाय है । न्याय, व्याकरण, गणित, छंद, अलंकार का यदि ज्ञान पाइये है । ऐसे पुरुष महन्त बुद्धि का धारक इंकाल विर्ष होना दुर्लभ है । ताते यासू पिले सर्व सन्देह दूरि होय है । घणी लिखवा कर कहा आपणां हेत का वांछीक पुरुष शीघ आप यांसू मिलाप करो।"
इस उद्धरण से स्पष्ट है कि टोडरमलजी महान् विद्वान् थे । वे स्वभाव से बड़े नम्र थे । अहंकार उन्हें छ तक न गया था। इन्हें एक दार्शनिक का मस्तिष्क, श्रद्धालु का हृदय, साधु का जीवन और सैनिक की दृढ़ता मिली थी। इनकी वाणी में इतना आकर्षण था कि नित्य सहस्रों व्यक्ति इनका शास्त्र प्रवचन सुनने के लिए एकत्र होते थे। गृहस्थ होकर भी गृहस्थी में अनुरक्त नहीं थे। अपनी साधारण आजीविका कर लेने के बाद शास्त्रचिन्तन में रत रहते थे। उनकी प्रतिमा विलक्षण थी । इसका एक प्रमाण यही है कि इन्होंने किसी से बिना पढ़े ही कन्नड़ लिपि का अभ्यास कर लिया था।
अब तक के उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर इनका जन्म वि. सं. १७९७ है और मृत्यु सं. १८२४ है । टोडरमल जी आरंभ से ही क्रान्तिकारी और धर्म के स्वच्छ स्वरूप को हृदयंगत करनेवाले थे । इनकी शिक्षा-दीक्षा के सम्बन्ध में विशेष आनकारी नहीं है, पर इनके गुरु का नाम वंशीधर जी मैनपुरी बतलाया जाता है । वह आगरा से आकर जयपुर में रहने लगे थे और बालकों को शिक्षा देते थे । टोडरपल बाल्यकाल से ही प्रतिभाशाली थे। अतएव गुरु को भी उन्हें स्वयबुद्ध कहना पड़ा था । वि. सं. १८११ फाल्गुन शुक्ला पंचमी को १४-१५ वर्ष की अवस्था में अध्यात्मरसिक मुलतान के भाइयों के नाम चिट्ठी लिखी थी, जो शास्त्रीय चिट्ठी है । राजस्थान के उत्साही विद्वान पंडित देवीदास गोधा ने अपने सिद्धान्तसार संग्रह वचनिका ग्रंथ में इनका परिचय देते हुए लिखा
“सो दिल्ली पढ़िकर बसुवा आय पाछै जयपुर में थोड़ा दिन टोडरमल्लजी महा बुद्धिमान के पासि शास्त्र सुनने को मिल्या..........सो टोडरमलजी के श्रोता विशेष बुद्धिमान दीवान, रतनचन्दजी, अजबरायजी, तिलोकचन्दजी याटणी, महारामजी, विशेष चरचाबान ओसवाल, क्रियावान उदासीन तथा तिलोकचन्द सौगाणी, नयनचन्दजी पाटनी इत्यादि टोडरपलजी के श्रोता विशेष बुद्धिमान तिनके आगे शास्त्र का तो व्याख्यान किया !"
इस उद्धरण से टोडरमलजी की शास्व-प्रवचन शक्ति एवं विद्वता प्रकट होती है । आरा सिद्धान्त भवन में संगृहीत शान्तिनाथपुराण की प्रशस्ति में टोडरमलजी के सम्बन्ध में जो उल्लेख मिलता है उससे उनके
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हुई । मेरी दृष्टि में सिद्धान्त ग्रंथों की प्रमाणिकता सत्य तथ्य को प्रस्तुत करने से ही है । अतः सम्मतियों का ब्यौरा देना मैंने उचित नहीं समझा । यह महान आध्यात्मिक ग्रंथ है और विशेषार्थ देकर इसकी मौलिकता को द्विगुणित कर हमारे सम्पादक मण्डल ने कल्याणकारी कार्य किया है, परमपूज्य १०८ मुनिराज श्री सुधासागर जी ने जो अभिमत दिया है दो टूक सत्य और यथार्थ है।
सर्वप्रथम इसका प्रकाशन १९९६ पुन: १९९८ में श्री पं. हंसमुख जी धरियावाद द्वारा किया गया था वीतरागवाणी मासिक पत्रिका को समीक्षार्थ आई प्रति का अवलोकन कर मैं बहुत प्रमुदित हुआ तथा देश के यशस्वी विद्वान श्री पं. जवाहरलाल जी सिद्धान्ताचार्य से उदयपुर में मिला और उनके इस प्रौढ़ साहस तथा विलक्षण विद्वता के लिए मैंने बहुत धन्यवाद दिया । तथा भगवान महावीर स्वामी के २६ सौवीं जयंती पर प्रकाशित होने वाले २६ ग्रंथों की सूची में इस ग्रंथ को भी जोड़ने की स्वीकृति चाही तो उन्होंने अपने साथी सम्पादक मण्डल से परामर्श कर सहर्ष स्वीकृति दी मुझे लगता है कि प्रायक के घर घर में इस प्रति का पहुँचना सम्भव हो तथा इस प्रति के आधार पर स्वाध्याय करें तो सभी प्रकार की जिज्ञासाएं हल हो जाएंगी । इस ग्रंथ की १००० प्रतियाँ भगवान इसी बागी के रस में मोहीमति में प्रकाशित २६ ग्रंथों के साथ दातारों की ओर से वितरण हेत प्रकाशित की है तथा १००० प्रतियाँ लागत मूल्यों में बिक्री हेत वीतरागवाणी ट्रस्ट द्वारा छपाई गई है आशा है इस कल्याणकारी ग्रंथ से अनेक भव्यों का उपकार होगा।
टुस्ट ग्रंथमाला के नियामक सम्पादक पं. बर्द्धमानकुमार जी जैन सोरया डा. सर्वज्ञदेव जैन एवं डा. अरिहंतशरण जैन को धन्यवाद देंगे जिन्होंने बड़ी लगन तत्परता से जैन आगम के महानतम ग्रंथों के प्रकाशन का संकल्प इस ट्रस्ट द्वारा साकार किया है । बहिन श्रीमती फूली देवी सेटी एवं बहिन इन्द्रा देवी गंगवाल तथा उनकी सहयोगी महिला मण्डल की बहिनों तथा भाई रमेशचंद्र जी जैन मेरठ को धन्यवाद देंगे जिन्होंने प्रगवान महावीर स्वामी की २६ वीं जयंती की पुनीत स्मृति में इस ग्रंथ को प्रकाशित कराने सुयोग साकार किया । तथा वीतरागवाणी ट्रस्ट द्वारा लागत मूल्य पर ही इस आध्यात्म ग्रंथ को जन जन तक पहुंचाने की सफल आकांक्षा से इसकी अतिरिक्त प्रतियाँ प्रकाशित की ।
देश के शीर्षस्थ शास्त्रीय विद्वान सिद्धान्ताचार्य पं. जवाहरलाल जी सि. शा. उदयपुर तथा सम्पादक मण्डल के प्रतिभाशाली योग्य विद्वान पं. नीरज जी सतना, डॉ, चेतनप्रकाश जी पाटनी जोधपुर एवं पं. हंसमुख जी जैन धारिवाद को धन्यवाद देंगे जिन्होंने इस ग्रंथ के सम्पादन प्रकाशन का श्रेय प्राप्त का जैन समाज का महत् उपकार किया । मेरी भावना है कि इस मोक्षमार्ग प्रकाशक का ही घर-घर में वाचन हो और प्रावक आत्मकल्याण के लिए यथेष्ट लाभ प्राप्त करें । इस प्रकाशन में मैंने आचार्यकल्प पं. टोडरमल जी का गौरव परिचय श्री समाहार कर दिया है जिससे पाठकों को उनके पवित्र जीवन की झांकी भी देखने को मिल सके । मेरे द्वारा प्रकाशित इस ग्रंथ में एक अक्षर बिन्दु का भी परिवर्तन परिवर्द्धन नहीं किया गया । प्रधान सम्पादक जी द्वारा की गई शुद्धियों को इसमें संशोधित या टिप्पणी में आवश्यक प्रकरण समाहारित किए हैं। उन्हीं को यथास्थान रखा गया है । विद्वानों द्वारा इस संस्करण का अध्ययन करने के बाद जो भी सुझाव सम्मतियाँ हमें प्राप्त होगी और हमारे सम्पादक मण्डल ने उचित समझा तो हम अगले संस्करण में पूर्व सम्मतियाँ का पुनः प्रकाशन जोड़ देंगे ।
आत्म कल्याण की सद्भावना से इस ग्रंथ का यह तृतीय संस्करण और वीतरागवाणी दुस्ट टीकमगढ़ द्वारा प्रकाशित प्रथम संस्करण अपने सहृदयी विद्वानों पाठकों के लिए सादर समर्पित है 1 दीपावलि, ४.११.२००२
प्रतिष्ठाचार्य पं. विमलकुमार जैन सोरया एम.ए. शास्त्री
अध्यक्ष वीतरागवाणी दस्ट रजिस्टर्ड एवं प्रधान सम्पादक वीतरागवाणी मासिक टीकमगढ़
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हिन्दी जेन प्राचीन साहित्य में आचार्य कल्प टोडरमल जी द्वारा रचित मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंच एक आध्यात्म परक दार्शनिक आगम ग्रंथ है। विद्वान लेखक का यह ग्रंथ ९ अधिकारों में लिखा गया है। जो जैनागम का सारभूत ग्रंथ है। संवत् १८२४/२५ में रचित इस ग्रंथ की इतनी लोकप्रियता :बड़ी कि हिन्दी भाषी क्षेत्र के प्रत्येक जिनालय में प्रायः इसके हस्त लिखित प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं । सन् १८९७ में श्री बाबू ज्ञानचंद्र जी जैनी लाहौर में सर्वप्रथम इसका प्रकाशन कराया था । सन् १९९१ में श्री नाथूराम जी प्रेमी के शुद्ध बूंडरी भाषा में इसका प्रकाशन कराया । १९३९ में भी दुलीचंद्र जी परवार ने कलकत्ता से, इसके बाद १९४७ में पं. डॉ. लालबहादुर शास्त्री ने ग्रंथमें वर्णित स्त्रोतों के प्रमाणों को खोज कर प्रस्तुत कर एक बहुत श्रम साध्य कार्य किया इसका प्रकाशन जैन संघ मधुरा से किया गया । इसके बाद अनेक स्थानों से दूसरे संस्करण छपे सन् १९६५-६३ से सोनगढ़ द्वारा लागत मूल्य से भी कम में इसका प्रकाशन लगभग ८० हजार प्रतियों में हुआ परंतु उसमें ५७ अगह स्खलन और परिवर्तन उन्होंने किये जिससे ग्रंथ के कतिपय प्रसंग अप्रमाणिक से हो गये ।
पापि मोक्षमार्ग प्रकाशक अधूरा ग्रंथ है । अतः लेखक की सारी विवक्षाऐं उसमें समाहित नहीं हो सकी क्योंकि वर्ण्य विषय मोक्षमार्ग या रत्नावय था तो उसमें सम्यकदर्शन की चर्चा ही नौवे आध्याय से प्रारंभ हो पाई है। और पं. टोडरमल जी का असमय देहावसान हो गया।
प्रस्तुत संस्करण के प्रकाशन का तात्पर्य यह कि किसी भी विषय को अति संक्षेप में निर्णयात्मक ढंग से कह देना अलग बात है और आगम के आलोक में उसे समस्त विवक्षाओं के साथ तालमेल बैठाकर निरूपण करमा अलग बात है । इसलिए कुछ स्थानों पर सामान्य रूप से कही गई बातें प्रश्न चिन्हित हो गई । इसका मुख्य कारण रहा है कि पं. जी के सामने षट्खण्डागम नहीं था । क्योंकि करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रष्यानुयोग की जैसी सूक्ष्माति सूक्ष्म प्ररूपणा यवल, जयपवल, महाथवल महान ग्रंथों में हुई है वैसी सूक्ष्म प्ररूपणा पण्डितजी के सामने नहीं थी।
इसके सम्पादन हेतु विद्वान सम्पादक जी ने श्री टोडरमल जी की हस्तलिखित मूल प्रति की फोटो स्टेट कापी को प्रमाणिक प्रति माना है । मूल में सर्वत्र एक अक्षर प्रमाण भी परिवर्तन किए बिना ज्यों का त्यों रखा है और यथा स्थान विशेषार्थ संकलित कर दिए हैं अनेक पाद टिप्पणी भी दिए हैं ऐसे कुल ३६ विशेषार्थ हैं। यह विशेषार्थ उपयुक्त और आवश्यक है। सम्पादकीय इष्टि इतनी ही रही है कि स्थापनाऐं खुलासा हों उन पर आगम के परिप्रेक्ष्य में नयइष्टि से विचार हो तथा ग्रंथों के मत भी सामने हों । ग्रंथकार के हार्द को समझने के लिए और उसके वयं विषय को सही सन्दर्भो सहित सूक्ष्पता से जानने के लिए अनेक स्थलों पर कुछ स्पष्टता लामा आवश्यक समझा गया। इसी प्रयोजन हेतु प्रस्तुत संस्करण प्रकाशित किया गया है । पंडित जी के कथन को आगम की विवक्षाओं और प्रमाणों के आलोक में समझने का एक लघु प्रयाल मात्र है। ऐसा सम्पादक जी का मत है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक के इस विशेषार्थ सहित सम्पादन के संबंध में देश के महान आचार्यों में आचार्य श्री विमलसागर जी, आचार्य श्री बर्द्धमानसागर जी आचार्य श्री आर्यनंदी जी, आचार्य श्री सुमतिसागर जी, आचार्य श्री सम्भवसागर जी, आचार्य श्री अभिनंदन सागर जी, आचार्य श्री विरागसागर जी, आचार्य श्री भरतसागर जी, उपाध्याय श्री गुप्तिसागर जी, मुनि श्री कामकुमारनंदी जी, मुनि श्री ब्रह्मानंद जी, मुनि श्री श्रुतसागर जी, आर्यिका विशुद्धमति जी, शु. शीतलसागर जी, ब्र. विद्युल्लता जी, डॉ. दरबारीलाल जी कोठिया, डॉ. उदयचंद जी सर्वदर्शनाचार्य, डॉ. पं. पन्नालाल जी सा. आ., प्रोफेसर खुशालचंद जी गोरावाला, पं. श्री रतनलाल जी शास्त्री, पं. श्री सागरमल जी एवं पं. श्री शिवचरणलाल जी की सम्पतियाँ ग्रंथ के प्रथम द्वितीय संस्करण में प्रकाशित
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साहित्यिक व्यक्तित्व पर पूरा प्रकाश पड़ता है ।
माता पिता की एकमात्र सन्तान होने के नाते टोडरमलजी का बचपन बड़े लाड़-प्यार में बीता । बालक की व्युत्पन्नमति देखकर इनके माता-पिता ने शिक्षा की विशेष व्यवस्था की और वाराणसी से एक विद्वान् को व्याकरण, दर्शन आदि विषयों को पढ़ाने के लिए बुलाया । अपने विद्यार्थी की व्युत्पन्नमति और स्मरण शक्ति देखकर गुरुजी भी चकित थे । टोडरमल व्याकरण सूत्रों को गुरु से भी अधिक स्पष्ट व्याख्या करके सुना देते थे । छः मास में ही इन्होंने जैनेन्द्र व्याकरण को पूर्ण कर लिया।
अध्ययन समाप्त करने के पश्चात् इन्हें धनोपार्जन के लिए सिंहाणा जाना पड़ा। इससे अनुमान लगता है कि इस समय तक इनके पिता का स्वर्गवास हो चुका था। वहाँ भी टोडरमल जी अपने कार्य के अतिरिक्त पूरा समय शास्त्र स्वाध्याय में लगाते थे। कुछ समय पश्चात् रायमल्ल जी भी शंका-समाधानार्थ सिंघाणा पहुँचे और इनकी नैसर्गिक प्रतिभा देखकर इन्हें 'गोम्मटसार' का भाषानुवाद करने के लिए प्रेरित किया । अल्प समय में ही इन्होंने इसकी भाषाटीका समाप्त कर ली। मात्र १८-१९ वर्ष की अवस्था में ही गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणस्तार एवं त्रिलोकसार के ६५००० श्लोकप्रमाण की टीका कर इन्होंने जनसमूह में विस्मय भर दिया |
सिंघाणा से जयपुर लौटने पर इनका विवाह सम्पन्न कर दिया गया। कुछ समय पश्चात् दो पुत्र उत्पन्न हुए। बड़े का नाम हरिशचन्द्र और छोटे का नाम गुमानीराम था। इस समय तक टोडरमलजी के व्यक्तित्व का प्रभाव सारे समाज पर व्याप्त हो चुका था और नारों ओर होने की यहाँ उन्होंने समाज-सुधार एवं शिथिलाचार के विरुद्ध अपना अभियान शुरू किया। शास्त्रप्रवचन एवं ग्रंथनिर्माण के माध्यम से उन्होंने समाज में नई चेतना एवं नई जागृति उत्पन्न की। इनका प्रवचन तेरहपंथी बड़े मन्दिर में प्रतिदिन होता था, जिसमें दीवान रतनचन्द, अजबराय, त्रिलोकचन्द महाराज जैसे विशिष्ट व्यक्ति सम्मिलित होते थे। सारे देश में उनके शास्त्रप्रवचन की धूम थी
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टोडरमल का जादू जैसा प्रभाव कुछ व्यक्तियों के लिए असह्य हो गया। वे उनकी कीर्त्ति से जलने लगे और इस प्रकार उनके विनाश के लिए नित्य प्रति षड्यंत्र किया जाने लगा। अन्त में वह षड्यंत्र सफल हुआ और युवावस्था में यौवन की कीर्ति अन्तिम चरण में पहुँचने वाली थी कि उन्हें मृत्यु का सामना करना पड़ा। सं. १८२४ में इन्हें आततायियों का शिकार होना पड़ा और हँसते-हँसते इन्होंने मृत्यु का आलिंगन किया ।
रचनाएँ
1
टोडरमलजी की कुल ११ रचनाएँ हैं, जिनमें सात टीकाग्रंथ और बार भौलिक ग्रंथ हैं। मौलिक ग्रंथों में १. मोक्षमार्गप्रकाशक, २. आध्यात्मिक पत्र, ३. अर्थसंदृष्टि और ४. गोम्मटसारपूजा परिगणित हैं। टीकाग्रंथ निम्नलिखित हैं:
१. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड )- सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका । यह सं. १८१५ में पूर्ण हुई ।
२. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड ) ३. लब्धिसार
35
"
31
टीका सं. १८९८ में पूर्ण हुई ।
४. क्षपणासार वद्यनिका सरस है ।
५. त्रिलोकसार इस टीका में गणित की अनेक उपयोगी और विद्वसापूर्ण चर्चाएँ की गई हैं ।
६. आत्मानुशासन- यह आध्यात्मिक सरस संस्कृत ग्रंथ है। इसकी वचनिका संस्कृत टीका के आधार पर
७. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय- इस ग्रंथ की टीका अधूरी ही रह गई है।
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मौलिक रचनाएँ
१. अर्थसंदृष्टि, २. आध्यात्मिक पत्र, ३. गोम्मटसारपूजा और ४. मोक्षमार्ग प्रकाशक ।
इल समस्त रचनाओं में मोक्षमार्गप्रकाशक सबसे महत्वपूर्ण है । यह ९ अध्यायों में विभक्त है और इसमें जैनागम का सार निबद है। इस ग्रंथ के स्वाध्याय से आगम का सम्यग्जान प्राप्त किया जा सकता है। इस ग्रंथ के प्रथम अधिकार में उत्तम सुख प्राप्ति के लिए परम इष्ट अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साथु का स्वरूप विस्तार से बतलाया गया है। पंचपरमेष्ठी का स्वरूप समझने के लिए यह अधिकार उपादेय है। द्वितीय अधि कार में संसारावस्था का स्वरूप वर्णित है । कर्मबन्धन का निदान, कर्मों के अनादिपन की सिद्धि, जीव-कर्मों की भिन्नता एवं कचित् अभिन्नता, योग से होनेवाले प्रकृति-प्रदेशबन्ध, कषाय से होनेवाले स्थिति और अनुभाग बन्ध, कर्मों के फलदान में निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध, द्रव्यकर्म और भावकर्म का स्वरूप, जीव की अवस्था आदि का वर्णन है।
तृतीय अधिकार में संसार-दुःख तथा मोक्षसुख का निरूपण किया गया है। दुःखों का मूल कारण मिथ्यात्य और मोहजनित विषयाभिलाषा है । इसी से चारों गतियों में दुःख की प्राप्ति होती है । चौथे अधिकार में मिध्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का निरूपण किया गया है । इष्ट-अनिष्ट की मिथ्याकल्पना राग-द्वेष की प्रवृत्ति के कारण होती है; जो इस प्रवृत्ति का त्याग करता है उसे सुख की प्राप्ति होती है ।
पंचम अधिकार में विविधमत-समीक्षा है । इस अध्याय से पं. टोडरमल के प्रकाण्ड पाण्डित्य और उनके विशाल ज्ञानकोश का परिचय प्राप्त होता है । इस अध्याय से यह स्पष्ट है कि सत्यान्वेषी पुरुष विविध मतों का अध्ययन कर अनेकान्तबुद्धि के द्वारा सत्य प्राप्त कर लेता है ।
बल अधिकार में सत्यतातिरोधी असन्यायतनों के पसरूप का विस्तार बतलाया गया है। इसमें यही बतलाया गया है कि मुक्ति के पिपासु को मुक्तिविरोधी तत्वों का कभी सम्पर्क नहीं करना चाहिए । मिथ्यात्वभाव के सेवन से सत्य का दर्शन नहीं होता ।
सप्तम अधिकार में जैन मिथ्यादृष्टि का विवेचन किया है। जो एकान्त मार्ग का अबलम्बन करता है वह ग्रंथकार की दृष्टि में मिथ्याइष्टि है। रागादिक का घटना निर्जरा का कारण है और रागादिक का होना बन्ध का । जैनाभास, व्यवहाराभास के कथन के पश्चात्, तत्त्व और ज्ञान का स्वरूप बतलाया गया है ।
अष्टम अधिकार में आगम के स्वरूप का विश्लेषण किया है । प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रष्यानुयोग और चरणानुयोग के स्वरूप और विषय का विवेचन किया गया है । नवम अधिकार में मोक्षमार्ग का स्वरूप, आत्महित, पुरुषार्थ से मोक्षप्राप्ति, सम्यक्त्व के भेद और उसके आठ अंग आदि का कथन आया है ।
इस प्रकार पं. टोडरमल ने मोक्षमार्गप्रकाशक में जैनतत्त्वज्ञान के समस्त विषयों का समावेश किया है । यद्यपि उसका मूल विषय मोक्षमार्ग का प्रकाशन है। किन्तु प्रकारान्तर से उसमें कर्मसिद्धान्त, निमित्त-उपादान, स्याद्वाद-अनेकान्त, निश्चय-व्यवहार, पुण्य-पाप, देव और पुरुषार्थ पर तात्त्विक विवेचना निबद्ध की गयी है।
रहस्यपूर्ण चिट्ठी में पं. टोडरमल ने अध्यात्मवाद को ऊँची बातें कही हैं । मविकल्प के द्वारा निर्विकल्पक परिणाम होने का विधान करते हुए लिखा है
"वही सम्यकवी कदाचित् स्वरूप ध्यान करने को उद्यमी होता है, वहाँ प्रथम भेदविज्ञान स्वपर का करे, नोकर्म-द्रध्यकर्म-भावकर्म रहित केवल चैतन्यचमत्कारमात्र अपना स्वरूप जाने पश्चात् पर का भी विचार छूट जाय, केवल स्वात्मविचार ही रहता है। वहाँ अनेक प्रकार निजस्वरूप में अहंबुद्धि धरता है । चिदानन्द हूँ शुद्ध हूँ, इत्यादिक विचार होने पर सहज ही आनन्दतरंग उठती है, रोमांच हो आता है, तत्पश्चात् ऐसा विचार तो छूट
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(२०)
जाय, केवल चिन्मात्र स्वरूप भासने लगे; वहाँ सर्वपरिणाम उस रूप में एकाग्र होकर प्रवर्तते हैं; दर्शन-जानादिक का व नय-प्रमाणादिक का भी विचार विलय हो जाता है।"
__ चैतन्य स्वरूप का जो सविकल्प से निश्चय किया था, उस ही में व्याप्य-व्यापकरूप होकर इस प्रकार प्रर्वत्नता है जहाँ ध्याता-ध्येयपना दूर हो गया । सो ऐसी दशा का नाम निर्विकल्प अनुभव है। बड़े में ऐसा ही कहा है
तच्चाणेसणकाले समय बुझेहि जुत्तिमग्गेण ।
णो आराइण समये पच्चक्खो अणुहवो जम्हा ॥२६६।। शुद्ध आत्मा को नय-प्रमाण द्वारा अवगत कर जो प्रत्यक्ष अनुभव करता है वह सविकल्प से निर्विकल्पक स्थिति को प्राप्त होता है । जिस प्रकार रत्न को खरीदने में अनेक विकल्प करते हैं, जब प्रत्यक्ष उसे पहनते हैं तब विकल्प नहीं है, पहनने का सुख ही है । इस प्रकार सविकल्प के द्वारा निर्विकल्प का अनुभव होता है। इसी चिट्ठी में प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाणों के भेद के पश्चात् परिणामों के अनुभव की चर्चा की गई है । कथन की पुष्टि के लिए आगम के ग्रंथों के प्रमाण भी दिये गये है।
पं. टोडरमल पधलेखक के साथ कवि भी है । उनके कविहृदय का पता टीकाओं में रचित पद्यों से प्राप्त होता है । लब्धिसार की टीका के अन्त में अपना परिचय देते हुए लिखा है
मैं हों जीवद्रव्य नित्य चेतना स्वरूप मेरो; लग्यो है अनादि तें कलंक कर्म-मल को । वाही को निमित्त पाय रागादिक भाव भए, भयो है शरीर को मिलाप जैसे खल को ॥
रागादिक भावन को पाय के निमित पुनि, होत कर्मबंध ऐसो है बनाव कलको । ऐसे ही भ्रमत भयो मानुष शरीर जोग, बने तो बने यहाँ उपाय निज थल को ॥
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ग्रन्थ से उपल कतिपय मननीय सूत्रवाक्य
(१) बहुरि त्रिलोकविष जे अकृत्रिम जिनबिम्ब विराजे हैं मध्यलोक विर्ष विधिपूर्वक कत्रिम जिनबिम्ब विराजे हैं, जिनके दर्शनादिकतै एक धर्मोपदेश बिना अन्य अपने हित की सिद्धि जैसे लीर्थकर केवली के दर्शनादिकते होइ तैसे ही होइ, तिनि जिनबिंबनिकों हमारा नमस्कार होउ। (पृष्ट-५)
(२) अरहंतादिविष स्तवनादि रूप भाव हो है सो कषायनि की मन्दता लिये ही हो है तातें विशुद्ध परिणाम हैं। बहुरि समस्त कषाय मिटावने का साधन है, ताः शुद्ध परिणाम का कारण है। (पृष्ठ-६)
(1) इहाँ कोऊ पूछ कि प्रथम ग्रन्ध की आदि विष मंगल ही किया सो कौन कारण? ताका उत्तर - जो सुखस्यौं ग्रन्थ की समाप्तता होइ, पापकरि कोऊ विघ्न न होय, या वासः इहाँ प्रथम मंगल किया है। (पृष्ठ-७)
(४) जो जीवनि के सुख-दुःख होने का प्रबल कारण अपना कर्म का उदय है ताही के अनुसार बाम निमित्त बने हैं। (पृष्ठ-८)
(५) इस जीव का तो मुख्य कर्त्तव्य आगमज्ञान है । (पृष्ट १७) आगमज्ञान बिना और धर्म का साधन होय सके नाहीं। (पृष्ठ-२६१)
(६) रागादिक का कारण तो द्रव्यकर्म है अर द्रव्यकर्म का कारण रागादिक है। (पृष्ट-१६) (७) जिनको बन्ध न करना होय ते कषाय मति करो। (पृष्ट २५)
(८) जैसे मंत्र निमित्तकरि जलादिकविषे रोगादिक दूरि करने की शक्ति हो है वा कांकरी आदिविषै सादि रोकने की शक्ति हो है तैसे ही जीवभाव के निमित्तकरि पुद्गल परमाणुनिविर्षे ज्ञानावरणादिरूप शक्ति हो है। (पृष्ठ-२५)
(E) यहु मतिज्ञान बाह्य द्रव्य के भी आधीन जानना ..... यहु श्रुतज्ञान है सो अनेक प्रकार पराधीन जो मतिज्ञान ताके भी आधीन है, वा अन्य अनेक कारणनि के आधीन है, तात महापराधीन जानना। (पृष्ठ-२६)
(१०) श्वासोच्छ्वास जीवितव्य का कारण है। (पृष्ट-३८)
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(२२)
(११) तू यह मान कि 'मेरे अनादि संसाररोग पाइए है, ताके नाश का मोको उपाय करना'. इस विचारतें तेरा कल्याण होगा। (पृष्ट-२८) ।
(१२) जो मोहतै विषयग्रहण की इच्छा है, सोई दुःख का कारण जानना। (पृष्ठ-४३) (१३) अन्य द्रव्य का किछु वश नाहीं, जिनका वश नाहीं तिनिसों काहे को लरिये। (पृष्ठ-४८)
(१४) जो आप शुद्ध होय अर ताको अशुद्ध जान तो भ्रम अर आप कामक्रोधादिसहित अशुद्ध होय रह्या ताको अशुद्ध जानै तो भ्रम कैसे होइ। शुद्ध जानै भ्रम होइ, सो झूटा भ्रम करि आपको शुद्ध ब्रह्म माने कहा सिद्धि है? (पृष्ट-६७)
(१५) जब काल पाय काम-क्रोधादि मिटेंगे अर जानपनांकै मन इन्द्रिय का आधीनपना मिटेगा तब केवलज्ञानस्वरूप आत्मा शुद्ध होगा। (पृष्ट-१८.) .
(१६) ऐसे अपने परिणामनि की अवस्था देखि मला होय सो करना। एकान्तपक्ष कार्यकारी नाहीं । बहुरि अहिंसा ही केवल धर्म का अंग नाहीं है। रागादिकनि का घटना धर्म का अंग मुख्य है। ताते जैसे परिणामनिविषै रागादिक घटै सो कार्य करना। (पृष्ट-१३५)
(१७) अपना उपयोग जैसे निर्मल होय सो कार्य करना। सधै सो प्रतिज्ञा करनी । जाका अर्थ जानिए सो पाट पढ़ना। (पृष्ठ-१३५)
(१८) मंत्रादिक की अंचिन्त्य शक्ति है। (पृष्ठ-१३८) (१६) जिनमतविष संयम धारे पूज्यपनो हो है। (पृष्ठ-१४१)
(२०) जो रागादिक अपने न जाने आपको अकर्ता मान्या, तब रागादिक होने का भय रह्या नाहीं वा रागादिक मेटने का उपाय करना रह्या नाही, तब स्वच्छन्द होय खोटे कर्म बांधि अनन्त संसारविर्ष रुले है। (पृष्ट-१६१)
(२१) एक कार्य होने विषे अनेक कारण चाहिए है। तिनविषे जे कारण बुद्धिपूर्वक होय, तिनको तो उद्यम करि मिलावै अर अबुद्धिपूर्वक कारण स्वयमेव पिनै तब कार्यसिद्धि होय। (पृष्ठ-१६२)
(२२) तातै सर्वथा निबन्ध आपको मानना मिथ्यादृष्टि है। (पृष्ट-१६३)
(२३) केवल आत्मज्ञान ही तें तो नक्षमार्ग होइ नाहीं। सप्त तन्वनि का श्रद्धानज्ञान भए वा रागादिक दूरि किए मोक्षमार्ग होगा। (पृष्ट १६६
(२४) विना प्रतिज्ञा किये अविरत सम्बन्धी बंध पिटै नाहीं। ... तातें बने सो प्रतिज्ञा लेनी युक्त है। बहुरि प्रारब्ध अनुसारि तो कार्य बने ही है, तृ उद्यमी होय भोजनादि काहे को करें है। जो तहाँ उद्यम
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करे है, तो त्याग करने का भी उद्यम करना युक्त ही है। ...काहे को स्वच्छन्द होने की युक्ति बनावै है। बने सो प्रतिज्ञा कार व्रत धारना योग्य ही है। (पृष्ठ-१६८)
(२५) जहाँ शुद्धोपयोग होता जाने, तहाँ तो शुभ कार्य का निषेध ही है, अर जहाँ अशुभोपयोग होता जानै तहाँ शुम को उपाय करि अंगीकार करना युक्त है। (पृष्ठ-१६६)
(२६) बहुरि चौथा गुणस्थान विषै कोई अपने स्वरूप का चिन्तवन करै है, ताकै भी आस्रव बन्ध अधिक है, वा गुणश्रेणी निर्जरा नाही है। (पृष्ट १७२, १६०)
(२७) स्वद्रव्य-परद्रव्य का चिंतदननै निर्जराबंध नाहीं। रागादिक घटै निर्जरा है, रागादिक भए बन्ध है। (पृष्ठ-१७२)
(२८) ज्ञानी जननि के उपवासादि की इच्छा नाहीं है, एक शुद्धोपयोग की इच्छा है। उपवासादि किए शुखोपयोग बधै है, ताः उपवासादि करै हैं। (पृष्ठ-१८६)
(२६) मिथ्यात्व समान अन्य पाप नाहीं है। मिथ्यात्व का सद्भाव रहे अन्य अनेक उपाय किये भी मोक्षमार्ग न होय। तातै जिस-तिस उपाय करि सर्व प्रकार मिथ्यात्व का नाश करना योग्य है। (पृष्ठ-२३०)
(३०) वात्सल्य अंग की प्रधानता कारे विष्णुकुमार जी की प्रशंसा करी । इस छलकरि औरनि को ऊँचा धर्म छोड़ि नीषा धर्म अंगीकार करना योग्य नाहीं। (पृष्ठ-२३७)
(३१) जैसे गुवालिया मुनि को अग्नि कर तपाया सो करुणाः यह कार्य किया... तात याकी प्रशंसा करी। इस छलकरि औरनि को धर्मपद्धतिविष जो विरुद्ध होय सो कार्य करना योग्य नाहीं। (पृष्ठ-२३७)
(३२) करणानुयोगविषै तो यथार्थ पदार्थ जनावने का मुख्य प्रयोजन है। (पृष्ठ-२४०)
(३३) बाह्य संयम साधन बिना परिणाम निर्मल न होय सके हैं। तातै बाह्य साथन का विधान जानने को चरणानुयोग का अभ्यास अवश्य किया चाहिए। (पृष्ठ-२५१)
(३४) ताते जो उपदेश होय ताको सर्वथा न जानि लेना। उपदेश का अर्थ को जानि तहाँ इतना विचार करना, यहु उपदेश किस प्रकार है, किस प्रयोजन लिए है, किस जीव को कार्यकारी है?... (पृष्ठ-२५८)
(३५) बहुरि पुरुषार्थत उद्यम करिए है, सो यहु आत्मा का कार्य है। तातें आत्मा को पुरुषार्थकरि उद्यम करने का उपदेश दीजिए है।... जो पुरुषार्थ करि मोक्ष का उपाय करै है, ताकै सर्वकारण मिले हैं, रोग्य निश्चय करना अर वाकै अवश्य मोक्ष की प्राप्ति हो है।... जो उपदेश सुनि पुरुषार्थ करै है, सो मोक्ष
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(२४)
का उपाय करि सकै है अर पुरुषार्थ न करे है सो मोक्ष का उपाय न कर सके है। उपदेश तो शिक्षा मात्र है, फल पुरुषार्थ करे तैसा लागे । (पृष्ठ - २३७)
( ३६ ) बहुरि जब कर्म का उदय तीव्र होय, तब पुरुषार्थ न होय सकै है। ऊपरले गुणस्थाननितें भी गिर जाय है। तहाँ तो जैसा होनहार होय तैसा ही होय । परन्तु जहाँ मन्द उदय होय अर पुरुषार्थ होय सकै, तहाँ तो प्रमादी न होना- सावधान होय अपना कार्य करना । (पृष्ठ - २६६ )
( ३७ ) तत्त्वश्रद्धान ज्ञान बिना तो रागादि घटाए मोक्षमार्ग नाहीं अर रागादि घटाए बिना तत्त्वश्रद्धानज्ञानर्तें भी मोक्षमार्ग नहीं। तीनों मिले साक्षात् मोक्षमार्ग हो है । (पृष्ठ २७२ )
(३८) पहिले तो देवादिक का श्रद्धान होय, पीछे तत्त्वनि का विचार होय, पीछे आपा पर का चितवन करे, पीछे केवल आत्मा को चिन्तवै । इस अनुक्रम तें साधन करें तो परम्परा सांचा मोक्षमार्ग को पाय कोई जीव सिद्धपद को भी पावै । (पृष्ठ २८३)
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( ३६ ) सम्यक्त्व का अर्थी इनि कारणनि को मिलावे, पीछे घने जीवनिकै तो सम्यक्त्व की प्राप्ति
होय ही है। काहू कै न होय तो नाहीं भी होय । परन्तु याको तो आप बने सो उपाय करना । (पृष्ठ २८४)
糖糖蛋
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* अनु
। *
विषय
पृ.सं.
विषय
पृ.सं.
पहला अधिकार (१-१७) मंगलाचरण अरहन्सों का स्वरूप सिखों का स्वरूप आचार्य का स्वरूप उपाध्याय का स्वरूप साधु का स्वरूप पूज्यत्व का कारण परमेष्ठी के स्वरूप का उपसंहार परत तथा विदेह क्षेत्रस्थ तीर्थकर जिनबिय तथा जिनवाणी दव्य चतुष्टय की अपेक्षा नमस्कार अरहन्सादिकों से प्रयोजनसिद्धि दर्शन-स्मरण से कार्यों की शिथिलता अरहन्तादि से सांसारिक प्रयोजन की सिद्धि अरहन्तादि ही परम मंगल हैं मंगलाचरण करने का कारण ग्रन्थ की प्रामाणिकता और आगम-परम्परा पहावीर से द्वादशांग का उद्भव तथा
अंगश्रुत की परम्परा अन्धकार का आगमाभ्यास और ग्रन्थरचना
का निश्चय असत्यपदरचना का प्रतिषेध बाँचने-सुनने योग्य शास्त्र वक्ता का स्वरूप श्रोता का स्वरूप 'मोक्षमार्ग-प्रकाशक' नाम की सार्थकता प्रस्तुत ग्रन्थ की आवश्यकता
* दूसरा अधिकार (१८-३८)
संसार अवस्था का स्वरूप दुःख का मूल कारण : कर्मबन्धन कर्मबन्धन का कारण जीव और कर्मों को मित्रता कर्म के आठ भेद और घातिया कों
का प्रभाव अधातिया कमों का प्रभाव नूतन बन्ध विचार स्वभाव बन्ध का कारण नहीं है
औपाधिक भाव ही नवीन बन्ध के कारण हैं। योग और उससे होने वाले प्रकृतिवन्ध,
प्रदेशवन्ध कषाय से स्थिति और अनुभाग जड़ पुद्गल परमाणुओं का यथायोग्य
प्रकृतिमा परिणमन भावों से कर्मों की पूर्ववत अवस्था
का परिवर्तन कर्मों के फलदान में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध द्रव्यकर्म और भावकर्म का स्वरूप शरीर की नोकर्म अवस्था और इसकी प्रवृत्ति नित्यनिगोद और इतर निगोद कम्यन्धन रूप रोग से जीव की अवस्था मतिज्ञान की प्रवृत्ति श्रुतज्ञान अवधिज्ञान की प्रवृत्ति और उसके भेद ज्ञान-दर्शन की पराधीनता में कर्म ही
निमित्त है मोह का उदय और मिथ्यात्व का स्वरूप चारित्रमोह से कषायभावों की प्रवृत्ति कषायों के उत्तरभेट और उनका कार्य
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(२६)
विषय
पृ.सं. | तीसरा अधिकार (३६-६१) संसार अवस्था का स्वरूप निर्देश टुःखों का मूल कारण : कर्म
३६ शक्ति हीनता से इच्छानुसार विषय न भोग |.
सकने से दुःख ज्ञानदर्शनावरण के उदय से उत्पत्र दुःख और
उसकी निवृत्ति के उपाय का मिथ्यापना ४१ दुःखनिवृत्ति का सच्या उपाय दर्शनमोह से दुःख और उसकी निवृत्ति के
उपाय का झूठापना चारित्रोह के उन से दुगा की प्राप्ति ।
तथा उसकी निवृत्ति के उपाय का झूठापना १४ अन्तराय से दुःख की प्राप्ति और उसकी
निवृत्ति का सच्चा उपाय वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र से होने वाला
दुःख और उससे निवृत्ति पायों की अपेक्षा दुःग्य एकेन्द्रिय जीवों के दुःख दो इन्द्रियादिक जीवों के दुःख नरकगति के दुःख तियंचगति के दुःख मनुष्यगति के दुःख देवगति के दुःख दुःख का सामान्य स्वरूप दुःखनिवृत्ति का उपाव सिद्ध अवस्था में दुःख के अभाव की सिद्रि ५ चौथा अधिकार (६२-७६) पिय्यादर्शन, मान, चारित्र का निरूपण मिथ्यादर्शन का स्वरूप प्रयोजन-अप्रयोजनभूत पदार्थ पिथ्यादर्शन की प्रवृत्ति
विषय मिथ्याज्ञान का स्वरूप मिथ्यानान में ज्ञानावरण कारण नहीं है मिथ्यादर्शन और ज्ञान का पौर्वापर्य मिथ्याचारित्र का स्वरूप इष्ट-अनिष्ट की कल्पना मिथ्या है रागद्वेष की प्रवृत्ति पाँचवाँ अधिकार (८०-२६) विविध मंत-समीक्षा गृहीत मिथ्यात्व का निराकरण सर्वव्यापी अद्वैत ब्रह्म का निराकरण ब्रह्म की इच्छा से जगत् के सृष्टिकर्तृत्व
का निराकरण ब्रह्म की माया का निराकरण जीवों की चेतना को ब्रह्म की चेतना
मानने का निराकरण शरीरादिक को मायारूप मानने का निराकरण तीन गुणों से तीन देवों की उत्पत्ति का
निराकरण 'लीला से सृष्टिरचना' का निराकरण 'जीवों के निग्रह-अनुग्रह के लिए सृष्टि-रचना'
का निराकरण ब्रह्मा-विष्णु-महेश का सृष्टि का कर्सा, रक्षक
और संहारकपने का निराकरण लोक की अनादिनिधनता ब्रह्म से कुलप्रवृत्ति आदि का प्रतिबोध अवतार मीमांसा श्राद्धनिषेध यज्ञ में पशुहिंसा का प्रतिषेध भक्तियोग मीमांसा ज्ञानयोग मीमांसा पवनादि साधन द्वारा ज्ञानी होने का प्रतिषेध ६६ अन्यमतकल्पित मोक्षस्वरूप की मीमांसा १००
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(२७)
पृ.सं.
क
पृ.सं.
I AM
१०४
विषय कुल अपेक्षा गुरुपने का निषेध कुधर्म का निरूपण और उसके श्रद्धानादिक
का निषेध मिथ्या व्रत, भक्ति, तपादि का निषेध आत्मघात से पर्म का निषेध जैनधर्म में कुधर्म-प्रवृत्ति का निषेध कुधर्मसेवन से मिथ्यात्वभाव
१५४ १५५ १५६
१५६
१५१
१० ११०
११२
११२
१५f.
१४
१६०
११८
१६०
विषय • मुस्लिम मत सम्बन्धी विचार
सांख्यमत निराकरण नैयायिक मत निराकरण वैशेषिक मत निराकरण मीमांसक मत निराकरण जैमिनीय मत निराकरण बौद्धमत निराकरण चार्वाकमत निराकरण अन्यमत निराकरण उपसंहार अन्य मतों से जैन मत की तुलना अन्य मत के ग्रन्थोद्धरणों से जनमत की
प्राचीनता और समीधीनता श्वेताम्बर मत निराकरण अन्यलिंग से मुक्ति का निषेध स्त्रीमुक्ति का निषेध शूद्रमुक्ति का निषेध अछरों का निराकरण केयली के आहार-नीहार का निराकरण मुनि के यस्त्रादि उपकरणों का प्रतिषेध धर्म का अन्यथा स्वरूप इंटक मत निराकरण प्रतिमाधारी श्रायक न होने की मान्यता
का निषेध मुँहपसि का निषेध मूर्तिपूजा निषेध का निराकरण छठा अधिकार (१३७-१५८)
कुदेव, कुशुरु और कुधर्म का प्रतिषेध . . कुदेव का निरूपण और उसके श्रद्धानादिक
का निषेध सूर्य-चन्द्रमादि ग्रहपूजा प्रतिषेध गौ-सादिक की पूजा का निराकरण कुगुरु का निरूपण और उसके श्रद्धानादिक
का निषेध
१२० १२१
१६३
१२२
१६८
१२४
१६६
सातवाँ अधिकार (१५६-२३०) जैन मतानुयायी मिथ्यादृष्टि का स्वरूप केवल निश्वयनयावलम्बी जैनाभास का
निभाण आत्मा के प्रदेशों में केवलज्ञान का निषेध रागादिक के मदभाव में आत्मा को
रागरहित मानने का निषेध आत्मा को कर्म-गोकर्म से अबद्ध मानने
का निषेध अपेक्षा न समझने से मिथ्याप्रवृत्ति शारत्राभ्यास की निरर्थकता का निषेध लपश्चरण वृथा क्लेश नहीं है प्रतिज्ञा न लेने का निषेध शुभोपयोग सर्वथा हेय नहीं है स्वद्रव्य और परद्रव्य के चिन्तन से निर्जन
और बन्ध का निषेध केवल व्यवहाराबलम्बी जैनाभास का
निरूपण कुल अपेक्षा थर्म मानने का निषेध परीक्षारहित आज्ञानुसारी जैनत्व का
प्रतिषेथ आजीविकादि प्रयोजनार्थ धर्मसाधन का
प्रतिषेध जैनाभासी मिथ्यादृष्टि की धर्मसाधना अरहन्तभक्ति का अन्यथा रूप गुरुभक्ति का अन्यथा रूप
१६७ १८
१३१ १३२
१७१
१३२
१७४
१७५
१७६
१३७ १४०
१७८
१० १८१ १९२
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विषय
शास्त्रभक्ति का अन्यथा रूप
तत्त्वार्थ श्रद्धान का अयथार्थपना
जीव अजीव तत्त्व के श्रद्धान का
अन्यथा रूप
आस्रव तत्त्व के श्रद्धान का अन्यथा रूप
बन्ध तत्त्व के श्रद्धान का अन्यथा रूप संवर तत्त्व के श्रद्धान का अन्यथा रूप निर्जरा तत्त्व के श्रद्धान की अयथार्थता मोक्षतत्त्व के श्रद्धा की अयथार्थता सम्यग्ज्ञान के अर्थसाधन में अयथार्थता सम्यकूचारित्र के अर्थसाधन में अयथार्थता द्रव्यलिंगी के थर्मसाधन में अन्यथापना द्रव्यलिंगी के अभिप्राय में अयथार्थपना सम्यक्त्व के सम्मुख मिथ्यादृष्टि का निरूपण
पंचलब्धियों का स्वरूप
❤ आठवाँ अधिकार (२३१-२६१)
•
उपदेश का स्वरूप प्रथमानुयोग का प्रयोजन
करणानुयोग का प्रयोजन
चरणानुयोग का प्रयोजन
द्रव्यानुयोग का प्रयोजन अनुयोगों के व्याख्यान का विधान प्रथमानुयोग में व्याख्यान का विधान
करणानुयोग में व्याख्यान का विधान चरणानुयोग में व्याख्यान का विधान द्रव्यानुयोग में व्याख्यान का विधान चारों अनुयोगों में व्याख्यान की पद्धति प्रथमानुयोग में दोषकल्पना का निराकरण करणानुयोग में दोषकल्पना का निराकरण चरणानुयोग में दोष कल्पना का निराकरण द्रव्यानुयोग में दोषकल्पना का निराकरण
पृ.सं.
(२८)
१८३
१८. ३
१८.
१८४
१८६
१८६
१८८
१६२
१६४
१६६
200
50%
२१८
२२१
२३५
२३१
२३२
२३३
२३३
२३४
२३४
२३७
२४०
२४५
२४७ २४६
२५०
२५१
२५१
•
*
•
विषय
अपेक्षाज्ञान के अभाव में आगम में दिखाई
देने वाले परस्पर विरोध का निराकरण आगमाभ्यास का उपदेश
नवमा अधिकार ( २६२-२६८ )
मोक्षमार्ग का स्वरूप
आत्मा का हित एक मोक्ष ही है सांसारिक सुख दुःख ही है
मोक्षमार्ग का स्वरूप
लक्षण और उसके दोष
सम्यग्दर्शन का सच्चा लक्षण
तत्त्व सात ही क्यों हैं
तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण में अव्याप्ति- अतिव्याप्ति असम्भव दोष का परिहार
विषयसेवन के समय सम्यक्त्वी के
श्रद्धान का विनाश नहीं निर्विकल्प दशा में भी तत्त्वार्थ श्रद्धान
पृ.सं.
દુ
૨૬ જ
२६४
मोक्षसाधन में पुरुषार्थ की मुख्यता
२६५
द्रव्यलिंगी के मोक्षोपयोगी पुरुषार्थ का अभाव २६७ द्रव्य और भावकर्म की परम्परा में पुरुषार्थ के
न होने का खण्डन
का सद्भाव सम्यक्त्व के उपाय
सम्यक्त्व के भेद और उनका स्वरूप सम्यग्दर्शन के आठ अंग
܀
२६०
२६८
२७०
२७२
२७३
२७३
२७६
२७७
२७७
२८३
२८५
२६७
फ्र विशेषार्थ
पृष्ठ सं. २, ५, ६, २०, २३, ३०, ३४,४६, ५४,५७,६८,७२, १०२, १०४, १८८, १११, १२५, १४८, १५२, १८५ १८८, १६१, २०५, २२१, २२५, २२८, २३२, २३५, २३८, २६४, २६६, २७०, २५८. २६२-२६३, २६५, २६६ ।
६०, ७४१७६ १८१, १६६,
मुख्य टिप्पण २०२, २३५, २७८, २५५ ।
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।। ॐ नमः सिद्धेभ्यः ।।
आचार्यकल्प पं. टोडरमलजी कृत मोक्षमार्ग-प्रकाशक
पहला अधिकार अथ मोक्षमार्गप्रकाशक नामा शास्त्र लिख्यते
मंगलाचरण
।। दोहा || मंगलमय मंगलकरण, वीतराग विज्ञान। नमी ताहि जाते भये, अरहतादि महान् ।।१।। करि मंगल करिही महा, ग्रंथकरन को काज।
जाते मिले समाज सब, पावै निजपदराज ॥२॥ अय मोक्षमार्गप्रकाशक नाम शास्त्रका उदय हो है। तहाँ मंगल करिये है -
णमो अरहताणं। णमो सिखाणं। णमो आयरियाण।
णमो उवमायागं । णमो लोए सव्यसाहूर्ण ।। यह प्राकृतभाषामय नमस्कारमन्त्र है, सो महामंगलस्वरूप है। बहुरि याका संस्कृत ऐसा होइ -
नमोईदयः । नमः सिम्यः । नमः आचार्येभ्यः । नमः उपाध्यायेभ्यः। नमो लोके सर्वसाधुच्यः। बहुरि पाका अर्थ ऐसा है - नमस्कार अरहंतनिके अर्थि, नमस्कार सिद्धनिकै अर्थि, नमस्कार आचार्यनिकै अथि, नमस्कार उपाध्यायनिकै अर्थि, नमस्कार लोकवि समस्तसायुनिके अर्थि, ऐसे या विष नमस्कार किया, ताते याका नाम नमस्कारमंत्र है। अब इहाँ जिनकू नमस्कार किया तिनिका स्वरूप चिंतवन कीजिये है। (जात स्वरूप जाने विना यहु जान्या नाही जाय जो मैं कौनको नमस्कार करूँ। तब उत्तमफल की प्राप्ति कैसे होय .
।
१. यह पति बरड़ा प्रति में नहीं है, संशोषित लिखित प्रतियों में है, इसी से इसे मूल में दिया गया है।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२
अरहन्तों का स्वरूप तही अशा अरहंतनिका स्वरूप विचारिये है - जे गृहस्थपनो त्यागि मुनिधर्म अंगीकार करि निजस्वभावसाधनते च्यारि धातिकमनिकौं खिपाय अनन्त चतुष्टय विराजमान भये। तहाँ अनन्तज्ञानकरि ती उग्पने अनन्त गुणपाय सहित समस्त जीवादि द्रव्यनिको युगपट विशेषपने करि प्रत्यक्ष जानै है। अनन्तदर्शनकरि तिनिकों सामान्यपने अबलोकै है। अनन्तवीर्यकरि ऐतः । पर्युक्त समयको पार है। अनन्तसुखकार निराकुल परमानन्दको अनुभवे है। बहुरि जे सर्वथा सर्व रागद्वेषादि विकारभावनिकरि रहित होय शान्तरस रूप परिणए हैं। बहुरि क्षुधा-तृषाआदि समस्तदोषनित मुक्त होइ देवाधिदेवपनाको प्राप्त भये हैं। बहुरि आयुध अंबरादिक वा अंगविकारादिक जे कामक्रोधादि निंद्यभावनिके चिह्न तिनकरि रहित जिनका परम औदारिक शरीर भया है। बहुरि जिनके वचननितै लोकविषै धर्मतीर्थ प्रयतॆ है, ताकरि जीवनिका कल्याण हो है। बहुरेि जिनके लौकिक उनी पनिळू प्रभुत्व माननेके कारण अनेक अतिशय अर नाना प्रकार विभव तिनिका संयुक्तपना गइये है। बहुरि जिनकों अपना हितके अर्थि गणधर इन्द्रादिक उत्तम जीव सेव हैं। ऐसे सर्यप्रकार पूजने योग्य श्रीअरहंतदेव हैं, तिनिकों हमारा नमस्कार होउ।
सिद्धों का स्वरूप अब सिद्धनिका स्वरूप ध्याइये है-जे गृहस्थ अवस्था त्यागि मुनिधर्म साधन” च्यारि घातिकर्मनि का नाश भये अनन्तचतुष्टय भाव प्रगट करि केतेक काल पीछे च्यारि अघातिकर्मनि का भी भस्म होते परम औदारिक शरीरको भी छोरि ऊर्ध्वगमन स्वभावते लोक का अग्रभागविष जाय विराजमान भये । तहां जिनके समस्त परद्रव्य सम्बन्ध छूटनेते मुक्त अवस्थाकी सिद्धि मई, बहुरि जिनकै चरमशरीरसे किंचित् ऊन पुरुषाकारवतू आत्मप्रदेशनिका आकार अवस्थित भया,
विशेष - सिद्धों के आत्मप्रदेशों का आकार चरम मनुष्य शरीर से किञ्चित् न्यून होता है। यह मत द्रव्यसंग्रह मूल व टीका (गाथा १४), तिलोयपण्णत्ती ६/१०, लोकविभाग प्रस्तावना पृ. ३०, लोकविभाग ११/६ आदि का है। परन्तु दूसरे मत के अनुसार अन्तिमशरीर का दो तिहाई भाग प्रमाण आकार ही सिद्धावस्था में रहता है - यह मत तिलोयपण्णत्ती ६/६, सिद्धान्तसारदीपक .१६/८/५६० तथा श्रीमद् राजचन्द्र पृष्ट ६२६ आदि पर है। इस प्रकार दो मत हैं।
बहुरि जिनकै प्रतिपक्षी कर्मनिका नाश भया, तातें समस्त सम्यक्त्वज्ञान-दर्शनादिक आत्मीक गुण सम्पूर्ण अपने स्वभावको प्राप्त भये हैं, बहुरि जिनकै नोकर्मका सम्बन्ध दूर भया तारौं समस्त अमूर्त्तत्वादिक आत्मीकधर्म प्रकट भये हैं। बहुरि जिनकै भावकर्मका अभाव मया तातै निराकुल आनन्दमय शुद्धस्वभावरूप परिणमन हो है । बहुरि जिनके ध्यानकरि भव्यजीवनि के स्वद्रव्यपरद्रव्य का अर औपाधिक भाव स्वभावभावनि का विज्ञान हो है, ताकरि तिनि सिद्धनिके समान आप होने का साधन हो है। तातै साधनेयोग्य जो अपना शुद्धस्वरूप ताके दिखावनेको प्रतिबिंब समान हैं। बहुरि जे कृतकृत्य भये हैं ताते ऐसे ही अनन्त कालपर्यंत रहे हैं, ऐसे निष्पन्न भये सिद्ध भगवान तिनको हमारा नमस्कार होउ।
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पहला अधिकार-३
अब आचार्य, उपाध्याय, साधुनि का स्वरूप अवलोकिये है
जे विरागी होइ समस्त परिग्रहको त्यागि शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करि अंतरगविषै तो तिस शुद्धोपयोगकर आपको आप अनुभव है, परद्रव्यविषै अहंबुद्धि नाहीं धारे है। बहुरि अपने नामादिक स्वभावनि ही को अपने माने है। परभावनिविर्षे ममत्व न करे है। बहुरि जे परद्रव्य वा तिनके स्वभाव ज्ञानविषै प्रतिभासे है तिनिको जाने तो है परन्तु इष्ट-अनिष्ट मानि तिनविषै रागद्वेष नाहीं करे है। शरीर की अनेक अवस्था हो है, बाह्य नाना निमित्त बने है परन्तु तहाँ किछू भी सुखदुःख मानते नाहीं । बहुरि अपने योग्य वाचक्रिया जैसे बने है, तेसे बने है, खेचिकरि तिनको करते नाहीं । बहुरि अपने उपयोगको बहुत नाहीं भ्रमावै है । उदासीन होय निश्चल वृत्ति को धारे है । बहुरि कदाचित् मंदराग के उदयतें शुभोपयोग भी हो है, तिसकरि जे शुद्धोपयोग के बाह्य साधन हैं तिनविषै अनुराग करे है परन्तु तिस रागभावको हेय जानि दूरि किया चाहे है। बहुरि तीव्र कषाय के उदयका अभाव हिंसादिरूप जो अशुभोपयोग परिणतिका तौ अस्तित्व ही रह्या नाहीं । बहुरि ऐसी अंतरंग अवस्था होते बाह्य दिगम्बर सौम्यमुद्राके धारी भये हैं । शरीरका संवारना आदि विक्रियानिकरि रहित भये हैं। वनखंडादिविषै बसे हैं। अठाईस मूलगुणनिको अखंडित पालै हैं। बाईस परीवहनिको सहे हैं। बारह प्रकार तपनिको आदरे हैं। कदाचित् ध्यानमुद्रा धारी प्रतिभावत् निश्चल हो हैं। कदाचित् अध्ययनादि बाह्य धर्मक्रियानि विषे प्रवर्ते हैं। कदाचित् मुनिधर्म का सहकारी शरीर की स्थिति के अर्धि योग्य आहार विहारादिक्रियानिविषै सावधान हो हैं। ऐसे जैनी मुनि हैं, तिन सबनिकी ऐसी ही अवस्था हो है।
आचार्य का स्वरूप
तिनिविषै जे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की अधिकताकरि प्रधानपदको पाइ संघविषै नायक भये हैं। बहुरि जे मुख्यपने तो निर्विकल्प स्वरूपाचरण विषै ही मग्न हैं अर जो कदाचित धर्म के लोभी अन्य जीवयाचकनि को देखि राग अंश उदयतें करुणाबुद्धि होय तो तिनिकों धर्मोपदेश देते हैं। जे दीक्षा ग्राहक हैं तिनिकों दीक्षा देते हैं, जे अपने दोष प्रगट करे हैं, तिनिको प्रायश्चित्त-विधिकरि शुद्ध करे हैं। ऐसे आचरन अचरावन वाले आचार्य तिनको हमारा नमस्कार होउ ।
उपाध्याय का स्वरूप
बहुरि जे बहुत जैन शास्त्रनिके ज्ञाता होइ संघविषै पठन-पाठन के अधिकारी भये हैं, बहुरि जे समस्त शास्त्रनिका प्रयोजनभूत अर्थ जानि एकाग्र होय अपने स्वरूपको ध्यावै है। अर जो कदाचित् कषाय अंश उदयतें तहाँ उपयोग नाहीं थंभ है तो तिन शास्त्रनिकों आप पढ़ें है वा अन्य धर्मबुद्धीनिको पढ़ावै है । ऐसे समीपवर्ती भव्यनिको अध्ययन करावनहारे उपाध्याय तिनिको हमारा नमस्कार होहु ।
साधु का स्वरूप
बहुरि इन दोय पदवीधारक बिना अन्य समस्त जे मुनिपद के धारक हैं, बहुरि जे आत्मस्वभावको साथ हैं। जैसे अपना उपयोग परद्रव्यनिविर्षे इष्ट-अनिष्टपनो मानि फँसे नाहीं वा भागे नाहीं तैसे उपयोग
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-४
को सधा हैं। बहुरि बाह्यतपकी साधनभूत तपश्चरण आदि क्रियानिविषै प्रवर्ती हैं वा कदाचित भक्ति-वन्दनादि कार्यनिवर्षे प्रवर्ते हैं। ऐसे आत्मस्वभाव के साधक साधु हैं तिनिको हमारा नमस्कार होउ।
पूज्यत्व का कारण ऐसे इन अरहंतादिकनि का स्वरूप है सो दीतराग विज्ञानमय है। तिसही करि अरहतादिक स्तुति योग्य महान् भये हैं; जातें जीवतत्त्व करि ती सर्व ही जीव समान हैं परन्तु रागादिविकारनिकरि वा ज्ञानकी हीनताकरि ती जीव निन्दा योग्य हो हैं। बहुरि रागादिककी हीनताकरि वा ज्ञानकी विशेषताकरि स्तुति योग्य हो हैं। सो अरहंत सिद्धनि के तौ सम्पूर्ण रागादिककी हीनता अर ज्ञानकी विशेषता होने करि सम्पूर्ण वीतरागविज्ञान भाय संभव है। अर आचार्य उपाध्याय साधुनिकै एकोदेश रागादिककी हीनता अर ज्ञानकी विशेषता होन कार एकोदेश यतिरागविज्ञान संभव है। तातें ते अरहंतादिक स्तुति योग्य महान जानने।
परमेष्ठी के स्वरूप का उपसंहार बहुरि ए अरहंतादिक पद है तिन विष ऐसा जानना जो मुख्यपने ती तीर्थकरका अर गौणपने सर्वकेवली का ग्रहण है, यहु पदका प्राकृत भाषावि अरहंत अर संस्कृतविर्षे अईतू ऐसा नाम जानना । बहुरि चौदवाँ गुणस्थान के अनंतर समयतें लगाय सिझनाम जानना। बहुरि जिनको आचार्यपद भया होय ते संघविषै रहो वा एकाकी आत्मथ्यान करो वा एकाविहारी होहु वा आचार्यनिविषै भी प्रधानताको पाय गणधरपदी के धारक होहु, तिन सबनिका नाम आचार्य कहिये है। बहुरि पठन-पाठन तो अन्यमुनि भी करै हैं परन्तु जिनके आचार्यनिकरि दिया उपाध्याय पद भया होइ ते आत्मध्यानादि कार्य करतें भी उपाध्याय ही नाम पावै हैं। बहुरि जे पदवीधारक नाही ते सर्व मुनि साधुसंज्ञा के धारक जानने । इहाँ ऐसा नाही नियम है जो पंचाचारनि करि आचार्य पद हो है, पठनपाठनकरि उपाध्यायपद हो है, मूलगुण साधनकरि साधुपद हो है। जाते ए तो क्रिया सर्वमुनिन के साधारण हैं परन्तु शब्द नयकरि तिनका अक्षरार्थ तैसे करिये है। समभिरूढ़नय करि पदवीकी अपेक्षा ही आचार्यादिक नाम जानने। जैसे शब्द नयकरि गमन करै सो गऊ कहिये सो गमन तो मनुष्यादिक भी करै है परन्तु समभिरूढ़ नयकरि पर्याय अपेक्षा नाम है, तैसे ही यहाँ समझना।
इहाँ सिद्धनिके पहले अरहंतनिको नमस्कार किया सो कौन कारण? ऐसा सन्देह उपजे है। ताका समाधान यह है
नमस्कार करिये है सो अपने प्रयोजन साधने की अपेक्षा करिये है, सो अरहंतनित उपदेशादिकका प्रयोजन विशेष सिद्ध हो है, तातें पहले नमस्कार किया है। या प्रकार अरहंतादिकनि का स्वरूप चितवन किया। जाते स्वरूप-चितवन किये विशेष कार्यसिद्धि हो है। बहुरि इन अरहतादिक ही को पंचपरमेष्ठी कहिये है। जाते जो सर्वोत्कृष्ट इष्ट होइ ताका नाम परमेष्ट है। पंच जे परमेष्ट तिनिका समाहार समुदाय ताका नाम पंचपरमेष्ठी जानना।
१. धवला प्र. पु. पृ. ५४१
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पहला अधिकार-५
भरत तथा विदेह क्षेत्रस्थ तीर्थकर बहुरि रिषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चंद्रप्रम, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयान्, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व, वर्द्धमान नामधारक चौबीस तीर्थकर इस भरतक्षेत्र - विषं वर्तमान थर्मतीर्थ के नायक भये, गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान-निर्वाण फाल्याणकनिविर्षे इन्द्रादिकनिकरि विशेष पूज्य होई अब सिमासयपि पिराजै हैं, तिनिको हमारा नमस्कार होहु। बहुरि सीमंधर, युगमंधर, बाहु, सुबाहु, संजातक, स्वयंप्रभ, वृषभानन, अनंतवीर्य, सूरप्रभ, विशालकीर्ति, वज्रधर, चन्द्रानन, चन्द्रबाहु, भुजंगम, ईश्वर, नेमिप्रभ, वीरसेन, महाभद्र, देवयश, अजितवीर्य नामधारक बीसतीर्थकर पंचमेरु सम्बन्धी विदेहक्षेत्रनिविर्षे अवार केवलज्ञान (सहित) विराजमान है तिनिको हमारा नमस्कार हो । यद्यपि परमेष्ठी पदविष इनका गर्भितपना है तथापि विद्यमान कालविषै इनको विशेष जानि जुदा नमस्कार किया है।
जिनबिम्ब तथा जिनवाणी बहुरि त्रिलोकविवे जे अकृत्रिम जिनविम्ब विराजै है मध्यलोकविषै विथिपूर्वक कृत्रिम जिनबिम्ब विराज है, जिनके दर्शनादिकत (स्वपरभेद-विज्ञान होय है, कषाय मंद होय शान्तभाव हो है वा) एक धर्मोपदेश बिना अन्य अपने हितकी सिद्धि जैसे तीर्थंकर केवलीके दर्शनादिकतै होइ तैसे ही होइ, तिनि जिनविषनिकों हमारा नमस्कार होउ।
विशेष : पखण्डागम में भी लिखा है कि मनुष्यों के सम्यक्त्व उत्पन्न होने के तीन कारण हैं - १. जातिस्मरण २. थर्मोपदेशश्रवण तथा ३. जिनबिम्बदर्शन । (धवल ६/४२६)। जिनबिम्बदर्शन से नियत्त तथा निकाचित रूप भी मिध्यात्वादि कर्मकलाप का क्षय देखा जाता है। (थवल ६/४२७) मेरु पर्वत पर किये जाने वाले जिनेन्द्र-जन्म-महोत्सवों को विद्याधर मनुष्य देखते हैं और उस कारण कितने ही विधाथर सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं। (घवल ६/४३०) बृहद् नयचक्र में भी लिखा है कि तीर्थकर, केवली, श्रमण, भवस्मरण, शास्त्र, देवमहिमा (जिनबिम्बदर्शन अन्तर्भूत) आदि सम्यग्दर्शन के बाम कारण हैं। (नयचक्र ३१६) यही सब राजवार्तिक २/३/२ पृ. १०५ आदि में भी है।
बहुरि केवली की दिव्यध्वनिकरि दिया उपदेश ताकै अनुसारि गणधरकरि रचित अंगप्रकीर्णक तिनकै अनुसारि अन्य आचार्यादिकनिकार रचे ग्रन्थादिक ऐसे ये सर्व जिनवचन हैं, स्याद्धादधिहकरि पहचानने योग्य है, न्यायमार्गत अविरुद्ध हैं, ताते प्रमाणीक हैं, जीवको तत्त्वज्ञान के कारण हैं, ताते उपकारी है, तिनको हमारा नमस्कार होउ।
१. प्रतिष्ठादि विधान से प्रतिष्ठित। २. कोष्ठक वाली पंक्ति खरड़ा प्रति में नहीं है।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक- ६
द्रव्य चतुष्टय की अपेक्षा नमस्कार
बहुरि चैत्यालय, आर्यिका, उत्कृष्ट श्रावक आदि द्रव्य अर तीर्थक्षेत्रादि क्षेत्र अर कल्याणककाल आदि काल, रत्नन्नय आदि भाव, नेर नमस्कार कलेचनिकों नमस्कार करूं ही अर (जे) किंचित् विनय करने योग्य हैं तिनका यथायोग्य विनय करौं ह्रीं । ऐसे अपने इष्टनिका सन्मानकरि मंगल किया है। अब ए अरहंतादिक इष्ट कैसे हैं, सो विचार करिए है -
जा करि सुख उपजै वा दुःख विनसे तिस कारिज ( कार्य ) का नाम प्रयोजन है। बहुरि तिस प्रयोजनकी जाकर सिद्धि होय सो ही अपना इष्ट है। सो हमारे इस अवसरविषे वीतरागविशेष ज्ञान का होना सो प्रयोजन है, जातें याकरि निराकुल सांचे सुख की प्राप्ति हो है अर सर्व आकुलतारूप दुःखका नास हो है । बहुरि इस प्रयोजनकी सिद्धि अरहंतादिकनिकरि हो है । कैसे, सो विचारिए हैं
अरहन्तादिकों से प्रयोजनसिद्धि
आत्मा के परिणाम तीन प्रकार हैं- संक्लेश, विशुद्ध, शुद्ध ।' तहाँ तीव्र कषायरूप संक्लेश है, मंद कषायरूप विशुद्ध है, कषायरहित शुद्ध है। तहाँ वीतरागविशेष ज्ञानरूप अपने स्वभाव के घातक जु हैं ज्ञानावरणादि घातियाकर्म, तिनिका संक्लेश परिणाम करि तौ तीव्र बन्ध हो है, अर विशुद्ध परिणामकरि मंद बन्ध हो हैं वा विशुद्ध परिणाम प्रबल होइ ती पूर्वे जो तीव्रबंध भया था ताकों भी मंद करै है, अर शुद्ध परिणामकरि बन्धन हो है, केवल तिनकी निर्जरा ही हो हैं। सो अरहंतादिविषै स्तवनादि रूप भाव हो है सो कषायनिकी मन्दता लिये ही हो है तातें विशुद्ध परिणाम है। बहुरि समस्त कषाय मिटावने का साधन है तातें शुद्ध परिणाम का कारण है सो ऐसे परिणाम करि अपना घातक धातिकर्म का हीनपनाके होने, सहज ही वीतराग विशेषज्ञान प्रगट हो है। जितने अंशनिकरि वह हीन होय तितने अंशनिकरि यहु प्रगट होइ ऐसे अरहंतादिक करि अपना प्रयोजन सिद्ध हो है ।
दर्शन - स्मरण से कषायों की शिथिलता
अथवा अरहंतादिक का आकार अवलोकमा वा स्वरूप विचार करना वा वचन सुनना वा निकटवर्ती होना वा तिनके अनुसारि प्रवर्तना इत्यादि कार्य तत्काल ही निमित्तभूत होइ रागादिकनिको हीन करे है। जीव अजीवादिक का विशेषज्ञान को उपजावै है । तातैं ऐसे भी अरहंतादिक करि वीतराग विशेषज्ञानरूप प्रयोजन की सिद्धि हो है ।
इहाँ कोऊ कहै कि इनिकरि ऐसे प्रयोजन की तो सिद्धि ऐसे हो है बहुरि जाकरि इन्द्रियजनित सुख उपजै, दुःख दिनसे ऐसे भी प्रयोजन की सिद्धि इन करि हो है कि नाहीं? ताका समाधानअरहन्तादि से सांसारिक प्रयोजन की सिद्धि
जो अरहंतादि विषै स्तवनादिरूप विशुद्ध परिणाम हो है ताकरि अघातिया कर्मनि की साता आदि १. प्र. सा. अ. १ गाथा ६ । २. गो. क. गाथा १६३ ।
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पहला अधिकार-७
पुण्यप्रकृतिनिका बंध हो है। बीको मह परिणाम तीर होर ने पर्ने आगताडाटि पापप्रकृति बंधी थी तिनको भी मंद करै है अथवा नष्टकरि पुण्य प्रकृतिरूप परिणमावे है। बहुरि तिस पुण्यका उदय होते स्वयमेव इन्द्रियसुखको कारणभूत सामग्री मिले है अर पापका उदय दूर होते स्वयमेव दुःख को कारणभूत सामग्री दूर हो है। ऐसे इस प्रयोजनकी भी सिद्धि तिनकरि हो है। अथवा जिनशासन के भक्त देवादिक है ते तिस भक्त पुरुषकै अनेक इन्द्रियसुखको कारणभूत सामग्रीनिका संयोग करावै है, दुःखको कारणभूत सामग्रीनिकों दूरि करे हैं। ऐसे भी इस प्रयोजन की सिद्धि तिन अरहतादिकनि करि हो है। परन्तु इस प्रयोजन किछु अपना भी हित होता नाहीं तात यह आत्मा कषायभावनितें बाह्य सामग्रीविषै इष्ट-अनिष्टपनो मानि आप ही सुख-दुःखकी कल्पना करै है। बिना कषाय बाझ सामग्री किछु सुख-दुःखकी दाता नाहीं। बहुरि कषाय है सो सब आकुलतामय है तातै इन्द्रियजनितसुख की इच्छा करनी, दुःखते डरना सो यह अम है। बहुरि इस प्रयोजन के अर्थि अरहतादिककी भक्ति किए भी तीव्रकषाय होनेकरि पापबन्ध ही हो है ताते आपको इस प्रयोजनका अर्थी होमा योग्य नाहीं। अरहंतादिककी भक्ति करतें ऐसे प्रयोजन तौ स्वयमेव हो सधै है।
अरहन्तादि ही परम मंगल हैं ऐसे अरहतादिक परम इष्ट मानने योग्य हैं। बहुरि ए अरहताविक ही परममंगन हैं। इन विष भक्तिभाव भये परममंगल हो है। जाते 'मंग' कहिये सुख ताहि 'लाति' कहिये देवै अथवा 'म' कहिये पाप ताहि 'गालपति' कहिये गालै ताका नाम मंगल है सो तिनकरि पूर्वोक्त प्रकार दोऊ कार्यनिकी सिन्द्रि हो है। तातै तिनके परममंगलपना सम्भव है।
मंगलाचरण करने का कारण इहां कोऊ पूछे कि प्रथम ग्रन्थकी आदि दि मंगल ही किया सो कौन कारण ? ताका उत्तर
जो सुखस्यी ग्रन्थ को समाप्तता होइ, पापकरि कोऊ विघ्न न होय, या वासः इहां प्रथम मंगल किया है।
हो तर्क - जो अन्यमता ऐसै मंगल नाहीं करै हैं तिनके भी ग्रन्धकी समाप्तता अर विघ्न का न होना देखिये है, तहाँ कहा हेतु है ? ताका समाधान
जो अन्यमती ग्रन्ध करै है तिसविर्षे मोहके तीव्र उदयकरि मिथ्यात्व कषाय भावनिको पोषते विपरीत अर्थनिकों धौ है तात ताकी निर्विघ्न समाप्तता तो ऐसे मंगल बिना किये ही होइ । जो ऐसे मंगलनिकरि मोह मंद हो जाय तो वैसा विपरीत कार्य कैसे बने? बहुरि हमहु ग्रन्थ करै हैं तिस विषै मोहकी मंदता करि वीतराग तत्त्वज्ञानको पोषते अर्थनिको धरेंगे ताकि निर्विघ्न समाप्तता ऐसे मंगल किये ही होय । जो ऐसे मंगल न करें तो मोहका तीव्रपना रहै, तब ऐसा उत्तम कार्य कैसे बने? बहुरि वह कहै है जो ऐसे तो मानेंगे परन्तु कोऊ ऐसा मंगल न करे ताकै भी सुख देखिए है, पापका उदय न देखिये है अर कोऊ ऐसा मंगल करे है साकै भी सुख न देखिये है, पापका उदय देखिये है, तातें पूर्वोक्त मंगलपना कैसे बने? ताकी कहिये है
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-८
जो जीवनिकै संक्लेश विशुद्ध परिणाम अनेक जातिके हैं तिनकरि अनेक कालनिविर्षे पूर्व बंधे कर्म एक कालविषै उदय आवे हैं। तातै जैसे जाकै पूर्वं बहुत धनका संचय होय ताकै बिना कुमाए भी धन देखिए है अर देणा न देखिये है। अर जाकै पूर्वं ऋण बहुत होय ताकै धन कुमावत भी देणा देखिये है अर धन न देखिए है। परन्तु विचार किए ते कुमावना धन ही का कारण है, ऋणका कारण नाहीं। तैसें जाकै पूर्षे बहुत पुण्य बंध्या होइ ताकै इहाँ ऐसा मंगल बिना किए भी सुख देखिए है, पापका उदय न देखिए है। बहुरि जाकै पूर्वे बहुत पाप बंध्या होय ताकै इहां ऐसा मंगल किये भी सुख न देखिए है, पापका उदय देखिए है। परन्तु विचार किएतें ऐसा मंगल तो सुख ही का कारण है, पाप उदयका कारण नाहीं। ऐसे पूर्वोक्त मंगलका मगलपना बने है।
बहुरि वह कह है कि यह भी मानी परन्तु जिनशासन के भक्त देवादिक हैं तिनि तिस मंगल करने वाले की सहायता न करी अर मंगल न करने वाले को दंड न दिया सो कौन कारण? ताका समाधान
जो जीवनिकै सुख दुख होने का प्रबल कारण अपना कर्म का उदय है ताहीके अनुसारि बाध निमित्त बने हैं, तातें जाकै पापका उदय होइ ताकै सहायता का निमित्त न बने है अर जाकै पुण्यका उदय होइ ताकै दंडका निमित्त न बने है। यह निमित्त कैसे न बने है सो कहिये है
जे देवादिक हैं ते क्षयोपशम ज्ञानः सर्वकों युगपत् जानि सकते नाही, तातें मंगल करने याले वा न करने वाले का जानपना किसी देवादिककै काहू कालविषै हो है। तातै जो तिनिका जानपना न होइ तो कैसै सहाय करै वा दंड दे। अर जानपना होय तब आपकै जो अति मंदकषाय होइ तौ सहाय करने के वा दंड देने के परिणाम ही न होइ। अर तीव्रकषाय होइ तौ धर्मानुराग होइ सके नाहीं । बहुरि मध्यम कषायरूप तिस कार्य करने के परिणाम भये अर अपनी शक्ति नाही तो कहा करै। ऐसे सहाय करने वा दंड देने का निमित्त नाही बने है। जो अपनी शक्ति होय अर आपके धर्मानुरागरूप मध्यमकषाय का उदयते तैसे ही परिणाम होइ अर तिस समय अन्य जीवका धर्म अधर्मरूप कर्तव्य जाने, तब कोई देवादिक किसी धर्मात्मा की सहाय करै है. वा किसी अधर्मीको दंड दे है। ऐसे कार्य होने का किछू निगम तौ है नाहीं, ऐसे समाधान किया। इहां इतना जानना कि सुख होने की, दुःख न होने की, सहाय करावने की, दुख द्यायने की जो इच्छा है सो कषायमय है, तत्काल विर्षे वा आगामी काल विर्षे दुखदायक है। तातें ऐसी इच्छा कू छोरि हम ती एक वीतराग विशेष ज्ञान होने के अर्थी होइ अरहतादिकको नमस्कारादिक रूप मंगल किया है। ऐसे मंगलाचरण करि अब सार्थक मोक्षमार्ग-प्रकाशकनाम ग्रन्थका उद्योत करे हैं। तहां यहु ग्रन्थ प्रमाण है ऐसी प्रतीति आवने के अर्थि पूर्व अनुसारका स्वरूप निरूपिए है
ग्रन्थ की प्रामाणिकता और आगम-परम्परा अकारादि अक्षर हैं ते अनादिनिधन हैं, काहूके किए नाहीं, इनका आकार लिखना तो अपनी इच्छा के अनुसार अनेक प्रकार है परन्तु बोलने में आवै हैं ते अक्षर तो सर्वत्र सर्वदा ऐसे ही प्रवर्ते हैं, सोई कह्या है- "सिद्धो वर्णसमाम्नायः'। याका अर्थ- यहु जो अक्षरनिका सम्प्रदाय है सो स्वयंसिद्ध है। बहुरि तिन
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पहला अधिकार-६
अक्षरनिकरि निपजे सत्यार्थ के प्रकाशक पद तिनके समूह का नाम श्रुत है सो भी अनादिनिधन है । जैसे 'जीव' ऐसा अनादिनिधन पद है सो जीव का जनावनहारा है। ऐसे अपने-अपने सत्य अर्थ के प्रकाशक अनेक पद तिमका जो समुदाय सो श्रुत जानना । बहुरि जैसे मोती तो स्वयंसिद्ध है तिन विषे कोऊ थोरे मोतीनिकों, कोऊ घने मोतीनिकों, कोऊ किसी प्रकार, कोऊ किसी प्रकार गंधि गहना बनावे है तैसे पद तो स्वयंसिद्ध है तिन विषै कोऊ थोरे पदनिकों, कोऊ घने पदनिकों, कोऊ किसी प्रकार, कोऊ किसी प्रकार गूंथि ग्रंथ बनावै है । इहां मैं भी तिन सत्यार्थ पदनिकों मेरी बुद्धि अनुसारि गूंथि ग्रंथ बनाऊँ हूँ। मेरी मति करि कल्पित झूठे अर्थ के सूचक पद या विषे नाहीं गूंथू हूं । तातैं यह ग्रंथ प्रमाण जानना ।
इहाँ प्रश्न
जो तिन पदनिकी परम्परा इस ग्रंथ पर्यंत कैसे प्रवर्ते है ? ताका समाधान - अनादितें तीर्थंकर केवली होते आये हैं, तिनिके सर्व का ज्ञान हो है तातें तिन पदनिका वा तिनके अर्थनिका भी ज्ञान ह्मे है। बहुरि तिन तीर्थकर केवलीनिया जाकरि अन्य जीवनिकै पदनि के अर्थनिका ज्ञान होय ऐसा दिव्यध्वनि करि उपदेश हो है । ताके अनुसारि गणधरदेव अंग प्रकीर्णकरूप ग्रंथ गूंथे हैं । बहुरि तिनके अनुसारि अन्य - अन्य आचार्यादिक नाना प्रकार ग्रंथादिक की रचना करे हैं। तिनिकों कई अभ्यासे हैं, केई कहे हैं, केई सुने हैं, ऐसे परम्पराय मार्ग चल्या आवे है ।
महावीर से द्वादशांग का उद्भव तथा अंगश्रुत की परम्परा
सो अब इस भरतक्षेत्र विषै वर्तमान अवसर्पिणी काल है, तिस विषे चौबीस तीर्थंकर भए, तिनि विषै श्रीवर्द्धमान नामा अन्तिम तीर्थंकर देव भये । सो केवलज्ञान विराजमान होइ जीवनिकों दिव्यध्वनि करि उपदेश देते भये । ताके सुनने का निमित्त पाय गौतम नामा गणधर अगम्य अर्थनिकों भी जानि धर्मानुराग के बशर्तें अंगप्रकीर्णकनि की रचना करते भये । बहुरि वर्द्धमान स्वामी तो मुक्त भए, तहाँपीछे इस पंचम कालविषै तीन केवली भए गौतम १, सुर्ध्वाचार्य २, जम्बू, स्वामी ३, तहां पीछे कालदोषतें केवलज्ञानी होने का तो अभाव बहुरि केतेक काल लाई द्वादशांग के
विशेष - सामान्यतया सर्वत्र यही कहा है कि महावीर स्वामी की मुक्ति के बाद तीन केवली हुए । परन्तु विशेष ज्ञातव्य यह है कि महावीर की मुक्ति के बाद तीन से अधिक केवली हुए हैं। तीन तो अनुबद्ध-पट्टधर-सतत-परम्परा - अत्रुटित संतान स्वरूप केवली हुए । महावीर के मुक्त होने के समय गौतम को केवलज्ञान हुआ । गौतम के मुक्त होने के दिन ही लोहाचार्य ( सुधर्माचार्य) को केवलज्ञान हुआ । लोहाचार्य के मुक्त होने के दिन ही जम्बूस्वामी को केवलज्ञान हुआ । परन्तु जम्बूस्वामी के मुक्त होने के दिन किसी अन्य को केवलज्ञान नहीं हुआ। इस कारण केवलज्ञान का जो अविनष्टधाराप्रवाह क्रम था, वह नष्ट हो गया । यानी परम्परा - सतत - अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के बाद नहीं हुए । परन्तु जम्बूस्वामी के बाद भी ६२ वर्ष के काल में अननुबद्ध केवली हुए ।
- परवार जैन समाज का इतिहास, प्रस्तावना पृ. २३, प्रस्तावनाकार पं. जगन्मोहन लाल जी शास्त्री, लेखक पं. श्री फूलचन्द शास्त्री
** गौतम, सुधर्म तथा जम्बूस्वामी ये तीन तो अनुबद्ध-क्रमबद्ध परिपाटीक्रम युक्त केवली
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१०
हुए थे परन्तु अननुबद्ध अक्रमपूर्वक कैवल्य उपार्जन करने वाले तो अन्य भी हुए हैं जिनमें अन्तिम केवली श्रीधर थे जो कुण्डलगिरि से मुक्त हुए।
___ - ति.प.४/१४७४-७५; महायवल पु.१ प्रस्तावना पृ. ८ + महावीर स्वामी के बाद होने वाले इन मात्र तीन अनुबद्ध केवलियों के पश्चात् अन्य कोई अनुवद्ध केवली तो नहीं हुआ (जयपवल १/५६-७७/६६४। तथा ति.प. ४/१४७८) परन्तु पूज्य १००८ जम्बूस्वामी के पश्चात् भी अन्य केवली हुए हैं। वे अननुबद्ध-असतत केवली हैं तथा उनमें अन्तिम केवली श्रीधर थे।
- पं. रतनचन्द्र मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व पृ. ९२ पाठी श्रुतकेवली रहे, पीछे तिनका भी अभाव भया । बहुरि केतेक कालताई थोरे अंगनिके पाठी रहे (तिनने यह जानकर जो भविष्य कालमें हम सारिखे भी ज्ञानी न रहेंगे, तात ग्रन्थ-रचना आरम्भ करी और द्वादशांगानुकूल प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोगके ग्रन्थ रचे ।) पीछे तिनका भी अभाव भया । तब आचार्यादिकनिकरि तिनिके अनुसार बनाए ग्रन्थ वा अनुसारी ग्रन्थनिके अनुसारि बनाए ग्रन्थ तिनहींकी प्रवृत्ति रही। तिनविष भी कालदोषः दुष्टनिकरि कितेक ग्रन्थनिकी व्युच्छित्ति भई या महान् ग्रन्थनिका अभ्यासादि न होनेते व्युच्छित्ति भई। बहुरि केतेक महान् ग्रन्थ पाइए हैं तिनिका बुद्धिकी मंदतात अभ्यास होता नाहीं। जैसे दक्षिणमें गोमटूटस्वामीके निकट मूलबद्री नगरविष धवल महाधवल जयधवल पाइए है परन्तु दर्शनमात्र ही है। बहुरि कितेक ग्रन्थ अपनी बुद्धिकरि अभ्यास करने योग्य पाइए हैं। तिन विषे भी कितेक ग्रन्थनिका ही अभ्यास बने है। ऐसे इस निकृष्ट काल विषै उत्कृष्ट जैनमतका घटना तो भया परन्तु इस परम्पराकार अब भी जैन शास्त्रनि विष सत्य अर्थके प्रकाशनहारे पदनिका सद्भाव प्रक्र्त है।
ग्रन्थकार का आगमाभ्यास और ग्रन्थ-रचना का निश्चय बहुरि हम इस काल विषै इहां अब मनुष्यपर्याय पाया सो इस विष हमारे पूर्व संस्कारत वा मला होनहारतें जैनशास्त्रनिविषे अभ्यास करने का उद्यम होत भया। तातै व्याकरण, न्याय, गणित आदि उपयोगी
१. ये पंक्तियाँ खरड़ा प्रति में नहीं हैं, अन्य सब प्रतियों में है। इसीसे आवश्यक जान यहाँ दी गई हैं। २. परमपूज्य बा.व. शान्तिसागरजी महाराज (दक्षिण) को जब यह ज्ञान हुआ कि मूडबिद्री में जैनसिखान्त के प्राणभूत प्राचीन
ग्रन्थ धवल, जयधवल, महायवल, ताडपत्र ग्रन्थ बहुत जीर्ण हो गये हैं, उनमें से महापवल का करीब चार पाँच हजार श्लोक प्रमाण भाग कीड़ों द्वारा नष्ट हो चुक्न है तो वे अत्यन्त चिन्तित हुए। आचार्यश्री के प्रभावक उपदेश से प्रेरित होकर जैनसमाज ने इन्हें ताम्रपत्र पर खुदवाने का कार्य प्रारम्भ किया। मूल ताड़पत्रों के फोटो लेने का भी निर्णय लिया उस समय (विक्रम संवत् २००६ से पूर्व) श्री धक्त ग्रन्थ को ताम्रपत्र पर खुदवाने में २१०००/- रुपया खर्च हुआ। फलटण में श्री चन्द्रप्रभ मन्दिर के सभामण्डप के ऊपर एक श्रुतभण्डार हॉल में धवल ताम्रपट तथा मुद्रित ग्रन्थ सुरक्षित रखे गये हैं। आज तो घयलादि तीनों ग्रन्थ सहस्राधिक प्रतियों में छपकर हम सबको सुलभ है। पण्डित टोडरमलजी को . इनके दर्शन नहीं हो पाये थे।
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पहला अधिकार- १५
ग्रन्थनिका किंचित् अभ्यास करि टीकासहित समयसार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार, गोमट्टसार, लब्धिसार, त्रिलोकसार, तत्त्वार्थसूत्र इत्यादि शास्त्र अर क्षपणासार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, अष्टपाहुड, आत्मानुशासन आदि शास्त्र अर श्रावक, मुनिके आचारके प्ररूपक अनेक शास्त्र अर सुष्टुकथासहित पुराणादि शास्त्र इत्यादि अनेक शास्त्र हैं तिन विषै हमारे बुद्धि अनुसार अभ्यास वर्ते है । तिसु करि हमारे हू किंचित् सत्यार्थ पदनिका ज्ञान भया है। बहुरि इस निकृष्ट समय विषै हम सारिखे मंद बुद्धिनित भी हीन बुद्धि के धनी धने जन अवलोकिए है। तिनिकों तिन पदनिका अर्थज्ञान होने के अर्थि धर्मानुरागके वशर्तें देशभाषामय ग्रन्थ करनेकी हमारे इच्छा भई । ताकरि हम यहु ग्रन्थ बनावै हैं सो इस विषै भी अर्थसहित तिनही पदनिका प्रकाशन हो है। इतना तो विशेष है जैसे प्राकृत संस्कृत शास्त्रनि विषै प्राकृत संस्कृत पद लिखिए है तैसे इहाँ अपभ्रंश लिये या यथार्थपनाको लिये देशभाषारूप पद लिखिए है परन्तु अर्थविषै व्यभिचार कछू नाहीं है । ऐसे इस ग्रंथपर्यन्त तिन सत्यार्थ पदनिकी परम्परा प्रवर्ते है ।
इहां कोऊ पूछें कि परम्परा तो हम ऐसे जानी परन्तु इस परम्पराविषै सत्यार्थ पदनि ही की रचना होती आई, असत्यार्थ पद न मिले, ऐसी प्रतीति हमको कैसे होय । ताका समाधान
असत्यपद रचना का प्रतिषेध
असत्यार्थ पदनिकी रचना अतितीव्र कषाय भए बिना बनै नाहीं, जातै जिस असत्य रचनाकरि परम्परा अनेक जीवनिका महा बुरा होय आपको ऐसी महाहिंसाका फलकार नरक निगोदविषै गमन करना होय सो ऐसा महाविपरीत कार्य तो क्रोध मान माया लोभ अत्यन्त तीव्र भए ही होय । सो जैनधर्मविषै तो ऐसा कषायवान् होता नाहीं । प्रथम मूल उपदेशदाता तो तीर्थंकर केवली सो तो सर्वथा मोहके नाशर्तें सर्व कषायनि करि रहित ही हैं। बहुरि ग्रन्थकर्ता गणधर वा आचार्य ते मोहका मन्द उदयकार सर्व बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहको त्यागि महा मंदकषायी भए हैं, तिनिके तिस मंदकषायकरि किंचित् शुभोपयोगहीकी प्रवृत्ति पाइए है और किछु प्रयोजन ही नाहीं । बहुरि श्रद्धानी गृहस्थ भी कोउ ग्रन्थ बनाये है सो भी तीव्रकषायी नाहीं है, जो वाकै तीव्रकषाय होय तो सर्वकषायनिका जिस तिस प्रकार नाशकरणहारा जो जिनधर्म तिस विषै रुचि कैसे होइ अथवा जो मोहके उदयतें अन्य कार्यनिकरि कषाय पोष हैं तो पोषो परन्तु जिनआज्ञा भंगकरि अपनी कषाय पोषै तो जैनीपना रहता नाहीं, ऐसे जिनधर्म्मविषै ऐसा तीव्रकषायी कोऊ होता नाहीं जो असत्य पदनिकी रचनाकार परका अर अपना पर्याय- पर्यायविषै बुरा करै ।
इहां प्रश्न- जो कोऊ जैनाभास तीव्रकषायी होय असत्यार्थ पदनिको जैन शास्त्रनिविषै मिलावे, पीछे ताकी परम्परा चलि जाय तो कहा करिये ?
ताका समाधान - जैसे कोऊ साँचे मोतिनिके गहनेविषै झूठे मोती मिलावे परन्तु झलक मिलै नाहीं ता परीक्षाकरि पारखी ठिगावता भी नाहीं, कोई भोला होय सो ही मोती नामकरि ठिगाये है। बहुरि ताकी परम्परा भी चालै नाहीं, शीघ्र ही कोऊ झूठे मोतिनिका निषेध करे है। तैसे कोऊ सत्यार्थ पदनिके समूहरूप जे जैनशास्त्र तिनिविषै असत्यार्थ पद मिलावै परन्तु जैनशास्त्रके पदनिविषै तो कषाय मिटावनेका वा लौकिक
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मोममार्ग प्रकाशक-१२
कार्य घटावनेका प्रयोजन है अर उस पापीनै जे असत्यार्थ पद मिलाए हैं तिन विषै कषाय पोषनेका वा लौकिक कार्य साधनेका प्रयोजन है, ऐसे प्रयोजन मिलता नाही, तातै परीक्षाकरि ज्ञानी ठिगायते भी नाही, कोई मूर्ख होय सो ही जैनशास्त्र नामकरि टिगावै है। बहुरि ताकी परम्परा भी चाले नाहीं, शीघ्र ही कोऊ तिन असत्यार्थ पनि का निषेध करै है। बहुरि ऐसे तीव्रकषायी जैनामास इहाँ इस निकृष्ट कालविष ही हो है, उत्कृष्ट क्षेत्रकाल बहुत है, तिस विषै तो ऐसे होते नाहीं । तातें जैन शास्त्रनि विषै असत्यार्थ पदनिकी परम्परा चाले नाहीं, ऐसा निश्चय करना।
बहुरि वह कहै कि कषायनिकरि तो असत्यार्थ पद न मिलाये परन्तु ग्रंथ करनेवालेकै क्षयोपशमज्ञान है तातें कोई अन्यथा अर्थ मासै ताकरि असत्यार्थ पद मिलावै ताकी तो परम्परा चले? ताका समाधान
मूल ग्रंथकर्ता तो गणधरदेव है। ते आप च्यार ज्ञान के धारक हैं अर साक्षात केवलीका दिव्यध्वनि उपदेश सुनै है; ताका अतिशयकरि सत्यार्थ ही भासै है। अर ताहीके अनुसार ग्रन्थ बना है। सो उन ग्रन्थनिविषै तो असत्यार्थ पद कैसे गूंथे जाय अर अन्य आचार्यादिक ग्रन्थ बनावै है, ते भी यथायोग्य सम्यग्ज्ञानके धारक हैं 1 बहुरि ते तिन मूलग्रन्थनिकी परंपराकरि ग्रन्थ बनाये है। बहुरि जिन पदनिका आपको ज्ञान न होइ तिनकी तो आप रचना करे नाही अर जिन पदनिका ज्ञान होइ तिनको सम्यग्ज्ञान प्रमाणते ठीक करि गूंधे है सो प्रथन तो ऐसा सवधानी विषे असत्यार्थ पद गूथे जाय नाही अर कदाचित् आपको पूर्व ग्रन्थनिके पदनिका अर्थ अन्यथा ही भासै अर अपनी प्रमाणतामें भी तैसे ही आजाय तो याका किछु सारा' नाहीं। परन्तु ऐसे कोइको भासे सबहीकों ती न भासै ताते जिनको सत्यार्थ भास्या होय ते ताका निषेधकार परम्परा चलने देते माहीं। बहुरि इतना जानना-जिनको अन्यथा जाने जीवका बुरा होय, ऐसा देव गुरु धर्मादिक वा जीव-अजीयादिक तत्त्वनिको तो श्रद्धानी जैनी अन्यथा जाने ही नाही, इनिका तो जैनशास्त्रनिविष प्रसिद्ध कथन है अर जिनको भ्रमकरि अन्यथा जाने भी जिन आज्ञा माननेत जीवका बुरा न होइ, ऐसे कोई सूक्ष्म अर्थ है तिन विषै किसी को कोई अन्यथा प्रमाणता में ल्याव तो भी ताका विशेष दोष नाहीं। सो गोमट्टसारविषै कह्या है
सम्माइट्ठी जीवो उबइठं पवयणं तु सदहदि । सद्दहदि असब्भाव अजाणमाणो गुरुणियोगा।।२७।।
- गो.सा.जीवकाण्ड याका अर्थ-सम्यग्दृष्टी जीव उपदेश्या सत्यवचनकों श्रद्धान करै है अर अजाणमाण गुरुके नियोग तै असत्यको भी श्रद्धान कर है, ऐसा कया है। बहुरि हमारे भी विशेष ज्ञान नाहीं है अर जिनआज्ञा भंग करने का बहुत भय है परन्तु इस ही विचारके बलते ग्रन्थ करने का साहस करते हैं सो इस ग्रन्थ विषै जैसे पूर्व ग्रन्थनि में वर्णन है तैसे ही वर्णन करेंगे। अथवा कहीं पूर्व ग्रन्थनिविषै सामान्य गूळ वर्णन था ताका विशेष प्रगट करि इहाँ वर्णन करेंगे। सो ऐसे वर्णन करने विषै मैं तो बहुत सावधानी रायूंगा। सावधानी
१. वश नहीं।
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पहला अधिकार-१३
करते भी कहीं सूक्ष्म अर्थका अन्यथा वर्णन होय जाय तो विशेष बुद्धिमान होइ सो संवारकरि शुद्ध करियो, यह मेरी प्रार्थना है। ऐसे शास्त्र करने का निश्चय किया है।
बांचने-सुनने योग्य शास्त्र अब इहा कैसे शास्त्र बांचने-सुनने योग्य हैं अर तिन शास्त्रनिके वक्ता श्रोता कैसे चाहिए सो वर्णन करिए है। जे शास्त्र मोक्षमार्ग का प्रकाश करै तेई शास्त्र यांचने-सुनने योग्य हैं। जाते जीव संसारविषे नाना दुःखनिकर पीड़ित है, सो शास्त्ररूपी दीपककरि मोक्षमार्ग को पावै तो उस मार्ग विषै आप गमनकार उन दुःखनित मुक्त होय। सो मोक्षमार्ग एक वीतराग भाव है, तातै जिन शास्त्रनिविषे काहू प्रकार राग-द्वेष-मोह भावनिका निषेध करि वीतराग भावका प्रयोजन प्रकट किया होय तिनिही शास्त्रनिका वांचना-सुनना उचित है। बहुरि जिनशास्त्रनिवि शृङ्गार मांग कुतूहलादेक पोथि रागभावका अर हिंसा-युद्धादिक पोषि द्वेषभाव का अर अतत्त्व श्रद्वान पोषि मोहभाव का प्रयोजन प्रगट किया होय ते शास्त्र नाहीं शस्त्र हैं। जाते जिन्न राग-द्वेष-मोह मावनिकरि जीव अनादित दुःखी भया तिनकी वासना जीवके बिना सिखाई ही थी। बहुरि इन शास्त्रनि करि तिनही का पोषण किया, भले होने की कहा शिक्षा दीनी। जीयका स्वभावघात ही किया ताते ऐसे शास्त्रनिका बांचना सुनना उचित नाही है। इहां बांचना-सुनना जैसे का तैसे ही जोड़ना सीखना सिखावना विधारना लिखावना आदि कार्य भी उपलक्षणकारे जान लैने। ऐसे साक्षात् वा परम्परायकरि वीतरागभावको पोष ऐसे शास्त्रहीका अभ्यास करना योग्य है।
यक्ता का स्वरूप अब इनके वक्ता का स्वरूप कहिये है। प्रथम तो वक्ता कैसा होना चाहिए, जो जैन श्रद्धान विषै दृढ़ होय, जात ओ आप अश्रद्धानी होय तो औरको श्रद्धानी कैसे करै? श्रोता तो आपहीत हीन बुद्धि के थारक हैं तिनकों कोऊ युक्तिकरि श्रद्धानी कैसे करे? अर श्रद्धान ही सर्व धर्मका मूल है। बहुरि वक्ता कैसा चाहिए, जाके विद्याभ्यास करनेः शास्त्र यांचनेयोग्य बुद्धि प्रगट भई होय, जातें ऐसी शक्ति बिना वक्तापनेका अधिकारी कैसे होय। बहुरि वक्ता कैसा चाहिए, जो सम्यग्ज्ञानकरि सर्व प्रकार के व्यवहार निश्चयादिरूप व्याख्यानका अभिप्राय पहचानता होय, जातें जो ऐसा न होय तो कहीं अन्य प्रयोजन लिये व्याख्यान होय ताका अन्य प्रयोजन प्रगटकरि विपरीत प्रवृत्ति करावै । बहुरि वक्ता कैसा चाहिए, जाके जिनआज्ञा भंग करने का भय बहुत होय, जाते जो ऐसा न होय तो कोई अभिप्राय विचारि सूत्र-विरुद्ध उपदेश देय जीवनिका बुरा करे। सो ही कह्या है
बहुगुणविज्जाणिलयो, असुत्तमासी तहावि मुत्तव्यो।
जह परमणिजुत्तो वि हु विग्घयरो विसहरो लोए।७।। याका अर्थ- जो बहुत क्षमादिक गुण अर व्याकरण आदि विद्याका स्थान है तथाथि उत्सूत्रभाषी है तो छोड़ने योग्य है। जैसे उत्कृष्टमणिसंयुक्त है तो भी सर्प है सो लोकविषे विघ्नका ही करणहारा है। बहुरि वक्ता कैसा चाहिए जाकै शास्त्र वांचि आजीविका आदि लौकिक कार्य साधने की इच्छा न होय, जात जो
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मोभामार्ग पकायक ...?
आशावान होइ तो यथार्थ उपदेश देइ सकै नाही, वाकै तो किछू श्रोतानिका अभिप्राय के अनुसार व्याख्यानकर अपने प्रयोजन साधने ही का साधन रहै अर श्रोतानिनै वक्ता का पद ऊँचा है परन्तु यदि वक्ता लोभी होय तो वक्ता आप हीन होइ जाइ, श्रोता ऊंचे होइ । बहुरि वक्ता कैसा चाहिए, जाकै तीव्र क्रोध मान न होय, जाते तीव्र क्रोधी मानी की निंदा होय, श्रोता तिसतै डरते रहैं लव तिसतें अपना हित कैसे करें । बहुरि वक्ता कैसा चाहिए, जो आप ही नाना प्रश्न उठाय आप ही उत्तर करै अथवा अन्य जीव अनेक प्रकारकरि बहुत बार प्रश्न करे तो मिष्टवचननिकरि जैसे उनका सन्देह दूरि होय तैसै समाधान करै। जो आपकै उत्तर देने की सामर्थ्य न होय तो या कहै, याका मोको ज्ञान नाही, (किसी विशेष ज्ञानी से पूछकर तिहारे ताई उत्तर दूंगा। अथवा कोई समय पाय विशेष ज्ञानी तुमसों मिले तो पूछ कर अपना सन्देह दूर करना और भोक बताय देना। जातें ऐसा न होय तो अभिमानके वशतें अपनी पण्डिताई जनावने को प्रकरणविरुद्ध अर्थ उपदेशै, ताते श्रोतान का विरुद्ध श्रद्धान करने तैं बुरा होय, जैनधर्म की निंदा होय।) जातें जो ऐसा न होइ तो श्रोतानि का संदेह दूर न होइ तब कल्याण कैसे होइ अर जिनमत की प्रभावना होय सके नाहीं। बहुरि वक्ता कैसा चाहिए, जाकै अनीतिरूप लोकनिंद्य कार्यनिकी प्रवृत्ति न होय, जातें लोकनिंद्य कार्यनिकरि हास्य का स्थान होय जाय तब ताका बचन कौन प्रमाण करै, जिनधर्म को लजावे। बहुरि वक्ता कैसा चाहिए, जाका कुल हीन न होय, अंगहीन न होय, स्वरभंग न होय, मिष्टववन होय, प्रभुत्व होय ताते लोकविषै मान्य होय। जातें जो ऐसा न होय तो ताको वक्तापना की महंतता शोभे नाहीं। ऐसा वक्ता होय । वक्ताविषै ये गुण तो अवश्य चाहिए सो ही आत्मानुशासनविषै कह्या है
प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः, प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः। प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया,
ब्रूयाद्धर्मकां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ।।५।। याका अर्थ- बुद्धिमान होइ, जाने समस्त शास्त्रनिका रहस्य पाया होय, लोकमर्यादा जाकै प्रगट भई होय, आशा जाकै अस्त भई होय, कांतिमान होय, उपशमी होय, प्रश्न किये पहले ही जाने उत्तर देख्या होय, बाहुल्यपने प्रश्ननि का सहनहारा होय, प्रभु होय, परकी वा परकरि आपकी निन्दा रहितपना करि होय, परके मनका हरनहारा होय, गुणनिधान होय, स्पष्ट मिष्ट जाके वचन होय, ऐसा सभा-नायक धर्मकथा कहै। बहुरि वक्ता का विशेष लक्षण ऐसा है जो याकै व्याकरण न्यायादिक वा बड़े-बड़े जैनशास्त्रनिका विशेष ज्ञान होय तो विशेषपने ताकों वक्तापनो शोभै। बहुरि ऐसा भी होय अर अध्यात्मरसकरि यथार्थ अपने स्वरूप का अनुभवन जाकै न भया होय सो जिनधर्म का मर्म जाने नाही, पद्धतिही करि वक्ता हो है। अध्यात्मरसमय साँचा जिनधर्म का स्वरूप वाकरि कैसे प्रगट किया जाय, तातें आत्मज्ञानी होइ तो सांचा वक्तापनो होई, जात प्रवचनसार विषै ऐला कह्या है। आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयमभाय ये तीनों आत्मनानकरि शून्य कार्यकारी नाहीं। (अ. ३ गाथा ३८-३६) बहुरि दोहापाहुडविर्ष ऐसा कह्या है
पंडिय पंडिय पंडिय कण छोडि वितुस कंडिया। पय-अत्थं तुठोसि परमत्थ ण जाणइ मूढोसि ।।४।।
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पहला अधिकार-१५
याका अर्थ- हे पांडे! हे पांडे! हे पांडे! तू कण छोडि तुस ही कूटै है, तू अर्थ अर शब्द विषै सन्तुष्ट है, परमार्थ न जाने है, ताते तू मूर्ख ही है। ऐसा कह्या है। अर चौदह विद्यानिविषै भी पहले अध्यात्मविद्या प्रधान कही है। तातें अध्यात्मरस का रसिया यक्ता है सो जिनधर्म के रहस्य का वक्ता जानना। बहुरि जे बुद्धिऋछि के थारक हैं वा अवधिमनःपर्यय केवलज्ञान के धनी वक्ता हैं ते महान वक्ता जानने। ऐसे वक्तानिके विशेष गुण जानने। सो इन विशेष गुणनिके धारी वक्ता का संयोग मिले तो बहुत भला है ही अर न मिले तो अद्धानादिक गुणनिके थारी वक्तानिहीके मुख- शास्त्र सुनना । या प्रकार गुण के धारी मुनि या श्रावक तिनके मुखते तो शास्त्र सुनना योग्य है अर पद्धति बुद्धि करि वा शास्त्र सुनने के लोभकरि श्रद्धानादि गुणरहित पापी पुरुषनिके मुखः शस्त्र सुनना उचित नाहीं। उक्तं च
तं जिणआणपरेण य धम्मो सोयच सुगुरुपासम्मि।
अड उधिओ सल्लाओ तस्याएसस्स करणाओ।।१।। याका अर्थ- जो जिन आज्ञा मानने विषै सावधान हैं ता करि निर्ग्रन्थ सुगुरु ही के निकटि धर्म सुनना योग्य है अथवा तिस सुगुरुही के उपदेश का कहनहारा उचित श्रद्धानी श्रायक ताल धर्म सुनना योग्य है। ऐसा जो वक्ता धर्मबुद्धिफरि उपदेशदाता होय सो ही अपना अर अन्य जीवनिका भला कर है अर जो कषायबुद्धि करि उपदेश दे है सो अपना अर अन्य जीवनिका बुरा करै, ऐसा जानना । ऐसे घयता का स्वरूप कया, अब श्रोता का स्वरूप कहै है
श्रोता का स्वरूप भला होनहार है सारौं जिस जीयकै ऐसा विचार आवै है कि मैं कौन हूँ? मेरा कहा स्वारूप है? (अर कहाते आकर यहां जन्म धास्था है और मरकर कहाँ जाऊंगा?') यह चरित्र कैसे बनि रह्या है? ये मेरे भाव हो है तिनका कहा फल लागेगा, जीय दुःखी होय रह्या है सो दुःख दूरि होने का कहा उपाय है, मुझको इतनी बातनिका ठीककरि किछू मेरा हित होय सो करना ऐसा विचारतें उद्यमवंत भया है। बहुरि इस कार्य की सिद्धि शास्त्र सुननेते होती जानि अति प्रीतिकार शास्त्र सुनै है, किछू पूछना होय सो पूछ है। बहुरि गुरुनिकरि कमा अर्थको अपने अन्तरंगविषे बारम्बार विचार है बहुरि अपने विचार सत्य अर्थनिका निश्वयकरि जो कर्तव्य होय ताका उद्यमी हो है, ऐसा तो नवीन श्रोता का स्वरूप जानना। बहुरि जे जैनधर्म के गाड़े श्रद्धानी है अर नाना शास्त्र सुननेकरि जिनकी बुद्धि निर्मल भई है। बहुरि व्यवहार निश्चयादिक का स्वरूप नीके जानि जिस अर्थको सुने हैं ताको यथावत निश्चय जानि अवधारै है। बहुरि जब प्रश्न उपजै है तब अति विनयवान होय प्रश्न कर है।' अथवा परस्पर अनेक प्रश्नोत्तर करि वस्तु का निर्णय करै है,
१. यह पंक्ति खरड़ा प्रति में नहीं है, अन्य सब प्रतियों में है। इसी से आवश्यक जान यहाँ दे दी गई है। २. यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि जो दूसरों की बुद्धि परखने के लिए ही प्रायः प्रश्न करते हैं, ऐसे श्रोताओं का
यह कृत्य परस्त्रीसंग तुल्य है (परस्त्री के स्वाद परखने तुल है) बनारसीदासजी ने कहा भी है - 'परनारी संग परबुद्धि को परखिवी' नाटकसमयसार साध्यसापकद्वार। छन्द २६। उत्तरार्ध ।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१६
शास्त्राभ्यास विषै अति आसक्त है, धर्मबुद्धिकरि निंद्य कार्यनिके त्यागी भए हैं, ऐसे तिनि शास्त्रनिके श्रोता चाहिए। बहुरि श्रोतानिके विशेष लक्षण ऐसे हैं। जो याकै किछू व्याकरण न्यायादिकका वा बड़े जैनशास्त्रनिका ज्ञान होय तो श्रोतापनो विशेष शोमै है। बहुरि ऐसा भी श्रोता है अर वाकै आत्मज्ञान न भया होय तो उपदेश का मरम समझि सकै नाहीं तातें आत्मज्ञानकरि जो स्वरूपका आस्वादी भया है सो जिनधर्म के रहस्यका श्रोता है। बहुरि जो अतिशयवंत बुद्धिकरि वा अवधिमनःपर्ययकार संयुक्त होय तो वह महान् श्रोता जानना। ऐसे श्रोतानिके विशेष गुण हैं। ऐसे जिनशास्त्रनिके श्रोता चाहिए। बहुरि शास्त्र सुननेतें हमारा भला होगा, ऐसी बुद्धिकरि जो शास्त्र सुनै हैं परन्तु ज्ञान की मन्दताकरि विशेष समझे नाही, तिनिके पुण्यबन्ध हो है, विशेष कार्यसिद्धि होती नाहीं । बहुरि जे कुलप्रवृत्तिकरि वा पद्धति बुद्धि करि वा सहज योग बनने करि शास्त्र सुनै हैं या सुनै तो हैं परन्तु किछू अवधारण करते नाही, तिनकै परिणाम अनुसार कदाचित् पुण्यबन्ध हो है कदाचित् पापबंध हो है। बहुरि जे मद-मत्सर भावकरि शास्त्र सुनै है वा तर्क करने ही का जिनका अभिप्राय है, बहुरि जे महंतता के अर्थि वा किसी लोभादिकके प्रयोजनके अर्थ शास्त्र सुने है, बहुरि जो शास्त्र तो सुनै है परन्तु सुहावता नाही, ऐसे श्रोतानिके केवल पापबन्ध ही हो है। ऐसा श्रोतानिका स्वरूप जानना । ऐसे ही यथासम्भव सीखना सिखावन मादि जिनके पादए निकासी स्वरूप जानना। या प्रकार शास्त्र का अर वक्ता श्रोताका स्वरूप कह्या सो उचित शास्त्र को उचित वक्ता होय बांचना, उचित श्रोता होय सुनना योग्य है। अब यहु मोक्षमार्गप्रकाशक नाम शास्त्र रचिए है ताका सार्थकपना दिखाइए है
'मोक्षमार्गप्रकाशक' नाम की सार्थकता इस संसार अटवी विषै समस्त जीव हैं ते कर्मनिमित्त निपजे जे नाना प्रकार दुःख तिनकारे पीड़ित होइ रहे हैं। बहुरि तहाँ मिथ्या अन्थकार व्याप्त होय रहा है। ताकरि तहाँते मुक्त होने का मार्ग पावते नाही, तड़फि-तड़फि तहाँ ही दुःख को सहे हैं। बहुरि ऐसे जीवनिका भला होनेको कारण तीर्थंकर केवली भगवान सो ही सूर्य भया, ताका उदय भया, ताकै दिव्यध्वनिरूपी किरणनिकरि तहांत मुक्त होने का मार्ग प्रकाशित किया। जैसे सूर्य के ऐसी इच्छा नाहीं जो मैं मार्ग प्रकाशू परन्तु सहज ही वाकी किरण फैले है ताकरि मार्गका प्रकाश हो है तैसे ही केवली वीतराग हैं तात ताकै ऐसी इच्छा नाहीं जो हम मोक्षमार्ग प्रगट करें परन्तु सहज ही अघातिकर्मनिका उदयकरि तिनका शरीररूप पुद्गल दिव्यध्वनिरूप परिणमै है ताकरि मोक्षमार्गका प्रकाशन हो है। बहुरि गणथरदेवनिके यह विचार आया कि जहाँ केवली सूर्यका अस्तपना होइ तहाँ जीय मोक्षमार्गकी कैसे पावै अर मोक्षमार्ग पाए बिना जीव दुःख सहेंगे, ऐसी करुणाबुद्धि करि अंगप्रकीर्णकादिरूप ग्रन्थ तैई भए महान् दीपक तिनका उद्योत किया। बहुरि जैसे दीपक करि दीपक जोबनेरौं दीपकनिकी परम्परा वर्ते तैसे आचार्यादिकनि करि तिनि ग्रन्थनित अन्य ग्रन्थ बनाए। बहुरि तिनहूः किनहू अन्य ग्रन्थ बनाए। ऐसे ग्रन्थनित ग्रन्थ होतेः ग्रन्थनिकी परम्परा व है। मैं भी पूर्वग्रन्थनितें इस ग्रन्थ को बनाऊँ हूँ। बहुरि जैसे सूर्य वा सर्व दीपक है ते मार्ग को एकरूप ही प्रकाशै है तैसे दिव्यध्वनि वा सर्व ग्रन्थ हैं ते मोक्षमार्ग को एकरूप ही प्रकाश हैं। सो यह भी ग्रन्थ मोक्षमार्ग को प्रकाशै है। बहुरि जैसे प्रकाशै भी नेत्ररहित वा नेत्रविकार सहित पुरुष है तिनकुं मार्ग सूझता नाहीं तो दीपककै तो मार्ग प्रकाशकपनेका अभाव
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पहला अधिकार १७
भया नाहीं, तैसे प्रगट किये भी जे मनुष्य ज्ञानरहित हैं या मिथ्यात्वादि विकार सहित हैं तिनकूं मोक्षमार्ग सूझता नाहीं तो ग्रन्थर्क तो मोक्षमार्ग प्रकाशकपनेका अभाव भया नाहीं। ऐसे इस ग्रन्थ का मोक्षमार्ग प्रकाशक ऐसा नाम सार्थक जानना ।
प्रस्तुत ग्रन्थ की आवश्यकता
इहां प्रश्न - जो मोक्षमार्ग के प्रकाशक ग्रन्थ पूर्व तो थे ही, तुम नवीन ग्रन्थ काहे को बनावो हो ? ताका समाधान जैसे बड़े दीपकनिका तो उद्योत बहुत तैलादिक का साधन रहे हैं, जिनके बहुत तैलादिक का शक्ति न होइ तिन स्तोक दीपक जो जिये तो वे उसका साधन राखि ताके उद्योतत अपना कार्य करे; तैसे बड़े ग्रन्थनिका तो प्रकाश बहुत ज्ञानादिक का साधन रहे है, जिनके बहुत ज्ञानादिक की शक्ति नाहीं तिनकूं स्तोक ग्रन्थ बनाय दीजिये तो वे वाका साधन राखि ताके प्रकाशर्तें अपनो कार्य करे। तातैं यह स्तोक सुगम ग्रन्थ बनाइए है । बहुरि इहां जो मैं यहु ग्रन्थ बनाऊँ हूँ सो कषायनितें अपनो मान बधावनेको वा लोभ साधने को वा यश होने को वा अपनी पद्धति राखने को नाहीं बनाऊँ हूँ। जिनकै व्याकरण न्यायादिकका वा नय प्रमाणादिकका वा विशेष अर्थनिका ज्ञान नाहीं तार्ते तिनकै बड़े ग्रन्थनिका अभ्यास तौ बनि सके नाहीं । बहुरि कोई छोटे ग्रन्थनिका अभ्यास बने तो भी यथार्थ अर्थ भासै नाहीं । ऐसे इस समयविषै मंदज्ञानवान जीव बहुत देखिये हैं तिनिका भला होने के अर्थि धर्मबुद्धित यह भाषामय ग्रन्थ बनाऊँ हूँ । बहुरि जैसे बड़े दरिद्री को अवलोकनमात्र चिन्तामणिकी प्राप्ति होय अर वह न अवलोकै, बहुरि जैसे कोढी अमृत पान करावे अर वह न करे तेसे संसारपीड़ित जीवको सुगम मोक्षमार्ग के उपदेश का निमित्त वनै अर वह अभ्यास न करे तो वाके अभाग्य की महिमा का वर्णन हमतें तो होय सकै नाहीं । वाका होनहारहीको विचारे अपने समता आवै । उक्तं च
साहीणे गुरुजोगे जेण सुतीह धम्मवयणाई ।
ते विट्ठचित्ता अह सुहडा भवभयविहूणा ॥७॥
स्वाधीन उपदेशदाता गुरु का योग जुड़े भी जे जीव धर्म्य वचननिकों नाहीं सुने हैं ते धीठ हैं अर उनका दुष्टचित्त है अथवा जिस संसारभयतें तीर्थंकरादिक डरे तिस संसारभयकरि रहित हैं, ते बड़े सुभट हैं। बहुरि प्रवचनसारविषै भी मोक्षमार्ग का अधिकार किया है तहां प्रथम आगमझान ही उपादेय कच्चा, सो इस जीवका तो मुख्य कर्त्तव्य आगमज्ञान है, याको होते तत्त्वनिका श्रद्धान हो है, तत्त्वनिका श्रद्धान भये संयमभाव हो है अर तिस आगमतें आत्मज्ञान की भी प्राप्ति हो है तब सहज ही मोक्ष की प्राप्ति हो है। बहुरि धर्म के अनेक अंग हैं तिनविषै एक ध्यान बिना यातें ऊँचा और धर्मका अंग नाहीं है तातें जिस तिसप्रकार आगम अभ्यास करना योग्य है । बहुरि इस ग्रन्थ का तो वांचना सुनना विचारना धना सुगम है, कोऊ व्याकरणादिक का भी साधन न चाहिए, तातैं अवश्य ताका अभ्यासविषै प्रवर्ती, तुम्हारा कल्याण होगा।
इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नाम शास्त्रविषै पीठबन्धप्ररूपक प्रथम अधिकार समाप्त भया ।19।।
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दूसरा अधिकार
संसार अवस्था का स्वरूप
* दोहा मिथ्याभाव अभायतें, जो प्रगटै निजभाव। सो जयवंत रहो सदा, यह ही मोक्ष उपाय।।१।।
दुःख का मूल कारण : कर्मबन्धन अब इस शास्त्रविषै मोक्षमार्ग का प्रकाश करिए है। तहां बन्धनतें छूटने का नाम मोक्ष है। सो इस आत्मा के कर्म का बन्धन है, बहुरि तिस बन्धनकरि आत्मा दुःखी होय रह्या है। बहुरि याकै दुःख दूरि करने ही का निरन्तर उपाय भी रहे है परन्तु सांचा उपाय पाए बिना दुःख दूरि होता नाहीं अर दुःख सह्या भी जाता नाही तातै यह जीव व्याकुल होय रह्या है। ऐसे जीव को समस्त दुःख का मूल कारण कर्मबन्धन है ताका अभावरूप मोक्ष है सो ही परम हित है। बहुरि याका सांचा उपाय करना सो ही कर्तव्य है तातें इस ही का याकों उपदेश दीजिए है। तहाँ जैसे वैद्य है सो रोग सहित मनुष्य को प्रथम तो रोग का निदान बतावै, ऐसे यहु रोग भया है, बहुरि उस रोग के निमित्त तैं याकै जो-जो अवस्था होती होय सो वतावे, ताकरि वाकै निश्चय होय जो मेरे ऐसे ही रोग है। बहुरि तिस रोग के दूरि करने का उपाय अनेक प्रकार बतावै अर तिस उपाय की ताको प्रतीति अनावै, इतना तो वैद्य का बतावना है। बहुरि जो वह रोगी ताका साधन करै तो रोग से मुक्त होइ अपना स्वभावरूप प्रवः सो यहु रोगी का कर्तव्य है। तैसे ही इहाँ कर्मबन्धन युक्त जीव को प्रथम तो कर्मबन्धन का निदान बताइए है, ऐसे यहु कर्मबन्धन भया है बहुरि उस कर्मबन्धन के निमित्त ते याकै जो-जो अवस्था होती है सो सो बताइए है, ताकरि जीवकै निश्चय होय जो मेरे ऐसे ही कर्मबन्धन हैं। बहुरि तिस कर्मबन्धन के दूरेि होने का उपाय अनेक प्रकार बताइए है अर तिस उपाय की याको प्रतीति अनाइये है, इतना तो शास्त्र का उपदेश है। बहुरि यह जीव ताका साधन करै तो कर्मथन्धन मुक्त होय अपना स्वभावरूप प्रवतै सो यहु जीव का कर्तव्य है। सो इहां प्रथम ही कर्मबन्धन का निदान बताइये है।
कर्मबन्धन का कारण बहुरि कर्मबन्धन होते नाना उपाधिक भावनिविषे परिभ्रमणपनों पाइए है, एक रूप रहनो न हो
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दूसरा अधिकार- १८.
है तातै कर्म-बन्धन सहित अवस्था का नाम संसार अवस्था है। सो इस संसार अवस्थाविषै अनन्तानन्त जीव द्रव्य हैं ते अनादिही कर्मबन्धन सहित हैं। ऐसा नाहीं है जो पहले जीव न्यारा था अर कर्म न्यारा था, पीछे इनिका संयोग भया । तो कैसे है जैसे मेरुगिरि आदि अकृत्रिम स्कन्धनिविर्षे अनंते पुद्गल परमाणु अनावित एकबन्धनरूप हैं, पीछे तिनमें केई परमाणु भिन्न हो हैं कई नये मिले हैं। ऐसे मिलनो बिछुरनो हुआ करे है। तैसे इस संसार विषै एक जीव द्रव्य अर अनन्ते कर्मरूप पुद्गल परमाणु तिनिका अनादितें एकबन्धनरूप है, पीछे तिनमें कई कर्म परमाणु भिन्न हो हैं कई नये मिले हैं। ऐसे मिलनो बिधुरनो हुआ करे है।
बहुरि इहां प्रश्न - जो पुद्गलपरमाणु तो रागादिक के निमित्त तें कर्मरूप हो है, अनादि कमस्य कैसे है?
ताका समाधान - निमित्त तें नवीन कार्य होय तिस विषै ही सम्भव है। अनादि अवस्थावियै निमित का किछू प्रयोजन नाहीं । जैसे नवीन पुद्गल - परमाणुनिका बंधन तो स्निग्ध रूक्ष गुण के अंशन ही करि हो है अर मेरुगिरि आदि स्कन्धनिविषै अनादि पुद्गल परमाणुनिका बन्धान है तहां निमित्त का कहा प्रयोजन है ? तैसे नवीन परमाणुनिका कम्मरूप होना तो रागादिकनि ही करि हो है अर अनादि पुद्गल परमाणुनि की कर्म्मरूप ही अवस्था है। तहाँ निमित्त का कहा प्रयोजन है? बहुरि जो अनादिविषै भी निमित्त मानिए तो अनादिपना रहे नाहीं । तातैं कर्म का बन्ध अनादि मानना । सो तत्वप्रदीपिका प्रवचनसार शास्त्र की व्याख्या विषै जो सामान्यज्ञेयाधिकार है तहां का है। रागादिक का कारण तो द्रव्यकर्म है अर द्रव्यकम्र्म्म का कारण रागादिक है। तब वहाँ तर्क करी जो ऐसे इतरेतराश्रयदोष लागे, वह वाके आश्रय, वह बाके आश्रय, कहीं भाव नाहीं है, तब उत्तर ऐसा दिया है
9 नैवं अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्म्मसम्बन्धस्य तत्र हेतुत्वेनोपादानात् ।
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याका अर्थ - ऐसे इतरेतराश्रय दोष नाहीं है । जातै अनादिका स्वयंसिद्ध द्रव्यकम् का सम्बन्ध है ताका तहाँ कारणपनाकरि ग्रहण किया है। ऐसे आगम में कह्या है। बहुरि युक्ति तैं भी ऐसे ही सम्भवै है, जो कर्म्मनिमित्त बिना पहले जीव के रागादिक कहिए तो रागादिक जीव का एक स्वभाव हो जाय, जातैं परनिमित्त बिना होइ ताही का नाम स्वभाव हैं। तातैं कम्प का सम्बन्ध अनादि ही मानना ।
बहुरि इहाँ प्रश्न जो न्यारे-न्यारे द्रव्य अर अनादितैं तिनका सम्बन्ध, ऐसे कैसे सम्भवे ?
ताका समाधान - जैसे डेटिहीसूं जल दूध का, वा सोना किट्टिक्का, वा तुष कण का, वा तेल तिल का सम्बन्ध देखिए है, नवीन इनका मिलाप भया नाहीं तैसे अनादिहीसों जीव कर्म्म का सम्बन्ध जानना, नवीन इनका मिलाप नाहीं भया । बहुरि तुम कही कैसे सम्भवै? अनादितैं जैसे केई जुदे द्रव्य हैं तैसे केई मिले द्रव्य हैं, इस संभवनेविषे किछू विरोध तो भासता नाहीं ।
५. नहि अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्माभिसम्बद्धस्यात्मनः प्राक्तनद्रव्यकर्मणस्तत्र हेतुत्वेनोपादानात् । प्रवचनसार टीका २ / २६
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२०
बहुरि प्रश्न-जो सम्बन्ध वा संयोग कहना तो तव संभवै जब पहले जुदे होइ पीछै मिलै । इहाँ अनादि मिले जीव कर्मनिका सम्बन्ध कैसे कह्या है।
ताका समाधान- अनादितें तो मिले थे परन्तु पीछे जुदे भए तब जान्या जुदे थे तो जुदे भए। ताते पहले भा भिन्न ही थे। ऐसे अनुमान करि या केवलज्ञानकरि प्रत्यक्ष भिन्न भासै है। तिसकरि तिनका बन्धान होतें भिन्नपना पाइए है। बहुरि तिस भिन्नता की अपेक्षा तिनका सम्बन्ध या संयोग कह्या है, जात नए मिलो वा मिले ही होहु, भिन्न द्रव्यनिका मिलापविष ऐसे ही कहना समय है। ऐसे इन जीवकर्मनिका अनादि सम्बन्ध है।
जीव और कर्मों की भिन्नता तहाँ जीवद्रव्य तो देखने जानने म्रूप चेतनागुण का धारक है अर इन्द्रियगम्य न होने योग्य अमूर्तीक है, संकोचविस्तारशक्तिको लिये असंख्यातादेशी एक द्रव्य है। बहुरि कर्म है सो चेतनागुणरहित जड़ है अर मूर्तीक है, अनन्त पुद्गल परमाणुनिका पिण्ड है तातै एक द्रव्य नाहीं है। ऐसे ए जीव अर कार्म हैं सो इनका अनादि सम्बन्ध है तो भी जीव का कोई प्रदेश कर्मरूप न हो है अर कर्म का कोई परमाणु जीव रूप न हो है। अपने-अपने लक्षण को धरे जुदै-जुदे ही रहे हैं। जैसे सोना रूपा का एक स्कन्ध होइ तथापि पीततादि गुणनिकों धरे सोना जुदा रहे है, स्वेततादि गुणनिको धरे रूपा जुदा रहे है, तैसे जुदै जानने।
इहां प्रश्न-जो मूर्तीक मूर्तीक का तो बन्धान होना बने, अमूर्तीक मूर्तीक का बन्धान कैसे बने?
ताका समाधान-जैसे व्यक्त इन्द्रियंगम्य नाहीं ऐसे सूक्ष्म पुद्गल अर व्यक्त इन्द्रियगम्य है ऐसे स्थूल पुद्गल तिनका बन्धान होना मानिए है तैसे इन्द्रियगम्य होने योग्य नाही ऐतो अमूर्तीक आत्मा अर इन्द्रियगम्य होने योग्य मूर्तीककर्म इनका भी बन्थान होना मानना । बहुरि इस बन्धानविष कोऊ किसी को करे तो है नाहीं। यावत् बन्धान रहे तावत् साथ रहे, बिछुरे नाहीं अर कारण-कार्यपना तिनकै बन्यो रहे, इतना ही इहाँ बंधान जानना । सो मूर्तीक अभूर्तीककै ऐसे बन्धान होने विषै किछू विरोध है नाहीं। या प्रकार जैसे एक जीवकै अनादि कर्मसम्बन्ध कह्या तैसे ही जुदा-जुदा अनन्त जीवनिकै जानना।
विशेष-सर्वार्थसिद्धि में यही प्रश्न उठाया गया है कि अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्मों का बन्ध नहीं बनता, तो उसका उत्तर वहाँ दिया गया है-आत्मा के अमूर्तत्व के विषय में अनेकान्त है यानी यह कोई एकान्त नहीं है कि आत्मा अमूर्त ही है। कर्मबन्धरूप पर्याय की अपेक्षा उससे युक्त होने के कारण आत्मा कथंचित् मूर्त है तथैव शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा कथंचित् अमूर्त है। (स.सि. २/७ पृ.१६१) पूज्य अमृतचन्द्राचार्य ने भी कहा है कि “अमूर्तिक आत्मा का मूर्तिक कर्मों के साथ बन्ध असिद्ध नहीं है क्योंकि अनेकान्त से आत्मा में मूर्तिकपना सिद्ध है। कर्मों के साथ अनादिकालीन नित्य सम्बन्थ होने से आत्मा और कर्मों में एकत्व हो रहा है। इसी एकत्व के कारण अमूर्त आत्मा में भी मूर्तत्व माना जाता है। जिस प्रकार एक साथ पिधलाये हुए स्वर्ण तथा चांदी का एक पिण्ड बनाये जाने पर परस्पर प्रदेशों के मिलने से दोनों के एकरूपता मालूम होती है। आत्मा
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दुसरा अधिकार-२१
के मूर्तिक मानने में एक युक्ति यह भी है कि उस पर मदिरा (मूर्त पदार्थ) का प्रभाव देखा जाता है इसलिए आत्मा मूर्तिक है। क्योंकि मदिरा अमूर्तिक आकाश में मद को उत्पन्न नहीं कर सकती। (त.सार ५/१६-१६) पूज्य भगवद्वीरसेन स्वामी भी कहते हैं कि संसार अवस्था में जीवों के अमूर्तपना नहीं पाया जाता। इसलिए “जीवद्रव्य अमूर्त है तथा पुद्गलद्रव्य मूर्त; फिर इनका बन्ध कैसे हो सकता है। यह प्रश्न ही नहीं उठता। प्रश्न : यदि संसार अवस्था में जीव मूर्त है तो मुक्त होने पर वह अमूर्तपने को कैसे प्राप्त हो सकता है? उत्तर : यह कोई दोष नहीं है क्योंकि जीव में मूर्तपने का कारण कर्म है, कर्म का अभाव होने पर तज्जनित मूर्तता का भी अभाव हो जाता है और इसीलिए सिद्ध जीवों के अमूर्तपने की सिद्धि हो जाती है। (धवल १३/११, ३३३, धवल १५/३३-३४ आदि)इस प्रकार संसारी जीव कथञ्चित् मूर्त है, यह सिद्ध हुआ। इसीलिए तो मूर्तजीव का मूर्त कर्म के साथ बन्ध भी बन जाता है। कहा भी है- संसारत्या जीवा रूवी-गो.जी.।
कर्म के आठ भेद और घातिया कर्मों का प्रभाव बहुरि सो कर्म ज्ञानावरणादि भेदनिकरि आठ प्रकार है। तहाँ च्यारि घातियाकर्मनि के निमित्त तो जीव के स्वभाव का घात हो है। तहाँ झानावरण दर्शनावरणकरि तो जीव के स्वभाव ज्ञान दर्शन तिनकी व्यक्तता नाहीं हो है, तिन कर्मनिका क्षयोपशम के अनुसार किंचित् ज्ञान दर्शन की व्यक्तता रहे है। बहुरि मोहनीयकरि जीव के स्वभाव नाहीं ऐसे मिथ्या श्रद्धान का क्रोध मान माया लोभादिक कषाय तिनकी व्यक्तता हो है। बहुरि अंतरायकरि जीव का स्वभाव दीक्षा लेने की समर्थतारूप वीर्य ताकी व्यक्तता न हो है, ताका क्षयोपशम के अनुसार किंचित् शक्ति हो है। ऐसे घातिकर्मनिके निमित्तते जीव के स्वभाव का घात अनादिहीत भया है। ऐसे नाहीं जो पहले तो स्वभाव रूप शुद्ध आत्मा था पीछे कर्मनिमित्त” स्वभावघात होने करि अशुद्ध भया।
इहां तर्क- जो घात नाम सो अभावका है सो जाका पहले सद्भाव होय नाका अभाव कहना बने । इहा स्वभावका तो सद्भाव है ही नाही, घात किसका किया?
ताका समाधान-जीवविष अनादि ही ते ऐसी शक्ति पाइए है जो कर्मका निमित्त न होइ तो . केवलज्ञानादि अपने स्वभावरूप प्रवर्तं परन्तु अनादिहीतें कर्मका सम्बन्ध पाइए है। तात तिस शक्तिका व्यक्तपना न भया सो शक्ति अपेक्षा स्वभाव है ताका व्यक्त न होने देनेकी अपेक्षा घात किया कहिए है।
अधातिया कर्मों का प्रभाव बहुरि म्यारि अघातिया कर्म है तिनके निमिचत इस आत्मार्क बाघसामग्रीका सम्बन्ध बने है तहाँ वेदनीयकरि तो शरीरविणे या शरीरनै बाह्य नाना प्रकार सुख-दुःखको कारण परद्रव्यनिका संयोग जुरै है अर आयुकार अपनी स्थितिपर्यंत पाया शरीर का सम्बन्ध नाहीं छूट सबै है अर नामकरि गति जाति शरीरादिक निपजै है अर गोत्रकरि ऊँचा-नीचा कुल की प्राप्ति हो है ऐसे अघातिकानिकरि बाह्य सामग्री
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२२
भेली हो है ताकरि मोह के उदय का सहकार होते जीव सुखी दुःखी हो है। अर शरीरादिकनिके सम्बन्ध जीव के अमूर्त्तत्वादि स्वभाव अपने स्वार्थ को नाहीं करै है। जैसे कोऊ शरीर को पकरे तो आत्मा भी पकस्या जाय। बहुरि यावत् कर्म का उदय रहे ताक्त् बाह्य सामग्री तैसे ही बनी रहे अन्यथा न होय सके, ऐसा इन अघातिकर्मनिका निमित्त जानना।
इहां कोऊ प्रश्न करै कि कर्म तो जड़ हैं, किछू बलवान नाही, तिनकरि जीव के स्वभाव का बात होना वा बाह्य सामग्री का मिलना कैसे सम्भवै है?
ताका समाधान-जो कर्म आप कर्ता होय उद्यमकरि जीवके स्वभाव को घातै, बाह्य सामग्री को मिलादै तो कर्मकै चेतनपनों भी चाहिए अर बलवानपनों भी चाहिए सो तो है नाही, सहजही निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्थ है। जब उन कर्मनिका उदयकाल होय तिस कालविर्ष आपही आत्मा स्वभाव रूप न परिणमै विभावरूप परिणमै वा अन्य द्रव्य हैं ते तैसे ही सम्बन्धरूप होप परिणमैं । जैसे काहू पुरुषके सिर परि मोहनधूलि परी है तिसकरि सो पुरुष बावला भया तहाँ उस मोहनधूलिकै ज्ञान भी न था अर बलवानपना भी न था अर बावलापना तिस पोहनधूलि ही करि भया देखिए है। मोहनधूलिका तो निमित्त है अर पुरुष आप ही बावला हुआ परिणमै है, ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक बनि रह्या है। बहुरि जैसे सूर्य उदय का कालविषै चकवा चकवीनिका संयोग होय तहाँ रात्रिविषे किसी ने द्वेषबुद्धि जोरावरी करी जुदे किए नाहीं, दिवस विषै काहू ने करुणाबुद्धि नै ल्यायकरि मिलाए नाहीं, सूर्य उदयका निमित्तपाय आप ही मिले है अर सूर्यास्त का निमित्त पाय आप ही बिछुरै हैं । ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक बनि रहा है। तैसे ही कर्मका भी निमित्त नैमित्तिक भाव जानना। ऐसे कर्म का उदय करि अवस्था होय है। बहुरि तहाँ नवीन बन्ध कैसे हो है, सो कहिए है
नूतन बन्ध विचार स्वभाव बन्ध का कारण नहीं है
जैसे सूर्य का प्रकाश है सो मेवपटलते जितना व्यक्त नाही तितने का तो तिस कालविष अभाव है बहुरि तिस मेघपटलका मन्दपनाते जेता प्रकाश प्रगटै है सो तिस सूर्य के स्वभाव का अंश है, मेघपटलजनित नाहीं है। तैसे जीवका ज्ञानदर्शन वीर्य स्वभाव है सो ज्ञानावरण दर्शनाबरण अन्तराय के निमित्ततें जितने व्यक्त नाही तितने का तो तिसकालविर्ष अभाव है। बहुरि तिन कर्मनि का क्षयोपशमते जेता ज्ञान दर्शन वीर्य प्रगटै है सो तिस जीव के स्वभाव का अंश ही है, कर्मजनित उपाधिक भाव नाहीं है। सो ऐसा स्वभाव के अंशका अनादित लगाय कबहूँ अभाव न हो है। याही करि जीव का जीवत्वपना निश्चय कीजिए है। जो यह देखनहार जाननहार शक्तिको धरे, वस्तु है सो ही आत्मा है। बहुरि इस स्वभावकरि नयीन कर्मका बन्ध नाही है। जातें निज स्वभाव ही बन्ध का कारण होइ तो बन्ध का छूटना कैसे होय। बहुरि तिन कर्मनिके उदयतै जेता ज्ञान दर्शन वीर्य अभाव रूप है ताकरि भी बन्ध नाहीं है जाते आप ही का अभाव होते अन्यको कारण कैसे होय । तातै ज्ञानावरण दर्शनावरण अन्तराय के निमिनः निपजै भाव नवीनकर्मबन्ध के कारण नाहीं।
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दूसरा अधिकार - २३
औपाधिक भाव ही नवीनबन्ध के कारण हैं
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बहुरि मोहनीय कर्म्मकरि जीव के अयथार्थ श्रद्धानरूप तो मिध्यात्वभाव हो है वा क्रोध, मान माया लोभादिक कषाय हो है । ते यद्यपि जीव के अस्तित्वमय हैं, जीवतें जुदे नाहीं, जीब ही इनका कर्ता है, जीव के परिणमनरूप ही ये कार्य हैं तथापि इनका होना मोहकर्म्म के निमित्ततें ही है, कर्म्मनिमित्त दूरि भए इनका अभाव ही है तातें ए जीव के निजस्वभाव नाहीं, उपाधिकभाव हैं । बहुरि इनि भावनि करि नवीन बंध हो हैं । तातें मोह के उदयतें निपजे भाव बंध के कारन हैं । बहुरि अघातिकर्म्मनिके उदयतें बाह्य सामग्री मिले है, तिन विषै शरीरादिक तो जीव के प्रदेशनिसों एकक्षेत्रावगाही होय एकबन्धानरूप हो हैं अर धन कुटुम्बादिक आत्मा भिन्न रूप हैं सो ए सर्व बन्ध के कारण नाहीं हैं, जातैं परद्रव्य बंध का कारण न होय । इन विषै आत्मा के ममत्वादिरूप मिथ्यात्वादि भाव हो हैं सोई बंथ का कारण जानना ।
ड
विशेष : पर- द्रव्य बन्ध का साक्षात् कारण नहीं होता, यह त्रैकालिक सत्य है । किन्तु इसके साथ ही यह भी जानना चाहिए कि धन कुटुम्बादिक रूप पर - पदार्थ बन्ध में कारण के कारण हैं । समयसार गाथाः २६५ की आत्मख्याति टीका में अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं कि बाह्य वस्तुरूप आश्रय के बिना अध्यवसान (रागादिभाव ) नहीं होते (ततो निराश्रयं नाध्यवसानमिति नियमः ) तथा अध्यवसान ( रागादि भाव) ही बन्ध का कारण है । (अध्यवसानमेव बन्धहेतुः ) यह भी वही ( स.सा. २६५ आत्मख्याति में) लिखा है। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि बन्ध के कारण (अध्यवसान) का आश्रय रूप कारण बाह्यवस्तु है अर्थात् बाह्यवस्तु बन्ध के कारण की कारण है । इसीलिए तो वहीं पर कहा है कि 'इसीलिए अध्यवसान की आश्रयभूत बाह्यवस्तु का अत्यन्त निषेध किया है जिससे कारण (बाह्यवस्तु ) के प्रतिषेध से ही कार्य (अध्यवसान - रागादिभाव ) का प्रतिषेध हो जाए । अमृतचन्द्राचार्य ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय गाथा ४६ में कहा है कि "हिंसायतननिवृत्तिः तदपि परिणामविशुद्धये कार्या" अर्थात् परवस्तु से बन्ध नहीं होता तो भी परिणामों की विशुद्ध के लिए यह आवश्यक है कि बाह्य निमित्तों का भी त्याग करें। कहा भी है- परिणामों की विशुद्धि के लिए बाह्यनिमित्तों का त्याग करना भी जरूरी है। (पु. सित्युपाय पृ. १६३ पं. मुन्नालाल जी रांधेलीय का अनुवाद) इस प्रकार यह लिख हुआ कि बाह्य वस्तु बन्ध के कारण की कारण है । ( वन्यहेतुहेतुत्वे सत्यपि ) समयसार २६५ अमृतचन्द्रीय टीका ।
रागद्वेष-मोह (बन्ध के कारण) के बाह्य कारण (अर्थात् निमित्त, आश्रय, आधार, विषय) पर-पदार्थ होते हैं। यही कारण है कि यदि किसी से कहा जाए कि तुम रागद्वेष मोह करो किन्तु शुद्धात्मा के सिवाय अन्य पदार्थों में मत करो तो वह कर ही कैसे सकता है ? (वर्णी प्रवचन वर्ष ३९ अंक ९ पृ. ३३) बाह्य पदार्थों का परित्याग करने पर तज्जन्य रागभाव छूटे भी और न भी छूटे किन्तु पदार्थ के त्याग बिना रागभाव नहीं छूट सकता ।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२४
योग और उससे होने वाले प्रकृतिबन्ध प्रदेशबन्ध बहुरि इतना जानना जो नामकर्म के उदयतें शरीर वा वचन वा मन निपजै है तिनिकी चेष्टा के निमित्ततें आत्मा के प्रदेशनिका चंचलपना हो है ताकरि आत्मा के पुद्गलवर्गणासों एक बन्धान होने की शक्ति हो है, ताका नाम योग है। ताकै निमित्ततें समय-समयप्रति कर्मरूप होने योग्य अनंत परमाणुनिका ग्रहण हो है। तहाँ अल्पयोग होय तो थोरे परमाणुनिका ग्रहण होय, बहुत योग होय तो घने परमाणुनिका ग्रहण होय । बहुरि एक समय विषै जे पुद्गलपरमाणु-ग्रहे तिनि विषै ज्ञानावरणादि मूलप्रकृति वा तिनकी उत्तर प्रकृतिनिका जैसे सिद्धान्तविषे कहा है तैसे बटवारा हो है। तिस बटवारा माफिक परमाणु तिन प्रकृतिनिरूप आपही परिणमै हैं। विशेष इतना कि योग दोय प्रकार है-शुभयोग, अशुभयोग। तहाँ धर्मके अंगनिविषै मनवचनकायकी प्रवृत्ति भए तो शुभयोग हो है अर अधके अंगनिविर्षे तिनकी प्रवृत्ति भए अशुभयोग हो है |सो शुभ योग होहु वा अशुभयोग होहु सम्यक्त्व पाए बिना घातियाकर्मनिका तो सर्वप्रकृतिनिका निरन्तर बंध हुआ ही करै है। कोई समय किसी भी प्रकृतिका बन्ध हुआ बिना रहता नाहीं। इतना विशेष है जो मोहनीयका हास्य शोक युगलविष, रति अरति युगलविषै, तीनों वेदनिविषे एकै काल एक-एक ही प्रकृतिनिका बन्ध हो है। बहुरि अघातियानिकी प्रकृतिनिविष शुभयोग होते साता वेदनीय आदि पुण्यप्रकृतिनिका बन्ध हो है। अशुभ योग होते असासावेदनीय आदि पापप्रकृतिनिका बन्ध हो है। मिश्रयोग होते केई पुण्यप्रकृतिनिका केई पापप्रकृतिनिका बन्ध हो है। ऐसा योग के निमित्त ते कर्मका आगमन हो है। तातै योग है सो आस्त्रय है। बहुरि याकरि ग्रहे कर्मपरमाणुनिका नाम प्रदेश है तिनिका बंध भया अर तिन विषै मूल उत्तरप्रकृतिनिका विभाग मया तातै योगनिकरि प्रदेशबन्ध वा प्रकृतिबन्ध का होना जानना।
कषाय से स्थिति और अनुभाग बहुरि मोह के उदयतै मिथ्यात्व क्रोधादिक भाव हो है, तिन सबनिका नाम सामान्यपने कषाय है। ताकरि तिनकर्मप्रकृतिनिकी स्थिति बन्थै है सो जितनी स्थिति बन्धै तिसविष आबाथाकाल छोड़ि तहाँ पोष्ट यावत् बैंधी स्थिति पूर्ण होय तावत् समय-समय तिस प्रकृति का उदय आया ही करें। सो देव मनुष्य तिथंचायु बिना अन्य सर्व धातिया अघातिया प्रकृतिनिका अल्पकषाय होतें धोरा स्थिति बन्ध होय, बहुत कषाय होते घना स्थितिबन्थ होय। तिन तीन आयुनि का अल्पकषायतें बहुत अर बहुत कषायतें अल्प स्थितिबन्ध जानना। बहुरि तिस कषायहीकरि तिन कर्मप्रकृतिनिविर्षे अनुभाग-शक्ति का विशेष हो है सो जैसा अनुभाग बंथे तैसा ही उदयकालविष तिन प्रकृतिनिका घना वा थोरा फल निपजे है। तहाँ घातिकर्मनिकी सर्व प्रकृतिनिविषे या अधातिकनिकी पाप प्रकृतिनिविषै तो अल्पकषाय होते योरा अनुभाग बंधै है, बहुत कषाय होतें घना अनुभाग बन्यै है। बहुरि पुण्यप्रकृतिनिविषै अल्पकषाय होतें घना अनुभाग बंधै है, बहुत कषाय होते थोरा अनुभाग बन्धे है। ऐसे कषायनिकरि कर्मप्रकृतिनिके स्थिति अनुभाग का विशेष भया ताते कषायनिकरि स्थितिबन्ध अनुभागबंध का होना जानना। इहाँ जैसे बहुत भी मदिरा है अर ताविषै थोरे
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दृसग़ अधिकार-२५
कालपर्यंत योरी उन्मत्तता उपजादने की शक्ति है तो वह मदिरा होनपनाको प्राप्त है। बहुरि जो थोरी भी मदिरा है अर ताविषे बहुत कालपर्यंत धनी उन्मत्तता उपजावने की शक्ति है तो वह मदिरा, अधिकपनाकों प्राप्त है। तैसे घने भी कर्मप्रकृतिनिके परमाणु हैं अर तिनविषै थोरे कालपर्यन्त थोरा फल देने की शक्ति है तो के कर्मप्रकृति हीनताको प्राप्त हैं। बहुरि थोरे भी कर्मप्रकृतिनिके परमाणु हैं अर तिनविषे बहुत कालपर्यंत बहुत फल देने की शक्ति है तो वे कर्मप्रकृति अधिकपनाको प्राप्त हैं। तातें योगनिकरि भया
प्रकृतिवन्ध प्रदेशबन्ध बलवान नाही, कषायनिकरि किया स्थितिबंध अनुभागबन्ध ही बलवान है। तात . मुख्यपने कवाय ही अन्य का कारण जानना, निमको बन्धन करना होय ते कषाय भति करो।
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जड़ पुद्गल परमाणुओं का यथायोग्य प्रकृतिरूप परिणमन _ . बार इहा कोऊ प्रश्न करै कि पुद्गलपरमाणु तो जड़ है, उनके किछु ज्ञान नाहीं, कैसे यथायोग्य प्रतिरूप होय परिणम है?
___ताका समाधान-जैसे भूख होते मुखद्वारकरि ग्रह्याहुबा भोजनरूप पुद्गलपिंड सो मांस शुक्र शोणित आदि धातुरूप परिणमै है। बहुरि तिस भोजन के परमाणुनिविषे यथायोग्य कोई धातुरूप थोरे कोई धातुरूप पने परमाणु हमे है। बहुरि तिनविष केई परमाणुनिका सम्बन्ध घने काल रहे, केईनिका थोरे काल रहै, बहुरि तिन परमाणुनिविदे केई तो अपने कार्य निपजावने की बहुत शक्तिको धरै हैं, केई स्तोकशक्तिको धरै है। सो ऐसे होने विष कोऊ भोजनरूप पुद्गलपिण्ड के ज्ञान तो नहीं है जो मैं ऐसे परिणमूं अर और भी कोऊ परिणमावनहारा नाही है, ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक भाव बनि रह्या है, ताकरि तैसे ही परिणम्न पाइए है। तैसे ही कवाय होते योग द्वारकरि ग्रह्या हुवा कर्मवर्गणारूप पुद्गलपिण्ड सो ज्ञानावरणादि प्रकृतिरूप परिणमै
बहुरि तिन कर्म परमाणुनिविष यथायोग्य कोई प्रकृतिरूप थोरे कोई प्रकृतिरूप घने परमाणु हो हैं। बहुरि सिन वि केई परमाणुनिका सम्बन्ध घने काल रहै, केईनिका थोरे काल रहै। बहुरि तिन परमाणुनिविर्ष केई तो अपने कार्य निपजावने की बहुत शक्ति धरै है, कोऊ थोरी सक्ति धरै है सो ऐसे होनेविष कोऊ कर्मवरूप पुद्गलपिण्डकै जान तो नाहीं है जो मैं ऐसे परिणम अर और भी कोई परिणमावनहारा है नाम, ऐसा ही निमित्त नैमित्तिकभाव बनि रह्या है ताकरि तैसे ही परिणमन पाइये है। सो ऐसे तो लोकविष निमित नैमित्तिक घने ही बनि रहे हैं। जैसे-मंत्रनिमितकरि जलादिकविध रोगादिक दूरि करने की शक्ति
पाकरी आविवि सपदि रोकने की शक्ति हो है तैसे ही जीव भाव के निमित्तकार पुद्गल परमानिवि मानावरणादिरूप शक्ति हो है। इहाँ विचारकरि अपने उघमतें कार्य करे तो ज्ञान चाहिए पर तैसा निमित्त बने स्वयमेव तैसे परिणमन होय तो तहाँ ज्ञान का किछु प्रयोजन नाही, या प्रकार नकानन्य होने का विधान जानना ।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक --२६
भावों से कर्मों की पूर्वबद्ध अवस्था का परिवर्तन अब जे परमाणु कर्मरूप परिणमै तिनका यावत् उदयकान न आवै तावत् जीव के प्रदेशनिसों एकक्षेत्रादगाहरूप बंधान रहे है। तहां जीवभाव के निमित्तकरि केई प्रकृतिनिकी अवस्था का पलटना भी होय नाय हे। तहाँ केई अन्य प्रकृतिनिके परमाणु थे ते संक्रमणरूप होय अन्य प्रकृति के परमाणु होय जाय। बहुरि केई प्रकृतिनिकी स्थिति वा अनुभाग बहुत था सो अपकर्पण होयकरि थोरा हो जाय । बहुरि केई प्रतिनिकी स्थिति वा अनुभाग थारा था सा उत्कषण होयकार बहुत हो जाय । सो ऐसे पूर्व बंधे परमाणुनिकी भी जीवभावनिका निमित्त पाय अवस्था पलटै है अर निमित्त न बने तो न पलटै, जैसे के तैसे रहे। ऐसे सत्तारूप कर्म रहे हैं।
कर्मों के फलदान में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बहुरि जब कर्मप्रकृतिनिका उदयकाल आवै तच स्वयमेव तिन प्रकृतिनिका अनुभाग के अनुसार कार्य वनै। कर्म तिनके कानिकों निपजावता नाहीं। याका उदयकाल आए वह कार्य स्वयं बने है। इतना ही निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध जानना । बहुरि जिस समय फल निपज्या तिसका अनन्तर समयविषै तिन कर्मरूप पुद्गलनिकै अनुभाग शक्ति के अभाब होनेतें कर्मवपना का अभाव हो है। ते पुद्गल अन्यपर्यायरूप परिणमै हैं। याका नाम सविपाक निर्जरा है। ऐसे समय-समय प्रति उदय होय कर्म खिर हैं। कर्मत्यपना नास्ति भए पीछे ते परमाणु तिस ही स्कंधविष रहो या जुड़े होइ जाहु किछू प्रयोजन रह्या नाहीं।।
इहां इतना जानना- इस जीव के समय-समय प्रति अनन्त परमाणु बंधे हैं तहाँ एक समय विषे बंधे परमाणु ले आवाधाकाल छोड़ अपनी स्थिति के जेते समय होहिं तिन विप क्रमतें उदय आवै है। बहुरि बहुत समयनिविषै बंधे परमाणु जे एक समय विपै उदय आवने योग्य हैं ते एकदे होय उदय आर्य हैं। तिन सब परमाणुनिका अनुभाग मिले, जेता अनुभाग होय तितना फल तिस कालविष निपजै है। बहुरि अनेक समयनिधिषे बंधे परमाणु बंधसमयतें लगाय उदयसमय पर्यन्त कर्मरूप अस्तित्व को धरे जीवसो सम्बन्धरूप रहे हैं। ऐसे कमनिकी बंध उदय सत्त रूप अवस्था जाननी। तहाँ समय-समय प्रति एकसमयप्रवद्ध मात्र परमाणु बंधै है, एकसमयप्रबद्ध मात्र जिर है। ड्योढ़गुणहानिकरि गुणित समयप्रबद्ध मात्र सदा काल सत्ता रहे है। सो इन सबनिका विशेष आगे कर्मअधिकारविर्षे लिखेंगे तहाँ जानना ।
द्रव्यकर्म और भावकर्म का स्वरूप बहुरि ऐसे यह कर्म है सो 'माणुरूप अनन्त पुद्गलद्रव्यनिकरि निपजाया कार्य है ताते याका नाम ट्रव्यकर्म है। बहुरि मोह के निमित्ततें मध्यात्वक्रोधादिरूप जीय का परिणाम है सो अशुद्ध भावकरि निपजाया कार्य है तात याका नाम भावकर्म है । सो द्रव्यकर्म के निमित्त भावक होय अर भावकर्म के निमित्ततें द्रव्यकर्म का बन्ध होय । बहुरि द्रव्य मत मावकर्म, भावकर्मत द्रव्यकर्म, ऐसे ही परस्पर कारणकार्यभावकार संसारचक्रविषे परिभ्रमण हो है। इस ना विशेष जानना-तीव्र मन्द बन्ध होने वा संक्रमणादि होनेते वा एक
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दूसरा धिकार
कालवी बन्ध्या अनेककालविषै वा अनेककालविणे बंधे एककालविर्षे उदय आवनेते काहू कालविषै तीव्र उदय
आये तब ती कापाय होय तब तीन ही नवीनबन्ध होय । अर काहू कालविषै मन्द उदय आवै तव मन्द कषाव हले तक मन्द ही बाथ होय । बहुरि तिन तीव्रमंदकषायनिहीं के अनुसारि पूर्वबंधे कर्मनिका भी संक्रमणादिक र मेश्या या प्रकार अनादितै लगाय धाराप्रवाहरूप द्रव्यकम वा भावकर्म की प्रवृत्ति जाननी।
शरीर की नोकर्म अवस्था और इसकी प्रवृत्ति बहुरि नामकर्म के उदयतै शरीर हो है सो द्रव्यकर्मवत् किंचित् सुख दुःखको कारण है। तातें र मोकन कहिए है। इहां नो शब्द ईषत् कषायवाचक जानना। सो शरीर पुद्गलपरमाणुनिका पिण्ड
प्रत्यइन्द्रिय, द्रव्यभन, श्वासोश्वास अर वचन ए भी शरीर के अंग हैं सो ए भी पुद्गलपरमाणुनिके हि मायने है ऐसे में आर
मायलहित सीप के एकक्षेत्रावगाहरूप बन्धान हो है सो शरीर - - साय जेती आयु की स्थिति होय तितने काल पर्यन्त शरीर का सम्बन्ध रहे है। बहुरि आयु
yा तब तिस शरीर का सम्बन्ध छूटे है शरीर आत्मा जुदे-जुदे होय जाय है । बहुरि ताके अमर सपवित्र या दूसरे तीसरे चौथे समय जीव कर्मउदय के निमित्तत नवीन शरीर धरै है तहां भी अपने खानुपर्यन्त तसे ही सम्बन्ध रहे है, बहुरि मरण हो है तब तिसो सम्बन्ध छूट है। ऐसे ही पूर्व शरीर कामेड़ना नवीन शरीर का ग्रहण अनुक्रमः हुआ करै है। बहुरि यह आत्मा यद्यपि असंख्यातप्रदेशी है तपापि संकोचविस्तारशक्तिः शरीरप्रमाण ही रहे। विशेष इतना- समुद्घातहोते शरीरनै बाह्य भी आत्मा के प्रदेश फैले हैं। बहुर अंतराल समर्यावर्ष पूर्व शरीर छोड्याथा तिस प्रमाण रहे है। बहुरि इस शरीर के
पलय अर मन तिन के सहायतै जीयकै जानपना की प्रवृत्ति हो है। बहुरि शरीर की अवस्था के अनुसार मोह के उदयते जीव सुखी-दुःखी हो है। बहुरि कबहूँ तो जीव की इच्छा के अनुसार शरीर प्रवर्त काहूँ शरीर की अवस्था के अनुसार जीव प्रयतॆ है। कबहूँ जीव अन्यथा इच्छारूप प्रवर्ते है, पुद्गल स्यालय प्रवते है। ऐसे इस नोकर्म की प्रवृत्ति जाननी ।
नित्य निगोद और इतर निगोद .
अनावित खगाय प्रथम तो इस जीव के नित्यनिगोद रूप शरीर का सम्बन्ध पाइये है। तहाँ
के पार आयु पूर्ण भए मरि बहुरि नित्यनिगोद शरीरको धारै है बहुरि आयु पूर्ण भए मरि लिपिनोवारीको थारे है। याही प्रकार अनंतानंत प्रमाण लिए जीवराशि है सो अनःदितै तहां ही
या की है। बहुरि तहाँते छै महीना अर आट समयविषै छैस्सै आठ जीय निकसै हैं ते निकसि
बारे है। सो पृथ्वी, जल, अग्नि, पयन, प्रत्येकवनस्पतिरूप एकेन्द्रिय पर्यायनिविषै वा बेइनिय तोत्रिय इन्द्रियरूप पर्यायनिविधै वा नारक तिर्यच मनुष्य देवरूप पंचेन्द्रिय पर्यायनिविष भ्रमण करै है, बढी तहाँ कितक काल प्रमणकरि फिर निगोदपर्याय को पावै सो वाका नाम इतरनिगोद है। बहुरि तहां कितेककाल रहे तहां ते निकसि अन्य पर्यायनिविषे भ्रमण कर है। तहां परिभ्रमण करने का उत्कृष्ट काल पृथ्वी आदि स्थावरनिविष असंख्यात कल्पमात्र है अर द्वीन्द्रियादि पंचेन्द्रियपर्यंत त्रसनिविषै साधिक दोय
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Hus.
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मोक्षमार्ग प्रकाशक -२८
हजार सागर है अर इलानियोदविर लाई पुगा पनि मात्र से यह अनंतकाल है। बहुरि इतरनिगोदतें निकसि कोई स्थावर पर्याय पाय बहुरि निगोद जाय ऐसे एकेन्द्रियपर्यायनिविषै उत्कृष्ट परिभ्रमणकाल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन मात्र है। बहुरि जघन्य सर्वत्र एक अन्तर्मुहूर्त काल है। ऐसे घना तो एकेन्द्रिय पर्यायनिका ही घरना है। अन्य पर्याय पावना तो काकतालीय न्यायवत् जानना। या प्रकार इस जीवकै अनादिहीत कर्मबन्धनरूप रोग भया है।
कर्मबन्धन रूप रोग से जीव की अवस्था अब इस कर्मवन्धनरूप रोग के निमित्तः जीव की कैसी अवस्था होय रही है सो कहिए है। प्रथम तो इस जीवका स्वभाव चैतन्य है सो सवनिका सामान्य-विशेष स्वरूपका प्रकाशनहारा है। जो उनका स्वरूप होय सो आपको प्रतिभास है, तिसही का नाम चैतन्य है। तहाँ सामान्यरूप प्रतिभासने का राम दर्शन है, विशेषरूप प्रतिभासने का नाम ज्ञान है। सो ऐसे स्वभावकार त्रिकालवर्ती सर्वगुणपर्यायसहित सर्व पदार्थनिको प्रत्यक्ष युगपत् विना सहाय देखे जाने ऐसी आत्माविषे शक्ति सदा काल है। परन्तु अनादिहीत ज्ञानावरण दर्शनावरण का सम्बन्ध है ताके निमित्तते इस शक्ति का व्यक्तपना होत नाहीं। तिन कर्मनिका क्षयोपशमते किंचित् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अर कदाचित् अवधिज्ञान पाइए है वा अक्षुदर्शन पाइए है अर कदाचित् चक्षुदर्शन व अवधिदर्शन भी पाइए है। सो इनिकी भी प्रवृत्ति कैसे है सो दिखाइए है।
मतिमान की प्रवृत्ति सो प्रथम तो मतिज्ञान है सो शरीर के अंगभूत जे जीभ, नासिका, नयन, कान, स्पर्शन ए द्रव्यइन्द्रिय अर हृदयस्थान विषै आठ खड़ी का फूल्या कमल के आकार द्रव्यमन तिनके सहायहीत जानै है। जैसे जाकी दृष्टि मन्द होय सो अपने नेत्रकरि ही देखे है परन्तु चश्मा दीए ही देखें, बिना चश्मे के देख सके नाहीं। तैसे आत्मा का शान मन्द है सो अपने ज्ञानहीकरि जाने है परन्तु द्रव्यइन्द्रिय या मनका सम्बन्ध भए ही जाने, तिन बिना जानसकै नाहीं । बहुरि जैसे नेत्र तो जैसा का तैसा है अर चश्मा विष किछू दोष भया होय तो देखि सके नाहीं अथवा पोरा दोसै अथवा और का और दीसे,तैसे अपना क्षयोपशम तो जैसा का तैसा है अर द्रव्य इन्द्रिय वा मनके परमाणु अन्यथा परिणमै होय तो जान सके नाही, अथवा थोरा जाने अथवा औरका और जाने। जाते द्रव्यइन्द्रिय वा मनसप परमाणुनिका परिणमनकै अर मतिमानकै निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है सो उनका परिणमनके अनुसार जान का परिणमन होय है। ताका उदाहरण-जैसे मनुष्यादिककै बाल वृद्ध अवस्थाविषे द्रव्यइन्द्रिय वा मन शिथिल झेय सब जानपना भी शिथिल होय। बहुरि जैसे शीतकायु आदिके निमिससे स्पर्शनादि इन्द्रियनिके वा मनके परमाणु अन्यथा होय तब जानना न होय या थोरा जानना होय वा अन्यथा जानना होय। बहुरि इस ज्ञान अर बाह्य द्रव्यनिक मी निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध पाइए है। ताका उदाहरण- जैसे नेत्रइन्द्रियके अंधकार के परमाणु वा फूला आदिकके परमाणु वा पाषाणादिके परमाणु आदि आड़े आ जाएँ तो देखि न सके। बहुरि लाल कांच आड़ा आवै तो सब लाल ही दीसे, हरित कांच आड़ा आवै तो हरितही दीसे ऐसे अन्यथा जानना होय। बहुरि दूरवीन चश्मा इत्यादि
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दूसरा अधिकार- २६
आड़ा आये तो बहुत दीसने लग जाय । प्रकाश जल हिलबी कांच इत्यादिकके परमाणु आड़े आवे तो भी 'जैसाका तैसा दीखै। ऐसे अन्य इन्द्रिय वा मनके भी यथासम्भव निमित्तनैमित्तिकपना जानना । बहुरि मंत्रादिक प्रयोग वा मदिरा पानादिकत वा भूतादिकके निमित्ततें न जानना वा धोरा जानना वा अन्यथा जानना हो है। ऐसे बहु मतिज्ञान बाह्य द्रव्यके भी आधीन जानना । बहुरि इस ज्ञानकरि जो जानना हो है सो अस्पष्ट जानना हो है। दूरितें कैसा ही जाने, समीपतें कैसा ही जाने, तत्काल कैसा ही जाने, जानते बहुत बार होय जाय तब कैसा ही जाने । काहूको संशय लिए जाने, काहूको अन्यथा जाने, काहूको किंचित् जाने इत्यादि
करि निर्माण जानना होय सकै नाहीं। ऐसे यहु मतिज्ञान पराधीनता के लिए इन्द्रिय मन द्वारकरि प्रक्त है। इन्द्रियनिकरि तो जितने क्षेत्रका विषय होय तितने क्षेत्र विषै जे वर्तमान स्थूल अपने जानने योग्य पुदुक्लस्कंप होय तिनहीको जाने। तिन विषै भी जुदे - जुदे इन्द्रियनिकरि जुदे जुदेकालविषै कोई स्कंधके स्पर्शादिकका जानना हो है । बहुरि मनकरि अपने जानने योग्य किंवा किर्ती समीप क्षेत्रवती रूपी अरूपी द्रव्य वा पर्याय तिनको अत्यन्त अस्पष्टपने जाने है सो भी इन्द्रियनिकरि जाका ज्ञान भया होय वा अनुमानादिक जाका किया होय तिसहीको जान सकै है। बहुरि कदाचित् अपनी कल्पना ठीकार जसको जाने है। जैसे सुपने विषे वा जागते भी जे कदाचित् कहीं न पाइए ऐसे आकारादिक चिंतवै जैसे नाहीं तैसे माने या ऐसे मन करि जानना होय है सो यहु इन्द्रिय वा मन द्वारकरि जो ज्ञान हो है ताका गाण मतिज्ञान है। तहां पृथ्वी जल अग्नि पवन वनस्पतीरूप एकेन्द्रिय के स्पर्शहीका ज्ञान है। लट शंख आदि मेहन्द्रिय जीवनिकै स्पर्श रसका ज्ञान है। कीड़ी मकोड़ा आदि तेइन्द्रिय जीवनिकै स्पर्श रस गंध वर्णका ज्ञान फेबूतर इत्यादि तियंच अर मनुष्य देव नारकी ए पंचेन्द्रिय हैं तिनकै स्पर्श रस गंध वर्ण मध्यनिका ज्ञान है बहुरि तिर्यचनिविषे केई संज्ञी है कई असंज्ञी हैं। तहां संज्ञीनिकै मनजनित ज्ञान है, अस्थानिक नाहीं है। बहुरि मनुष्य देव नारकी संज्ञी ही हैं, तिन सबनिकै मनजनित ज्ञान पाइए है, ऐसे नकी प्रवृत्ति जाननी ।
श्रुतज्ञान
बहुरि मतिज्ञानकरि जिस अर्थको जान्या होय तार्क सम्बन्ध अन्य अर्थको जाकरि जानिये सो कान है। सो दोय प्रकार है। अक्षरात्मक १. अनक्षरात्मक २ । तहाँ जैसे 'घट' ए दोय अक्षर सुने वा देखे सो तो मतिज्ञान भया तिनके सम्बन्ध घट पदार्थका जानना भया सो श्रुतज्ञान भया, ऐसे अन्य भी जानना । सों यह वो अमरात्मक श्रुतज्ञान है। बहुरि जैसे स्पर्शकरि शीतका जानना भया सो तो मतिज्ञान है ताकै सम्बंधते यह हितकारी नाहीं यातें भाग जाना इत्यादिरूप ज्ञान भया सो श्रुतज्ञान है, ऐसे अन्य भी जानना । यह अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है। तहाँ एकेन्द्रियादिक असंज्ञी जीवनिकै तो अनक्षरात्मक ही श्रुतज्ञान है अर संज्ञी पंचेन्द्रिय दोऊ है। सो बहु श्रुतज्ञान है। सो अनेक प्रकार पराधीन जो मतिज्ञान ताके भी आधीन है वा अन्य अनेक कारणनिके आधीन है, तातै महापराधीन जानना ।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-३०
अवधिज्ञान : प्रवृत्ति और उसके भेद बहुरि अपनी मर्यादाके अनुसार क्षेत्रकाल का प्रमाण लिए रूपी पदार्थनिको स्पष्टपने जाकरि जानिये सो अवधिज्ञान है सो यह देव नारकोनिकै तो सर्वकै पाइए है अर संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच अर मनुष्यनिकै भी कोईकै पाइए है। असंजीपर्यन्त जीवनिकै यह होता ही नाहीं । सो यहु भी शरीरादिक पुद्गलनिके आधीन है। बहुरि अवधि के तीन भेद हैं। दशाधि ५, परमायाँध २, सर्वोपधि ३. तो इनविषै थोरा क्षेत्रकालकी मर्यादा लिये किंचिन्मात्र रूपी पदार्थको जाननहारा देशावधि है सो ही कोई जीवकै होय है। बहुरि परमावधि सर्वावधि अर मनःपर्यय ए ज्ञान मोक्षमार्गविष प्रगटै है। केवलज्ञान मोक्षस्वरूप है ताते इस अनादि संसार अवस्था विष इनका सद्भाव ही नाहीं है, ऐसे तो ज्ञानकी प्रवृत्ति पाइए है। बहुरि इन्द्रिय वा मनके स्पर्शादिक विषय तिनका सम्बन्थ होते प्रथम कालविषै मतिज्ञानके पहले जो सत्तामात्र अवलोकनरूप प्रतिभास हो है ताका नाम चक्षुदर्शन वा अचक्षुदर्शन है। तहां नेत्र इन्द्रियकरि दर्शन होय ताका नाम तो चक्षुदर्शन है सो तो चौइन्द्रिय पंचेन्द्रिय जीवनिहीकै हो है। बहुरि स्पर्शन रसन घ्राण श्रोत्र इन च्यार इन्द्रिय अर मन करि दर्शन होय ताका नाम अचक्षुदर्शन है सो यथायोग्य एकेन्द्रियादि जीवनिकै हो है।
बहुरि अवधिक विषयनिका सम्बन्ध होते अवधिज्ञान के पहले जो सत्तामात्र अवलोकनेरूप प्रतिभास होय ताका नाम अवधिदर्शन है सो जिनकै अवधिज्ञान सम्भवै तिनहीकै यहु हो है। जो यहु चक्षु अचक्षु अवधिदर्शन है सो मतिज्ञान या अवधिमानवत् पराधीन जानना। बहुरि केवलदर्शन मोक्षस्वरूप है ताका यहाँ सद्भाव ही नाहीं। ऐसे दर्शनका सद्भावं पाइए है या प्रकार ज्ञान-दर्शनका सद्भाव ज्ञानावरण दर्शनावरणका क्षयोपशम के अनुसार हो है। जब क्षयोपशम थोरा हो है तब ज्ञानदर्शनकी शक्ति भी थोरी हो है। जब बहुत हो है तब बहुत हो है। बहुरि क्षयोपशमतें शक्ति तो ऐसी बनी रहे अर परिणमनकरि एक जीवकै एक कालविषै एक विषयहीका देखना वा जानना है। इस परिणमनहीका नाम उपयोग है। तहाँ एक जीवकै एक कालविषै के तो ज्ञानोपयोग हो है के दर्शनोपयोग हो है। बहुरि एक उपयोगका भी एक ही भेदकी प्रवृत्ति हो है। जैसे मतिज्ञान होय तब अन्य ज्ञान न होय। बहुरि एक भेदविषै भी एक विषयविष ही प्रवृत्ति हो है। जैसे स्पर्शको जानै तब रसादिकको न जानै। बहुरि एक विषय विर्ष भी ताके कोऊ एक अंग ही विष प्रवृत्ति हो है। जैसे उष्णस्पर्शको जानै तब रूक्षादिकको न जाने।
विशेष-धवला में लिखा है कि
स्निग्ध-मृदु-कठिनोष्ण-गुरु-लघु-शीतादिद्रव्यविषयः अक्रमवृत्ति-बहुविधः प्रत्ययः स्पर्शनेन्द्रियजः । न चायमसिनः, उपलभ्यमानत्वात् न चोपलम्मः अपहोतुं पार्यते, अव्यवस्थापत्तेः (धवल पु. १३ पृ. २३७ प्रथम अनुच्छेद)
अर्थ-स्निग्ध, मृदु, कठिन, उष्ण, गुरु, लघु और शीत आदि द्रव्यविषयक युगपत् (एक साथ) होने वाला प्रत्यय (ज्ञान) स्पर्शनेन्द्रियज बहुविध-प्रत्यय (ज्ञान) है। ऐसा प्रत्यय (ज्ञान) होना असिद्ध
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टूसरा अधिकार-३१
भी नहीं है, क्योंकि उसकी उपलब्धि होती है और उपलब्धि का अपलाप नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा करने पर अव्यवस्था की आपत्ति आती है। वहुत गन्ध आदि का भी इस तरह युगपत् शनि सम्भव है। कहा भी है
गरु-तुरुष्क-चन्दनादिगन्थेष्वक्रमवृत्तिः प्राणजो बहुविधप्रत्ययः (वही ग्रन्थ, वही पृष्ठ)
अर्थ- कपूर, अगरु तुरुष्क और चन्दन आदि की गन्धों का युगपत् होने वाला प्रत्यय (ज्ञान) + अगला बहुविध प्रत्यय है।
राणवार्तिक में भी कहा है- प्रकृष्टश्रोत्रेन्द्रियावरण वीर्यान्तराय क्षयोपशमांगोपांगनामोपष्टम्भात् सामन्नमाता अन्यो वा युगपत् ततविततधनसुषिरादिशब्दश्रवणात् बहुशब्दमवग्रहणाति।...... (रा.
L/E/६/६३ से ६६) ....... अर्थ रखेगेन्द्रिय (ज.नी और दोन्निास का प्रकृष्ट (उत्तम) क्षयोपशम होने पर (यानी साधारण क्षयोपशमी मनुष्य के नहीं) तथा तदनुकूल अंगोपांग नामकर्म के उदय से, संभिन्न श्रोता
अन्द पुरुष एक साथ (क्रम से नहीं) तत, वितत, धन, सुषिर आदि का श्रवण बन जाने से "शब्द का अवग्रह ज्ञान करता है। , इस प्रकार आगमानुसार महान् क्षयोपशम सम्पन्न जीव युगपत् शीत रूक्ष उष्ण आदि स्पशी को एक ही काल में जान लेता है। किसी/व्यक्ति विशेष के किसी ज्ञानविशेष का अभाव होने से पुतान्तर. में भी. उस ज्ञान का अभाव निश्चित नहीं किया जा सकता ।
यदि यह कहा जाए कि “अनेक उपयोग कालों को उपचार से एक काल मान कर फिर पुगपत् बहुविध अवग्रह आदि बनता है, ऐसा समझना चाहिए।” तो इसका उत्तर यह है कि प्रथम केस तरह अप्रकृष्ट-सामान्य क्षयोपशम वालों के भी, क्रम करके तो, अव्यवधान रूप से,
कीय, शीत उष्ण आदि का ज्ञान बन जाने से बहुविध अवग्रह मानना पड़ेगा जो आगम (रा. वा. १/१६/१६ प्रकृष्ट-श्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशम.......) के विरुद्ध है। दूसरा, बहुविध अक्ग्रह, ईला, अवाय, थारणा का ही अभाव आजायगा। क्योंकि उपालम्भकर्ता के अनुसार क्रमशः व निरन्तर संजात भीत, उष्ण आदि का ज्ञान तो एक या एकविध अवग्रह स्वरूप ही होगा। क्योंकि वहाँ तो क्रमशः निरन्तर एकावग्रह या एकविधावग्रह ही, प्रति अन्तर्मुहूर्त भिन्न-भिन्न स्वीकार किये जा रहे हैं। दूसरे, आगम में कालक्रम से ज्ञात एकावग्रहों का योग बहु-अवग्रह रूप से; तथा एवमेव कालक्रम से लब्ध एकविधावग्रहों के योग को बहुविधावग्रह कहा भी नहीं है।
ऐसे एक जीयकै एक कालविर एक ज्ञेय वा दृश्यविषै ज्ञान वा दर्शनका परिणमन जानना । सो ऐसे
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - ३२
ही देखिए है। जब सुनने विषै उपयोग लग्या होय तब नेत्रनिके समीप तिष्टता भी पदार्थ न दीसे ऐसे ही अन्य प्रवृत्ति देखिए है । बहुरि परिणमनविषे शीघ्रता बहुत है ताकरि काहू कालविषै ऐसा मानिए है युगपत् भी अनेक विषयनिका जानना या देखना हो है सो युगपत् होता नाहीं, क्रम ही करि हो है, संस्कारबलतें तिनका साधन रहे है । जैसे कागलेके नेत्र के दोय गोलक हैं, पुतरी एक है सो फिरै शीघ्र है ताकरि दोऊ गोलकनिका साधन कर है तैसे ही इस जीवके द्वार तो अनेक हैं अर उपयोग एक है। सो फिरे शीघ्र है ताकरि सर्व द्वारनिका साधन रहे है ।
इहां प्रश्न जो एक कालविषै एक विषय का जानना या देखना हो है तो इतना ही क्षयोपशम भया कहो, बहुत काकूं कहो ? बहुरि तुम कहो हो, क्षयोपशमतें शक्ति हो है तो शक्ति तो आत्माविषै केवलज्ञानदर्शन की भी पाइए है।
ताका समाधान - जैसे काहू पुरुषकै बहुत ग्रामनिविषै गमन करने की शक्ति है । बहुरि ताको काहूने रोक्या अर यहु कह्या पाँच ग्रामनिविषै जातो परन्तु एक दिनविषे एक ही ग्रामको जावो । तहाँ उस पुरुष के बहुत ग्राम जाने की शक्ति तो द्रव्य अपेक्षा पाइए है, अन्य काल विषै सामर्थ्य होय, वर्तमान सामर्थ्यरूप नाहीं है परन्तु वर्तमान पाँच ग्रामनितें अधिक ग्राम विषै गमन करि सकै नाहीं । बहुरि पाँच ग्रामनि विषे जाने की पर्याय अपेक्षा वर्तमान सामर्थ्यरूप शक्ति है जातै इनिविषे गमन करि सके है। बहुरि व्यक्तता एक दिनविषै एक ग्राम की गमन करने ही की पाइए है। तैसे इस जीव के सर्वको देखने जानने की शक्ति है। बहुरि याको कर्मने रोक्या अर इतना क्षयोपशम भया जो स्पर्शादिक विषयनि को जानो वा देखो परन्तु एक काल विषै एकहीको जानो वा देखो। तहाँ इस जीवके सबके देखने-जानने की शक्ति तो द्रव्यंअपेक्षा पाइए है अन्य - कालविषै सामर्थ्य होय परन्तु वर्तमान सामर्थ्यरूप नाहीं, जाते अपने योग्य विषयनित अधिक विषयनिकों देखि जानि सकै नाहीं । बहुरि अपने योग्य विषयनिकूं देखने जानने की पर्याय अपेक्षा वर्तमान सामर्थ्य रूप शक्ति है जातें इनको देखि जानि सके है; बहुरि व्यक्तता एक कालविषै एकहीको देखने वा जानने की पाइए है।
बहुरि इहाँ प्रश्न जो ऐसे तो जान्या परन्तु क्षयोपशम तो पाइए अर बाह्य इन्द्रियादिकका अन्यथा निमित्त भये देखना - जानना न होय वा धोरा होय वा अन्यथा होय सो ऐसे होते कर्महीका निमित्त तो न रह्या?
ज्ञान- दर्शन की पराधीनता में कर्म ही निमित्त है
ताका समाधान - जैसे रोकनहाराने यहु का जो पाँच ग्रामनिविधै एक ग्रामको एक दिनविषे जावो परन्तु इन किंकरनिको साथ ले जावो तहाँ वे किंकर अन्यथा परिणमैं तो जाना न होय वा थोरा जाना होय वा अन्यथा जाना होय । तैसे कर्मका ऐसा ही क्षयोपशम भया है जो इतने विषयनिविषै एक विषयको एक कालविषै देखो वा जानो परन्तु इतने बाह्य द्रव्यनिका निमित्त भये देखो जानो । तहाँ वे बाह्य द्रव्य अन्यथा परिणमै तो देखना जानना न होय या चोरा होय वा अन्यथा होय। ऐसे यहु कर्म के क्षयोपशमहीका विशेष
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दूसरा अधिकार-३३
है सात कर्महीका निमित्त जानना। जैसे काहूकै अंथकार के परमाणु आड़े आए देखना न होय, घूघू मार्जारादिकनिकै तिनको आड़े आये भी देखना होय। सो ऐसा यहु क्षयोपशमहीका विशेष है। जैसे-जैसे अयोपशम होय तैसे-तैसे ही देखना जानना होय। ऐसे इस जीवकै क्षयोपशमज्ञानकी प्रवृत्ति पाइए है। बहुरि
बमार्गविष अवधि मनःपर्यय हो है ते भी क्षयोपशमज्ञान ही है, तिनिकी भी ऐसे ही एक कालविषै एकको प्रतिभासमा वा परद्रव्यका आधीनपना जानना। बहुरि विशेष है सो विशेष जानना। या प्रकार ज्ञानावरण पर्शनावरणका उदयके निमित्ततें बहुत ज्ञानदर्शनके अंशनि का तो अभाव है अर तिनके क्षयोपशमतें थोरे मासिका सद्भाव पाइए है।
मोह का उदय और मिथ्यात्व का स्वरूप बहुरि इस जीवकै मोह के उदयतें मिथ्यात्व वा कषायभाव हो है। तहाँ दर्शनमोहके उदयतें तो मिथ्यात्वमाव हो है साकरि यह जीव अन्यथा प्रतीतिरूप अतत्त्व श्रद्धान करै है। जैसे है तैसे तो न मानै है। अर जैसे नाहीं है तैसे माने है। अमूर्तीक प्रदेशनिका पुंज प्रसिद्ध ज्ञानादिगुणनिका धारी अनादिनिधनवस्तु आप है अर मूर्तीक पुद्गल पनि मिंड प्ररित सानापिकनिहरे रहित जिनका नदीन संयोग भया, ऐसे शरीरादिक पुद्गल पर हैं। इनका संयोगरूप नाना प्रकार मनुष्य तिर्यंचादि पर्याय हो है, तिस पर्यायविषै अईबुद्धि थारै है, स्व-परका भेद नाहीं करि सके है। जो पर्याय पाव तिसहीको आप मान है। बहुरि तिस पापविध जानादिक हैं ते तो आपके गुण हैं अर रागादिक हैं ते आपके कर्मनिमित्त उपाधिक भाव भए ३ अर वर्णादिक हैं ते आपके गुण नाहीं हैं, शरीरादिक पुद्गलके गुण हैं अर शरीरादिकविषै वर्णादिकनिकी 'या परमाणुनिकी नाना प्रकार पलटनि हो है सो पुद्गल की अवस्था है सो इन सबनिहीको अपनो स्वरूप बने है, स्वभाव परभावका विवेक नाहीं होय सके है। बहुरि मनुष्यादिक पर्यायनिविषे कुटुम्ब धनादिकका सम्बन्ध हो है, ते प्रत्यक्ष आपसे भिन्न हैं अर ते अपने आधीन होय नाही परिणमैं हैं तथापितिन विषै मार कर है। "ए मेरे है। वे काहू प्रकार भी अपने होते नाहीं, यह ही अपनी मानि से ही अपने माने है हर मनुष्यादि पर्यायनिविष कदाचित् देवादिकका वा तत्त्वनिका अन्यथास्वरूप जो कल्पित किया ताकी तो प्रतीति कर है अर यथार्थस्वरूप जैसे है तैसे प्रतीति न करै है। ऐसे दर्शनमोह के उदय करि जीवके
अतत्वानरूप मिथ्यात्वभाव हो है। जहाँ तीव्र उदय होय है तहाँ सत्यश्रद्धानते घना विपरीत श्रद्धान होय . है। जब मंद उदय होय है तब सत्य श्रद्धाननै थोरा विपरीत श्रद्धान हो है।
चारित्रमोह से कषायभावों की प्रवृत्ति बहुरि चारित्रमोहके उदयतें इस जीवकै कषायभाव हो है तब वह देखता जानता संता पर पदार्थनिविष इष्ट अनिष्टपनो मानि क्रोधादिक करै है तहां क्रोधका उदय होते पदार्थनिविषै अनिष्टपनो वा ताका बुरा थाहै। कोउ मंदिरादि अचेतन पदार्थ बुरा लागै तब फोरना-तोरना इत्यादि रूपकरि वाका बुरा पाहै। बहुरि शत्रु आदि सवेतन पदार्थ बुरा लागै तब वाकों बध-बन्धादिकार वा मारनेकरि दुःख उपजाय ताका बुरा चाहै। बहुरि आप वा अन्य सचेतन अचेतन पदार्थ कोई प्रकार परिणए, आपको सो परिणमन
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-३४
बुरा लागे ना अन्यया पीणमावनेकरि तिस परिणमनका बुरा चाहै। या प्रकार क्रोधकरि बुरा चाहनेकी इच्छा तो होय, बुरा होना भवितव्य आधीन है।
बहुरि मानका उदय होते पदार्थविषै अनिष्टपनो मानि ताको नीचा किया चाहै, आप ऊँचा भया चाहै, मल धूलि आदि अचेतन पदार्थनिविषै घृणा वा निरादरादिककरि तिनकी हीनता, आपकी उच्चता चाहै। बहुरि पुरुषादिक सचेतन पदार्थनिकों नमावना, अपने आधीन करना इत्यादि सपकार तिनकी हीनसा, आपकी उच्चता चाहै। बहुरि आप लोकविषै जैसे ऊँचा दीसै तैसे शृंगारादि करना वा धन खरचना इत्यादिरूपकरि औरनिकों हीन दिखाय आप ऊँचा हुआ चाहै। बहुरि अन्य कोई आपत ऊँचा कार्य करै ताको कोई उपाय करि नीचा दिखावै अर आप नीचा कार्य कर ताळू ऊंचा दिखावे; या प्रकार मानकर अपनी महंतताकी इच्छा तो होय, महंतता होनी भवितव्य आधीन है।
बहुरि मायाका उदय होतें कोई पदार्थको इष्ट मानि नाना प्रकार छलनिकरि ताको सिद्ध किया चाहै । रत्न सुवर्णादिक अचेतन पदार्थनिकी वा स्त्री दासी - दासादि सचेतन पदार्थनिकी सिद्धिके अर्थि अनेक छल करै। परको ठगनेके अर्थि अपनी अनेक अवस्था करे या अन्य अचेतन सचेतन पदार्थनिकी अवस्था पलटायै इत्यादिरूप छलकार अपना अभिप्राय सिद्ध किया चाहै। या प्रकार मायाकरि इष्टसिद्धिके अर्थि छल तो करै अर इष्टसिद्धि होना भवितव्य आधीन है।
बहुरि लोभका उदय होते पदार्थनिकों इष्ट मानि तिनकी प्राप्ति चाहै। वस्त्राभरण थनधान्यादि अचेतन पदार्थनिकी तृष्णा होय। बहुरि स्त्री पुत्रादिक चेतन पदार्थनिकी तृष्णा होय । बहुरि आपकै वा अन्य सचेतन अचेतन पदार्थक कोई परिणमन होना इष्ट मानि तिनको तिस परिणमनरूप परिणमाया चाहै। या प्रकार लोभकार इष्टप्राप्ति की इच्छा तो होय अर इष्ट प्राप्ति होनी भवितव्य के आधीन है। ऐसे क्रोधादिकका उदयकरि आत्मा परिणमै है।
कषायों के उत्तरभेद और उनका कार्य तहां एक-एक कषाय का चार-चार प्रकार है। अनंतानुबन्थी ,, अप्रत्याख्यानावरण २, प्रत्याख्यानावरण ३, संज्वलन ४। तहाँ (जिनका उदयतें आत्माकै सम्यक्त्व न होय, स्वरूपाचरण चारित्र न होय सकै ते अनंतानुबंधीकषाय हैं)
विशेष-टोडरमलजी की हस्तलिखित प्रति में उन्होंने ऐसा नहीं लिखा है कि- "जिनका उदय आत्मा के सम्यक्त्व न होय, स्वरूपाचरण चारित्र न होय सके ते अनन्तानुबन्धी कषाय हैं।" फिर भी हमने यहाँ इस पाट को इसलिए दिया है कि चूंकि श्रद्धेय पण्डित सा. यहाँ अनन्तानुबन्धीकी परिभाषा लिखना भूल गये थे तथा लिपिकारों ने बाद में उक्त शब्दों में इसे सम्मिलित किया था अतः हमने भी ऐसा ही रहने दिया है। इस विषय में यह ध्यातव्य है कि पण्डित राजमलजी के पूर्व
* यह पंक्ति खरड़ा प्रति में नहीं है।
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दूसरा अधिकार-३५
अर्थात् आज से ४०० वर्ष पहिले तक स्वरूपाचरण नाम का जैनागम में कहीं कोई उल्लेख/अस्तित्व नहीं या' अतः पं. कैलाशचन्द्र जैन सिद्धान्तशास्त्री ने ठीक ही लिखा है कि सम्यक्त्वाचरण चारित्र को स्वरूपाचरण चारित्र का पूर्व रूप कहना उचित होगा । सम्यक्त्वाचरण चारित्र ही स्वरूपाचरण चारित्र नाम के रूप में परिवर्तित हुआ जान पड़ता है। पण्डित जगन्मोहनलाल सिद्धान्तशास्त्री लिखते है कि "अविरत सम्यग्दृष्टि के संयम भाव के बिना भी सम्यक्चारित्र होता है । उसे आचार्य कुन्दकुन्द (तथा भगवद् वीरसेन स्वामी) सम्यक्त्वाचरण कहते हैं । (चारित्रामृत गाथा ३ से १२) तथा उसे ही पंचाध्यायीकार तथा अन्य ग्रन्थकार स्वरूपाचरण कहते हैं । मात्र माम में अन्तर है ।"
उक्त कथनों से अत्यन्त स्पष्ट है कि चतुर्थगुणस्थान में होने वाले चारित्र को आचार्य कुन्दकुन्द आदि ने सम्यक्त्वाधरण चारित्र ही कहा है, स्वरूपाचरण नहीं । षवल, जयधवल, महाधवल तथा आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि चतुर्थगुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र होता है । अत: चतुर्थ गुणस्थान में होने वाले चारित्र का नाम 'सम्यक्त्वाचरण' ही समीचीन है जिसका समर्थन चारित्रप्राभृत आदि से होता है।
जिनका उदय होते देशचारित्र न होय ताते किंचित त्याग भी न होय सके, ते अप्रत्याख्यानावरण कषाय है । बहुरि जिनका उदय होतें सकलचारित्र न होय तातें, सर्व का त्याग न होय सकै ते प्रत्याख्यानावरण कषाय हैं। बहुरि जिनका उदय होते सकलचारित्र को दोष उपज्या करै ताते यथाख्यातचारित्र न छोय सके, ते संज्वलन कषाय हैं । सो अनादि संसार अवस्थाविषै इन चारयों ही कषायनिका निरन्तर उदय पाइए है । परमकृष्णलेश्यारूप तीव्रकषाय होय तहाँ भी अर शुक्ललेश्यारूप मंदकषाय होय तहाँ भी निरन्तर ध्यात्योंही का उदय रहै है । जातै तीव्रमन्द की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी आदि भेट नाहीं हैं, सम्यक्त्वादि घातने की अपेक्षा ए भेद हैं । इनही प्रकृतिनिका तीव्र अनुभाग उदय होते तीव्र क्रोधादिक हो है, मन्द अनुभाग उदय होत मन्द उदय हो है । बहुरि मोक्षमार्ग भए इन च्यारों विष सीन, दोय, एक का उदय हो है, पीछे च्यारयों का अभाव हो है । बहुरि क्रोषादिक च्यारयों कषायनिविष एककाल एक ही का उदय हो है। इन कषायनिकै परस्पर कारणकार्यपनो है। क्रोधकरि मानदिक होय जाय, मानकरि क्रोधादिक होय जाय, तात काहू काल भिन्नता मासै काहू काल न मासै है ! ऐसे कषावरूप परिणमन जानना ।
बहुरि घारिन मोह ही के उदयतै नोकषाय हो हैं तहां हास्य का उदयकरि कहीं इष्टपनो मानि प्रफुल्लित . हो है, हर्ष मानै है । बहुरि रतिका उदयकरि काहू को इष्ट मान प्रीति करे है तहां आसक्त हो है । बहुरि अरतिका उदयकरि काहू को अनिष्ट मान अप्रीति कर है तहाँ उद्वेगरूप हो है । बहुरि शोक का
.. पं. कैलाशचन्द्र सि. शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ पृ. १६६ तथा समकित आदि निबंध संग्रह, पृ. ४२ (शिवसागर ग्रंथमाला) २. कुन्दकुन्द प्रामृत संग्रह प्रस्तावना पृ. ६७ । ३. अध्यात्म अमृतकलश प्रस्तावना पृ. ४६, दि. जैन मन्दिर, कटनी। ४. आर्यिका विशुद्धमति अभिनन्दन प्रन्य (सं. टीकमचंद जैन, दिल्ली) में पृष्ठ संख्या ४४६ से ४५२ तक २१ प्रकरणों
से यह सिद्ध किया गया है कि चौथे गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र नहीं होता है ।
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मोक्षमार्ग प्रयशक-३६
उदयकरि कहीं अनिष्टपनो मान दिलगीर हो है, विषाद मानै है। बहुरि भयका उदयकरि किसीको अनिष्ट मान तिसत डरै है, वाका संयोग न चाहै है। बहुरि जुगुप्साका उदयकरि काहू पदार्थको अनिष्ट मान ताकी घृणा करै है, वाका वियोग चाहै है। ऐसे ए हास्यादिक छह जानने। बहुरि वेदनिके उदयते. याकै कानपरिणाम हो है तहाँ स्त्रीवेदके उदयकरि पुरुषसों रमनेकी इच्छा हो है। अर पुरुषवेद के उदयकरि स्त्रीसों रमने की इच्छा हो है। अर नपुंसकवेदके उदयकरि युगपत् दोऊनिसों रमने की इच्छा हो है, ऐसे ए नय तो नोकषाय हैं। क्रोधादि सारिखे ए बलवान नाहीं तातैं इनको ईषत्कषाय कहै हैं। यहाँ नोशब्द ईषत् वाचक जानना। इनका उदय तिन क्रोधादिकनिकी साथ यथासम्भव हो है। ऐसे मोहके उदयतें मिथ्यात्व . वा कषायभाव हो हैं सो ए संसारके मूल कारण ही हैं। इनही करि वर्तमान काल विषै जीव दुःखी है अर आगामी कर्मबन्धनके भी कारण ए ही हैं। बहुरि इनहीका नाम राग द्वेष मोह है। तहां मिथ्यात्वका नाम मोह है, जाते जहाँ सावधानीका अभाव है। बहुरि माया लोभ कषाय अर हास्य रति तीन वेदनिका नाम राग है जारौं तहाँ इष्टबुद्धि करि अनुराग पाइए है। बहुरि क्रोध मन कषाय अर अरति शोक भय जुगुप्सानिका नाम द्वेष है जाते तहाँ अनिष्ट बुद्धि करि द्वेष पाइए है। बहुरि सामान्यपने सबही का नाम मोह है। तातें इन विष सर्वत्र असावधानी पाइए है।
बहुरि अन्तरायके उदयते जीव चाहै सो न होय । दान दिया चाहै देय न सके। वस्तुकी प्राप्ति चाहे सो न होय। भोग किया चाहै सो न होय। उपभोग किया चाहै सो न होय। अपनी ज्ञानादि शक्तिको प्रगट किया चाहै सो न प्रगट होय सके। ऐसे अन्तरायके उदयतें चाह्या होय नाहीं। बहुरि तिसहीका क्षयोपशमत किंचिन्मात्र चाह्या भी हो है। चाहिए तो बहुत है परन्तु कंचिन्मात्र (चाह्या हुआ होय है। बहुत दान देना चाई है परन्तु थोड़ा हो*) दान देय सके है। बहुत लाभ चाहै है परन्तु थोड़ा ही लाभ हो है। ज्ञानादिक शक्ति प्रगट हो है तहाँ भी अनेक बाह्य कारण चाहिए। या प्रकार घातिकर्मनिके उदयतै जीवकै अवस्था हो
बहुरि अघातिकर्मनिविष वेदनीयके उदयकारे शरीर विष वाम सुख दुःखका कारण निपजे है। शरीरविषै आरोग्यपनो रोगीपनो शक्तिथानपनो दुर्बलपनो इत्यादि अर क्षुधा तृषा रोग खेद पीड़ा इत्यादि सुख दुःखनिके कारण हो हैं। बहुरि बाधविष सुहावना ऋतु पवनादिक वा इष्ट स्त्री पुत्रादिक या मित्र धनादिक, असुहावनी ऋतु पवनादिक वा अनिष्ट स्त्री पुत्रादिक वा शत्रु दरिद्र वथबंधनादिक सुख दुःखको कारण हो है। ए बाह्य कारण कहे तिन विषै केई कारण तो ऐसे हैं जिनके निमित्तस्यों शरीर की अवस्था सुख दुःखको कारण हो है अर वे ही सुख दुःखको कारण हो हैं। बहुरि केई कारण ऐसे हैं जे आप ही सुख दुःखको कारण हो हैं। ऐसे कारण का मिलना वेदनीयके उदयतें ही है। तहाँ साता वेदनीयते सुखके कारण मिले अर असातावेदनीयतें दुःखके कारण मिले। सो इहाँ ऐसा जानना, ए कारणही तो सुख-दुःखको उपजावै नाही, आत्मा मोहकर्म का उदयतें आप सुख दुःख मान है। तहाँ वेदनीयकर्मका उदयकै अर मोहकर्मका
* यह पंक्ति खरड़ा प्रति में नहीं है किन्तु अन्य सब प्रतियों में है, इस कारण आवश्यक जान यहाँ दे दी गई है।
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दूसरा अधिकार-३७
उदयकै ऐसाही सम्बन्ध है। जब सातावेदनीयका निपजाया बाह्य कारण मिलै तब तो सुख मानने रूप पोहकर्मका उदय होय अर जब असातावेदनीयका निपजाया बाह्यकारण मिले तब दुःख मानने रूप मोहकर्मका उदय होय । बहुरि एक ही कारण काहूको सुखका, काहूको दुःख का कारण हो है। जैसे काहूकै सातावेदनीयका उदय होः मिल्या जैसा वस्त्र सुखका कारण हो है तैसा ही यस्त्र काहूको असातावेदनीयका उदय होते मित्या सो दुःखका कारण हो है। तातें बाल वस्तु सुख-दुःख का निमित्त मात्र हो है। सुख दुःख हो है सो मोहके निमित्ततै हो है। निर्मोही मुनिनके अनेक ऋद्धि आदि परीसह आदि कारण मिलै तो भी सुख दुःख न उपजे। मोही जीवकै कारण मिले वा बिना कारण मिले भी अपने संकल्प ही तें सुख दुःख हुआ ही करे है। तहाँ भी तोद्रमाहीके जिस कारणको मिले तीव्र सुख दुःख होय तिसही कारणको मिले मंदमोहीके मंद सुख दुःख होय । तातें सुख-दुःख का मूल बलवान कारण मोहका उदय है।अन्य वस्तु हैं सो बलवान कारण नाहीं। परन्तु अन्य वस्तुकै अर मोही जीवके परिणामनिकै निमित्तनैमित्तिककी मुख्यता पाइए है। ताकरि मोहीजीव अन्य वस्तुहीको सुख-दुःख का कारण माने है। ऐसे वेदनीयकार सुखदुःखका कारण निपजे है।
बहुरि आयुकर्म के उदयकरि मनुष्यादि पर्यायनिकी स्थिति रहे है। यावत् आयुका उदय रहै तावत् अनेक रोगादिक कारण मिलो, शरीरस्यों सम्बन्ध न छूटे। बहुरि जब आयुका उदय न होय तब अनेक उपाय किये भी शरीरस्यों सम्बन्ध रहै नाही, तिसही काल आत्मा अर शरीर जुदा होय । इस संसारविर्षे जन्म, जीवन, मरण का कारण आयुकर्म ही है। जय नवीन आयुका उदय होय तब नवीनपर्यायविषै जन्म हो है। बहुरि यावत् आयुका उदय रहे तावत् तिस पर्यायरूप प्राणनिके धारणतै जीवना हो है। बहुरि आयुका क्षय होय तब तिस पयांवरूप प्राण छूटनैते मरण हो है। सहज ही ऐसा आयुकर्म का निमित्त है। और कोई उपजावनहारा, क्षपावनहारा, रक्षाकरनेहारा है नाहीं, ऐसा निश्चय करना। बहुरि जैसे नदीन वस्त्र पहरे कितेक काल पहरे रहै, पीछे ताईं छोड़ि अन्य वस्त्र पहरै तैसे जीव नवीन शरीर थरै किसेककाल धरै रहै, पीछे ताकू छोड़ि अन्य शरीर धरै है। तातै शरीरसम्बन्ध अपेक्षा जन्मादिक हैं। जीव जन्मादिरहित नित्य ही है तथापि मोही जीवकै अतीत अनागतका विचार नाहीं । तातें पाया पर्याय मात्र ही अपना अस्तित्व मानि पर्याय सम्बन्धी कार्यनिविणे ही तत्पर होय रया है। ऐसे आयुकरि पर्याय की स्थिति जाननी।
बहुरि नामकर्मकरि यह जीव मनुष्यादिगतिनियिर्षे प्राप्त हो है, तिस पर्यायरूप अपनी अवस्था हो है। बहुरि तहाँ सस्थावरादि विशेष निपजे हैं। बहुरि तहाँ एकेन्द्रियादि जातिको धारै है। इस माति कर्मका उदयकै अर मतिज्ञानावरण का क्षयोपशम के निमित्तनैमित्तिकपना जानना । जैसा क्षयोपशम होय तैसी जाति पावै। बहुरि शरीरनिका सम्बन्थ हो है तहां शरीरके परमाणु अर आत्मा के प्रदेशनि का एक बन्धान हो है अर संकोच विस्ताररूप होय शरीरप्रमाण आत्मा रहे है। बहुरि नोकर्मरूप शरीरविष अंगोपांगादिकका पोग्यस्थान प्रमाण लिये हो है। इसहीकरि स्पर्शन रसना आदि द्रव्यइन्द्रिय निपजे हैं वा हृदय स्थान दिले आठ पांखड़ीका फूल्या कमलके आकार द्रव्य मन हो है। बहुरि तिस शरीरहीविषै आकारादिकका विशेष होना अर वर्णादिकका विशेष होना अर स्थूलसूक्ष्मत्वादिकका होना इत्यादि कार्य निपजे है सो ए शरीररूप परणए
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-३८
परमाणु ऐसे परिणमै हैं। बहुरि श्वासोच्छ्वास वा स्वर निपजै है सो ए भी पुद्गलके पिण्ड हैं अर शरीरस्यों एकबंधानरूप है। इन विषै भी आत्माके प्रदेश व्याप्त हैं। तहां श्वासोच्छ्वास तो पवन है सो जैसे आहारको ग्रह नीहारको निकासै तबही जीवनो होय तैसे बाह्यपवनको ग्रहै अर अभ्यन्तर पवनको निकासै तब ही जीयितव्य रहै। तातै श्वासोच्छ्वास जीवितव्यका कारण है। इस शरीरविषै जैसे हाड़-माँसादिक हैं तैसे ही पवन जानना। बहुरि जैसे हस्तादिकस्यों कार्य करिए तैसे ही पवनले कार्य करिए है। मुखमें ग्रास धस्या ताकों पवन” निगलिए है, मलादिक पवन” ही बाहर काढिए है, तैसे ही अन्य जानना। बहुरि नाड़ी या वायुरोग वा वायगोला इत्यादि ए पवनरूप शरीरके अंग जानने। वहरि स्वर है सो शब्द है। सो जैसे वीणाको तांतको हलाए भाषारूप होने योग्य पुद्गलस्कंध हैं, ते साक्षर वा अनक्षर शब्दरूप परिणमै है; तैसे तालया होट इत्यादि अंगनिको हलाए भाषापर्याप्तिविर्षे ग्रहै पुद्गलस्कन्ध हैं, ते साक्षर वा अनक्षर शब्दरूप परिणम हैं। बहुरि शुभ अशुभ गमनादिक हो है। इहाँ ऐसा जानना, जैसे दोयपुरुषनिकै इकदंडी बेड़ी है तहाँ एक पुरुष गमनादिक किया चाहै और दूसरा भी गमनादिक करै तो गमनादिक होय सके, दोऊनिविषै एक बैठि रहे तो गमनादि होय सकै नाही, अर दोऊनिविषे एक बलवान होय तो दूसरे को भी घसीट ले जाय तैसे आत्माकै अर शरीरादिकरूप पुद्गलकै एक-क्षेत्रावगाहरूप बंधान है। तहाँ आत्मा हलनचलनादि किया चाहै अर पुद्गल तिस शक्तिकार रहित हुआ हलन चलन न करै वा पुद्गलविषै शक्ति पाइए है अर आत्माको इच्छा न होय तो हलनचलनादि न होय सके। बहुरि इन विष पुद्गल बलयान होय हाले चाले तो साकी साथ बिना इच्छा भी आत्मा हालै चाले। ऐसे हलन-चलनादि क्रिया हो है।
बहुरि याका अपजस आदि बाह्य निमित्त बने है। ऐसे ए कार्य निपजै हैं, तिनकरि मोहके अनुसार आत्मा सुखी दुःखी भी हो है। नामकर्मके उदयते स्वयमेव ऐसे नानाप्रकार रचना हो है और कोई करनारा नाहीं है। बहुरि तीर्थकरादि प्रकृति इहाँ है ही नाहीं। बहुरि गोत्रकर्मकार ऊँचा नीषा कुलविष उपजना हो है तहाँ अपना अधिकहीरपना प्राप्त हो है। मोहके उदयकरि आत्मा सुखी दुःखी भी हो है। ऐसे अघातिकर्मनिका निमित्ततै अवस्था हो है।
या प्रकार इस अनादि संसारविषै घाति अघातिकर्मनिका उदयके अनुसार आत्माकै अवस्था हो है। सो हे भव्य! अपने अन्तरंगविषै विचारकरि देख, ऐसे ही है कि नाही? सो ऐसा विचार किये ऐसे ही प्रतिभासै है बहुरि जो ऐसे है तो तू यह मान कि 'मेरे अनादि संसार रोग पाइए है, ताके नाशका मोको उपाय करना' इस विचारतें तेरा कल्याण होगा।
इति श्रीमोक्षमार्गप्रकाशक नाम शास्त्रविषै संसारअवस्था का निरूपक द्वितीय अधिकार सम्पूर्ण भया ।।२।।
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卐तीसरा अधिकार)
ii.
संसार-अवस्था का स्वरूप-निर्देश
दोहा * सो निजभाव सदा सुखद, अपनो करो प्रकाश ।
जो बहुविषि भवदुःखनिको, कार है सत्तानाश ।। अब इस संसार अवस्थाविष नाना प्रकार दुःख है तिनका वर्णन करिए है-जातें जो संसार-विर्ष भी सुख होय तो संसारते मुक्त होने का उपाय काहेको करिए। इस संसारविर्ष अनेक दुःख हैं, तिसहीत संसारत मुक्त होने का उपाय कीजिए है। जैसे वैद्य है सो रोग का निदान अर ताकी अवस्थाका वर्णनकरि रोगी को रोगका निश्चय कराय पीछे तिसका इलाज करनेकी रुचि करावै है तैसे इहाँ संसारका निदान वा तकी अवस्थाका वर्णनकार संसारीको संसार-रोगका निश्चय कराय अब तिनका उपाय करनेकी रुचि कराइए है। जैसे रोगी रोगते दुःखी होय रहा है परन्तु ताका मूल कारण जानै नाही, साँचा उपाय जानै नाहीं . अर दुःख भी सझा जाय नाहीं। तब आपको भासै सो ही उपाय करै तात दुःख दूरि होय नाहीं। तब तड़फि
फि परवश हुवा तिन दुःखनिको सह है परन्तु ताका मूल कारण जाने नाही। याको वैध दुवक पूलकारण बताये, पुषका स्वरूप बताये, या के किए उपायनिकू झूठे दिखाये तब सांचे उपाय करने की चि होय । तसेही यह संसारी संसारते दुःखी होय रखा है परन्तु ताका मूल कारण जाने नाही अर साँचा पाय जाने नाम अर दुःख भी सका जाय नाही। तब आपको भारी सौ ही उपाय करै तातै दुःख दूर होय नाहीं। तब सफि-सफि परवश हुवा तिन दुःखनिको सहै है।
दुःखों का मूल कारण याको इहाँ दुःखका मूलकारण बताइए है, अर दुःखका स्वरूप बताइए है अर तिन उपायनिकू ठे दिखाइए तो सौंपे उपाय करने की रुचि होय तातें यह वर्णन इहाँ करिये है। तहाँ सर्व दुःखनि का मूलकारण मिथ्यावर्शम, आमान अर असंयम है। जो दर्शनमोहके उदपते भया अतत्त्वश्रद्धान मिथ्यादर्शन है ताकरि वस्तुस्वरूपकी यथार्थ प्रतीति न होय सके है, अन्यथा प्रतीति हो है। बहुरि तिस मिथ्यादर्शनहीके निमित्त मायोपामरूपजान है सो अज्ञान होय रहा है। ताकरि यथार्थ यस्तुस्वरूपका जानना न हो है, अन्यथा जानना में है। बरि चारित्रमोहके उदयतें भया कषायभाव ताका नाम असंयम है ताकरि जैसे वस्तुका स्वरूप है
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-४०
तैसे नाही प्रवते है, अन्यथा प्रवृत्ति हो है। ऐसे ये मिथ्यादर्शनादिक हैं तेई सर्व दुःखनि के मूल कारण हैं। कैसे? सो दिखाइये है
मिध्यात्य का प्रभाव मिथ्यादर्शनादिककरि जीवकै स्व-पर-विवेक नाही होइ सकै है, एक आप आत्मा अर अनन्त पुद्गलपरमाणुमय शरीर इनका संयोगरूप मनुष्यादिपर्याय निपजै है तिस पर्यायहीको आपो मान है। बहुरि आत्माका ज्ञानदर्शनादि स्वभाव है ताकरि किंचित् जानना देखना हो है। अर कर्मउपाधिते भए क्रोधादिक भाव तिनरूप परिणाम पाइए है। बहुरि शरीरका स्पर्श रस गन्ध वर्ण रवभाव है सो प्रगट है अर स्थूल कृशादिक होना वा स्पर्शादिकका पलटना इत्यादि अनेक अवस्था हो है। इन सबनिको अपना स्वरूप जाने है। तहाँ ज्ञानदर्शनकी प्रवृत्ति इन्द्रिय मनके द्वारे हो है तातें यह मान है कि ए त्वचा जीभ नासिका नेत्र कान मन ये मेरे अंग हैं। इनकरि मैं देखू जानू हूँ, ऐसी मानिता त इन्द्रियनिविष प्रीति पाइए है।
मोहजनित विषयाभिलाषा बहरि मोहके आवेशते तिन इन्द्रियनिके द्वारा विषय ग्रहण करनेकी इच्छा हो है। बहरि तिनविषयनिका ग्रहण भए तिस इच्छा के मिटनेते निराकुल हो है, तब आनन्द माने है। जैसे कूकरा हाड़ चाबै ताकार अपना लोही निकसै ताका स्वाद लेय ऐसा मानै, यह हाड़निका स्वाद है। तैसे यह जीव विषयांनको जानै ताकरि अपना ज्ञान प्रवर्त, ताका स्वाद लेय ऐसे माने, यहु विषयका स्वाद है सो विषयमें तो स्वाद है नाहीं। आप ही इच्छा करी थी ताको आप ही जानि आप ही आनन्द मान्या परन्तु मैं अनादि अनंतज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ ऐसा निःकेवलज्ञानका तो अनुभव है नाहीं। बहुरि मैं नृत्य देख्या, राग सुन्या, फूल सूध्या, पदार्थ स्पश्या, स्वाद जान्या तथा मोको यह जानना, इस प्रकार ज्ञेयमिश्रित ज्ञानका अनुभव है ताकरि विषयनिकरि ही प्रधानता भासे है। ऐसे इस जीय के मोहके निमित्तते विषयनिकी इच्छा पाइए है।
शक्तिहीनता से इच्छानुसार विषय न भोग सकने से दुःख सो इच्छा तो त्रिकालवर्ती सर्वविषयनिके ग्रहण करनेकी है। मैं सर्वको स्पर्श, सर्वकू स्वादूँ, सर्वकू सूंघे, सर्वको देखू, सर्वको सुन, सर्वको जानूं, सो इच्छा तो इतनी है अर शक्ति इतनी ही है जो इन्द्रियनिके सम्मुख भया वर्तमान स्पर्श रस गन्ध वर्ण शब्द तिनविष काहूकू किंचिन्मात्र ग्रहै वा स्मरणादिकतै मनकरि किछु जानै सो भी बाह्य अनेक कारन मिले सिद्धि होय । तातै इच्छा कबहूँ पूर्ण होय नाहीं। ऐसी इच्छा तो केवलमान भए सम्पूर्ण होय। क्षयोपशमरूप इन्द्रियकरि तो इच्छा पूर्ण होय नाहीं तातै मोह के निमित्तः इन्द्रियनिकै अपने-अपने विषय-ग्रहणकी निरन्तर इच्छा होवो ही करे ताकार आकुलित हुया दुःखी हो रह्या है ऐसा दुःखी होय रखा है जो एक कोई विषयका ग्रहणके अर्थि अपना भरनको भी नाहीं गिनै है। जैसे हाधीकै कपटकी हथनीका शरीर स्पर्शनेकी अर पच्छकै बड़सीकै लाग्या मांस स्वादनेकी अर भ्रमरकै कमलसुगन्ध सूंघनेकी अर पतंग के दीपकका वर्ण देखनेकी अर हिरणकै राग सुनने की इच्छा ऐसी हो है जो तत्काल मरना मासै तो भी मरनको गिनै नाहीं, विषयनिका ग्रहण करै, जाते मरण होने” इन्द्रियनिकरि
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तीसरा अधिकार-४१
विषयसेवन की पीड़ा अधिक भासै है। इन इन्द्रियनिकी पीडाकरि सर्व जीव पीडितरूप निर्विचार होय जैसे कोऊ दुःखी पर्वतते गिर पड़े तैसे विषयनिविषे झंपापात ले हैं। नाना कष्टकार धनको उपजावै ताको विषयनिके अफैि खोवै। बहुरि विषयनिके अर्थि जहाँ मरन होता जानै तहां भी जाय, नरकादिकको कारन जे हिंसादिक कार्य तियों की वा क्रोधादि कालिको उस्ता, सो पार कर, इन्द्रियनिकी पीड़ा सही न जाय ताते अन्य विचार किछू आवता नाहीं। इस पीड़ाहीकार पीड़ित भए इन्द्रादिक है ते भी विषयनिविष अति आसक्त होय रहे हैं। जैसे खाज रोगकरि पीडित हुवा पुरुष आसक्त होय खुजावै है, पीड़ा न होय तो काहेको खुजायै; तैसे इन्द्रिय रोगकरि पीड़ित भए इन्द्रादिक आसक्त होय विषय सेयन करै है, पीड़ा न होय तो काहेको विषय सेवन करै? ऐसे ज्ञानावरण दर्शनावरणका क्षयोपशमतें भया इन्द्रियादिजनित ज्ञान सो मिथ्यादर्शनादिकके निमित्तते इच्छासहित होय दुःखका कारण भया है।
ज्ञानदर्शनावरण के उदय से उत्पन्न दुःख और
__उसकी निवृत्ति के उपाय का मिथ्यापना अब इस दुःख दूर होनेका उपाय यह जीव कहा करै है सो कहिए है- इन्द्रियनिकार विषयनिका ग्रहण भए मेरी इच्छा पूरण होय ऐसा जानि प्रथम तो नाना प्रकार भोजनादिकनिकरि इन्द्रियनिको प्रबल करै है अर ऐसे ही जान है जो इन्द्रिय प्रबल रहे मेरे विषय-ग्रहणकी शक्ति विशेष हो है। बहुरि तहाँ अनेक बाझकारण चाहिए हैं तिनका निमित्त मिलावै है। बहुरि इन्द्रिय हैं ते विषयको सम्मुख भए ग्रहै तात अनेक बाम उपाय करि विषयनिका अर इन्द्रियनिका संयोग मिलावै है। नाना प्रकार वस्त्रादिकका वा भोजनादिकका वा पुष्पादिकका वा मन्दिर आभूषणादिकका वा गायन वादिनादिकका संयोग मिलावनेके अर्थि बहुत ही खेदखिन्न हो है। बहुरि इन इन्द्रियनिके सम्मुख विषय रहै तावत तिस विषयका किंचित् स्पष्ट जानपना रहै। पीछे सन द्वारे स्मरणमात्र रह जाय। काल व्यतीत होते स्मरण भी मन्द होता जाय तातै तिन विषयनिकों अपने आधीन राखनेका उपाय करै अर शीघ्र-शीघ्र तिनका ग्रहण किया करै। बहुरि इन्द्रियनिकै तो एक कालविषै एक विषयही का ग्रहण होय अर यह बहुत ग्रहण किया चाहै तातें आखता* होय शीघ्र-शीघ्र एक विषयको छोड़ि औरको ग्रहै। बहुरि वाको छोड़ि औरको ग्रहै, ऐसे हापटा मारै है। बहुरि जो उपाय याको भासै है सो कर है सो यह उपाय झूठा है। जात प्रथम तो इन सबनिका. ऐसे ही होना अपने आधीन नाही, महाकठिन है। बहुरि कदाचित् उदय अनुसार ऐसे ही विधि मिले तो इन्द्रियनिको प्रबल किए किछू विषय-ग्रहणकी शक्ति बध नाहीं। यह शक्ति तो ज्ञानदर्शन बधे* बथै + । सो यह कर्मका सयोपशमके आधीन है। किसीका शरीर पुष्ट है ताके ऐसी शक्ति घाटि देखिए है। काहूका शरीर दुर्बल है ताके अधिक देखिए है। तातै भोजनादिककरि इन्द्रियपुष्ट किए किछू सिद्धि है नाहीं। कषायादि घटनेते कर्मका क्षयोपशम भए ज्ञानदर्शन बधै तब विषयग्रहणकी शक्ति बथै है। बहुरि विषयनिका संयोग मिलावै सो बहुत काल ताई रहता नाही अथवा सर्व विषयनि का संयोग मिलता ही नाहीं। तात यह आकुलता रहिवो ही करै। बहुरि * उताक्ला, * बढ़ने पर, + बहै।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-४२
तिन विषयनिको अपने आधीन राखि शीघ्र-शीघ्र ग्रहण करे सो वे आधीन रहते नाहीं। वे तो जुदे द्रव्य अपने
आधीन परिणम हैं वा कर्मोदय के आधीन है। सो ऐसा कर्मका बन्थ यथायोग्य शुभ भाव भए होय। फिर पीछे उदय आवै सो प्रत्यक्ष देखिए है। अनेक उपाय करते भी कर्भका निमित्त बिना सामग्री मिलै नाहीं । बहुरि एक विषय को छोड़ि अन्य का ग्रहणकों ऐसे हापटा मार है सो कहा सिद्धि हो है। जैसे मणकी भूख वाले को कण मिल्या तो भूख कहा मिटै? तैसे सर्व का ग्रहण की जाकै इच्छा ताकै एक विषयका ग्रहण भए इच्छा कैसे मिटै? इच्छा मिटे बिना सुख होता नाहीं । ताते यह उपाय झूटा है।
कोऊ पूछ कि इस उपायते केई जीव सुखी होते देखिए हैं, सर्वथा झूठ कैसे कहो हो?
ताका समाधान-सुखी तो न हो है, अमतें सुख माने है। जो सुखी भया सो अन्य विषयनि की इच्छा कैसे रही। जैसे रोग मिटे अन्य औषध काहेको थाहै, तैसे दुःख मिटे अन्य विषयको काहेको थाहै। ताते विषयका ग्रहणकरि इच्छा थंभि जाय तो हम सुख मानें। सो तो यावत् जो विषय ग्रहण न होय तावत् काल तो तिसकी इच्छा रहै अर जिस समय वाका ग्रहण भया तिसही समय अन्य विषय ग्रहण की इच्छा होती देखिए है तो यह सुख मानना कैसे है। जैसे कोऊ महा क्षुधायान रंक ताको अन्नका एक कण मिल्या ताका भक्षण कार चैन माने, तैसे यह महातृष्णावान याको एक विषयका निमित्त मिल्या ताका ग्रहणकरि सुख मानै है। परमार्थः सुख है नाहीं।
फोऊ कई जैसे कण-कणकार अपनी भूख मेटे तैसे एक-एक विषयका ग्रहणकरि अपनी इच्छा पूरण करे तो दोष कहा?
ताका समाधान-जो कण भेले होय तो ऐसे ही मानै। परन्तु जब दूसरा कण मिलै तब तिस कण का निर्गमन हो जाय तो कैसे भूख मिटै? रेसे ही जानने विषै विषयनिका ग्रहण भेले होता जाय तो इच्छा पूरन होय जाय परन्तु जब दूसरा विषय ग्रहण करे तब पूर्व विषय ग्रहण किया था साका जानना रहे नाही तो कैसे इच्छा पूरण होय? इच्छा पूरन भये बिना आकुलता मिटे नाहीं। आकुलता मिटे बिना सुख कैसे कया जाय । बहुरि एक विषयका ग्रहण भी मिथ्यादर्शनादिक का सद्भाव पूर्वक करे है साते आगामी अनेक दुःखका कारन कर्म बंधे है। जातें यह वर्तमानविषे सुख नाहीं, आगामी सुखका कारन नाही, तार्तं दुःख ही है। सोई प्रवचनसार विष करण है
सपरं बापासदिय विच्छिणं बंधकारणं विसम ।
ज इंदिपहिं खखत सोक्ख दुक्खमेव बाधा*।। याका अर्थ-जो इन्द्रियनिकरि पाया सुख सो पराधीन है, बाधा सहित है, विनाशीक है, बँधका कारण है, विषम है सो ऐसा सुख तैसा दुःख ही है, ऐसे इस संसारीकरि किया उपाय झूटा जानना। तो सांचा उपाय कहा?
* प्रवचनसार १/७६ में तहा' पाठ दिया है।
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तीसरा अधिकार-४३
दुःखनिवृत्तिका सच्चा उपाय उत्तरः जब इच्छा तो दूरि होय अर सर्व विषयनिका युगपत् ग्रहण रह्या करै तब यह दुःख मिटै। सो इच्छा तो मोह गए मिटै और सबका युगपत् ग्रहण केवलज्ञान भए होय । सो इनका उपाय सम्यग्दर्शनादिक है, सोई साँचा उपाय जानना। ऐसे तो मोहके निमित्त तै ज्ञानावरण दर्शनावरणका क्षयोपशम भी दुःखदायक है, ताका वर्णन किया।
इका को कई-ज्ञानावरण दर्शनायरण का उदयतें जानना न भया ताळू दुःख का कारण कहो, क्षयोपशमको काहेको कहो हो?
ताका समाधान-जो जानना न होना दुःखका कारण होय तो पुद्गलकै भी दुःख ठहरे। तातै दुःखका मूलकारण तो इच्छा है सो इच्छा क्षयोपशमहीनैं हो है, तातै क्षयोपशमको दुःख का कारण कह्या है, परमार्थत क्षयोपशम भी दुःखका कारण नाहीं । जो मोइनै विषयग्रहणकी इच्छा है सोई दुःखका कारण जानना । बहुरि मोहका उदय है सो दुःखरूप है ही। कैसे? सो कहिए है
दर्शनमोहसे दुःख और उसकी निवृत्ति के उपाय का झूठापना प्रथम तो दर्शनमोहके उदयतें मिथ्यादर्शन हो है ताकरि जैसे याकै श्रद्धान है तैसे तो पदार्थ है नाही, जैसे पदार्थ है तैसे यह मानै नाहीं, तात याकै आकुलता ही रहै। जैसे बाउलाको काहूने वस्त्र पहराया, वह बावला तिस वस्त्रको अपना अंग जानि आपकू अर शरीरको वस्त्र को एक मानै । वह वस्त्र पहरावनेवालेके आधीन है सो यह कबहू फारै, कबहू जोरै, कयहू खोसे, कबहू नवा पहराव इत्यादि चरित्र करे। वह बाउला तिसको अपने आधीन माने, वाकी पराधीन क्रिया होय तातै महा खेदखिन्न होय । तैसे इस जीवको कर्मोदयने शरीर सम्बन्ध कराया, यहु जीव तिस शरीरको अपना अंग जानि आपको अर शरीर को एक माने। वह शरीर कर्मके आधीन कबहू कृश होइ कबहू स्थूल होय, कबहू नष्ट होय, कबहू नवीन निपजे इत्यादि चरित्र होय । यह जीव सिसको अपने आधीन माने, वाकी पराधीन क्रिया होय तातै महाखेदखिन्न हो है। बहुरि जैसे जहां बाउला तिष्ट था तहाँ मनुष्य घोटक धनादिक कहीं आन उतरे, वह बाउला तिनको अपने जाने, वे तो उनहीके आधीन, कोऊ आवै, कोऊ जाये, कोऊ अनेक अवस्थारूप परिणमै । यह बाउला तिनको अपने आधीन माने, उनकी पराधीन क्रिया होइ तब खेदखिन्न होय। तैसे यह जीव जहाँ पर्याय धरे तहाँ स्वयमेव पुत्र घोटक धनादिक कहींत आन प्राप्त भए, यह जीव तिनको अपने जाने सो वे तो उनहीके आधीन, कोऊ
आवे, कोऊ जादै, कोऊ अनेक अवस्थारूप परिणमै। यह जीव तिनको अपने आधीन माने, उनकी पराधीन किया होइ तब खेदखिन्न होय।
इस कोऊ कई-काहूकाल विर्ष शरीरकी वा पुत्रादिककी इस जीव के आधीन भी तो क्रिया होती देखिए है तब तो सुखी हो है।
ताका समाधान-शरीरादिककी, भवितव्यकी अर जीवकी इच्छा की विधि मिले कोई एक प्रकार जैसे वह चाहे तैसे परिणमै ताते काहू कालविधै बाहीका विचार होते सुखकी सी आभासा होय परन्तु सर्व ही तो
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-४४
सर्व प्रकार करि वह चाहै तैसे न परिणमै । तातें अभिप्रायविर्ष तो अनेक आकुलता सदाकाल रहवो ही करे। बहुरि कोई कालविष कोई प्रकार इच्छा अनुसार परिणमता देखिकरि यह जीव शरीर पुत्रादिक विषै अहंकार ममकार करै है। सो इस बुद्धिकरि तिनके उपजाबनेकी वा वधावनेकी वा रक्षा करनेकी चिंताकरि निरन्तर व्याकुल रहे है। नाना प्रकार कष्ट सहकरि भी तिनका भला चाहे है। बहुरि जो विषयनि की इच्छा हो है, कपाय हो है, वाह्य साम्रगीविय इष्ट अनिष्टानो मान है, उपाय अन्यथा करे है, साँचा उपायको न श्रद्धह है, अन्यथा कल्पना करै है सो इन सबनिका मूलकारण एक मिथ्यादर्शन है। याका नाश भए सवनिका नाश होइ जाय तातै सब दुःखनिका मूल यह मिथ्यादर्शन है। बहुरि इस मिथ्यादर्शनके नाशका उपाय भी नाहीं करै है। अन्यथा श्रद्धानको सत्य श्रन्द्रान मान, उपाय काहेको करै। बहुरि संजी पंचेन्द्रिय कदाचित् तत्त्व निश्चय करनेका उपाय विचारै तहां अभाग्यनै कुदेव कुगुरु कुशास्त्रका निमित्त बनै तो अतत्त्व श्रद्धान पुष्ट होइ जाय; यह तो जानै कि इनतें मेरा भला होगा, ये ऐसा उपाय करै जाकरि यह अचेत होय जाय। वस्तु स्वरूपका विचार करनेका उद्यमी भया था सो विपरीत विचारविष दृढ़ होय जाय। तव विषयकषाय की वासना बधनेते आंधक दुःखा होइ। बहुरि कदाचित् सुदेव सुगुरु सुशास्त्रका भी निमित्त बनि जाय तो तहां तिनका निश्चय उपदेशको तो खहै नाही, व्यवहार श्रद्धानकरि अतस्वश्रद्धानी ही रहे। तहां मंद कषाय होय या विषय इच्छा घटै तो थोरा दुःखी होय, पीछे बहुरि जैसाका तैसा होइ जाय । तातै यह संसारी उपाय करै सो भी झूटा ही होय । बहुरि इस संसारीकै एक यह उपाय है जो आपके जैसा श्रद्धान है तैसे पदार्थनिको परिणमाया चाहै सो वे परिणमै तो याका सांचा श्रद्धान होय जाय परन्तु अनादिनिधन वस्तु जुदी-जुदी अपनी मर्यादा लिये परिणमै है, कोऊ कोऊके आधीन नाहीं। कोऊ किसी का परिणमाया परिणमै नाही तिनको परिणमाया चाहै सो उपाय नाहीं। यह तो मिथ्यादर्शन ही है। तो सांचा उपाय कहा है? जैसे पदार्थानका स्वरूप है तैसे श्रद्धान होइ तो सर्व दुःख दूरि हो जाय। जैसे कोऊ मोहित होय मुरदाको जीवता माने वा जिवाया चाहै तो आप ही दुःखी हो है। बहुरि वाको मुरदा मानना अर यह जिवाया जीवेगा नाहीं ऐसा मानना . सो ही तिस दुःख दूर होनेका उपाय है। तैसे मिध्यादृष्टि होइ पदार्थनिको अन्यथा माने, अन्यथा परिणमाया चाहै तो आप ही दुःखी हो है। बहुरि उनको यथार्थ मानना अर ए परिणमाए अन्यथा परिणमेंगे नाही, ऐसा मानना सोही तिस दुःखके दूर होने का उपाय है। प्रमजनित दुःखका उपाय भ्रम दूर करना ही है। सो प्रम दूर होनेते सम्यक्श्रद्धान होय सो ही सत्य उपाय जानना। चारित्रमोह के उदय से दुःख की प्राप्ति तथा उसकी निवृत्ति के उपाय का झूठापना
बहुरि चारित्रमोह के उदयतें क्रोधादि कषायरूप या हास्यादि नोकषायरूप जीव के भाव हो हैं। तब यह जीव क्लेशवान होय दुःखी होता संता विहल होय नाना कुकार्यनिविषै प्रयतॆ है। सोई दिखाइए है-जब याकै क्रोध कषाय उपजै तब अन्यका बुरा करने की इच्छा होइ। बहुरि ताकै अर्थि अनेक उपाय विचारै। मरमच्छेद गालीप्रदानादिरूप यचन बोले। अपने अंगनि करि वा शस्त्रपाषाणादिकरि घात करै। अनेक कष्ट सहनेकरि वा धनादि खर्चनेकार वा मरणादिकरि अपना भी बुरा कर अन्यका बुरा करने का उद्यम करै। अथवा औरनि करि बुरा होता जाने तो औरनिकरि बुरा कराये। वाका स्वयमेव बुरा होय तो अनुमोदना
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सीसरा अधिकार-४५
. करै। वाका बुरा मए अपना किछु भी प्रयोजन सिद्ध न होय तो भी याका बुरा करै। बहुरि क्रोध होते कोई
पूज्य वा इष्ट भी बीचि आवै तो उनको भी बुरा कहै । मारने लगि जाय, किछू विचार रहता नाहीं। बहुरि अन्यका बुरा न होई तो अपने अंतरंग विष आप ही बहुत सन्तापवान होइ वा अपने ही अंगनिका 'घात करें या विषादकरि मरि जाय। ऐसी अवस्था क्रोध होते हो है। बहुरि जब याकै मानकषाय उपजै तब
औरनिको नीचा वा आपको ऊँचा दिखायनेकी इच्छा होइ । बहुरि ताके अर्थि अनेक उपाय विचारै, अन्यकी निदा कर, आदी प्रशंसा की ग. अनेक मरि जोगिन सहिमा मिटावै, आपकी महिमा करै। महाकष्टकर धनादिकका संग्रह किया ताको विवाहादि कार्यनिविष खरचै वा देना करि भी खर्च। मूए पीछे हमारा जस रहेगा ऐसा विचारि अपना मरन करिकै भी अपनी महिमा बघावै । जो अपना सन्मानादि न करै ताको भय आदिक दिखाय दुःख उपजाय अपना सम्मान करादै । बहुरि मान होते कोई पूज्य बड़े होहिं तिनका भी सम्मान न करे, किछू विचार रहता नाहीं। बहुरि अन्य नीचा, आप ऊँचा न दीसै तो अपने अंतरंग विष आप बहुत सन्तापवान होय वा अपने अंगनिका घात करै वा विषादकरि मरि जाय । ऐसी अवस्था मान होते होय है। बरि जब याकै मायाकषाय उपजै तब छलकर कार्य सिद्ध करनेकी इच्छा होय। बहुरि ताकै अर्थि अनेक उपाय विचारै, नाना प्रकार कपटके वचन कहै, कपटरूप शरीर की अवस्था करै, बाह्य वस्तुनिको अन्यथा दिखाये। बहुरि जिन विषै अपना मरन जाने ऐसे भी छल करै; बहुरि कपट प्रगट भए अपना बहुत बुरा होई, मरनादिक होई तिनको भी न गिनै । बहुरि माया हो कोई पूज्य वा इष्टका भी सम्बन्ध बने तो उनस्यों भी छल फरे, किछू विचार रहता नाहीं। बहुरि छलकरि कार्यसिद्ध न होइ तो आप बहुत संतापवान होप, अपने अगनिका पात करै वा विषादिकरि मरि जाय। ऐसी अवस्था माया होते हो है। बहुरि जब यार्क लोभ कवाय उपजै सब इष्ट पदार्थका लाभ की इच्छा होय, ताके अर्थि अनेक उपाय विचारै। याके साधनरूप वचन बोले, शरीरकी अनेक चेष्टा करै, बहुत कष्ट सहै, सेवा कर, विदेशगमन करे, जाकर मरन होता 'जाने सोभी कार्य करै। घना दुःख जिनविष उपजै ऐसा कार्य प्रारम्भ करे। बहरि लोभ होते पूज्य वा इष्टका
भी कार्य होय तहां भी अपना प्रयोजन साथै, किछू विचार रहता नाहीं । बहुरि जिस इष्ट वस्तुकी प्राप्ति भई है ताकी अनेक प्रकार रक्षा करै है; बहुरि इष्टवस्तुकी प्राप्ति न होय वा इष्टका वियोग होइ तो आप बहुत सन्तापवान होय अपने अंगनिका घात करै वा विषादकरि मरि जाय, ऐसी अवस्था लोभ होते हो है; ऐसे कवांयमिकरि पीड़ित हुवा इन अवस्थानिविष प्रवर्ते है।
बहुरि इन कषायनिकी साथ नोकषाय हो हैं। जहाँ जब हास्य कषाय होइ तब आप विकसित होइ प्रफुल्लित होइ सो यह ऐसा जानना जैसा वाययालेका हसना, नाना रोगकरि आप पीड़ित है, कोई कल्पनाकार हंसने लग जाय है। ऐसे ही यह जीव अनेक पीडासहित है, कोई झूठी कल्पनाकरि आपका सुहावसा कार्य मानि हर्ष माने है। परमार्थत दुःखी ही है। सुखी तो कषायरोग मिटे होगा। बहुरि जब रति उपजे है, तब इष्ट वस्तुविषै अति आसक्त हो है। जैसे बिल्ली मूसाको पकरि आसक्त हो है, कोऊ मारै, तो भी न छोरै। सो इहाँ इष्टपना है। बहुरि वियोग होनेका अभिप्राय लिये आसक्तता हो है सारौं दुःख ही
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-४६
है। बहुरि जब अरति जगाने तब अनिष्ट नस्तका संयोग णय महा न्याकुल हो है। अनिष्टका संयोग भया सो आपः सुहावता नाहीं। सो यह पीड़ा सही न जाय तातै ताका वियोग करने को तड़फड़े है सो यह दुःख ही है, वहुरि जव शोक उपजै है तब इष्टका वियोग वा अनिष्टका संयोग होते अतिव्याकुल होइ सन्ताप उपजाये, सेवे, पुकारे, असावधान होइ जाय, अपना अंगघात करि मरि जाय, किछू सिद्धि नाहीं तो भी आपही महादुःखी हो है। बहुरि जब भय उपजे है तब काहू को इष्टवियोग, अनिष्टसंयोगका कारण जानि डरै, अति विहल होइ, भागै वा छिप वा शिथिल होइ जाय, कष्ट होनेके ठिकाने प्राप्त होय वा मरि जाय सो यह दुःख रूपही है। बहुरि जुगुप्सा उपजै है तब अनिष्ट वस्तुसों घृणा करै। ताका तो संयोग भया, आप घृणाकरि भाग्या चाहै, खेदखिन्न होई मैं वाळू दूर किया चाहै, महादुःखको पावै है। बहुरि तीनूं वेदनिकरि जब काम उपजै है तब पुरुषवेदकरि स्वीसहित रमनेकी अर स्त्रीवेदकरि पुरुषसहित रमने की अर नपुंसकवेदकरि दोऊनिस्यों रमनेकी इच्छा हो है। तिसकार अति व्याकुल हो है, आताप उपजे है, निर्लज्ज हो है, धन खर्चे है। अपजसको न गिने है। परम्परा दुःख होइ वा दंडादिक होय ताकों न गिनै है। कामपीड़ाते बाउला हो है, मरि जाय है। सो रसग्रंथनियिर्षे काम की दश दशा कही हैं। तहाँ बाउला होना मरण होना लिख्या है। वैद्यक शास्त्रनिमें ज्वर के भेदनिविषै कामज्वर मरण का कारण लिख्या है। प्रत्यक्ष कामकरि मरणपर्यन्त होते देखिए है। कामांधकै किछू विचार रहता नाहीं। पिता पुत्री वा मनुष्य तियंचणी इत्यादित रमने लगि जाय है। ऐसी काम की पीड़ा सो महादुःखस्वरूप है। या प्रकार कषाय वा नोकषायनिकरि अवस्था हो है । इहाँ ऐसा विचार आवै है जो इन अवस्थानिविष न प्रवर्ते तो क्रोधादिक पीडै अर इनि अवस्थानिविषै प्रवर्ते तो मरण पर्यंत कष्ट होइ। तहाँ भरण पर्यंत कष्ट तो कबूल करिए है अर क्रोधादिककी पीड़ा सहनी कबूल न करिए है। तात यह निश्चय भया जो परणादिकते भी कषायनिकी पीड़ा
अधिक है। बहुरि जब याकै कषायका उदय होइ तब कषाय किए बिना रणा जाता नाहीं। बाध कषायनिके कारण आय पिलें तो उनके आश्रय कषाय करै, न मिले तोआप कारण बनाये। जैसे व्यापारादि कषायनिका कारण न होइ तो जुआ खेलना वा अन्य क्रोधादिकके कारण अनेक ख्याल खेलना या दुष्ट कथा कहनी सुननी इत्यादिक कारण बनादै है। बहुरि काम क्रोधादि पीड़े शरीरविर्ष तिनसप कार्य करने की शक्ति न होइ तो औषधि बनावै, अन्य अनेक उपाय करे। बहुरि कोई कारण बने नाही तो अपने उपयोग विष कषायनिको कारणभूत पदार्थनिका चिंतयनकरि आप ही कषायरूप परिणमै। ऐसे यह जीव कषायभावनिकरि पीड़ित हुआ महान् दुःखी हो है। बहुरि जिस प्रयोजनकी लिए कषायभाव भया है तिस प्रयोजनकी सिद्धि होय तो यह मेरा दुःख दूरि होय अर मोर्चे सुख होय, ऐसे विचारि तिस प्रयोजनकी सिद्धि होने के अर्थ अनेक उपाय करना सो तिस दुःख दूर होने का उपाय मान है। सो इहाँ कषायभायनित जो दुःख हो है सो तो सांधा ही है, प्रत्यक्ष आप ही दुःखी हो है। बहुरि यह उपाय करै है सो झूठा है। काहेत सो कहिए है- क्रोध विषै तो अन्यका बुरा करना, मानविष ओरनिकू नीचा करि आप ऊँचा होना, मायाविषे छलकार कार्य सिद्धि करना, लोभविष इष्टका पावना, हास्यविधै विकसित होने का कारण बन्या रहना, रतिदिधै इष्टसंयोग का बन्या रहना, अरतिविष अनिष्टका दूर होना, शोकविषै शोकका कारण मिटना, भययिष भयका मिटना, जुगुप्साविर्ष
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तीनग अधिकार -
जुगुप्साका कारण दूर होना, पुरुषवेदविषै स्त्रीस्यों रमना, स्त्रीवेदविष पुरुषस्यों रमना, नपुंसकवेदविषे दोऊनिस्यों रमना, ऐसे प्रयोजन पाइए है। सो इनकी सिद्धि होय तो कषाय उपशमनेत दुःख दूरि होय जाय, सुखी होय परन्तु इनकी सिद्धि इनके किए उपायनिके आधीन नाहीं, भवितव्य के आधीन है। जात अनेक उपाय करते देखिये है अर सिद्धि न हो है। बहुरि उपाय बनना भी अपने आधीन नाहीं, भवितव्यके आधीन है। जाते अनेक उपाय करना विचार और एक भी उपाय न होता देखिए है। बहुरि काकतालीय न्यायकरि भवितव्य ऐसा ही होय, जैसा आपका प्रयोजन होय तैसा ही उपाय होय अर तातै कार्य-सिद्धि भी होय जाय तो तिस कार्य सम्बन्धी कोई कषायका उपशम होय परन्तु तहाँ थम्भाव होता नाहीं। यावत् कार्य सिद्ध न मया तावत् तो तिस कार्य सम्बन्धी कषाय थी, जिस समय कार्य सिद्ध भया तिस ही समय अन्य कार्य सम्बन्धी कषाय होइ जाय। एक समय मात्र भी निराकुल रहै नाहीं। जैसे कोऊ क्रोथरि काहूका बुरा विचार था, वाका बुरा होय धुक्या तब अन्य सों क्रोधकरि वाका बुरा चाहने लाग्या अथवा थोरी शक्ति थी तब छोटेनिका बुरा चाहै या, धनी शक्ति भई तब बड़ेनिका बुरा चाहने लाग्या। ऐसे ही मानमाया लोभादिक कारे जो कार्य विचार था सो सिद्ध होय चुक्या तब अन्य विषे मानादिक उपजाय तिस की सिद्धि किया चाहै। थोरी शक्ति थी तब छोटे कार्य की सिद्धि किया चाहै था, धनी शक्ति भई तब बड़े कार्य की सिद्धि करने का अभिलाषी भया । कषायनिविषे कार्यका प्रमाण होइ तो तिस कार्यकी सिद्धि भए सुखी होइ जाय सो प्रमाण है नाहीं, इच्छा बघती ही जाय। सोई आत्मानुशासनविषे कह्या है
आशागर्तः प्रतिप्राणी यस्मिन्विश्वमणूपमम् ।
कस्य किं कियदायाति वृथा यो विषयषिता ।।३६।। याका अर्थ- आशासपी खाड़ा प्राणी-प्राणी प्रति पाइए है। अनंतानंत जीव है तिन सबनिकै हो आशा पाइए है। बहुरि वह आशारूपी खाड़ा कैसा है, जिस एक ही खाड़े विष समस्त लोक अणुसमान है। अर लोक एक ही सो अब इहां कौन-कौनके कितना-किसना बटवारे* आवै। तुम्हारे यह विषयनिकी इच्छा है सो वृथा ही है। इच्छा पूर्ण तो होती ही नाहीं। सात कोई कार्य सिद्ध भए भी दुःख दूर न होय अथवा कोई कषाय मिटै तिसही समय अन्य कषाय होइ जाय। जैसे काहूको मारनेवाले बहुत होय, जब कोई वाकू न मारे तब अन्य मारने लगि जाय। तैसे जीवकों दुःख द्यावनेवाले अनेक कषाय है, जब क्रोष न होय तब मानादिक होइ जाय, जब मान न होइ तब क्रोधादिक होइ जाय। ऐसे कषायका सद्भाव रया ही करे कोई एक समय भी कषाय रहित होय नाहीं । तातें कोई कषायका कोई कार्य सिद्ध भए भी दुःख दूर कैसे होइ? बहुरि याकै अभिप्राय तो सर्वकषायनिका सर्यप्रयोजन सिद्ध करनेका है सो होइ तो सुखी लेइ। सो तो कदाचित् होई सके नाहीं। तातै अभिप्राय विषे शाश्वत दुःखी ही रहै है। ताः कषापनिका प्रयोजनको साधि दुःख दूरिकरि सुखी मया चाई है, सो यहु उपाय झूठा ही है तो साधा उपाय का सम्यग्दर्शनमालते यथावत् खान वा जानना होइ तब इष्ट अनिष्ट बुद्धि पिटै। बहुरि तिनहीके बलकार चारित्रमोहका
* बांटमें-हिस्से में।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-४
अनुभाग हीन होय । ऐसे होते कषायनिका अभाव होइ तब तिनकी पीड़ा दूर होय। तब प्रयोजन भी किछू रहै नाही, निराकुल होने से महासुखी होइ। तातें सम्यग्दर्शनादिक ही इस दुःख मेटनेका सांचा उपाय है।
अन्तराय से दुःख की प्राप्ति और उसकी निवृत्ति का सच्चा उपाय
बहुरि अन्तरायका उदयते जीक्के मोहकरि दान लाभ भोग उपभोग वीर्य शक्ति का उत्साह उपजै परन्तु होइ सकै नाहीं । तब परम आकुलता होइ सो यह दुःखरूप है ही. याका उपाय यह करै कि जो विघ्नके बाह्य कारण सूझै तिनके दूर करने का उद्यम करै सो यह उपाय झूठा है। उपाय किए भी अन्तरायका उदय होतें विघ्न होता देखिए है 1 अन्तरायका क्षयोपशम भए उपाय बिना भी कार्यविषै विघ्न न हो है। ता” विघ्नन का मूलकारण अंतराय है। बहुरि जैसे कूकराकै पुरुषकार वाही हुई लाठी लागी, वह कूकरा लाठीस्यों वृथा ही द्वेष करै है। तैसे जीवके अन्तरायकरि निमित्तभूत किया बाह्य चेतन अचेतन द्रव्यकरि विघ्न भया। यह जीव तिन बाह्य द्रव्यनिसों वृथा द्वेष कर है। अन्यद्रव्य याकै विघ्न किया चाहै अर याकै न होइ। बहुरि अन्य द्रव्य विघ्न किया न चाह अर याकै होइ। तातें जानिए है, अन्य द्रव्यका किछु वश नाही, जिनका वश नाहीं तिनिसों काहेको लरिये। तातै यह उपाय झूठा है। सो सांचा उपाय कहा है? मिथ्यादर्शनादिकतै इच्छाकरि उत्साह उपर्ज था सो सम्यग्दर्शनादिककार दूर होय अर सम्यग्दर्शनादिक ही करि अंतरायक अनुभाग घटै तब इच्छा तो मिटि जाय, शक्ति बधि जाय तब वह दुःख दूर होइ निराकुल सुख उपजै । ताते सम्यग्दर्शनादिक ही सांचा उपाय है।
बहुरि वेदनीयके उदयनै दुःख - सुखके कारण का संयोग हो है। तहाँ केई तो शरीर विष ही अवस्था हो हैं। केई शरीर की अवस्था को निमित्तभूत बाह्य संयोग हो है, केई बाह्य ही वस्तूनिका संयोग हो है। तहाँ असाताके उदयकरि शरीर विषै तो क्षुधा, तृषा, उस्वास, पीड़ा, रोग इत्यादि हो हैं। बहुरि शरीर की अनिष्ट अवस्थाको निमित्तभूत बाह्य अति शीत उष्ण पवन बंधनादिकका संयोग हो है। बहुरि बाह्य शत्रु कुपुत्रादिक वा कुवर्णादिक सहित स्कंधनिका संयोग हो है। तो मोहकरि इन विष अनिष्ट बुद्धि हो है। जब इनका उदय होय तब मोहका उदय ऐसा ही आवै जाकरि परिणामनिमें महाव्याकुल होइ इनको दूर किया थाहै। यावत् ए दूर न होय तावत् दुःखी रहै सो इनके होते तो सर्व ही दुःख माने है; बहुरि साता के उदयकरि शरीरविषै आरोग्यवानपनो बलवानपनो इत्यादि हो है। बहुरि शरीरकी इष्ट अवस्थाको निमित्तभूत बाझ खानपानादिक वा सुहावना पवनादिकका संयोग हो है। बहुरि बाह्य मित्र सुपुत्र स्त्री किंकर हस्ती घोटक धन-धान्य मन्दिर वस्त्रादिकका संयोग हो है सो मोहकरि इनविषै इष्टबुद्धि हो है। जब इनका उदय होय तब मोहका उदय ऐसा ही आवे जाकरि परिणामनिमें चैन माने। इनकी रक्षा चाहे, यावत् रहै तावत् सुख मान। सो यह सुख मानना ऐसा है जैसे कोऊ घने रोगनिकरि बहुत पीड़ित होय रमा था ताके कोई उपचारकरि कोई एक रोगकी कितेक काल किछू उपशांतता भई तब वह पूर्व अवस्थाकी अपेक्षा आपको सुखी कहै, परमार्थते सुख है नाहीं । तैसे यह जीव घने दुःखनिकरि बहुत पीड़ित होई रह्या था ताके कोई प्रकार कार कोऊ एक दुःखकी कितेक काल किछु उपशांतता भई। तब यहु पूर्व अवस्थाकी अपेक्षा आपको सुखी कहै है, परमार्थतै सुख है. नाहीं । बहुरि याको असाताका उदय होते जो होय ताकरि तो दुःख भासै
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तीसरा ..
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है तातै ताके दूर करनेका उपाय करै है अर साताका उदय होतें जो होय ताकरि सुख भासे है तातै ताको होनेका उपाय करै है। सो यहु उपाय झूटा है। प्रथम तो याका उपाय याके आधीन नाही, वेदनीयकर्मका उदयके आधीन है। असाताके मेटनेके अर्थ साताकी प्राप्ति के अर्थितो सर्वहीकै यत्न रहै हैं परन्तु काहूके थोरा यत्न किए भी वा न किए भी सिद्धि होइ जाय, काहूके बहुच यत्न किए भी सिद्धि न होय, तातें जानिए है याका उपाय याके आधीन नाहीं; बहुरि कदाचित उपाय भी करै अर तैसा ही उदय आवै तो थोरे काल किंचित काहू प्रकार की असाताका कारण मिटै अर साता का कारण होय, तहाँ भी मोहके सद्भावनै तिनको भोगनेकी इच्छाकरि आकुलित होय । एक भोग्यवस्तुको भोगनेकी इच्छा होय, वह यावत् न मिलै तावत् तो पाकी इच्छाकरि आकुलित होय अर वह मिल्या अर उसही समय अन्यको भोगने की इच्छा होइ जाय, तब ताकरि आकुलित होइ। जैसे काहूको स्वाद लेनेकी इच्छा भई थी, वाका आस्वाद जिस समय भया तिसही समय अन्य वस्तुका स्वाद लेनेकी वा स्पर्शनादि करनेकी इच्छा उपज है। अथवा एक ही वस्तुको पहिले अन्य प्रकार भोगनेकी इच्छा होइ, यह यावत् न मिले तावत् वाकी आकुलता रहै अर वह भोग भया अर उसही समय अन्य प्रकार भोगने की इच्छा होय। जैसे स्त्रीको देख्या चाहै था, जिस समय अवलोकन भया उस ही समय रमने की इच्छा हो है। बहुरि ऐसे भोग भोगते ही तिनके अन्य उपाय करनेकी आकुलता हो है सो तिनको छोरि अन्य उपाय करने को लागै है। तहाँ अनेक प्रकार आकुलता हो है। देखो एक धनका उपाय करनेमें व्यापारादिक करते बहुरि वाकी रक्षा करने में सावधानी करते केती आकुलता हो है। बहुरि क्षुथा तृषा शीत उष्ण मल श्लेष्मादि असाताका उदय आया ही करै, ताका निराकरण करि सुख मानै सो काहेका सुख है, यह तो रोगका प्रतिकार है। यावत् क्षुधादिक रहै तावत् तिनको मिटावनेकी इच्छाकरि आफुलता होय, वह मिटै तब कोई अन्य इच्छा उपजै ताकी आकुलता होय, बहुरि क्षुधादिक होय तब उनकी आकुलता होइ आवै । ऐसा याके उपाय करतें कदाचित् असाता मिटि साता होई तहाँ भी आकुलता रह्या ही करे, तातै दुःख हो रहे है। बहुरि ऐसे भी रहना तो होता नाही, आपको उपाय करते-करते ही कोई असाताका उदय ऐसा आवै ताका किछु उपाय पनि सकै नाही अर ताकी पीड़ा बहुत होय, सही जाय नाहीं; तब ताकी आकुलताकार विश्ल होइ जाय तहाँ महादुःखी होय। सो इस संसार में साताका उदय तो कोई पुण्यका उदयकरि काहूर्फ कदाथित् ही पाइए है, घने जीवनिकै बहुत काल असाताहीका उदय रहै है। सातै उपाय करै सो झूठा है। अथवा बाह्य सामग्रीते सुख - दुःख मानिए है सो ही प्रम है। सुख दुःख तो साता असाताका उदय होते मोहका निमित्तते हो है सो प्रत्यक्ष देखिये है।
विशेष-परम पूज्य धवल ग्रन्थराज (पुस्तक १५ पृ. ५०-६१) पर लिखा है कि सातवेदनीय के वेदक स्तोक हैं। उनसे असातावेदनीय के वेदक संख्यातगुणे हैं अर्थात् कुल संसारी जीयों के संख्यातवें भाग प्रमाण जीव ही सुखी मिलते हैं। यह सामान्य विवेचन है। गत्यनुसार विवेचन करने पर नरक में साता के वेदकों से असंख्यातगुणे, असाता के वेदक नित्य मिलते हैं। द्रव्य, क्षेत्र,काल, भाव का परिणमन इंद्रियों को सुख पहुँचाने के योग्य नहीं है, अतः वहाँ असाता के वेदक बहुसंख्यक है (ति.प. दूसरा अधिकार) परन्तु मनुष्य या बस तिर्यच या देवों में असाता के वेदक स्तोक हैं। साता
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-५०
के वेदक असाताके वेदकों से संख्यातगुणे हैं अर्थात् नरक गति को छोड़ कर शेष गतियों में असातावान जीवों की अपेक्षा सातावान (इन्द्रिय सुख से सुखी) जीव बहुत अधिक (संख्यातगुणे) हैं परन्तु एकेन्द्रियों में साता वेदकां से असातावेदक संख्यातगुणे है। सारतः एकेन्द्रियों तथा नारकियों में तो दुःखी अधिक व सुखी जीव कम हैं। परन्तु शेष त्रसों में दुःखी कम, सुखी अधिक है। यह अकाट्य सत्य है।
लक्ष धनका धनीकै सहस्र धनका व्यय भया तब वह तो दुःखी है अर शत धनका धनीके सहनधन मया तब वह सुख मानै है; बाह्यसामग्री तो वाकै यात निन्याणवै गुणी है। अथवा लक्ष धन का धनीकै अधिक धन की इच्छा है तो वह दुःखी है अर शत धनका धनीकै सन्तोष है तो यहु सुखी है। बहुरि समान वस्तु मिले कोऊ सुख मान है, कोऊ दुःख मान है। जैसे काहूको मोटा वस्त्रका मिलना दुःखकारी होइ, काहूको सुखकारी होइ, बहुरि शरीर विष क्षुधा आदि पीड़ा वा बाह्य इष्टका वियोग अनिष्टका संयोग भए काहू के बहुत दुःख होइ काहूकै थोरा होइ, काहूकै न होइ तात सामग्री के आधीन सुख-दुःख नाहीं। साताअसाता का उदय होते मोहपरिणमन के निमित्तते ही सुख दुःख मानिए है।
इहाँ प्रश्न-जो बाह्य सामग्रीकी तो तुम कहो हो तैसे ही है परन्तु शरीरविर्ष तो पीड़ा भए दुःखी होय ही होय अर पीड़ा न भए सुखी होय सो यह तो शरीरअवस्था ही के आधीन सुख - दुःख भारी है।
ताका समाधान-आत्माका जो ज्ञान इन्द्रियाधीन है अर इन्द्रिय शरीरका अंग है, सो यामें जो अवस्था बीतै ताका जाननेरूप ज्ञान परिणमै ताकी साथ ही मोहभाव होइ ताकरि शरीर अवस्थाकार सुख-दुःख विशेष जानिए है। बहुरि पुत्र धनादिकस्यों अधिक मोह होय तो अपना शरीर का कष्ट सह ताका थोरा दुःख माने, उनको दुःख भए वा संयोग मिटे बहुत दुःख माने। अर मुनि है सो शरीरको पीड़ा होते भी किछू दुःख मानते नाहीं। तातें सुख दुःख मानना तो मोहही के आधीन है। मोहके अर वेदनीयके निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है नाहै साता असाताका उदयते सुख-दुःखका होना भास है। बहुरि मुख्यपने केतीक सामग्री साताके उदयतै हो है, केतीफ असाताके उदयतै हो है साकार सामग्रीनिकरि सुख-दुःख भास है। परन्तु निर्धार किए मोहहीत सुख-दुःख का मानना हो है, औरनिकरि सुख-दुःख होने का नियम नाहीं। केवलीकै साता असाताका उदय भी है अर सुख-दुःख को कारण सामग्री का भी संयोग है परन्तु मोहका अभावते किंचिन्मात्र भी सुख दुःख होता नाहीं, तात सुख दुःख मोहजनित ही मानना। तातें तू सामग्री के दूर करने का वा होने का उपायकरि दुःख मेट्या चाहै, सुखी भया चाहै सो यहु उपाय झूठा है, तो सौंचा उपाय कहा है?
सम्यग्दर्शनादिकत प्रम दूर होइ तब सामग्रीत सुख-दुःख भासे नाही, अपने परिणामहीत मास; बहुरि यथार्थ विचारका अभ्यासकरि अपने परिणाम जैसे सामग्री के निमित्तते सुखी दुःखी न होय तैसे साधन कर। बहुरि सम्यग्दर्शनादि भावनाहीत मोह मंद होइ जाय तब ऐसी दशा होइ जाय तो अनेक कारण मिले आपको सुख दुःख होइ नाहीं। जब एक शांतदशारूप निराकुल होइ सांचासुखको अनुभवै तब सर्व दुःख मिटै'
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तीसरा अधिकार - ५१
बहुसांचा उपाय है। बहुरि आयुकर्म के निमित्त पर्याय का धारना सो जीवितव्य है, पर्याय छूटना सर यह जीव मिथ्यादर्शनादिकर्ते पर्यायहीको आपो अनुभवै है, तातें जीवितव्य रहे अपना
मन भए अपना अभाव होना माने है। इसही कारण सदा काल याके मरनका भय रहे या आकुलता रहे है। जिनको मरनका कारण जानै तिनसों बहुत डरै। कदाचित् उनका महाविल होइ जाय। ऐसे महा दुःखी रहे है। ताका उपाय यहु करे है जो मरने के कारणनिको जनसो आप भाग है। बहुरि औषधादिकका साधन करे है। गढ़ कोट आदिक बनावे है इत्यादि
उपाय झूठा है, जातें आयु पूर्ण भए तो अनेक उपाय करे है, अनेक सहाई होइ तो होइ, एक समय मात्र भी न जीवै। अर यावत् आयु पूरी न होइ तावत् अनेक कारण स. होइ। तातैं उपाय किए मरन मिटता नाहीं । बहुरि आयुकी स्थिति पूर्ण होय ही होय यही होय, बाका उपाय करना झूठा ही है तो सौंचा उपाय कहा है?
विकेत पर्यायविषे अहंबुद्धि छूटे, जादिनिधन आप चैतन्य विविध बुद्धि समान जाने तब मरणका भय रहै नाहीं । बहुरि सम्यग्दर्शनादिक होते सिद्ध पद अभाव ही होय । तातें सम्यग्दर्शनादिक ही सांचा उपाय है।
नामकर्म के उदय गति जाति शरीरादिक निपजें हैं तिनविषे पुण्य के उदयतें जे हो है ते धरने में हैं। पापके उदयते हो हैं ते दुःख के कारण हो हैं। सो इहां सुख मानना भ्रम है; बहुरि प्रेरण मिटाने का, सुखके कारण होनेका उपाय करे है सो झूठा है। सांचा उपाय है। सो जैसे वेदनीयका कथन करते निरूपण किया तैसे इहां भी जानना । वेदनीय अर नाम कारणपनाकी समानता निरूपणकी समानता जाननी । बहुरि गोत्र कर्मके उदयतें ऊँचा है। तहाँ ऊँचा कुलविषै उपजें आपको ऊँधा माने है अर नीचा कुलविषै उपजै आपको
पलटने का उपाय तो याको भासै नाहीं तातै जैसा कुल पाया तिसही कुल विषै आपो अपेक्षा आपको ऊँचा नीचा मानना भ्रम है। ऊँचा कुलकर कोई निद्य कार्य करे तो वह •अर नौचा कुलविषै कोई श्लाघ्य कार्य करे तो यह ऊँचा होइ जाय । लोभादिकतैं नीच सेवा करने लग जाय । बहुरि कुल कितेक काल रहे? पर्याय छूटे कुलको पलटनि नीचा कुलकर आपकूं ऊँचा-नीचा माने। ऊँचाकुल वालेको नीचा होनेके भयका अर पाए हुए नीचापने का दुःख ही है तो याका साँचा उपाय यहु ही है सो कहिए है । "ऊँचा नीचा कुलविष हर्षविषाद न मानै । बहुरि तिनहीतें जाकी बहुरि पलटनि न हो ऐसा
पावे, सब सब दुःख मिटै, सुखी होय ( तातै सम्यग्दर्शनादिक दुःख मेटने अर सुख (उपाय *) या प्रकार कर्मका उदय की अपेक्षा मिथ्यादर्शनादिकके निमित्त संसारविषै दुःख ताका वर्णन किया। अब इसही दुःखको पर्याय अपेक्षाकरि वर्णन करिए है।
प्र में नहीं है।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-५२
एकेन्द्रिय जीवों के दुःख इस संसारविषे बहुत काल तो एकेन्द्रिय पर्यायही विष बीते है। तातें अनादिही तो नित्यनिगोद विषै रहना, बहुरि तहाँतें निकसना ऐसे जैसे भाड़मुनत चणाका उछटि जाना सो तहाँत निकसि अन्य पर्याय धरै तो त्रसविषै तो बहुत थोरेही काल रहै, एकेन्द्रीही विषै बहुत काल व्यतीत करै है। तहाँ इतरनिगोदविषे बहुत रहना होइ । अर कितेक काल पृथिवी अप तेज वायु प्रत्येक वनस्पतीविषै रहना होइ । नित्य निगोदत निकसे पीछे प्रसविषै तो रहने का उत्कृष्ट काल साधिक दो हजार सागर ही है' अर एकेन्द्रियविषै उत्कृष्ट रहनेका काल असंख्यात पुद्गल परावर्तन मात्र है अरु पुद्गल परावर्तनका काल ऐसा है जाका अनन्तयां भागविष भी अनन्ते सागर हो हैं। ताते इस संसारी के मुख्यपने एकेन्द्रिय पर्यायविष ही काल व्यतीत हो है। तहाँ एकेन्द्रियके ज्ञानदर्शन की शक्ति तो किंचिन्मात्र ही रहै है। एक स्पर्शन इन्द्रियके निमित्तते भया मतिज्ञान अर ताकै निमित्ततै भया श्रुतज्ञान अर स्पशनइन्द्रियजानत अचक्षुदर्शन जिनकरि शीत उष्णादिकको किंचित् जाने देखै है, ज्ञानावरण दर्शनावरणके तीन उदयकरि यात अथिक ज्ञानदर्शन न पाइए है अर विषयनिकी इच्छा पाइए है तातै महादुःखी है। बहुरि दर्शनमोहके उदयतें मिथ्यादर्शन हो है ताकरि पर्यायहीको आपो श्रद्धहै है, अन्यविचार करने की शक्ति ही नाहीं। बहुरि चारित्रमोहके उदयनै तीव्र क्रोधादि कषायरूप परिणम है जाते उनके केवली भगवानने कृष्ण नील कापोत ए तीन अशुभ लेश्याही कही है। सो ए तीव्र कषाय होते ही हो हैं सो कषाय तो बहुत अर शक्ति सर्व प्रकारकरि महाहीन तातै बहुत दुःखी होय रहे है, किछू उपाय कर सकते नाहीं।
इहाँ कोऊ कहै-ज्ञान तो किंचिन्मात्रही रह्या है, वे कहा कषाय करै है?
ताका समाधान-जो ऐसा तो नियम है नाहीं जेता ज्ञान होय तेता ही कषाय होय। ज्ञान तो क्षयोपशम जेता होय तेता हो है। सो जैसे कोऊ आँथा बहरा पुरुषकै ज्ञान थोरा होते भी बहुत कषाय होते देखिए है तैसे एकेन्द्रिय के झान थोरा होते भी बहुत कषायका होना मानना है। बहुरि बाघ कषाय प्रगट तब हो है जब कषायके अनुसार किछु उपाय करे। सो वे शक्तिहीन है तातें उपाय कर सकते नाहीं । सात उनकी कषाय प्रगट नाही हो है। जैसे कोऊ पुरुष शक्तिहीन है ताके कोई कारणले तीव्र कषाय होय परन्तु किछु करि सकते नाहीं । ताते वाका कषाय बाल प्रगट नाही हो है, यूं ही अति दुःखी हो है। तैसे एकेन्द्रिय जीव शक्तिहीन हैं, तिनकै कोई कारणः कषाय हो है परन्तु, किछु कर सकै नाहीं, तातै उनकी कषाय बाह्य प्रगट नाही हो है; वे आप ही दुःखी हो हैं। बहुरि ऐसा जानना, जहाँ कषाय बहुत होय अर शक्ति होन होय तहाँ घना दुःखी हो है। बहुरि जैसे कषाय घटती जाय, शक्ति बंधती जाय तैसे दुःख घटता हो है। सो एकेन्द्रियनिके कषाय बहुत अर शक्ति हीन तात एकेन्द्रिय जीव महादुःखी हैं। उनके दुःख वे ही भोगवै हैं, अर केवली जाने है। जैसे सन्निपातीका ज्ञान घट जाय अर बाम शक्ति के हीनपनेतें अपना दुःख प्रगट भी न कर सकै परन्तु वह महादुःखी है तैसे एकेन्द्रियका ज्ञान तो थोरा है अर बाम शक्तिहीनपनाते अपना १. इसका अभिप्राय यह है कि त्रस जीवों में जीव अधिक से अधिक पूर्व कोटी पृथक्त्व अधिक २००० सागर तक रहता
है। इससे अधिक त्रस काय में रहना सम्भव नहीं। (धवला ४-४०८)
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तीसरा अधिकार-५३
दुःखको प्रगट भी न करि सके है परन्तु महादुःखी है। बहुरि अन्तरायके तीव्र उदयकरि बहुत धीया होता नाही साते भी दुःखी हो हो है। बहुरि अघातिकर्मनिविष विशेषपने पापप्रकृतिका उदय है तहाँ असातावेदनीयका उदय होते तिसके निमित्त महादुःखी हो है। बहुरि वनस्पती है सो पवनः टूटे है, शीत उष्णकरि सूकि जाय है, जल न मिले सूकि जाय है, अगनिकरि बलै है, ताकों कोऊ छेदै है, भेदै है, मसलै है, खाय है, तोरे है इत्यादि अवस्था होहै। ऐसे ही यथासम्भव पृथ्वी. आदिविषे अवस्था हो हैं। तिन अवस्थाको होते वे महादुःखी हो है। जैसे मनुष्यके शरीर विषै ऐसी अवस्था भए दुःख हो है तैसे ही उनके हो है। जाते इनका जानपना स्पर्शन इन्द्रियतै हो है सो याकै स्पर्शनइन्द्रिय है ही, ताकरि उनको जानि मोहके वशः महाव्याकुल हो हैं परन्तु भागनेकी या लरने की वा पुकारनेकी शक्ति नाहीं तात अज्ञानी लोक उनके दुःखको जानते नाहीं। बहुरि कदाचित् किंचित् साताका उदय होय सो वह बलवान होता नाहीं। बहुरि आयुकर्मत इन एकद्रिय जीवनिविषे जे अपर्याप्त हैं तिनके तो पर्यायकी स्थिति उश्वासके अठारहवें भाग मात्र ही है अर. पर्याप्तनिकी अन्तर्मुहूर्त आदि कितेक वर्ष पर्यंत है। सो आयु थोरा तातै जन्ममरण हुवाही करे, ताकरि दुखी है।
___ बहुरि नामकर्मविष तियच गति आदि पापप्रकृतिनि का ही उदय विशेषपने पाइए है। कोई हीन पुण्य प्रकृतिका उदय होइ ताका बलवानपना नाहीं तातै तिनकरिभी मोहके वशते दुःखी हो है।
बहुरि गोत्रकर्मविषे नीचगोत्रही का उदय है तातै महंतता होय नाहीं तातें भी दुःखी हो है ऐसे एकेन्द्रिय जीय महादुःखी हैं अर इस संसार विष जैसे पाषाण आधारविषै तो बहुत काल रहे है, निराधार
आकाशविषै तो कदाचित् किचिन्मात्रकाल रहे तैसे जीव एकेन्द्रिय पर्यायविर्ष बहुत काल रहे है, अन्य पर्यायविष तो कदाचित् किंचिन्मात्र काल रहै है। तातै यह जीद संसारविषे महादुःखी है।
दो इन्द्रियादिक जीवों के दुःख बहुरि दीन्द्रिय तेन्द्रिय चतुरिन्द्रिय असंजीपंचेन्द्रिय पर्यायनिको जीव धरै तहाँ भी एकेन्द्रियवत् दुःख जानना। विशेष इतना-इहाँ क्रम" एक एक इन्द्रियजनित ज्ञानदर्शनकी वा किछु शक्तिकी अधिकता भई है, बहुरि बोलने-चालने की शक्ति भई है। तहाँ भी जे अपर्याप्त हैं या पर्याप्त भी हीन शक्ति के थारक छोटे जीव है, सिनकी शक्ति प्रगट होती नाहीं । बहुरि केई पर्याप्त बहुत शक्तिके थारक बड़े जीव हैं, तिनकी शक्ति प्रगट हो है। ताते ते जीव विषयनिका उपाय करै हैं, दुःख दूर होने का उपाय करै हैं। क्रोधादिककार काटना, मारना, लरना, छलफरना, अन्नादिका संग्रह करना, भागना इत्यादि कार्य करै है। दुःखकार तड़फड़ाट करना, पुकारना इत्यादि क्रिया करै है। तातै तिनका दुःख किछु प्रगट भी हो है। सो लट कीड़ी आदि जीवन के शीत उष्ण छेदन भेदनादिकरौं या भूख तृषा आदितै परम दुःख देखिए है। जो प्रत्यक्ष दीसै ताका विचार कार लेना। इहाँ विशेष कहा लिखे ऐसे द्वीन्द्रियादिक जीव भी महादुःखी ही जानने।
नरकगति के दुःख बहुरि संजीपंचेन्द्रियनिविर्षे नारकी जीव हैं ते तो सर्व प्रकार घने दुःखी हैं। ज्ञानादिकी शक्ति किछू है परन्तु विषयनिकी इच्छा बहुत अर इष्टविषयनिकी सामग्री किंचित भी न मिले ताते तिस शक्ति के होने
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-५४
कर भी घने दुःखी हैं, बहुरि क्रोधादि कषायका अति तीव्रपना पाइए है, जाते उनके कृष्णादि अशुभलेश्या ही हैं। तहाँ क्रोथ मानकरि परस्पर दुःख देनेका निरन्तर कार्य पाइए है। जो परस्पर मित्रता करे तो यह दुःख मिट जाय। अर अन्य को दुःख दिए किछू उनका कार्य भी होता नाहीं परन्तु क्रोध मानका अति तीव्रपना पाइए है ताकरि परस्पर दुःख देनेहीकी बुद्धि रहै। विक्रियाकरि अन्यको दुःखदायक शरीर के अंग बनावै वा शस्त्रादि बनावै तिनकरि अन्यको आप पीड़े, अर आपको कोई और पीड़े कदाचित् कषाय उपशांत होय नाहीं। बहुरि माया लोभ की भी अति तीव्रता है परन्तु कोई इष्ट सामग्री तहाँ दीखे नाहीं । तासे तिन कषायनिका कार्य प्रगट करि सकते नाही तिनकार अंतरंगविष महादुःखी हैं। बहुरि कदाचित् किंचित् कोई प्रयोजन पाय तिनका भी कार्य हो है। बहुरि हास्य रति कषाय हैं परन्तु बाह्य निमित्त नाहीं, तातै प्रगट होते नाही, कदाचित् किंचित् किसी कारण हो हैं। बहुरि अरति शोक भय जुगुप्सानिके बाह्य कारण बनि रहै हैं, तातै ए कषाय तीव्र प्रकट होय हैं। बहुरि वेदनिविष नपुंसकवेद है सो इच्छा तो बहुत अर स्त्री पुरुषस्यों रमनेका निमित्त नाही, ता महापीड़ित हैं। ऐसे कषायनिकरि अति दुःखी हैं। बहुरि वेदनीय विषै असाताहीका उदय है ताकरि तहाँ अनेक वेदनाका निमित्त है। शरीर विषै कोढ़ कास श्वासादि अनेकरोग युगपत् पाइए है अर क्षुधातृषा ऐसी हैं, सर्वका भक्षण-पान किया चाहै है अर तहांकी माटीहीका भोजन मिलै है सो माटीभी ऐसी है जो इहां आवै तो ताका दुर्गध केई कोसनिके मनुष्य मरि जाय। अर शीत उष्ण तहां ऐसा है जो लक्ष योजन का लोहका गोला होइ सो भी तिनकरि भस्म होय जाय। कहीं शीत है, कहीं उष्ण है। बहुरि तहाँ पृथ्वी शस्त्रनितें भी महातीक्ष्ण कंटकनि कर सहित है। बहुरि तिस पृथ्वीविषै वन हैं सो शस्त्र की धारा समान पत्रादि सहित हैं। नदी है तो ताका स्पर्श भए शरीर खंड-खंड होइ जाय ऐसे जल सहित है। पवन ऐसा प्रचण्ड है जाकर शरीर दग्ध हुवा जाप है। बहुरि नारकी नारकीको अनेक प्रकार पीई, घाणीमें पेलै; खंड खंड करै, हांडीमें रांधे, कोरडा मारै, तप्त लोहादिकका स्पर्श करावै इत्यादि वेदना उपजावै। तीसरी पृथ्वी पर्यंत असुरकुमारदेव जाय ते आप पीड़ा दे वा परस्पर लड़ावै । ऐसी वेदना होते भी शरीर छूटे नाहीं, पारावत् खंड-खंड होई जाय तो भी मिल जाय, ऐसी महापीड़ा है। बहुरि साताका निमित्त तो किछु है नाहीं। कोई अंश कदाचित् कोईकै अपनी मानते कोई कारण अपेक्षा साताका उदय हो है सो बलवान नाहीं । बहुरि आयु तहाँ बहुत, जघन्य दशहजार वर्ष, उत्कृष्ट तेतीस सागर । इतने काल ऐसे दुःख तहाँ सहने होय। बहुरि नामकर्मकी सर्वपापप्रकृतिनि ही का उदय है, एक भी पुण्यप्रकृतिका उदय नाही, तिन करि महादुःखी हैं।
विशेष-नरकगति में पंचेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, अगुरुलघु, त्रस बादर पर्याप्त, स्थिर, शुभ, निर्माण, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक शरीरांगोपांग, प्रत्येक शरीर, परघात, उच्छ्वास नामकर्म की इन प्रशस्त प्रकृतियों का उदय भी नारकियों के होता है। (गो.क. २६०-६१, पवल ७/३२-३३)। इस प्रकार नारकी के उक्त पुण्य प्रकृतियों का भी उदय आता है।
___ बहुरि गोत्रयिषे नीचगोत्रहीका उदय है ताकरि महंतता न होइ तातै दुःखी हो हैं; ऐसे नरकगतिविषै महादुःख जानने।
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तीसरा अधिकार- ५५
तिर्यंच गतिके दुःख
बहुरि तिर्यंचगतिविषै बहुत लब्धि अपर्याप्त जीव हैं तिनके तो उश्वास के अठारहवें भाग मात्र आयु है । बहुरि केई पर्याप्त भी छोटे जीव हैं सो इनको शक्ति प्रगट भासै नाहीं । तिनके दुःख एकीन्द्रयवत् जानन्ना । ज्ञानाविकका विशेष है सो विशेष जानना । बहुरि बड़े पर्याप्त जीव केई सम्मूर्छन हैं, केई गर्भज हैं। तिनविषै ज्ञानादिक प्रगट हो है सो विषयनिकी इच्छाकार आकुलित हैं। बहुतको तो इष्टविषयकी प्राप्ति नाहीं है, काहूको कदाचित् किंचित् हो है । बहुरि मिथ्यात्व भावकरि अतत्त्व श्रद्धानी होय ही रहे हैं। बहुरि कषायं मुख्यपने तीव्र ही पाइए है। क्रोध मानकरि परस्पर लरे हैं भक्षण करे हैं, दुःखदेय हैं, माया लोभकरि छल करे हैं, वस्तुको चाहे हैं, हास्यादिककरि तिन कषायनिका कार्यनिविषै न प्रवर्त्ते हैं। बहुरि काहूकै कदाचितुमंदकषाय हो है परन्तु धोरे जीवनिकै हो है तातें मुख्यता नाहीं । बहुरि वेदनीयविषै मुख्य असाताका उदय है ताकरि रोग पीड़ा क्षुधा तृषा छेदन भेदन बहुत भारवहन शीत उष्ण अंगभंगादि अवस्था हो है ताकरि दुःखी होते प्रत्यक्ष देखिए है । तातें बहुत न कया है। काहूकै कदाचित् किंचित् साताका भी उदय हो है परन्तु थोरे जीवनि के हो है, मुख्यता नाहीं । बहुरि आयु अन्तर्मुहूर्त आदि कोटिवर्ष पर्यंत है। तहाँ घने जीव स्तोक आयुके धारक हो हैं । तातें जन्म-मरणका दुःख पाये हैं। बहुरि भोगभूमियों की बड़ी आयु है अर उनके साताकाभी उदय है सो वे जीव थोरे हैं। बहुरि नामकर्मकी मुख्यपने तो तिर्यंचगति आदि पापप्रकृतिनिकाही उदय है। काहूकै कदाचित् कोई पुण्य प्रकृतिनिका भी उदय हो है परन्तु धोरे जीवनिकै धोरा हो है, मुख्यता नाहीं । बहुरि गोत्रविषै नीच गोत्रहीका उदय है तातें हीन होय रहे हैं। ऐसे तिर्यंचगतिविषै महादुःख जानने ।
मनुष्यगतिके दुःख
बहुरि मनुष्यगतिविषे असंख्याते जीव तो लब्धि अपर्याप्त हैं ते सम्मूर्छन ही हैं, तिनकी तो आयु उश्वासके अठारह भागमात्र है। बहुरि केई जीव गर्भ में आप थोरे ही कालमें मरण पाये हैं तिनकी तो शक्ति प्रगट भासै नाहीं है । तिनके दुःख एकेंद्रियवत् जानना । विशेष है सो विशेष जानना । बहुरि गर्भजनिके कितेक काल गर्भ में रहना पीछे बाह्य निकसना हो है । सो तिनका दुःख का वर्णन कर्म अपेक्षा पूर्वे वर्णन किया है तैसे जानना । यह सर्व वर्णन गर्भज मनुष्यनिकै सम्भवै है अथवा तिर्यंचनिका वर्णन किया है तैसे जानना । विशेष यहै है इहां कोई शक्ति विशेष पाइए है या राजादिकनिकै विशेष साताका उदय हो है वा क्षत्रियादिकनिकै उच्चगोत्रका भी उदय हो है । बहुरि धन कुटुम्बादिकका निमित्त विशेष पाइए है इत्यादि विशेष जानना । अथवा गर्भ आदि अवस्था के दुःख प्रत्यक्ष भासे हैं। जैसे विष्टाविषै लट उपजे तैसे गर्भ में शुक्र शोणितका बिन्दुको अपना शरीररूपकरि जीव उपजै । पीछे तहां क्रमतें ज्ञानादिककी वा शरीरकी वृद्धि हो । गर्भका दुःख बहुत है । संकोचरूप औंधेमुख क्षुधातृषादि सहित तहां काल पूरण करै। बहुरि बाह्य निकसे तब बाल्य अवस्था में महा दुःख हो है। कोऊ कहै - बाल्यावस्था में दुःख थोरा है सो नाहीं है । शक्ति थोरि है तातें व्यक्त न होय सके है। पीछे व्यापारादि वा विषयइच्छा आदि दुःखनिकी प्रगटता हो है । इष्ट अनिष्ट जनित आकुलता रहवो ही करे। पीछे वृद्ध होइ तब शक्तिहीन होइ जाय तब परमदुःखी हो है। सो ए दुःख प्रत्यक्ष होते देखिए है। हम बहुत कहा कहैं। प्रत्यक्ष जाको न भासै सो का कैसे सुने । काहूकै
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-५६
कदाचित् किंचित् साताका उदय हो है सो आकुलतामय है। अर तीर्थंकरादि पद मोक्षमार्ग पाए बिना होय नाहीं । ऐसे मनुष्य पर्यायविषै दुःख ही हैं। एक मनुष्य पर्यायविष कोई अपना भला होनेका उपाय करे तो होय सके है। जैसे काना साँठा की जड़ वा बांड तो चूसने योग्य नाहीं अर बीचकी पेली कानी सो भी चूसी जाय नाहीं। कोई स्वादका लोभी वाकू बिगारै तो बिगारो। अर जो वाको बोई दे तो वाके बहुत सांटे होइ, तिनका स्वाद बहुत मीठा आवै। तैसे मनुष्यपर्यायका बालकवृद्धपना तो सुख भोगने योग्य नाहीं अर नीलकी अवस्था सो रोग नलेशतिर युक्त बड़ा मुरत होइ सकै नाहीं । कोई विषय सुखका लोभी याको बिगारै तो बिगारो। अर जो वाको धर्मसाधनविषै लगावै तो बहुत ऊँचे पदको पावै। तहां सुख बहुत निराकुल पाइए। तातै इहां अपना हित साधना, सुख होने का प्रमकरि वृथा न खोवना।
देवगतिके दुःख ___ बहुरि देवपर्यायविष ज्ञानादिककी शक्ति किछु औरनित विशेष है। मिथ्यात्वकरि अतत्त्व श्रद्धानी होय रहे हैं। बहुरि तिनकै कषाय किछु मंद है; तहां भवनवासी व्यंतर ज्योतिष्कनिकै कषाय बहुत मन्द नाहीं अर उपयोग तिनका चंचल बहुत अर किछू शक्ति भी है सो कषायनिके कार्यनिविषै प्रवर्त है। कौतूहल विषयादि कार्यनिविषै लगि रहै है सो तिस आकुलताकर दुःखी हो हैं। बहुरि वैमानिकनिकै उपरि-उपरि विशेष मंद कषाय है अर शक्ति विशेष है तातें आकुलता घटनेते दुःख भी घटता है। इहां देवनिके क्रोध मान कषाय है परन्तु कारन थोरा है। तातै तिनके कार्य की गौणता है। काहूका बुरा करना वा काहूको हीन करना इत्यादि कार्य निकृष्ट देवनिक तो कौतूहलादिकरि होइ है अर उत्कृष्ट देवनिकै थोरा हो है, मुख्यता नाहीं। बहुरि माया लोभ कषायनिके कारण पाइए हैं। तातै तिनके कार्य की मुख्यता है तातें छल करना विषयसामग्रीकी चाह करनी इत्यादि कार्य विशेष हो है। सो भी ऊँचे-ऊँचे देवनिकै घाटि+ है। बहुरि हास्य रति कषायके कारन धने पाइए है तातै इनके कार्यनिकी मुख्यता है। बहुरि अरति शोक भय जुगुप्सा इनके कारण थोरे हैं तातै तिनके कार्यनिकी गौणता है। बहुरि स्त्रीवेद पुरुषवेदका उदय है अर रमनेका भी निमित्त है सो कामसेवन करै है। ए भी कषाय उपरि उपरि मन्द है। अहमिन्द्रनिके वेदनिकी मंदताकरि कामसेवन का अभाव है। ऐसे देवनिकै कषायभाव है। सो कषायहीतै दुःख है। अर इनके कषाय जेता थोरा है तितना दुःख भी थोरा है ताते औरनिकी अपेक्षा इनको सुखी कहिए है। परमार्थतै कषायभाव जीव है ताकरि दुःखी ही हैं। बहुरि वेदनीयविष साताका उदय बहुत है। तहां भवनत्रिककै तो थोरा है। वैमानिकनिकै तो उपरि-उपरि विशेष है। इष्ट शरीर की अवस्था स्त्रीमंदिरादि सामग्री का संयोग पाइए है। बहुरि कदाचित् किंचित् असाताका भी उदय कोई कारणकरि हो है। तहां निकृष्टदेवनिकै किछु प्रगट भी है अर उत्कृष्ट देवनिकै विशेष प्रगट नाहीं है। बहुरि आयु बड़ी है। अघन्य दसहजार वर्ष उत्कृष्ट ३१ सागर है। अर ३१ सागर से अधिक आयुका धारी मोक्षमार्ग पाए बिना होता नाहीं । सो इतना काल विषय सुखमें मगन रहे है। बहुरि नामकर्मकी देवगति आदि सर्व पुण्य प्रकृतिनिहीं का उदय है तातें सुख का कारण है।
* गन्ना
गन्ने के ऊपरका फीका भाग। + कम है।
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तीसरा अधिकार- ५७
विशेष- देवगति में अस्थिर, अशुभ व उपघात नाम कर्म की इन अशुभ प्रकृतियों का भी उदय होता है । ( गो . क. ४३ - ४४ ) ( धवल ७ / ५८ ) परन्तु अस्थिर तथा अशुभ प्रकृतियों के ध्रुवोदयी होने से ( गो . क. ५८८ ) तथा शरीरग्रहण के काल से लेकर उपघात का उदय अवश्यम्भावी रूप से बनाने से इनकी हाँ दिक्षा नहीं की है, इतन विशेष जानना चाहिए।
अर गोत्र विषै उच्च गोत्रहीका उदय है तातें महंतपदको प्राप्त हैं। ऐसे इनके पुण्यउदयकी विशेषताकरि इष्ट सामग्री मिली है अर कषायनिकरि इच्छा पाइए है तातें तिनके भोगनेविषै आसक्त होय रहे हैं परन्तु इच्छा अधिक ही रहे है तातें सुखी होते नाहीं । ऊँचे देवनिके उत्कृष्ट पुण्य का उदय है, कषाय बहुत मंद है तथापि तिनकै भी इच्छाका अभाव होता नाहीं, तार्तें परमार्थतें दुःखी ही हैं। ऐसे सर्वही संसारविषै दुःख ही दुःख पाइए है। ऐसे पर्याय अपेक्षा दुःखका वर्णन किया ।
दुःखका सामान्य स्वरूप
अब इस सर्व दुःखका सामान्यस्वरूप कहिए है। दुःखका लक्षण आकुलता है सो आकुलता इच्छा होते हो है। सो इस संसारी जीवकै इच्छा अनेक प्रकार पाइए है। एक तो इच्छा विषय ग्रहण की है सो देख्या जान्या याहै। जैसे वर्ण देखनेकी, राग सुनने की, अव्यक्तको जानने इत्यादिकी इच्छा हो है । सो तहाँ अन्य किछु पीड़ा नाहीं परन्तु यावत् देखे जाने नाहीं तावत् महाव्याकुल होय । इस इच्छाका नाम विषय है । बहुरि एक इच्छा कषाय भावनिके अनुसारि कार्य करने की है सो कार्य किया चाहै। जैसे बुरा करनेकी, हीन करने की इत्यादि इच्छा हो है । सो इहाँ भी अन्य कोई पीड़ा नाहीं । परन्तु यावत् वह कार्य न होइ तावत् महाव्याकुल होय। इस इच्छा का नाम कषाय है। बहुरि एक इच्छा पापके उदय शरीरविषे या बाह्य अनिष्ट कारण मिलें तब उनके दूरि करने की हो है। जैसे रोग पीड़ा क्षुधा आदिका संयोग भए उनके दूरि करनेकी इच्छा हो है । सो इहाँ यहु ही पीड़ा माने है। यावत् यह दूरि न होइ तावत् महाव्याकुल रहे। इस इच्छाका नाम पापका उदय है। ऐसे इन तीन प्रकारकी इच्छा होते सर्व ही दुःख माने है सो दुःख ही है। बहुरि एक इच्छा बाह्य निमित्ततें बने है सो इन तीन प्रकार ही इच्छानिके अनुसारि प्रवर्तने की इच्छा ही है । सो तीन प्रकार इच्छानिविषै एक-एक प्रकार की इच्छा अनेक प्रकार है। तहां कई प्रकार की इच्छा पूरण होने का कारण पुण्यउदयतें मिले। तिनिका साधन युगपत् होइ सकै नाहीं । तातें एक को छोरि अन्यको लागे, आगे भी वाको छोरि अन्य को लागे। जैसे काहूकै अनेक सामग्री मिली है, वह काहूको देखे है, वाको छोरि राग सुने है, वाको छोरि काहूका बुरा करने लग जाय, वाको छोरि भोजन करे है अथवा देखने विष ही एक को देखि अन्यको देखे है । ऐसे ही अनेक कार्यनिकी प्रवृत्तिं विषै इच्छा हो है सो इस इच्छा का नाम पुण्य का उदय है। पाको जगत् सुख माने है सो सुख है नाहीं, दुःख ही है। काहेतै - प्रथम तो सर्वप्रकार इच्छा पूरन होने के कारण काहूकै भी न बने। अर कोई प्रकार इच्छा पूरन करने के कारण बने तो युगपत् तिनका साधन न होय । सो एकका साधन यावत् न होय तावत् बाकी आकुलता रहे है, वाका साधन भए उस हो समय अन्यका साधन की इच्छा हो है तब बाकी आकुलता होय । एक समय भी निराकुल न रहे, तातैं दुःख
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-५८
ही है। अथवा तीन प्रकार इच्छा रोग के मिटावने का किंचित् उपाय करे है, ताते किंचित् दुःख घाटि हो है, सर्व दुःखका तो नाश न होइ तातें दुःख ही है। ऐसे संसारी जीवनिकै सर्वप्रकार दुःख ही है। बहुरि यहाँ इतना जानना-तीन प्रकार इच्छानिकरि सर्वजगत पीड़ित ही है अर चौथी इच्छा तो पुण्यका उदय आए होइ सो पुण्यका बंध धर्मानुराग” होइ सो थर्मानुरागविषै जीव थोरा लागे। जीव तो बहुत पाप क्रियानिविषे ही प्रवर्ते है। ताते चौथी इच्छा कोई जीवकै कदाचित् कालविष ही हो है। बहुरि इतना जानना-जो समान इच्छावान जीवनिकी अपेक्षा तो चौथी इच्छावालाकै किछु तीन प्रकार इच्छा के घटनेते सुख कहिये है। बहुरि चौथी इच्छावालाको अपेक्षा महान् इच्छावाला चौथी इच्छा होतें भी दुःखी हो है। काहूकै बहुत विभूति है अर वाकै इच्छा बहुत है तो वह बहुत आकुलतावान है। अर जाकै थोरी विभूति है अर वाकै इच्छा थोरी है तो वह थोरा आकुलतावान है। अथवा कोऊक अनिष्ट सामग्री मिली है, ताकै उसके दूर करने की इच्छा थोरी है तो वह थोड़ा आकुलतावान है। वहुरि काहूकै इष्ट सामग्री मिली है परन्तु ताकै उनके भोगने की वा अन्य, सामग्री की इच्छा बहुत है तो वह जीव घना आकुलतावान है। तातै सुखी दुःखी होना इच्छा के अनुसार जानना; बाह्य कारणके आधीन नाहीं है। नारकी दुःखी अर देव सुखी कहिए है सो भी इच्छा ही की अपेक्षा कहिए है। तासे नारकीनिकै तीव्र कषायतै इच्छा बहुत है। देवनिकै मन्द कषायत इच्छा थोरी है। बहुरि मनुष्य तिर्यंच भी सुखी-दुःखी इच्छा ही की अपेक्षा जानने । तीन कषायतें जाकै इच्छा बहुत ताको दुःखी कहिए है। मंद कषाय जाकै इच्छा थोरी ताको सुखी कहिए है। परमार्थत दुःख ही घना वा थोरा है, सुख नाही हैं, देवादिककै भी सुख मानिए है सो श्रम ही है। उनकै चौनी इच्छाकी मुख्यता है तातै आकुलित है। या प्रकार जो इच्छा हो है सो मिथ्यात्व अज्ञान असंयमत हो है। बहुरे इच्छा है सो आकुलतामय है अर आकुलता है सो दुःख है। ऐसे सर्व संसारी जीव नाना दुःखनिकरि पीड़ित ही होइ रहे हैं।
दुःख-निवृत्तिका उपाय अब जिन जीवनिको दुखत छूटना होय सो इच्छा दूर करने का उपाय करो। बहुरि इच्छा दूर तब ही होइ जब मिथ्यात्व अज्ञान असंयमका अभाव होइ अर सम्यग्दर्शनमानचारित्रकी प्राप्ति होय। तातै इस ही कार्य का उद्यम करना योग्य है। ऐसा साधन करते जेती जेती इच्छा मिटे तेता तेताही दुःख दूर होता जाय। बहुरि जब मोहके सर्वथा अभावः सर्व इच्छा का अभाव होइ तब सर्व दुःख मिटै, सांथा सुख प्रगटै। बहुरि ज्ञानावरण दर्शनावरण अन्तरायका अभाय होय तब इच्छा का कारण क्षयोपशम ज्ञानदर्शनका वा शक्तिहीनपनाया भी अभाव होय। अनंतज्ञानदर्शनवीर्यकी प्राप्ति होय। बहुरि फतेक काल पीछै अपाति कर्मनिकाभी अभाव होय, तब इच्छा के बाह्य कारण तिनका भी अभाव होय। सो मोह गए पीछे एक समय मात्र भी किछू इच्छा उपजावने को समर्थ थे नाही, मोह ही हैं कारण ये तातै कारण कहे है सो इनका भी अभाव भया तब सिद्धपदको प्राप्त हो है। तहाँ दुःखका या दुःख के कारणनिका सर्वथा अभाव होने से सदा काल अनौपम्य अखंडित सर्वोत्कृष्ट आनन्दसहित अनन्तकाल विराजमान रहे हैं। सोई दिखाइए है
सिख अवस्था में दुःख के अभावकी सिद्धि ज्ञानावरण दर्शनावरणका क्षयोपशम होते वा उदय होते मोह करि एक-एक विषय देखने जानने की
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तीसरा अधिकार-५६
इच्छा करि महाव्याकुल होता था सो अब मोहका अभावतें इच्छा का भी अभाव भया। तातै दुःखका अभाव भया है। बहुरि ज्ञानायरण दर्शनावरण का क्षय होनेते सर्व इन्द्रियनिको सर्वविषयनिका युगपत् ग्रहण भया, तात दुःखका कारण भी दूर भया है सोई दिखाइए है-जैसे नेत्रकरि एक विषयको देख्या चाहै था, अब त्रिकालवी त्रिलोक के सर्व वर्णनिको युगपत देख है। कोऊ बिना देख्या रह्या नाही, जाके देखने की इच्छा उपजै। ऐसे. ही स्पर्शनादिककरि एक एक विषय को ग्रह्या चाहै था, अब त्रिकालवर्ती त्रिलोक के सर्व स्पर्श रस गंध शब्दनिको युगपत ग्रहै है। कोऊ बिना ग्रह्या रह्या नाही, जाके ग्रहण की इच्छा उपजै।
इहा कोऊ कहै, शरीरादिक बिना ग्रहण कैसे होइ? - ताका समाधान-इन्द्रियज्ञान होते तो द्रव्यइन्द्रियादि बिना ग्रहण न होता था। अब ऐसा स्वभाघ प्रगट भया जो बिनाही इन्द्रिय ग्रहण हो है। इहाँ कोऊ कहै, जैसे मनकरि स्पर्शादिकको जानिए है तैसे जानना होता होगा। त्यचा जीभ आदि करि ग्रहण हो है तैसे न होता होगा। सो ऐसे नाहीं है। मनकरि तो स्मरणादि होते अस्पष्ट जानना किछु हो है। इहाँ तो स्पर्शरसादिकको जैसे त्वचा जीभ इत्यादि करि स्पर्शे स्वादै संघै देखे सुनै जैसा स्पष्ट जानना हो है तिसत भी अनन्त गुणा स्पष्ट जानना तिनकै हो है। विशेष इतना भया है-वहाँ इन्द्रिय विषयका संयोग होते ही जानना होता था, इहाँ दूर रहे भी वैसा ही जानना हो है। सो यहु शक्तिकी महिमा है। बहुरि मनकारे किछु अतीत अनागतको व अव्यक्तको जान्या चाहै था, अब सर्वही अनादित अनंतकालपर्यन्त जे सर्व पदार्थनिके द्रव्य क्षेत्र काल भाव तिनको युगपत् जानै है। कोऊ बिना जान्या रना नाही, जाके जानने की इच्छा उपजै। ऐसे इन दुःख और दुःखनिके कारण तिनका अभाव जानना। बहुरि मोहके उदयतें मिथ्यात्य वा कषाय भाव होते थे तिनका सर्वथा अभाव भया तातै दुःखका अभाव भया। बहुरि इनके कारणनिका अभाव भया तातै दुःख के कारणका भी अभाव भया। सो कारणका अभाव दिखाइए है।
सर्व तत्त्व यथार्थ प्रतिभासै, अतत्त्व श्रद्धानरूप मिथ्यात्व कैसे होइ? कोऊ अनिष्ट रह्या नाही, निंदक स्वयमेव अनिष्ट पावै ही है, आप क्रोध कौनसों करै? सिद्धनितें ऊँचा कोई है नाहीं। इन्द्रादिक आपहीत नमै है इष्ट पाय है? तो कौनसों मान करै? सर्व भवितव्य मासि गया, कोऊ कार्य रह्या नाही, काहूसो प्रयोजन रह्या नाही, काहेका लोभ करै? कोऊ अन्य इष्ट रह्या नाहीं, कौन कारणत हास्य होइ? कोऊ अन्य इष्ट प्रीति करने योग्य है नाहीं, इहाँ कहा रति करै? कोऊ दुःखदायक संयोग रह्या नाही, कहा अरति करै? कोऊ इष्ट अनिष्ट संयोग वियोग होता नाही, काहेका शोक करै? कोऊ अनिष्ट करने वाला कारण रह्या नाहीं, कौनका भय करे? सर्ववस्तु अपने स्वभाव लिए भारी, आपको अनिष्ट नाहीं, कहा जुगुप्सा करें? कामपीड़ा दूर होनेते स्त्री पुरुष उभयसों रमनेका किछु प्रयोजन रह्या नाही, काहेको पुरुष स्त्री नपुंसकवेद रूप भाय होई? ऐसे मोह उपजनेके कारणनिका अभाव जानना । बहरि अंतरायके उदयतें शक्तिहीनपनाकरि पूरण न होती थी, अब ताका अभाव भया, तातै दुःख का अभाव भया। बहुरि अनंत शक्ति प्रगट भई, तातै दुःखके कारणका भी अभाव भया।
इहाँ कोऊ कहै, दान लाभ मोग उपभोग तो करते नाही, इनकी शक्ति कैसे प्रगट भई?
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-६०
ताका समाधान-ए कार्य रोगके उपचार थे। जब रोग ही नाही तब उपचार काहेको करै । तातै इन कार्यनिका सद्भाव तो नाहीं । अर इनका रोकनहारा कर्मका अभाव भया, तातै शक्ति प्रगटी कहिए है। जैसे कोऊ (नाही) गमन किया बाहै ताको काहूनै रोक्या था तब दुःखी था। जब बाकै रोकना दूर मया अर जिस कार्यके अर्थि गया चाहै था सो कार्य न रह्या तब गमन भी न किया। तब वाकै गमन न करते भी शक्ति प्रगटी कहिए । तैसे ही इहाँ भी जानना। बहुरि ज्ञानादि की शक्तिरूप अनसवीर्य प्रगट उनके पाइए है। बहुरि अघाति कर्मनि विषै मोहते पाप प्रकृतिनिका उदय होते दुःख मान था, पुण्यप्रकृतिनि का उदय होते सुख माने था, परमार्थत आकुलताकरि सर्व दुःख ही था। अब मोहके नाशते सर्व आकुलता दूर होनेते सर्व दुःखका नाश भया। बहुरि जिन कारणनिकरि दुःख मानै था, ते तो कारण सर्व नष्ट भए। अर जिनकरि किंचित् दुःख दूर होनेते सुख मानै था, सो अब मूलहीमें दुःख रह्या नाहीं। तातै तिन दुःखके उपचारनिका किछु प्रयोजन रह्या नाहीं, जो तिनकार कार्यकी सिद्धि किया याहै। ताकी स्वयमेव ही सिद्धि होय रही है। इसहीका विशेष दिखाइये है
वेदनीय विषै जसमा उदयते कुरा के पास काली नि रोग शुधादिक होते थे। अब शरीर ही नाहीं तब कहां होय? अर शरीरकी अनिष्ट अवस्थाको कारण आतापादिक थे सो अब शरीर बिना कौन को कारण होय? अर बाह्य अनिष्ट निमित्त यनै था सो अब इनके अनिष्ट रह्या ही नाहीं। ऐसे दुःखका कारण का तो अभाव भया। बहुरि साताके उदयत किंचित् दुःख मेटनेके कारण औषधि भोजनाविक ये तिनका प्रयोजन रह्या नाहीं। अर इष्ट कार्य पराधीन रह्या नाही, तातै बाह्य भी मित्रादिकको इष्ट मानने का प्रयोजन रह्या नाहीं। इन फरि दुःख मेट्या चाहै था या इष्ट किया चाहै था सो अब सम्पूर्ण दुःख नष्ट भया अर सम्पूर्ण इष्ट पाया । बहुरि आयुके निमित्त” मरण जीवन था तहां मरणकरि दुःख मान था सो अविनाशी पद पाया, तातै दुःख का कारण रह्या नाहीं। बहुरि द्रव्य प्राणनिको घरे कितेक काल जीवनतें सुख मानै था, तहाँ भी नरक पर्याय विषै दुःखकी विशेषताकरि तहाँ जीवना न चाहै था, सो अब इस सिद्धपर्याय विषै द्रव्यप्राण बिना ही अपने चैतन्य प्राणकरि सदाकाल जीवै है अर तहाँ दुःख का लयलेश भी न रहा है। बहरि नामकर्मत अशुभ गति जाति आदि होते दुःख मानै था सो अब तिन सबनिका अभाव भया, दुःख कहाँते होय? अर शुभगति जाति आदि होते किंचित् दुःख दूर होनेते सुख मानै था, सो अब तिन बिना ही सर्व दुःख का नाश अर सर्व सुख का प्रकाश पाइए है। तातै तिनका भी किछु प्रयोजन रह्या नाहीं। बहुरि गोत्र १. शंकाः यदि क्षायिक दान आदि भावों के निमित्त से अभयदानादि कार्य होते हैं तो सिद्धों में भी उनका प्रसंग प्राप्त होता
समाधानः यह कोई दोष नहीं क्योंकि इन अभयदान आदि के होने में शरीर नाम कर्म तथा तीर्थकर नाम कर्म के उदय की अपेक्षा रहती है, परन्तु सिद्धों के शरीर नामकर्म तथा तीर्थकर नामकर्म नहीं होते अतः उनके अभयदानादि नहीं प्राप्त होते। पाकाः फिर सिद्धों के क्षायिक दानादि का सद्भाव कैसे माना जावे? समाधानः जिस प्रकार सिद्धों के केवलज्ञान रूप से अनन्त वीर्य का सद्भाव पाना है, उसी प्रकार परमानन्द के अव्यावाध रूप से ही उनका सिद्धों के सद्भाव है। (सर्वार्षसिद्धि २/४ पृष्ठ १०६ मानपीठ)
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तीसरा अधिकार - ६१
के निमित्त नीचकुल पाए दुःख मानै था सो ताका अभाव होने हैं दुःखका कारण रह्या नाहीं । बहुरि उच्चकुल पाए सुख मानै था सो अब उच्चकुल बिनाही त्रैलोक्यपूज्य उच्चपदको प्राप्त है, या प्रकार सिद्धनिके सर्वकर्मके नाश होने सर्व दुःख का नाश भया है।
दुःखका तो लक्षण आकुलता है सो आकुलता तब ही हो है जब इच्छा होय । सो इच्छा का वा इच्छा के कारणनिका सर्वथा अभाव भया तातैं निराकुल होय सर्व दुःखरहित अनन्त सुखको अनुभव है, जाते निराकुलपना ही सुख का लक्षण है । संसारविषे भी कोई प्रकार निराकुलित होइ तब ही सुख मानिए है । जहाँ सर्वया निराकुल भया तहाँ सुख सम्पूर्ण कैसे न मानिए ? या प्रकार सम्यग्दर्शनादि साधन सिद्ध पद पाए सर्व दुःख का अभाव हो है, सर्व सुख प्रगट हो है ।
अब इहाँ उपदेश दीजिए है- हे भव्य ! हे भाई जो तोकूं संसार के दुःख दिखाए, ते तुझ विषै बीते हैं कि नाहीं सौ विचारि! अर तू उपाय करे. है ते झूठे दिखाए सो ऐसे ही है कि नाहीं सो विचारि । अर सिद्धपद पाए सुख होय कि नाहीं सो विधारि। जो तेरे प्रतीति जैसे कही है तैसे ही आवै है तो तू संसारतें छूटि सिद्धपद पावने का हम उपाय कहे हैं सो करि, विलम्ब मति करै। यह उपाय किए तेरा कल्याण होगा ।
इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नाम शास्त्रविषे संसार- दुःखका या
मोक्षसुखका निरूपक तृतीय अधिकार पूर्ण भया ॥३॥
卐卐
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卐चौया अधिकार卐
मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र का निरूपण
* दोहा इस भवके सब दुःखनिके, कारण मिथ्या भाव।
तिनकी सत्ता नाश करि, प्रगटै मोक्ष उपाय ।।१।। अब इहां संसार दुःखनिके बीजभूत मिथ्यादर्शन, निथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र है सिनका स्वरूप विशेष निरूपण कीजिए है। जैसे वैद्य है सो रोगके कारणनिका वैशेष कहै तो रोगी कुपथ्य सेवन न करै तब रोगरहित होय, तैसे इहां संसारके कारणनिका विशेष निरूपण करिए तो संसारी मिथ्यात्वादिकका सेवन न करै तब संसार रहित होय। तात मिथ्यादर्शनादिकनिका स्वरूप विशेष कहिए है
मिथ्यादर्शनका स्वरूप यह जीव अनादित कर्मसम्बन्धसहित है। याकै दर्शनमोहके उदयतें भया जो अतत्त्व श्रद्धान ताका नाम मिथ्यादर्शन है। जाते तद्भाव तत्व। जो श्रद्धान करनेयोग्य अर्थ है ताका जो भाव अथावा स्वरूप ताका नाम तत्त्व है। तत्त्व नाही, ताका नाम अतत्त्व है। अर जो अतस्त्व है सो असत्य है, तातें इसीका नाम मिथ्या है। बहुरि ऐसे ही यहु है, ऐसा प्रतीति भाव ताका नाम श्रद्धान है। इहाँ श्रद्धान ही का नाम दर्शन है। यद्यपि दर्शन शब्दका अर्थ सामान्य अवलोकन है तथापि इहां प्रकरणके वशतें इस ही थातुका अर्थ श्रद्धान जानना। सो ऐसे ही सर्वार्थसिद्धि नाम सूत्रकी टीकाविषै कया है। जातें सामान्यअवलोकन संसारमोक्षको कारण होइ नाहीं। श्रद्धान ही संसार मोक्षको कारण है, ताक् संसार-मोक्षका कारणविषै दर्शनका अर्थ श्रद्धान ही जानना। बहुरि मिथ्यारूप जो दर्शन कहिए श्रद्धान ताकानाम मिथ्यादर्शन है। जैसे वस्तुका स्वरूप नाहीं तैसे मानना, जैसे है तैसे न मानना ऐसा विपरीताभिनिवेश कहिए विपरीत अभिप्राय ताको लिये मिध्यादर्शन हो
इहाँ प्रश्न-जो केवलज्ञान बिना सर्व पदार्थ यथार्थ भासै नाहीं अर यथार्थ भासै बिना यथार्थ श्रद्धान न होइ; ताल मिथ्यादर्शनका त्याग कैसे बने?
ताका समाधान-पदार्थनिका जानना, न जानना, अन्यथा जानना तो ज्ञानावरण के अनुसार है। बहुरि प्रतीति हो है सो जाने ही हो है, बिना जाने प्रतीति कैसे आवै? यहु तो सत्य है। परन्तु जैसे कोऊ
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चौया अधिकार-६३
पुरुष है सो जिनसों प्रयोजन नाही, तिनको अन्यथा जाने वा यथार्थ जाने, बहुरि जैसे जाने तैसे ही माने, किछु वाका बिगार सुधार है नाही, तातै बाउला स्याना नाम पायै नाहीं। बहुरि जिनसों प्रयोजन पाइए है, तिनको जो अन्यथा आनै अर तैसे माने तो बिगर होइ ताते वाको बाउला कहिए। बहुरि तिनको जो यथार्थ जानै अर तैसे ही माने तो सुधार होइ तातें याको स्याना कहिए तैसे ही जीव है सो जिनस्यों प्रयोजन नाही, तिनको अन्यथा जानो वा यथार्थ जानो बहुरि जैसे जाने तैसे ही श्रदान कर, किछु याका बिगार सुधार नाही सात मिथ्यावृष्टि सम्यग्दृष्टि नाम पावै नाहीं। बहुरि जिनस्यों प्रयोजन पाइए है तिनको जो अन्यथा जानै अर तैसे ही श्रद्धान करे तो बिगार होइ तात याको मिथ्यादृष्टि कहिए । बहुरि तिनको जो यथार्थ जानै अर तैसे ही श्रद्धान करै तो सुधार होइ तात याको सम्यग्दृष्टि कहिए। इहाँ इतना जानना कि अप्रयोजनमूत या प्रयोजनमूत पदार्यनिका न जानना वा यथार्थ अयथार्थ जानना जो होइ तामें ज्ञानकी हीनताअधिकता होना, इतना जीवका बिगार-सुधार है। ताका निमित्त तो ज्ञानावरण कर्म है। बहुरि तहां प्रयोजनभूत पदार्थनिको अन्यथा वा यथार्थ श्रद्धान किए जीवका किछु और भी बिगार-सुधार हो है। ता” याका निमित्त दर्शनमोह नामा कर्म है।
__ इहाँ कोऊ कहै कि जैसा जानै तैसा श्रद्धान करै ता. ज्ञानाधरणही के अनुसारि श्रद्धान भामै है. इहां दर्शनमोहका विशेष निपित्त कैसे भासै?
ताका समाधान-प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वनिका श्रद्धान करने योग्य ज्ञानावरणका क्षयोपशम तो सर्व संजी पंचेन्द्रियनिकै भया है। परन्तु द्रव्यलिंगी मुनि ग्यारह अंग पर्यंत पढ़े या ग्रैवेयकके देव अवधिज्ञानादियुक्त हैं तिनकै ज्ञानावरणका क्षयोपशम बहुत होते भी प्रयोजनभूत जीवादिका श्रद्धान न होइ। अर तियेचादिककै ज्ञानावरणका क्षयोपशम थोरा होतें भी प्रयोजनभूत जीवादिकका श्रद्धान होइ, तातें जानिए है ज्ञानावरणहीके अनुसारि श्रद्धान नाहीं। कोई जुदा कर्म है सो दर्शनमोह है। याके उदयतें जीवकै मिथ्यादर्शन हो है तब प्रयोजनभूत जीवादितत्त्वनिका अन्यथा श्रद्धान करै है।
प्रयोजन-अप्रयोजनभूत पदार्थ इहां कोऊ पूछ कि प्रयोजनभूत अप्रयोजनभूत पदार्थ कौन-कौन है?
ताका समाधान-इस जीवके प्रयोजन तो एक यहु ही है कि दुःख न होय, सुख होय। अन्य किछू भी कोई ही जीवकै प्रयोजन है नाहीं। बहुरि दुःख का न होना, सुख का होना एक ही है, जात दुःख का अभाव सोई सुख है। सो इस प्रयोजन की सिद्धि जीवादिकका सत्य श्रद्धान किए हो है। कैसे? सो कहिए है।
प्रथम तो दुःख दूर करने विषै आपापरका ज्ञान अवश्य चाहिए। जो आपापरका ज्ञान नाही होय तो आपको पहिचाने बिना अपना दुःख कैसे दूरि करे। अथवा आपापरको एक जानि अपना दुःख दूर करनेके अर्थि परका उपचार करै तो अपना दुःख दूर कैसे होइ? अथवा आपलें पर भिन्न अर यहु परविष अहंकार ममकार करे तातै दुःख ही होय। आपापरका ज्ञान भए ही दुःख दूर हो है। बहुरि आपापरका ज्ञान
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - ६४
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जीव अजीवका ज्ञान भए ही होय । जातै आप जीव है, शरीरादिक अजीव है। जो लक्षणादिककरि जीव अजीव की पहिचान होइ तो आपापरको भिन्नपनो भासै तातें जीव अजीवको जानना अथवा जीव अजीवका ज्ञान भए जिन पदार्थनिका अन्यथा श्रद्धानतै दुःख होता था तिनका यथार्थ ज्ञान होनेते दुःख दूरि होइ तातें जीव अजीवको जानना । बहुरि दुःखका कारन तो कर्मबन्धन है अर ताका कारण मिथ्यात्वादिक आस्रव हैं। सो इनको न पहिचान, इनको दुःख का मूल कारन न जाने तो इनका अभाव कैसे करे? अर इनका अभाव न करे तब कर्मबन्ध कैसे न होड़, तातें दुःख ही होय । अथवा मिथ्यात्वादिक भाव हैं सो ए दुःखमय हैंसों इनको जैसे के तैसे न जाने तो इनका अभाव न करे तब दुःखी ही रहे, तातैं आस्रयको जानना बहुरि समस्त दुःखका कारण कर्मबन्धन है सो याको न जाने तब यातें मुक्त होनेका उपाय न करे तब ताकै निमित्त दुःखी होइ तातें बंधको जानना । बहुरि आस्रवका अभाव करना सो संबर है, याका स्वरूप न जानै तो या विषै न प्रवर्ते तब आत्रय ही रहे तातें वर्तमान या आगामी दुःख ही होइ तातैं संवरको जानना । बहुरि कथंचित् किंचित् कर्मबंधका अभाव करना ताका नाम निर्जरा है सो याको न जाने तब याकी प्रवृत्ति का उद्यमी न होइ । तब सर्वथा बंध ही रहे तातै दुःख ही होइ तातैं निर्जराको जानना । बहुरि सर्वथा सर्वकर्मबंधका अभाव होना लाका नाम मोक्ष है। सो याको न पहिचाने तो याका उपाय न करें, तब संसारविषै कर्मबंध निपजै दुःखनिहीको सहै तातें मोक्षको जानना। ऐसे जीवादि सप्त तत्त्व जानने । बहुरि शास्त्रादिक करि कदाचित् तिनको जानै अर ऐसे ही हैं ऐसी प्रतीति न आई तो जाने कहा होय तातें तिनका श्रद्धान करना कार्यकारी है। ऐसे जीवादि तत्त्वनिका सत्य श्रद्धान किए ही दुःख होनेका अभावरूप प्रयोजन की सिद्धि हो है । ता जीवादिक पदार्थ हैं ते ही प्रयोजनभूत जानने । बहुरि इनके विशेषभेद पुण्यपापादिकरूप तिनका भी श्रद्धान प्रयोजनभूत है जातें सामान्यत विशेष बलवान है। ऐसे ये पदार्थ तो प्रयोजनभूत हैं तातें इनका यथार्थ श्रद्धान किए तो दुःख न होय, सुख होय अर इनको यथार्थ श्रद्धान किए बिना दुःख हो है, सुख न हो है । बहुरि इन बिना अन्य पदार्थ हैं, ते अप्रयोजनभूत हैं । जातै तिनको यथार्थ श्रद्धान करो वा मति करो, उनका श्रद्धान किछू सुख दुःखको कारण नाहीं ।
इहाँ प्रश्न उपजे है, जो पूर्वे जीव अजीव पदार्थ कहे तिनविषै तो सर्व पदार्थ आय गए, तिन बिना अन्य पदार्थ कौन रहे जिनको अप्रयोजनभूत कहे ।
ताका समाधान - पदार्थ तो सर्व जीव अजीवविषे ही गर्भित हैं परन्तु तिनजीव अजीवनिके विशेष बहुत हैं। तिन विषै जिन विशेषनिकरि सहित जीव अजीवको यथार्थ श्रद्धान किये स्व-परका श्रद्धान होय, रागादिक दूर करनेका श्रद्धान होइ, तातें सुख उपजै अयथार्थ श्रद्धान किए स्व-परका श्रखान न होइ, रागादिक दूर करनेका श्रद्धान न होइ तातें दुःख उपजै, तिन विशेषनिकरि सहित जीव अजीव पदार्थ तो प्रयोजनभूत जानने । बहुरि जिन विशेषनिकरि सहित जीव अजीवको यथार्थ श्रद्धान किए वा न किए स्व-परका श्रद्धान होइ वा न होइ अर रागादिक दूर करनेका श्रद्धान होइ वा न होइ, किछू नियम नाहीं, तिन विशेषनिकरि सहित जीव अजीव पदार्थ अप्रयोजनभूत जानने। जैसे जीव अर शरीरका चैतन्य मूर्त्तत्वादिक विशेषनिकरि श्रद्धान करना तो प्रयोजनभूत है अर मनुष्यादि पर्यायनिका वा घटपटादिककी
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अवस्था का आकारादिक विशेषनिकरि श्रद्धान करना अप्रयोजनमूत है। ऐसे ही अन्य जानने । या प्रकार कहे जे प्रयोजनभूत जीवादिक तत्त्व तिनका अयथार्थ श्रद्धान ताका नाम मिथ्यादर्शन जानना ।
अब संसारी जीवनिकै मिथ्यादर्शनकी प्रवृत्ति कैसे पाइए है सो कहिए है। इहाँ वर्णन तो श्रद्धानका करना है परन्तु जानै तब श्रद्धान करे, तातें जानने की मुख्यताकरि वर्णन करिए है।
मिथ्यादर्शनकी प्रवृत्ति अनादित जीव है सो कर्मके निमित्तते अनेक पर्याय धरै है तहाँ पूर्व पर्यायको छोरै नवीन पर्याय घरै, बहुरि वह पर्याय है सो एक तो आप आत्मा अर अनन्त पुद्गलपरमाणमय शरीर तिनका एक पिंड बंधानरूप है। बहुरि जीवकै तिस पर्यायविष यह मैं हूँ, ऐसे अहंबुद्धि हो है। बहुरि आप जीव है ताका स्वभाव तो ज्ञानादिक है अर विभाव क्रोधादिक है अर पुद्गल परमाणुनिके वर्ण गंध रस स्पर्शादि स्वभाव है तिन सबनिको अपना स्वरूप मान है। ए मेरे हैं, ऐसे मम बुद्धि हो है। बहरि आप जीव है ताके ज्ञानादिककी वा क्रोधादिककी अधिक हीनतारूप अवस्था हो है अर पुद्गलपरमाणुनिकी वर्णादि पलटने रूप अवस्था हो है तिन सबनिको अपनी अवस्था माने है। ए मेरी अवस्था है, ऐसे मम बुद्धि करै है बहुरि जीवकै अर शरीरकै निमित्त-नैमित्तिक संबंध है तातें जो क्रिया हो है ताको अपनी मान है। अपना दर्शनशानस्वभाव है, ताकी प्रवृत्तिको निमित्त मात्र शरीरका अंगरूप स्पर्शनादि द्रव्यइन्द्रिय है यहु तिनको एक मान ऐसे मान है जो हस्तादि स्पर्शनकरि मैं स्पा, जीभकरि चाख्या, नासिकाकरि सुंघ्या, नेत्रकरि देख्या, काननिकरि सुन्या, ऐसे मान है। मनोवर्गणारूप आठ पाँखुडीका फूल्या कमल के आकार हृदय स्थानविषै द्रव्यमन है, दृष्टिगम्य नाहीं ऐसा है सो शरीर का अंग है, ताका निमित्त भए स्मरणादिरूप ज्ञान की प्रवृत्ति हो है। यहु द्रव्यमनको अर ज्ञानको एक मानि ऐसे मान है कि मैं मनकरि जान्या। बहुरि अपने बोलने की इच्छा हो है तब अपने प्रदेशनिको जैसे बोलना बनै तैसे हलावै, तब एकक्षेत्रांवगाह सम्बन्थते शरीर के अंग भी हाले, ताके निमित्तत भाषा वर्गणारूप पुद्गल वचनरूप परिणमै। यहु सबको-एक मानि ऐसे मानै जो मैं बोलूं हूं। बहुरि अपने गमनादि क्रियाकी वा वस्तुग्रहणादिक की इच्छा होय तब अपने प्रदेशनिको जैसे कार्य बने तसे हलावै, तब एकक्षेत्रावगाह शरीर के अंग हालै तब यह कार्य बने। अथवा अपनी इच्छा बिना शरीर हाले तब अपने प्रदेश भी हालै, यह सबको एक मानि ऐसे माने, मैं गमनादि कार्य करूँ हूँ वा वस्तु ग्रहूं हूँ था मैं किया है इत्यादिरूप माने है। बहुरि जीवकै कषायभाव होय तब शरीरकी ताके अनुसार चेष्टा होइ जाय । जैसे क्रोयादिक भए नेत्रादि रक्त होइ जाय, हास्यादि भए प्रफुल्लित वदनादि होइ जाय, पुरुषवेदादि भए लिंगकाठिन्यादि होइ जाय। यह सबको एक मानि ऐसा माने कि ए सर्व कार्य मैं करूं हूँ। बहुरि शरीर विषे शीत उष्ण भुथा तृषा रोग इत्पादि अवस्था हो है ताके निमित्ततै मोहभावकरि आप सुख-दुःख माने। इन सबनि को एक जानि शीतादिकको या सुख-दुःख को अपने ही भए मान है। बहुरि शरीरका परमाणूनिका मिलना बिछुरनादि होनेकरि या तिनकी अवस्था पलटनेकरि वा शरीर स्कंध का खंडादि होनेकरि स्थूल कृशादिक वा बाल वृद्धादिक वा अंगहीनादिक होय अर ताके अनुसार अपने प्रदेशनिका
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - ६६
संकोच विस्तार होय । यहु सबको एक मानि मैं स्थूल हूँ, मैं कृश हूँ, मैं बालक हूँ मैं वृद्ध हूँ, मेरे इन अंगनिका भंग भया है इत्यादि रूप माने है । बहुरि शरीर की अपेक्षा गतिकुलादिक होइ तिनको अपने मानि मैं मनुष्य हूँ, मैं तिर्यंच हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं वैश्य हूँ इत्यादि रूप माने है। बहुरि शरीरसंयोग होने छूटने की अपेक्षा जन्म-मरण होय तिनको अपना जन्म मरण मानि मैं उपज्या, मैं मरूंगा ऐसा माने है। बहुरि शरीर ही की अपेक्षा अन्य वस्तुनिस्यों नाता माने है। जिनकरि शरीर निपज्यातिनको अपने माता-पिता माने है। जो शरीरको रमायै ताको अपनी रमणी माने है। जो शरीरकरि निपज्या ताको अपना पुत्र माने है । जो शरीरको उपकारीताको मित्र माने है। जो शरीर का बुरा करै ताको शत्रु माने है इत्यादिरूप मानि हो है । बहुत कहा कहिए जिस तिस प्रकारकरि आप अर शरीरको एक ही माने है । इन्द्रादिक का नाम तो इहां का है। या तो किछू गम्य नाहीं । अचेत हुआ पर्यायविषे अंहबुद्धि धारे है। सो कारण कहा है? सो कहिए
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इस आत्माकै अनादि इन्द्रियज्ञान है ताकरि आप अमूर्तीक है सो तो भासै नाहीं अर शरीर मूर्तीक है सो ही भासे । अर आत्मा काहूको आपो जानि अहंबुद्धि धारे ही धारै सो आप जुदा न भास्या तब तिनका समुदायरूप पर्यायविषै ही अहंबुद्धि थारै है । बहुरि आपकै अर शरीरकै निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध घना ताकरि भिन्नता भासै नाहीं । बहुरि जिस विचारकरि भिन्नता भासै सो मिध्यादर्शनके जोर तैं होइ सके नाहीं तालेँ पर्याय ही विषै अहंबुद्धि पाइए है। बहुरि मिथ्यादर्शनकरि यहु जीव कदाचित् बाह्य सामग्रीका संयोग हो तिनको भी अपनी माने है। पुत्र, स्त्री, धन, धान्य, हाथी, घोड़े, मन्दिर, किंकरादिक प्रत्यक्ष आपत भिन्न अर सदा काल अपने आधीन नाहीं, ऐसे आपको भासै तो भी तिन विषै ममकार करे हे पुत्रादिकविषै ए हैं सो मैं ही हूँ, ऐसी भी कदाचित् भ्रमबुद्धि हो है । बहुरि मिथ्यादर्शन शरीरादिकका स्वरूप अन्यथा ही भारी है। अनित्यको नित्य मानै, भिन्नको अभिन्न मार्ने, दुःख के कारणको सुखका कारण माने, दुःखको सुख माने इत्यादि विपरीत भासे है। ऐसे जीव अजीव तत्त्वनिका अयथार्थज्ञान होर्ते अयथार्थ श्रद्धान हो है ।
बहुरि इस जीवकै मोहके उदयतें मिध्यात्व कषायादिक भाव हो हैं। तिनको अपना स्वभाव माने है, कर्म उपाधिर्ते भए न जाने है। दर्शन ज्ञान उपयोग अर ए आस्रवभाव तिनको एक मान है। जातैं इनका आधारभूत तो एक आत्मा अर इनका परिगमन एकै काल होइ, तार्ते याको भिन्नपनो न भासै अर भिन्नपनो भासनेका कारण जो विचार है सो मिथ्यादर्शनके बलतें होइ सकै नाहीं । बहुरि ए मिथ्यात्व कषायभाव आकुलता लिये हैं, तातें वर्तमान दुःखमय हैं अर कर्मबंधके कारण हैं, तातें आगामी दुःख उपजावेंगे, तिनको ऐसे न माने है। आप भला जानि इन भावनिरूप होइ प्रवर्ते है । बहुरि यह दुःखी तो अपने इन मिध्यात्व कषायभावनित होइ अर वृथा ही औरनिको दुःख उपजावनहारे माने है। जैसे दुःखी तो मिध्यात्वश्रद्धानते / होइ अर अपने श्रद्धानके अनुसार जो पदार्थ न प्रवर्ते ताको दुःखदायक माने । बहुरि दुःखी तो क्रोध होइ। अर जासों को किया होय ताको दुःखदायक मानै । दुःखी तो लोभतें होइ अर इष्ट वस्तुकी अप्राप्तिको दुःखदायक मानै, ऐसे ही अन्यत्र जानना । बहुरि इन भावनिका जैसा फल लागे तैसा न मासे है। इनकी तीव्रताकरि नरकादिक हो है, मन्दताकरि स्वर्गादिक हो है। तहां घनी पोरी आकुलता हो है सो भारी नाहीं,
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चौथा अधिकार-६७
तातें बुरे न लागै है ! कारण कहा है- गा आपके किसे भामै तिनको बुरे कैसे मानै? बहुरि ऐसे ही आस्रव सत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होते अयथार्थ श्रद्धान हो है।
बहुरि इन आसवभावनिकरि ज्ञानावरणादिकर्मनिका बंध हो है। तिनका उदय होते ज्ञान-दर्शन का हीनपना होना, मिथ्यात्वकषायरूप परिणमन, चाह्या न होना, सुख-दुःखका कारन मिलना, शरीर संयोग रहना, गतिजाति शरीरादिकका निपजना, नीचा ऊँचा कुल पावना होय। सो इनके होनेविषे मूल कारन कर्म है। ताको तो पहिचान नाही, जाते यहु सूक्ष्म है, याको सूझता नाहीं । अर वह आपको इन कार्यनिका कर्ता दीसै नाहीं, तातै इनके होनेविष के तो आपको कर्ता माने, के काहू और को कर्त्ता मान। अर आपका का अन्यका कर्त्तापना न भासै तो गहलरूप होइ भवितव्य पानै। ऐसे बंधतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होते अयथार्थ श्रद्धान हो है।
बहुरि आम्रवका अभाव होना सो संवर है। जो आस्रवको यथार्थ न पहिचाने, ताफै संवरका यथार्थ श्रद्धान कैसे होइ? जैसे काहूकै अहित आचरण है, वाकों वह अहित न भासै तो ताकै अभावको हितरूप कैसे मान? तैसे ही जीवकै आम्रव की प्रवृत्ति है। याको यहु अहित न भासे तो ताकै अभावरूए संवरको कैसे हित मानै । बहुरि अनादित इस जीवकै आस्रवभाव ही भया, संवर कबहू न भया, ता” संवर का होना भास नाहीं। संवर होते सुख हो है सो मासै नाहीं। संवरते आगामी दुःख न होसी सो भासै नाहीं। तातें आस्रवका तो संवर करै नाहीं अर तिन अन्य पदार्थनिको दुःखदायक मानै है। तिनहीके न होने का उपाय किया करै है सो वे अपने आधीन नाहीं, वृथा ही खेदखिन्न हो है। ऐसे संवर तत्त्वका अयथार्थ श्रद्धान हो है।
बहुरि बंध का एकदेश अभाव होना सो निर्जरा है। जो बंधको यथार्थ न पहिचान, ताकै निर्जराका यथार्थ श्रद्धान कैसे होय? जैसे भक्षण किया हुवा विष आदिकतै दुःख होना न जानै तो ताके उषालों का उपायको कैसे भला जानै । तैसे बंधनरूप किए कर्मनित दुःख होना न जाने तो तिनकी निर्जरा का उपाय को कैसे भला जाने। बहुरि इस जीयकै इन्द्रियनित सूक्ष्मरूप जे कर्म तिनका तो ज्ञान होता नाहीं। बहुरि तिनविषै दुःखकू कारणभूत शक्ति है ताका ज्ञान नाहीं। तातै अन्य पदार्थनिहीके निमित्तको दुःखदायक जानि तिनके ही अभाव करनेका उपाय करै है सो वे अपने आधीन नाहीं। बहुरि कदाचित् दुःख दूरि करनेके निमित्त कोई इष्ट संयोगादि कार्य बने है सो वह भी कर्मके अनुसार बने है। तातै तिनका उपायकरि वृथा ही खेद करै है। ऐसे निर्जरातत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होते अयथार्थ श्रद्धान हो है !
___ बहुरि सर्व कर्मबंधका अभाव ताका नाम मोल है। जो बंथको वा बंधजनित सर्व दुःखनिको नाहीं पहिचान, ताके मोक्षका यथार्थ श्रद्धान कैसे होइ । जैसे काहूकै रोग है, वह तिस रोगको वा रोगजनित दुःखको न जानै तो सर्वथा रोग के अभावको कैसे मला जानै? तैसे याकै कर्मबन्धन है, यहु तिस बंधनको या बंधजनित दुःखको न जानै तो सर्वथा बंधके अभावको कैसे भला जाने? बहुरि इस जीवके कर्मका वा तिनकी शक्तिका तो ज्ञान नाही, ताक् बाह्यपदार्थनिको दुःखका कारन जानि तिनके सर्वथा अभाव करनेका उपाय करे
* नष्ट करना
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-६८
है। अर यहु तो जाने, सर्वथा दुःख दूर होनेका कारन इष्ट सामग्रीनिको मिलाय सर्वथा सुखी होगा सो कदाचित् होय सकै नाहीं। यहु वृथा ही खेद कर है। ऐसे मिथ्यादर्शनसे मोक्षतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होनेते अयथार्थ श्रद्धान है। या प्रकार यह जीव मिथ्यादर्शनः जीवादि सप्त तत्त्व जे प्रयोजनभूत है तिनका अयथार्थ श्रद्धान करै है। बहुरि पुण्यपाप हैं ते इनहीके विशेष है। सो इन पुण्यपापनिकी एक जाति है तथापि मिथ्यावनित पुण्यको मला जाने है, पापको गुरा जाने है। पुण्यकरि अपनी इच्छाके अनुसार किंचित् कार्य बने है, ताको मला जाने है। पापकरि इच्छाके अनुसार कार्य न बने ताको बुरा जाने सो दोनों ही आकुलता के कारण है, तातै बुरे ही हैं। बहुरि यहु अपनी मानित तहाँ सुख-दुःख मान है। परमार्थत जहाँ आकुलता है तहाँ दुःख ही है। तास पुण्यपापके उदयको भला बुरा जानना श्रम ही है। बहुरि कोई जीव कदाचित पुण्यपापके कारन जे शुभ अशुभ भाव तिनको भले बुरे जाने है सो भी अम ही है, जात दोऊ ही कर्मबन्थन के कारण हैं। ऐसे पुण्यपापका अयथार्थज्ञान होते अयथार्थश्रद्धान हो है। या प्रकार अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यादर्शनका स्वरूप कहा। यहु असत्यरूप है तातें याहीका नाम मिथ्यात्व है। बहुरि यहु सत्यश्रद्धानते रहित है तात याहीका नाम अदर्शन है।
विशेष-उपर्युक्त कथन कथञ्चित् ठीक है। तथापि कथञ्चित् निम्नलिखित व्याख्यान भी शिरोधार्य करना चाहिए-हेतु और कार्य की विशेषता होने से पुण्य तथा पाप में अन्तर है। पुण्य का हेतु शुभ भाव है और पाप का हेतु अशुभ भाव है। पुण्य का कार्य सुख है और पाप का कार्य दुःख है। (अमृतचन्द्राचार्य) मूलवाक्य : हेतुकार्यविशेषाभ्यां विशेषः पुण्यपापयोः। हेतुशुभाशुभी भावी, कार्ये च सुखासुखे। तत्त्वार्थसार ४/१०३। इस प्रकार अमृतचन्द्राचार्य ही पुण्य तथा पाप में भेद का व्याख्यान करते हैं।
कुन्दकुन्दाचार्य ने भी कहा है-वर वयतवेहिं सग्गो मा दुक्खं होउ णिरय इयरेहिं । छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं । (मो.पा. गाथा २५) अर्थः- जिस प्रकार छाया तथा आतप में स्थित पथिकों के प्रतिपालक कारणों में बड़ा भेद है, उसी प्रकार पुण्य व पाप में भी बड़ा भेद है। व्रत सप आदि रूप पुण्य श्रेष्ठ है क्योंकि उससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है और उससे विपरीत अव्रत तथा अतप आदि रूप पाप श्रेष्ठ नहीं है क्योंकि उससे नरक की प्राप्ति होती है।
स्वामी वीरसेन कहते हैं कि तीर्थकर, गणथर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं (धवल १/१०५)। जिनसेन स्वामी कहते हैं कि है पण्डितजम! चक्रवर्ती की विभूति को पुण्य के उदय से उत्पन्न हुई मानकर उस पुण्य का संचय करो जो समस्त सुखसम्पदाओं की खान है (मझपुराण ३७/२००) -
ततः पुण्योदयोदभूतां मत्वा चक्रमृतः श्रियं। विनुष्वं मो। बुयाः पुण्यं यत् पण्यः सुखसम्पदाम् ।।२०० ।।
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चौथा अथिकार-६६
आत्मानुशासनकार कहते हैं कि अपने निर्मल परिणामों द्वारा पाप का नाश और पुण्य का उपार्जन भली प्रकार करना चाहिए।। श्लोक २३ ।। (आत्मानुशासन पृ. १५ स्वयं पण्डित टोडरमलजी कृत टीका, गणेश वर्णी दि. जैन संस्थान प्रकाशन)
पद्मनन्दी आचार्य लिखते हैं - “अत: हे पण्डितजनो ! निर्मलपुण्यराशि के भाजन होओ अर्थात् पुण्य उपार्जन करो।" (प. पंच.१/१९८) जीवकाण्ड की मुख्तारी टीका के पृष्ठ ७०० से ७०२ भी देखें।
मिथ्याज्ञानका स्वरूप अब मिथ्याज्ञानका स्वरूप कहिए है-प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वनिका अयथार्थ जानना ताका नाम मिथ्याज्ञान है। ताकरि तिनके जाननेविषे संशय विपर्यय अनध्यवसाय हो है। तहाँ ऐसे है कि ऐसे है, ऐसा परस्पर विरुद्धता लिए दोयरूप ज्ञान ताका नाम संशय है, जैसे 'मैं आत्मा हूँ कि शरीर हूँ' ऐसा जानना। बहुरि ऐसे ही है, ऐसा वस्तुस्वरूपः विरुद्धता लिए एकरूप ज्ञान ताका नाम विपर्यय है, जैसे 'मैं शरीर हूँ' ऐसा जानना। बहुरि किछु है, ऐसा निर्धाररहित विचार ताका नाम अनध्यवसाय है जैसे 'मैं कोई हूँ' ऐसा जानना। या प्रकार प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वनिविषे संशय विपर्यय अनध्यवसायस्प जो जानना होय ताका नाम मिथ्याज्ञान है। बहुरि अप्रयोजनभूत पदार्थनिको यथार्थ जानै वा अयथार्थ जानै ताकी अपेक्षा मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान नाम नाहीं है। जैसे मिथ्यादृष्टि जेवरीको जेवरी जानै तो सम्यग्ज्ञान नाम न होय अर सम्यग्दृष्टि जेवरीको सांप जानै तो मिथ्याज्ञान नाम न होय।
इहाँ प्रश्न-जो प्रत्यक्ष साँचा झूटा ज्ञानको सम्यग्ज्ञान मिथ्याज्ञान कैसे न कहिए? ___ ताका समाधान-जहाँ जाननेहीका, साँचा झूटा निर्धार करनेही का प्रयोजन होय तहाँ तो कोई पदार्थ है ताका साँचा झूठा जानने की अपेक्षा ही मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान नाम पावै है। जैसे प्रत्यक्ष परोक्षप्रमाणका वर्णनविष कोई पदार्थ है ताका सांचा जानने रूप सम्यग्ज्ञानका ग्रहण किया है। संशयादिरूप जाननेको अप्रमाणरूप मिथ्याज्ञान कया है। बहुरि इहाँ संसार मोक्षके कारणभूत सांचा झूठा जाननेका निर्धार करना है सो जेवरी सादिकका यथार्थ वा अन्यथा ज्ञान संसार मोक्षका कारण नाहीं। तातै तिनकी अपेक्षा इहां मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान न कह्यर। इहाँ प्रयोजनभूत जीवादिकतत्त्वनिहींका जाननेकी अपेक्षा मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान कया है। इस ही अभिप्रायकरि सिद्धान्तविषै मिथ्यादृष्टिका तो सर्वजानना मिथ्याज्ञान ही कह्या अर सम्पग्दृष्टि का सर्वजानना सम्यग्ज्ञान कह्या ।
इहाँ प्रश्न-जो मिथ्यादृष्टिकै जीवादि तत्त्वनिका अयथार्थ जानना है ताको मिथ्याज्ञान कहो। जेवरी सादिकके यथार्थ जाननेको तो सम्यग्ज्ञान कहो?
ताका समाधान-मिथ्यादृष्टि जाने है, तहाँ वाकै सत्ता असत्ता का विशेष नाहीं है । तात कारणविपर्यय वा स्वरूपविपर्यय वा भेदाभेद विपर्ययको उपजावै है। तहाँ ताको जानै है ताका मूल कारणको नहि पहिचाने।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक
अन्यथा कारण मानै सो तो कारण विपर्यय है। बहुरि जाको जाने ताका मूलवस्तु तत्त्वस्वरूप ताको नाहीं पहिचानै, अन्यथा स्वरूप मानै सो स्वरूप विपर्यय है । बहुरि जाको जाने ताको यहु इन भिन्न है, यहु इनतें अभिन्न है ऐसा न पहिचान, अन्यथा भिन्न अभिन्नपनो मानै सो भेदाभेदविपर्यय है। ऐसे मिथ्यादृष्टिकै जाननेविषै विपरीतता पाइए है। जैसे मतवाला माताको भार्या माने, भार्याको माता मानै, तैसे मिथ्यादृष्टिकै अन्यथा जानना है। बहुरि जैसे काहूकालविषे मतवाला माताको माता व भार्याको भार्या भी जाने तो भी वाकै निश्चयरूप निर्द्धारकरि श्रद्धान लिये जानना न हो है । तातें वाकै यथार्थज्ञान न कहिए। तैसे मिध्यादृष्टि काहू काल विषै किसी पदार्थको सत्य भी जाने तो भी वाकै निश्चयरूप निर्द्धारकरि श्रद्धान लिये जानना न हो है। अथवा सत्य भी जानै परन्तु तिनकरि अपना प्रयोजन तो अयथार्थ ही साथै है तातें वाकै सम्यग्ज्ञान न कहिए । ऐसे मिथ्यादृष्टिकै ज्ञानको मिथ्याज्ञान कहिए हैं।
इहां प्रश्न जो इस मिथ्याज्ञानका कारण कौन है?
ताका समाधान - मोहके उदयर्ते जो मिथ्यात्वभाव होय, सम्यक्त्व न होय सो इस मिथ्याज्ञान का कारण है। जैसे विष के संयोगर्ते भोजन भी विषरूप कहिए। तैसे मिथ्यात्व के सम्बन्ध ज्ञान है सो मिथ्याज्ञान नाम पावै है ।
मिथ्याज्ञान में नादरण कारण नहीं है
इहाँ कोऊ कहै - ज्ञानावरणका निमित्त क्यों न कहो ?
ताका समाधान - ज्ञानावरणके उदय तो ज्ञानका अभावरूप अज्ञानभाव हो हैं । बहुरि क्षयोपशमतें किंचित् ज्ञानरूप मति आदि ज्ञान हो है । जो इनविषै काहूको मिथ्याज्ञान काहूको सम्यग्ज्ञान कहिए तो ए दोऊही भाव मिथ्यादृष्टि वा सम्यग्दृष्टिकै पाइए है ता तिन दोऊनिकै मिथ्याज्ञान वा सम्यग्ज्ञानका सद्भाव होइ जाय तो सिद्धान्तविषे विरुद्ध होइ । तातै ज्ञानावरणका निमित्त बने नाहीं ।
बहुरि इहां कोऊ पूछे कि जेवरी सर्पादिक के अयथार्थज्ञानका कौन कारण है तिसहीको जीवादि तत्त्वनिका अयथार्थ यथार्थ ज्ञान का कारण कहो ?
ताका उत्तर - जो जाननेविषै जेता अयथार्थपना हो है तेता तो ज्ञानावरणका उदयतें हो है। अर जेता यथार्थपना हो है तेता ज्ञानावरणका क्षयोपशम हो है जैसे जेवरी को सर्प जान्या सो यथार्थ जानने की शक्तिका घानक उदय तातें अयथार्थ जाने है। बहुरि जेवरी को जेवरी जानी नहीं । यथार्थ जाननेकी शक्तिका कारण क्षयोपशम है तातें यथार्थ जाने है। तैसे ही जीवादि तत्त्वनिका यथार्थ जानने की शक्ति होने वा न होने विषै तो ज्ञानावरणहीका निमित्त है परन्तु जैसे काहू पुरुषकै क्षयोपशमर्ते दुःखको वा सुखको कारणभूत पदार्थनिको षथार्थ जाननेकी शक्तिहोय तहाँ जाकै असातावेदनीयका उदय होय सो दुःखको कारणभूत जो होम तिसहीको वेदै, सुखका कारणभूत पदार्थनिको न वेदै अर जो सुखका कारणभूत पदार्थको वैदै तो सुखी हो जाय । सो असाताका उदय होतें होय सकै नाहीं । तातैं इहां दुःखको कारणभूत अर सुखको कारणभूत पार्थवेदनेविषै ज्ञानावरणका निमित्त नाहीं, असाता साता का उदय ही कारणभूत है। तैसे ही जीवकै
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चौथा अधिकार -७१
प्रयोजनभूत जीवादिकतत्त्व, अप्रयोजनभूत अन्य तिनके यथार्थ जानने की शक्ति होय । तहाँ जाकै मिथ्यात्वका उदय होय सो जे अप्रयोजनभूत होय तिनहीको वेदै, जाने, प्रयोजनमूतको न जाने । जो प्रयोजनभूतको जानै तो सम्यग्दर्शन होय जाय सो मिथ्यात्वका उदय होत होइ सकै नाहीं । तातें इहाँ प्रयोजनभूत अप्रयोजनभूत पदार्थ जाननेविष ज्ञानावरण का निमित्त नाही, मिथ्यात्वका उदय अनुदय ही कारणभूत है। इहाँ ऐसा जानना-जहाँ एकेन्द्रियादिकके जीतादि तत्त्वनिका यथार्थ जानने की शक्ति ही न होय तहाँ तो ज्ञानावरणका उदय अर मिथ्यात्वका उदयतें भया मिथ्यादर्शन इन दोऊनिका निमित्त है। बहुरि जहाँ संज्ञी मनुष्यादिक सयोपशमादि लब्धि होते शक्ति होय अर न जानै तहाँ मिथ्यात्वके उदयहीका निमित्त जानना। याहीत मिथ्याज्ञानका मुख्य कारण ज्ञानावरण न कह्या, मोहका उदय भया 'माव सो ही कारण कया है।
मिथ्यादर्शन और ज्ञान का पौर्वापर्य । बहुरि इहाँ प्रश्न-जो ज्ञान भए श्रद्धान हो है तातें पहले मिथ्याज्ञान कहों, पीछे मिथ्यादर्शन कहो?
ताका समाधान-है तो ऐसे ही, जानै बिना श्रद्धान कैसे होय। परन्तु मिथ्या अर सम्पकू ऐसी संज्ञा ज्ञानकै मिथ्यादर्शन सम्यग्दर्शनके निमित्तते हो है। जैसे मिथ्यादृष्टि वा सम्यग्दृष्टि सुवर्णादि पदार्थनिको जानै तो समान है परन्तु सो ही जानना मिथ्यादृष्टिके मिथ्याज्ञान नाम पावै, सम्यग्दृष्टिकै सम्यग्ज्ञान नाम पादै। ऐसेही सर्वामध्याज्ञान सम्यग्ज्ञानको कारण मिथ्यादर्शन, सम्यग्दर्शन जानना। तातें जहाँ सामान्यपने ज्ञान श्रद्धानका निरूपण होय तहाँ तो ज्ञान कारणभूत है ताको पहिले कहना अर श्रद्धान कार्यभूत है ताको पीछे कहना। बहुरि जहाँ मिथ्या सम्यग्ज्ञान अद्धानका निरूपण होय तहाँ श्रद्धान कारणभूत है ताको पहले कहना, ज्ञान कार्यभूत है ताको पीछे कहना।
बहुरि प्रश्न-जो ज्ञान श्रद्धान तो युगपत् हो है, इन विषै कारण कार्यपनो कैसे कहो हो?
ताका समाधान- वह होय तो वह होय इस अपेक्षा कारण-कार्यपना हो है। जैसे दीपक अर प्रकाश युगपत् हो है तथापि दीपक होय तो प्रकाश होय, ता” दीपक कारण है, प्रकाश कार्य है। तैसे ही ज्ञान श्रद्धान के का मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञानकै वा सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान के कारण- कार्यपना जानना।
बहुरि प्रश्न-जो मिथ्यादर्शन के संणेगते ही मिथ्याज्ञान नाम पायै है तो एक मिथ्यादर्शन ही संसारका कारण कहना था, मिथ्याान जुदा काहेको कह्या?
ताका समाधान-ज्ञानहीकी अपेक्षा तो मिथ्यादृष्टि वा सम्यग्दृष्टि के क्षयोपशमतें भया यथार्थ ज्ञान तामें किछु विशेष नाही अर यहु ज्ञान केवलज्ञानविष भी जाय मिले है, जैसे नदी समुद्र में मिले। तातै झानविषै किछु दोष नाहीं परन्तु क्षयोपशम ज्ञान जहाँ लागै तहाँ एक ज्ञेयविषे लागै सो यह मिथ्यादर्शनके निमित्तत अन्य ज्ञेयनिविष सो ज्ञान लागै अर प्रयोजनभूतजीवादि तत्त्वनिका यथार्थ निर्णय करनेविष न लागै सो यहु ज्ञानविषै दोष भया। याको मिथ्याज्ञान कह्या। बहुरि जीयादि तत्त्वनिका यथार्थ श्रद्धान न होय सो यहु श्रद्धान विषै दोष भया। याको मिथ्यादर्शन कह्या। ऐसे लक्षणभेदत मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान जुदा कह्या।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-७२
ऐसे मिथ्याज्ञान का स्वरूप कह्या। इसहीको तत्त्वज्ञानके अभावते अज्ञान कहिए हैं। अपना प्रयोजन न साधै ता याहीको कुज्ञान कहिए है।
मिथ्याचारित्रका स्वरूप अद मिध्याचारित्रका स्वरूप कहिए है-जो चारित्रमोहके उदयतें कषाय भाव होइ ताका नाम मिथ्याचारित्र है। इहाँ अपने स्वभावरूप प्रवृत्ति नाही, झूठी परस्वभावरूप प्रवृत्ति किया चाहै सो बनै नाहीं, ताते याका नाम मिथ्याचारित्र है। सोइ दिखाइए है-अपना स्वभाव तो दृष्टा ज्ञाता है सो आप केवल देखनहारा जाननहारा तो रहै नाहीं। जिन पदार्थनिको देखै जानै तिन विषै इष्ट अनिष्टपनो माने तातै सगी द्वेषी होय काहूका सद्भावको चाहै, काहूका अभावको चाहै सो उनका सद्भाव अभाव याका किया होता नाहीं। जातें कोई द्रव्य कोई द्रव्यका कर्ता हर्ता है नाहीं। सर्व द्रव्य अपने-अपने स्वभावरूप परिणमै हैं। बहु वृथा ही कषाय भावकरि आफुलित हो है। बहुरि कदाचित् जैसे आप चाहै तैसे ही पदार्थ परिणमैं तो अपना परिणमाया तो परिणम्या नाहीं। जैसे गाड़ी चालै है अर वाको बालक धकायकरि ऐसा मानै कि याको मैं चलाऊँ हूँ। सो वह असत्य मानै है; जो वाका चलाय चाले है तो वह न चालै तब क्यों न चलावै? तैसे पदार्थ परिणमै हैं अर उनको यह जीव अनुसारी होय करि ऐसा माने याको मैं ऐसे परिणमाऊँ हूँ। सो यहु असत्य मानै है। जो याका परिणमाया परिणमै तो वह तैसे न परिणमै तब क्यों न परिणमाव? सो जैसे आप चाहै तैसे तो पदार्थ का परिणमन कदाचित् ऐसे ही बनाव बनै तब हो है, बहुत परिणमन तो आप न चाहै तैसे ही होता देखिए है। तातै यह निश्चय है, अपना किया काहू का सद्भाव अभाव होता नाहीं । बहुरि जो अपना किया सद्भाव अमाव होई ही नाही तो कषायभाव करनेसे कहा होय? केवल आप ही दुःखी होय। जैसे कोऊ विवाहादि कार्य विषै जाका किछु कह्या न होय अर वह आप कर्ता होय कषाय करै तो आप ही दुःखी होय तैसे जानना। तातें कषायभाव करना ऐसा है जैसा जल का बिलोवना किधु कार्यकारी नाहीं। तातै इन कषायनिकी प्रवृत्ति को मिथ्याचारित्र कहिए है। बहुरि कषायभाव हो है सो पदार्थनिकों इष्ट अनिष्ट माने ही है। सो इष्ट अनिष्ट मानना भी मिथ्या है। जाते कोई पदार्थ इष्ट अनिष्ट है नाहीं। कैसे? सो कहिए है।
विशेष : इष्ट शब्द में इष् (इच्छा करना) धातु से क्त प्रत्यय होकर इष्ट शब्द बना है जिसका अर्थ है-इच्छित, अभिलषित या प्रिय या चाहा गया। अतः अनिष्ट यानी अनिच्छित, अनभिलषित, अप्रिय या नहीं चाहा गया। यहाँ पदार्थ को इष्ट या अनिष्ट मानना मिथ्या कहा गया है। पदार्थ इष्ट अनिष्ट नहीं होता। परन्तु ग्रन्थ में ही अन्यत्र कई जगह (पृ. ६०, ७६ से ७६, १०२, १५४, १७०, २५७, ३२५, ३३६, पर) स्वयं श्रद्धेय पण्डित जी ने इष्ट तथा अनिष्ट पदार्थ विषयक कथन किया है। एक कथन देखिए- “इस लोकविष तो इष्ट पदार्थ थोरे देखिए है, अनिष्ट घने देखिए हैं।" (पृ. १५४)
(नोट-यह पृष्ठ संख्या सस्ती ग्रन्थमाला दिल्ली से प्रकाशित चतुर्थ संस्करण की है) इष्ट का ।
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अर्थ ही यह है (इच्छित) जो मोह (लोभ) के रहते हुए ही बन सकता है क्योंकि इच्छा का अर्थ ही लोभ होता है (जयपवल १२/१६२) अतः इष्ट अनिष्ट (इच्छित-अनिच्छित) विकल्प भी लोभ कषाय के अस्तित्व तक ही हो सकते हैं, इससे आगे त्रिकाल में भी नहीं। आगम में चूंकि इष्ट वियोग तथा अनिष्ट संयोग आर्तध्यान प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक बताये हैं। (प्रमत्तसंयतानां तु निदानवय॑मन्यदात्रियं प्रमायोपयोटेका(कदाचित् स्यात-सर्वार्थसिद्धि ६/३४) अत: यह ध्रुव सत्य है कि करणानुयोग की दृष्टि से इष्टवियोग तथा अनिष्ट - संयोग का अस्तित्व भावलिंगी सन्तों के भी होता है। यहाँ जो सम्यक्त्वी के भी उसका निषेध किया उसका अभिप्राय यह है कि सम्यक्त्वी के परपदार्थ के प्रति आसक्ति समन्वित राग (इष्टता) तथा प्रतिशोध संयुक्त द्वेष नहीं होता। (पं. ध. २/४२७-२८) शेष सब सुगम है। द्रव्यानुयोग से करणानुयोग का कथन सूक्ष्म है। (देखो-इसी ग्रन्थ का 'द्रव्यानुयोग में व्याख्यान का विधान' प्रकरण)। गानुले में मारें से शुलो माला पर कानुयोग में ११वें से माना। तथैव यहाँ इष्ट-अनिष्ट का विकल्प सम्यक्त्वी के निषिद्ध किया। करणानुयोग में उसे ही सातवें गुणस्थान से निषिद्ध किया।
___ इष्ट-अनिष्ट की कल्पना मिथ्या है आपको सुखदायक उपकारी होय ताको इष्ट कहिए। आपको दुःखदायक अनुपकारी होय ताको अनिष्ट कहिए। सो लोक विषै सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वभावही के कर्ता हैं। कोऊ काहूको सुखदुःखदायक उपकारी अनुपकारी है नाहीं । यह जीव ही अपने परिणामनिविषै तिनको सुखदायक उपकारी मानि इष्ट जानै है अथवा दुःखदायक अनुपकारी जानि अनिष्ट नानै है। जातें एक ही पदार्थ काहूको इष्ट लागै है, काहूको अनिष्ट लागे है। जैसे जाको वस्त्र न मिले ताको मोटा वस्त्र इष्ट लागै अर जाको महीन वस्त्र मिलै ताको वह अनिष्ट लाग है। सूकरादिकको विष्टा इष्ट लागै है, देवादिकको अनिष्ट लाग है। काहूको मेघवर्षा इष्ट लागे है, काहूको अनिष्ट लागै है। ऐसे ही अन्य जानने। बहरि याही प्रकार एक जीव को भी एक ही पदार्थ काहू कालयिचे इष्ट लागे है, काहू कालविषै अनिष्ट लागै है। बहुरि यहु जीव जाको मुख्यपने इष्ट मानै सो भी अनिष्ट होता देखिए है, इत्यादि जानने । जैसे शरीर इष्ट है सो रोगादिसहित होय तब अनिष्ट होइ जाय । पुत्रादिक इष्ट है सो कारणपाय अनिष्ट होते देखिए है, इत्यादि जानने। बहुरि यहु जीव जाको मुख्यपने अनिष्ट मानै सो भी इष्ट होता देखिये है। जैसे गाली अनिष्ट है सो सासरे में इष्ट लागै है, इत्यादि जानने। ऐसे पदार्थविषे इष्ट अनिष्टपनो है नाहीं । जो पदार्थविषै इष्ट आनष्टपनो होतो तो जो पदार्थ इष्ट होता सो सर्यको इष्ट ही होता, जो अनिष्ट होता सो अनिष्ट ही होता, सो है नाही। यह जीव आप ही कल्पनाकार तिनको इष्ट अनिष्ट मानै है सो यह कल्पना झूटी है। बहुरि पदार्थ है सो सुखदायक उपकारी या दुःखदायक अनुपकारी हो है सो आपही नाही हो है, पुण्य पापके उदयके अनुसारि हो है। जाकै पुण्यका उदय हो है ताकै पदार्थनिका संयोग सुखदायक उपकारी हो है, जाकै पापका उदय हो है ताक पदार्थनिका संयोग दुःखदायक अनुपकारी होहै सो प्रत्यक्ष देखिये है। काहूकै स्त्रीपुत्रादिक सुखदायक है, काहूकै दुःखदायक है;
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व्यापार किए काहूकै नफा हो है, काहूकै टोटा हो है; काहूक शत्रु भी किंकर हो है, काहूकै पुत्र भी अहितकारी हो है तातें जानिए है, पदार्थ आप ही इष्ट अनिष्ट होते नाही, कर्म उदयके अनुसार प्रवर्ते है। जैसे काहूक किंकर अपने स्वामी के अनुसार किसी पुरुषको इष्ट अनिष्ट उपजावै तो किछू किंकरानेका कर्त्तव्य नाहीं, उनके स्वामी का कर्तव्य है। जो किकनिहाँको इन्ट अनिष्ट माने सो झूठ है। तैसे कम के उदयतें प्राप्तभए पदार्थ कर्मके अनुसार जीवको इष्ट अनिष्ट उपजादे तो किछु पदार्थनिका कर्तव्य नाही, कर्म का कर्त्तव्य है। जो पदार्थनिहीको इष्ट अनिष्ट मानै सो झूठ है। तात यह बात सिद्ध भई कि पदार्थनिको इष्ट अनिष्ट मानि तिनविषै रागद्वेष करना मिथ्या है।
इहाँ कोऊ कहै कि बाह्य वस्तुनिका संयोग कर्म निमित्तत बने है तो कर्मनिविष तो रागद्वेष करना।
ताका समाधान-कर्म तो जड़ हैं, उनके किछू सुख-दुःख देने की इच्छा नाहीं । बहुरि वे स्वयमेव तो कर्मरूप परिणमे नाही, याके भावनिकै निमित्त कर्मरूप हो हैं; जैसे कोऊ अपने हाथकरि भाटा (पत्थर) लेई अपना सिर फोरै तो भाटाका कहा दोष है? तैसे जीव अपने रागादिक भावनिकरि पुद्गलको कर्मरूप परिणमाय अपना बुरा करै तो कर्मका कहा दोष है। ताः कर्मस्यों भी राग द्वेष करना मिथ्या है। या प्रकार परद्रव्यनिको इष्ट अनिष्ट मानि रागद्वेष करना मिथ्या है। जो परद्रव्य इष्ट अनिष्ट होता अर तहाँ राग द्वेष करता तो मिथ्या नाम न पाता। वे तो इष्ट अनिष्ट हैं नाही अर यह इष्ट अनिष्ट मानि रागद्वेष करै, तातै इन परिणामनिको मिथ्या कह्या है! मिथ्यारूप जो परिणमन ताका नाम मिथ्याचारित्र है। अब इस जीवके रागद्वेष होय है, ताका विधान या विस्तार दिखाइए है
_राग-द्वेष की प्रवृत्ति प्रथम तो इस जीवकै पर्यायविषै अहंबुद्धि है सो आपको वा शरीर को एक जानि प्रवर्ते है। बहुरि इस शरीरविषै आपको सुहावै ऐसी इष्ट अवस्था हो है तिसविषै राग कर है। आपको न सुहावै ऐसी अनिष्ट
१. कथंचित दुःख का कारण कर्म हैं, कथंचित नहीं हैं :
आठ द्रव्यकर्म दुःख के कारण हैं। ये जीव को संसार में रुलाते हैं अतः कर्म ही कथंचित् दुःख के कारण है। प्रश्न - श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा की जयमाला में श्री रामचन्द्र जी ने लिखा है कि करम विचारे कौन भूत मेरी अधिकाई।
अगनि सहे घमघात, सौह की संगति पाई ।।
अतः कर्म सुख दुःख देते हैं, इस बात को पं. रामचन्द्र जी ने काट दिया है। उत्तर- भैया, आप प्रायः हर प्रकरण अधूरा ही पढ़ कर निर्णय कर लेते हैं, अतः यह आक्षेपक स्थिति आपकी हुई है। पं. रामचन्द्र जी ने उसी जयमाला में लिखा है-.
देखो करम अपार, सुभट जड़, चेतन नाही। घेतन . करि रक, चोर गिय बोथत जाही। सातो अपनि मंझार, नरक वारुण दुःख पेही।
कोऊ शरनो नाही, परम मिन, निश्च येही ।।५।। अ- पं. रामचन्द्र जी श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा की जयमाला में कहते हैं कि हे भव्यो ! देखो, ये कर्म अपार है, सुपट
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हैं, तथा चेतन नहीं हैं ये जड़ हैं तो भी चेतन आत्मा को रंक करके चोर के समान उसे बाँधते हैं तथा सातों नरकों के दारुण दुःख प्रदान करते हैं ।
इस प्रकार श्री रामचन्द्र जो ने तो कर्म कथंचित् दुःख देते हैं, कथंचित् नहीं देते, यह पूरा ही स्याद्वाद पय ५ व ११ में भर दिया है। और हम ऐसे हैं कि उस स्याद्वादी प्रकरण में से मात्र एक निश्चय पक्ष को ले लेते हैं तथा व्यवहार पक्ष का अपलाप कर देते हैं। इस पर पं. टोडरमल जी कहते हैं- जीव अपने अभिप्राय तें निश्चय नम की मुख्यता करि
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जो कथन किया होय. तर या दृष्टिको थारे है। (गो. भा. प्र. अधि. ७ पृ. २६१३
यह कथन करोड़ों ग्रन्थोंका सार है। श्रीमद्रराजचन्द्र कहते हैं कि- “सर्व जीव हितकारी ज्ञानी पुरुष की वाणी को किसी . भी एकान्त दृष्टि को ग्रहण करके अहितकारी अर्थ में न ले जाएँ, यह बात निरन्तर स्मरण रखने योग्य है। (श्रीमद् भाग २ पृ. ६८ । प्रथम संस्करण, १६७४ ई.) यदि व्यवहार गलत हो तो "हमें अग्नि जलाती है" यह वाक्य व्यवहारनय का होने के कारण गलत ही ठहरा। कृपया अग्नि को स्पर्श करके देखें कि व्यवहार का कथन सत्य है या असत्य ? हे सत्पुरुषो ! महावीर के "व्यवहारनय" का अपलाप करना योग्य नहीं इसलिए व्यवहार का कथन होते हुए भी यह कथन उचित ही है कि द्रव्य कर्म दुःख देते हैं। कहा भी है
कर्म महारिपु जोर, एक न कान करैजी ।
मनमाने दुःख देहिं काहूसों नाहिं डरे जी ।। ३ ।। कबहूँ इतर निगोद कबहूँ नरक दिखाये ।
सुरनर पशु गति माहिं बहुविधि नाच नचावै ॥ ४ ॥
X X X X X
मैं तो एक अनाथ ये मिलि दुष्ट घनेरे ।
कियो बहुत बेहाल सुनियो साहिब मेरे ।।
ज्ञानमहानिधि लूटि रंक निबल करि डार्यो ।
इनही तुम मुझे माँहि है जिन अन्तर पाइयो । ८ । भूधरास श्री आदिनाथ पूजा में भी कहा है...
अष्ट कर्म, मैं एकलो, यह दुष्ट (कर्म) महादुःख देत हो । कबहूँ इतर निगोद में मोकू, पटकत करत अचेत हो । म्हारी दीनतणी सुनो विनती ।
ये सब कथन मिथ्या अपलाप नहीं हैं।
यदि यह कहा जाए कि जड़कर्म में जीव को चेतनको पीड़ित करने की शक्ति कैसे मानी जा सकती है? तो उत्तर इस प्रकार है- वैज्ञानिक लोहे के एक टुकड़े के चारों और धातु का एक तार लपेट कर उस तार में विद्युत् प्रवाह छोड़ते हैं। ऐसा करने पर तत्काल वह लोहे का टुकड़ा चुम्बक बन जाता है। वैज्ञानिक इस यन्त्र से अनेक कार्य ले लेते हैं। परन्तु जैसे ही इस तार में विद्युत प्रवाह बन्द कर देते हैं, उसी क्षण उस लोहे के चुम्बक की शक्ति समाप्त हो जाती है और वह लोहे का टुकड़ा केवल लोहा ही रह जाता है। फिर वह अपेक्षित कार्य नहीं कर पाता। इसी प्रकार जब हमारी आत्मा में रागद्वेष की भावनाएँ उठती हैं तो इन भावनाओं के फलस्वरूप आसपास की कार्मणवर्गणाएँ आत्मा की ओर आकृष्ट होती हैं और उन कार्मण वर्गणाओं में, आत्मा की भावनाओं के अनुसार सुख-दुःख देने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। (सच्चे सुख का मार्ग पृ. १६५ तथा जयथवल १ प्रस्तावना पृ. ७५ तृतीय अनु. द्वितीय संस्करण) अमितगति आचार्य कहते हैं कि विष तथा मदिरा अचेतन पदार्थ हैं किन्तु उनमें विकार करने की शक्ति पाई जाती है। फिर ऐसा कौन चतुर पुरुष होगा जो अचेतन कर्मों में कार्य करने की शक्ति को न माने ?
विलोकमाना स्वयमेव शक्ति विकारहेतुं विषमघजाताम् ।
अचेतन कर्म करोति कार्य, कथं वदन्तीति कथं विदग्धाः 11 ७ । ६१ ।।
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अवस्था हो है तिसविष द्वेष करै है । बहरि शरीर का इष्ट अवस्था के कारणभूत बाह्य पदार्थनिविषै तो राम करै है अर ताकै घातकनिविष द्वेष करै है। बहुरि शरीर की अनिष्ट अवस्था के कारणभूत बाह्यपदार्थनिविष तो द्वेष कर है अर ताके घातकनिविषै राग करै है। बहुरि इन विषै जिन बाह्य पदार्थनिसों राग कर है तिनके कारणभूत अन्य पदार्थनिविषै राग करै है, तिनके घातकनिविषै द्वेष करै है। बहुरि जिन बाह्य पदार्थनिस्यों द्वेष करै है तिनके कारणभृत अन्य पदार्थनिविषै द्वेष करै है, तिनके घातकनिविषै राग कर है। बहुरि इन विषै भी जिनस्यों राग कर है तिनके कारण वा घातक अन्य पदार्थनिविषे राग वा द्वेष करै है अर जिनस्यों द्वेष करै है तिनके कारण वा घातक अन्य पदार्थनिविषि द्वेष वा राग कर है। ऐसे ही रागद्वेष की परम्परा प्रक्त है। बहुरि केई बाह्य पदार्थ शरीर की अवस्था को कारण नाही तिन विर्ष भी रागद्वेष करै है। जैसे गऊ आदि के पुत्रादिकतै किछू शरीर का इष्ट होय नाहीं तथापि तहाँ राग करै है। जैसे कूकरा आदिके विलाई आदिक तें किछू शरीर का अनिष्ट होय नाहीं तथापि तहाँ द्वेष करै है। बहुरि केई वर्ण गन्ध शब्दादिकके अवलोकनादिकतै शरीर का इष्ट होता नाहीं तथापि तिनविषै राग करें है। केई वर्णादिकके अवलोकनादिकः शरीर का अनिष्ट होता नाहीं तथापि तिनविषै द्वेष करै है। ऐसे भिन्न बाह्य पदार्थनिविषै रागद्वेष हो है। बहुरि इनविषै भी जिनस्यों राग करै है तिनके कारण अर घातक अन्य पदार्थनिविषे राग या द्वेष करै है अर जिनस्यो द्वेष कर है तिनके कारण वा घातक अन्यपदार्थ तिनविषै द्वेष वा राग करै है। ऐसे ही यहाँ भी रागद्वेष की परम्परा प्रवर्त है।
प्रश्न- कर्म से विकार नहीं होता। विकार भी उस समय का स्वतन्त्र परिणमन है। मतलय विकारी पर्याय भी स्वतन्त्र परिणमन है। उस समय की पर्याय की वैसी ही योग्यता है। सचमुच तो चारित्रगुण की ही उस समय की योग्यता के कारण ही रागद्वेष होता है। कर्म कुछ नहीं करते। उत्तर- यह कथन एकान्त विष से विषाक्त' है। मोक्षमार्ग प्रकाशक में लिखा है कि रागादि का कारण तो द्रव्यकर्म है। पो.मा.प्र. पृ. १६ इस तरह आचार्यकल्प पं. टोडरमलजी के वाक्य होने पर भी यदि रागादिक को अकारण मानते हैं तो रागादि के स्वभाव होने का प्रसंग आएगा। क्योंकि “पर निमिस चिना होइ ताहि का नाम स्वभाव है। और वैसा होने पर सिद्धों में भी रागादि के होने का प्रसंग आएगा। अतः स्याद्वादी भव्यों का रागादि की उत्पत्ति में द्रव्यकर्म को कारण मानना चाहिए। ऐसा विपुलाचल पर्वत पर स्थित वर्धमान भट्टारक ने अपनी दिव्यध्वनि में बार-बार कहा था। जिनको रागादि को स्वभाव मानना अनिष्ट होये वे रागादि की उत्पत्ति में द्रव्यकर्म को भी कारण माने और जिन्हें कर्मों की परतन्त्रता से जीव को पृथक् कर सर्वथा स्वतन्त्र बनाना इष्ट हो वे रागादि पर्यायों की परतन्त्रता भी स्वीकार करें। यदि रागादि पर्याय स्वतन्त्र समुत्पन्न (स्व-अथीन सात) हो, अपने कारण से बनती हों तो फिर सिखों के भी उन सर्वथा स्वतन्त्र रागादि पर्यायों के अस्तित्व का प्रसंग आए. भगवद् वीरसेन स्वामी कहते हैं कि जीवस्स परतंत भावुष्पायण अर्थात् (अभी) जीव परतन्त्र है। (पवला १२/३८॥ आदि) फिर उसकी पर्याय स्वतन्त्र कैसी ? कथंचित् द्रव्य कर्म फल नहीं देते; बल्कि भाव कर्म यानी जीव के भाव ही फल देते हैं। क्योंकि कर्मबन्ध मी तो भावों से होता है । तथा सुख-दुःख का निश्चय नय से सम्बन्ध तो जीव भाव से ही है। इस तरह एकद्रव्यग्राहीनय की अपेक्षा द्रव्यकर्म फल नहीं देते, भाव ही फल देते हैं। - स्याद्वाद, जवाहरलाल सि. शा. भीण्डर से साभार
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.. इहाँ प्रश्न- जो अन्य पदार्थनिविषै तो रागद्वेष करने का प्रयोजन जान्या परन्तु प्रथम ही तो मूलभूत शरीर की अवस्थाविषै वा शरीर की अवस्थाको कारण नाही, तिन पदार्थनिविषे इष्ट अनिष्ट मानने का प्रयोजन कहा है -
ताका समाधान- जो प्रथम मूलमूत शरीर की अवस्था आदिक है तिन विषै भी प्रयोजन विचार रागद्वेष करै तो मिथ्याचरित्र काहेको नाम पावै । तिनविषै, बिना ही प्रयोजन रागद्वेष करै है अर तिनहीके अर्थि अन्यस्यों रागद्वेष करै है ताते सर्व रागद्वेष परिणतिका नाम मिथ्याचारित्र कह्या है।
इहाँ प्रश्न-जी शरारकी अवस्था वा बाय पदार्थनिवि इ ऑगष्ट मानने का प्रयोजन तो भासै नाहीं अर इष्ट अनिष्ट माने बिना रह्या जाता नाहीं सो कारण कहा है?
ताका समाधान- इस जीवकै चारित्रमोह के उदयते रागद्वेषभाव होय सो ए माव कोई पदार्थका आश्रय बिना होय सके नाहीं । जैसे राग होय सो कोई पदार्थ विषै होय, वेष होय सो कोई पदार्थ विषै होय। ऐसे तिन पदार्थनिक अर रागद्वेषकै निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है। तहाँ विशेष इतना जो केई पदार्थ तो मुख्यपने रागको कारण हैं, केई पदार्थ मुख्यपने द्वेष को कारण हैं। केई पदार्थ काहूको काहू काल विषै राग के कारण हो हैं, काहूको काहूकाल विषै द्वेष के कारण हो हैं। इहाँ इतना जानना- एक कार्य होने विषे अनेक कारण चाहिए हैं सो रागादिक होने विषे अंतरंग कारण मोहका उदय है सो तो बलवान है अर बाह्य कारण पदार्थ है सो बलवान नाहीं है। महामुनिनिकै मोह मन्द होते बाह्य पदार्थनिका निमित्त होते भी रागद्वेष उपजते नाहीं। पापी जीवनिकै मोह तीव्र होते बाह्यकारण न होतें भी तिनका संकल्प ही करि रागद्वेष हो है। तात मोहका उदय होते रागादिक हो हैं तहाँ जिस बाह्यपदार्थ का आश्रय करि रागभाव होना होय, तिस विषै बिना ही प्रयोजन वा किछू प्रयोजन लिए इष्टबुद्धि हो है। बहुर जिस पदार्थका आश्रय करि द्वेषभाव होना होय, तिस विधै बिना ही प्रयोजन वा किछू प्रयोजन लिए अनिष्ट बुद्धि हो है। तातै मोहके उदयतें पदार्थनिको इष्ट अनिष्ट माने बिना रह्या जाता नाहीं। ऐसे पदार्थनि विधै इष्ट अनिष्ट बुद्धि होतें जो रागद्वेष रूप परिणमन होय ताका नाम मिथ्याचारित्र जानना। बहुरि इन रागद्वेषनि ही के विशेष क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीयेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेदरूप कषायभाव हैं। ते सर्व इस मिथ्याचारित्रहीके भेद जानने। इनका वर्णन पूर्वे किया ही है। बहुरि इस मिथ्याचारित्रविषे स्वरूपाचरणचारित्रका अभाव है ताते याका नाम अचारित्र भी कहिए। बहुरि यहाँ परिणाम मिटै नाहीं अथवा विरक्तनाहीं, ताते याहीका नाम असंयम कहिए है वा अविरति कहिए है जातें पाँच इन्द्रिय अर मनके विषयनिविषै बहुरि पंचस्थावर अर उसकी हिंसा विष स्वच्छन्दपना होय अर इनके त्यागरूप भाव न होय सोई असंयम वा अविरति बारह प्रकार कह्या है सो कषायभाव भए ऐसे कार्य हो हैं तातै मिथ्याचारित्रका नाम असंयम वा अविरति जानना। बहुरि इसही का नाम अव्रत जानना। जातें हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म, परिग्रह इन पाप कार्यनिविष प्रवृत्तिका नाम अव्रत है। सो इनका मूलकारण प्रमत्तयोग कह्या है। प्रमत्तयोग है सो कषायमय है ताते मिथ्याचारित्रका नाम अव्रत भी कहिए है। ऐसे मिथ्याचारित्र का स्वरूप कहा।
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या प्रकार संसारी जीवकै मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्ररूप परिणमन अनादितै पाइए है। सो ऐसा परिणमन एकेन्द्रिय आदि असंज्ञीपर्यंत तो सर्व जीवनिकै पाइए है। बहुरि संज्ञी पंचेन्द्रियनिविषे सम्यग्दृष्टी बिना अन्य सर्वजीवनिकै ऐसा ही परिणमन पाइए है। परिणमनविषे जैसा जहाँ सम्भवै तैसा तहाँ जानना। जैसे एकेन्द्रियादिककै इन्द्रियादिकनिकी हीनता अधिकता पाइए है वा धन-पुत्रादिकका सम्बन्ध मनुष्यादिककै ही पाइये है सो इनके निमित्तते मिथ्यादर्शनादि का वर्णन क्रिया है। तिसविषै जैसा विशेष सम्भवै तैसा जानना । बहुरि एकेन्द्रियादिक जीव इन्द्रिय शरीरादिक का नाम जानै नाहीं है परन्तु तिस नाम का अर्थरूप जो भाव है तिसविषै पूर्वोक्त प्रकार परिणमन पाइए है। जैसे मैं स्पर्शनकरि स्पy हूँ, शरीर मेरा है ऐसा नाम न जानै है तथापि इसका अर्थरूप जो भाव है तिस रूप परिणमै है। बहुरे मनुष्यादिक केई नाम. भी जाने है अर ताकै भावरूप परिणमै है, इत्यादि विशेष सम्भवै सो जान लेना। ऐसे ए मिथ्यादर्शनादिकभाव जीवकै अनादित पाइये हैं, नवीन .ग्रहे नाहीं। देखो याकी महिमा कि जो पर्याय धरै है तहाँ बिना ही सिखाए मोहके उदयतें स्वयमेव ऐसा ही परिणमन हो है। बहुरि मनुष्यादिककै सत्यविचार होने के कारण मिले तो भी सम्यक् परिणमन होय नाहीं। अर श्रीगुरुके उपदेशका निमित्त बनै, वे बारबार समझावै, यह कछु विचार कर नाहीं। बहुरि आपको भी प्रत्यक्ष भासै सो तो न माने अर अन्यथा ही माने। कैसे? सो कहिए है -
मरण होते शरीर आत्मा प्रत्यक्ष जुदा होहै। एक शरीर को छोरि आत्मा अन्य शरीर धरै है सो व्यंतरादिक अपने पूर्व भवका सम्बन्ध प्रगट करते देखिए है परन्तु याकै शरीर भिन्नबुद्धि न होय सके है। स्त्री-पुत्रादिक अपने स्वार्थके सगे प्रत्यक्ष देखिए हैं। उनका प्रयोजन न सधै तब ही विपरीत होते देखिए हैं। यहु तिन विषै ममत्व करै है अर तिनके अर्थि नरकादिकविषै गमनको कारण नाना पाप उपजावै है। धनादिक सामग्री अन्यकी होती देखिए है, यहु तिनको अपनी मानै है; बहुरि शरीर की अवस्था वा बाह्यसामग्री स्वयमेव होती विनशती दीसै है, यहु वृथा आप कर्ता हो है। तहाँ जो अपने मनोरथ अनुसार कार्य होय ताको तो कहै मैं किया अर अन्यथा होय ताको कहै मैं कहा कसै? ऐसे ही होना था वा ऐने क्यों भया ऐसा मान है। सो के तो सर्व का कर्ता ही होना था, के अकर्ता रहना था सो विचार नाहीं। बहुरि मरण अवश्य होगा ऐसा जानै परन्तु मरण का निश्चयकरि किछु कर्तव्य करै नाहीं, इस पर्याय सम्बन्धी ही यत्न कर है। बहुरि मरणका निश्चयकरि कबहूं तो कहै मैं मरूंगा, शरीर को जलावेंगे। कबहुँ कहै मोको जलावेंगे। कबहुँ कहै जस रह्या तो हम जीवते ही हैं। कबहुँ कहै पुत्रादिक रहेंगे तो मैं ही जीऊंगा। ऐसे बाउलाकीसी नाईं बकै किछू सावधानी नाहीं। बहुरि आपके परलोकविषै प्रत्यक्ष जाता जाने, ताका तो इष्ट अनिष्ट का किछू ही उपाय नाहीं अर इहां पुत्र पोता आदि मेरी संततिविष घनेकाल ताई इष्ट रह्या करै अनिष्ट न होइ, ऐसे अनेक उपाय करै है। काहूका परलोक भए पीछे इस लोक की सामग्री करि उपकार भया देख्या नाहीं परन्तु याकै परलोक होने का निश्चय भए भी इस लोककी सामग्री ही का यतन रहे है। बहुरि विषयकषायकी प्रवृत्ति करि वा हिंसादि कार्यकरि आप दुःखी होय, खेदखिन्न होय, औरनिका वैरी
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होय, इस लोकवियु निंद्य होय, परलोकविषै बुरा होय सो प्रत्यक्ष आप जाने तथापि तिनही विषे प्रवत्तै । इत्यादि अनेक प्रकार प्रत्यक्ष भासै ताकों भी अन्यथा श्रद्धहै जाने आचरै, सो यह मोहका माहात्म्य है ऐसे यहु मिथ्यादर्शन ज्ञानचारित्ररूप अनादित जीव परिणमे है। इस ही परिणमनकरि संसारविषे अनेक प्रकार दुःख उपजावनहारे कर्मनिका सम्बन्ध पाइये है। एई भाव दुःखनिके बीज हैं, अन्य कोई नाहीं। ताते हे भव्य जो दुखते मुक्त भया चाहै तो इन मिथ्यादर्शनादिक विभावभावनिका अभाव करना, यह ही कार्य है, इस कार्य के किए तेरा परमकल्याण होगा।
इति श्रीमोक्षमार्गप्रकाशक नाम शास्त्रविषै मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रका निरूपणरूप चौथा अधिकार सम्पूर्ण भया । १४ ।।
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卐 पाँचवाँ अधिकार
विविध मत-समीक्षा
बहुविधि मिथ्या ग्रहनकरि, मलिन भयो निज भाव ।
ताको होत अभाव है, सहजरूप दरसाव।।१।। अथ यहु जीव पूर्वोक्त प्रकारकरि अनादिही मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणमे है ताकरि संसारविषै दुःख सहतो संतो कदाचित् मनुष्यादि पर्यायनि विषै विशेष श्रद्धानादि करने की शक्ति को पावै। तहाँ जो विशेष मिथ्या श्रद्धानादिकके कारणनिकरि तिन मिथ्या श्रद्धानादिकको पोषै तो तिस जीयका दुःखते मुक्त होना अति दुर्लभ हो है। जैसे कोई पुरुष रोगी है सो किछू सावधनीको पाय कुपथ्य सेवन करै तो उस रोगी का सुलझना कठिन ही होय । तैसे यह जीव मिथ्यात्वादि सहित है सो किछू ज्ञानादि शक्तिको पाय विशेष विपरीत श्रद्धानादिकके कारणनिका सेवन करै तो इस जीव का मुक्त होना कठिन ही होय। तातै जैसे वैद्य कुपथ्यनिका विशेष दिखाय तिनके सेवनको निषेथै तैसे ही इहाँ विशेष मिथ्याश्रद्धानादिक के कारणनिका विशेष दिखाय तिनका निषेध करिए है। इहाँ अनादित जे मिथ्यात्वादि भाव पाइए हैं ते तो अगृहीतमिथ्यात्वादि जानने, जाते ते नवीन ग्रहण किए नाहीं। बहुरि तिनके पुष्ट करने के कारणनिकरि विशेष मिथ्यात्वादिभाव होय ते गृहीतमिथ्यात्वादि जानने तहाँ अगृहीतमिथ्यात्यादिकका तो पूर्वे वर्णन किया है सो ही जानना अर गृहीतमिथ्यात्यादिकका अब निरूपण कीजिए है सो जानना।
गृहीत मिथ्यात्व का निराकरण कुदेव कुगुरु कुथर्म अर कल्पिततत्त्य तिनका श्रद्धान सो तो मिथ्यादर्शन है। बहुरि जिन विषै विपरीत निरूपणकरि रागादि पोषे होय ऐसे कुशास्त्र तिनविषै श्रद्धानपूर्वक अभ्यास सो मिथ्याज्ञान है बहुरि जिस आचरणविषै कषायनिका सेवन होय अर ताको धर्म रूप अंगीकार करै सो मिथ्याचारित्र है। अब इनहीका विशेष दिखाइए है-इन्द्र लोकपाल इत्यादि, बहुरि अद्वैत ब्रह्म, राम, कृष्ण, महादेव, बुद्ध, खुदा, पीर, पैगम्बर इत्यादि; बहुरि हनुमान, भेरू, क्षेत्रपाल, देवी, दिहारी, सती, इत्यादि; बहुरि गऊ, सर्प इत्यादि, बहुरि अग्नि, जल, वृक्ष इत्यादि; बहुरि शस्त्र, दावात, बासण इत्यादि अनेक तिनका अन्यथा श्रद्धानकर नीको पूजै । बहुरि तिनकरि अपना कार्य सिद्ध किया चाहै सो वे कार्य सिद्धिके कारण नाहीं, ताते ऐसे श्रद्धानको गृहीतमिथ्यात्व कहिए है। तहाँ तिनका अन्यथा श्रद्रान कैसे हो है सो कहिए है
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पाँचवाँ अधिकार - 9
सर्वव्यापी अद्वैत ब्रह्म का निराकरण
अद्वैत ब्रह्म' को सर्वव्यापी सर्वका कर्त्ता मानै सो कोई नाहीं । प्रथम वाको सर्वव्यापी मानै सो सर्व पदार्थ तो न्यारे न्यारे प्रत्यक्ष हैं वा तिनके स्वभाव न्यारे न्यारे देखिए हैं, इनको एक कैसे मानिए हैं? इनका मानना तो इनप्रकारनि करि है-एक प्रकार तो यहु है जो सर्व न्यारे-न्यारे है तिनके समुदायकी कल्पनाकरि ताका किछु नाम थरीए । जैसे घोटक हस्ती इत्यादि भिन्न-भिन्न हैं तिनके समुदाय का नाम सेना है, तिनतें जुदा कोई सेना वस्तु नाहीं । सो इस प्रकारकरि सर्वपदार्थनिका जो नाम ब्रह्म है तो ब्रह्म कोई जुदा वस्तु तो न ठहराया, कल्पना मात्र ही ठहत्या । बहुरि एक प्रकार यहु है जो व्यक्ति अपेक्षा तो न्यारे न्यारे है तिनको जाति अपेक्षा कल्पना करि एक कहिए है। जैसे सौ घोटक (घोड़ा) हैं ते व्यक्ति अपेक्षा तो जुदे जुदे सौ ही हैं तिनके आकारादिककी समानता देखिए जाति कहैं, सो वह जाति तिनतें जुदी ही तो कोई है नाहीं । सो इस प्रकार करि जो सबानकी कोई एक जाति अपेक्षा एक ब्रह्म मानिए है तो ब्रह्म जुदा तो कोई न ठहरथा, इहाँ भी कल्पना मात्र ही ठहराया। बहुरि एक प्रकार यहु है जो पदार्थ न्यारे-न्यारे हैं तिनके मिलाप एक स्कंध होय ताकों एक कहिए। जैसे जलके परमाणु न्यारे-न्यारे हैं तिनका मिलाप भए समुद्रादि कहिए अथवा जैसे पृथ्वी के परमाणूनिका मिलाप भए घट आदि कहिए सो इहाँ समुद्रादि वा घटादिक हैं ते तिन परमाणूनि भिन्न कोई जुदा तो वस्तु नाहीं । सो इस प्रकार करि जो सर्व पदार्थ न्यारे-न्यारे हैं परन्तु कदाचित् मिलि एक हो जाय हैं सो ब्रह्म है ऐसे मानिए तो इन जुदा तो कोई ब्रह्म न ठहरथा । बहुरि एक प्रकार यहु है जो अंग तो न्यारे-न्यारे हैं अर जाके अंग हैं सो अंगी एक है। जैसे नेत्र, हस्त पादादिक भिन्न-भिन्न हैं अर जाके ए हैं सो मनुष्य एक है। सो इस प्रकार करि जो सर्व पदार्थ तो अंग हैं अर जाके ए हैं सो अंगी ब्रह्म है। यह सर्व लोक विराट स्वरूप ब्रह्म का अंग है, ऐसे मानिए तो मनुष्य के हस्तपादादिक अंगनिकै परस्पर अंतराल भए तो एकत्वपना रहता नाहीं जुड़े रहै ही एक शरीर नाम पावै । सो लोकविषै तो पदार्थनिकै अंतराल परस्पर भारी है । याका एकत्वपना कैसे मानिए ? अंतराल भए भी एकत्व मानिए तो भिन्नपना कहाँ मानिएगा ।
इहाँ कोऊ कहै कि समस्त पदार्थनिकै मध्यविषे सूक्ष्मरूप ब्रह्म के अंग हैं तिनकरि सर्व जुरि रहे हैं, ताको कहिए है
जो अंग जिस अंग जुरचा है, तिनही जुरबा रहे है कि टूटि टूटि अन्य अन्य अंगनिस्यों जुरा करे है। जो प्रथम पक्ष ग्रहेगा तो सूर्यादि गमन करे है, तिनकी साथि जिन सूक्ष्म अंगनितें वह जुरै है ते भी
१. “सर्व वै खल्विदं ब्रह्म" छान्दोग्योपनिषद् प्र. ३ खं. १४ म. १ ।
"नेह नानास्ति किंचन" कठोपनिषद् अ. २ वा. ४१ मं. ११।
ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद् ब्रह्म दक्षिणतश्थोत्तरेण ।
. अधश्चोर्ध्व च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम् ।। मुण्डको खंड २, मं. ११ ।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-८२
गमन करै। बहुरि उनको गमन करते वे सूक्ष्म अंग अन्य स्थूल अंगनित जुरे रहैं, ते भी गमन करै हैं सो ऐसे सर्व लोक अस्थिर होइ जाय। जैसे शरीर का एक अंग खींचे सर्व अंग खींचे जाय, तैसे एक पदार्थ को गमनादि करते सर्व पदार्थनिका गमनादि होय सो भारी नाहीं। बहुरि जो द्वितीय पक्ष ग्रहेगा तो अंग टूटनेते भिन्नपना होय ही जाय तब एकत्वएना से रहा? नाते सर्चगेक के एकत्व को ब्रह्म मानना कैसे सम्भवै? बहुरि एक प्रकार यहु है जो पहले एक था, पीछे अनेक भया बहुरि एक होय जाय तातै एक है। जैसे जल एक था सो बासणनिमें जुदा-जुदा भया बहुरि मिले तब एक होय वा जैसे सोना का गदा' एक था सो कंकण कुंडलादिरूप भया, बहुरि मिलकर सोनाका गदा होय जाय । तैसे ब्रह्म एक था पीछे अनेकरूप भया बहुरि एक होयगा तातै एक ही है। इस प्रकार एकत्व माने है तो जब अनेक रूपमया तब जुत्या रह्या कि भिन्न भया। जो जुस्या रह्या कहेगा तो पूर्वोक्त दोष आवेगा। भिन्न भया कहेगा तो तिस काल तो एकत्व न रह्या । बहुरि जल सुवर्णादिकको भिन्न भए भी एक कहिए है सो तो एक जाति अपेक्षा कहिए है सो सर्व पदार्थनि की एक जाति मासे नाहीं। कोऊ चेतन है, कोऊ अचेतन है इत्यादि अनेकरूप है तिनकी एक जाति कैसे कहिए? बहुरि पहिले एक था पीछे भिन्न भया माने है तो जैसे एक पाषाण फूटि टुकड़े होय जाय है तैसे ब्रह्म के खंड होय गए, बहुरि तिनका एकट्ठा होना मान है तो तहाँ तिनका स्वरूप भिन्न रहै है कि एक होइ जाय है। जो भिन्न रहै है तो तहाँ अपने-अपने स्वरूपकरि भिन्न ही है अर एक होइ जाय है तो जड़ भी देतन होइ जाय वा चेतन जड़ होइ जाय। तहाँ अनेक वस्तुनिका एक वस्तु भया तब काहू कालविषै अनेक वस्तु, काहू कालविषै एक वस्तु ऐसा कहना बनै। अनादि अनन्त एक ब्रह्म है ऐसा कहना बनै नाहीं । बहुरि जो कहेगा लोकरचना होते वा न होतें ब्रह्म जैसा का तैसा ही रहै है, तातें ब्रह्म अनादि अनन्त है। सो हम पूछे हैं, लोकवि पृथिवी जलादिक देखिए हैं ते जुदे नवीन उत्पन्न भए हैं कि ब्रह्म ही इन स्वरूप भया है? जो जुदे नवीन उत्पन्न भए हैं तो ए न्यारे भए, ब्रह्म न्यारा रहा, सर्वव्यापी अद्वैतब्रह्म न ठहरया। बहुरि जो ब्रह्म ही इन स्वरूप भया तो कदाचित् लोक भया, कदाचित् ब्रह्म भया तो जैसा का तैसा कैसे रह्या? बहुरि वह कहै है जो सब ही ब्रह्म तो लोकस्वरूप न हो है, वाका कोई अंश हो है। ताको कहिए है-जैसे समुद्रका एक विन्दु विषरूप भया तहाँ स्थूलदृष्टिकरि तो गम्य नाहीं। परन्तु सूक्ष्मदृष्टि दिए तो एक बिन्दु अपेक्षा समुद्रकै अन्यथापना भया तैसे ब्रह्मका एक अंश भिन्न होय लोकरूप भया तहाँ स्थूल विचारकरि तो किछू गम्य नाहीं परन्तु सूक्ष्मविचार किए तो एक अंश अपेक्षा ब्रह्मकै अन्यथापना भया । यह अन्यथापना और तो काहूकै भया नाहीं । ऐसे सर्वरूप ब्रह्म को मानना भ्रम ही है।
बहुरि एक प्रकार यहु है जैसे आकाश सर्वव्यापी एक है तैसे ब्रह्म सर्वव्यापी एक है। जो इस प्रकार मान है तो आकाशक्त बड़ा ब्रह्मको मानि वा जहाँ घटपटादिक हैं तहाँ जैसे आकाश है तैसे तहाँ ब्रम भी है ऐसा 'मी मानि । परन्तु जैसे घटपटादिकको अर आकाश को एक ही कहिए तो कैसे बने? तैसे लोकको अर ब्रह्म को एक मानना कैसे सम्भवै? बहुरि आकाश का तो लक्षण सर्वत्र मासै है तातै ताका तो सर्वत्र सदभाव मानिए है। ब्रह्म का तो लक्षण सर्वत्र भासता नाही नातें ताका सर्वत्र सद्भाव कैसे मानिए? ऐसे इस
म वा पामा।
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पांचवा अधिकार-८३
प्रकारकरि भी सर्वरूप एक ब्रह्म नाहीं है। ऐसे ही विचारकर किसी भी प्रकारकरि एक ब्रह्म सम्भवै नाहीं। सर्व पदार्थ भिन्न-भिन्न ही भारी हैं।
इहां प्रतिवादो कहे हैं. जो सर्व एक ही है परन्तु तुम्हारे भ्रम है तात तुमको एक मासै नाहीं । बहुरि तुम युक्ति कही सो ब्रह्म का स्वरूप युक्तिगभ्य नाहीं, वचन अगोचर है। एक भी है, अनेक भी है। जुदा भी है, मिल्या भी है। वाकी महिमा ऐसी ही है । ताको कहिए है-जो प्रत्यक्ष तुझको वा हमको दा सबनिको भारी, ताको तो तू भ्रम कहै अर युक्तिकरि अनुमान करिए सो तू कहे कि सांचा स्वरूप युक्तिगम्य है ही नाहीं। बहुरि वह कहै, सांचास्वरूप वचन अगोचर है तो वचन बिना कैसे निर्णय करे? बहुरि कहै-एक भी है अनेक भी है; जुदा भी है, मिल्या भी है सो तिनकी अपेक्षा बताद नाही, बाउलेकीसी नाई ऐसे भी है, ऐसे भी है ऐसा कहि याकी महिमा बतावै । सो जहाँ न्याय न होय है तहां झूठे ऐसे ही वाचालपना करै है सो करो, न्याय तो जैसे सांच है तैसे ही होयगा ।
__ब्रह्म की इच्छा से जगत के सृष्टि-कर्तृत्व का निराकरण
बहुरि अब तिस ब्रह्मको लोक का कर्ता माने है ताको मिथ्या दिखाइए है-प्रथम तो ऐसा मानै है जो ब्रह्मकै ऐसी इच्छा भई कि "एको ऽहं बहुस्याम्” कहिए मैं एक हूँ सो बहुत होस्तूं। तहाँ पूछिए है-पूर्व अवस्था में दुःखी होय तब अन्य अवस्था को चाहै । सो ब्रह्म एकरूप अवस्था बहुत रूप होने की इच्छा करी सो तिस एक रूप अवस्थाविषै कहा दुःख था? तब वह कहै है जो दुःख तो न था, ऐसा ही कौतूहल उपज्या। ताको कहिए है- जो पूर्वे थोरा सुखी होय अर कौतूहल किए घना सुखी होय सो कौतूहल करना विचारै। सो ब्रह्मकै एक अवस्थाः बहुत अवस्थारूप भए घना सुख होना कैसे सम्भवै? बहुरि जो पूर्वे ही सम्पूर्ण सुखी होय तो अवस्था काहेको पलटै। प्रयोजन बिना तो कोई किछू कर्तव्य करै नाहीं । बहुरि पूर्वे भी सुखी होगा, इच्छा अनुसारि कार्य भए भी सुखी होगा परन्तु इच्छा मई तिस काल तो दुःखी होय । तब वह कहै है, ब्रह्मकै जिस काल इच्छा हो है तिस काल ही कार्य हो है ता दुःखी न हो है। तहाँ कहिएस्थूलकाल की अपेक्षा तो ऐसे मानो परन्तु सूक्ष्मकाल की अपेक्षा तो इच्छा का अर कार्य का होना युगपत् सम्भवे नाहीं। इच्छा तो तब ही होय जब कार्य न होय । कार्य होय तब इच्छा न रहै, तातै सूक्ष्मकाल मात्र इच्छा रही तब तो दुःखी भया होगा। जातें इच्छा है सो ही दुःख है, और कोई दुःख का स्वरूप है नाहीं। तातें ब्रह्मकै इच्छा कैसे बनै?
ब्रह्म की माया का निराकरण बहुरि वे कहै हैं, इच्छा होते ब्रह्म की माया प्रगट भई सो ब्रह्मके माया मई तब ब्रह्म भी मायावी भया, शुद्धस्वरूप कैसे रहा? बहुरि ब्रह्मकै अर मायाकै दंडी-दंडवत संयोग सम्बन्ध है कि अग्नि-उष्णवत् समवायसम्बन्ध है। जो संयोगसम्बन्ध है तो ब्रह्म भिन्न है, माया भिन्न है, जद्वैत ब्रह्म कैसे रह्या? बहुरि जैसे दंडी दंडको उपकारी जानि ग्रहै है तैसे ब्रह्म मया को उपकारी जानै है तो ग्रहै है, नाहीं तो काहेको ग्रहै? बहुरि जिस माया को ब्रह्म ग्रहै ताका निषेध करना कैसे सम्भवै वह तो उपादेय मई। बहुरि जो
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - ८४
समवायसम्बन्ध है तो जैसे अग्नि का उष्णत्व स्वभाव है तैसे ब्रह्मका मायास्वभाव ही भया । जो ब्रह्म का स्वभाव है ताका निषेध करना कैसे सम्भवै? यहु तो उत्तम भई ।
बहुरि ये कहे हैं कि ब्रह्म तो चैतन्य है, माया जड़ है सो समवाय संबंधविषे ऐसे दोय स्वभाव सम्भयै नाहीं । जैसे प्रकाश अर अन्धकार एकत्र कैसे सम्भवे ? बहुरि वह कहे है- मायाकरि ब्रह्म आप तो भ्रमरूप होता नाहीं, ताकी माया करि जीव भ्रमरूप हो है। ताको कहिए है- जैसे कपटी अपने कपट को आपजाने सो आप भ्रमरूप न होय, वाके कपटकरि अन्य भ्रम रूप होय जाय । तहाँ कपटी तो वाही को कहिए जाने कपट किया. ताके काटकर अन्य भ्रमरूप भए तिनकों तो कपटी न कहिए। तैसे ब्रह्म अपनी मायाको आप जानै सो आप तो भ्रमरूप न होय, वाकी मायाकरि अन्य जीव भ्रमरूप होय हैं। तहाँ मायायी तो ब्रह्म ही को कहिए, ताकी मायाकरि अन्य जीव भ्रमरूप भए तिनको मायावी काहेको कहिए है।
बहुरि पूछिए है, वे जीव ब्रह्म तें एक हैं कि न्यारे हैं। जो एक हैं तो जैसे कोऊ आपही अपने अंगनिको पीड़ा उपजावै तो ताको बाउला कहिए है तैसे ब्रह्म आप ही आपतै भिन्न नाहीं ऐसे अन्य जीव तिनको मायाकरि दुःखी करे है सो कैसे बने? बहुरि जो न्यारे हैं तो जैसे कोऊ भूत बिना ही प्रयोजन औरनिको भ्रम उपजाय पीड़ा उपजावै तैसे ब्रह्म बिना ही प्रयोजन अन्य जीवनि को माया उपजाय पीड़ा उपजावै सो भी बने नाहीं। ऐसे माया ब्रह्म की कहिए है सो कैसे सम्भवे ?
जीवों की चेतना को ब्रह्म की चेतना मानने का निराकरण
बहुरि वे कहें हैं, माया होतें लोक निपज्या तहाँ जीवनिकै जो चेतना है सो तो ब्रह्मस्वरूप है। शरीरादिक माया है, तहाँ जैसे जुदे जुदे बहुत पात्रनिविषै जल भरया है; तिन सबनिविषै चन्द्रमाका प्रतिबिम्ब जुदा-जुदा पड़े है, चन्द्रमा एक है। तैसे जुदे जुदे बहुत शरीरनिविषे ब्रह्म का चैतन्य प्रकाश जुदा-जुदा पाइए है । ब्रह्म एक है । '
तार्तें जीवनिकै चेतना है सो ब्रह्म की है। सो ऐसा कहना भी भ्रम ही है जातें शरीर जड़ है या विषै ब्रह्म का प्रतिबिंब चेतना भई तो घटपटादि जड़ है तिनविषै ब्रह्म का प्रतिबिंब क्यों न पड्या अर चेतना क्यों न भई ? बहुरि वह कहे है शरीर को तो चेतन नाहीं करे है, जीवको करे है। तब वाको पूछिए है कि जीवका स्वरूप चेतन है कि अचेतन है। जो चेतन है तो चेतन का चेतन कहा करेगा। अचेतन है
१. कपिल, आसुरि पंचशिख, पतंजलि आदि आचार्य, पुरुष की अनेकता का निरूपण करते हैं जबकि हरिहर, हिरण्यगर्भ, व्यास प्रभृति वेदवादी आचार्य सभी व्यक्तियों में एक ही आत्मा के अस्तित्व का प्रतिपादन करते हैं। उनका कथन है कि प्राणिमात्र में एक आत्मा वैसे ही प्रतिष्ठित है जैसे कि एक ही चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब अनेक जलाशयों में अनेक दिखता
एक एव हि भूतात्मा भूते- भूते व्यवस्थितः । एकथा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥
- ब्रह्ममिन्दुपनिषद् १०२
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पंचवा अधिकार-८५
तो शरीर की वा घटादिक की या जीव की एक जाति भई। बहुरि वाकों पूछिए है- ब्रह्म की अर जीवनि की चेतना एक है कि भिन्न है। जो एक है तो ज्ञानका अधिकहीनपना कैसे देखिए है। बहुरि ए जीव पास्पर वह वाकी जानी को न जानै. वह बाकी जानी को न जानै सो कारण कहा? जो त कहेगा. यह घट उपाथि भेद है तो घट उपाधि होते तो चेतना भिन्न-भिन्न टहरी। घट उपाधि मिटे याकी चेतना ब्रह्म में निलेगी के नाश हो जायगी? जो नाश हो जायगी तो यहु जीव तो अचेतन रह जायेगा। अर तू कहेगा जीव ही ब्रह्म में मिल जाय है तो तहाँ ब्रह्मविषै मिले याका अस्तित्व रहे है कि नाहीं रहै है। जो अस्तित्व रहे है तो यहु रह्या, याकी चेतना याकै रही, ब्रह्मविषै कहा मिल्या? अर जो अस्तित्व न रहै है तो ताका नाश ही भया, ब्रह्मविषै कौन मिल्या? बहरि जो त कहेगा- बह्म की अर जीवनिकी चेतना भिन्न है तो ब्रह्म अर सर्वजीव आप ही भिन्न-भिन्न ठहरे। ऐसे जीवनि के चेतना है सो ब्रह्म की है, ऐसे भी बनै नाहीं।
शरीरादिक को मायारूप मानने का निराकरण ___ शरीरादिक माया के कहो हो सो माया ही हाड़-मांसादिरूप हो है कि माया के निमित्ततें और कोई तिनरूप हो है। जो माया ही होय तो मायाकै वर्ण गंधादिक पूर्व ही थे कि नवीन भए। जो पूर्व ही थे तो पू] तो माया ब्रह्मकी थी, ब्रह्म अमूर्तीक है तहाँ वर्णादि कैसे सम्भवै ? बहुरि जो नवीन भए तो अमूर्तीक का मूर्तीक भया तब अमूर्तीक स्वभाव शाश्वता न टहत्या । बहुरि जो कहेगा, माया के निमित्त तैं और कोई हो है तो और पदार्थ तो तू ठहरावतां ही नाहीं, भया कौन? जो तू कहेगा नवीन पदार्थ निपजे । तो ते मायाः भिन्न निपजे कि अभिन्न निपजे। माया” भिन्न निपजे तो मायामयी शरीरादिक काहेको कहै, वे तो तिनपदार्थमय भए। अर अभिन्न निपजे तो नाया ही तद्रूप भई, नवीन पदार्थ निपजे काहेको कहै; ऐसे शरीरादिक मायास्वरूप हैं, ऐसा कहना भ्रम है।
बहुरि वे कई हैं, माया ते तीन गुण निफ्जै-राजस १ तामस २ सात्विक ३। सो यह भी कहना कैसे बनै? जातें मानादि कषायरूप भावको राजत कहिए है, क्रोधादिकषायरूप भावको तामस कहिए है, मंदकषायरूप भावको सात्विक कड़िए है। सो ए तो भाव चेतनमई प्रत्यक्ष देखिए है अर माया का स्वरूप जड़ कहो हो सो जड़ते ए भाव कैसे निपजे। जो जड़के भी होई तो पाषाणादिककै भी होता सो तो चेतनास्वरूप जीव तिनहीके ए भाव दीसे हैं। तातें ए भाव मायाः निपजे नाहीं । जो माया को चेतन ठहरावै तो यहु माने। सो मायाको चेतन ठहराए शरीरादिक मायात निपजे कहेगा तो न मानेंगे त” निर्धारकर, भ्रमरूप माने नफा कहा है?
तीन गुणों से तीन देयों की उत्पत्ति का निराकरण बहुरि वे कहै हैं तिन मुणनि तें ब्रह्मा विष्णु महेश ए तीन देव प्रगट भए सो कैसे सम्भवे? जाते गुणीत तो गुण होइ, गुणत गुणी कैसे निपजै। पुरुषते तो क्रोध होय, क्रोधः पुरुष कैसे निपजै । बहुरि इन गुणनिकी तो निन्दा करिए है। इनकरि निपजै ब्रह्मादिक तिनको पूज्य कैसे मानिए है। बहुरि गुण तो मायामई
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मोक्षमार्ग प्रकाशक- ८६
अर इनको 'ब्रह्म के अवतार " कहिए है सो ए तो माया के अवतार भए, इनको ब्रह्म के अवतार कैसे कहिए है? बहुरि ए गुण जिनके धोरे भी पाइए तिनको तो इनके छुड़ावने का उपदेश दीजिए अर जे इनही की मूर्ति तिनको पूज्य मानिए, यह कहा भ्रम है। बहुरि तिनका कर्तव्य भी इनमेंही भारी है। कौतूहलादिक वा स्त्रीसेवनादिक वा युद्धादिक कार्य करे है सो तिन राजसादि गुणनिकर ही एक क्रिया हो है सो इनके राजसादिक पाइये हैं ऐसा कहा । इनको पूज्य कहना, परमेश्वर कहना तो बने नाहीं । जैसे अन्य संसारी हैं। तैसे ए भी हैं। बहुरि कदाचित् तू कहेगा, संसारी तो माया के आधीन हैं सो बिना जाने तिन कार्यनिको करें हैं। ब्रह्मादिक कै माया आधीन है सो ए जानते ही इन कार्यनिको करै है । सो यहु भी भ्रम ही है। जातैं माया के आधीन भए तो काम-क्रोधादिक ही निपजै है, और कहा हो है । सो ए ब्रह्मादिकनिकै तो काम क्रोधादिककी तीव्रता पाइए है। काम की तीव्रताकरि स्त्रीनिके वशीभूत भए नृत्यगानादि करते भए, विल्ल होते भए, नाना प्रकार कुचेष्टा करते भए, बहुरि क्रोध के वशीभूत भए अनेक युद्धादि कार्य करते भए, मान के वशीभूत भए आपकी उच्चता प्रगट करने के अर्थि अनेक उपाय करते भए, माया के वशीभूत भए अनेक छल करते भए, लोभ के वशीभूत भए परिग्रह का संग्रह करते भए इत्यादि बहुत कहा कहिए। ऐसे वशीभूत भए चीरहरणादि निर्लज्जनिकी क्रिया और दधि-लुन्टनादि चौरनिकी क्रिया अर रुंडमाला धारणादि बाउलेनिकी क्रिया बहुरूपधारणादि भूतनिकीक्रिया, गउचारणादि नीच कुलवानों की क्रिया इत्यादिजे निंद्य क्रिया तिनकों तो करते भए, यातैं अधिक माया के वशीभूत भए कहा क्रिया हो है सो जानी न परी । जैसे कोऊ मेघपटलसहित अमावस्या की रात्रि को अंधकार रहित मानै तैसे बाह्य कुचेष्टा सहित तीव्र काम क्रोधादिकनिके धारी ब्रह्मादिकनिको मायारहित मानना है।
'लीला से सृष्टिरचना' का निराकरण
I
बहुरि वह कहै है कि इनको काम क्रोधादि व्याप्त नाहीं होता, यहु भी परमेश्वर की लीला है । याको कहिए है-ऐसे कार्य करे है ते इच्छाकरि करे है कि बिना इच्छा करे है। जो इच्छाकरि करे है तो स्त्रीसेवन की इच्छाही का नाम काम है, युद्ध करने की इच्छाही का नाम क्रोध है, इत्यादि ऐसे ही जानना । बहुरि ज़ो बिना इच्छा करे है तो आप जाको न चाहे ऐसा कार्य तो परवश भए ही होय, सो परवशपना कैसे सम्भवे ? बहुरि तू लीला बतावै है सो परमेश्वर अवतार धारि इन कार्यनिकरि लीला करे है तो अन्य जीवनिकों इन कार्यनित छुड़ाय मुक्त करने का उपदेश काहेको दीजिए है। क्षमा, सन्तोष, शील, संयमादिकका उपदेश सर्व झूठा भया ।
ब्रह्मा, विष्णु और शिव ये तीनों ब्रह्म की प्रधान शक्तियाँ हैं।
- विष्णु पु. अ. २२-५८
कलिकाल प्रारम्भ में परब्रह्म परमात्माने रजोगुण से उत्पन्न होकर ब्रह्मा बनकर प्रजा की रचना की । प्रलय के समय तमोगुण से उत्पन्न हो काल (शिव) बनकर उस सृष्टि को ग्रस लिया। उस परमात्मा ने सत्वगुण से उत्पन्न हो नारायण बनकर समुद्र में शयन किया।
वायु पु. अ. ७-६८, ६६ /
२. नानारूपाय मुण्डाय वरूथपृथुदण्डिने ।
नमः कपालहस्ताय दिग्वासाय शिखण्डिने ।। मत्स्य पु. अ. २५०, श्लोक २ ।
9.
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पाँचवा अधिकार-१७
'जीदों के निग्रह अनुग्रह के लिए सृष्टि एपना' का निराकरण बहुरि वह कहै है कि परमेश्वर को तो किछू प्रयोजन नाहीं। लोकरीतिकी प्रवृत्ति के अर्थि वा भक्तनिकी रक्षा, दुष्टनिका निग्रह ताके अर्थि अवतार धरै' है तो याको पूछिए है- प्रयोजन विना चीटी हू कार्य न करे, परमेश्वर काहेको करै। बहुरि नैं प्रयोजन भी कह्या, लोकरीतिकी प्रवृत्ति के अर्थि करै है। सो जैसे कोई पुरुष आप कुचेष्टाकरि अपने पुत्रनिको सिखावै बहुरि वे तिस चेष्टा रूप प्रवर्ते तब उनको मारै तो ऐसे पिता को भला कैसे कहिए तैसे ब्रह्मादिक आप कामक्रोधरूप चेष्टाकरि अपने निपजाए लोकनिकों प्रवृत्ति कराये। बहुरि ये लोक तैसे प्रवर्ते तब उनको नरकादिक विषे डारै। नरकादिक इनही भावनिका फल शास्त्रविषै लिख्या है सो ऐसे प्रभुको भला कैसे मानिए? बहुरि से यह प्रयोजन कह्या भक्तनिकी रक्षा, दुष्टनिका निग्रह करना। सो भक्तनिको दुखदायक जे दुष्ट भए ते परमेश्वर की इच्छाकरि भए कि बिना इच्छाकार भए। जो इच्छाकरि भए तो जैसे कोऊ अपने सेवक को आप ही काहू को कहकर मरावै बहुरि पीछे तिस मारने वाला को आप मारै सो ऐसे स्वामी को भला कैसे कहिए। तैसे ही जो अपने भक्तको आप ही इच्छाकरि दुष्टनिकरि पीड़ित करावै बहुरि पीछे तिन दुष्टनिकों आप अवतारधारि मारै तो ऐसे ईश्वर को भला कैसे मानिए? बहुरि जो तू कहेगा कि बिना इच्छा दुष्ट 'मए तो के तो परमेश्वरकै ऐसा आगामी ज्ञान न होगा जो ए दुष्ट मेरे भक्तनिको दुःख देवेंगे, कै पहिलै ऐसी शक्ति न होगी जो इनको ऐसे न होने है। बहुरि वाको पूछिए है जो ऐसे कार्य के अर्थि अवतार धात्या, सो कहा बिना अवतार थारे शक्ति थी कि नाहीं। जो थी तो अवतारकाहेको थारै अर न थी तो पीछे सामर्थ्य होने का कारण कहा भया। तब वह कहै है- ऐसे किए बिना परमेश्वर की महिमा प्रगट कैसे होच। याकों पूछिए है कि अपनी महिमा के अर्थि अपने अनुचरनिका पालन करे, प्रतिपक्षीनिका निग्रह करै सो ही राग द्वेष है। सो रागद्वेष तो लक्षण संसारी जीवका है। जो परमेश्वरकै भी रागद्वेष पाइए है तो अन्य जीवनिका रागद्वेष छोरि समता भाव करने का उपदेश काहेको दीजिए। बहुरि रागद्वेष के अनुसारि कार्य करना विचास्था सो कार्य थोरे वा बहुत काल लागे बिना होय नाही, तावत् काल आकुलता भी परमेश्वर के होती होसी। बहुरि जैसे जिस कार्य को छोटा आदमी ही कर सके तिस कार्य को राजा आप आय करे तो किष्ट राजा की महिमा होती नाही, निन्दा ही होय । तैसे जिस कार्य को राजा वा व्यंतरदेवादिक करि सके तिस कार्यको परमेश्वर आप अवतार धारि करे ऐसा मानिए तो किछू परमेश्वर की महिमा होती नाही, निन्दा ही है। बहुरि महिमा तो कोई और होय ताको दिखाइए है। तू तो अद्वैत ब्रह्म मान है, कौनको महिमा दिखावै है। अर महिमा दिखावने का फल तो स्तुति करावना है सो कौनपै स्तुति कराया चाहै है। बहुरि तू तो कहै है सर्व जीव परमेश्वर की इच्छा अनुसारि प्रवर्ते हैं अर आपके स्तुति करावने की इच्छा है तो सबकों अपनी स्तुतिरूप प्रवर्तावो, काईको अन्य कार्य करना परै। तातै महिमा के अर्थि भी कार्य करना न बने ।
बहुरि यह कई है-परमेश्वर इन कार्यनिकों करता संता भी अकर्ता है, वाका निर्धार होता नाहीं । १. परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्मनामि युगे युगे।।।। -गीता ४-८
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-८८
याको कहिए है-तू कहेगा यह मेरी माता भी है अर बांझ भी है तो तेरा कह्या कैसे मानेंगे जो कार्य करे ताको अकर्ता कैसे मानिए। अर तू कहे निर्धार होता नाहीं सो निर्धार बिना मानि लेना ठहत्या तो आकाश के फूल, गधे के सींग भी मानो, सो ऐसा असम्भव कहना युक्त नाहीं। ऐसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश का होना कहै है सो मिथ्या जानना। ब्रह्मा-विष्णु-महेश का सृष्टिका कर्ता, रक्षक और संहारकपने का निराकरण
बहुरि वे कहै हैं-ब्रह्मा तो सृष्टिको उपजावै है, विष्णु रक्षा करै है, महेश संहार कर है सो ऐसा कहना भी न सम्भवै है। जात इन कार्यनिको करते कोऊ किछू किया चाहै कोऊ किछू किया चाहै तब परस्पर विरोध होय । अर जो तू कहेगा, ए तो एक परमेश्वरका ही स्वरूप है, विरोध काहेको होय । तो आप ही उपजावै, आप ही क्षपावै ऐसे कार्य में कौन फल है। जो सृष्टि अपको अनिष्ट है तो काहेको उपजाई अर इष्ट है तो काहे को क्षपाई। अर जो पहिले इष्ट लागी तब उपजाई, पीछे अनिष्ट लागी तब क्षपाई ऐसे है तो परमेश्वर का स्वभाव अन्यथा भया कि सृष्टि का स्वरूप अन्यथा भया । जा प्रथम पक्ष ग्रहेगा तो परमेश्वर का एक स्वभाव न ठहस्था। सो एक स्वभाव न रहने का कारण कौन है? सो बताय, बिना कारण स्वभाव की पलटनि काहेको होय । अर द्वितीय पक्ष ग्रहेगा तो सृष्टि तो परमेश्वर के आधीन थी, वाकों ऐसी काहेको होने दीनी जो आप को अनिष्ट लागे।
बहुरि हम पूछे हैं-ब्रह्मा सृष्टि उपजावै है सो कैसे उपजावै है। एक तो प्रकार यह है-जैसे मन्दिर चुननेवाला चूना पत्थर आदि सामग्री एकटी करि आकारादि बनावै है तैसे ही ब्रह्मा सामग्री एकटी करि सृष्टि रचना करै है तो ए सामग्री जहाँ से ल्याय एकटी करी सो ठिकाना बताय। अर एक ब्रह्मा ही एती रचना बनाई सो पहले पीछे बनाई होगी के अपने शरीर के हस्तादि बहुत किए होंगे सो कैसे है सो बताय। जो बतावेगा तिसही में विचार किए विरुद्ध मासेगा।
बहुरि एक प्रकार यहु है- जैसे राजा आज्ञा करै ताके अनुसार कार्य होय, तैसे ब्रह्मा की आज्ञाकार सृष्टि निपजै है तो आज्ञा कौनको दई। अर जिनको आज्ञा दई वे कहांत सामग्री ल्याय कैसे रचना करे हैं सो बताय।
बहुरि एक प्रकार यहु है- जैसे ऋद्धिधारी इच्छा करै लाके अनुसारि कार्य स्वयमेव बनै। तैसे ब्रह्मा इच्छा करै ताके अनुसारि सृष्टि निपजै है तो ब्रह्मा तो इच्छाही का कर्ता भया, लोक तो स्वयमेव ही निपज्या। बहुरि इच्छा तो परमब्रह्म कीन्ही ही थी, ब्रह्माका कर्तव्य कहा भया जातें ब्रह्मा को सृष्टि का निपजायनहारा कह्या। बहुरि तू कहेगा परमब्रह्म भी इच्छा करी अर ब्रह्मा भी इच्छा करी तब लोक निपज्या तो जानिए है केवल परमब्रह्मकी इच्छा कार्यकारी नाहीं। तहाँ शक्तिहीनपना आया।
बहुरि हम पूछे हैं- जो लोक बनाया हुवा बने है तो वनावनहारा तो सुखके अर्थ बनावै सो इन्ट ही रचना करै। इस लोकविषै तो इष्ट पदार्थ थोरे देखिए हैं, अनिष्ट घने देखिए हैं। जीवनिविषे देवादिक धनाए सो तो रमनेके अर्थि वा भक्ति करावनेके अर्थि इष्ट बनाए अर लट कीड़ी कूकरे सूर सिंहादिक बनाए
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पाँचवाँ अधिकार-१६
सो किस अर्थि बनाए । ए तो रमणीक नाही, भक्ति करते नाहीं। सर्व प्रकार अनिष्ट ही हैं। बहुरि दरिद्री दुःखी नारकीनिको देखे आपको जुगुप्सा ग्लानि आदि दुःख ही उपजे ऐसे अनिष्ट काहेको बनाए। तहाँ वह कहै है-कि जीव अपने पापकरि लट कीड़ी दरिद्री नारकी आदि पर्याय भुगते हैं। याको पूछिए है कि पीछे तो पापहीका फलत ए पर्याय भए कहो परन्तु पहिले लोकरचना करते ही इनको बनाए सो किस अर्थि बनाए। बहुरि पीछे जीव पापरूप परिणए सो कैसे परिणए। जो आपही परिणए कहोगे तो जानिए है ब्रह्मा पहले तो निपजाए पीछे वे याकै आधीन न रहे। इस कारण ब्रह्माको दुःख ही भया। बहुरि जो कहोगे-ब्रह्माके परिणमाए परिणमै हैं तो तिनको पापरूप काहेको परिणमाए। जीव तो आपके निपजाए थे उनका बुरा किस अर्थि किया। तातें ऐसे भी न बने । बहुरि अजीवनिविषे सुवर्ण सुगन्धादि सहित वस्तु बनाए सो तो रमणेके अर्थि बनाए, कुयर्ण दुर्गन्धादिसहित वस्तु दुःखदायक बनाए सो किस अर्थि बनाए। इनका दर्शनादिकरि ब्रह्माकै किछू सुख तो नाहीं उपजता होगा। बहुरि तू कहेगा, पापी जीवनिको दुःख देने के अर्थि बनाए। तो आपहीके निपजाए जीव तिनस्यों ऐसी दुष्टता काहे को करी जो तिनको दुःखदायक सामग्री पहले ही बनाई। बहुरि धूलि पर्वतापिता बलु केतीया ऐसी है गीत मी नाही जर दुःखदायक भी नाही, तिनको किस अर्थि बनाए । स्वयमेव तो जैसे तैसे ही होय अर बनावनहारा तो जो बनावै सो प्रयोजन लिए ही बनावै। ताते ब्रह्मा सृष्टिका कर्ता कैसे कहिए है?
बहुरि विष्णुको लोकका रक्षक कहै है। रक्षक होय सो तो दोय ही कार्य करै। एक तो दुःख उपजावने के कारण न होने दे अर एक विनशने के कारण न होने दे। सो तो लोकविषै दुःखही के उपजनेके कारण जहाँ-तहाँ देखिए हैं अर तिनकार जीवनिको दुःख ही देखिए है। क्षुधा तृषादिक लगि रहे हैं। शीत उष्णादिक कार दुःख हो है। जीय परस्पर दुःख उपजावै है, शस्त्रादि दुःख के कारण बनि रहे हैं। बहुरि विनशने के कारण अनेक बन रहे है। जीवनिके रोगादिक वा अग्नि विष शस्त्रादिक पर्यायके नाशके कारण देखिए है अर अजीवनिकै भी परस्पर विनशने के कारण देखिए हैं। सो ऐसे दोय प्रकारहीकी रक्षा तो कीन्हीं नाहीं तो विष्णु रक्षक होय कहा किया। वह कहै है- विष्णु रक्षक ही है। देखो क्षुथा तृषादिकके अर्थि अन्न जलादिक किए हैं। कीड़ी को कण कुञ्जरको मण पहुँचावै है संकटमें सहाय कर है। मरणके कारण बने टीटोडी' की सी नाई उबारै है। इत्यादि प्रकार करि विष्णु रक्षा करे है। याको कहिए है- ऐसे है तो जहाँ जीवनिकै रुघातृषादिक बहुत पीड़ें अर अन्न - जलादिक मिले नाही, संकट पड़े सहाय न होय, किंवित् कारण पाइ मरण होय जाय, तहाँ विष्णु की शक्ति हीन भई कि. वाको ज्ञान ही न भया । लोकविषै बहुत तो ऐसे ही दुःखी हो हैं मरण पादै हैं, विष्णु रक्षा काहे को न करी। तब वह कहै है, यहु जीवनिके अपने कर्तव्य का फल है। तब वाको कहिए है कि जैसे शक्तिहीन लोभी झुठा वैद्य काहूकै किछू भला होइ ताको तो कहै, मेरा किया भया है अर जहाँ बुरा होय, मरण होय तब क याका ऐसा ही होनहार था। तैसे ही तू कहै है कि भला भया तहाँ तो विष्णु का किया भया अर बुरा भया सो याका कर्तव्य का फल भया। ,, एक प्रकार का पक्षी जो एक समुद्र के किनारे रहता था। उसके अंडे समुद्र बहा ले जाता था। सो उसने दुःखी होकर
गरुड़ पक्षी की मार्फत विष्णु से अर्ज की तो उन्होंने समुद्र से अंडे दिलग दिये। पुराणों में ऐसी कया है।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-६०
ऐसी झूटी कल्पना काहेको कीजिए। के तो बुरा वा भला दोऊ विष्णु का किया कहो, के अपना कर्तव्यका फल कहो। जो विष्णु का किया भया तो घने जीव दुःखी अर शीघ्र मरते देखिए हैं सो ऐसा कार्य करै ताको रक्षक कैसे कहिए? बहुरि अपने कर्तव्य का फल है तो करेगा सो पायेगा, विष्णु कहा रक्षा करेगा? तब वह कहै है, जे विष्णु के भक्त हैं तिनकी रक्षा करै है। याको कहिए है कि जो ऐसा है तो कीड़ी कुन्जर आदि भक्त नाहीं उनकै अन्नादिक पहुंचावने विष वा संकट में सहाय होने विषै वा परण न होने विषै विष्णु का कर्त्तव्य मानि सर्व का रक्षक काहे को माने, भक्तनिही का रक्षक मानि। सो भक्तनिका भी रक्षक दीसता नाही जातें अभक्त हैं ते भक्त पुरुषनिको पीड़ा उपजावतै देखिए हैं। तब वह कहै है- धनी ही जायगा(जगह) प्रहलादादिककी सहाय करी है। याको कहै हैं- जहाँ सहाय करी तहाँ तो तू तैसे ही मानि परन्तु हम तो प्रत्यक्ष म्लेच्छ मुसलमान आदि अभक्त पुरुपनिकरि भक्त पुरुष पीड़ित होते देखि वा मन्दिरादिको विघ्न करते देखि पूछे हैं कि इहौं सहाय न करे है सो शक्ति ही नाही, कि खबर ही नाहीं। जो शक्ति नाही तो इन” भी हीनशक्तिका धारक भया। खबर ही नाहीं तो जाको एती भी खबर नाही सो अज्ञान भया । अर जो तू कहेगा, शक्ति भी है अर जान भी है, इच्छा ऐसी ही भई, तो फिर भक्तवत्सल काहेको कहे है। ऐसे विष्णु की लोक का रक्षक मानना बनता नाहो।
बहुरि वे कहै हैं- महेश संहार कर है सो वाको पूछिए है। प्रथम तो महेश संहार सदा करै है कि महाप्रलय हो है तब ही करै है। जो सदः करे है तो जैसे विष्णु की रक्षा करनेकरि स्तुति कीनी, तैसे याको संहार करवेकरि निंदा करो। जातें रक्षा अर संहार प्रतिपक्षी हैं। बहुरि यहु संहार कैसे करै है? जैसे : पुरुष हस्तादिककार काहूको मारै वा कहकरि मरावै सैसे महेश अपने अंगनिकार संहार करै है या आशाकरि मरावै है। तो क्षण-क्षण में संहार तो घने जीवनिका सर्व लोक में हो है, यह कैसे कैसे अंगनिकार या कौन कौनको आज्ञा देय युगपत् कैसे संहार कर है। बहुरि महेश तो इच्छा ही करे, याकी इच्छात स्वयमेव उनका संहार हो है। तो याके सदा काल मारने रूप दुष्ट परिणाम ही रहा करते होंगे अर अनेक जीवनिके युगपत् मारने की इच्छा कैसे होती होगी। बहुरि जे. महाप्रलय होते संहार करै है तो परमब्रह्मकी इच्छा भए करे है कि वाकी बिना इच्छा ही करै है। जो इच्छा भए करै है तो परमब्रह्म के ऐसा क्रोध कैसे भया जो सर्वका प्रलय करने की इच्छा भई। जाते कोई कारण बिना नाश करने की इच्छा होय नाहीं। अर नाश करने की जो इच्छा ताहीका नाम क्रोध है सो कारन बताय। बहुरि तू कहेगा-परमब्रह्म यह ख्याल (खेल) बनाया था बहुरि दूर किया, कारन किछू भी नाहीं। तो ख्याल बनायने वाला को भी ख्याल इष्ट लागै तब बनावै है, अनिष्ट लागै है तब दूरकरे है। जो याको यहु लोक इष्ट अनिष्ट लागै है तो याके लोकस्पों रागद्वेष तो भया साक्षीभूत ब्रह्म का स्वरूप काहेको कहो हो, साकीभूत तो याका नाम है जो स्वयमेव जैसे होय तैसे देख्या जान्या करे। जो इष्ट अनिष्ट मान उपजावे, नष्ट गरे ताको साक्षीभूत कैसे कहिए, जाते साक्षीभूत रहना अर कर्ता हर्ता होना ए दोऊ परस्पर विरोधी हैं। एए के दोऊ सम्भवै नाहीं। बहुरि परमब्रह्म के पहिले तो इच्छा यहु भई थी कि 'मैं एक हूँ सो बहुत होस्यूं सब बहुत भया। अब ऐसी इच्छा भई होसी जो "मैं बहुत हूँ सो एक होस्यूं सो जैसे कोऊ भोलपते कार्यकरे पीछे तिस कार्यको दूरकिया चाहै, तैसे परमब्रह्म भी बहुत होय एक
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पाँचयाँ अधिकार - ६१
होने की इच्छा करी सो जानिये है कि बहुत होने का कार्य किया होय सो भोलप ही तैं किया, आगामी ज्ञान कार किया होता तो काहेको ताके दूरि करने की इच्छा होती ।
बहुरि जो परमब्रह्म की इच्छा बिना ही महेश संहार करै है तो यहु परमब्रह्म का वा ब्रह्म का विरोधी भया । बहुरि पूछे हैं यहु महेश लोक को कैसे संहार करै है। अपने अंगनिहीकरि संहार करे है कि इच्छा होतं स्वयमेव ही संहार होय है? जो अपने अंगनिकरि संहारकर है तो सर्वका युगपत्संहार कैसे करे है ? बहुरि याकी इच्छा होतें स्वयमेव संहार हो है तो इच्छा तो परमब्रह्म कीन्हीं थी, यानैं संहार कहा किया ?
बहुरि हम पूछे हैं कि संहार भए सर्व लोकविषे जीव अजीव थे ते कहाँ गए ? तब वह कहै हैजीवनिविषै भक्त तो ब्रह्म विषै मिले, अन्य मायाविषै मिले। अब याको पूछिये है कि माया ब्रह्मतें जुदी रहे है कि पीछे एक होय जाय है। जो जुदी रहे है तो ब्रह्मवत् माया भी नित्य भई । तब अद्वैतब्रह्म न रह्या 1 अर माया ब्रह्म में एक होय जाय है तो जे जीव माया में मिले थे तैं भी माया की साथि ब्रह्म में मिल गए तो महाप्रलय हो सर्वका परमब्रह्म में मिलना ठहत्या ही तो मोक्ष का उपाय काहेको करिए। बहुरि जे जीव माया में मिले से, बहुरि लोकरचना भए वे ही जीव लोकविषे आयेंगे कि वे तो ब्रह्म में मिल गए थे कि नए उपजेंगे। जो ये ही आदेंगे तो जानिए है जुदे-जुदे रहे हैं, मिले काहेको कहो । अर नए उपजेंगे तो जीवका अस्तित्व थोरा कालपर्यंत ही रहे, काहेको मुक्त होने का उपाय कीजिए ।
बहुरि वह कहे कि पृथिवी कि याविषै मिले हैं सो माया अमूर्तीिक सचेतन है कि मूर्तीक अचेतन है जो अमूर्त्तीक सचेतन है तो अमूर्तीिक में मूर्तीक अचेतन कैसे मिले? अर मूर्तीक अचेतन है तो बहु ब्रह्म में मिले है कि नाहीं जो मिले है तो याके मिलने तैं ब्रह्म भी मूर्तीक अचेतनकरि मिश्रित भया । अर न मिले है तो अद्वैतता न रही। अर तू कहेगा ए सर्व अमूर्त्तीक अचेतन होइ जाय हैं तो आत्मा अर शरीरादिककी एकता भई सो यहु संसारी एकता माने ही है, याको अज्ञानी काहेको कहिए। बहुरि पूछे हैं-लोक का प्रलय होते महेश का प्रलय हो है कि न हो है । जो हो है तो युगपत् हो है कि आगे पीछे हो है। जो युगपत् हो है तो आप नष्ट होता लोक को नष्ट कैसे करै अर आगे पीछे हो है तो महेश लोकको नष्टकरि आप कहाँ रह्या, आप भी तो सृष्टिविषै ही था, ऐसे महेश को सृष्टि का संहारकर्ता माने हैं सो असम्भव है । या प्रकारकरि वा अन्य अनेक प्रकारनिकरि ब्रह्मा विष्णु महेश को सृष्टि का उपजावनहारा, रक्षो करनहारा, संहार करनहारा मानना न वने, तार्ते लोक को अनादिनिधन मानना ।
लोक की अनादिनिधनता
इस लोकविष जे जीवादि पदार्थ है ते न्यारे-न्यारे अनादिनिधन हैं । बहुरि तिनकी अवस्था की पलटन हुक करे है। तिस अपेक्षा उपजते विनशते कहिये है। बहुरि जे स्वर्ग नरक द्वीपादिक हैं ते अनादितें ऐसे ही हैं अर सदाकाल ऐसे ही रहेंगे। कदाचित् तू कहेगा बिना बनाए ऐसे आकारादिक कैसे भए, सो भए होय तो बनाये ही होय । सो ऐसा नाहीं है जातें अनादितें ही जे पाइए तहाँ तर्क कहा। जैसे तू परमब्रह्म का स्वरूप अनादिनिधन माने है तैसे ए जीवादिक वा स्वर्गादिक अनादिनिधन मानिए हैं। तू कहेगा जीवादिक
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भाक्षमार्ग प्रकाशक-२
वा स्वर्गादिक कैसे भए? हम कहेंगे परमब्रह्म कैसे भया। तू कहेगा इनकी रचना ऐसी कौनकरी? हम कहेंगे परमब्रह्म को ऐसा कौन बनाया? तू कहेगा परमब्रह्म स्वयंसिद्ध है; हम कहे हैं जीवादिक वा स्वर्गादिक स्वयंसिद्ध हैं; तू कहेगा इनकी अर परब्रह्म की समानता कैसे सम्मकै? तो सम्भयनेविषै दूषण बताय। लोकको नवा उपजावना ताका नाश करना तिसविषै तो हम अनेक दोष दिखाये। लोकको अनादिनिधन मानने ते कहा दोष है? सो तू बताय। जो तू परमब्रह्म मानै है सो जुदा ही कोई है नाहीं। ए संसारविषै जीव हैं ते ही यथार्थ ज्ञानकरि मोक्षमार्ग साधनः सर्वज्ञ वीतराग हो हैं।
इहाँ प्रश्न- जो तुम तो न्यारे-न्यारे जीव अनादिनिधन कहो हो। मुक्त भए पीछै तो निराकार हो है, तहाँ न्यारे-न्यारे कैसे सम्भ?
ताका समाधान-जो मुक्त भए पीछे सर्वज्ञको दीसै है कि नाहीं दीसै है। जो दीसै है तो किछू आकार दीसता ही होगा। बिना आकार देखे कहा देख्या, अर न दीसै है तो कै तो यस्तु ही नाही, के सर्वज्ञ नाहीं। ताते इन्द्रियज्ञानगम्य आकार नाही तिस अपेक्षा निराकार है अर सर्वज्ञ ज्ञानगम्य है तातै आकारयान् हैं। जब आकारवान् ठहरया तब जुदा-जुदा होय तो कहा दोष लागै? बहुरि जो तू जाति अपेक्षा एक कहै तो हम भी मानें हैं। जैसे गेहूँ भिन्न-भिन्न है तिनकी जाति एक है ऐसे एक मानै तो किछू दोष है नाहीं। या प्रकार यथार्थ श्रद्धानकरि लोकवि सर्व पदार्थ अकृत्रिम जुदे-जुदे अनादिनिधन मानने। बहुरि जो वृथा ही अमकरि साँच झूट का निर्णय न करे तो तू जानै, तेरे श्रद्धान का फल तू पावेगा।
ब्रह्म से कुलप्रवृत्ति आदि का प्रतिषेध बहुरि वे ही ब्रह्म पुत्रपौत्रादिकरि कुलप्रवृत्ति कहे हैं। बहुरि कुलनिविर्षे राक्षस मनुष्य देव तिर्यचनिकै परस्पर प्रसूति भेद बतावै हैं। तहाँ देवते मनुष्य वा मनुष्यतें देव या तिर्यंचते मनुष्य इत्यादि कोई माता कोई पिता” कोई पुत्रपुत्री का उपजना बतावै सो कैसे सम्भवै? बहुरि मनही करि वा पवनादिकार या वीर्य सूंघने आदिकरि प्रसूति होनी बतावै है सो प्रत्यक्षविरुद्ध भारी है। ऐसे होते पुत्रपौत्रादिक का नियम कैसे रह्या? बहुरि बड़े-बड़े महन्तनिको अन्य-अन्य माता-पिताते भए कहै हैं। सो महंत पुरुष कुशीली माता-पिताकै कैसे उपजै? यहु तो लोकविध गालि है। ऐसा कहि उनकी महंतता काहेको कहिए है।
अवतार मीमांसा बहुरि गणेशादिक की मैल आदि करि उत्पत्ति बतावै है या काहूके अंग काहूकै जुरै बतावै है। इत्यादि अनेक प्रत्यक्ष विरुद्ध कहै है। बहुरि चोईस अवतार' भए कहै है, तहाँ कई अवतारनिको पूर्णावतार कहै हैं। केईनिको अंशावतार कहै हैं। सो पूर्णावतार भए तब ब्रह्म अन्यत्र व्यापक रख्या कि न रहा। जो रहा तो इन अवतारनिको पूर्णावतार काहे को कहो। जो व्यापक) न रहा तो एतावन्मात्र ही ब्रह्म रहा। १. सनाकुमार शूकरावतार २ देवर्षि नारद ३ नर नारायण ४ कपिल ५ दत्तात्रय ६ यमपुरुष ७ अषमावतार ८ पृथु
अवतार ६ मत्स्य १० कप धन्वन्तरि १२ मोहिनी ३ नृसिंहवतार १४ वामन १५ परशुराम १६ व्यास १७ हंस १ रामावतार १६ कृष्णावतार २० इपग्रीव २७ हरि २२ बुद्ध २३ और बल्कि ये २४ अवतार माने जाते है।
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पाँचयाँ अधिकार-१३
बहुरि अंशावतार भए तहां ब्रह्म का अंश तो सर्वत्र कहो हो, इन विषे कहा अधिकता भई? बहुरि कार्य तो तुच्छ तिस के वास्ते आप ब्रह्म अवतार धास्या कहै सो जानिये है बिना अवतार धारै ब्रह्म की शक्ति तिस कार्य के करने की न थी। लातें जो कार्य स्तोक उद्यमतै होइ तहां बहुत उद्यम काहेको करिए? बहुरि अवतारनिविषै मच्छ कच्छादि अवतार भए सो किंचित् कार्य करने के अर्थि हीन तिथंच पर्यायरूप भए, सो कैसे सम्भवे? बहुरि प्रहलाद के अर्थ नरासंह अवतार भए सो हरिणांकुशको ऐसा काहेको होने दिया अर कितेक काल अपने भक्त को काहेको दुःख द्याया। बहुरि ऐसा रूप काहैको धत्या। बहुरि नाभिराजाकै वृषमावतार भया बतावै है सो नाभिको पुत्रपने का सुख उपजावने को अवतार धास्था। घोर तपश्चरण किस अर्थि किया। उनको तो किछू साध्य था ही नाहीं। अर कहेगा जगत् के दिखावने को किया तो कोई अवतारतो तपश्चरण दिखावै, कोई अवतार भोगादिक दिखावे, जगत् किसको भला जानि लागे।
बहुरि (वह) कहै है- एक अरहंत नामका राजा भया' सो वृषभावतार का मत अंगीकार करि जैनमत प्रगट किया सो जैनविषै कोई एक अरहंत भया नाहीं। जो सर्वज्ञपद पाय पूजन योग्य होय ताहीका नाम अर्हन्त है। बहुरि रामकृष्ण इन दोउ अवतारनिको मुख्य कहै हैं सो रामावतार कहा किया। सीता के अर्थि विलापकरि रावणसों लरि वा. मारि राज किया। अर कृष्णावतार पहिले गुयालिया होइ परस्त्री गोपिकानि के अर्थ नाना विपरीति निंद्य चेष्टाकरि, पीछे जरासिंधु आदिको मारि राज किया। सो ऐसे कार्य करने में कहा सिद्धि भई। बहुरि रामकृष्णादिकका एक स्वरूप कहै। सो बीच में इतने काल कहाँ रहे? जो ब्रह्मविषे रहे तो जुदै रहे कि एक रहे। जुदे रहे तो जानिए है, ए ब्रह्मते जुदे रहे हैं। एक रहे तो राम ही कृष्ण भया सीता ही रुक्मणी भई इत्यादि कैसे कहिए है। बहुरि रामायतारविष तो सीताको मुख्य करे अर कृष्णावतारविष सीता को रुक्मणी भई कई अर ताको तो प्रथान न कहे, राधिका कुमारी ताको मुख्य करें। बहुरि पूछे तब कहे राधिका भक्त थी, सो निजस्त्री को छोरि दासी का मुख्य करना कैसे बने? बहुरि कृष्णकै तो राधिकासहित परस्त्री - सेवन के सर्व विथान भए सौ यह भक्ति कैसी करी, ऐसे कार्य तो महानिध हैं। बहुरि रुक्मणी को छोरि राधा को मुख्य करी, सो परस्त्री-सेयनको भला जामि करी होसी । बहुरि एक राधा विष ही आसक्त न भया, अन्य गोपिका कुब्जा' आदि अनेक परस्त्रीनिविषै भी आसक्त भया । सो यहु अवतार ऐसे ही कार्य का अधिकारी भया। बहुरि कहै-लक्ष्मी वाकी स्त्री है अर थनादिकको लक्ष्मी कहै सो ए लो पृथ्वी आदि विषै जैसे पाषाण थूलि है तैसे ही रल सुवर्णादि धन देखिए है। जुदी ही लक्ष्मी कौन जाका भर्तार नारायण है। बहुरि सीतादिकको माया का स्वरूप कहै सो इन विषै आसक्त भए सब मापाविषे आसक्त कैसे न भया। कहां ताई कहिए जो निरूपणकरै सो विरुद्ध करै। परन्तु जीवनिको भोगादिक की वार्ता सुहावे, ताते तिनका कहना वल्लम लाग है। ऐसे अवतार कहै है, इनको ब्रह्मस्वरूप कह हैं। बहुरि औरनिको भी
१. भागवत स्कंथ ५ अ. ६, ७, ११। २. विष्णु. पु. अ. १३ श्लोक ४५ से ६० तक।
ब्रह्मपुराण अ. १८६ और भागवतस्कंध १०, अ. ३०, ४६६ ३. भागवतस्कन्ध १० अ. ४८, 9-991
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-मोक्षमार्ग कापाक-४
ब्रह्मस्वरूप कहै है। एक तो महादेवको ब्रह्मस्वरूप माने हैं ताको योगी कहे हैं, सो योग किस अर्थि गह्या। बहुरि मृगछाला भस्मी धारै है सो किस अर्थेि धारी है। बहुरि रुण्डमाला पहरै है सो हाड़का छीवना भी निध है ताको गले में किस अर्थि धारै है। सर्पादि सहित है सो यामें कौन बड़ाई है। आक धतूरा खाय है सो यामें कौन भलाई है। त्रिशूलादि राखै है सो कौनका भय है। बहुरि पार्वती संग लिए है सो योगी होय स्त्री राखै सो ऐसा विपरीतपना काहेको किया। कामासक्त था तो घर ही में रह्या होता बहुरि वानै नाना प्रकार विपरीत चेष्टा कीन्ही ताका प्रयोजन तो किछू मासे नाही। बाउले का सा कर्त्तव्य भासै ताको ब्रह्मस्वरूप कहै।
बहुरि कबहूँ कृष्ण को याका सेवक कहै, कबहूँ याको कृष्ण का सेवक कहै । कबहूँ दोऊनिको एक ही कहै, किछू ठिकाना नाही। बहुरि सूर्यादिकको ब्रह्मका स्वरूप कहै। बहुरि ऐसा कहै जो विष्णु कह्या सो धातुनिविषै सुवर्ण, वृक्षनिविष कल्पवृक्ष, जूया विषै झूठ इत्यादि में मैं ही हूँ सो किछू पूर्वापर विचार नाहीं। कोई एक अंगकरि केई संसारी जाको महंत मानै ताहीको ब्रह्मका स्वरूप कहें । सो ब्रह्म सर्वव्यापी है तो ऐसा विशेष काहेको किया। अर सूर्यादिविष वा सुवर्णादिविषै ही ब्रह्म है तो सूर्य उजारा कर है, सुवर्ण धन है इत्यादि गुणनिकरि ब्रह्म मान्या सो सूर्यवत् दीपादिक भी उजाला करै है, सुवर्णवत रूपा लोहा आदि भी धन हैं, इत्यादि गुण अन्य पदार्थनिविषै भी हैं तिनको भी ब्रह्म मानो। बड़ा छोटा मानो परन्तु जाति तो एक भई। सो झूठी महंतता ठहरावने के अर्थि अनेक प्रकार युक्ति बनावै है।
बहुरि अनेक ज्वालामालिनी आदि देवी तिनको माया का स्वरूप कहि हिंसादिक पाप उफ्नाय पूजना ठहराव है सो माया तो निध है साका पूजना कैसे सम्भवै? अर हिंसादिक करना कैसे भला होय? बहुरि गऊ सर्प आदि पशु अभक्ष्य भक्षणादिसहित तिनको पूज्य कहै। अग्नि पवन जलादिको देव ठहराय पूज्य कहै। वृक्षादिकको युक्ति बनाय पूज्य कहै। बहुत कहा कहिए, पुरुषलिंगीनाम सहित जे होय तिनिविषै ब्रह्म की कल्पना करै अर स्त्रीलिंगी नाम सहित होय तिनि विषै माया की कल्पनाकार अनेक वस्तुनिका पूजन उहराये है। इनके पूजे कहा होगा सो किछू विचार नाहीं। झूठे लौकिक प्रयोजन के कारण ठहराय जगत् को भ्रमाव है। बहुरि वे कह है- विधाता शरीर को पड़े है, बहुरि यम मार है, मरते समय यम के दूत लेने आवै हैं, मूए पीछे मार्गविष बहुत काल लागे है, बहुरि तहां पुण्य-पाप का लेखा करे है, बहुरि तहाँ दंडादिक देहै। सो ए कल्पित झूठी युक्ति है। जीव तो समय-समय अनन्ते उपजै मर तिनका युगपत् ऐसे होना कैसे सम्मवे? अर ऐसे मानने का कोई कारण भी भासे नाहीं।
पात्रनिषेध बहुरि मूए पीछे श्रादिक करे वाका भला होना कह सो जीवता तो काहूके पुण्य - पापकार कोई सुखी दुःखी होता वीस नाहीं, मूए पीछे कसे होई। ए युक्ति मनुष्यनिको प्रमाय अपने लोभ साधने के अर्थि बनाई है। कीड़ी पतंग सिंहादिक जीव भी तो उपजै मरे हैं, उनको प्रलय के जीव ठहरावे। सो जैसे मनुष्यादिक के जन्म मरण होते देखिए है, तैसे ही उनके होते देखिए है। चूंठी कल्पना किए कहा सिद्धि है? बहुरि वे शास्त्रनिवि कथादिक निरूप हैं तहाँ विचारकिए विरुद्ध भासे है।
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पाँचयाँ अधिकार-१५
यज्ञ में पशुहिंसा का प्रतिषेध बहुरि यज्ञादिक करना धर्म ठहरावै है सो तहाँ बड़े जीव तिन का होम करै है, अग्न्यादिकका महा आरम्भ करै है, तहाँ जीवघात हो है सो उनही के शास्त्रविषै वा लोकविष हिंसा का निषेध है सो ऐसे निर्दय हैं किछू गिनै नाहीं। अर कहै- “यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः" ए यज्ञ ही के अर्थि पशु बनाए हैं। तहाँ घात करने का दोष नाहीं। बहुरि मेघादिकका होना, शत्रु आदिका विनशना इत्यादि फल दिखाय अपने लोभ के अर्थि राजादिकनिको भ्रमावै । सो कोई विषः जीवना कहै सो प्रत्यक्ष विरुद्ध है। तैसे हिंसा किए धर्म अर कार्यसिद्ध कहना प्रत्यक्ष विरुद्ध है। परन्तु जिनकी हिंसा करनी कही, तिनकी तो किछू शक्ति नाही, उनकी काहूको पीर नाहीं। जो किसी शक्तिवान् का या इष्ट का होम करना ठहराया होता तो ठीक पड़ता। बहुरि पाप का भय नाही तातै पापी दुर्बल के घातक होय अपने लोभ के अर्थि अपना वा अन्य का बुरा करने विषै तत्पर भए
बहुरि ते मोक्षमार्ग भक्तियोग अर ज्ञानयोग करि दोय प्रकार प्ररूप हैं। अब भक्तियोग करि मोक्षमार्ग कहैं ताका स्वरूप कहिये हैं
भक्तियोग मीमांसा तहां भक्ति निर्गुण सगुण भेदकरि दोय प्रकार कहै हैं। तहाँ अद्वैत परमब्रह्म की भक्ति करनी सो निर्गुणभक्ति है। सो ऐसे करै है- तुम निराकार हो, निरंजन हो, मन वचन के अगोचर हो, अपार हो, सर्वव्यापी हो, एक हो, सर्व के प्रतिपालक हो, अधमउधारक हो, सर्व के कर्ता हर्ता हो इत्यादि विशेषणनिकरि गुण गावै हैं। सो इन विषै केई तो निराकारादि विशेषण हैं सो अभावरूप है तिनको सर्वथा माने अभाव ही भासै । जाते आकारादि बिना वस्तु कैसे होई । बहुरि केई सर्वव्यापी आदि विशेषण असम्भवी हैं सो तिनका असम्भवपना पूर्वे दिखाया ही है। बहुरि ऐसा कहै जो जीव बुद्धिकरि मैं तिहारा दास हूँ, शास्त्रदृष्टिकरि तिहारा अंश हूँ, तत्त्वबुद्धिकरि 'तू ही मैं हूँ' सो ए तीनों ही भ्रम हैं। यहु भक्तिकरनहारा चेतन है कि जड़ है। जो चेतन है तो यह चेतना ब्रह्मकी है कि इसहीकी है। जो ब्रह्मकी है तो मैं दास हूँ ऐता मानना तो चेतना ही के हो है सो चेतना ब्रह्म का स्वभाव ठहत्या अर स्वभाव स्वभावीकै सादात्म्यसम्बन्ध है। तहाँ दास अर स्वामी का सम्बन्ध कैसे इनै? दास-स्वामी का सम्बन्ध तो भिन्न पदार्थ होय तब ही बने। बहुरि जो " यह चेतना इसही की है तो यहु अपनी चेतना का धनी जुदा पदार्थ ठहत्या तो मैं अंश हूँ वा 'जो तू है सो मैं हूँ ऐसा कहना झूठा भया। बहुरि जो भक्ति करणहारा जड़ है तो जड़कै बुद्धिका होना असम्भव है ऐसी बुद्धि कैसे भई । तातै 'मैं दास हूँ' ऐसा कहना तो तब हो बनै जब जुदे-जुदे पदार्थ होय। अर 'तेरा मैं अंश हूँ' ऐसा कहना बनै ही नाहीं। जाते 'तू' अर 'मैं' ऐसा तो भिन्न होय सब ही बने, सो अंश अंशी भिन्न कैसे होय? अंशी तो कोई जुदा यस्तु है नाही, अंशनिका समुदाय सो ही अंशी है। अब तू है सो मैं हूँ, ऐसा वचन ही विरुद्ध है। एक पदार्थविष आपो भी मानै अर वाको पर भी मानै सो कैसे सम्भवै? तातें प्रम छोड़ि निर्णय करना । बहुरि केई नाम ही जपै हैं सो जाका नाम जपै ताका स्वरूप पहिचाने बिना केवल
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - ६६
नामही का अपना कैसे कार्यकारी होय । जो तू कहेगा, नामहीका अतिशय है तो जो नाम ईश्वरका है सो ही नाम किसी पापी पुरुषका थरचा, तहाँ दोऊनिका नाम उच्चारणविषै फलकी समानता होय सो कैसे बनै। ता स्वरूपका निर्णयकरि पीछे भक्ति करने योग्य होय ताकी भक्ति करनी। ऐसे निर्गुणभक्तिका स्वरूप दिखाया।
बहुरि जहाँ काम-क्रोधादिकरि निपजे कार्यनिका वर्णनकरि स्तुत्यादि करिए ताको सगुणभक्ति कहै है। तहां सगुणभक्तिविषे लौकिक शृंगार वर्णन जैसे नायक नायिका का करिए तैसे ठाकुर ठकुरानीका वर्णन करे है। स्वकीया परकीया स्त्रीसम्बन्धी संयोगवियोगरूप सर्वव्यवहार तहाँ निरूपै है । हुरि स्नान करती स्त्रीनिका वस्त्र चुरावना, दधि लूटना, स्त्रीनिके पगां पड़ना, स्त्रीनिके आगे नाचना इत्यादि जिन कार्यनिको संसारी जीव भी करते लज्जित होय तिनि कार्यनिका करना ठहरावे है। सो ऐसा कार्य अतिकाम पीड़ित भी बने । बहुरि युद्धादिक किए कहै तो ए क्रोध के कार्य हैं। अपनी महिमा दिखावने के अर्थि उपाय किए कहें सोए मान के कार्य है। अनेक छटा लिए कहै सो मायाके कार्य हैं। विषय सामग्री प्राप्तिके अर्थ यत्न किए कहै सो ए लोभ के कार्य हैं। कौतूहलादिक किए कहै सो हास्यादिकके कार्य हैं। ऐसे ए कार्य क्रोधादिकार युक्त भए ही बनै। या प्रकार काम-क्रोधादिकरि निपजे कार्यनिको प्रगटकरि कहैं, हम स्तुति करें हैं। सो काम-क्रोधादिके कार्य ही स्तुतियोग्य भए तो निंद्य कौन ठहरेंगे। जिनकी लोकविषै, शास्त्रविषै अत्यन्त निन्दा पाइए तिनि कार्यनिका वर्णनकरि स्तुति करना तो हस्तचुगलकासा कार्य भया । हम पूछे हैं- कोऊ किसीका नाम तो कहै नाहीं अर ऐसे कार्यनिहीका निरूपण करि कहै कि किसीने ऐसे कार्य किए हैं, तब तुम वाको भला जानो कि बुरा जानो । जो भला जानो तो पापी भले भए, बुरा कौन रखा। बुरे जानो तो ऐसे कार्य कोई करो सो ही बुरा भया । पक्षपात रहित न्याय करो। जो पक्षपातिकरि कहोगे, ठाकुरका ऐसा वर्णन करना भी स्तुति हैं तो ठाकुर ऐसे कार्य किस अर्थ किए। ऐसे निद्यकार्य करने में कहा सिद्धि भई ? कहोगे, प्रवृत्ति चलावनेके अर्थ किए तो परस्त्रीसेवन आदि निंद्यकार्यनिकी प्रवृत्ति चलावनेमें आपकै या अन्यकै कहा नफा भया । तातें ठाकुरकै ऐसा कार्य करना सम्भव नाहीं । बहुरि जो ठाकुर कार्य न किए तुम ही कहो हो, तो जामें दोष न था ताको दोष लगाया, तातैं ऐसा वर्णन करना तो निंदा है, स्तुति नाहीं । बहुरि स्तुति करते जिन गुणनिका वर्णन करिए तिस रूप ही परिणाम होय वा तिनही विषै अनुराग आवै । सो काम-क्रोधादि कार्यनिका वर्णन करता आप भी कामक्रोधादिरूप होय अथवा कामक्रोधादि विषे अनुरागी होय तो ऐसे भाव तो भले नाहीं । जो कहोगे, भक्त ऐसा भाव न करे हैं तो परिणाम भए बिना वर्णन कैसे किया । तिनका अनुराग भए बिना भक्ति कैसे करी । सो ए भाव ही भले होय तो ब्रह्मचर्यको वा क्षमादिकको भले काहेको कहिए। इनके तो परस्पर प्रतिपक्षीपना है। बहुरि सगुणभक्ति करने के अर्थि राम - कृष्णादिककी मूर्ति भी शृंगारादि किए वक्रत्वादिसहित स्त्री आदि संग लिए बनाये है, जाको देखते ही कामक्रोधादि भाव प्रगट होय आवै अर महादेवके लिंगहीका आकार बनाये है। देखो विडम्बना, जाका नाम लिए लाज आवै, जगत् जिसको ढाँक्या राखे ताके आकारका पूजन करावे हैं। कहा अन्य अंग वाके न थे? परन्तु धनी विडम्बना ऐसे ही किए प्रगट होय । बहुरि सगुणभक्तिके अर्थि नाना प्रकार विषयसामग्री भेली करें। बहुरि नाम तो
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पाँचवाँ अधिकार-६७
ठाकुरका करै अर तिनको आप भोगवै। भोजनादिक बनावै बहुरि ठाकुरको भोग लगाया कहै, पीछे आप ही प्रसादकी कल्पनाकरि ताका भक्षणादि करै। सो इहां पूछिये है, प्रथम तो ठाकुरकै क्षुथा तृषा पीड़ा होसी। न होइ तो ऐसी कल्पना कैसे सम्भौ । अर क्षुधादिकरि पीड़ित होय सो व्याकुल होइ तब ईश्वर दुःखी भया, औरका दुःख कैसे दूरि करै। बहुरि भोजनादि सामग्री आप तो उनके अर्थि अर्पण करी, सो करी, पीछे प्रसाद तो ठाकुर देवै तब होय, आपही का तो किया न होय। जैसे कोऊ राजाको भेंट कर पीछे राजा बक्से तो वाको ग्रहण करना योग्य अर आप राजा की भेंट करै अर राजा तो किछू कहै नाहीं, आप ही 'राजा मोकू बकसी ऐसे कहि वाको अंगीकार करे तो यह, ख्याल (खेल) भया। तैसे इहाँ भी ऐसे किए भक्ति तो भई नाही, हास्य करना भया ' कुहुरि लाकुर अर टू दो कि हो : मोग को तैंने भेंट करी, पीछे ठाकुर बकसै सो ग्रहण कीजे, आप ही ते ग्रहण काहेको करै है। अर तू कहेगा ठाकुरकी तो मूर्ति है तातै मैं ही कल्पना करूं हूं, तो ठाकुरका करने का कार्य से ही किया तब तू ही ठाकुर भया। बहुरि जो एक हो तो भेंट करनी, प्रसाद कहना झूठा भया। एक भए यह व्यवहार सम्भवै नाहीं तातें भोजनासक्त पुरुषनिकरि ऐसी कल्पना करिए है। बहुरि टाकुरके अर्थि नृत्य - गानादि करावना, शीत ग्रीष्म बसंत आदि ऋतुनिविषै संसारीनिकै सम्भवती ऐसी विषयसामग्री भेली करनी इत्यादि कार्य करै। तहाँ नाम तो ठाकुर का लेना अर इन्द्रियनिके विषय अपने पोषने सो विषयासक्त जीवनिकरि ऐसा उपाय किया है। बहुरि जन्म विवाहादिक की वा सोवना जागना इत्यादिककी कल्पना तहाँ करै है सो जैसे लड़की गुड्डागुडीनिका ख्याल बनाय करि कौतूहल करे, तैसे यह भी कौतूहल करना है। किछू परमार्थरूप गुण है नाहीं। बहुरि लड़के ठाकुरका स्वांग बनाय
घेष्टा दिखावै। ताकरि अपने विषय पोषै अर कहै यह भी भक्ति है, इत्यादि कहा कहिए। ऐसी अनेक विपरीतता सगुण भक्ति विषे पाईए है। ऐसे दोय प्रकार भक्तिकरि मोक्षमार्ग कह सो ताको मिथ्या दिखाया। . अब ज्ञानयोगकरि मोक्षमार्ग कह है ताका स्वरूप कहिए है
ज्ञानयोग मीमांसा एक अद्वैत सर्वव्यापी परमब्रह्म को मानना ताको ज्ञान कहै है सो ताका मिथ्यापना तो पूर्व कह्या ही है। बहुरि आपको सर्वथा शुद्ध ब्रह्मस्वरूप मानना, कामक्रोधादिक व शरीरादिकको भ्रम जानना ताको ज्ञान कहै है सो यहु भ्रम है आप शुद्ध है तो मोक्षका उपाय काहेको कर है। आप शुद्धब्रह्म ठहत्या तब कर्तव्य कहा रह्या? बहुरि प्रत्यक्ष आपके कामक्रोधादिक होते देखिए है अर शरीरादिक का संयोग देखिए है सो इनका अभाव होगा तब होगा, वर्तमान विषे इनका सद्भाव मानना भ्रम कैसे भया? बहुरि कहै हैं, मोक्षका उपाय करना भी प्रम है। जैसे जेवरी तो जेवरी ही है ताको सर्प जाने था सो प्रम था-भ्रम मेटे जेवरी ही है। तैसे आप तो ब्रह्म ही है, आएको अशुद्ध जानै था सो भ्रम था, भ्रम मेटे आप ब्रह्म ही है। सो ऐसा कहना मिथ्या है। जो आप शुख होय अर ताको अशुद्ध जानै तो अम अर आप कामक्रोधादिसहित अशुद्ध होय रमा साको अशुद्ध जानै तो भ्रम कैसे होइ। शुद्ध जाने भ्रम होइ सो झूठा भ्रम-करि आपको शुद्धब्रह्म माने कहा सिद्धि है। बहुरि तू कहेगा, ए काम क्रोधादिक तो मनके धर्म हैं, ब्रह्म न्यारा है तो तुझकू पूछिए है- मन तेरा स्वरूप है कि नाहीं। जो है तो काम-क्रोधादिक भी तेरे ही भए। अर नाहीं तो तू ज्ञानस्वरूप है कि
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-६८
जड़ है। जो ज्ञानस्वरूप है तो तेरे तो ज्ञान मन वा इन्द्रिय द्वारा ही होता दी है। इनि बिना कोई डान बतावै तो ताको जुदा तेरा स्वरूप मानै सो भासता नाहीं। बहुरि 'मन ज्ञाने' थातुसे मन शब्द निपजै है सो मन तो ज्ञानस्वरूप है। सो यहु ज्ञान किसका है ताको बताय सो जुदा कोऊ मासै नाही। बहुरि जो तू जड़ है तो ज्ञान बिना अपने स्वरूपका विचार कैसे करै है, यहु बनै नाहीं । बहुरि तू कहै है, ब्रह्म न्यारा है सो वह न्यारा ब्रह्म तू ही है कि और है। जो तू ही है तो तेरे 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा मानने वाला जो ज्ञान है सो तो मन स्वरूप ही है, मनः जुदा नाहीं अर भापा मानन आप ही विर्ष होय। जाको न्यारा जाने तिसविर आपा मान्यो जाय नाहीं। सो मनते न्यारा ब्रह्म है तो मनरूप ज्ञान ब्रह्मविषे आपा काहेको मान है। बहरि जो ब्रह्म और ही है तो तू ब्रह्मविषे आपण काहेको मानै ताते भ्रम छोड़ि ऐसा जानि, जैसे स्पर्शनादि इन्द्रिय तो शरीर का स्वरूप है सो जड़ है, याके द्वारि जो जानपनो हो है सो आत्माका स्वरूप है; तैसे ही मन भी सूक्ष्म परमाणुनिका पुञ्ज है सो शरीर ही का अंग है, ताकै द्वारि जानपना हो है वा कामक्रोधादि भाव हो है सो सर्व आत्माका स्वरूप है। विशेष इतना- जानपना तो निज स्वभाव है, काम-क्रोधादिक उपाथिक भाव है तिनकार आत्मा अशुद्ध है। जब काल पाय काम-क्रोधादि मिटेंगे अर जानपनांकै मन इन्द्रियका आधीनपना मिटेगा, तब केवलज्ञानस्वरूप आत्मा शुद्ध होगा। ऐसे ही बुद्धि अहंकारादिक भी जानि लेने, जातै मन अर बुझ्यादिक एकार्थ हैं अर अहंकारादिक हैं ते काम क्रोधादिकवतु उपाथिक भाव हैं। इनको आपतै भिन्न जानना प्रम है। इनको अपने जानि उपाधिक भावनिके अभाव करनेका उद्यम करना योग्य है। बहुरि जिनतें इनका अभाव न होय सकै अर अपनी महंतता चाहै ते जीव इनको अपने न ठहराय स्वच्छन्द प्रय हैं। काम - क्रोधादिक भावनिको बधाय विषय-सामग्रीनिविषे वा हिंसादिकार्यनिविषै तत्पर हो हैं। बहुरि अहंकारादिक का त्यागको भी अन्यथा मान है। सर्वको परमब्रह्म मानना, कहीं आपो न माननो ताको अहंकारका त्याग बतावै सो मिथ्या है जातें कोई आप है कि नाहीं। जो है तो आपविषै आप कैसे न मानिए, जो आप नाहीं है तो सर्वको ब्रह्म कौन माने है? तातै शरीरादि परविर्ष अहंबुद्धि न करनी, तहाँ कर्ता न होना सो अहंकार का त्याग है। आप विष अहंबुद्धि करनेका दोष नाही। बहुरेि सर्वको समान जानना, कोई विष भेद न करना ताको रागद्वेषका त्याग बतावै है सो भी मिथ्या है। जाते सर्व पदार्थ समान हैं नाहीं। कोई चेतन है कोई अचेतन है, कोई कैसा है कोई कैसा है तिनको समान कैसे मानिए? ताते परद्रव्यानको इष्ट अनिष्ट न मानना सो रागद्वेषका त्याग है। पदार्थनिका विशेष जानने में तो किछू दोष नाहीं । ऐसे ही अन्य मोक्षमार्गरूप भावनिकी अन्यथा कल्पना करै है। बहुरि ऐसी कल्पनाकरि कुशील सेवै है, अभक्ष्य भखै है, वर्णादि भेद नाहीं करै है, हीन क्रिया आचरै है इत्यादि विपरीतरूप प्रवर्ती है। जब कोऊ पूछै तब कहै, ए तो शरीरका धर्म है अथवा जैसी प्रालब्धि हैं तैसे हो है अथवा जैसे ईश्वर की इच्छा हो है, तैसे हो है, हमको तो विकल्प न करना। सो देखो झूठ, आप जानि-जानि प्रवर्ते ताको तो शरीर का धर्म बतावै। आप उद्यमी होय कार्य करै ताको प्रालब्धि कहै। आप इच्छाकरि सेवै ताको ईश्वरकी इच्छा बतायै । विकल्प करै अर कहै हमको तो विकल्प न करना । सो धर्मका आश्रय लेय विषयकषाय सेवने, ताल झूठी युक्ति वनावै है। जो अपने परिणाम किछू भी न मिला तो हम याका कर्त्तव्य न मानै। जैसे आप ध्यान घरे तिष्ठै है, कोऊ अपने ऊपरि वस्त्र गेरि गया तहां आप किछू सुखी न भया, तहां तो ताका कर्त्तव्य नाहीं
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पाँचवाँ अधिकार ६६
सो सांच अर आप वस्त्रको अंगीकार कर पहरें, अपनी शीतादिक वेदना मिटाय सुखी होय, तहाँ जो अपना कर्त्तव्य माने नाहीं सो कैसे संभवे । बहुरि कुशील सेवना, अभक्ष्य भखणा इत्यादि कार्य तो परिणाम मिले बिना होते ही नाहीं । तहाँ अपना कर्त्तव्य कैसे न मानिए तातें जो काम क्रोधादिका अभाव ही भया होय तो तहाँ किसी क्रियानिविषै प्रवृत्ति सम्भवै ही नाहीं । अर जो कामक्रोधादि पाइए है तो जैसे ए भाव थोरे होय तैसे प्रवृत्ति करनी। स्वच्छन्द होय इनिको बधावना युक्त नाहीं ।
पवनादि साधन द्वारा ज्ञानी होने का प्रतिषेध
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बहुरि केई जीव पवनादिकका साधनकर आपको ज्ञानी माने है तहाँ इडा पिंगला सुषुम्णारूप नासिकाद्वारकरि पवन निकसै, तहाँ वर्णादिक भेदनितें पवन ही को पृथ्वी तत्त्वादिकरूप कल्पना करे है । ताका विज्ञानकरि किछू साधन निमित्तका ज्ञान होय तातैं जगत् को इष्ट अनिष्ट बतावै, आप महंत कहावै सो यह तो लौकिक कार्य है, किछू मोक्षमार्ग नाहीं । जीवनिको इष्ट अनिष्ट बताय उनकै राग-द्वेष बधावै अर अपने मान लोभादिक निपजावै, यामें कहा सिद्धि है। बहुरि प्राणायामादिका साधन करें, पवन को चढ़ाय समाधि लगाई कहै, सो यहु तो जैसे नट साधनतें हस्तादिक करि क्रिया करै तैसे यहाँ भी साधनतै पवनकरि किया करी । हस्तादिक अर पवन ए तो शरीर ही के अंग हैं। इनिके साधनतै आत्महित कैसे सधै ? बहुरि तू कहेगा - तहाँ मनका विकल्प मिटै है, सुख उपजै है, यम के वशीभूतपना न हो है सो यहु मिथ्या है। जैसे निद्राविषै चेतना की प्रवृत्ति मिटै है तैसे पंवन साधनतें यहाँ चेतना की प्रवृत्ति मिटै है। तहाँ मन को रोकि राख्या है, किछू वासना तो मिटी नाहीं । तातैं मनका विकल्प मिट्या न कहिए अर चेतना बिना सुख कीन भोगवे है तातें सुख उपज्या न कहिए। अर इस साधनवाले तो इस क्षेत्रविषे भए हैं तिन विषे कोई अमर दीसता नाहीं । अग्नि लगाए ताका भी मरण होता दीसे है तार्ते यमके वशीभूत नाहीं, यहु झूठी कल्पना है। बहुरि जहाँ साधन विषै किछू चेतना रहै अर तहाँ साधन शब्द सुनै ताको अनहद नाद बतावै । सो जैसे वीणादिक के शब्द सुननेते सुख मानना तैसे तिसके सुननेते सुख मानना है। इहां तो विषयपोषण भया, परमार्थतो किछू नाहीं । बहुरि पवन का निकसने पैठने विषै "सोहं" ऐसे शब्दकी कल्पनाकरि ताको 'अजपा जाप' कहे है सो जैसे तीतरके शब्दविषै 'तू ही' शब्दकी कल्पना करे है, किछू तीतर अर्थ अवधारि ऐसा शब्द कहता नाहीं । तैसे यहां 'सोऽहं' शब्द की कल्पना है, किछू पवन अर्थ अवधारि ऐसा शब्द कहता नाहीं । बहुरि शब्द के जपने सुनने ही तैं तो किछु फलप्राप्ति नाहीं, अर्थ अवधारे फलप्राप्ति हो है । सो 'सोऽहं ' शब्द का अर्थ यहु है 'सो हूँ हूँ' यहाँ ऐसी अपेक्षा चाहिए है, 'सो' कौन? तब ताका निर्णय किया चाहिए जांतें तत् शब्दकै अर यत् शब्दकै नित्य सम्बन्ध है । तातै वस्तुका निर्णयकरि ताविषै अहंबुद्धि धारनेविषै 'सोऽहं' शब्द बनै। तहाँ भी आपको आप अनुभवै, तहाँ तो 'सोऽहं' शब्द सम्भवे नाहीं । परको अपने स्वरूप बतावने विषै 'सोऽ' शब्द सम्भये है। जैसे पुरुष आपको आप जानै तहाँ 'सो हूं छू' ऐसा काहेको विचारै । कोई अन्य जीव आपको न पहचानता होय अर कोई अपना लक्षण न पहचानता होय, तब वाको कहिए 'जो ऐसा है सो मैं हूँ' तैसे ही यहां जानना । बहुरि केई ललाट भौंहारा नासिका के अग्र के देखने का साधनकरि त्रिकुटी आदि का ध्यान मया कहि परमार्थ माने सोनेत्र की पूतरी फिरे मूर्तीक वस्तु देखी,
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१००
यामें कहा सिद्धि है। बहुरि ऐसे साथननित किंचित् अतीत अनागतादिक का ज्ञान होय वा वचनसिद्धि होय वा पृथ्वी आकाशादिविषे गमनादिक की शक्ति होय वा शरीरविषै आरोग्यतादिक होय तो ए तो सर्व लौकिक कार्य हैं। देवादिककै स्वयमेव ही ऐसी शक्ति पाइए है। इनितें किछु अपना भला तो होता नाही, भला तो विषयकवायकी वासना मिटे होय। सो ए तो विषयकषायपोषनेके उपाय हैं। तातै ए सर्व साधन किछू हितकारी हैं नाहीं । इनिविर्षे कष्ट बहुत मरणादि पर्यन्त होय अर हित सधै नाहीं । तात ज्ञानी वृथा ऐसा खेद करै नाहीं । कषायी जीव ही ऐसे साधनविषे लागे हैं। बहुरि काहूको बहुत तपश्चरणादिककरि मोक्षका सांधन कठिन बताये है। काहूको सुगमपने ही मोक्ष भया कहै। उद्धवादिकको परमभक्त कहै, तिनको तो तपका उपदेश दिया कहै, वेश्यादिककै बिना परिणाम (केवल) नामादिकहीत तरना बतावै, किछू थल है नाहीं। ऐसे मोक्षमार्ग को अन्यथा प्ररूपै है।
अन्यमत कल्पित मोक्षस्वरूप की मीमांसा बहुरि मोक्षस्वरूप को भी अन्यथा प्ररूप है। तहाँ मोक्ष अनेक प्रकार बतावै है। एक तो मोक्ष ऐसा कहै है-जो वैकुण्ठधामविषै ठाकुर ठकुराणीसहित नाना भोगविलास करै है तहाँ जाय प्राप्त होय अर तिनिकी टहल किया करै सो मोक्ष है। सो यहु तो विरुद्ध है। प्रथम तो ठाकुर भी संसारीवत् विषयासक्त होय रह्या है। तो जैसा राजादिक है लेसा ही आसुर भया । बहुरि मान्य पासि टहल करावनी भई तब ठाकुरकै पराधीनपना भया। बहुरि जो यहु मोक्षको पाय तहाँ टहल किया करै तो जैसे राजाकी चाकरी करनी तैसे यह भी चाकरी भई, तहाँ पराधीन भए सुख कैसे होय? तात यह भी बनै नाहीं।।
बहुरि एक मोक्ष ऐसा कहै हैं-ईश्वर के समान आप हो है सो भी मिथ्या है। जो उसके समान और भी जुदा होय है तो बहुत ईश्वर भए । लोकका कर्ता हर्ता कौन ठहरेगा? सबही ठहरै तो भिन्न इच्छा भए परस्पर विरुद्ध होय। एक ही है तो समानता न भई। न्यून है ताकै नीचापने करि उच्च होने की आमुलता रही, तब सुखी कैसे होय? जैसे बेटा रानाकै बम राजा संसारविषै हो है तैसे छोटा बड़ा ईश्वर मुक्तिविषै भी भया सो बने नाही।
बहुरि एक मोक्ष ऐसा कहे -जो वैकुण्ठविषै दीपककीसी एक ज्योति है, तहाँ ज्योतिविषै ज्योति जाथ मिले है सो यह भी मिथ्या है। दीपककी ज्योति तो मूर्तीक अचेतन है, ऐसी ज्योति तहाँ कैसे सम्भव? बहुरि ज्योति में मिले यह ज्योति रहै है कि विनशि जाय है। जो रहे है तो ज्योति बघती जायसी, तब ज्योतिविषै हीनाधिकपनो होसी। अर विनशि जाय है तो आपकी सत्ता नाश होय ऐसा कार्य उपादेय कैसे मानिए। ताते ऐसे भी बन नाहीं।
बहुरि एक मोक्ष ऐसा कहै है-जो आत्मा ब्रह्म ही है, मायाका आवरण मिटे मुक्ति ही है सो यहु भी मिथ्या है। यह माया का आवरणसहित था तब ब्रह्मस्यों एक था कि जुदा था। जो एक था तो ब्रह्मही मायारूप भया अर जुदा था तो माया दूरि भए ब्रह्मविष मिले है तब याका अस्तित्व रहै है कि नाहीं । जो रहे है तो सर्वज्ञको तो याका अस्तित्व जुदा भास, तब संयोग होनेत मिल्या कहो परन्तु परमार्थते तो मिल्या नाहीं। बहुरि अस्तित्व नाहीं रहै है तो आपका अभाव होना कौन चाहै, तात यह भी न बने।
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रोचव अधिकार - १८
बहुरि एक प्रकार मोक्षको ऐसा भी केई कहै है जो बुद्धिआदिकका नाश भए मोक्ष हो है। सो शरीर के अंगभूत मन इन्द्रिय तिनके आधीन ज्ञान न रह्या । काम क्रोधादिक दूरि भए ऐसे कहना तो बने है अर तहाँ चेतनताका भी अभाव भया मानिए तो पाषाणादि समान जड़ अवस्थाको कैसे भली मानिए । बहुरि भला साधन करते तो जानपना बधै है, बहुत भला साधन किए जानपनेका अभाव होना कैसे मानिए? बहुरि लोकविषै ज्ञानकी महंततातें जड़पनाकी तो महंतता नाही, तातै यहु बनै नाहीं। ऐसे ही अनेक प्रकार कल्पनाकरि मोक्षको बतावै सो किडू यथार्थ तो जानै नाही, संसार अवस्थाकी मुक्ति अवस्थाविषै कल्पनाकरि अपनी इच्छा अनुसारि बकै है। या प्रकार वेदांतादि मतनियिषे अन्यथा निरूपण करै है।
मुस्लिममत सम्बन्धी विचार बहुरि ऐसे ही मुसलमानों के मतविषै अन्यथा निरूपण कर है। जैसे वे ब्रह्मको सर्वव्यापी, एक, निरंजन, सर्वका कर्ता-हर्ता माने है तैसे ए खुदाको मान है। बहुरि जैसे ये अवतार भए माने है तैसे ए पैगम्बर भए माने हैं। जैसे वे पुण्य - पापका लेखा लेना, यथायोग्य दण्डादिक देना ठहरावै है तैसे ये खुदाकै ठहरावै है। बहुरि जैसे वे गऊ आदिको पूज्य कहे हैं तैसे ए सूअर आदिको कहै हैं, सर्व तिर्यच आदिक हैं। बहुरि जैसे वे ईश्वर की भक्ति मुक्ति कहै है तैसे ए खुदा की भक्तित कहै हैं। बहुरि जैसे वे कहीं दया पोष, कहीं हिंसा पोषै, तैसे ए भी कहीं मेहर करनी पोषे कहीं कतल करना पोषै। बहुरि जैसे वे कहीं तपश्चरण करन पोषै कहीं विषयासेवन पोषे तैसे ही ए भी पोषे हैं। बहुरि जैसे वे कहीं मांस मदिरा शिकार
आदि का निषेध करै, कहीं उत्तम पुरुषोंकरि तिनिका अंगीकार करना बतावै हैं तैसे ए भी तिनिका निषेध | वा अंगीकार करना बतावै है। ऐसे अनेक प्रकारकरि समानता पाइए है। यद्यपि नामादिल और और हैं तथापि प्रयोजनभूत अर्थकी एकता पाइए है। बहुरि ईश्वर खुदा आदि मूल श्रद्धानकी तो एकता है अर उतर श्रद्धानविष घने ही विशेष हैं। तहाँ उनतें भी ए विपरीतरूप विषयकषायके पोषक, हिंसादिपापके पोषक, प्रत्यादि प्रमाणत विरुद्ध निरूपण करे हैं। तातें मुसलमान का मत महाविपरीतरूप जानना। या प्रकार इस क्षेत्रकालविर्ष जिनि मतनिकी प्रचुर प्रवृत्ति है ताका मिथ्यापना प्रगट किया।
इहाँ कोऊ कहै जो र मत मिथ्या है तो बड़े राजादिक वा बड़े विद्यावान इनि मतनिविर्ष कैसे प्रवत
ताका समाधान-जीवनिकै मिथ्यावासना अनादित है सो इनिविष मिथ्यात्व ही का पोषण है। बहुरि जीवनिकै विषयकषायरूप कार्यनिकी चाह वर्ते है सो इनि विष विषयकषाय रूप कार्य हीका पोषण है। बहुरि राजादिकनिका वा विद्यावानोका ऐसे धर्मविष विषयकषायरूप प्रयोजनसिद्धि हो है। बहुरि जीव तो लोकनिंद्यपना को भी उलंघि, पाप भी जानि जिन कार्यनिको किया चाहै तिनि कार्यनिको करते थर्म बतावै तो ऐसे धर्मविषै कौन न लागे। तातै इनि थर्मनिकी विशेषप्रवृत्ति है। बहुरि कदाचित् सू कहेगा-इनि धनिविष विरागता दया इत्यादि भी तो कहे हैं, सो जैसे झोल बिना खोटा द्रव्य चालै नाहीं, तैसे साँच मिलाए बिना झूठ थालै नाहीं परन्तु सर्वकै हित प्रयोजन विष विषयकषायका ही पोषण किया है। जैसे गीलाविषै उपदेश देय राडि(युद्ध)
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१०२
करावने का प्रयोजन प्रगट किया, वेदान्तविषै शुद्ध निरूपणकरि स्वच्छन्द होने का प्रयोजन दिखाया। ऐसे ही अन्य जानने। बहुरि यहु काल तो निकृष्ट है सो इसविष तो निकृष्ट धर्म ही की प्रवृत्ति विशेष होय है। देखो इस कालविर्षे मुसलमान प्रधान हो गए, हिन्दू घटि गए। हिन्दूनिविष और बधि गए जैनी घटि गए। सो यहु कालका दोष है, ऐसे इहाँ अबार मिथ्याधर्म की प्रवृत्ति बहुत पाइए है। अब पंडितपना के बलते कल्पितयुक्तिकरि नाना मत स्थापित भए हैं तिनिविषे जे तत्त्वादिक मानिए हैं तिनका निरूपण कीजिए है
सांख्यमत निराकरण तहाँ सांख्यमतविषै पच्चीस तत्त्व मानै हैं' सो कहिए हैं सत्त्व रज तम ए तीन गुण कहै। तहाँ सत्त्वकरि प्रसाद हो है, रजोगुणकरि चित्तकी चंचलता हो है, तमोगुणकरि मूढ़ता हो है, इत्यादि लक्षण कहै हैं। इनरूप अवस्था ताका नाम प्रकृति है। बहुरि तिसते बुद्धि निपजै है, याहीका नाम महत्तत्त्व है। बहुरि तिसते अहंकार निपजै है। बहुरि तिसत सोलहमात्रा हो हैं । तहाँ पाँच तो ज्ञानइन्द्रिय हो हैं-स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु श्रोत्र। बहुरि एक मन हो है। बहुरि पोच कर्मइन्द्रिय हो है-वचन, चरण, हस्त, लिंग, पायु। बहुरि पाँच तन्मात्रा हो हैं- रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द । बहुरि रूपः अग्नि, रसते जल, गंधर्तं पृथ्वी, स्पर्श पवन, शब्दतै आकाश, ऐसे भया कहै हैं। ऐसे चौईस तत्त्व तो प्रकृतिस्वरूप हैं। इनितै भिन्न निर्गुण कर्ता भोक्ता एक पुरुष है। ऐसे पच्चीस तत्त्व कहै है सो ए कल्पित हैं।
विशेष : सांख्यदर्शन का यह एक मत है। इसके विपरीत वहीं पर दूसरा मत भी उपलब्ध है। सांख्यदर्शन का मुख्य ग्रन्थ सांख्यकारिका है। उस पर अनेक टीकायें उपलब्ध हैं। उनमें से वाचस्पति मिश्र तथा जयमंगलाकार आदि का मत है कि शब्द से आकाश, शब्द व स्पर्श से वायु; शब्द, स्पर्श व रूप से अग्नि; शब्द, स्पर्श, रूप व रस से जल तथा शब्द, स्पर्श, रूप व रस तथा गन्ध से पृथ्वी उत्पन्न होती है परन्तु गौड़पाद भाष्य तथा माठरवृत्ति की मान्यतानुसार शब्द से आकाश, स्पर्श से वायु, रूप से अग्नि, रस से जल तथा गन्ध से पृथ्वी उत्पन्न होती है। यानी ये शब्द आदि अलग-अलग स्वतन्त्र रूप से आकाश आदि को उत्पन्न करते हैं। मूल में पण्डित टोडरमलजी ने मात्र गौड़पाद तथा माठर का मत लिखा है। (देखें सांख्यकारिका २२ की विभिन्न
टीकाएँ)
जातें राजसादिक गुण आश्रय बिना कैसे होय । इनका आश्रय तो चेतनद्रव्य ही सम्भव है। बहुरि इनित बुद्धि भई कहै सो बुद्धि नाम तो ज्ञान का है। सो ज्ञानगुणका धारी पदार्थविषै ए होते देखिए हैं। इनितें ज्ञान भया,कैसे मानिए। कोई कहै-बुद्धि जुदी है, ज्ञान जुदा है तो मन तो आगै षोड़शमात्राविषै कह्या अर ज्ञान जुदा कहोगे तो बुद्धि किसका नाम ठहरेगा। बहुरि तिसत अहंकार भया कथा सो परवस्तु विष 'मैं करूँ
१. प्रकृतेमहांस्ततोळंकारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः ।
तस्मादपि षोडशकात्पंचभ्यः पंचभूतानि।। - सांख्य का. १२ ।।
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पाँचदा अधिकार-१०३
हूँ' ऐसा मानने का नाम अहंकार है। साक्षीभूत जानने करि तो अहंकार होता नाहीं तो ज्ञानकरि उपज्या कैसे कहिए है? बहुरि अहंकारकरि षोड़श मात्रा कहीं, तिनि विषै पाँच ज्ञानइन्द्रिय कही सो शरीरविषै नेत्रादि आकाररूप द्रव्येन्द्रिय हैं सो तो पृथ्वी आदिवत् जड़ देखिए है अर वर्णादिकके जाननेरूप भावइन्द्रिय है सो ज्ञानरूप है, अहंकारका कहा प्रयोजन है। अहंकार बुद्धिरहित कोऊ काहूको देखै है। तहाँ अहंकार करि निपजना कैसे सम्भबै? बहुरि मन कह्या सो इन्द्रियवत् ही मन है। जाते द्रव्यमन शरीररूप है, भावमन मानरूप है। बहरि पाँच कर्मइन्द्रिय कही सो ए तो शरीर के अंग हैं, मूर्तीक हैं अहंकार अमूर्तीक तैं इनिका उपजना कैसे मानिए। बहुरि कर्मइन्द्रिय पाँच ही तो नाहीं । शरीर के सर्व अंग कार्यकारी हैं। बहुरि वर्णन तो सर्व जीवाश्रित है,मनुष्याश्रित ही तो नाही, ताः सुंडि पूंछ इत्यादि अंग भी कर्मइन्द्रिय है। पाँच ही की संख्या काहेको कहिए है। बहुरि स्पर्शादिक पाँच तन्मात्रा कही सो रूपादि किछू जुदे वस्तु नाहीं, ए तो परमाणूनिस्यों तन्मय गुण हैं। ए जुदे कैसे निपजे? बहुरि अहंकार तो अमूर्तीक जीवका परिणाम है। ताते ए मूर्तीकगुण कैसे निपजे मानिए । बहुरि इनि पाँचनितें अग्नि आदि निपजे कह सो प्रत्यक्ष झूट है। रूपादिक अग्न्यादिककै तो सहभूत गुण-गुणी सम्बन्ध है। कहने मात्र भिन्न है, वस्तुविधै भेद नाहीं। किसी प्रकार कोऊ भिन्न होता भासै नाही, कहने मात्रकरि भेद उपजाइए है। तात रूपादि करि अग्न्यादि निपजे कैसे कहिए। बहुरि कहनेविष भी गुणीविषै गुण हैं, गुणते गुणी निपज्या कैसे मानिए?
___ बहुरि इनिः भिन्न एक पुरुष कहै है सो वाका स्वरूप अवक्तव्य कहि प्रत्युत्तर न करै तो कहा बूझै नाहीं। कैसा है, कहाँ है, कैसे कर्ता हर्ता है सो बताय। जो बतायेगा ताहीमें विचार किए अन्यथापनो भासेगा। ऐसे सांख्यमत करि कल्पित तत्त्व मिथ्या जानने।
बहुरि पुरुषको प्रकृतिते भिन्न जाननेका नाम मोक्षमार्ग कहै है। सो प्रथम तो प्रकृति अर पुरुष कोई है ही नाहीं । बहुरि केवल जानने ही ते तो सिद्धि होती नाहीं। जानिकरि रागादिक मिटाए सिद्धि होय । सो ऐसे जाने किछू रागादिक घटै नाहीं। प्रकृतिका कर्त्तव्य माने, आप अकर्ता है, तब काहेको आप रागादि घटावै। तास यह मोसमार्ग नाहीं है।
बहुरि प्रकृति, पुरुषका जुदा होना मोक्ष कहै है।' सो पम्चीस तत्त्वनिविषै चोईस तत्त्व तो प्रकृति सम्बन्धी कहे, एक पुरुष भिन्न कह्या । सो ए तो जुदे हैं ही अर जीव कोई पदार्थ पच्चीस तत्त्वनिविष कह्या ही नाहीं। अर पुरुष ही को प्रकृति संयोग भए जीव संज्ञा हो है तो पुरुष न्यारे-न्यारे प्रकृति सहित हैं, पीछ साधनकरि कोई पुरुष प्रकृति रहिल हो है, ऐसा सिद्ध भया- एक पुरुष न ठहरया। १. सांख्यकारिका ४४ में कहा है
धर्मेण गमनमूर्ध्वं गमनमथस्साद् भवत्यधर्मण।
शानेन चारवर्गो विपर्ययादिष्यते बन्यः ।। अर्थ- धर्म से ऊर्यलोकों में गति होती है और अथर्म से अधोलोकों में । जान से मोक्ष होता है तथा उसके विपरीत अजान से बन्ध होता है। (सांख्यकारिका २ की तत्त्वकौमुदी में श्रद्धा व भावना (चारित्र) समन्वित ज्ञान से मोक्ष कहा है। इतना विशेष है।)
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१०४
बहुरि प्रकृति पुरुष की भूलि है कि कोई व्यंतरीबत जुदी ही है जो जीवको आनि लागै है। जो याकी . भूलि है तो प्रकृति” इन्द्रियादिक वा स्पर्शादिक तत्त्व उपजे कैसे मानिए? अर जुदी है तो वह भी एक वस्तु है, सर्व कर्तव्य धाका टहस्या । पुरुषको सिधू कर्तव्य ही रखी नाही, तब काहेको उपदेश दीजिए है। ऐसे यहु मोक्ष मानना मिथ्या है। बहुरि तहाँ प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम ए तीन प्रमाण कह है सो तिनिका सत्य असत्यका निर्णय जैनके न्यायग्रन्थनितें जानना।
विशेष- सांख्यदर्शन में तो पुरुषबहुत्व माना ही है। सांख्यों के आचार्यों ने पुरुष की अनेकता का प्रतिपादन किया ही है। सांख्यकारिका १८ में युक्ति के द्वारा पुरुष की अनेकता (बहुत्व) साधी ही है। वहाँ कहा है कि जन्म-मरण (भिन्न-भिन्न समय में होने से) तथा इन्द्रियों की (भिन्नतारूप) व्यवस्था के कारण, एक साथ सबकी प्रवृत्ति के अभाव के कारण तथा त्रिगुण की प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न स्थिति होने के कारण पुरुष (आत्मा) की अनेकता सिद्ध है। इस प्रकार सांख्यदर्शन तो अनेकपुरुषत्व स्वीकार करते ही हैं। परन्तु अद्वैतवादी वेदान्ती पुरुष (आत्मा) की एकता का प्रतिपादन करते हैं।
कपिल, आसुरि, पंचशिख तथा पतंजलि इत्यादि आचार्य पुरुष की अनेकता का निरूपण करते हैं जबकि हरिहर, हिरण्यगर्भ एवं व्यास आदि वेदवादी आचार्य सभी व्यक्तियों में एक ही आत्मा के अस्तित्व का प्रतिपादन करते हैं।
सांख्यदर्शन के आचार्यों का कथन है कि सांख्य के पुरुषबहुत्व और श्रुतियों के एकात्मवाद में मूलतः कोई विरोध नहीं है। क्योंकि श्रुतियों में आत्मा के एकत्व का प्रतिपादन जाति की दृष्टि से हुआ है। जैसे सभी प्रकार के वृक्षों के लिए जातिपरक एक ही शब्द 'वृक्ष' का प्रयोग होता है, उसी प्रकार अनन्त पुरुषों में भी पुरुषत्व वस्तुतः एक ही है। यानी जातितः आत्मा एक है अतः श्रुतिवचन ठीक है। तथा व्यक्तितः आत्मा अनेक हैं अतः सांख्यदर्शन का मत भी ठीक ही है। (सांख्यतत्त्व कौमुदी प्रस्तावना पृ. ३८, मूल पृ. १०२ कारिका १८ की टीका : व्याख्याकार- डॉ. ओमप्रकाश पाण्डेय)
बहुरि इस सांख्यमतविष कोई ईश्वरको न मान है। केई एक पुरुषको ईश्वर मान हैं। कई शिवको, केई नारायणको देव माने हैं। अपनी इच्छा अनुसारि कल्पना करै हैं, किछू निश्चय है नाहीं। बहुरि इस मतविष केई जटा धारै हैं, केई चोटी राखै हैं, केई मुण्डित हो हैं, केई काथे वस्त्र पहरै हैं इत्यादि अनेक प्रकार भेष धारि तत्त्वज्ञानका आश्रयकरि महंत कहावै हैं। ऐसे सांख्यमतका निरूपण किया।
नैयायिक मत निराकरण : . बहुरि शिवमतविषै दोय भेद हैं-नैयायिक, वैशेषिक। तहां नैयायिकमत विषै सोलह तत्त्व कहै हैं।
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पांचा अधिकार--१०५
प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान। तहां प्रमाण च्यारि प्रकार कहै है। प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमा। बहुरि आत्मा, देह, अर्थ, बुद्धि इत्यादि प्रमेय कहै हैं। बहुरि 'यहु कहा है' ताका नाम संशय है। जाके अर्थि प्रवृत्ति होय सो प्रयोजन है। जाको वार्दा प्रतिवादी मानै सो दृष्टांत है। दृष्टांतकरि जाको ठहराइए सो सिद्धान्त है। बहुरि अनुमान के प्रतिज्ञा आदि पंच अंग ते अवयव हैं। संशय दूरि भए किसी विचारतें ठीक होय सो तर्क है। पीछे प्रतीतिरूप जानना सो निर्णय है। आचार्य शिष्यकै पक्ष प्रतिपक्षकरि अभ्यास सो वाद है। जाननेकी इच्छारूप कथाविषै जो छल जाति आदि दूषण होय सो जल्य है। प्रतिपक्ष-रहित वाद सो वितंडा है। सांचे हेतु नाहीं, से असिद्ध आदि भेद लिए हेत्वाभास हैं। छललिये बचन सो छल हैं। सांचे दूषण नाहीं ऐसे दूषणाभास सो जाति है। जाकरि परवादी का निग्रह होय सो निग्रहस्थान है। या प्रकार संशयादि तत्त्व कहे सो ए तो कोई वस्तुस्वरूप तो तत्त्व है नाहीं । ज्ञान के निर्णय करने को वा वादकार पांडित्य प्रगट करने को कारणभूत विद्याररूप तत्त्व कहे सो इनिः परमार्थ कार्य कहा होई? काम क्रोधादि भावको मेटि निराकुल होना सो कार्य है। सो तो इहां प्रयोजन किछु दिखाया ही नाहीं । पंडिताई की नाना युक्ति बनाई सो यह भी एक चातुर्य है, ताते ये तत्त्व तत्त्यभूत नाहीं। बहुरि कहांगे इनका जाने बिना प्रयोजनभूत तत्त्वनिका निर्णय न करि सकै, तातै ए तत्त्व कहे हैं। सो ऐसी परम्परा तो व्याकरण वाले भी कहै हैं। व्याकरण पढ़े अर्थनिर्णय होइ वा भोजनादिक के अधिकारी भी कह हैं कि भोजन किए शरीर की स्थिरता भए तत्त्वनिर्णय करने को समर्थ होय सो ऐसी युक्ति कार्यकारी नाहीं। बहुरि जो कहोगे, व्याकरण भोजनादिक तो अवश्य तत्त्वज्ञानको कारण नाहीं, लौकिक कार्य साधने को भी कारण हैं, सो जैसे ये हैं तैसे ही तुम तत्त्व कहे, सो भी लौकिक (कार्य) साधनेको कारण हो हैं। जैसे इन्द्रियादिक के जाननेको प्रत्यक्षादि प्रमाण कहे वा स्थाणु पुरुषादिविर्षे संशयादिकका निरूपण किया। तातें जिनको जाने अवश्य काम क्रोधादि दूरि होय, निराकुलता निपजै, वे ही तस्व कार्यकारी हैं। बहुरि कहोगे, जो प्रमेय तत्त्वावेष आत्मादिकका निर्णय हो है सो कार्यकारी है। सो प्रमेय तो सर्व ही वस्तु है। प्रमितिका विषय नाही, ऐसा कोई भी नाहीं, तातै प्रमेय तत्त्व काहेको कहा। आत्मा आदि तत्त्व कहने थे। बहुरि आत्मादिकका भी स्वरूप अन्यथा प्ररूपण किया सो पक्षपातरहित विचार किए मासे है। जैसे आत्माके दोय भेद कहै हैं-परमात्मा, जीवात्मा। तहां परमात्मा को सर्वका कर्ता बतावै हैं। तहाँ ऐसा अनुमान करै हैं जो यह जगत् कर्त्ताकरि निपज्या है, जाते यह कार्य है। जो कार्य है सो कर्ताकार निपज्या है, जैसे घटादिक । सो यह अनुमानाभास है। जाते ऐसा अनुमानान्तर सम्भवै है। यह जगत् सर्व कर्ताकार निपज्या नाहीं जाते याविषै कोई अकार्यरूप भी पदार्थ है। जो अकार्य है सो कर्त्ताकरि निपज्या नाही, असे सूर्यबिम्बादिक। तात अनेक पदार्थनिका समुदायरूप जगत् तिसविषे कोई पदार्थ कृत्रिम हैं सो मनुष्यादिककार किए होय है, कोई अकृत्रिम हैं मो ताका कर्ता नाहीं। यह प्रत्यक्षादि प्रमाण के अगोचर है ताल ईश्वरको: कर्ता मानना मिथ्या है। बहुरि जीवात्माको प्रति शरीर भिन्न कहे हैं। सो यह सत्य है परन्तु मुक्त गए पीई भी भिन्न ही मानना योग्य है। विशेष पूर्व कह्या ही है। ऐसे ही अन्य तत्त्वनिको मिथ्या प्ररूप है। बहुरि प्रमाणादिकका भी स्वरूप अन्यथा कल्पै है सो जैनग्रन्थनिः परीक्षा किए मासै है। ऐसे . नैयायिकमतविष कहे कल्पित तत्त्व जानने।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१०६
वैशेषिकमत निराकरण बहुरि वैशेषिकमतविषै छह तत्त्व कहे हैं। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समयाय। तहाँ द्रव्य नवप्रकार-पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, आकाश, काल, दिशा, आत्मा, मन। तहां पृथ्वी जल अग्नि पवनके परमाणु भिन्न-भिन्न हैं। ते परमाणु नित्य हैं। तिनकरि कार्यरूप पृथ्वी आदि हो है सो अनित्य है। सो ऐसा कहना प्रत्यक्षादित विरुद्ध है। ईंधन स पृथ्वी के परमाणु आग्नरूप होते देखिए हैं। अग्नि के परमाणु राखरूप पृथ्वी होते देखिए है। जलके परमाणु मुक्ताफल (मोती) रूप पृथ्वी होते देखिए है। बहुरि जो तू कलैगा, वे परमाणु जाते रहे हैं, और ही परमाणु तिनिरूप हो हैं सो प्रत्यक्षको असत्य ठहराव है। ऐसी कोई प्रबलयुक्ति कह तो ऐसे ही माने, परन्तु सेवन कहे ही नो ऐसे ठहरै नाहीं। तातै सब परमाणूनिकी एक पुद्गलरूप मूर्तीक जाति है सो पृथ्वी आदि अनेक अवस्थास्प परिणमै है। बहुरि इन पृथ्वी आदिकका कहीं जुदा शरीर ठहराचे है, सो मिथ्या ही है। जाते वाका कोई प्रमाण नाहीं । अर पृथ्वी आदि तो परमाणु पिंड है। इनका शरीर अन्यत्र, ए अन्यत्र ऐसा सम्भव नाहीं तात यहु मिथ्या है। बहुरि जहाँ पदार्थ अटकै नाही, ऐसी जो पोलि ताको आकाश कहै हैं । क्षण पल आदिको काल कहै हैं। सो ए दोन्यों ही अवस्तु हैं। सत्तारूप ए पदार्थ नाहीं। पदार्थनिका क्षेत्रपरिणमनादिकका पूर्वापरविद्यार करने के अर्थ इनकी कल्पना कीजिए है। बहुरि दिशा किछू है ही नाहीं। आकाशविष खंड कल्पनाकरि दिशा मानिए है; बहुरि आत्मा दोय प्रकार कहै है सो पूर्व निरूपण किया ही है। बहुरि मन कोई जुदा पदार्थ नाहीं। भावमन तो मानसप है सो आत्मा का स्वरूप है। द्रव्यमन परमाणूनिका पिंड है सो शरीर का अंग है। ऐसे ए द्रव्य कल्पित जानने । बहुरि गुण चौईस कहै हैं-स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, संख्या, विभाग, संयोग, परिमाण, पृथक्त्व, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, संस्कार, द्वेष, स्नेह, गुरुत्व, द्रव्यत्व ! सो इनिविर्व स्पर्शादिक गुण तो परमाणुनिविषै पाइए है। परन्तु पृथ्वी को गन्थयती ही कहनी, जल को शीत स्पर्शवान ही कहना इत्यादि मिथ्या है, जाते कोई पृथ्वी विषै गंथ की मुख्यता न भासे है, कोई जल उष्ण देखिए है इत्यादि प्रत्यक्षादित विरुद्ध हैं। बहुरि शब्द को आकाशका गुण कहै सो मिथ्या है। शब्द तो भीति इत्यादिस्यों रुकै है, तातै मूर्तीक है। आकाश अमूर्तीक सर्वव्यापी है। भीतिविध आकाश रहे शब्दगुण न प्रवेशकार सके, यहु कैसे बने? बहुरि संख्यादिक है सो वस्तुविषै तो किछू है नाही, अन्य पदार्थ अपेक्षा अन्य पदार्थ के होनाषिक जानने को अपने ज्ञानविषै संख्यादिककी कल्पनाकरि विचार कीजिए है। बहुरि बुद्धि आदि है, सो आत्मा का परिणमन है। तहाँ बुद्धि नाम ज्ञान का है तो आत्मा का गुण है ही अर मन का नाम है तो मन तो द्रव्यनिविष कक्षा ही था, यहाँ गुण काहेको कहा। बहुरे सुखादिक है सो आत्माविषे कदाचित् पाइए है, आस्मा के लक्षणपूत तो ए गुण है नाहीं, अव्याप्तपनेत लक्षणाभास है; बहुरि स्नेहादि पुद्गलपरमाणुविष पाइए है सो स्निग्य गुरु इत्यादि तो स्पर्शन इन्द्रियकार जानिए तारौं स्पर्शगुणविङ गर्मित भए, जुदे काहेको कहै। बद्धरि द्रव्यत्वगुण जलविषे कहा, सो ऐसे तो अग्निआदिविषै ऊर्ध्वगपनत्य आदि पाइए है। के तो सर्व कहने थे, के सामान्यविषे । गर्भित करने थे। ऐसे ए गुण कहे ते भी कल्पित है। बहुरि कर्म पाँच प्रकार कहै है-उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण, गमन । सो ए तो शरीरकी चेष्टा है। इनिको जुदा कहनेका अर्थ कहा। बहुरि एती हो
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पाँचवाँ अधिकार-१०७
चेष्टा तो होती नाही, चेष्टा तो धनी ही प्रकारकी हो हैं। बहुरि जुदी ही इनको तत्त्वसंज्ञा कही;सो के तो जुदा पदार्थ होय तो ताको जुदा तत्त्य कहना था, के काम क्रोधादि भेटनेको विशेष प्रयोजनभूत होय तो तत्त्व कहना था, सो दोऊ ही नाहीं। अर ऐसे ही हि दे पाशविका अनेक आशा हो हैं सो कह्या करो, किछू साध्य नाहीं। बहुरि सामान्य दोय प्रकार है-पर अपर। तहां पर तो सत्तास्लप है, अपर द्रव्यत्वादिरूप है। बहुरि नित्य द्रव्यविषै प्रवृत्ति जिनकी होय ते विशेष हैं। बहुरि अयुतसिद्ध सम्बन्ध का नाम समवाय है। सो सामान्यादिक तो बहुतनिको एकप्रकारकरि वा एक वस्तुविषे भेदकल्पना करि वा भेद कल्पना अपेक्षा सम्बन्ध माननेकरि अपने विचारहीविष हो है, कोई ए जुदे पदार्थ तो नाहीं। बहुरि इनिके जाने कामक्रोधादि मेटनेरूप विशेष प्रयोजनकी भी सिद्धि नाहीं, ता इनको तत्त्य काहेको कहै। अर ऐसे ही तत्त्व कहने थे तो प्रमेयस्वादि वस्तुके अनंतधर्म हैं वा सम्बन्ध आधारादिक कारकनिके अनेक प्रकार यस्तुविषै सम्भवै हैं। के तो सर्व कहने थे, के प्रयोजन जानि कहने थे। तातै ए सामान्यादिक तत्त्व भी वृथा ही कहे। ऐसे वैशेषिकनिकरि कहे कल्पित तत्त्व जानने । बहुरि वैशेषिक दोय ही प्रमाण माने हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान। सो इनिका सत्य असत्यका निर्णय जैनन्यायग्रन्थनितें जानना।
बहुरि नैयायिक तो कहै है-विषय, इन्द्रिय, बुद्धि, शरीर, सुख, दुःख इनिका अभावते आत्माकी स्थिति सो मुक्ति है। अर वैशेषिक कहै हैं-चौईस गुणनिविषै बुद्धि आदि नवगुण तिनिका अभाव सो मुक्ति है। सो इहां बुद्धिका अभाव कह्या सो बुद्धि नाम ज्ञानका है तो ज्ञानका अधिकरणपना आत्माका लक्षण करा था, अब ज्ञानका अभाव भए लक्षणका अभाव होते लक्ष्यका भी अभाव होय, तब आत्माकी स्थिति कैसे रही। अर जो बुद्धि नाम मन का है तो भावमन तो जानरूप है ही अर द्रव्य मन शरीररूप है सो मुक्त भए द्रव्यमन का सम्बन्ध छूटै ही है सो द्रव्य-मन जड़ ताका नाम बुद्धि कैसे होय? बहुरि मनवत् ही इन्द्रिय जानने । बहुरि विषयका अभाव होय सो स्पर्शादि विषयनिका जानना मिटै है तो ज्ञान काहेका नाम ठहरेगा। अर तिनि विषयनिका ही अभाव होयगा तो तोकका अभाव होयगा। बहुरि सुखका अभाव कह्या सो सुख ही के अर्थ उपाय कीजिए है, ताका जहाँ अभाव होय सो उपादेय कैसे होय। बहुरि जो आकुलतामय इन्द्रियजनित सुखका तहाँ अभाव भया कहै तो यह सत्य है। अर निराकुलता लक्षण अतीन्द्रियसुख तो तहाँ सम्पूर्ण सम्भवै है तातै सुखका अभाव नाहीं। बहुरि शरीर दुःख द्वेषादिकका तहाँ अभाव कहै सो सत्य ही
. बहुरि शिवमतविषै कर्ता निर्गुण ईश्वर शिव है ताको देय माने है। सो याके स्वरूपका अन्यथापना पूर्वोक्त प्रकार जानना। बहुरि यहाँ भस्मी, कोपीन, जटा, जनेऊ, इत्यादि चिहसहित भेष हो है सो आधारादि भेदतै च्यारि प्रकार है- शैव, पाशुपत, महाव्रती, कालमुख। सो ए रागादि सहित है तात सुलिंग नाहीं। ऐसे शिवमत का निरूपण किया। .
१. देवागम, युक्त्पनुशासन, अष्टसहस्री, न्यायविनिश्चय, सिसिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह, तत्त्वार्यश्लोकवार्तिक, राजवार्तिक,
प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रादि दार्शनिक ग्रन्थों से जानना चाहिए। .
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१०८
मीमांसकमत निराकरण अब मीमांसक मत का स्वरूप कहिए है। मीमांसक दोय प्रकार हैं-ब्रह्मवादी, कर्मवादी। तहाँ ब्रह्मवादी तो सर्व यहु ब्रह्म है, दूसरा कोई नाहीं ऐसा वेदान्तविष अद्वैत ब्रह्मको निरूपै हैं। बहुरि आत्माविषै लय होना सो मुक्ति कहै हैं। सो इनिका मिध्यापना पूर्व दिखाया है सो विचारना । बहुरि कर्मवादी क्रिया आचार यज्ञादिक कार्यनिका कर्तव्यपना प्ररूपै हैं सो इन क्रियानिविषे रागादिकका सभाय पाइए है, ताते ए कार्य किछू भावारी हैं नाहीं : बहु हाँ हर प्रकार' करि करी हुई दोय पद्धति है। तहाँ भट्ट तो छह प्रमाण माने हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, वेद, उपमा, अर्थापत्ति, अभाव । बहुरि प्रभाकर अभाव बिना पाँच ही प्रमाण माने है। सो इनिका सत्यासत्यपना जैनशास्त्रनितें जानना। बहुरि तहाँ षट्कर्मसहित ब्रह्मसूत्रके धारक शूद्रका अन्नादिके त्यागि ते गृहस्था श्रम है नाम जिनिझा ऐसे भट्ट हैं। बहुरि वेदान्तविष यज्ञोपवीतरहित विप्र अन्नादिक के ग्राही, भगवत् है नाम जिनका ऐसे च्यारि प्रकार हैं-कुटीचर, बहूदक, हंस, परमहंस। सो ए किछू त्यागकरि सन्तुष्ट भए हैं परन्तु ज्ञान श्रद्धानका निध्यापना अर रागादिकका सद्भाव इनके पाइए है। ताते ए भेष कार्यकारी नाहीं।
जैमिनीयमत निराकरण बहुरि यहाँ ही जैमिनीयमत सम्भबै है, सो ऐसे कहै है
सर्वज्ञदेव कोई है नाहीं । नित्य वेद वचन हैं, तिनित यथार्थ निर्णय हो है। तातै पहले वेदणठकार क्रिया प्रति प्रवर्त्तना सो तो नोदना (प्रेरणा) सोई है लक्षण जाका ऐसा धर्म, ताका साथन करना। जैसे कहे हैं "स्वः कामोऽग्नि यजेत्” स्वर्ग अभिलाषी अग्निके पूजे, इत्यादि निरूपण करै है।
यहाँ पूछिए है- शैव, सांख्य, नैयायिकादिक सब ही वेदको मान हैं, तुम भी मानो हो। तुम्हारे वा उन सबनिकै तत्त्वादि निरूपणविषै परस्पर विरुद्धता पाइए है सो है कहा? जो वेद ही विषै कहीं किछू कहीं किछू निरूपण है तो वाकी प्रमाणता कैसे रही । अर जो मतवाले ही कहीं किछू कहीं किछू निरूपण करै है तो तुम परस्पर झगरिनिर्णय करि एकको वेदका अनुसारी अन्यको वेदत पराङ्मुख ठहरावो। सो हमको तो यहु भासै है, वेदहीविषे पूर्यापर विरुद्धतालिए निरूपण है। तिसते ताका अपनी-अपनी इच्छानुसारि अर्थ प्रहण करि जुदे-जुदे मतके अधिकारी भए हैं। सो ऐसे वेदको प्रमाण कैसे कीजिए है। बहुरि अग्नि पूजे स्वर्ग होय, सो अग्नि मनुष्यते उत्तम कैसे मानिए? प्रत्याविरुद्ध है। बहुरि कह स्वर्गदाता कैसे होय। ऐसे ही अन्य वेदवचन प्रमाणविरुद्ध हैं। बहुरि वेदविष ब्रह्मा कहा है, सर्वज्ञ कैसे न माने है। इत्यादि प्रकारकरि जैमिनीय मत कल्पित जानना।
विशेष-अज्ञानी लोगों के द्वारा पूजी जाने वाली अग्नि (जिसे वे देवता कहते हैं) लोहे के पिण्ड के संसर्ग से घनों द्वारा पीटी जाती है, नीचे रखे हुए अहरन (निहाई) के ऊपर धन की चोट, संडासी से खींचना, चोट लगने से टूटना इत्यादि दुःखों को सहती है। (परमात्मप्रकाश २/११४ पृ. २३४ रायचन्द्र शास्त्रमाला) कहा भी है- 'अग्नि सहे घनघात, लोह की संगति पाई' ऐसी अग्नि पूज्य कैसे हो सकती है?
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पांचवा अधिकार-१०९
बौद्धमत निराकरण अब बौद्ध मतका स्वरूप कहिए है
बौद्धमतविष च्यारि आर्यसत्य' प्ररूपे है दुःख, आयतन, समुदय, मार्ग। तहाँ संसारीकै स्कंधरूप सो दुःख है। सो पाँच प्रकार है - विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार, रूप। तहाँ रूपादिकका जानना सो विज्ञान है, सुख दुःख का अनुभवना सो वेदना है, सूताका जागना सो संज्ञा है, पढ़या था सो याद करना सो सरकार है, रूपका थारना सो रूप। सो यहाँ विज्ञानादिकको दुःख कह्या सो पिथ्या है। दुःख तो काम क्रोधादिक है, ज्ञान दुःख नाहीं। यह तो प्रत्यक्ष देखिए है। काहू के ज्ञान थोरा है अर क्रोध लोभादिक बहुत है सो दुःखी है। काहूकै ज्ञान बहुत है, काम क्रोधादि स्तोक है वा नाही है सो सुखी है। तातै विज्ञानादिक दुःख नाहीं है। बहुरि आयतन बारह कहे हैं। पाँच तो इन्द्रिय अर तिनिके शब्दादिक पाँच विषय अर एक मन, एक धर्मायतन। सो ये आयतन किस अर्थि कहे। क्षणिक सबको कहै, इनिका कहा प्रयोजन हैं? बहुरि जाते रागादिकका गण निपजे ऐसा आत्मा अर आत्मीय है नाम जाका सो समुदय है। तहां अहंरूप आत्मा अर ममरूप आत्मीय जानना, सो क्षणिक मान इनिका भी कहने का किछु प्रयोजन नाहीं। बहुरि सर्व संस्कार क्षणिक हैं, ऐसी वासना सो मार्ग है सो प्रत्यक्ष बहुत काल स्थायी केई वस्तु अवलोकिए है। तू कहेगा एक अवस्था न रहै है तो यह हम भी माने हैं। सूक्ष्मपर्याय क्षणस्थायी है। बहुरि तिस वस्तु ही का नाश माने, यहु तो होता न दीसै है, हम कैसे माने? बहुरि बाल-वृद्धादि अवस्थाविषै एक आत्मा का अस्तित्व भासै है। जो एक नाही है तो पूर्व उत्तर कार्यका एक कर्ता कैसे मान है। जो तू कहेगा संस्कारते है तो संस्कार कौन के हैं। जाके हैं सो नित्य है कि क्षणिक है। नित्य है तो सर्व क्षणिक कैसे कहै है। क्षणिक है तो जाका आधार ही क्षणिक तिस संस्कारकी परम्परा कैसे कहै है। बहुरि सर्व क्षणिक भया तब आप भी क्षणिक भया । तू ऐसी वासनाको मार्ग कह है सो इस मार्गका फल को आप तो पावै ही नाही, काहेको इस मार्ग विषै प्रवर्त। बहुरि तेरे मत विष निरर्थक शास्त्र काहे को किए। उपदेश तो किछु कर्तव्यकरि फल पावै तिसके अर्थ दीजिए है। ऐसे यह मार्ग मिथ्या है। बहुरि रागादिक ज्ञानसन्तान वासना का उच्छेद जो निरोध, ताको मोक्ष कहै है। सो क्षणिक भया तब मोक्ष कौनकै कहै। अर रागादिकका अभाव होना तो हम भी माने हैं। अर ज्ञानादिक अपने स्वरूपका अभाव भए तो आपका अभाव होय ताका उपाय करना कैसे हितकारी होय। १. दुःखमायतनं चैव ततः समुदयो मतः । ___ मार्गश्चेत्यस्य च व्याख्या क्रमेण श्रूयतामतः ।।३६ ।। - वि.वि. २. दुःखं संसारिणः स्कन्धास्ते च पञ्च प्रकीर्तिताः।
विज्ञानं वेदना संज्ञा संस्कारो रूपमेव च।३७।। - वि. दि. ३. रूप पंचेन्द्रियाण्याः पंचाविज्ञप्तिरेव च।
तसिमानाश्रया रूपप्रसादाश्चक्षुरादयः ।। वेदनानुभवः संज्ञा निमित्तोद्ग्रहणात्मिका । संस्कारस्कंधश्चाभ्योन्ये संस्कारास्त इमे त्रयः।।१५।। विज्ञान प्रति विज्ञप्ति.... ||१६ ।। अ.को. (१)।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - १५०
हिताहितका विचार करनेवाला तो ज्ञान ही है। सो आपका अभाव को ज्ञान हित कैसे मानै । बहुरि बौद्ध मतविषै दोय प्रमाण मान हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान । सो इनिके सत्यासत्यका निरूपण जैनशास्त्रनितें जानना । बहुरि जो ए दोय ही प्रमाण हैं, तो इनिके शास्त्र अप्रमाण भए, तिनिका निरूपण किस अर्थि किया। प्रत्यक्ष अनुमान तो जीव आप ही करि लेंगे, तुम शा काहे को किए। बहुरि सुगतको देना है सो ताका स्वरूप नग्न वा विक्रियारूप स्थापै है सो विडम्बनारूप है । बहुरि कमंडल रक्तांबर के धारी पूर्वाह्न विषे भोजन करें इत्यादि लिंगरूप बौद्धमत के भिक्षुक हैं सो क्षणिक को भेष धरने का कहा :योजन ? परन्तु महंतता के अर्थि कल्पित निरूपण करना अर भेष धरना हो है। ऐसे बौद्ध हैं ते व्यारि प्रकार हैं- वैभाषिक, सौत्रांतिक, योगाचार, मध्यम तहाँ वैभाषिक तो ज्ञानसहित पदार्थ को माने हैं। सौत्रांतिक प्रत्यक्ष यहु देखिए है, सांई है, परे किछू नाहीं ऐसा माने हैं। योगाचारनिके आचारसहित बुद्धि पाईए है। मध्यम हैं ते पदार्थ का आश्रय बिना ज्ञानही को माने हैं। सो अपनी-अपनी कल्पना करे हैं। विचार किए किछू ठिकानाकी बात नाहीं। ऐसे बौद्धमत का निरूपण किया।
चार्वाकमत निराकरण
अब चार्वाकमतका स्वरूप कहिये है
कोई सर्वज्ञदेव धर्म अधर्म मोक्ष है नाहीं वा पुण्य पाप का फल है नाहीं वा परलोक नाहीं, यह इन्द्रियगोचर जितना है सो ही लोक है; ऐसे चार्वाक कहे हैं सो तहाँ वाको पूछिए है सर्वज्ञदेव इस कालक्षेत्र विषै नाहीं कि सर्वदा सर्वत्र नाहीं । इस कालक्षेत्रविषे तो हम भी नाहीं माने हैं। अर सर्वकालक्षेत्रविष नाहीं ऐसा सर्वन बिना जानना किसकै भया । जो सर्व क्षेत्रकालकी जानै सो ही सर्वज्ञ अर न जाने है तो निषेध कैसे करे है। बहुरि धर्म अधर्म लोकविषे प्रसिद्ध हैं। जो ए कल्पित होय तो सर्वजन सुप्रसिद्ध कैसे होय । बहुरि धर्म अधर्मरूप परणति होती देखिए है, ताकरि वर्तमान ही में सुखी दुःखी हो है । इनिको कैसे न मानिए । अर मोक्षका होना अनुमानविषै आवै है । क्रोधादिक दोष काहूकै हीन है, काहूकै अधिक है तो जानिए है काहू इनकी नास्ति भी होती होसी । अर ज्ञानादि गुण काहूकै हीन काहूकै अधिक भासे है, तातें जानिए है काहूकै सम्पूर्ण भी होते होसी । ऐसे जाकै समस्तदोषकी हानि गुणनिकी प्राप्ति होय सोई मोक्ष अवस्था है। बहुरि पुण्य-पाप का फल भी देखिए है। कौऊ उद्यम करे तो भी दरिद्री रहे, कोऊकै स्वयमेव लक्ष्मी होय । कोऊ शरीरका यत्न करे तो भी रोगी रहे, काहूके बिना ही यत्न निरोगता रहे। इत्यादि प्रत्यक्ष देखिए है सो याका कारण कोई तो होगा। जो याका कारण सोई पुण्य पाप है। बहुरि परलोकभी प्रत्यक्ष अनुमानतें भासै है । व्यंतरादिक हैं ते अवलोकिए हैं। मैं अमुक था सो देव भया हूँ। बहुरि तू कहेगा यहु तो पवन है सो हम तो 'मैं हूँ' इत्यादि चेतनाभाव जाकै आश्रय पाईए ताहीको आत्मा कहै है सो तू वाका नाम पवन कहिं परन्तु पवन तो भाँति आदिकरि अटके है, आत्मा मूंद्या ( बंद) हुआ भी अटके नाहीं, ताते पवन कैसे मानिए है। बहुरि जितना इन्द्रियगोचर है तितना ही लोक कहै है। सो तेरी इन्द्रियगोचर तो थोरेसे भी योजन दूरिवर्ती क्षेत्र अर थोरासा अतीत अनागत काल ऐसा क्षेत्र कालवर्ती भी पदार्थ नाहीं होय सकै ।
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पाँचवाँ अधिकार -१११
और पूरि देशको वा बहुतालको बातें परस्पती सुनिए ही हैं, तातै सबका जानना तेरे नाही, तू इतना ही लोक कैसे कहै हैं?
बहुरि चाकमतविषै कहै हैं कि पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश मिले चेतना होय आवै है। सो मरते पृथ्वी आदि यहाँ रही। चेतनावान् पदार्थ गया सो व्यंतरादि भया, प्रत्यक्ष जुदे-जुदे देखिए है। बहुरि एक शरीरविषै पृथ्वी आदि तो भिन्न-भिन्न मार्स है, चेतना एक भासे है। जो पृथ्वी आदि के आधार चेतना होय तो हाड़ लोहू उश्वासादिककै जुदी-जुदी चेतना होय। बहुरि हस्तादिक काटे जैसे वाकी साथि वर्णादिक रहै तैसे चेतना भी रहै है। बहुरि अहंकार, बुद्धि तो चेतनाके है सो पृथ्वी आदि रूप शरीर तो यहाँ ही रह्या, व्यंतरादि पर्यायविषै पूर्वपर्याय का अहंपना मानना देखिए है सो कैसे हो है। बहुरि पूर्वपर्यायकै गुह्य समाचार प्रगट करै सो यह जानना किसकी साथि गया, जाकी साथि जानना गया सोई आत्मा है।
बहुरि चार्वाकमतयिषै खाना, पीना, भोग-विलास करना इत्यादि स्वच्छंद वृत्तिको उपदेशै है सो ऐसे तो जगत् स्वयमेव ही प्रवर्ते है। तहाँ शास्त्रादि बनाय कहा भला होनेका उपदेश दिया। बहुरि तू कहेगा, तपश्चरण शील संयमादि छुड़ायनेके अर्थि उपदेश दिया तो इनि कार्यनिविष तो कषाय घटनेते आकुलता घटे है तातें यहाँ ही सुखी होना हो है, बहुरि यश आदि हो है, तू इनिको छुड़ाय कहा भला करै है। विषयासक्त
जीवनिको सुहावती बातें कहि अपना वा औरनिका बुरा करनेका भय नाही, स्वच्छन्द होय विषय सेवने के • अर्थि ऐसी झूठी युक्ति बनावै है। ऐसे चार्वाकमतका निरूपण किया।
विशेष : चार्वाक मत नास्तिक है। वह ईश्वर, परलोक को नहीं मानता चिार्वाक मत का कोई निजी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। चार्वाक का अभिप्राय वह व्यक्ति है जिसकी वाणी या वचन (वाक्) चारु या मनोहारिणी हो अर्थात् साधारण लोगों को पसन्द आने वाली हो। इस मत को लोकायत भी कहते हैं। चार्वाक मत के मुख्य मन्तव्य इस प्रकार हैं-१.प्रत्यक्ष प्रमाणवाद-प्रत्यक्ष ही एकमात्र विश्वसनीय प्रमाण है। २. भौतिकयाद-भूतचैतन्यवाद- आत्मा अर्थात् चैतन्य चार महाभूतों का विकार मात्र है यानी शरीर से भिन्न कोई आत्मा नहीं है ३. ऐहिक सुखवाद-जीवन का ध्येय इसी जीवन का सुख है, अर्थात् स्वर्ग तथा मोक्ष का निषेध। चार्वाक मत के प्रवर्तक वृहस्पति थे। बृहस्पति द्वारा रचित सूत्र वार्हस्पत्य सूत्र कहलाते हैं। इस पर भागुरी टीका भी है। चार्वाक सिद्धान्त प्राचीन काल से प्रचलित है। चार्वाक दर्शन अनुमान प्रमाण को नहीं मानता अतः यह ईश्वर, आत्मा व परलोक को कैसे मानेगा? नहीं मानता। चार्वाक मत ने वेदों का खुला विरोध किया है। उन्होंने वेद-रचयिता को भांड, धूर्त और निशाचर कहा है। (भारतीय दर्शन पृ. १४४ से १५३ डॉ. एन. के. देवराज)
__ दिगम्बर जैन ग्रन्थ श्लोकवार्तिक भाग ६ पृष्ठ ४०८ (भाषा) में चार्वाकों को वैज्ञानिक (आधुनिक वैज्ञानिक) नाम दिया है।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - ११२
अन्य मत निराकरण उपसंहार
इस ही प्रकार अन्य अनेक मत हैं ते झूठी कल्पित युक्ति बनाय विषय कषायासक्त पापी जीवनिकरि प्रगट किए हैं। तिनिका श्रद्धानादिकरि जीवनिका बुरा हो है। बहुरि एक जिनमत है सो ही सत्यार्थ का प्ररूपक है, सर्वज्ञ वीतरागदेवकरि भाषित है । तिसका श्रद्धानादिक करि ही जीवनिका भला हो है । सो जनमतविष जीवादि तच्च निरूपण किए हैं। प्रत्यक्ष परोक्ष दोय प्रमाण कहे हैं। सर्वज्ञ वीतराग अरहंत देव हैं। बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित निग्रंथ गुरु हैं सो इनिका वर्णन इस ग्रन्थविषै आगे विशेष लिखेंगे सो
जानना ।
यहाँ कोऊ कहै- तुम्हारे राग-द्वेष है, तातें तुम अन्यमतका निषेध करि अपने मतको स्थापो हो ताको कहिए है
यथार्थ वस्तु के प्ररूपण करने विषै राग-द्वेष नाहीं। किछू अपना प्रयोजन विचारि अन्यथा प्ररूपण करै सो रागद्वेष नाम पावे ।
बहुरि वह कहे है जो रागद्वेष नाहीं है तो 'अन्यमत बुरे, जैनमत भला' ऐसा कैसे कहो हो ? साम्यभाव होय तो सर्वको समान जानो, मतपक्ष काहेको करो हो ।
याको कहिए है- बुराको बुरा कहे हैं, भला को भला कहै हैं, यामें रागद्वेष कहा किया? बहुरि बुरा- - भलाको समान जानना तो अज्ञानभाव है, साम्यभाव नाहीं ।
बहुरि वह कहे है- जो सर्वमतनिका प्रयोजन तो एक हो है तातैं सर्वको समान जानना ।
ताको कहिए है जो प्रयोजन एक होय तो नानामत काहेको कहिए। एक मतविषै तो एक प्रयोजन लिए अनेक प्रकार व्याख्यान हो है, ताको जुदा मत कौन कहे है। परन्तु प्रयोजन ही भिन्न-भिन्न है सो दिखाइए हैं
अन्य मतों से जैनमतकी तुलना
जैनमतविषै एक वीतरागभाव पोषने का प्रयोजन है सो कथानिविषै वा लोकादिका निरूपण विषे वा आचरण विषे या तत्त्वनिविषे जहाँ-तहाँ वीतरागताकी ही पुष्टता करी है। बहुरि अन्य मतनिविषै सरागभाव पोषने का प्रयोजन है । जातैं कल्पित रचना कषायी जीव ही करै सो अनेक युक्ति बनाय कषाय भाव ही को पोषै। जैसे अद्वैत ब्रह्मवादी सर्वको ब्रह्म मानने करि अर सांख्यमती सर्व कार्य प्रकृति का मानि आपको शुद्ध अकर्ता माननेकरिअर शिवमती तत्त्व जानने ही तैं सिद्धि होनी माननेकरि, मीमांसक कषायजनित आवरण को धर्म मान्नेकार, बौद्ध क्षणिक माननेकरि, चार्वाक परलोकादि न माननेकरि विषयभोगादिरूप कषायकार्यनिविष स्वच्छन्द होना ही पोष है। यद्यपि कोई ठिकाने कोई कषाय घटावने का भी निरूपण करे, तो उस छलकरि अन्य कोई कषायका पोषण करे है। जैसे गृहकार्य छोड़ि परमेश्वरका भजन करना ठहराया अर परमेश्वर का स्वरूप सरागी ठहराय उनके आश्रय अपने विषय कषाय पोषै । बहुरि जैनधर्मविषै देव गुरु धर्मादिकका
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पाँचवाँ अधिकार-११३
स्वरूप वीतराग ही निरूपणकरि केवल वीतराग ताहीको पोथै है सो यहु प्रगट है। हम कहा कहैं, अन्यमती भर्तृहरि ताहू ने वैराग्यप्रकरण विषै' ऐसा कह्या है
२ एको रागिषु राजते प्रियतमादेहार्द्धपारी हरो, नीरागेषु जिनो विमुक्तललनासंगो न यस्मात्परः। दुर्वारस्मरबाण-पन्नगविषव्यासक्तमुग्यो जनः,
शेषः कामविडंबितो हि विषयान् मोक्तुं न मोक्तुं क्षमः।७१।। या विषै सरागीनिविषै महादेवको प्रधान कह्या अर पोतरागीनिधि चिनदेवको प्रधान कारखा है । बहुरि सरागभाव वीतरागभावनिविषै परस्पर प्रतिपक्षीपना है सो ये दोऊ भले नाहीं। इनविषै एक ही हितकारी है सो वीतराग भाव ही हितकारी है, जाके होते तत्काल आकुलता मिटै, स्तुतियोग्य होय । आगामी भला होना सब कहै। सरागभाव होते तत्काल आकुलता होय, निंदनीक होय, आगामी बुरा होना भास तात जामें वीतरागभावका प्रयोजन ऐसा जैनमत सो ही इष्ट है। जिनमें सरागभावके प्रयोजन प्रगट किए हैं ऐसे अन्यमत अनिष्ट हैं। इनको समान कैसे मानिए। बहुरि वह कहै है-जो यहु सांच परन्तु अन्यमतकी निन्दा किए अन्यमती दुःख पावै, विरोथ उपजै, ताः काहेको निन्दा करिए। तहाँ कहिए है- जो हम कषायकरि निन्दा करै वा औरनिकों दुःख उपजावें तो हम पापी ही हैं। अन्यमतके श्रद्धानादिककरि जीवनिकै अतत्त्वश्रद्धान दृढ़ होय, तातें संसारविष जीव दुःखी होय तातै करुणा भावकरि यथार्थ निरूपण किया है। कोई बिनादोष दुःख पाये, विरोध उपजावै तो हम कहा करें। जैसे मदिराकी निन्दाकरते कलाल दुःख पावै, कुशीलकी निन्दा करतें वेश्यादिक दुःख पावै, खोटा-खरा पहचाननेकी परीक्षा बतावत ठग दुःख पावै तो कहा करिए। ऐसे जो पापीनिके भयकरि धर्मोपदेश न दीजिए तो जीवनिका भला कैसे होय? ऐसा तो कोई उपदेश नाही, जाकर सर्व ही चैन पावै। बहुरि यह विरोध उपजादै सो विरोध तो परस्पर हो है। हम लरै नाही, वे आप ही उपशांत होय जाहिंगे। हमको तो हमारे परिणामोंका फल होगा।
बहुरि कोऊ कई- प्रयोजनभूत जीयादिक तत्त्वनिका अन्यथा श्रद्धान किए मिथ्यादर्शनादिक हो हैं, अन्यमतनिका श्रद्धान किए कैसे मिथ्यादर्शनादिक होय?
ताका समाधान-अन्यमतनिविषै विपरीत युक्ति बनाय जीवादिक तत्त्वनिका स्वरूप यथार्थ न भासै यह ही उपाय किया है सो किस अर्थि किया है। जीवादि तत्त्वनिका यथार्थ स्वरूप भासै तो वीतरागभाव भए ही महंतपनो भासै। बहुरि जे जीव वीतरागी नाहीं अर अपनी महंतता चाहै, लिनि सरागभाव होते महंतता
१. यह श्लोक 'वैराग्यप्रकरण' में नहीं किन्तु शृंगारप्रकरण में है। २. सगी पुरुषों में तो एक महादेव शोभित होता है, जिसने अपनी प्रियतमा पार्वती को आधे शरीर में धारण कर रखा
है और यीतरागियों में जिनदेव शोभित होते हैं, जिनके समान स्त्रियों का संग छोड़नेवाला दूसरा कोई नहीं है। शेष लोग तो दुर्निवार कामदेव के बाणरूप सॉं के विषसे मूर्छित हुए हैं जो कापकी विडम्बना से न तो विषयों को भली भांति भोग सकते है और न छोड़ हो सकते हैं।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-११४
मनावनेके अर्थि कल्पित युक्तिकरि अन्यथा निरूपण किया है। सो अद्वैतब्रह्मादिकका निरूपणकरि जीव अजीवका अर स्वच्छन्दवृत्ति पोषनेकरि आस्रव संवरादिकका अर सकषायीवत् वा अचेतनवत् मोक्षकहनेकार मोक्षका अयथार्थ श्रद्धानको पोषे हैं। तातै अन्यमतनिका अन्यथापना प्रगट किया है। इनिका अन्यथापना भासै तो तत्त्वश्रद्धानविष रुचिवंत होय। उनकी युक्तिकर भ्रम न उपजै। ऐसे अन्यमतनिका निरूपण किया।
अन्य मत के ग्रन्थोद्धरणों से जैनधर्म की प्राचीनता और समीचीनता अब अन्यमतनिके शास्त्रनिकी ही साखिकर जिनमत की समीचीनता वा प्राचीनता प्रगट कीजिए
बड़ो योगवाशिष्ठ छत्तीस हजार श्लोक प्रमाण, ताको प्रथम वैराग्यप्रकरण, तहाँ अहंकारनिषेध अध्यायविषै वशिष्ट अर रामका संवादविर्ष ऐसा कह्या हैरामोऽवाच
"नाहं रामो न मे वांछा भावेषु च न मे मनः ।
शांतिमास्थातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ।।८।। या विषै रामजी जिनसमान होने की इच्छा करी तातें रामजीतें जिनदेवका उत्तमपना प्रगट भया अर प्राचीनपना प्रगट भाग : महुरि 'दक्षिणार्ति बहानगर' निट कया है शिवोऽवाच
“जैनमार्गरतो जैनो जितक्रोधो जितामयः ।। यहाँ भगवत् का नाम जैनमार्गविप रत अर जैन कह्या, सो यामें जैनमार्ग की प्रधानता व प्राचीनता प्रगट भई। बहुरि 'वैशंपायन सहस्रनाम' विष कह्या है
कालनेमिमहावीरः शूरः शोरािर्जनेश्वरः।' यहाँ भगवान का नाम जिनेश्वर कह्या, तातै जिनेश्वर भगवान हैं। बहुरि दुर्वासराषि वृत 'महिम्नस्तोत्र' विषै ऐसा कह्या है
तत्तदर्शनमुख्यशक्तिरिति च त्वं ब्रह्मकर्मेश्वरी।
कर्ताईन् पुरुषो हरिश्च सविता बुद्धः शिवस्त्वं गुरुः ।।७।। यहाँ ‘अरहंत तुम हो' ऐसे भगवंत की स्तुति करी, तातै अरहंतकै भगवंतपनो प्रगट भयो। बहुरि हनुमन्नाटकविष ऐसे कहा है
१. अर्थात् में राम नहीं हूँ, मेरी कुछ इच्छा नहीं है और भावों वा पदार्थों में मेरा मन नहीं है। मैं तो जिनदेव के समान
अपनी आत्मा में ही शान्ति स्थापना करना चाहता हूँ।
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पाँचवाँ अधिकार- ११५
J
“यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनः बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटयः कर्त्तेति नैयायिकाः । अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः
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सोऽयं यो विदधातु वांछितफलं त्रैलोक्यनाथः प्रभुः ||११|
यहाँ छहीं मर्तानावर्षे एक ईश्वर कह्या तहाँ अरहंतदेव के भी ईश्वरपना प्रगट किया। यहाँ कोऊ कहै, जैसे यहाँ सर्वमतविषै एक ईश्वर कह्या तैसे तुम भी मानो ।
ताको कहिए, तुमने यह कया है, हम तो न कह्या । तार्ते तुम्हारे मतविषे अरहंतकै ईश्वरपना सिद्ध भया । हमारे मतविषे भी ऐसे ही कहे तो हम भी शिवादिकको ईश्वर मानैं । जैसे कोई व्यापारी सांचा रत्न दिखावे, कोई झंडा रत्न दिखावे तहाँ झूठा रत्नवाला तो सर्व रत्ननिको समान मोल लेने के अर्थि समान कहै । सांचा रत्नवाला कैसे समान माने ? तैसे जैनी सांचा देवादिको निरूपै, अन्यमती झूठा निरूपै। तहाँ अन्यमती अपनी समान महिमा के अर्थि सर्वको समान कहै- जैनी कैसे माने? बहुरि 'रुद्रयामलतंत्र' विषै भवानीसहस्रनामविषै ऐसे कया है
“कुण्डासना जगद्धात्री बुद्धमाता जिनेश्वरी ।
जिनमाता जिनेन्द्रा च शारदा हंसवाहिनी ॥ १३ ॥ ॥
यहाँ भवानी के नाम जिनेश्वरी इत्यादि कहे, तार्तें जिन का उत्तमपना प्रगट किया। बहुरि 'गणेशपुराण' विषै ऐसे कहता है
“जैनं पाशुपतं सांख्यं । "
बहुरि व्यासकृत सूत्रविषे ऐसा कया है
"जैना एकस्मिन्नेय वस्तुनि उभयं प्ररूपयन्ति स्याद्धादिनः ।”
इत्यादि तिनिके शास्त्रनिविषे जैन निरूपण है, तातें जैनमतका प्राचीनपना भासे है। बहुरि भागवत का पंचमस्कंधविषै ऋषभावतार का वर्णन है। तहाँ यहु करुणामय, तृष्णादिरहित ध्यानमुद्राधारी सर्वाश्रम करि पूजित कया है, ताके अनुसारि अरहंत राजा प्रवृत्ति करी ऐसा कहै है । सो जैसे राम कृष्णादिक अवतारनिके अनुसारि अन्यमत तैसे ऋषभावतार के अनुसारि जैनमत, ऐसे तुम्हारे मतहीकरि जैन प्रमाण भया । यहाँ इतना विचार और किया चाहिए- कृष्णादि अवतारनिके अनुसारि विषयकषायनिकी प्रवृत्ति हो है ।
१. यह हनुमन्नाटक के मंगलाचरणका तीसरा श्लोक है। इसमें बताया है कि जिसको शैव लोग शिव कहकर, वेदान्ती ब्रह्म कहकर बौद्ध बुद्धदेव कहकर, नैयायिक कर्ता कहकर, जैनी अर्हन् कहकर और मीमांसक कर्म कह कर उपासना करते हैं, वह त्रैलोक्यनाथ प्रभु तुम्हारे मनोरथों को सफल करे ।
२. 'प्ररूपयन्ति स्याद्वादिनः' इति खरड़ा प्रतौ पाठः ।
३. भागवत स्कन्ध ५ अ. ५, २६ ।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - ५१६
ऋषभावतार के अनुसारि वीतराग साम्यभावकी प्रवृत्ति हो हैं । यहाँ दोऊ प्रवृत्ति समान माने धर्म अधर्मका विशेष न रहे अर विशेष माने भली होय सो अंगीकार करनी । बहुरि दशावतारचरित्र विषै- " बद्ध्वा पद्मासनं यो नवयुगामेदं यस्य नासा का स्वरूप अरहंत देव सारिखा लिख्या है, सो ऐसा स्वरूप पूज्य है तो अरहंतदेव पूज्य सहज ही भया ।
इत्यादि
बहुरि काशी खंडविषै देवदास राजा नै सम्बोधि राज्य छुड़ायो। वहाँ नारायण तो विनयकीर्ति यत्ती भया, लक्ष्मीको विनयश्री आर्यिका करी, गरुड़ को श्रावक किया ऐसा कथन है। सो जहाँ सम्बोधन करना भवा तहाँ जैनी भेष बनाया। तातैं जैन हितकारी प्राचीन प्रतिभा है। बहुरि 'प्रभासपुराण' विषै ऐसा कह्या हैं
भवस्य पश्चिमे भागे वामनेन तपः कृतम् । तेनैव तपसाकृष्टः शिवः प्रत्यक्षतां गतः । । १ । । पद्मासनसमासीनः श्याममूर्तिर्दिगम्बरः । नेमिनाथः शिवेत्येवं नामचक्रेऽस्य वामनः ॥ २ ॥ कलिकाले महाघोरे, सर्वपापप्रणाशकः । दर्शनात्स्पर्शनादेव, कोटियज्ञफलप्रदः । । ३ । ।
यहाँ वामनको पद्मासन दिगम्बर नेमिनाथ का दर्शन भया कह्या बाहीका नाम शिव कया । बहुरि ताके दर्शनादिकर्ते कोटियज्ञ का फल कह्या सो ऐसा नेमिनाथ का स्वरूप तो जैनी प्रत्यक्ष माने हैं, सो प्रमाण ठहरचा । बहुरि प्रभासपुराणविषे कया है
"रेयसाद्री जिनो नेमिर्युगादिर्विमलाचले ।
ऋषीणामाश्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम् 119 । । *
यहाँ नेमिनाथ को जिनसंज्ञा कही, ताके स्थानको ऋषि का आश्रम मुक्तिका कारण का अर युगादिके स्थानको भी ऐसा ही कह्या, तातें उत्तम पूज्य ठहरे। बहुरि 'नगरपुराण' (नागपुराण) विषै भवावताररहस्यविषै ऐसा कह्या है
"अकारादिहकारान्तमुदुर्द्धा थोरेकसंयुतम् । नादविन्दुकलाक्रान्तं चन्द्रमण्डलसन्निभम् । । १ । । एतद्देवि परं तत्त्वं यो विजानाति तत्त्वतः । संसारबन्धनं छित्वा स गच्छेत्परमां गतिम् ॥ २ ॥
यहाँ 'अहं' ऐसे पदको परमतत्त्व कह्या । याके जाने परमगतिकी प्राप्ति कही सो 'अहं' पद जैनमत उक्त है। बहुरि नगरपुराणविषै कया है
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पांचवा अधिकार-११७
"दशभिर्मोजितैविप्रैः यत्फलं जायते कृते।
मुनरर्हत्सुभक्तस्य तत्फलं जायते कली ।।१।।" । यहाँ कृतयुगविषै दश ब्राह्मणों को भोजन कराएका जेता फल कह्या, तेता फल कलियुगविषै अर्हतभक्तमुनिके भोजन कराएका कह्या, ताजैनीमुनि उत्तम ठहरे । बहुरि 'मनुस्मृति' विषै ऐसा कया है..
"कुलादिबीजं सर्वेषां प्रथमो विमलयाहनः। चक्षुष्मान यशस्वी वाभिचन्द्रोऽथ प्रसेनजित्।।१।। मरुदेवी च नाभिश्च भरते कुलसत्तमाः। अष्टमो मरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरक्रमः ।।२।। दर्शयन् वर्त्म वीराणां सुरासुरनमस्कृतः ।
नीतित्रितयकर्ता यो युगादौ प्रथनो जिनः।।३।।" यहाँ विमलवाहनादिक मनु कहिए सो जैनविषै कुलकरनि के ए नाम कहे हैं अर यहाँ प्रथम जिन युग की आदिविषै मार्गका दर्शक अर सुरासुरकर पूजित कह्या, सो ऐसे ही है तो जैनमत युमकी आदिहीत है अर प्रमाणभूत कैसे न कहिए। बहुरि ऋग्वेदविषै ऐसा कह्या है
ॐ त्रैलोक्यप्रतिष्ठितान् चतुर्विंशतितीर्थकरान् ऋषभाद्यान् वर्द्धमानान्तान सिद्धान् शरणं प्रपधे। ॐ पवित्रं नग्नमुपविस्पृसामहे एषां नग्नं येषां जातं येषां दीरं सुवीरं इत्यादि।
बहुरि यजुर्वेदविषै ऐसा कह्या हैॐ नमो अर्हतो ऋषभाय। बहुरि ऐसा कह्या है
ॐ ऋषभपवित्रं पुरुहूतमध्यरं यज्ञेषु नग्न परमं माहसंस्तुतं वरं शत्रु जयंतं पशुरिंद्रमाहुतिरिति स्वाहा । ॐ त्रातारमिंद्रं ऋषभं वदन्ति। अमृतारमिंद्रं हवे सुगतं सुपार्श्वमिंद्रं हये शक्रमजितं तद्वर्द्धमानपुरुहूतमिंद्रमाहुरिति स्वाहा । ॐ नग्नं सुथीरं दिग्याससं ब्रह्मगर्भ सनातनं उपैमि वीरं पुरुषमहतमादित्यवर्ण तमसः परस्तात् स्वाहा। ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः स्वस्तिनस्ताक्ष्यों अरिष्टनेमि स्वस्ति नो वृहस्पतिर्दधातु दीर्घायुस्त्वायुवलायुर्वा शुभजातायु । ॐ रक्ष रक्ष अरिष्टनेमिः स्वाहा। वामदेव शान्त्यर्थमनुविधीयते सोऽस्माकं अरिष्टनेमिः स्वाहा।'
सो यहाँ जैनतीर्थकरनिके जे नाम हैं तिनका पूजनादि कह्या। बहुरि यहां यहु भास्या, जो इनके पीछे वेद रचना भई है। वे ऐसे अन्यमत के ग्रंथनिकी साक्षी भी जिनमतकी उत्तमता अर प्राचीनता दृढ़ भई। अर जिनमतको देखें वे मत कल्पित ही भासै । तातें जो अपना हित का इच्छुक होय सो पक्षपात छोरि साँचा जैनधर्मको अंगीकार करो। बहुरि अन्यमतनिविषै पूर्वापर विरोध भासे हैं। पहले अवतार येदका उद्धार १.. यजुर्वेद अ. २५ म. १६ । ऋग्वेद अष्ट १ अ. ६ वर्ग १६ ।
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मोनमागं प्रकायक-११
किया। तहाँ यज्ञादिकवि हिंसादिक पोषे अर बुद्धावतार यज्ञ का निंदक होय हिंसादिक निषेधे। वृषभावतार वीतराग संयम का मार्ग दिखाया। कृष्णावतार परस्त्री रमणादि विषय कषायादिकनिका मार्ग दिखाया। सो अब यह संसारी कौनका कह्या करे, कौनके अनुसारि प्रयतै अर इन सब अवतारनिको एक बतावै सो एक ही कदाचित् कैसे, कदाचित् कैसे कहै वा प्रवर्ते तो याकै उनके कहने की वा प्रवर्तने की प्रतीति कैसे आवे? बटुरि कहीं क्रोधादिकषायनिका वा विषयनिका निपेय करें, कहीं लानेका वा विषयादिसेवनका उपदेश दें: तहाँ प्रारब्ध बतावै सो बिना क्रोधादि भा। आपहीते लग्ना आदि कार्य होय तो यह भी मानिए सो तो होय नाहीं । बहरि लाना आदि कार्य करते क्रोधादि भा न मानिए तो जुदे ही क्रोधादि कौन हैं जिनका निपेश किया। तातें बने नाही, पुर्वापर विरोध है गीतानिविषे वीतरागता दिग्बाय लरनेका उपदेश दिया सो यह प्रत्यक्षा विरोध भासै है। बहुरि ऋषीश्वरादिकनिकरि श्राप दिया बतावै, मो ऐसा क्रोध किए निंद्यपना कैसे न भया? इत्यादि जानना। वहार अपुत्रस्य गतिनास्ति' ऐसा भी कहै अर भारत विषै ऐसा भी कह्या है
अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम् ।
दिवं गतानि राजेन्द्र अकृत्वा कुलसन्ततिम् ।।१।। यहाँ कुमार ब्रह्मचारीनिको स्वर्ग गए बताए. सो गह परस्पर विरोध है। बहुरि ऋषीश्वर भारतविषै ऐसा कह्या है
मद्यमांसाशन रात्री भोजन कंदभक्षणम्। ये कुर्वन्ति वृधास्तेषां तीर्थयात्रा जपस्तपः।।१।। वृथा एकादशी प्रोक्ता वृथा जागरणं हरेः । वृथा च पौष्करी यात्रा कृत्स्नं चान्द्रायणं वृथा।।२।। चातुर्मास्ये तु सम्प्राप्ते रात्रिभोज्यं करोति यः।
तस्य शुद्धिर्न विद्येत चान्द्रायणशतैरपि।।३।। इन विष मद्य-मांसादिकका वा रात्रिभोजन का वा चौमासे में विशेषपने रात्रिभोजनका वा कंदफनभक्षण का निषेध किया। बहुरि बड़े पुरुषनिकै मद्यमांमादिकका सेवन करना कहै, व्रतादि विषै रात्रिभोजन स्थापै वा कंदादि भक्षण स्थापै, ऐसे विरुद्ध निरूप है। ऐसे ही अनेक पूर्वापर विरुद्ध वचन अन्यमत के शास्त्रनिविषै हैं सो करै कहा, कहीं तो पूर्वपरम्परा जानि विश्वास अनावनेके अर्थि यथार्थ कह्या अर कहीं विषयकषाय पोपने के अर्थि अन्यथा कह्या । सो जहाँ पूर्वापर विरोध होय, तिनका वचन प्रमाण कैसे करिए। इहां जो अन्य मतनिविषै क्षमा शील सन्तोषादिक को पोषने वचन हैं सो तो जैनमतविषै पाइए है अर विपरीत वचन है सो उनका कल्पित है। जिनमत अनुसारि वचननिका विश्वास उनका विपरीतवचन का श्रद्धानादिक होयजाय, तार्तं अन्यमतका कोऊ अंग भला देखि भी तहां श्रद्धानादिक न करना। जैसे विमिश्रित भोजन हितकारी नाहीं तैसे जानना । बहुरि जो कोई उत्तम धर्मका अंग जिनमतविषै न पाईए अर अन्यमत विप पाईए, अथवा कोई निषिद्ध अधर्मका अंग जैनमत विषै पाईए अर अन्यत्र न पाईए, तो
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पाँच अधिकार- ११८.
अन्यमत को आदरौ सो सर्वथा होय नाहीं । जातै सर्वज्ञका ज्ञानतैं किछू छिप्या नाहीं है । तातें अन्यमतनिका श्रद्धानादिक छोरि जनमतका दृढ़ श्रद्धानादिक करना।
बहुरि कालदोष कषायी जीवनिकरि जिनमतविषै भी कल्पितरचना करी है, सो ही दिखाईए हैश्वेताम्बर मत निराकरण
श्वेताम्बर मतवाले काहूने सूत्र बनाए, तिनको गणधर के किए कहै हैं । सो उनको पूछिए है - गणधर आचारांगादिक बनाए हैं सो तुम्हारे अबार पाईए है सो इतने प्रमाण लिए ही किए थे कि घना प्रमाण लिए किए थे। जो इतने प्रमाण लिए ही किए थे, तो तुम्हारे शास्त्रनि विषै आचारांगादिकनिके पदनिका प्रमाण अठारह हजार आदि कया है, सो तिनकी विधि मिलाय यो पदका प्रमाण कहा? जो विभक्ति अंतको पद कहोगे, तो कहे प्रमाणतें बहुत पद होइ जाहिंगे, अर जो प्रमाणपद कहोगे, तो तिस एकपद के साधिक इक्यावन कोड़ि श्लोक हैं। सो ए तो बहुत छोटे शास्त्र हैं सो बने नाहीं । बहुरि आचारांगादिकर्ते दशवेकालिकादिक का प्रमाण घाटि का है। तुम्हारै बधता है सो कैसे बने? बहुरि कहोगे, आचारांगादिक बड़े थे, कालदोष जानि तिनही में स्यों केलेक सूत्र काढ़ि ए शास्त्र बनाए हैं। तो प्रथम तो टूटकग्रन्थ प्रमाण नाहीं । बहुरि यह प्रबन्ध है, जो बड़ा ग्रंथ बनाये तो वा विषै सर्व वर्णन विस्तार लिए करें अर छोटा ग्रन्थ बनावे तो तहाँ संक्षेप वर्णन की परन्तु सम्बन्ध टूटे नाहीं । अर को बढ़ा ग्रन्थ में थोरासा कथन काहि लीजिए, तो तहाँ सम्बन्ध मिले नाहीं कथन का अनुक्रम टूटि जाय। सो तुम्हारे सूत्रनिर्विषै तो कथादिकका भी सम्बन्ध मिलता भासै है- टूटकपना भासै नाहीं । बहुरि अन्य कवीनितैं गणधरकी तौ बुद्धि अधिक होती, ताके किए ग्रन्थनिमें थोरे शब्द में बहुत अर्थ चाहिए सो तो अन्य कवीनिकीसी भी गम्भीरता नाहीं । बहुरि जो ग्रन्थ बनावै सो अपना नाम ऐसे धरै नाहीं जो 'अमुक कहै है,' 'मैं कहूँ हूँ' ऐसा कहै सो तुम्हारे सूत्रनिविषै 'हे गौतम' वा 'गौतम कहै है' ऐसे वचन हैं सो ऐसे वचन तो तब ही सम्भवैं जब और कोई कर्ता होय । तातैं ये सूत्र गणधरकृत नाहीं और के किए हैं। गणधर का नामकरि कल्पितरचना को प्रमाण कराया चाहे है। सो विवेकी तो परीक्षाकरि मानें, कह्या ही तो न मार्ने ।
बहुरि वह ऐसा भी कहै हैं जो गणधर सूत्रनिके अनुसार कोई दशपूर्वधारी भया है, ताने ए सूत्र बनाए हैं। तहाँ पूछिए है जो नए ग्रन्थ बनाए हैं तो नया नाम धरना था, अंगादिकके नाम काहेको धरे । जैसे कोई बड़ा साहूकारकी कोठी का नामकर अपना साहूकारा प्रगट करे, तैसे यह कार्य भया । सांचेको तो जैसे दिगम्बरविषै ग्रन्थनिके और नाम धरे अर अनुसारी पूर्व ग्रन्थनिका कह्या, तैसे कहना योग्य था। अंगादिकका नाम धरि गणधर कृत का भ्रम काहे को उपजाया । तार्ते गणधर के पूर्वाधारी के वचन नाहीं । बहुरि इन सूत्रनि विषै जो विश्वास अनावने के अर्थ जिनमत अनुसार कथन है सो तो सांच है ही, दिगम्बर भी तैसे ही कहे हैं। बहुरि जो कल्पित रचना करी है तामें पूर्वापर बिरुद्धपनो वा प्रत्यक्षादि प्रमाण में विरुद्धपनो भासे है, सो ही दिखाइए है
अन्य लिंग से मुक्ति का निषेध
अन्य लिंगीकै वा गृहस्थकै वा स्त्रीकै वा चांडालादि शूद्रनिकै साक्षात् मुक्तिकी प्राप्ति होनी मान है।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१२०
सो बनै नाहीं । सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी एकता मोक्षमार्ग है। सो वे सम्यग्दर्शनका स्वरूप तो ऐसा कहै हैं
अरहंतो महदेवो जावज्जीवं सुसाहणो गुरुणो।
जिणपण्णत्तं तत्तं ए सम्मत्तं मए गहियं ।।१।। सो अन्य लिंगीकै अरहंतदेव, साधु, गुरु, जिनप्रणीत तत्त्व का मानना कैसे सम्भवै? तब सम्यक्त्व भी न होय, तो मोक्ष कैसे होय । जो कहोगे अंतरंग विष श्रद्धान होनेते सम्यक्च तिनकै हो है, सो विपरीत लिंगधारक की प्रशंसादिक किए भी सम्यक्त्वको अतीचार कह्या है सो सांचा श्रद्धान भए पीछे आप विपरीत लिंगका धारक कैसे रहै। श्रद्धान भए पीछे महाव्रतादि अंगीकार किए सम्यक्चारित्र होय सो अन्यलिंगविषे कैसे बनै? जो अन्यलिंगविषै भी सम्यक्चारित्र हो है तो जैन लिंग अन्य लिंग समान भया, तातें अन्य लिंगीको मोक्ष कहना मिथ्या है। बहुरि गृहस्थको मोक्ष कहै सो हिंसादिक सर्व सावद्ययोग का त्याग किए सामायिकचारित्र होय सो सर्वसावध योगका त्याग किए गृहस्थपनो कैसे सम्भवै? जो कहोगे-अंतरंग त्याग भया है तो यहाँ तो तीनों योगकरि त्याग करै हैं, कायकरि त्याग कैसे भया? बहुरि बाह्य परिग्रहादिक राखें भी महाव्रत हो है, सो महाव्रतनिविषै तो बाह्य त्याग करने की ही प्रतिज्ञा करिए है, त्याग किए बिना महाव्रत न होय । महाव्रत बिना छटा आदि गुणस्थान न हो हैं, तो तब मोक्ष कैसे होय? तातै गृहस्थको मोक्ष कहना मिथ्या वचन हैं।
स्त्रीमुक्ति का निषेध बहुरि स्त्रीको मोक्ष कहै, सो जाकरि सप्तम नरक गमन योग्य पाप न होय सकै, ताकरि मोक्ष का कारण शुद्ध भाव कैसे होय? जातें जाके भाव दृढ़ होय, सोही उत्कृष्ट पाप वा धर्म उपजाय सके है। बहुरि स्त्रीकै निशंक एकांतविष ध्यान धरना अर सर्व परिग्रहादिकका त्याग करना सम्भवै नाहीं। जो कहोगे, एक समयविषै पुरुषवेदी वा स्त्रीवेदी वा नपुसंकवेदीको सिद्धि होनी सिद्धान्तविषै कही है, ता” स्त्रीको मोक्ष मानिए है। सो यहाँ ए भाववेदी है कि द्रव्यवेदी है, जो भाववेदी है तो हम मान ही हैं। द्रव्यवेदी है तो पुरुषस्त्रीवेदी तो लोकविर्ष प्रचुर दीसै हैं, नपुंसक तो कोई विरला दीसे है। एक समयविषै मोक्ष जानेवाले इतने नपुंसक कैसे सम्भवै? तात द्रव्यवेद अपेक्षा कथन बनै नाहीं । बहुरि जो कहोगे, नवम गुणस्थानताई वेद कहे हैं, सो भी भाववेद अपेक्षा ही कथन है। द्रव्यवेद अपेक्षा होय तो चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त वेदका सद्भाव कहना सम्भवै । तातें स्त्रीकै मोक्षका कहना मिथ्या है।
शूद्रमुक्ति का निषेध बहुरि शूद्रनिको मोक्ष कहै । सो चांडालादिकको गृहस्थ सन्मानादिककरि दानादिक कैसे दे, लोकविरुद्ध होय । बहुरि नीचकुलबालों के उत्तम परिणाम न होय सके। बहुरि नीचगोत्रकर्मका उदय तो पंचम गुणस्थान पर्यन्त ही है। ऊपरिके गुणस्थान चढ़े बिना मोक्ष कैसे होय। जो कहोगे-संयम धारे पीछे वाकै उच्चगोत्रही का उदय कहिए, तो संयम धारने न धारने की अपेक्षार्तं नीच उच्च गोत्र का उदय ठहरया। ऐसे होते असंयमी मनुष्य तीर्थकर क्षत्रियादिक तिनकै भी नीच गोत्रका उदय टहरै । जो उनकै कुल अपेक्षा उच्चगोत्रका
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पाँचवाँ अधिकार १२:१
उदय कहोगे तो चांडालादिककै भी कुल अपेक्षा ही नीच गोत्र का उदय कहो। ताका सद्भाव तुम्हारे सूत्रनिविषै भी पंचम गुणस्थान पर्यंत ही कया है । सो कल्पित कहने में पूर्वापर विरुद्ध होय ही होय । तातें निकै मोक्षका कहना मिथ्या है।
ऐसे तिनहूने सर्वकै मोक्षकी प्राप्ति कही, सो ताका प्रयोजन यहु है जो सर्वका भला मनावना, मोक्षका लालच देना अर अपना कल्पितमतकी प्रवृत्ति करनी । परन्तु विचार किए मिथ्या भासै है । अछेरों का निराकरण
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बहुरि तिनके शास्त्रनिविषै 'अछेरा' कहे हैं। सो कहे है - हुण्डावसर्पिणी के निमित्त भए हैं, इनको छेड़ने नाहीं । सो कालदोषर्तें केई बात होय परन्तु प्रमाणविरुद्ध तो न होय जो प्रमाण विरुद्ध भी होय, तो आकाश के फूल, गधे के सींग इत्यादि होना भी बने सो सम्भवे नाहीं । वे अछेरा कहै है सो प्रमाण विरुद्ध हैं। काहे सो कहिए हैं
वर्द्धमानजिन केतेककालि ब्राह्मणीके गर्भविषै रहे पीछे क्षत्रियाणी के गर्भ विषै बधे, ऐसा कहे हैं। सो काहूका गर्भ काहूकै धरया प्रत्यक्ष भासै नाहीं, उन्मानादिकमें आवै नाहीं । बहुरि तीर्थंकरके भया कहिए, तो गर्भकल्याणक काहू के घरि भया, जन्मकल्याणक काहूके घरि भया । केतेक दिन रत्नवृष्ट्यादिक काहूके घरि भए, केतेक दिन काहूके घरि भए । सोलह स्वप्न किसी को आए, पुत्र काहूकै भया इत्यादि असम्भव भासै । बहुरि माता तो दोय भई अर पिता तो एक ब्राह्मण ही रह्या जन्म कल्याणादिविषै वाका सन्मान न किया, अन्य कल्पित पिताका सम्मान किया। सो तीर्थकरकै दोय पिताका कहना महाविपरीत भासै है । सर्वोत्कृष्टपद के धारककै ऐसे वचन सुनने भी योग्य नाहीं । बहुरि तीर्थंकरके भी ऐसी अवस्था भई तो सर्वत्र ही अन्य स्त्रीका गर्भ अन्यस्त्रीकै धरि देना ठहरे। तो वैष्णव जैसे अनेक प्रकार पुत्र - पुत्रीका उपजना बतावे है, यहु कार्य भया। सो ऐसे निकृष्ट काल विषै तो ऐसे होय ही नाहीं, तहाँ होना कैसे सम्भवै? तातें यहु मिथ्या है। बहुरि मल्लि तीर्थंकरको कन्या कहे हैं। सो मुनि देवादिककी सभा विषै स्त्रीका स्थिति करना उपदेश देना न सम्भवै वा स्त्रीपर्याय हीन है सो उत्कृष्ट तीर्थंकरपदधारककै न बने । बहुरि तीर्थंकरकै नग्न लिंग ही कहे है सो स्त्रीकै नग्नपनो न सम्भवै। इत्यादि विचार किए असम्भव भासै है ।
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बहुरि हरिक्षेत्रका भोगभूमियाँको नरक गया कहे, सो बंध वर्णन विषै तो भोगभूमियाँकै देवगति देवायुहीका बंध कहै, नरक कैसे गया। सिद्धान्तविषै तो अनन्तकाल विषै जो बात होय, सो भी कहे जैसे तीसरे नरक पर्यन्त तीर्थंकर प्रकृतिका सत्त्व का, भोगभूमियाँकै नरक आयु गतिका बंध न कराया, सो केवली भूले तो नाहीं । तातें यहु मिथ्या है। ऐसे सर्व अछेरे असम्भव जानने । बहुरि वे कहै हैं इनको छेड़ने नाहीं सो झूठ कहनेवाला ऐसे ही कहे।
बहुरि जो कहोगे - दिगम्बरविषै जैसे तीर्थंकरकै पुत्री, चक्रवर्तीका मानभंग इत्यादि कार्य कालदोष भया कहे हैं, तैसे ए भी भए । सो ये कार्य तो प्रमाणविरुद्ध नाहीं । अन्यकै होते थे सो महंतनिकै भए तार्ते कालदोष का है । गर्भहरणादि कार्य प्रत्यक्ष अनुमानादितें विरुद्ध, तिनका होना कैसे सम्भवे ? बहुरि अन्य
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१२२
भी घने ही कथन प्रमाणविरुद्ध कहै हैं। जैसे कहै हैं, सर्वार्थसिद्धि के देव मन ही तैं प्रश्न करै हैं, केवली मनही उत्तर दे हैं। सो सामान्य जीव के मन की बात मनःपर्ययज्ञानी बिना जानि सके नाहीं। केवलीके मन की सर्वार्थसिद्धि के देव कैसे जाने? बहुरि केवलीकै भावमनका तो अभाव है, द्रव्यमन जड़ आकारमात्र है, उत्तर कौन दिया। तात मिथ्या है। ऐसे अनेक प्रमाणविरुद्ध कथन किए हैं, तातै तिनके आगम कल्पित जानने।
केवली के आहार-नीहार का निराकरण बहुरि ते श्वेताम्बर मतवाले देव गुरु धर्मका स्वरूप अन्यथा निरूपै है। तहाँ केवलीकै क्षुधादिक दोष कहै । सो यहु देवका स्वरूप अन्यथा है। काहे तँ, क्षुधादिक दोष होते आकुलता होय, तब अनन्त सुख कैसे बनै? बहुरि जो कहोगे, शरीर को क्षुधा लागै है, आत्मा तद्रूप न हो है, तो क्षुधादिकका उपाय आहारादिक काहेको ग्रहण किया कहो हो। क्षुधादिरि पीड़ित होय, तब ही आहार ग्रहण करें। बहारे कहोगे, जैसे कर्मोदयते विहार हो है, तैसे ही आहार ग्रहण हो है । सो विहार तो विहायोगति प्रकृतिका उदय ते हो है अर पीडाका उपाय नहीं अर बिना इच्छा भी किसी जीवकै होता देखिए है। बहुरि आहार है सो प्रकृतिका उदयतें नाहीं, क्षुधाकरि पीड़ित भए ही ग्रहण करै है। बहुरि आत्मा पवनादिको प्रेरै तब ही निगलना हो है, तातै बिहारबत आहार नाहीं। जो कहोगे- सातावेदनीयके उदयतें आहार ग्रहण हो है, से बने नाहीं। जो जीब क्षुधादिकरि पीड़ित होय, पीछै आहारादिक ग्रहणः सुख मानै, ताकै आहारादिक साताके उदयतें कहिए। आहारादिका ग्रहण साता वेदनीयका उदयतै स्वयमेव होय, ऐसे तो है नाहीं । जो ऐसे होय तो साता वेदनीय का मुख्य उदय देवनिके है, ते निरन्तर आहार क्यों न करै। बहुरि महामुनि उपवासादि करै तिनकै साताका भी उदय अर निरन्तर भोजन करनेवालों के असाताका भी उदय सम्भवै तातें जैसे बिना इच्छा विहायोगतिके उदयतें विहार सम्भवे, तैसे बिना इच्छा केवल सातावेदनीय ही के उदयतें आहारका ग्रहण सम्भवै नाहीं।
__वहरि वे कहै हैं सिद्धान्त विषै केवली के क्षुधादिक ग्यारह परीषह कहै हैं, तातें तिनकै क्षुधाका सद्भाव सम्भवै है। बहुरि आहारादिक बिना तिनकी उपशांतता कैसे होय, तातै तिनकै आहारादिक मानै है।
ताका समाधान- कर्मप्रकृतिनिका उदय मंद तीव्र भेद लिए हो है। तहाँ अतिमंद उदय होते तिस उदयजनित कार्य की व्यक्तता भासै नाहीं। तातें मुख्यपने अभाव कहिए, तारतम्यविष सद्भाव कहिए। जैसे नबम गुणस्थान विषे वेदादिकका उदय मन्द है, तहां मैथुनादि क्रिया व्यक्त नाहीं, तातै तहाँ ब्रह्मचर्य ही कह्या। तारतम्य विधै मैथुनादिकका सद्भाव कहिए है। तैसे केवलीकै असाताका उदय अति मंद है। जाते एक-एक कांडकविथै अनन्तवें भाग अनुभाग रहै, ऐसे बहुत अनुभागकांडकनि करि वा गुणसंक्रमणादिककरि सत्ता विषै असातावेदनीयका अनुभाग अत्यन्त मंद भया, ताका उदय विषै क्षुधा ऐसी व्यक्त होती नाहीं जो शरीरको क्षीण करै। अर मोहके अभावतें क्षुधादिक जनित दुःख भी नाहीं, तात क्षुधादिकका अभाव कहिए । तारतम्यविषै तिनका सद्भाव कहिए है। बहुरि तें कह्या-आहारादिक बिना तिनकी उपशांतता कैसे होय, सो आहारादिकरि उपशांत होने योग्य क्षुधा लागै तो मन्द उदय काहेका रह्या? देव भोगभूमियाँ आदिकके किंचित
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पाँचवा अधिकार - १२३
मंद उदय होते ही बहुत काल पीछे किंचित आहार ग्रहण हो है तो इनकै तो अतिमंद उदय भया है, तात इनकै आहारका अभाव सम्भव हैं।
बहुरि वह कहै है, देव भोगभूमियोंका तो शरीर ही वैसा है जाको भूख थोरी वा घने काल पीछे लागे, इनिका तो शरीर कर्मभूमिका औदारिक है। ता” इनका शरीर आहार विना देशोनकोटि पूर्व-पर्यन्त उत्कृष्टपने कैसे रहै?
ताका समाधान- देवादिकका भी शरीर वैसा है, सो कर्मके ही निमित्ततें है। यहाँ केवलज्ञान भए ऐसा ही कर्म उदय भया, जाकरि शरीर ऐसा भया, जाकी भूख प्रगट होती ही नाहीं। जैसे केवलज्ञान भए पहले केश नख बधै थे, अब बधै (ब) नाहीं। छाया होती थी सो होती नाहीं। शरीर विषै निगोद थी, ताका अभाव भया। बहुत प्रकारकरि जैसे शरीर की अवस्था अन्यथा भई, तैसे आहार विना ही शरीर जैसा का तैसा रहै ऐसी भी अवस्था भई। प्रत्यक्ष देखो, औरनिको जरा व्यापै तब शरीर शिथिल होय जाय, इनका आयुका अन्तपर्यन्त शरीर शिथिल न होय । तातै अन्य मनुष्यनिका अर इनका शरीर की समानता सम्भव नाहीं । बहुरि जो तू कहेगा-देवादिककै आहार ही ऐसा है जाकरि बहुत काल की भूख मिटै, इनकै भूख काहे से मिटी अर शरीर पुष्ट कैसे रह्या? तो सुनि, असाताका उदय मंद होनेनै मिटी अर समय-समय परम
औदारिक शरीर वर्गणा का ग्रहण हो है सो वह नोकर्म आहार है सो ऐसी-ऐसी वर्गणा का ग्रहण हो है जाकरि क्षुधादिक व्याय नाही वा शरीर शिथिल होय नाही, सिद्धान्तविषै याही की अपेक्षा केवली को आहार कह्या है। अर अन्नादिकका आहार तो शरीर की पुष्टता का मुख्य कारण नाहीं । प्रत्यक्ष देखो, कोऊ थोरा आहार ग्रहै, शरीर पुष्ट बहुत होय; कोऊ बहुत आहार ग्रहै, शरीर क्षीण रहै । बहुरि पवनादि साधनेवाले बहुत काल ताई आहार न लें, शरीर पुष्ट रह्या करै वा ऋद्रिधारी मुनि उपवासादि करै, शरीर पुष्ट बन्या रहै । सो केवलीकै तो सर्वोत्कृष्टपना है उनकै अन्नादिक बिना शरीर पुष्ट बन्या रहै तो कहा आश्चर्य मया। बहुरि केवली कैसे आहारको जॉय, कैसे याचें।
बहुरि वे आहारको जांय, तब समवसरण खाली कैसे रहै। अथवा अन्यका ल्याय देना ठहरावोगे तो कौन ल्याय दे, उनके मन की कौन जानै । पूर्व उपवासादिककी प्रतिज्ञा करी थी, ताका कैसे निर्वाह होय। जीव अन्तराय सर्व प्रतिभासै, कैसे आहार ग्रहैं? इत्यादि विरुद्धता भासै हैं। बहुरि वे कहै हैं- आहार ग्रहै है, परन्तु काहूको दीसै नाहीं। सो आहार-ग्रहणको निंद्य जान्या, तब ताफा न देखना अतिशयविषै लिख्या। सो उनकै निंद्यपना रह्या अर और न देखे हैं तो कहा भया। ऐसे अनेक प्रकार विरुद्धता उपजै है।"
बहुरि अन्य अविवेकताकी बातें सुनो- केवलीकै नीहार कहै हैं, रोगादिक भया कहै हैं अर कहें
१. केवली के आहार (कवलाहार) का खण्डन विस्तार से जानने हेतु ये ग्रन्थ भी देखने चाहिए - षड्दर्शनसमुच्चय ४६
प्रकरण ७८ पृ. २०४-५, थवल २/४४८, प्रवचनसार २० ता. दृ., गो. क. गाथा २७३, धवल १३/५३, गो.क. १६, योगमार्ग २८, रा. वार्तिक २/४/३/१०६, सार्थसिद्धि २/३, गो.क. २७५, धवल २/४३७, बृहज्जिनोपदेश पृ. २३६ से २४४, ७४३ या शंका-समाधान आदि।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१२४
काहुनै तेजोलेश्या छोरी, ताकरि वर्द्धमानस्वामीकै पेलूंगा का (पेचिसका) रोग भया, तारि बहुत बार नीहार होने लगा। सो तीर्थंकर केवलीकै भी ऐसा कर्मका उदय रह्या अर अतिशय न भया, तो इन्द्रादिकरि पूज्यपना कैसे शोभै । बहुरि नीहार कैसे करे, कहाँ करे, कोऊ संभक्ती बातें नाहीं। बहुरि जैसे रागादि युक्त छमस्थक क्रिया होय, तैस केवलोक किया ठहरा है। वर्द्धमान स्वामी का उपदेश विषै 'हे गौतम' ऐसा बारम्बार कहना ठहरावै है, सो उनकै तो अपना कालविधै सहज दिव्यध्वनि हो है, तहाँ सर्वको उपदेश हो है, गौतम को संबोधन कैसे बने? बहुरि केवलीकै नमस्कारादिक क्रिया ठहराव है, सो अनुराग बिना वंदना संभवै नाहीं। बहुरि गुणाधिकको वेदना संभवै, उन सेती कोई गुणाधिक रह्या नाहीं। सो कैसे बने? बहुरि ह्याटिविर्ष समवसरण उतरया कहै, सो इन्द्रकृत समवसरण हाटिविर्ष कैसे रहै? इतनी रचना तहाँ कैसे समावै । बहुरि हाटि विष काहेको रहै? कहा इन्द्र हाटि सारिखी रचना करने को भी समर्थ नाहीं । जाते हाटिका आश्रय लीजिए। बहुरि कहै-केवली उपदेश देने को गए। सो घरि जाय उपदेश देना अति राग” होय, सो मुनिक भी संभवै नाहीं। केवलीकै कैसे बनै? ऐसे ही अनेक विपरीतता तहां प्ररूप हैं। केवली शुद्ध केवलज्ञानदर्शनमय रागादि रहित भए हैं, तिनकै अघातिनिके उदयतें संभवती क्रिया कोई हो है। केवलीकै मोहादिकका अभाव भया है तात उपयोग मिलै जो क्रिया होय सकै, सो संभव नाहीं । पाप प्रकृति का अनुभाग अत्यन्त मंद भया है। ऐसा मंद अनुभाग अन्य कोईकै नाहीं । तातै अन्यजीवनिक पापउदयतें जो क्रिया होती देखिए है, सो केवलीकै न होय । ऐसे केवली भगवानकै सद्भाव कहि देव का स्वरूप को अन्यथा प्ररूप है।
मुनि के वस्त्रादि उपकरणों का प्रतिषेध बहुरि गुरु का स्वरूपको अन्यथा प्ररूपै है मुनि के वस्त्रादिक चौदह उपकरण' कहै है। सो हम पूछे हैं, मुनिको निर्ग्रन्थ कहै अर मुनिपद लेते नवप्रकार सर्वपरिग्रहका त्यागकरि महाव्रत अंगीकार करे, सो ए वस्त्रादिक परिग्रह है कि नाहीं। जो है तो त्याग किए पीछे काहेको राखै अर नाहीं हैं तो वस्त्रादिक गृहस्थ राखै ताको भी परिग्रह मति कहो। सुवर्णादिकहीको परिग्रह कहो। बहुरि जो कहोगे, जैसे क्षुधा के अर्थि आहार ग्रहण कीजिए है, तैसे शीत उष्णादिक के अर्थि वस्त्रादिक ग्रहण कीजिए हैं। सो मुनिपद अंगीकार करतें आहार का त्याग किया नाही, परिग्रह का त्याग किया है। बहुरि अन्नादिकका तो संग्रह करना परिग्रह है, भोजन करने जाइये सो परिग्रह नाहीं। अर वस्त्रादिक का संग्रह करना वा पहरना सर्व ही परिग्रह है, सो लोकविषै प्रसिद्ध है। बहुरि कहोगे, शरीर की स्थिति के अर्थि वस्त्रादिक राखिए है-ममत्व नाहीं है, ताते इनको परिग्रह न कहिए है। सो श्रद्धानविषै तो जब सम्यग्दृष्टि भया तब ही समस्त परद्रव्यविषै ममत्व का अभाव भया। तिस अपेक्षा चौथा गुणस्थान ही परिग्रह रहित कहो। अर प्रवृत्तिविष ममत्व नाहीं तो कैसे ग्रहण करै है। तार्तं वस्त्रादिक ग्रहण-थारण छूटेगा, तब ही निःपरिग्रह होगा। बहुरि कहोगे वस्त्रादिकको कोई लेय जाय तो क्रोध न करै वा क्षुधादिक लागै तो वे बेचे नाही वा वस्त्रादिक पहरि प्रमाद कर नाही, १. पात्र १ पात्रबन्ध २ पात्र केसरिकर ३ पटलिकाएँ ४-५ रनस्त्राग ६ गोच्छक ७ रनोहरण ८ मुखयस्त्रिका ६ दो सूती
कपड़े १०-११ एक ऊनी कपड़ा १२ मात्रक १३ चोलपट्ट १४, देखो वृहत्कल्प. सू. उ. ३ भा. गा. ३९६२ से ३६६५ तक।
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पांचवा अथिकार-१२५ ।
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परिणामनिकी थिरताकरि धर्म ही साधै हैं तातै ममत्व नाहीं। सो बाह्य क्रोध मति करो परन्तु जाका ग्रहण विषे इष्ट बुद्धि होय तो ताका वियोगविषै अनिष्टबुद्धि होय ही होय । जो अनिष्टबुद्धि न भई तो ताके अर्थि याचना काहेको करिए है? बहुरि बेचते नाहीं, सो धातु राखने अपनी हीनता जानि नाहीं बेचिए है। जैसे धनादि राखने तैसे ही वस्त्रादि राखने। लोकविषै परिग्रह के चाहक जीवनिकै दोउनिकी इच्छा है। ताते चौरादिक के भयादिकके कारण दोऊ समान हैं। बहुरि परिणामनि की थिरताकरि धर्मसाधनेही तैं परिग्रहपना न होय तो काहूको बहुत शीत लागेगा सो सौडि राखि परिणामनिकी थिरता करेगा अर धर्मसाधेगा तो वाको भी निःपरिग्रह कही। ऐसे गृहस्थधर्म मुनिधर्म विषय विशेष कहा रहेगा। जाकै परिषह सहने की शक्ति न होय सो परिग्रह राखि धर्म साधै ताका नाम गृहस्थधर्म अर जाकै परिणाम निर्मल भए परीषहकरि व्याकुल न होय सो परिग्रह न राखे अर धर्म साधै ताका नाम मुनियर्म, इतना ही विशेष है। बहुरि कहोगे, शीतादिकी परीषहकरि व्याकुल कैसे न होय। सो व्याकुलता तो मोह के उदयके निमित्ततें है, सो मुनिके षष्ठादि गुणस्थाननिविषै तीन चौकड़ी का उदय नाहीं अर संचलन के सर्वघाती स्पर्द्धकनिका उदय नाही, देशघाती स्पर्धकनिका उदय है सो तिनका किछू बल नाहीं। जैसे वेदक सम्यग्दृष्टिकै सम्यक्माोहनीय का उदय है सो सम्यक्त्व को घात न करि सके तैसे देशघाती संज्वलनका उदय परिणामनिको व्याकुल करि सके नाहीं। अहो मुनिनिकै अर औरनिकै परिणामनिकी समानता है नाहीं। और सबनिकै सर्वघाती का उदय है, इनिकै देशघाती का उदय है। तातें औरनिकै जैसे परिणाम होय तैसे उनके कदाचित् न होय। ताते जिनकै सघातीकषायनिका उदय होय ते गृहस्थ ही रहैं अर जिनकै देशघाती का उदय होय ते मुनिधर्म अंगीकार करै। ताकै शीतादिककरि परिणाम व्याकुल न होय तातै वस्त्रादिक राखै नाहीं।
विशेष : पूज्य जयधवलाजी में स्पष्ट लिखा है कि- मिच्छाइट्रिठप्पटुडि जाव असंजदसम्माइट्ठित्ति ताव एदेसि कम्माणमणुमागुदीरणा सव्यघादी देसघादी च होदि; संकिलेसविसोहिवलेण; संजदासजदपटुडि उपरि सव्यथेव देसघादी होदि। तत्थ सव्यधादिउदीरणाए सग्गुणपरिणामेण विराझदो ति (ज.ध. ११/३६)।
अर्थ- मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक तो इन कर्मों की अनुभाग उदीरणा (अर्थात् वेदन) संक्लेश और विशुद्धि के वश से देशघाती और सर्वघाती दोनों प्रकार की होती है। फिर संयतासंयत गुणस्थान से लेकर आगे सर्वत्र देशघाती होती है। क्योंकि चार संज्वलन की सर्वघाती उदीरणा (वेदन) का संयमासंयम आदि गुणरूप परिणामों के साथ विरोध है।
जयथवल पु. १३ पृ. १५५, प्रस्तावना पृ. १६ तथा क.पा. सु. पृ. ६६७ आदि में भी लिखा है कि - चदुसंजलण णवणोकसायाणं सब्बघादिफहयोदयक्खएण तेसि चेव देसपादिफदोषएण लद्धप्पसरूपत्तादो संजमासंजम ललि खओवसमिया ति।
अर्थ- चार संज्वलन तथा ६ नोकषाय के सर्वधाती स्पर्धको के उदय का क्षय होने से और
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - १२६
उन्हीं के देशघाती स्पर्धकों का उदय होने से संयमासंयम लब्धि अपने स्वरूप को प्राप्त करती है, इसलिए यह संयमासंयमलब्धि क्षायोपशमिक है। (जयधवला पुस्तक ११ की प्रस्तावना का पृष्ठ ३ भी देखें)
___ कषायपाहुडसुत्त गाथा ६२ की टीका चूर्णिसूत्र में भी लिखा है कि चदुसंजलणणयणोकसायाणमणुभागुदीरणा एइंदीए वि देसघादी होई।
__ अर्थ- चार संज्वलन, ६ नोकषाय की अनुभाग उदीरणा एकेन्द्रिय जीव में भी देशघाती होती है। पृष्ठ ५०२। इसकी जयधवला में स्पष्ट लिखा है कि "ऐसा नहीं है कि संयतों के ही संज्वलन की देशघाती उदीरणा हो, नीचे भी होती है।"
रा.वा.२/५/८/१०८, धवला ७/६४, धवला ५/२० इन ग्रन्थों में स्पष्ट लिखा है कि संचलन के देशघाती उदय होने पर है। पंचम गुणस्थान होता है। सार यह निकला कि पंचमगुणस्थान में नियम से संज्वलन का देशघाती ही उदय है तथा पहले से चौथे में अनियम से देशघाती का उदय है, यह आगम है।
बहुरि कहोगे- जैन शास्त्रनिविष चौदह उपकरण मुनि राखे, ऐसा कह्या है। सो तुम्हारे ही शास्त्रनिविष कह्या है, दिगम्बरजैन शास्त्रनिविषै तो कहै नाहीं। तहाँ तो लंगोटमात्र परिग्रह रहे भी ग्यारही प्रतिमा का धारक को श्रावक ही कया। सो अब यहाँ विचारो, दोऊनि में कल्पित वचन कौन है? प्रथम तो कल्पित रचना कषायी होय सो करै। बहुरि कषायी होय सोही नीचापदविष उच्चपनी प्रगट करै। सो यहाँ दिगम्बरविष वस्त्रादि राखे धर्म होय ही नाही, ऐसा तो न कह्या। परन्तु तहाँ श्रावकधर्म कह्या। श्वेताम्बर विषै मुनिधर्म कह्या । सो यहाँ जाने नीची क्रिया होते उच्चत्य पद प्रगट किया सो ही कषायी है । इस कल्पित कहनेकरि आपको वस्त्रादि राखत भी लोक मुनि मानने लागै, तातै मानकषाय पोष्या गया। अर औरनिको सुगमक्रियाविषे उच्चपद का होना दिखाया, तातें घने लोक लगि गए। जे कल्पित मत भए है, ते ऐसे ही भए हैं। तातें कषायी होई वस्त्रादि होते मुनिपना कह्या है, सो पूर्वोक्त युक्तिकरि विरुद्ध भासै है तातें ए कल्पितवचन हैं, ऐसा जानना।
बहुरि कहोगे - दिगम्बरविषै भी शास्त्र, पीछी आदि उपकरण मुनिके कहे हैं तैसे हमारे चौदह उपकरण कहे हैं।
ताका समाधान - जाकरि उपकार होय ताका नाम उपकरण है। सो यहाँ शीतादिककी वेदना दूरि करनेते उपकरण ठहराईए, तो सर्वपरिग्रह सामग्री उपकरण नाम पाये । सो धर्मविष इनिका कहा प्रयोजन? ए तो पापके कारण हैं। धर्मविषै तो धर्मका उपकारी जे होय तिनका नाम उपकरण है। सो शास्त्र ज्ञानको कारण, पीछी दयाको कारण, कमंडलु शौचको कारण, सो ए तो धर्मके उपकारी भए, यस्त्रादिक कैसे धर्मके उपकारी होय? वे तो शरीर का सुखहीके अर्थि थारिए है। बहुरि सुनो जो शास्त्र राखि महंतता दिखावै,
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पाँचवा अधिकार-१२७
पीछीकरि बुहारी दै, कमंडलुकरि जलादिक पावै वा मैल उतारै, तो शास्त्रादिक भी परिग्रह ही हैं। सो मुनि ऐसे कार्य कर नाहीं। तातै धर्मके साधनको परिग्रह संज्ञा नाहीं। भोगके साधनको परिग्रह संज्ञा हो है, ऐसा जानना। बहुरि कहोगे कमंडलुतें तो शरीरहीका माल दूरि करिए है, सो मुनि मल दूरि करने की इच्छाकरि कमंडलु नाहीं राखै हैं । शास्त्र बांचना आदि कार्य कर अर मलालप्त होय ती तिनका अविनय होय, लोकनिंद्य होय, ता” इस धर्मके अर्थ कमंडलु राखिए है। ऐसे पीछी आदि उपकरण सम्भवे, वस्त्रादिकी उपकरण संज्ञा सम्भवै नाहीं । काम अरति आदि मोहका उदयलें विकार बाह्य प्रगट होय अर शीतादिक सहे न जाय तातें विकार हाँकनेको वा शीलादि मिटावनेको वस्त्रादिक राखै अर मानके उदयसे अपनी महंतता भी चाहै ताते कल्पित युक्तिकरि उपकरण ठहराए हैं। बहुरि घरि-घरि याचनाकरि आहार ल्यावना टहरावै है। सो प्रथम तो यह पूछिए है, याचना धर्म का अंग है कि पापका अंग है। जो धर्मका अंग है तो मांगने वाले सर्व धर्मात्मा भए। अर पापका अंग है तो मुनिकै कैसे सम्भवै? ।
बहुरि जो तू कहेगा, लोभकरि किछू धनादिक याचै तो पाप होय, यहु तो धर्म-साधनके अर्थि शरीर की स्थिरता किया चाहै है तातें आहारादिक यात्रै है।
ताका समाधान- आहारादिककरि धर्म होता नाही, शरीर का सुख हो है। सो शरीरका सुख के अर्थि अति लोभ भए याचना करिए है। जो अति लोभ न होता, तो आप काहेको मांगता। वे ही देते तो देते, न देते तो न देते। बहुरि अतिलोभ भए इहाँ ही पाप भया, तब मुनि धर्म नष्ट भया, और धर्म कहा साथेगा। अब वह कहै है-मनविषै तो आहारकी इच्छा होय अर याचे नाहीं तो मायाकषाय भया अर याचने में हीनता आवै है सो गर्वकरि याचे नाहीं तब मानकषाय भया। आहार लेना था सो मांगि लिया। यामें अति लोभ कहा भया अर यात मुनिधर्म कैसे नष्ट भया सो कहो। याको कहिए हैं
जैसे काहू व्यापारीके कुमावने की इच्छा मन्द है सो हाटि (दुकान) ऊपरि तो बैटै अर मनविषै व्यापार करने की इच्छा भी है परन्तु काहूको वस्तु लेनेदेनेरूप व्यापारके अर्थ प्रार्थना नाहीं करै है। स्वयमेव कोई आवै तो अपनी विधि मिले व्यापार करै है तो ताकै लोम की मंदता है, माया वा मान नाहीं है। माया मानकषाय तो तब होय, जब छलकरने के अर्थि वा अपनी महंतताके अर्थि ऐसा स्वांग करै। सो मले व्यापारीकै ऐसा प्रयोजन नाहीं तातै वाकै माया मान न कहिए। तैसे मुनिनकै आहारादिककी इच्छा मन्द है सो आहार लेनेको आवै अर मनविषै आहार लेने की इच्छा भी है परन्तु आहारके अर्थि प्रार्थना नाहीं करै है। स्वयमेव कोई दे तो अपनी विधि मिले आहार ले हैं तो उनकै लोभकी मंदता है, माया वा मान नाहीं है। माया मान तो तब होय जब छल करने के अर्थि वा महंतता के अर्थि ऐसा स्वांग करै । सो मुनिनकै ऐसा प्रयोजन है नाही तातै इनिकै माया मान नाहीं है। जो ऐसे ही माया मान होय तो जे मनहीकरि पाप कर, वचनकायकरि न करे, तिन सबनिकै माया ठहरै। अर जे उच्चपदवीके धारक नीचवृत्ति अंगीकार नाहीं करै हैं, तिन सम्बनिकै मान ठहरै। ऐसे अनर्थ होय!
बहुरि त कह्या- “आहार मांगने में अतिलोभ कहा भया? सो अतिकषाय होय तब लोकनिंद्य कार्य अंगीकारकरिकै भी मनोरथ पूर्ण किया चाहै। सो मांगना लोकनिंध है, ताको भी अंगीकारकरि आहारकी
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१२८
इच्छा पूर्ण करने की चाहि भई। तातें यहाँ अति लोभ भया। बहुरि तें कह्या- "मुनिधर्म कैसे नष्ट भया" सो मुनिधर्म विषै ऐसी तीव्र कषाय सम्भव नाहीं। बहुरि काहूका आहार देने का परिणाम न था, यानै वाका घर में जाय याचना करी। तहाँ वाकै सकुचना भया वा न दिए लोकनिंद्य होने का भय भया तातै वाको आहार दिया। सो वाका अन्तरंग प्राण पीड़ने हिंसाका सद्भाव आया। जो आप वाका घर में न जाते, उसी कै देने का उपाय होता तो देता, वाकै हर्ष होता। यहु तो दवाय कर कार्य करावना भया। बहुरि अपना कार्यके अर्थि याचनारूप वचन है सो पापरूप है। सो यहाँ असत्य वचन भी मया । बहुरि वाकै देने की इच्छा न थी, यानै याच्या, तब वान अपनी इच्छा” दिवा नाही- सकुचिकार दिया। तातें अदत्त-ग्रहण भी भया। बहुरि गृहस्थ के घर में स्त्री जैसे तैसे तिष्ट थी, यहु चल्या गया। तहाँ ब्रह्मचर्यकी बाडिका भंग भया। बहुरि आहार ल्याय केतेक काल राख्या। आहारादि के राखनेको पात्रादिक राखे सो परिग्रह भया। ऐसे पाँच महाव्रतनिका भंग होनेः मुनिधर्म नष्ट हो है ताते याचनाकरि आहार लेना मुनिको युक्त नाहीं।
बहुरि वह कहै है- मुनिकै बाईस परीषहनिविषै याचना परीषह कही है, सो मांगे बिना तिस परीषहका सहना कैसे होय?
ताका समाधान- याचना करने का नाम याचना परिषह नाहीं है। याचना न करनी, ताका नाम याचनापरीषह है। जाते अरति करने का नाम अरति परीषह नाहीं, अरति न करनेका नाम अरति परीषह है, तैसे जानना। जो याचना करना परीषह टहरै, तो रंकादि घनी याचना करै है, तिनकै धना धर्म होय । अर कहोगे, मान घटावनेते याको परीषह कहै है तो कोई कषायी कार्य के अर्थि कोई कषाय छोरे भी पापी ही होय । जैसे कोई लोभके अर्थि अपना अपमानको भी न गिनै, तो वाकै लोभ की तीव्रता है। उस अपमान करावनेत भी महापाप होय है। अर आपकै इच्छा किछू नाही कोई स्वयमेव अपमान करै है तो वाकै महाधर्म है। सो यहाँ तो भोजनका लोभके अर्थि याचना करि अपमान कराया तातैं पाप ही है, धर्म नाहीं। बहुरि वस्त्रादिक के भी अर्थि याचना करै है सो वस्त्रादिक कोई धर्मका अंग नाहीं है, शरीर सुखका कारण हैं। तातै पूर्वोक्त प्रकार ताका निषेध जानना। देखो अपना धर्मरूप उच्चपद को याचना करि नीचा करै है सो
यामें धर्म की हीनता हो है। इत्यादि अनेक प्रकार करि मुनिधर्म विष याचना आदि माही सम्भव है। सो ऐसी . असम्भवती क्रिया के धारक साधु गुरु कहै हैं। तातै गुरु का स्वरूप अन्यथा कहै हैं।
धर्म का अन्यथा स्वरूप ___ बहुरि धर्मका स्वरूप अन्यथा कहै है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र इनकी एकता मोक्षमार्ग है, सो ही धर्म है, सो इनिका स्वरूप अन्यथा प्ररूप हैं। सो ही कहिए है
तत्त्वार्थ प्रधान सम्यग्दर्शन है, ताकी तो प्रधानता नाहीं। आप जैसे अरहंत देव साधु गुरु दया धर्मको निरूपै है, तिनका श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहै है। सो प्रथम तो अरहतादिकका स्वरूप अन्यथा कहै । बहुरि इतने ही श्रद्धानते तत्त्व श्रद्धान भए बिना सम्यक्त्व कैसे होय तातै मिथ्या कहे हैं। बहुरि तत्त्वनिका भी श्रद्धानको सम्यक्त्व कहै है तो प्रयोजन लिए तत्त्वनिका श्रद्धान नाहीं कह है। गुणस्थान मार्गणादिरूप जीट
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पाँचवा अधिकार-१२E
बा. अरकंधादिरूप अजीवका, पाप-पुण्यके स्थानिका, अविरति आदि आस्रवनिका, व्रतादिरूप संवरका, तपश्चरणादिरूप निर्जराका, सिद्ध होने के लिगादिके भेदनिकरि मोक्षका स्वरूप जैसे उनके शास्त्र विषे कह्या है. तैसे सीखि लीजिए अर केवलीका वचन प्रमाण है. ऐसे तत्त्वार्थ श्रद्धानकरि सम्यक्त्व भया माने है। सो हम पूछ हैं, अवेयक जानेवाला द्रव्यलिंगी मुनिकै ऐसा श्रद्धान हो है कि नाहीं । जो हो है, तो वाको मिथ्यादृष्टि काहेको कहिए। अर न हो है, तो वाने तो जैनलिंग धर्मबुद्धि करि धस्या है, ताकै देवादिकी प्रतीति कैसे नाहीं भई? अर वाकै बहुत शास्त्राभ्यास है, सो वानै जीवादिके भेद कैसे न जाने। भर अन्यमतका लवलेश भी अभिप्रायमें नाहीं, ताकै अरहंत वचन की कैसे प्रतीति नाहीं भई। ताते वाकै ऐसा श्रद्धान तो होय परन्तु सम्यक्त्व न भया। बहुरि नारकी भोगभूमियाँ तिर्यच आदिकै ऐसा अद्धान होनेका निमित्त नाहीं अर तिनिकै बहुत कालपर्यंत सम्यक्त्व रहै है। तातै वाकै ऐसा श्रद्धान नाहीं हो है, तो भी सम्यक्त्व भया। तातें सम्यक्श्रद्धानका स्वरूप यहु नाहीं । साँचा स्वरूप है, सो आगे वर्णन करेंगे, सो जानना।
बहुरि जो उनके शास्त्रनिका अभ्यास करना ताको सम्यग्ज्ञान कहै है। सो द्रव्यलिंगी मुनिकै 'शास्त्राभ्यास होते भी मिथ्याज्ञान कह्या, असंयत सम्यग्दृष्टिकै विषयादिरूप जानना ताको सम्यग्ज्ञान कह्या। तात यहु स्वरूप नाही, सांचा स्वरूप आगे कहेंगे सो जानना । बहुरि उनकरि निरूपित अणुव्रत महाव्रतादिरूप श्रावक यतीका धर्म थारने करि सभ्धचारित्र भया माने । सो प्रथम तो व्रतादिका स्वरूप अन्यथा कहै, सो किछु पूर्व गुरु वर्णन विष कह्या है। बहुरि द्रव्यलिंगी के महाव्रत होते भी सम्यक्रचारित्र न हो है। अर उनका मत के अनुसारि गृहस्थादिककै महाव्रत आदि बिना अंगीकार किए भी सम्यकूचारित्र हो है, तातै यह स्वरूप नाहीं। सांचा स्वरूप अन्य है, सो आगे कहेंगे।
यहाँ वे कहै हैं- द्रव्यलिंगी कै अन्तरंग विषै पूर्वोक्त श्रद्धानादिक न भए, बाह्य ही भए, ताते सम्यक्त्वादि न भए।
ताका उत्तर- जो अंतरंग नाहीं अर बाह्य धारै, सो तो कपटकरि थारै। सो वाकै कपट होय तो ग्रैवेयक कैसे जाय, नरकादि विषै जाय। बंध तो अंतरंग परिणामनिते हो है। सो अंतरंग जिनधर्मस्प परिणाम भए बिना अवेयक जाना सम्भव नाहीं । बहुरि व्रतादिरूप शुभोपयोगहीत देय का बंध मानै अर याहीको मोक्षमार्ग माने, सो बन्धमार्ग मोक्षमार्गको एक किया, सो यहु मिथ्या है। बहुरि व्यवहार धर्म विषै अनेक विपरीति निरूप हैं। निंदकको मारने में पाप नाहीं, ऐसा कहै है। सो अन्यमती निंदक तीर्थकरादिकके होते भी भए, तिनको इन्द्रादिक मारे नाहीं। सो पाप न होता, तो इन्द्रादिक क्यों न मारे। बहुरि प्रतिमाजीकै आभरणादि बनाये है, सो प्रतिबिम्ब तो वीतराग भाव बधावने को कारण स्थापन किया था। आभरणादि बनाए, अन्यमत की मूर्तिवत् यह भी भए। इत्यादि कहाँ ताँई कहिए, अनेक अन्यथा निरूपण करै हैं। या प्रकार श्वेताम्बर मत कल्पित जामना। यहाँ सम्यग्दर्शन आदिका अन्यथा निरूपणते मिथ्यादर्शनादिकहीकी पुष्टता हो है ताते याका श्रद्धानादि न करना।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१३०
ढूंढक मत निराकरण बहुरि इन श्वेताम्बरनिविषै ही ढूंढिए प्रगट भए हैं, ते आपको सांचे धर्मात्मा मानै हैं, सो भ्रम है। काहैते सो कहिए है
केई तो भेष धारि साधु कहावै है, सो उनके ग्रन्थनिके अनुसार भी व्रत समिति गुप्ति आदि का साधन नाहीं भारी हैं। बहुरि देखो मन वचन का त कानुदिनापारिभर्स जादा पग करने की प्रतिज्ञा करै, पीछे पालै नाहीं। बालकको वा भोलाको वा शूद्रादिकको ही दीक्षा दे। सो ऐसे त्याग करै अर त्याग करते ही किछू विचार न करै, जो कहा त्याग करूँ हूँ। पीछै पालै भी नाही अर ताको सर्व साधु माने। बहुरि यह कहै -- पीछे धर्मबुद्धि हो जाय, तब तो याका भला हो है। सो पहले ही दीक्षा देने वाले ने प्रतिज्ञा भंग होती जानि प्रतिज्ञा कराई, बहुरि यानै प्रतिज्ञा अंगीकार करि भंग करी, सो यहु पाप कौनको लाग्या। पीछे थर्मात्मा होने का निश्चय कहा। बहुरि जो साधुका धर्म अंगीकार करि यथार्थ न पाले, ताको साधु मानिए कै न मानिए । जो मानिए तो जे साधु मुनि नाम धरायै हैं अर भ्रष्ट हैं, तिन सबनिको साधु मानो। न मानिए, तो इनकै साधुपना न रह्या । तुम जैसे आचरणते साधु मानो हो, ताका भी पालना कोऊ बिरलाकै पाइए है। सबनिको साधु काहेको मानो हो।
यहाँ कोऊ कहै-हम तो जाकै यथार्थ आचरण देखेंगे, ताको साधु मानेंगे, औरनिको न मानेंगे। ताको पूछिए है
एक संघ विष बहुत भेषी हैं। तहाँ जाकै यथार्थ आचरण मानो हो सो वह औरनिको साधु मानै है कि न माने है। जो माने है, तो तुम भी अश्रद्धानी भया, ताको पूज्य कैसे मानो हो। अर न माने है, तो उन सेती साधुका व्यवहार काहेको वत्र्त है। बहुरि आप तो उनको साधु न मानै अर अपने संघविष राखि
औरनि पासि साधु मनाय औरनिको अश्रद्धानी करें, ऐसा कपट काहेको करै । बहुरि तुम जाको साधु न मानोगे तब अन्य जीवनिको भी ऐसा ही उपदेश करोगे, इनको साधु मति मानो, ऐसे धर्मपद्धति विष विरुद्ध होय। अर जाको तुम साधु मानो हो तिसते भी तुम्हारा विरुद्ध भया, जाते वह वाको साधु मानै है। बहुरि तुम जाकै यथार्थ आचरण मानो हो, सो विचारकार देखो, यह भी यथार्थ मुनि धर्म नाहीं पाले है।
कोऊ कहे-अन्य भेषधारीनित तो घने अच्छे हैं तातें हम मान हैं। सो अन्यमतीनि विष तो नाना प्रकार भेष सम्भवे, जाते तहाँ रागभावका निषेध नाहीं। इन जैनमतविष तो जैसा कह्या, तैसा ही भए साधु संज्ञा होय।
यहाँ कोऊ कई-शील संयमादि पाले है, तपश्चरणादि करै हैं, सो जेता करै तितना ही भला है।
ताका समाधान- यहु सत्य है, धर्म थोरा भी पाल्या हुआ भला ही है। परन्तु प्रतिज्ञा तो बड़े धर्मकी करिए अर पालिए थोरा, तो तहाँ प्रतिज्ञामंगसे महापाप हो है। जैसे कोऊ उपवासकी प्रतिज्ञाकार एकबार भोजन करै तो वाकै बहुत बार भोजनका संयम होतें भी प्रतिज्ञाभंगते पापी कहिए। तैसे मुनिधर्मकी प्रतिज्ञाकरि कोई किंचित् धर्म न पालै, तो वाको शीलसंयमादि होते भी पापी ही कहिए। अर जैसे एकंतकी
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पाँचवाँ अधिकार - १३१
( एकासनकी ) प्रतिज्ञाकरि एक बार भोजन करें, तो धर्मात्मा ही है तैसे अपना श्रावकपद धारि थोरा भी धर्मसाधन करे तो धर्मात्मा ही है। यहाँ तो ऊँचा नाम धराय नीची क्रिया करनैर्ते पापीपना सम्भव हैं। यथायोग्य नाम धराय धर्मक्रिया करते तो पापीपना होता नाहीं । जेता धर्म्म साथै, तितना ही भला है।
यहाँ कोऊ कहै - पंचमकाल का अन्तपर्यन्त चतुविध संघका सद्भाव का है। इनको साधु न मानिए, तो किसको मानिए?
ताका उत्तर- जैसे इस कालविषै हंसका सद्भाव का है अर गम्यक्षेत्रविषै हंस नाहीं दीसे है, तो औरनिको तो हंस माने जाते नाहीं, हंसका लक्षण मिले ही हंस माने जांय । तैसे इस कालविषै साधुका सद्भाव है अर गम्यक्षेत्रविषै साधु न दीसे है, तो औरनिको तो साधु माने जाते नाहीं, साधु लक्षण मिले ही साधु माने जाय। बहुरि इनका भी प्रचार थोरे ही क्षेत्रविषै दीसे है, तहाँतें परे क्षेत्रविषै साधुका सद्भाव कैसे मार्ने ? जो लक्षण मिले माने, तो यहाँ भी ऐसे ही मानो । अर बिना लक्षण मिले ही माने तो तहाँ अन्य कुलिंगी हैं तिनहीको साधु मानो। ऐसे विपरीति होय, तातैं बने नाहीं । कोऊ कहै - इस पंचमकालमें ऐसे भी साधुपद हो हैं; तो ऐसा सिद्धांत का वचन बताओ। बिना ही सिद्धान्त तुम मानो हो, तो पापी होगा। ऐसे अनेक युक्तिकरि इनिकै साधुपना बने नाहीं । अर साधुपना बिना साधु मानि गुरु मानै मिथ्यादर्शन हो है, जातें भले साधुको गुरु माने ही सम्यग्दर्शन हो है ।
प्रतिमाधारी श्रावक न होनेकी मान्यता का निषेध
बहुरि श्रावक धर्मकी अन्यथा प्रवृत्ति करावे है। त्रसकी हिंसा स्थूल मृषादिक होतैं भी जाका किछू प्रयोजन नाहीं, ऐसा किंचित् त्याग कराय वाको देशव्रती भया कहै। सो वह त्रसघातादिक जामें होय ऐसा कार्य करै । सो देशव्रत गुणस्थानविषे तो ग्यारह अविरति कहे हैं, तहाँ त्रसघात कैसे सम्भवै? बहुरि ग्यारह प्रतिमा भेद श्रावक के हैं तिन विषै दशमी ग्यारमी प्रतिमाधारक श्रावक तो कोई होता ही नाहीं अर साधु होय। पूछे, तब कहै - पडिमाधारी श्रावक अबार होय सकता नहीं । सो देखो, श्रावकधर्म तो कठिन अर मुनिधर्म सुगम - ऐसा विरुद्ध भासे है। बहुरि ग्यारमी प्रतिमा धारककै थोरा परिग्रह, मुनिकै बहुतपरिग्रह बतावै, सो सम्भवता वचन नाहीं । बहुरि कहै, ए प्रतिमा तो धोरे ही काल पालि छोड़ि दीजिए है । सो ए कार्य उत्तम है तो धर्म बुद्धि ऊँची क्रियाको काहेको छोरै अर नीचे कार्य हैं तो काहेको अंगीकार करे। यहु सम्भवै ही नाहीं ।
बहुरि कुदेव कुगुरुको नमस्कारादिक करते भी श्राचकपना बतावै । कहै, धर्म्मबुद्धिकरि तो नाहीं बंदै हैं, लौकिक व्यवहार है। सो सिद्धांतविषै तो तिनिकी प्रशंसा-स्तवनको भी सम्यक्त्वका अतिचार कहे अर गृहस्थनिका भला मनावनेके अर्थ बंदना करतें भी किछू न कहै । बहुरि कहोगे - भय लज्जा कुतूहलादिककरि बंदे हैं; तो इनिही कारण निकरि कुशीलादि सेवन करतें भी पाप मत कहो, अंतरंग विषै पाप जान्या चाहिए। ऐसे सर्व आचरनविषैविरुद्ध होगा। देखो मिथ्यात्वसारिखे महापाप की प्रवृत्ति छुड़ावनेकी तो मुख्यता नाहीं अर पवनकायकी हिंसा ठहराय उघारे मुख बोलना छुड़ावनेकी मुख्यता पाईए । सो क्रमभंग उपदेश है। बहुरि
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मोक्षमार्ग प्रकाशक- १३२
धर्मके अंग अनेक हैं, तिनविषे एक परजीवकी दया ताको मुख्य कहै हैं ताका भी विवेक नाहीं । जलका छानना, अन्नका सोधना, सदोष वस्तुका भक्षण न करना, हिंसादिकरूप व्यापार करना इत्यादि याके अंगनिकी तो मुख्यता नाही।
मुँहपत्ति का निषेध बहुरि पाटीका बाँधना, शौचादिक थोरा करना, इत्यादि कार्यनि की मुख्यता करै है। सो मैलयुक्त पाटी के थूकका संबंधते जीव उपजै तिनका तो यत्न नाही अर पवनकी हिंसाका यत्न बतावै। सो नासिकाकरि बहुत पवन निकसै, ताका तो यत्न करते हो नाहीं। बहुरि जो उनका शास्त्रके अनुसार बोलनेहीका यत्न किया, तो सर्वदा काहेको राखिए । बोलिए, तब यत्न कर लीजिए । बहुरि जो कहै-भूति जाइए। तो इतनी भी याद न रहै, तो अन्य धर्मसाधन कैसे होगा; बहुरि शौचादिक थोरे करिए, तो सम्भवत्ता सौच तो मुनि भी करै हैं। तातै गृहस्थको अपने योग्य शौच करना। स्वीगापिकरि शौच किए बिना सामायिकादि क्रिया करनेते अविनय विक्षिप्तताआदि करि पाप उपजै। ऐसे जिनकी मुख्यता करे, तिनका भी ठिकाना नाहीं अर केई दया के अंग योग्य पाल है, हरितकायका त्याग आदि करै, जल थोरा नाखै, तो इनका हम निषेध करते नाहीं।
मूर्तिपूजाः निषेध का निराकरण बहुरि इस अहिंसा का एकांत पकड़ि प्रतिमा चैत्यालयपूजनादि क्रियाका उत्थापन करे है। सो उनहीं के शास्त्रनिविषै प्रतिमाआदिका निरूपण है, ताको आग्रहकरि लोपै है। भगवतीसूत्रविषे ऋद्भिधारी मुनिका निरूपण है तहाँ मेरुगिरि आदिविषै जाय “तत्थ चेययाई वंदई" ऐसा पाठ है। याका अर्थ यहु- तहाँ चैत्यनिको बदै हैं । सो चैत्य नाम प्रतिभा का प्रसिद्ध है। बहुरि वे हटकरि कहै-चैत्य शब्दके ज्ञानादिक अनेक अर्थ निपजै हैं, सो अन्य अर्थ है, प्रतिमाका अर्थ नाहीं। याको पूछिए है- मेरुगिरि नन्दीश्वरद्वीपविषै जाय-जाय तहाँ चैत्यवंदनाकरी, सो वहाँ ज्ञानादिककी वंदना करने का अर्थ कैसे सम्भवै? ज्ञानादिक की वंदना तो सर्वत्र सम्भवै । जो वंदने योग्य चैत्य यहाँ सम्मवै अर सर्वत्र न सम्भवै, ताको तहाँ यंदना करने का विशेष सम्भवै, सो ऐसा सम्भवता अर्थ प्रतिमा ही है अर चैत्यशब्दका मुख्य अर्थ प्रतिमा ही है, से प्रसिद्ध है। इस ही अर्थकरि चैत्यालय नाम सम्भव है। याको हठकरि काहेको लोपिए।
बहुरि नन्दीश्वर द्वीपादिकविषै जाय, देवादिक पूजनादि क्रिया करै हैं, ताका व्याख्यान उनकै जहाँ-तहाँ पाइए है। बहुरि लोकविषै जहाँ तहाँ अकृत्रिम प्रतिमाका निरूपण है। सो या रचना अनादि है सो यहु रचना भोग कुतूहलादिकके अर्थि तो है नाहीं । अर इन्द्रादिकके स्थाननिविषै निःप्रयोजन रचना सम्मयै नाहीं। सो इन्द्रादिक तिनको देखि कहा करै है। के तो अपने मन्दिरनिविर्ष निःप्रयोजन रचना देखि उससे उदासीन होते होंगे, तहाँ दुःखी होते होंगे, सो सम्भवै नाहीं । के आछी रचना देखि विषय पोषते होंगे, सो अरहंत मूर्तिकरि सम्यग्दृष्टी अपना विषय पोष, यह भी सम्भवै नाहीं। तारौं तहाँ तिनकी भक्तिआदिक ही करै है यहु ही सम्भवै है । सो उनके सूर्याभदेवका व्याख्यान है। तहाँ प्रतिमाजी के पूजनेका विशेष वर्णन किया
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पाँचवा अधिकार-१३३
है याको गोपने के अर्थ कहै हैं, देवनिका ऐसा ही कर्तव्य है । सो सांच, परन्तु कर्त्तव्यका तो फल होय ही होय। सो तहाँ धर्म हो है कि पाप हो है। जो धर्म हो है, तो अन्यत्र पाप होता था, यहाँ धर्म भया। याको औरनिके सदृश कैसे कहिए? यह तो योग्य कार्य भया । अर पाप हो है तो तहाँ 'मोत्युण' का पाठ पढ़या, सो पापके ठिकाने ऐसा पाठ काहेको पढ़या । बहुरि एक विचार यहाँ यहु आया, जो 'णमोत्युणं' के पाट विषै तो अरहंतकी भक्त है। सो प्रतिमाजी के आगै जाय यहु पाट पढ्या, तातै प्रतिमाजी के आगै जो अरहतभक्तिकी क्रिया है सो करनी युक्त भई।
बहुरि जो वे ऐसा कहैं- देवनिकै ऐसा कार्य है. मनुष्यनिकै नाहीं; जातें मनुष्यनिकै प्रतिमा आदि वनावने विषै हिंसा हो है। तो उनहीके शास्त्रनिविषै ऐसा कथन है, द्रौपदी राणी प्रतिमाजी का पूजनादिक जैसे सूर्याभदेव किया, तैसे करती भई। तातें मनुष्यनिकै भी ऐसा कार्य कर्त्तव्य है। यहाँ एक यह विचार आया-चैत्यालय प्रतिमा बनावने की प्रवृत्ति न थी, तो द्रौपदी कैसे प्रतिमाका पूजन किया। बहुरि प्रवृत्ति थी. तो बनावने वाले धर्मात्मा थे कि पापी थे। जो धर्मात्मा थे तो गृहस्थनिको ऐसा कार्य करना योग्य भया अर पापी थे तो तहाँ भोगादिकका प्रयोजन तो था नाही, काहेको बनाया । बहुरि द्रौपदी तहाँ णमोत्धुणं' का पाठ किया वा पूजनादि किया, सो कुतूहल किया कि धर्म किया। जो कुतूहल किया तो महापापिणी भई। धर्मविषै कुतूहल कहा। अर धर्म किया तो औरनिको भी प्रतिमाजी की स्तुति-पूजा करनी युक्त है।
. बहुरि वे ऐसी मिथ्यायुक्ति बनाये हैं- जैसे इन्द्र की स्थापनातै इन्द्रका कार्य सिद्ध नाही, तैसे अरहंत प्रतिमा करि कार्य-सिद्धि नाहीं । सो अरहंत आप काहूको भक्त मानि भला करते होय तो ऐसे भी माने । सो तो ये वीतराग हैं। यह जीव भक्तिरूप अपने भायनित शुभफल पाये है। जैसे स्त्री का आकाररूप काष्ठ पाषाणको मूर्ति देखि, तहाँ विकाररूप होय अनुराग करे तो ताकै पाप बंथ होय। तैसे अरहंत का आकाररूप धातु पाषाणादिक की मूर्ति को देखि धर्मबुद्रिते. तहाँ अनुराग करे, तो शुभकी प्राप्ति कैसे न होइ। तहाँ वे पाद हैं, बिना प्रतिमा ही हम अरहंत विष अनुराग करि शुभ उपजावेंगे। तो इनको कहिए है- आकार देखे जैसा भाव होय, तैसा परोक्ष स्मरण किए भाव होय नाहीं। याहीत लोकथिष भी स्त्रीका अनुरागी स्त्रीका चित्र बनावै है। ताते प्रतिमाका आलंबनकरि भाक्त विशेष होने से विशेष शुभकी प्राप्ति हो है।
बहुरि कोऊ कई-प्रतिमाको देखो, परन्तु पूजनादिक करने का कहा प्रयोजन है?
ताका उत्तर-जैसे कोऊ किसी जीव का आकार बनाय घात करे तो वाकै उस जीव की हिंसा किए का सा पाप निपजै वा कोऊ काहूका आकार बनाय द्वेषबुद्धि वाकी बुरी अवस्था करै तो जाका आकार बनाया वाकी बुरी अवस्था किए का सा फल निपजे । तैसे अरहंतका आकार बनाय रागबुद्धितै पूजनादि करै तो अरहंतके पूजनादि किए का सा शुभ (भाव) निपजै वा तैसा ही फल होय। अति अनुराग भए प्रत्यक्ष दर्शन न होते आकार बनाय पूजनादि करिए हैं। इस थर्मानुराग” महापुण्य उपजै है।
बहुरि ऐसी कुलर्क करै है- जो जाकै जिस वस्तुका त्याग शेष ताकै आगे लिए वस्तु का परना हास्य करना है। ताते बंदनादिकरि अरहतका पूजन युक्त नाहीं।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - १३४
ताका समाधान - मुनिपद लेते ही सर्व परिग्रहका त्याग किया था, केवलज्ञान भए पीछे तीर्थंकरदेवकै समवसरणादि बनाए, छत्रचामरादि किए, सो हास्य करी कि भक्ति करी । हास्य करी तो इन्द्र महापापी भया, सो बनै नाहीं। भक्ति करी तो पूजनादिकविषे भी भक्ति ही करिए है । छद्मस्थके आगे त्याग करी वस्तुका धरना हास्य करना है, जातें वाकै विक्षिप्तता होय आवै है । केवलीक वा प्रतिमाके आगे अनुरागकरि उत्तम वस्तु धरने का दोष नाहीं । उनके विक्षिप्तता होय नाहीं । धर्मानुरागतें जीवका भला होय ।
बहुरि वे कहे हैं- प्रतिमा बनावने विषै चैत्यालयादि करावने विषै, पूजनादि करावने विषे हिंसा होय अर धर्म अहिंसा है। तार्ते हिंसाकरि धर्म मानने महापाप हो है, तातैं हम इन कार्यनिको निषेध हैं । ताका उत्तर- उनही के शास्त्रविषे ऐसा वचन हैं
सुच्चा जाणइ कल्लाणं सुच्चा जाणइ पावगं । उभयं पि जाणए सुच्चा जं सेयं तं समायर ।।१।।
यहाँ कल्याण, पाप, उभय ए तीन शास्त्र सुनिकरि जाणै, ऐसा कया। सो उभय तो पाप अर कल्याण मिले होय सो ऐसा कार्यका भी होना ठहरया । तहाँ पूछिए है- केवल धर्म्मत तो उभय घाटि है ही अर केवल पाप उभय बुरा है कि भला है। जो बुरा है तो यायें तो किछू कल्याणका अंश मिल्या, पाप बुरा कैसे कहिए। भला है तो केवल पाप छोड़ ऐसा कार्य करना ठहरचा । बहुरि युक्तिकरि भी ऐसे ही सम्भवै है। कोऊ त्यागी होय, मन्दिरादिक नाहीं करावे है या सामायिकादिक निरवद्य कार्यनिविषै प्रवर्तें है। ताको तो छोरि प्रतिमादि करावना वा पूजनादि करना उचित नाहीं । परन्तु कोई अपने रहनेके वास्ते मन्दिर बनावे, तिसर्तें तो चैत्यालयादि करावनेवाला हीन नाहीं। हिंसा तो भई परन्तु वाकै तो लोभ पापानुराग की वृद्धि भई, याकै लोभ छुट्या, धर्मानुराग भया । बहुरि कोई व्यापारादि कार्य करै, तिसतें तो पूजनादि कार्य करना हीन नाहीं । वहाँ तो हिंसादि बहुत हो है, लोभादि बंधे है, पापहीकी प्रवृत्ति है । यहाँ हिंसादिक भी किचित् हो है, लोभादिक घंटे है, धर्म्मानुराग बर्थ है। ऐसे जे त्यागी न होय, अपने धनको पापविषे खरवते होय तिनको चैत्यालयादि करावना | अर जे निरवध सामायिकादि कार्यनिविषे उपयोग को नाहीं लगाय सकै, तिनको पूजनादि करना निषेध नाहीं ।
बहुरि तुम कहोगे निरवद्य सामायिक आदि कार्य ही क्यों न करें, धर्मविषे काल गभावना तहाँ ऐसे कार्य काहेको करे ?
ताका उत्तर जो शरीरकरि पाप छोरे ही निरवद्यपना होय, तो ऐसे ही करे परन्तु परिणामनिविषै पाप छूटे निरवद्यपना हो है । सो बिना अवलम्बन सामायिकादिविषै जाका परिणाम लागे नाहीं सो पूजनादिकरि तहाँ अपना उपयोग लगावे है। तहाँ नानाप्रकार आलम्बनकरि उपयोग लगि जाय है। जो तहाँ उपयोग को न लगावै, तो पापकार्यनिविषे उपयोग भटकै तब बुरा होय । तातें यहाँ प्रवृत्ति करनी युक्त है। बहुरि तुम कहो हो धर्म के अर्थि हिंसा किए तो महापाप हो है, अन्यत्र हिंसा किए थोरा पाप हो है । सो यह प्रथम तो सिद्धान्त का वचन नाहीं अर युक्ति भी मिलें नाहीं । जाते ऐसे मानै इन्द्र जन्मकल्याणकविषै
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पाँचौं अधिकार- १३५
बहुत जलकरि अभिषेक करै है, समवसरणविष देव पुष्पवृष्टि चमर ढालना इत्यादि कार्य करे हैं, सो ये महापापी होय। जो तुम कहोगे, उनका ऐसा ही व्यवहार है, तो क्रिया का फल तो भए बिना रहता नाहीं। जो पाप है तो इन्द्रादिक तो सम्यग्दृष्टी है, ऐसा कार्य काहेको करे अर धर्म है तो कादेको निषेध करो हो। बहुरि भला तुमहीको पूछे हैं- तीर्थकर की वंदना को राजादिक गए, साधु की वंदना को दूरि भी जाईए है, सिद्धान्त सुनने आदि कार्य करने को गमनादि कार है, तहाँ मागविष हिंसा भई। बहुरि साधी जिमाइए है, साथुका मरण भये ताका संस्कार करिये है, साधु होते उत्सव करिये हैं, इत्यादि प्रवृत्ति अब भी दी है। सो यहाँ भी हिंसा हो है। सो ये कार्य तो धर्म ही के अर्थि हैं, अन्य कोई प्रयोजन नाहीं। जो यहाँ महापाप उपजै हैं, तो पूर्व ऐसे कार्य किये तिनका निषेध करो। अर अब भी गृहस्थ ऐसा कार्य करै हैं, तिनका त्याग करो। बहुरि जो धर्म उपजे है तो धर्म के अर्थि हिंसाविषे महापाप बताय काहेको प्रमाको हो। ताते ऐसे मानना युक्त है- जैसे थोरा धन ठिगाए बहुत धनका लाभ होय तो यह कार्य करना तैसे थोरा हिंसादिक पाप भये बहुत धर्म निपजै तो वह कार्य करना। जो थोरा धनका लोभकरि कार्य बिगारै तो मूर्ख है तैसे थोरी हिंसा का भयतें बड़ा थर्म छोरै तो पापी ही होय । बहुरि कोऊ बहुत धन ठिगावै अर स्तोक धन उपजावै वा न उपजावै तो वह मूर्ख ही है। तैसे बहुत हिंसादिकरि बहुतपाप उपजावै अर भक्ति आदि धर्मविष थोरा प्रवते वा न प्रवते तो वह पापी ही है। बहुरि जैसे बिना ठिगाए ही धन का लाभ होते ठिगावै तो मूर्ख है। तैसे निरवद्य धर्मरूप उपयोग होते सावध धर्मविष उपयोग लगायना युक्त नाहीं। ऐसे अपने परिणामनिकी अवस्था देखि भला होय सो करना। एकांतपक्ष कार्यकारी नाही। बहुरि अहिंसा ही केवल पर्म का अंग नाही है। रागादिकनिका घटना धर्मका अंग मुख्य है। तातै जैसे परिणामनिविष रागादिक घटै सो कार्य करना।
बहुरि गृहस्थनिको अणुव्रतादिक का साधन भए बिना ही सामायिक, पडिकमणो, पोसह आदि क्रियानिका मुख्य आचरन करावै है। सो सामायिक तो रागद्वेपरहित साम्यमाव भए होय, पाठ मात्र पढ़े या उठना बैठना किए ही तो होइ नाहीं। बहुरि कहोगे अन्य कार्य करता ताते तो भला है। सो सत्य, परन्तु सामायिक पाठ विष प्रतिज्ञा तो ऐसी करै, जो मनवचनकार सावध को न कसंगा न कराऊंगा अर मनविष तो विकल्प हुआ ही करै। अर वचनकाय विषे भी कदाचित् अन्यथा प्रवृत्ति होय तहाँ प्रतिज्ञाभंग होय । सो प्रतिज्ञाभंग करने से न करनी भली। जाते प्रतिज्ञाभंग का महापाप है।
बहुरि हम पूछ है - कोऊ प्रतिज्ञा भी न करें है अर भाषा पाठ पढ़ है, साका अर्थ जानि तिस विषै उपयोग राखै है। कोऊ प्रतिज्ञा करे, ताको तो नीके पाले नाहीं अर प्राकृतादिक का पाठ पढ़, ताकै अर्थका आपको ज्ञान नाहीं, बिना अर्थ जानै तहाँ उपयोग रहै नाहीं, तब उपयोग अन्यत्र भटकै। ऐसे इन दोऊनि विष विशेष धर्मात्मा कौन? जो पहले को कहोगे, तो ऐसा ही उपदेश क्यों न दीजिए। दूसरे को कहोगे, तो प्रतिज्ञाभंग का पाप भया वा परिणामनिके अनुसार धर्मात्मापना न ठहरया। पाठादि करने के अनुसारि ठहत्या । तातें अपना उपयोग जैसे निर्मल होय सो कार्य करना। सधै सो प्रतिमा करनी। जाका अर्थ जानिए सो पाठ पढ़ना। पद्धति करि नाम धरावने में नफा नाहीं ।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - १३६
बहुरि पडिकमणो नाम पूर्वदोष निराकरण करने का है। सो 'मिच्छा मे दुक्कडं' इतना कहे ही तो दुष्कृत मिथ्या न होय, किया दुःकृत मिथ्या होने योग्य परिणाम भए होइ । तातें पाठ ही कार्यकारी नाहीं । बहुरि पडिकमणां का पाठ विषे ऐसा अर्थ है, जो बारह व्रतादिकविषै जो दुष्कृत लाग्या होय सो मिथ्या होहु । सो व्रत धारे बिना ही तिनका पाडेकमणा करना कैसे सम्भवै? जाकै उपवास न होय, सो उपवासविषै लाग्या दोषका निराकरण करे तो असम्भवपना होय । तातैं यह पाठ पढ़ना कौन प्रकार बने? बहुरि पोसहविषै भी सामायिकवत् प्रतिज्ञाकरि नाहीं पाले है । तातें पूर्वोक्त ही दोष है बहुरि पोसह नाम तो पर्वका है। सो पर्वके दिन भी केताइक कालपर्यंत पापक्रिया करे, पीछे पोसहधारी होय । सो जेते काल बने तेते काल साधन करनेका तो दोष नाहीं । परन्तु पोसहका नाम करिए सो युक्त नाहीं । सम्पूर्ण पर्वविषै निरवद्य रहे ही पोसह होय । जो थोरा भी कालौँ पोसह नाम होय तो सामायिकको भी पोसह कहो, नाहीं शास्त्र विषै प्रमाण बतावो जघन्य पोसहका इतना काल है। सो बड़ा नाम धराय लोगनिको भ्रमावना, बहु प्रयोजन भासे है । बहुरि आखड़ी लेनेका पाठ तो और पढ़े, अंगीकार और करे। सो पाठविषै तो "मेरे त्याग है" ऐसा वचन है, ता जो त्याग करे सो ही पाठ पढै, यह चाहिए। जो पाट न आवे तो भाषा ही तैं कहें परन्तु पद्धतिके अर्थ यह रीति है।
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बहुरि प्रतिज्ञा ग्रहण करने करावने की तो मुख्यता अर यथाविधि पालने की शिथिलता वा भाव निर्मल होने का विवेक नाहीं । आर्त्तपरिणामनिकरि वा लोभादिककरि भी उपवासादि करै, तहाँ धर्म मानै । सो फल तो परिणामनित हो है । इत्यादि अनेक कल्पित बातें करे हैं, सो जैनधर्म्य विषे सम्भवै नाहीं । ऐसे यहु जैनविषे श्वेताम्बरमत है, सो भी देवादिकका वा तत्त्वनिका वा मोक्षमार्गादिकका अन्यथा निरूपण करें ता मिथ्यादर्शनादिकका पोषक है, सो त्याज्य है। सांचा जिनधर्म्य का स्वरूप आगे कहे हैं। ताकरि गोक्षमार्ग प्रवर्त्तना योग्य है। तहाँ प्रवर्त्ते तुम्हारा कल्याण होगा।
इति श्रीमोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्रविषे अन्यमत निरूपण पाँचवाँ अधिकार समाप्त भया ।।५ ।।
事事事
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छठा अधिकार कुदेव, कुगुरु और कुधर्म का प्रतिषय
* दोहा मिथ्या देवादिक भजे, हो हैं मिथ्याभाव ।
तर तिनगो सांते पन्नी, यह बिहे : अथ-अनादित जीवनिकै मिथ्यादर्शनादिक भाव पाईए है, तिनिकी पुष्टताको कारण कुदेव कुगुरु कुधर्म का सेवन है। ताका त्याग भए मोक्षमार्गविषै प्रवृत्ति होय । तातै इनका निरूपण कीजिए है।
___कुदेव का निरूपण और उसके श्रद्धानादिक का निषेध .
तहाँ जे हितका कर्ता नाहीं अर तिनको प्रमतें हितका कर्ता जानि सेइए सो कुदेव हैं। तिनका सेवन तीन प्रकार प्रयोजन लिए करिए है। कहीं लो मोक्षका प्रयोजन है। कहीं परलोक का प्रयोजन है। कहीं इस लोकका प्रयोजन है। सो ये प्रयोजन तो सिद्ध होय नाहीं। किछू विशेष हानि होय। तातै तिनका सेवन मिथ्याभाव है। सोई दिखाईए है
अन्यमतनिविषै जिनके सेवनः मुक्ति होनी कही है, तिनको केई जीव मोक्ष के अर्थ सेवन करे हैं। सो मोक्ष होय नाहीं। तिनका वर्णन पूर्व अन्यमत अधिकारविष का ही है, बहुरि अन्यमत विष कहे देव, तिनको केई परलोकविषै सुख होय, दुःख न होय ऐसे प्रयोजन लिए सेबै हैं। सो ऐसी सिद्धि तो पुण्य उपजाए अर पाप न उपजाए हो है। सो आप तो पाप उपजावै है अर कहै ईश्वर हमारा भला करेगा, तो तहाँ अन्याय ठहत्या। काहूको पापका फल दे, काहूको न दे, सो ऐसे तो है नाहीं। जैसा अपना परिणाम करेगा तैसा ही फल पावेगा। काहूका बुरा भला करने वाला ईश्वर है नाहीं। बहुरि तिन देयनिका सेवन करते तिन देवनिका तो नाम करै अर अन्य जीवनिकी हिंसा करै वा भोजन नृत्यादिकार अपनी इन्द्रियनिका विषय पोषै, सो पाप परिणामनिका फल तो लागे बिना रहने का नाहीं। हिंसा, विषय-कषायनिको सर्व पाप कहै है। अर पाप का फल भी खोटा ही सर्व मान है। बहुरि कुदेवनिका सेवन विषे हिंसा विषयादिकही का अधिकार है। तातै कुदेवनिका सेवनः परलोक विष भला न हो है।
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भोक्षमार्ग प्रकाशक - १३८
बहुरि घने व इस पर्याय सम्बन्धी शत्रुनाशादिक या रोगादिक भिटवाना वा धनादिककी प्राप्ति वा पुत्रादिककी प्राप्ति इत्यादि दुःख मेटने का वा सुख पावनेका अनेक प्रयोजन लिए कुदेवनिका सेवन करे हैं। बहुरि हनुमानादिको पूजे हैं। बहुरि देवीनिको पूजै हैं । बहुरि गणगौर सांझी आदि बनाय पूजे हैं। चौथि शीतला दिहाड़ी आदिको पूजे हैं। बहुरि अऊत पितर व्यंतरादिकको पूजे हैं। बहुरि सूर्य चन्द्रमा शनिश्चरादि ज्योतिषीनिको पूजे हैं। बहुरि पीर पैगम्बरादिकनिको पूजे हैं। बहुरि गऊ घोटकादि तिर्यंचनिको पूजे हैं। अग्नि जलादिकको पूजै हैं। शस्त्रादिक को पूजे हैं। बहुत कहा कहिए, रोड़ी इत्यादिकको भी पूजें हैं । सो ऐसे कुदेवनिका सेवन मिथ्यादृष्टि ते हो है। काहेतें, प्रथम तो जिनका सेवन करै सो केई तो कल्पना मात्र ही देव हैं। सो तिनका सेवन कार्यकारी कैसे होय । बहुरि केई व्यंतरादिक हैं, सो ए काहूका भला बुरा करने को समर्थ नाहीं । जो वे ही समर्थ होय, तो वे ही कर्त्ता ठहरे। सो तो उनका किया किछू होता दीसता नाहीं । प्रसन्न होय धनादिक देय सकै नाहीं । द्वेषी होय बुरा कर सकते नाहीं ।
इहाँ कोऊ कहे- दुःख तो देते देखिए है, मानेतैं दुःख देते रहि जाय हैं।
ताका उत्तर- याकै पापका उदय होय, तब ऐसी ही उनके कुतूहल बुद्धि होय, ताकरि वे चेष्टा करें। चेष्टा करते यहु दुःखी होय । बहुरि वे कुतूहलतें किछू कहें, यहु कथा करे तब वे चेष्टा करनेते रहि जाँय । बहुरियाको शिथिल जानि कुतूहल किया करें। बहुरि जो याकै पुण्यका उदय होय तो किछू कर सकते नाहीं । सो भी देखिए हैं
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कोऊ जीव उनको पूजै नाहीं वा उनकी निन्दा करै वा वे भी उस द्वेष करे परन्तु ताको दुःख देई सकै नाहीं । वा ऐसे भी कहते देखिए हैं, जो फलाना हमको माने नाहीं परन्तु उस किछू हमारा वश नाहीं । तातैं व्यन्तराविक किछू करनेको समर्थ नाहीं । याका पुण्य पापहीतें सुख-दुःख हो हैं । उनके माने पूजे उलटा रोग लागे हैं, किछू कार्यसिद्धि नाहीं । बहुरि ऐसा जानना जे कल्पित देव हैं, तिनका भी कहीं अतिशय चमत्कार होता देखिए है सो व्यंतरादिक करि किया हो है। कोई पूर्व पर्यायविषै उनका सेवक था, पीछे मरि व्यन्तरादि भया, तहाँ ही कोई निमित्ततें ऐसी बुद्धि भई, तब वह लोकविषै तिनिके सेवने की प्रवृत्ति करावने के अर्थि कोई चमत्कार दिखाये है। जगत् भोला किंचित् चमत्कार देखि तिस कार्य विषै लग जाय है। जैसे जिन प्रतिमादिकका भी अतिशय होता सुनिए वा देखिए है सो जिनकृत नाहीं, जैनी व्यंतरादिकृत हो है । तैसे ही कुदेवनिका कोई चमत्कार होय, सो उनके अनुचरी व्यंतरादिकनिकरि किया हो है, ऐसा जानना ।
बहुरि अन्यमतविषे भक्तनिकी सहाय परमेश्वर करी या प्रत्यक्ष दर्शन दिए इत्यादि कहे हैं। तहां केई तो कल्पित बातें कही हैं। केई उनके अनुचरी व्यन्तरादिककरि किए कार्यनिको परमेश्वरके किए कहे हैं। जो परमेश्वरके किए होय तो परमेश्वर तो त्रिकालज्ञ है। सर्व प्रकार समर्थ है। भक्तको दुःख काहेको होने दे। बहुरि अबहू देखिए है। म्लेच्छ आय भक्तनिको उपद्रव करें हैं, धर्म विध्वंस करे हैं, मूर्तिको विघ्न करे हैं, सो परमेश्वरको ऐसे कार्यका ज्ञान न होय तो सर्वज्ञपनो रहे नाहीं । जाने पीछे सहाय न करें तो भक्तवत्सलता गई वा सामर्थ्यहीन भया । बहुरि साक्षीभूत रहे है तो आगे भक्तनिकी सहाय करी कहिए है सो झूठ है। उनकी तो एकसी वृत्ति है। बहुरि जो कहोगे वैसी भक्ति नाहीं है। तो ग्लेच्छनितें तो भले हैं वा मूर्ति आदि तो नही
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छठा अधिकार-१३
की स्थापना थी, तिनिका तो विघ्न न होने देना था। बहुरि म्लेच्छ पापीनिका उदय हो है, सो परमेश्वर का किया है कि नाहीं। जो परमेश्वरका किया है, तो निंदकनिको सुखी करै, भक्तनिको दुखदायक करे, तहाँ भक्तवत्सलपना कैसे रह्या? अर परमेश्वरका किया न हो है, तो परमेश्वर सामर्थ्यहीन भया। तातै परमेश्वरकृत कार्य नाहीं। कोई अनुचरी व्यंतरादिक हो चमत्कार दिखावै है। ऐसा ही निश्चय करना।
बहुरि इहाँ कोऊ पूछे कि कोई व्यार अपना प्रभुत्व कह वा अप्रत्याको बता दे, कोऊ कुस्थानवासादिक बताय अपनी हीनता कहै, पूछिए सो न बतावै, 'प्रमरूप वचन कहै वा औरनिको अन्यथा परिणमावै, औरनिको दुःख दे, इत्यादि विचित्रता कैसे है?
ताका उत्तर-व्यंतरनिविषै प्रभुत्व की अधिक हीनता तो है परन्तु जो कुस्थान विषै वासादिक बताय हीनता दिखावै है सो तो कुतूहलते वचन कहै है। व्यंतर बालकवत् कुतूहल किया करै। सो जैसे बालक कुतूहलकरि आपको हीन दिखावै, चिडावै, गाली सुने, बार पाडै (ऊँचे स्वरसे रोवै) पीछे हँसने लगि जाय, तैसे ही व्यंतर चेष्टा करै हैं। जो कुस्थानही के वासी होय, तो उत्तम स्थानविषै आवै हैं तहाँ कौनकै ल्याए आवै हैं। आप ही तैं आवै हैं, तो अपनी शक्ति होते कुस्थानविष काहेको रहे? तातै इनिका टिकाना तो जहाँ उपजै हैं, तहाँ इस पृथ्वी के नीचे वा ऊपरि है सो मनोज्ञ है। कुतूहलके लिए चाहै सो कई हैं। बहुरि जो इनको पीड़ा होती होय तो रोवते-रोवते हँसने कैसे लगि जाय हैं। इतना है, मन्त्राविककी अधित्यशक्ति है सो कोई सांचा मन्त्रके निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध होय तो वाकै किंचित् गमनादि न होय सकै वा किंचित् दुःख उपजै वा कोई प्रबल वाको मन करे तब रहि जाय वा आप ही रहि जाय । इत्यादि मन्त्रकी शक्ति है परन्तु जलावना आदि न हो है। मन्त्र वाला जलाया कहै; बहुरि वह प्रगट होय जाय, जात वैक्रियिक शरीरका जलावना आदि सम्भवै नाहीं। बहुरि व्यंतरनिकै अयधिज्ञान काहूकै स्तोक क्षेत्र काल जाननेका है, काहूकै बहुत है। तहाँ वाकै इच्छा होय अर आपके बहुत ज्ञान होय तो अप्रत्यक्षको पूछ ताका उत्तर दें तथा आपकै स्तोक ज्ञान होय तो अन्य महत्ज्ञानीको पूछि आय करि जवाब दें। बहुरि आपकै स्तोक ज्ञान होय वा इच्छा न होय, तो पूछ ताका उत्तर न दे, ऐसा जानना । बहुरि स्तोकज्ञानवाला व्यंतरादिककै उपजता केतेक काल ही पूर्व जन्मका ज्ञान होय सकै, पीछे ताका स्मरण मात्र रहै है तात तहाँ कोई इच्छाकरि आप किछू चेष्टा करै तो करै। बहुरि पूर्व जन्मकी बातें कहै । कोऊ अन्य वार्ता पूछै तो अवधि तो थोरा, बिना जाने कैसे कहै। बहुरि जाका उत्तर आप न देय सकै वा इच्छा न होय, तहाँ मान कुतूहलादिकते उत्तर न दे वा झूठ बोले, ऐसा जानना। बहुरि देवनिमें ऐसी शक्ति है, जो अपने या अन्यके शरीरको वा पुद्गल स्कंधको जैसी इच्छा होय तैसे परिणमावै। तात नाना आकाराविरूप आप होय वा अन्य नाना चरित्र दिखावै । बहुरि अन्य जीवकै शरीर को रोगादियुक्त करें। यहाँ इतना है- अपने शरीरको वा अन्य पुद्गल स्कंधनिको तो जेती शक्ति होय तितने ही परिणमाय सके, तात सर्व कार्य करने की शक्ति नाहीं। बहुरि अन्य जीवके शरीरादिकको वाका पुण्य पापके अनुसारि परिणमाय सके। वाकै पुण्य उदय होय तो आप रोगादिरूप न परिणमाय सकै अर पाप उदय होय तो वाका इष्टकार्य न कर सके। ऐसे व्यंतरादिकनिकी शक्ति जाननी।
यहाँ कोऊ कई-इतनी जिनकी शक्ति पाईए, तिनके मानने-पूजने में दोष कहा?
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मोक्षमार्ग प्रकाशक- १५०
ताका उत्तर- आपकै पाप उदय होतें सुख न देव सकै, पुण्य उदय होतैं दुःख न देय सकै; बहुरि तिनके पूजनेतें कोई पुण्यबंध होय नाहीं, रागादिककी वृद्धि होतें पाप ही हो है । तातें तिनका मानना पूजना कार्यकारी नाहीं - बुरा करने वाला है। बहुरि व्यंतरादिक मनावै हैं, पुजावे हैं, सो कुतूहल करे हैं, किछु विशेष प्रयोजन नाहीं राखे हैं। जो उनको माने पूजे, तिस सेती कौतूहल किया करें। जो न मानै पूजे, तासो किछू न कहै। जो उनके प्रयोजन ही होय, तो न मानने पूजने वाले को घना दुःखी करै सो तो जिनके न मानने पूजने का अवगाढ़ है, तासो किछू भी कहते दीसते नाहीं । बहुरि प्रयोजन तो क्षुधादिककी पीड़ा होय तो होय, सो उनकै व्यक्त होय नाहीं। जो होय, तो उनके अर्थ नैवेद्यादिक दीजिए ताको भी ग्रहण क्यों न करै वा और निके जिमावने आदि करनेही को काहेको कहै । ताते उनके कुतूहल मात्र क्रिया है। सो आपको उनके कुतूहल का ठिकाना भए दुःख होय, हीनता होय तातैं उनको मानना पूजना योग्य नाहीं ।
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बहुरि कोऊ पूछे कि व्यंतर ऐसे कहै है गया आदि विषे पिंडप्रदान करो तो हमारी गति होय, ' हम बहुरि न आवै, सो कहा है।
सीका उत्तरपूर्व का सस्कार तो रही है। व्यंतरनिकै पूर्व-भव का स्मरणादिकर्ते विशेष संस्कार है । तातैं पूर्वभवके विषै ऐसी ही वासना थी, गयादिकविषै पिंडप्रदानादि किए गति हो हैं तातैं ऐसे कार्य करने को कहे हैं। जो मुसलमान आदि मरि व्यंतर हो है, ते तो ऐसे कहै नाहीं, वे तो अपने संस्कार रूप ही वचन कहे । तातें सर्व व्यंतरनिकी गति तैसे ही होती होइ तो सर्व ही समान प्रार्थना करे सो है नाहीं, ऐसे जानना । ऐसे व्यंतरादिकनिका स्वरूप जानना ।
सूर्य चन्द्रमादि ग्रह पूजा प्रतिषेध
बहुरि सूर्य चन्द्रमा ग्रहादिक ज्योतिषी हैं, तिनको पूजे हैं सो भी भ्रम है। सूर्यादिकको परमेश्वरका अंश मानि पूजे हैं। सो वाकै तो एक प्रकाशका ही आधिक्य भासे है। सो प्रकाशवान् अन्य रत्नादिकभी हो हैं । अन्य कोई ऐसा लक्षण नाहीं, जातै वाको परमेश्वरका अंश मानिए। बहुरि चन्द्रमादिकको धनादिककी प्राप्ति के अर्थ पूजे हैं। सो उसके पूजनेतें ही धन होता होय, तो सर्व दरिद्री इस कार्यको करें। तातें ए मिथ्याभाव है। बहुरि ज्योतिषके विचार खोटा ग्रहादिक आए तिनिका पूजनादिक करे हैं, वाके अर्थ दानादिक दे हैं। सो जैसे हिरणादिक स्वयमेव गमनादि करे है, पुरुषकै दाहिणै- बावै आए, सुख-दुःख होनेका आगामी ज्ञानको कारण हो हैं, किछू सुख-दुःख देनको समर्थ नाहीं । तैसे ग्रहादिक स्वयमेव गमनादि करे हैं। प्राणीकै यथासम्मय योगको प्राप्त होतें सुख-दुःख होने का आगामी ज्ञानको कारण हो हैं, किछू सुख-दुःख देनेको समर्थ नाहीं । कोई तो उनका पूजनादि करे, ताकै भी इष्ट न होय, कोई न करें ताकै भी इष्ट होय, तार्ते तिनिका पूजनादि करना मिथ्याभाव है !
यहाँ कोऊ कई देना तो पुण्य है, सो भला ही है ।
१. वायुपुराण अ. १०५ श्लोक १८ ।
३. वि. पु. अ. ८ श्लोक ५६ ।
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अ. पु. अ. ७३।
३. अग्निपुराण अ. १६४ पृ. २१६ ।
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छटा अधिकार-१४५
ताका उत्तर-यमके अर्थि देना पुण्य है। यह तो दुःखका भयकरि वा सुखका लोभकरि देहैं, तातै पाप ही है। इत्यादि अनेक प्रकार ज्योतिषी देवनिको पूजै है, सो मिथ्यात्व है।
__बहुरि देवी दिहाड़ी आदि हैं, ते केई तो व्यंतरी वा ज्योतिषणी हैं, तिनका अन्यथा स्वरूप मानि पूजनादि करे हैं। केई कल्पित हैं, सो तिनकी कल्पनाकार पूजनादि करै हैं। ऐसे व्यंतरादिकके पूजने का निषेध किया।
. यहाँ कोऊ है माल पहाड़ी पद्मावती आदि देवी, यक्ष-यक्षिणी आदि जे जिनमतको अनुसरे हैं, तिनके पूजनादि करने में तो दोष नाहीं।
ताका उत्तर-जिनमतविष संयम थारे पूज्यपनो हो है। सो देवनिकै संयम होता ही नाहीं। बहुरि इनको सम्यक्त्वी मानि पूजिए है, सो भवनविकमें सम्यक्त्वकी भी मुख्यता नाहीं। जो सम्यक्त्वकरिही पूजिए तो सर्वार्थसिद्धिके देव, लौकांतिकदेव तिनकोही क्यों न पूजिए। बहुरि कहोगे- इनकै जिनभक्ति विशेष है। सो भक्ति की विशेषता भी सौधर्म इन्द्रके है, वह सम्यग्दृष्टी भी है। वाको छोरि इनको काहेको पूजिए। बहुरि जो कहोगे, जैसे राजाकै प्रतीहारादिक हैं, तैसे, तीर्थंकरकै क्षेत्रपालादिक हैं। सो समवसरणादिविषै इनिका अधिकार नाहीं। यह झूठी मानि है। बहरि जैसे प्रतीहारादिकका मिलाया राजास्यों मिलिए, तैसे ये तीर्थकरको मिलावते नाहीं। वहाँ तो जाकै भक्ति होय सोई तीर्थंकरका दर्शनादिक करो, किछू किसीके आधीन नाहीं। बहुरि देखो अज्ञानता, आयुधादिक लिए रौद्रस्वरूप जिनका, तिनकी गाय-गाय भक्ति कर। सो जिनमतविर्षे भी रौद्ररूप पूज्य भया, तो यह भी अन्यमत ही के समान भया। तीव्र मिथ्यात्वभावकरि जिनमतविषै ऐसी ही विपरीत प्रवृत्तिका मानना हो है। ऐसे क्षेत्रपालादिकको भी पूजना योग्य नाहीं।
गौ सादिककी पूजा का निराकरण बहुरि गऊ सादि तिर्यच हैं, ते प्रत्यक्ष ही आपत हीन भारी हैं। इनिका तिरस्कारादिक करि सकिए है। इनकी निंद्यदशा प्रत्यक्ष देखिए है। बहुरि वृक्ष अग्नि जलादिक स्थावर हैं, ते तिर्यचनिहूर्त अत्यन्त हीन अवस्थाको प्राप्त देखिए हैं। बहुरि शस्त्र दवात आदि अचेतन है, सो सर्वशक्तिकरि हीन प्रत्यक्ष भासे हैं; पूज्यपनेका उपचार भी सम्भव नाहीं। तातें इनका पूजना महा मिथ्याभाव है। इनको पूजे प्रत्यक्ष या अनुमानकरि किछू भी फल-प्राप्ति नाही मासै है तातें इनको पूजना योग्य नाहीं। या प्रकार सर्व ही कुदेवनिका पूजना मानना निषेध है। देखो मिथ्यात्व की महिमा, लोकविषै तो आपत नीचेको नमते आपको निंद्य मानै अर मोहित होय रोड़ी पर्वतको पूजता भी निंद्यपनों न माने । बहुरि लोकविषै तो जातै प्रयोजन सिद्ध होता जानै, ताहीकी सेवा कर अर मोहित होय कुदेवनितें मेरा प्रयोजन कैसे सिद्ध होगा; ऐसा बिना विचारे ही कुदेवनिका सेवन करै। बहुरि कुदेवनिका सेवन करते हजारों विघ्न होय ताको तो गिने नाही अर कोई पुण्यके उदयते इष्ट कार्य होय जाय ताको कहैं, इसके सेवनतें यह कार्य भया। बहुरि कुदेवादिकका सेवन किए बिना जे इष्ट कार्य होय, तिनको तो गिनै नाहीं अर कोई अनिष्ट होय तो कहैं, याका सेवन न किया सातै अनिष्ट भया। इतना नाही विचार है, जो इनिही के आधीन इष्ट - अनिष्ट करना होय, तो जे पूजे तिनके इष्ट होइ, न पूजे तिनके अनिष्ट होय। सो तो दीसता नाहीं। जैसे काहूकै शीतलाको बहुत मान भी
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१४२
पुत्रादि मरते देखिए है। काहूकै बिना माने भी जीवते देखिए है। तातै शीतला का मानना किछू कार्यकारी नाहीं। ऐसे ही सर्व कुदेवनिका मानना किछू कार्यकारी नाहीं।
इहाँ कोऊ कहै- कार्यकारी नाही तो मति हो, किछू तिनके माननेते दिगार भी तो होता नाहीं।
ताका उत्तर- जो बिगार न होय, तो हम काहेको निषेध करें। परन्तु एक तो मिथ्यात्वादि दृढ़ होने ते मोक्षमार्ग दुर्लभ होय जाय है, सो यह बड़ा बिगार है। एक पापबंध होनेते आगामी दुःख पाईए है, यहु बिगार है।
यहाँ पूछ कि मिथ्यात्वादिमाव तो अतत्त्व श्रद्धानादि भए होय है अर पापबंध खोटे कार्य किए होय हैं, सो तिनके मानने तँ मिथ्यात्वादिक वा पापबंध कैसे होय?
ताका- उत्तर- प्रथम तो परद्रव्यनिको इष्ट-अनिष्ट मानना ही मिथ्या है, जा” कोऊ द्रव्य काहूका मित्र शत्रु है नाहीं । बहुरि जो इष्ट अनिष्ट बुद्धि पाइए है, तो ताका कारण पुण्य-पाप है। तातै जैसे पुण्यबंध होय, पापबंध न होय सो करै। बहुरि जो कर्मउदय का भी निश्चय न होय, इष्ट-अनिष्ट के बाह्य कारण तिनके संयोग यियोग का उपाय करै, सो सुदेव के मानने से इष्ट अनिष्ट बुद्धि दूरि होती नाहीं, केवल वृद्धि को प्राप्त हो है। बहुरेि पुण्यबंध भी होता नाही, पापबंध हो है। बहुरि कुदेव काहूको धनादिक देते खोसते देखे नाहीं । तातें ए बाह्य कारण भी नाहीं। इनका मानना किसै अर्थि कीजिए हैं ! जब अत्यन्त भ्रमबुद्धि होय, जीवादि तत्त्वनिका श्रद्धान ज्ञान का अंश भी न होय अर रागद्वेष की अति तीव्रता होय तब जे कारण नाहीं तिनको भी इष्ट अनिष्ट का कारण मानै । तब कुदेवनिका मानना हो है। ऐसा तीव्र मिध्यात्यादि भाव भए मोक्षमार्ग अति दुर्लभ हो है।
कुगुरु का निरूपण और उसके श्रद्धानादिक का निषेध आगे कुगुरु के श्रद्धानादिक को निषेधिए है..
जे जीय विषयकषायादि अधर्मरूप तो परिणमै अर मानादिकतें आपको धर्मात्मा मनावै, धर्मात्मा योग्य नमस्कारादि क्रिया करावै अथवा किंचित् धर्मका कोई अंग धारि बड़े धर्मात्मा कहावै, बड़े धर्मात्मा योग्य क्रिया करायै; ऐसे धर्म का आश्रयकरि आपको बड़ा मनावे, ते सर्व कुगुरु जानने । जाते धर्मपद्धतिविषै तो विषयकषायादि छूटे जैसा धर्मको धारै तैसा ही अपना पद मानना योग्य है।
कुल अपेक्षा गुरुपनेका निषेध तहाँ केई तो कुलकरि आपको गुरु माने हैं। तिनविषै कई ब्राह्मणादिक तो कहै हैं, हमारा कुल ही ऊँचा है तातें हम सर्वके गुरु हैं। सो उस कुलकी उच्चता तो धर्म साधनतें है। जो उच्च कुलविषै उपजि हीन आचरन करे, तो वाको उच्च कैसे मानिए। जो कुलविष उपजनेहीतै उच्चपना रहै, तो मांसभक्षणादि किए भी वाको उच्च ही मानो सो बनै नाहीं। 'भारत' विषै भी अनेक प्रकार ब्राह्मण कहै हैं। तहाँ “जो
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छठा अधिकार-१४३
ब्राह्मण होय चांडाल कार्य करे, ताको चांडाल ब्राह्मण कहिए" ' ऐसा कया है। सो कुलहीत उच्चपना होय तो ऐसी हीनसंज्ञा काहेको दई है।
बहुरि वैष्णवशास्त्रनियिषै ऐसा भी कहै- वेदव्यासादिक मछली आदितै उपजे । तहाँ कुलका अनुक्रम कैसे रह्या? बहुरि मूलउत्पत्ति सो सजाय कह हैं : सातै सर्दया एका मुल , लिल कुल कैसे रह्या? बहुरि उच्चकुल की स्त्रीकै नीचकुल के पुरुषते वा नौचकुलकी स्त्रीकै उच्चकुलके पुरुषः संगम होते संतति होती देखिए है। तहाँ कुलका प्रमाण कैसे रह्या? जो कदाचित् कहोगे, ऐसे है, तो उच्च नीच कुलका विभाग काहेको मानो हो। सो लौकिक कार्यनिविषे असत्य भी प्रवृत्तिसंभदै, धर्मकार्याविषै तो असत्यता संभव नाहीं। ताते धर्मपद्धतिविष कुलअपेक्षा महंतपना नाहीं संभव है। धर्मसाधनहींत महंतपना होय। ब्राह्मणादि कुलनिविषै महंतता है, सो धर्मप्रवृत्तिते है। सो धर्मकी प्रवृत्ति को छोड़ि हिंसादिक पापविष प्रवते महतपना कैसे रहै।
बहुरि केई कहै - जो हमारे बड़े, भक्त भए हैं, सिद्ध भए हैं, धर्मात्मा भए हैं। हम उनकी संततिविष हैं, तातै हम गुरु हैं। सो उन बड़ेनिके बड़े तो ऐसे उत्तम थे नाहीं। तिनकी संततिविष उत्तमकार्य किये उत्तम मानो हो तो उत्तमपुरुषकी संततिविषै जो उत्तम कार्य न करे, ताको उत्तम काहेको मानो हो। बहुरि शास्त्रनिविषै या लोकविषै यहु प्रसिद्ध है कि पिता शुभ कार्यकरि उच्चपदको पावै, पुत्र अशुभकार्यकरि नीच पदको पावै वा पिता अशुभ कार्यकरि नीच पदको पावै, पुत्र शुभकार्यकरि उच्चपदको पावै। तात बड़ेनिकी अपेक्षा महंत मानना योग्य नाहीं। ऐसे कुलकरि गुरुपना मानना मिथ्याभाव जानना! बहुरि केई पट्टकरि गुरुपनो माने हैं। कोई पूर्व महंत पुरुष भया होय, ताके पाटि जे शिष्य प्रतिशिष्य होते आए, तहाँ तिन विष तिस महंत पुरुष कैसे गुण न होते भी गुरुपनो मानिए, सो जो ऐसे ही होय तो उस पाटविष कोई • परस्त्रीगमनादि महापापकार्य करेगा, सो भी धर्मात्मा होगा, सुगति को प्राप्त होगा, सो संभव नाहीं । अर वह पापी है, तो पाटका अधिकार कहाँ रमा? जो गुरुपद योग्य कार्य करे सो ही गुरु है।
बहुरि केई पहले तो स्त्री आदि के त्यागी थे, पीछे भ्रष्ट होय विवाहादिक कार्यकरि गृहस्थ भए, तिनकी संतति आपको गुरु मान है। सो भ्रष्ट भए पीछे गुरुएना कैसे रहा? और गृहस्थवत् ए भी भए। इतना विशेष भया, जो ए अष्ट होय गृहस्थ भए। इनको मूल गृहस्थधर्मी गुरु कैसे मान? बहुरि केई अन्य तो सर्व पाप कार्य करै, एक स्त्री परणे नाही, इसही अंगकार गुरुपनो माने है। सो एक अब्रह्म ही तो पाप नाहीं, हिंसा परिग्रहादिक भी पाप हैं, तिनिको करते थर्मात्मा गुरु कैसे मानिए। बहुरि वह धर्मबुद्धित विवाहादिका त्यागी नाहीं भया है। कोई आजीविका वा लज्जा आदि प्रयोजन को लिए विवाह न करे है। जो धर्मबुद्धि होती, तो हिंसादिक को काहे को बधावता। बहुरि जाकै धर्मबुद्धि नाही, ताकै शीलकी भी दृढ़ता रहे नाहीं । अर विवाह कर नाहीं, तब परस्त्रीगमनादि महापापको उपजावे। ऐसी क्रिया होते गुरुपना मानना महा प्रष्टबुद्धि है।
१. षडंग वेद, शास्त्र, पुराण और कुल में जन्म - ये सब बातें आचारहीन दिन के व्यर्थ है। म.मा. २२/१२। २. महाभारत आदि. प.अ. ६३।
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मोक्षमार्ग प्रवाशक--१४४
बहार केई काहूप्रकार का भेषधारने तैं गुरुपनो मान है। सो भेष धारै कौन धर्म भया, जात धर्मात्मा गुरू मानें। तहाँ केई टोपी दे हैं, केई गूदरी राखै हैं, केई चोला पहरे हैं, केई चादर ओढ़े हैं, केई लाल वस्त्र गाये हैं, केई श्वेतवस्व राखे हैं, केई भायां गखै हैं, केई टाट पहरे हैं, केई मृगछाला राखे हैं, केई राख लगावै हैं, इत्यादि अनेक स्वाँग बनाये हैं। सो जो शीत उष्णादिक सहे न जाते थे, लज्जा न छूट थी, तो पागजामा इत्यादि प्रवृत्तिरूप वस्त्रादिक-त्याग काहेको किया? उनको छोरि ऐसे स्वाँग बनावने में कौन धर्म का अंग भया। गृहस्थनिको ठिगने के अर्थि ऐसे भेष जानने । जो गृहस्थ सारिखा अपना स्वांग राखै, तो गृहस्थ कैसे ठिगावै । अर याको उनकरि आजीविका वा धनादिक वा मानादिकका प्रयोजन साधना, तातें ऐसे स्वांग बनाई है। जगत् भोला, तिस स्वांगको देखि ठिगाबै अर धर्म भया माने, सो यह भ्रम है। सोई कह्या
जह कुवि येस्सारत्तो मुसिज्जमाणो विमण्णए हरिस। सह मिच्छवेसमुसिया मयं पि ण मुणंति धम्म-णिहिं ।।१।।
(उपदेश सि. र. ५) याका. अर्थ - जैमे कोई देश्यारपत पुरुष भाटिक को मुसावता हुआ भी हर्ष माने है, तैसे मिथ्याभेषकरि ठिगे गए जीव ते नष्ट होता धर्म धन को नाहीं जाने है। भावार्थ-यहु मिथ्या भेष वाले जीवनिकी शुश्रूषा आदितै अपना धर्म धन नष्ट हो ताका विषाद नाही, मिथ्याधुद्धि से हर्ष करै हैं। तहाँ केई तो मिथ्याशास्त्रनिविर्ष भेष निरूपण किये है तिनको धारै है। सो उन शास्त्रनिका करणहारा पापी सुगम क्रिया कियेते उच्चपद प्ररूपण तें मेरी मानि होइ वा अन्य जीव इस मार्ग विषै बहुत लागै, इस अभिप्रायतें मिथ्या उपदेश दिया। ताकी परम्पराकरि विचार रहित जीव इतना तो विचार नाही, जो सुगम क्रियातें उच्चपद होना बतावै हैं, सो इहाँ किछू दगा है, भ्रमकरि तिनिका कह्या मार्गविषै प्रवते हैं। बहुरि केई शास्त्रनिविषै तो मार्ग कठिन निरूपण किया सो तो सधै नाहीं अर अपना ऊँच नाम धराए बिना लोक माने नाहीं, इस अभिप्राय ते यति मुनि आचार्य उपाध्याय साधु भट्टारक संन्यासी योगी तपस्वी नग्न इत्यादि नाम तो ऊँचा धरादै हैं अर इनिका आचारनिको नाहीं साधि सके हैं तातें इच्छानुसारि नाना भेष बनावै हैं। बहुरि कैई अपनी इच्छा अनुसार ही तो नवीन नाम धरावै हैं। अर इच्छानुसारि ही भेष बनावै हैं। ऐसे अनेक भेष धारने तैं गुरुपनो मानै हैं, सो यहु मिथ्या है। - इहाँ कोऊ पूछे कि भेष तो बहुत प्रकार के दीसे, तिन विष साँचे झूठे की पहचानि कैसे होय ?
ताका समाधान- जिन भेषनिविषे विषयकषायका किछू लगाव नाही, ते भेष सांचे हैं। सो सांचे भेष तीन प्रकार हैं, अन्य सर्व भेष मिथ्या हैं। सो ही षट्पाहुविष कुन्दकुन्दाचार्य करि कह्या है
एगं जिणस्स एवं विदियं उक्किट्ठ साययाणं सु। अवरद्वियाण तइयं चउत्थं पुण लिंगदसणं णत्थि।।
(द.पा. १८) याका अर्थ- एक तो जिनका स्वरूप निग्रंथ दिगम्बर मुनिलिंग अर दूसरा उत्कृष्ट श्रावकनिका रूप
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छठा अधिकार-१४५
दसईं ग्यारही प्रतिमा का धारक श्रावकका लिंग अर तीसरा आर्यकानिका रूप यहु स्त्रीनिका लिंग, ऐसे ए तीन लिंग तो श्रद्धानपूर्वक हैं। बहुरि चौथा लिंग सम्यग्दर्शन स्वरूप नाहीं है। भावार्थ-यहु इन तीनलिंग बिना अन्यलिंग को मानै सो श्रद्धानी नाही, मिथ्यादृष्टी है। बहुरि इन भेषीनिविषै केई भेषी अपने भेष की प्रतीति करावने के अर्थि किंचित् धर्म का अंग को भी पाले हैं। जैसे खोटा रुपया चलावने वाला तिस विषै किछू रूपा का भी अंश राखें है, तैसे धर्म का कोऊ अंग दिखाय अपना उच्चपद मनावै हैं।
इहाँ को कहै कि जो धर्म साधन किया, ताका तो फल होगा।
ताका उत्तर- जैसे उपवास का नाम धराय कणमात्र भी भक्षण करे तो पापी है अर एकंत का (एकासनका) नाम धराय किंचित् ऊन भोजन करै तो भी थर्मात्मा है। तैसे उच्चपदवी का नाम धराय तामें किंचित भी अन्यथा प्रवर्ते, तो महापापी है। अर नीचीपदवी का नाम थराय किछू भी धर्म साधन करे, तो धर्मात्मा है। तातें धर्मसाधन तो जेता बने तेता ही कीजिए, किछू दोष नाहीं। परन्तु ऊँधा यात्मा नाम धराय नीची क्रिया किये महापाप ही हो है। सोई षट्पाहुडविष कुन्दकुन्दाचार्यकरि कह्या है
जहजायसवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गहदि अत्येसु। जइ लेइ अप्प - बहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोयं ।।१।।
(मूत्र प...) याका अर्थ- मुनि पद है, सो यथाजातरूप सदृश है। जैसा जन्म होते था, तैसा नग्न है। सो वह मुनि अर्थ जे धन वस्त्रादिक वस्तु तिनविष तिलका तुषमात्र भी ग्रहण न करै। बहुरि जो कदाचित् अल्प वा बहुत वस्तु ग्रहै, तो तिसते निगोद जाय । सो इहाँ देखो, गृहस्थपने में बहुत परिग्रह राखि किछू प्रमाण करै तो भी स्वर्गमोक्ष का अधिकारी हो है। अर मुनिपने में किंचित् परिग्रह अंगीकार किये भी निगोद जाने वाला हो है। तातै ऊँया नाम धराय नीची प्रवृत्ति युक्त नाहीं।
देखो, हुंडावसर्पिणी कालविप यह कलिकाल प्रवत है। ताका दोषकरि जिनमतविष मुनि का स्वरूप तो ऐसा जहाँ बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह का लगाव नाही, केवल अपने आत्मा को आपो अनुभवते शुभाशुभभावनित उदासीन रहे है अर अब विषय-कषायासक्त जीव मुनिपद धारै, तहाँ सर्वसावन का त्यागी होय पंचमहाव्रतादि अंगीकार करै। बहुरि श्वेत रक्तादि वस्त्रनिको ग्रह वा भोजनादिविषे लोलुपी होय वा अपनी पद्धति बधावने के उद्यमी होय वा केई धनादिक भी राखै वा हिंसादिक करै वा नाना आरम्भ करै। सो स्तोक परिग्रह ग्रहणे का फल निगोद कया है, तो ऐसे पापनिका फल तो अनंत संसार होय ही होय। बहुरि लोकनिकी अज्ञानता देखो, कोई एक छोटी भी प्रतिज्ञा भंग करै, ताको तो पापी कहै अर ऐसी बड़ी प्रतिज्ञाभंग करते देखे बहुरि तिनको गुरु माने, मुनिवत् तिनका सन्मानादि करे। सो शास्त्रविष कृतकारित अनुमोदना का फल कह्या है ताते इनको भी वैसा ही फल लाग है। मुनिपद लेने का तो क्रम यह है- पहलै तत्त्वज्ञान होय, पीछै उदासीन परिणाम होय, परिषहादि सहने की शक्ति होय, तब वह स्वयमेव मुनि भया चाहै। तब श्रीगुरु मुनिधर्म अंगीकार करावै। यह कौन विपरीत जे तत्त्वज्ञानरहित विषयकषायासक्त जीव
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१४६
तिनको मायाकरि वा लोभ दिखाय मुनिपद देना, पीछे अन्यथा प्रवृत्ति करावी, सो यह बड़ा अन्याय है। ऐसे कुगुरु का वा तिनके सेवन का निषेध किया। अब इस कथन के दृढ़ करने को शास्त्रनिकी साखि दीजिए है। तहाँ उपदेशसिद्धान्त रत्नमाला विषै ऐसा कह्या है
गुरुणो भट्टा जाया सबै थुणिऊण लिति दाणाई।
दोषणवि अमुणियसारा दूसमिसमयम्मि बुड्ढति।।३१।। कालदोषत गुरु जे हैं, ते भाट भए । भाटवत शब्दकर दातार की स्तुति करिकै दानादि ग्रहै हैं। सो इस दुखमा कालविषै दोऊ ही दातार वा पान संसारविष डूबै हैं। बहुरि तहाँ कह्या है
सप्पे दिढे णासइ लोओ णहि कोवि किंपि अक्खेइ।
जो चयइ कुगुरु सप्प हा मूढा भणइ तं दुटुं ।।३६ ।। याका अर्थ- सर्पको देखि कोऊ भाग, ताको तो लोक किछू भी कहै नाहीं। हाय हाय देखो, जो कुगुरु सर्पको छोर है, ताहि मूढ़ दुष्ट कहै, बुरा बोले।
सप्पो इक्कं मरणं कुगुरु अर्णसाइ देइ मरणाई।
तो वर सप्पं गहियं मा कुगुरुसेवणं भई ।।३७।। अहो, सर्पकरि तो एक ही बार मरण होय अर कुगुरु अनंतमरण दे है-अनन्तबार जन्ममरण करावै है। ताते हे भद्र, साँप का ग्रहण तो भला अर कुगुरु का सेवन भला नाहीं । और भी गाथा तहाँ इस श्रद्धान दृढ़ करने को कारण बहुत कही हैं सो तिस ग्रन्थः जानि लेनी । बहुरि संघपवित्र ऐसा कह्या है
क्षुत्मामः किल कोपि रेकशिशुकः प्रवृज्य चैत्ये क्यथित, कृत्वा किंधन पक्षममतकलिः प्राप्तस्तवाचार्यकम् । चित्रं चैत्यगृहे गृहीयति निजे गच्छे कुटुम्बीयति,
स्वं शक्रीयति बालिशीयति बुधान् विश्व वराकीयति।। याका अर्थ- देखो, क्षुथाकार कृश कोई रंकका बालक सो कहीं चैत्यालयादिविषै दीक्षा धारि कोई पक्षकार पापरहित न होता संता आचार्यपदको प्राप्त भया। बहुरि वह चैत्यालयविषै अपने गृहवत् प्रवत है, निजगविष कुटुम्बवत् प्रवत है, आपको इन्द्रवत् महान् मान है, ज्ञानीनिको बालकवत् अज्ञानी मान है, सर्वगृहस्थनिको रंकवत् मान है सो यह बड़ा आश्चर्य भया है। बहुरि 'यैर्जातो न च पर्खितो न च न व कीतो' इत्यादि काव्य है। ताका अर्थ ऐसा है- जिनकरि जन्म न भया, बल्या नाही, मौल लिया नाहीं, देणदार भया नाही, इत्यादि कोई प्रकार सम्बन्ध नाहीं अर गृहस्थनिको वृषभवत् बहावे, जोरावरी दानादिक ले; सो हाय-हाय यहु जगत् राजाकरि रहित है, कोई न्याय पूछनेवाला नाहीं। ऐसे ही इस श्रद्धान के पोषक तहाँ काव्य हैं सो तिस ग्रन्थ तें जानना ।
यहाँ कोऊ कई- ए तो श्वेतांबरविरचित उपदेश है तिनकी साक्षी काहेको दई?
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छटा अधिकार-१४७
ताका उत्तर- जैसे नीचा पुरुष जाका निषेध करै, ताका उत्तमपुरुषकै तो सहज ही निषेध भया। तैसे जिनके वस्त्रादि उपकरण कहै, वे हू जाका निषेध करै, तो दिगम्बरथर्म विषै तो ऐसी विपरीतिका सहज ही निषेध भया। बहुरि दिगम्बर ग्रन्थनिविषै भी इस श्रद्धान के पोषक वचन है। तहाँ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकृत षट्पाहुविषै (दर्शनपाहुड में) ऐसा कह्या है
दसणमूलो धम्मो उदइटो जिणवरेहि सिस्साणं ।
तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण यदिव्यो।।२।। याका अर्थ-जिनवरकरि सम्यग्दर्शन है मूल जाका ऐसा धर्म उपदेश्या है। ताको सुनकरि हे कर्णसहित हो, यहु मानो-सम्यक्त्वरहित जीव वंदनेयोग्य नाहीं। जे आप कुगुरु ते कुगुरुका श्रद्धानसहित सम्यक्ती कैसे होय? बिना सम्यक्त अन्य धर्म भी न होय। धर्म बिना वंदने योग्य कैसे होय । बहुरि कहै हैं
जे दंसणेसु भट्टा णाणे भष्टा चरित्तमट्टा य।
एदे भट्टविभट्टा सेसपि जणं विणासंति।।।। (द. पा.) जे दर्शनविष भ्रष्ट हैं, ज्ञानविषै प्रष्ट हैं, चारित्रभ्रष्ट हैं, ते जीव भ्रष्टतै भ्रष्ट हैं; और भी जीव जो उनका उपदेश माने हैं, तिस जीव का नाश करे हैं, बुरा करै हैं। बहुरि कहै हैं
जे सणेसु भट्टा पाए पाडति दसणधराण।
ते इंति लुल्लमूया बोही पुण दुल्लहा तेसिं ।।१२।। (द.पा.) जे आप तो सम्यक्तः प्रष्ट हैं, अर सम्यक्त्वधारकनिको अपने पगो पड़ाया चाहै हैं, ते लूले गूंगे हो हैं; भाव यहु-स्थावर हो हैं। बहुरि तिनकै बोधि की प्राप्ति महादुर्लभ हो है।
जे वि पहति च तेसिं जाणता लज्जागारवभएण।
सेसि पि पत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं ।।१३।। (द.पा.) .. जो जानता हुवा भी लज्जागारवमयकरि तिनके पगां पड़े हैं, तिनकै भी बोधि जो सम्यक्त सो नाही है। कैसे हैं ए जीव, पापकी अनुमोदना करते हैं। पापीनिका सम्मानादि किए तिस पापकी अनुमोदना का फल लागे है। बहुरि (सूत्र पाहुड़ में) कहे हैं -
जस्स परिग्गहगहण अप्पं बहुमं च हवइ लिंगस्स।
सो गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिओ णिरायारो।।१६।। (सूत्र पा.) जिस लिंग कै थोरा वा बहुत परिग्रह का अंगीकार होय सो जिनवचनविषै निंदा योग्य है। परिग्रहरहित ही अनगार हो है। बहुरि (भावपाहुड़ में) कहै हैं
धम्मम्मि णिप्पवासो दोसावासो य उच्छुफुल्लसमो। णिफलणिग्गुणयारो णडसवणो जग्गसवेण । ७१॥ (माव पा.)
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१४८
या अर्थ- जो यमधर्ष नन्दनी है, दोपनि, घर है, इक्षुफूल समान निष्फल है, गुण का आचरणकरि रहित है, सो नग्नरूपकरि नट श्रमण है, भांडवत् भेषधारी है। सो नग्न भए भांड का दृष्टांत सम्भव है। परिग्रह राखै तो यह भी दृष्टांत बनै नाहीं।
जे पायमोहियमई लिंग घेत्तूण जिणवरिंदाणं ।
पावं कुर्णति पावा ते चत्ता मोक्खमम्गम्मि।।७८। (मो.पा.) याका अर्थ- पापकरि मोहित भई है बुद्धि जिनकी ऐसे जे जीव जिनवरनिका लिंग धारि पाप करै है, ते पापमूर्ति मोक्षमार्गविषै भ्रष्ट जानने। बहुरि ऐसा कह्या है।
जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाही य जायणासीला।
आयाकम्मम्मिरया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।।७६ ।। (मो.पा.) याका अर्थ- जे पंचप्रकार वस्त्रविर्ष आसक्त हैं, परिग्रह के ग्रहणहारे हैं, याचनासहित हैं, अधःकर्म दोषनिविष रत हैं, ते मोक्षमार्गविषै प्रष्ट जानने। और भी गाथासूत्र तहाँ तिस श्रद्धानके दृढ़ करने को कारण कहे हैं ते तहांतें जानने । बहुरि कुन्दकुन्दाचार्यकृत लिंगपाहुइ है, तिसविर्ष मुनिलिंगधारि जो-हिंसा, आरम्भ यंत्रमंत्रादि करै हैं, ताका निषेध बहुत किया है। बहुरि गुणभद्राचार्यकृत आत्मानुशासन विषै ऐसा कह्या है
इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विमाव- यथा मृगाः।
वनायसन्त्युग्राम कली कष्टं तपस्विनः ।।१६७।। याका अर्थ- कलिकालविषै तपस्वी मृगवत् इधर-उधरतै भयवान होय बनते नगर के समीप बसै हैं, यहु महाखेदकारी कार्य भया है। यहाँ नगर-समीप ही रहना निषेध्या, तो नगरविषै रहना तो निषिद्ध भया ही। .
विशेष- चतुर्यकाल में भी मुनिराज नगरों के समीप चातुर्मास स्थापित करते थे। सप्तर्षि चारण ऋद्धिधारी ने मथुरा नगरी के समीप वटवृक्ष के नीचे चातुर्मास स्थापित किया था। (पद्म पुराण ६२/८)। उस विशाल वटवृक्ष के नीचे उनका आश्रम था (वही, ६२/२६)। उस आश्रम में श्रावकों की दृष्टि से निर्मापित प्याऊ, धार्मिक नाटकगृह, धर्मसंगीतशाला भी थी। (वही ६२/४३)। इस प्रकार चतुर्थकाल में भी मथुरापुरी में सप्तर्षियों ने निवास किया था। (६२/६१) चतुर्थकाल में भी मुनिराज खाली घरों तथा मन्दिरों में अवश्य चातुर्मास करते थे। (पद्मपुराण पर्व ६२ श्लोक ११६ तथा २२)
मूलाधार ७८५ में कहा है कि "गामेयरादि णयरे पंचाहवासिणो धीरा। फासुविहारी विवित्तएगंत वासी या अर्थ- जो ग्राम में एक रात और नगर में पाँच दिन तक रहते हैं वे साधु धैर्यवान् प्रासुकविहारी हैं, स्त्री आदि से रहित एकान्त जगह में रहते हैं। बोधपाहूड टीका ४२ में
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छठा अधिकार-१४६
लिखा है कि "वसिते वा ग्रामनगरादी वा स्थातव्यम् ग्रामे विशेषेण न स्थातव्यम्" अर्थ- अथवा वसतिका या ग्राम-नगरादि में ठहरना चाहिए । नगर में पाँच रात ठहरना चाहिए, ग्राम में विशेष नहीं टहरना चाहिए। भगवती आराधना (गाथा ४२३ आचेलक्कु...) की विजयोदया टीका में कहा है कि छहों ऋतुओं में एक-एक मास तक ही एक स्थान पर रहना और अन्य समय में विहार करना नवम स्थितिकल्प है । पृष्ठ ३३३ जीवराज ग्रंथमाला । पद्मपुराण १०६/३० में लिखा है कि "थनदत्तो.....अस्तंगते भानौ श्रमणाश्रममागमत्" अर्थात् धनदत्त सूर्यास्त होने पर मुनियों के आश्रम में पहुँचा । (पृ. ३०१ भाग ३ ज्ञानपीठ प्रकाशन)
थिरकय जोगाणं पुण मुणीणझाणेसु णिच्चल मणाणं ।।
गामम्मि जणाइण्णे सुण्णे रणे य ण विसेसो ॥ धवला पुस्तक १३/१८ अर्थ- जिन्होंने अपने योगों को स्थिर कर लिया है तथा जिनका मन निश्चल है, ऐसे मुनिराजों के लिए मनुष्यों से व्याप्त जनपद, ग्राम और शून्य जंगल में कोई अन्तर नहीं है ।
उक्त आगमों में स्पष्टतः नगर, ग्राम, आश्रम में मुनियों का रहना मूल में ही लिखा है । सारतः वनवासित्व तो साधु के लिए श्रेष्ठ ही है पर नगर, ग्राम अथवा आश्रम में वास करने से मुनिपना नष्ट हो जावे ऐसा नियम नहीं है । हीन संहनन वाले साधु भले ही नगरादि में रहें, इसके लिए ऊपर लिखा आंगम प्रमाण है।
वरं गार्हस्थ्यमेवाघ तपसो भाविजन्मनः ।
सुस्त्रीकटाक्षलुण्टाकलुप्तवैराग्यसम्पदः ।।२००॥ याका अर्थ- अबार होनहार है अनंतसंसार जाते ऐसे तपते गृहस्थपना ही मला है । कैसा है वह तप, प्रभात ही स्त्रीनिके कटाक्षरूपी लुटेरेनिकरि लूटी है वैराग्य संपदा जाकी, ऐसा है । बहुरि योगीन्दुदेवकृत परमात्मप्रकाशविषै ऐसा कह्या है
चिल्लाचिल्लीपुत्थयहि, तूसइ मूढ णिभंतु ।
एयहि लज्जड़ पाणियउ, बंधहहेउ मुणंतु ॥२१४॥ चेला-चेली पुस्तकनिकरि मूढ़ संतुष्ट हो है । प्रान्ति रहित ऐसा ज्ञानी उसे बंध का कारण जानता संता इनिकार लज्जायमान हो है।।
केणवि अप्पट वंचियउ, सिरु लुचि वि छारेण ।
सयलु वि संग ण परिहरिय, जिणवरलिंगधरेण ॥२१६।। किसी जीवकरि अपना आत्मा ठिग्या । सो कौन ? जिहिं जीव जिनवर का लिंग थात्या अर राखकरि माथाका लोचकरि समस्त परिग्रह छांड्या नाहीं ।
जे जिणलिंग धरेवि मुणि इट्ठपरिग्गह लिंति ।
छहिकरेविणु ते वि जिय, सो पुण छद्दि गिलंति ।।२१७॥ याका अर्थ- हे जीव ! जे मुनि जिनलिंग धारि इष्ट परिग्रह को ग्रहै हैं, ते छर्दि करि तिस ही छर्दिकू बहुरि भखै हैं । भाव-यहु निंदनीय है इत्यादि तहाँ कहै हैं ।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१५०
ऐसे शास्त्रनिविष कुगुरुका वा तिनके आचरनका दा तिनकी सुश्रूषाका निषेध किया है, सो जानना। बहुरि जहाँ मुनिकै धात्रीदूतआदि छयालीस दोष आहारादिविषै कहै हैं, तहाँ गृहस्थनिके बालकनिको प्रसन्न करना, समाचार कहना, मंत्र-औषधि-ज्योतिषादि कार्य बतावना इत्यादि, बहुरि किया कराया अनुमोद्या भोजन लेना इत्यादि क्रिया का निषेध किया है। सो अब कालदोषः इनहीं दोषनिको लगाय आहारादि ग्रहै
बहुरि पार्श्वस्थ कुशीलादि प्रष्टाचारी मुनिनका निषेय किया है, तिन ही का लक्षणनिको धरै हैं । इतना विशेष-वे द्रव्यां तो नग्न रहै हैं, ए नाना परिग्रह राखै हैं। बहुरि तहाँ मुनिनकै भ्रमरी आदि आहार लेनेकी विधि कही है। ए आसक्त होय दातारके प्राण पीडि आहारादि ग्रहै हैं। बहुरि गृहस्थधर्मविषै भी उचित नाहीं या अन्याय लोकनिंद्य पापरूप कार्य तिनको करते प्रत्यक्ष देखिए है। बहुरि जिनबिम्ब शास्त्रादिक सर्वोत्कृष्ट पूज्य तिनका तो अविनय करै है। बहुरि आप तिनतें भी महंतता राखि ऊंचा बैठना आदि प्रवृत्तिको धारै हैं। इत्यादि अनेक विपरीतता प्रत्यक्ष भासै अर आपको मुनि माने, मूलगुणादिकके धारक कहावै। ऐसे ही अपनी महिमा करावै। बहुरि गृहस्थ भोले उनकरि प्रशंसादिककरि ठिगे हुए थर्मका विचार करे नाहीं। उनकी भक्तिविष तत्पर से है । सो बड़े ना को बड़ा मानना, ३ मिथ्यात्वका फल कैसे अनंत संसार न होय। एक जिनवचनको अन्यथा मान महापापी होना शास्त्रविष का है। यहाँ तो जिनवचनकी किछू बात ही राखी नाहीं। इस समान और पाप कौन है?
__ अब यहाँ कुयुक्तिकरि जे तिनि कुगुरुनिका स्थापन करै हैं, तिनका निराकरण कीजिए है तहाँ वह कहै है,- गुरु विना तो निगुरा होय अर वैसे गुरु अवार दीसे नाहीं। तातै इनहीको गुरु मानना।
, ताका उत्तर- निगुरा तो वाका नाम है, जो गुरु मानै ही नाहीं । बहुरि जो गुरु को तो माने अर इस क्षेत्रविषै गुरुका लक्षण न देखि काहूको गुरु न मानै, तो इस श्रद्धान” तो निगुरा होता नाहीं । जैसे नास्तिक्य तो वाका नाम है, जो परमेश्वर को मान ही नाहीं। बहुरि जो परमेश्वरको तो मानै अर इस क्षेत्रविषै परमेश्वरका लक्षण न देखि काहू को परमेश्वर न माने, तो नास्तिक्य तो होता नाहीं । तैसे ही यहु जानना।
बहुरि वह कहै है, जैनशास्त्रनिविर्ष अबार केवलीका तो अभाव कह्या है, मुनिका तो अभाव कह्या माहीं।
ताका उत्तर-ऐसा तो कह्या नाही, इनि देशनिविष सद्भाव रहेगा : भरतक्षेत्रविष कहै हैं, सो भरतक्षेत्र तो बहुत बड़ा है। कहीं सद्भाव होगा, तातै अभाव न कहा है। जो तुम रहो हो तिस ही क्षेत्रविषै सद्भाव मानोगे, तो जहाँ ऐसे भी गुरु न पावोगे, तहाँ जावोगे तब किसको गुरु मानोगे। जैसे हंसनिका सद्भाव अबार कहा है अर हंस दीसते नाही, तो और पक्षीनिको तो हंस मान्या जाता नाहीं । तैसे मुनिनिका सद्भाव अबार कहा है अर मुनि दीसते नाहीं, तो औरनिको तो मुनि मान्या जाय नाही।
बहुरि वह कहै है, एक अक्षर के दाता को गुरु माने हैं। जे शास्त्र सिखायै वा सुनावै, तिनको गुरु कैसे न मानिए?
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छठा अधिकार--१५१
ताका उत्सर- गुरु नाम बड़े का है। सो जिस प्रकार की महंतता जाकै संभवै, तिस प्रकार ताको गुरुसंशा संभव। जैसे कुल अपेक्षा माता-पिताको गुरु संज्ञा है, तैसे ही विद्या पढ़ावनेवाले को विद्या अपेक्षा गुरु संज्ञा है। यहाँ तो धर्मका अधिकार है। तातें जाकै धर्म अपेक्षा महंतता संभवै, सो गुरु जानना । सो पर्म नाम चारित्रका है। 'चारित खलु धम्मो' ' ऐसा शास्त्रविषै कह्या है। ता” चारित्रका धारकहीको गुरु संज्ञा है। बहुरि जैसे भूतादिका भी नाम देव है, तथापि यहाँ देवका श्रद्धानविषै अरहंतदेव ही का ग्रहण है तैसे औरनिका भी नाम गुरु है, तथापि इहाँ श्रद्धानविषै निग्रंथही का ग्रहण है। सो जिनधर्म विषै अरहंत देव निग्रंथ गुरु ऐसा प्रसिद्ध वचन है।
यहाँ प्रश्न- जो निग्रंथ बिना और गुरु न मानिए सो कारण कहा?
ताका उत्तर- निग्रंथबिना अन्य जीव सर्व प्रकारकरि महंतता नाहीं धरै हैं। जैसे लोभी शास्त्रव्याख्यान करे, तहाँ वह वाको शास्त्र सूनावनेत महंत मया । वह वाको धनवन्त्रादि देनेत महंत भया । यद्यपि बाह्य शास्त्र सुनावनेवाला महंत रहै तथापि अन्तरंग लोभी होय सो सर्वथा महंतता न भई। - यहाँ कोऊ कहै, निग्रंथ भी तो आहार ले हैं।
ताका उत्तर- लोभी होय दातार की सुश्रूषाकरि दीनतात आहार न ले हैं। तातै महंतता घटै नाहीं। जो लोभी होय सो ही हीनता पाये है। ऐसे ही अन्य जीव जानने। तातै निग्रंथ ही सर्वप्रकार महंततायुक्त है। बहुरि निग्रंथ बिना अन्य जीव सर्वप्रकार गुणवान नाहीं। तातै गुणनिकी अपेक्षा महंतता अर दोषनिकी अपेक्षा हीनता भासै, तब निःशंक स्तुति कीनी जाय नाहीं । बहुरि निग्रंथ बिना अन्य जीव जो धर्म साधन करे, तैसा वा तिसतै अधिक गृहस्थ भी धर्म साधन करि सके। तहाँ गुरु संज्ञा किसको होय? तातै बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ मुनि है, सोई गुरु जानना।
यहाँ कोऊ कहै, ऐसे गुरु तो अबार यहाँ नाहीं, तातै जैसे अरहंत की स्थापना प्रतिमा है, तैसे गुरुनिकी स्थापना ए भेषधारी है
ताका उत्तर- जैसे राजाकी स्थापना चित्रामादिककार करै तो राजा का प्रतिपक्षी नाही अर कोई सामान्य मनुष्य आपको राजा मनावै तो राजाका प्रतिपक्षी हो है। तैसे अरहंतादिककी पाषाणादि विष स्थापना बनाय तो तिनका प्रतिपक्षी नाही अर कोई सामान्य मनुष्य आपको मुनि मनावै तो वह मुनिनका प्रतिपक्षी भया । ऐसे भी स्थापना होती होय तो अरहंत भी आपको मनावो। बहुरि जो उनकी स्थापना भए है तो बाह्य तो वैसे ही भए चाहिए। वे निग्रंथ, ए बहुत परिग्रहके धारी, यह कैसे बने?
बहुरि कोई कहै है- अब श्रावक भी तो जैसे सम्भवै तैसे नाहीं। तातै जैसे श्रावक तैसे मुनि।
ताका उत्तर- श्रावकसंज्ञा तो शास्त्रविषै सर्व गृहस्थ जैनीको है। श्रेणिक भी असंयमी था, ताको उत्तरपुराणविषे श्रावकोत्तम कह्या। बारहसभाविषे श्रावक कहे, तहाँ सर्व व्रतधारी न थे। जो सर्वव्रतधारी होते, तो असंयत मनुष्पनिकी जुदी संख्या कहते, सो कहीं नाहीं। तातै गृहस्थ जैनी श्रावक नाम पावै है अर 9. प्रवधनसार १/७।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक- १५२
मुनिसंज्ञा तो निर्ग्रन्थ बिना कहीं-कही नाहीं । बहुरि श्रावककै तो आठ मूलगुण कहै हैं ।' सो मद्य मांस मधु पंचदंबरादि फलनिका भक्षण आवकनिकै है नाहीं, तार्तें काहू प्रकारकरि श्रावकपना तो सम्भव भी है। अर मुनिकै अट्ठाईस मूलगुण हैं, सो भेषीनिकै दीसते ही नाहीं । तातें मुनिपनो काहू प्रकार सम्भवे नाहीं । बहुरि गृहस्थ अवस्थाविषै तो पूर्वी जम्बूकुमारादिक बहुत हिंसादि कार्य किये सुनिए हैं। मुनि होयकरि तो काहूने हिंसादिक कार्य किए नाहीं, परिग्रह राखे नाहीं, तार्तें ऐसी युक्ति कार्यकारी नाहीं । बहुरि देखो, आदिनाथजी के साथ च्यारि हजार राजा दीक्षा लेय बहुरि भ्रष्ट भए, तब देव उनको कहते भए, जिनलिंगी होय अन्यथा प्रवर्त्तोगे तो हम दंड देंगे। जिनलिंग छोरि तुम्हारी इच्छा होय, सो तुम जानो । तातैं जिनलिंगी कहाय अन्यथा प्रवर्ते, ते तो दंड योग्य हैं। वंदनादि योग्य कैसे होय? अब बहुत कहा कहिए, जिनमत विषै कुभेष धार हैं। ते महापाप उपजावै हैं । अन्य जीव उनकी सुश्रूषा आदि करे हैं, ते भी पापी हो हैं । पद्मपुराणविषै यह कथा है जो श्रेष्टी धर्मात्मा चारण मुनिनिको भ्रमतें भ्रष्ट जानि आहार न दिया तो प्रत्यक्ष भ्रष्ट तिनको दानादिक देना कैसे सम्भव ?
विशेष-पुराण में यह कथा पर्व घर में आई है। इसका विशिष्ट कथन इस प्रकार हैयद्यपि धर्मात्मा श्रेष्ठी ने भ्रम से भ्रष्ट जान कर उन मुनियों को आहार नहीं दिया परन्तु उन्हीं मुनियों को उसी समय धर्मात्मा सेठ अर्हदत्त की सम्यग्दृष्टि (गृहीतार्था ) पत्नी ने तो आहार दिया ही था । ( प.पु. ६२ / २१)
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(२) उक्त धर्मात्मा श्रेष्ठी अर्हद्दत्त को बाद में उसी दिन जब यह ज्ञात हुआ कि “वे तो महासम्यक्त्वी तथा चारणऋद्धिधारी थे, अतः मथुरा में चातुर्मासरत होने पर भी आकाशमार्ग से अयोध्या में आहार हेतु आगये थे" तो ऐसा ज्ञात होने पर उस धर्मात्मा श्रेष्टी की जो मनोदशा हुई,
9. आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में पांच अणुव्रत पालन तथा मद्य- मांस-मधु का त्याग, इस तरह आ मूलगुण कहे हैं। (र.क. श्र. ६६ ) चारित्रसार में पाँच अणुव्रत तथा मद्य-मांस द्यूत (जुआ) को आट मूलगुण कहा है। (चारित्रसार पृ. ३० श्रीमहावीरजी प्रकाशन) आचार्य पद्मनन्दी ने यय-मांस-मधु तथा पंच उदुम्बर फलों के त्याग को ८ मूलगुण कहा है। ( प. पं. ६ / २३) । शिवकोटि ने रत्नमाला में मद्य-मांस-मधु के त्याग के साथ पाँच अणुव्रत - पालन को अष्ट मूलगुण कहा है। उन्होंने यह भी कहा है कि पाँच उदुम्बरों के त्याग सहित मद्य मांस-मधु के त्याग रूप ८ मूलगुण तो बालकों के लिए है। (पञ्चोदुम्बरैश्चामकेष्वपि ) पण्डित आशाधरजी ने कहा है कि
म पलम धुनिशासन - पंचफलीविरति पंचकाप्तनुती । जीवदमाजलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणाः ॥
• सागरधर्मामृत २/१८ पृ. ६३ ज्ञानपीठ अर्थ :- मांस-मधु का त्याग, रात्रिभोजनत्याग, पंच उदुम्बर फलत्याग, त्रिकाल देव वन्दना, जीवदया तथा छना पानी पीना ये आठ मूलगुण हैं।
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जिन धर्माचार्यों आज के श्रावक को लक्ष्य कर ये
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मूलगुण कहे हैं, उन्होंने यह भी कहा है कि इनमें से एक के बिना भी गृहस्थ कहलाने का पात्र नहीं है । साथ. २/१८ टीका का श्लोक ) अर्थात् वह श्रावक कहलाने का पात्र नहीं है।
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छटा अधिकार १५३
उसको उसीके शब्दों में पढ़िए-"यथार्थ अर्थ को नहीं समझने वाले मुझ (श्रेष्ठी) मिथ्यादृष्टि को धिक्कार हो। मेरा यह अनिष्ट आचरण अयुक्त था, अनुचित था, मेरे समान दूसरा अधार्मिक नहीं है । इस समय मुझसे बढ़कर दूसरा मिथ्यादृष्टि कौन होगा जिसने उठ कर मुनियों की पूजा नहीं की तथा नमस्कार कर उन्हें आहार से सन्तुष्ट नहीं किया । जो मुनि को देखकर आसन नहीं छोड़ता है तथा देखकर उनका अपमान करता है, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है। मैं पापी हूँ, पापकर्मा हूँ, पाप का पात्र हूँ अथवा जिनागम की श्रद्धा से दूर रहने वाला जो कोई निन्धतम है, हमें है। मैंने सर पाप अहंकार किया है !(10.९२/३२-३७) इस प्रकार अर्हद्दत्त सेठ बहुत ही खिन्न हो पश्चात्ताप से सन्तप्त हो गया । (प.पु. ९२/३१)
(३) मान्य व्रती विद्वान पूज्य डॉ. पण्डित पन्नालाल जी साहित्याचार्य, जबलपुर लिखते हैं कि मुनियों की परीक्षा करना अनुचित नहीं है परन्तु निर्णय लेने में उतावली (जल्दी) नहीं करनी चाहिए । ये मुनि वर्षाऋतु में विहार करते हैं, मात्र इतना ही देखकर उनकी भक्ति नहीं की। परन्तु बाद में आचार्य द्युति भट्टारक के कहने से उन्हें चारण ऋद्धि वाले जानकर पछताया ।
परीक्षा में इतना विचार करना पर्याप्त होता है कि ये मुनि मिथ्यात्व के पोषक तथा पंच पापों के समर्थक तो नहीं हैं ? परीक्षा में पन्थवाद का उपयोग श्रेयस्कर नहीं जान पड़ता । ( पत्र, दिनांक १९.९.९२
(४) पद्मपुराण में तो यह भी लिखा है कि "साधु में यदि यथार्थ दोष भी देखा हो तो भी जैनी को नहीं कहना चाहिए और कोई दूसरा उसे कहता भी हो तो उन्ने सब प्रकार से रोकना चाहिए ।" ये वचन सकलभूषण केवली के हैं । ( प.पु.१०६/२३२ पृ. ३१५ ज्ञानपीठ) मूल इस प्रकार है
दृष्टः सत्योऽपि दोषो न वाच्यो जिनमतश्रिता ।
उच्यमानो च चान्येन, वार्यः सर्वप्रयत्नतः ॥ .....इति श्रुत्वा मुनीन्द्रस्य भाषितं......(पदमपुराण १०६/२३२ से २३६) (५) सीता के जीव ने वेदवती नामक स्त्री की पर्याय में एक मुनि को अकेली आर्यिका के पास बैठे हुए तथा बात करते हुए देखा । फिर उस वेदवती ने लोगों के सामने उक्त मुनि की निन्दा की (कि सुन्दर स्त्री से एकान्त में बात कर रहे हैं, इत्यादि) । जिसके फलस्वरूप उसी वेदवती के जीव को सीता (राम की पत्नी) की पर्याय में इतने बड़े कलंक का भाजन बनना पड़ा कि युगों बाद आज भी जगत् जानता है । (पद्मपुराण १०६/२२४ से २३१ पृ. ३१५ भाग ३ ज्ञानपीठ)
(६) वर्षायोग में ऋद्धिरहित (सामान्य) साधु १२ योजन तक बाहर जा सकता है । वर्षास्वतुच्छकार्येण, हिमे ग्रीष्मे लघीयसि 1 योजनानि दशद्वे च, कार्येगछन्न दोषभाक !।५८।। प्रायश्चित समुच्चय । प्रतिसेवाधिकार पृष्ठ ४६ (आचार्य गुरुदास)
अर्थ- वर्षाऋतु में देव तथा आर्ष संघ संबंधी कोई बड़ा कार्य तथा शीतकाल और ग्रीष्मकाल में छोटा कार्य उपस्थित हुआ हो तो उस कार्य के निमित्त १२ योजन तक कोई साधु चला जाए तो वह दोषी नहीं है। (इससे अधिक गमन करनेवाला प्रायश्चित्त को प्राप्त होता है ।)
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१५४
यहाँ कोऊ कहै, हमारे अंतरंग विषे श्रद्धान तो सत्य है परन्तु बाह्य लजादिकरि शिष्टाचार कर हैं, सो फल तो अंतरंग का होगा?
ताका उत्तर-षट्पाहुडविष लज्जादिकरि बन्दनादिकका निषेध दिखाया था, सो पूर्व ही कह्या था, बहुरि कोऊ जोरावरी मस्तक नमाय हाथ जुड़ावै, तब तो यह सम्भवे जो हमारा अन्तरंग न था। अर आप ही मानादिकात नमस्कासीद करे, तह अनारंग कैसे न कहिए। जैसे कोई अंतरंग विषे तो मांसको बुरा जानै अर राजादिकका मला मनावनेको मांस भक्षण करै, तो वाको व्रती कैसे मानिए? तैसे अंतरंगविषै तो कुगुरुसेवनको बुरा जानै अर तिनका वा लोकनिका भला मनावनेको सेवन करे, तो श्रद्धानी कैसे कहिए। जात बाह्मत्याग किए ही अंतरंग त्याग सम्भवै है। तातें जे श्रद्धानी जीव हैं, तिनको काहू प्रकारकरि भी कुगुरुनिकी सुश्रूषाआदि करनी योग्य नाहीं । या प्रकार कुगुरुसेवनका निषेध किया।
यहाँ कोई कहै- काहू तत्त्वश्रद्धानीको कुगुरु-सेवन" मिथ्यात्व कैसे भया?
ताका उत्तर- जैसे शीलवती स्त्री परपुरुषसहित भारवत् रमण क्रिया सर्वथा करै नाही, तैसे तत्त्वश्रद्धानी पुरुष कुगुरु सहित सुगुरुवत् नमस्कारादिक्रिया सर्वथा करै नाहीं। काहेते, यह तो जीवादि तत्त्वनिका श्रद्धानी भया है। तहाँ रागादिकको निषिद्ध श्रद्धहै है, वीतराग भाव को श्रेष्ठ मान है। तातै जिनकै वीतरागता पाईए, ऐसेही गुरुको उत्तम जानि नमस्कारादि करै है। जिनकै रागादिक पाईए, तिनको निषिद्ध जानि नमस्कारादि कदाचित् करै नाहीं।
कोऊ कहे-जैसे राजादिकको करे, तैसे इनको भी करै है।
ताका उत्तर- राजादिक धर्मपद्धति विष नाहीं। गुरुका सेवन धर्मपद्धतिविष है। सो राजादिकका सेवन तो लोभादिकर्ते हो है। तहाँ चारित्रमोह ही का उदय सम्भव है। अर गुरुनिकी जायगा कुगुरुनिको सेए, वहाँ तत्त्वश्रद्धान के कारण गुरु थे, तिनः प्रतिकूली भया। सो लब्जादिकतै जानै कारणविषै विपरीतता निपजाई, ताकै कार्यभूत तत्त्व श्रद्धानविषै दृढ़ता कैसे सम्भवै? तात तहाँ दर्शनमोहका उदय सम्भवै है। ऐसे कुगुरुनिका निरूपण किया।
कुधर्म का निरूपण और उसके श्रद्धानादिकका निषेध अब कुधर्मका निरूपण कीजिए है
जहाँ हिंसादिक पाप उपजै वा विषयकषायनिकी वृद्धि होय, तहाँ धर्म मानिए, सो कुधर्म जानना। तहाँ यज्ञादिक क्रियानिविषै महा हिंसादिक उपजावै, बड़े जीवनिका धात करै अर तहाँ इन्द्रियनिके विषय पोषै। तिन जीवनिविषै दुष्ट बुद्धिकरि रौद्रध्यानी होय तीव्रलोभते औरनिका बुरा करि अपना कोई प्रयोजन साध्या चाहै, ऐसा कार्य करि तहाँ धर्म मानै सो कुधर्म है। बहुरि तीर्थनिविर्ष वा अन्यत्र स्नानादि कार्य करे, तहाँ बड़े छोटे घने जीवनिकी हिंसा होय, शरीर को चैन उपजे, तातै विषयपोषण होय, तात कामादिक बधै, कुतूहलादिक करि तहाँ कषाय भाव बधावै, बहुरि तहां धर्म मानै सो यह कुधर्म है। बहुरि संक्रांति, ग्रहण,
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छठा अधिकार-१५५
व्यतीपातादिक (श्राद्ध) विषै दान दे वा खोटा ग्रहादिक के अर्थि दान दे, बहुरि पात्र जानि लोभी पुरुषनिको दान दे, बहुरि दान देनेविष सुवर्ण हस्ती घोड़ा तिल आदिक वस्तुनिको दे, सो संक्रांति आदि पर्व धर्मरूप नाहीं। ज्योतिषी संचारादिककरि संक्रांतिआदि हो है। बहुरि दुष्टग्रहादिकके अर्थि दिया, सो तहाँ भय लोभादिकका आधिक्य भया। तातें तहाँ दान देनेमें धर्म नाहीं । बहुरि लोभी पुरुष देने योग्य पात्र नाहीं । जातें लोभी नाना असत्ययुक्ति करि ठिगे हैं। किछु मला करते नाहीं। भला तो तब होय, जब याका दान का सहाय करि वह धर्म साथै । सो वह तो उलटा पापरूप प्रवर्त। पापका सहाईका भला कैसे होय? सो ही रयणसार शास्त्रविषे कह्या है
सप्पुरिसाणं दाणं कप्पतरूणं फलाण सोहं वा।
लोहीणं दाणं जइ विमाणसोहा - सयं जाणे।।२६।। याका अर्थ- सत्पुरुषनिको दान देना कल्पवृक्षनिके फलनिकी शोभा समान है, शोभा भी है अर सुखदायक भी है बहुरि लोभी पुरुषनिको दान देना जो होय, सो शव जो मस्या ताका विमान जो चकडोल ताकी शोभा समान जानहु । शोभा तो होय परन्तु धनीको परम दुःखदायक हो है। तातै लोभी पुरुषनिको दान देनेमें धर्म नाहीं, बहुरि द्रव्य तो ऐसा दीजिए, जाकरि वार्क धर्म बधै । सुवर्ण हस्तीआदि दीलिए, तिनिकर हिंसादिक उपजे वा मान लोमादिक बधै। ताकरि महापाप होय। ऐसी वस्तुनिका देने वाला को पुन्य कैसे होय। बहुरि विषयासक्त जीव रतिदानादिकविर्ष पुण्य ठहराव है। सो प्रत्यक्ष कुशीलादिक पाप जहाँ होय, तहाँ पुण्य कैसे होय । अर युक्ति मिलावनेको कहै जो वह स्त्री सन्तोष पावै है। तो स्त्री तो विषयसेवन किए सुख पावै ही पाये, शीलका उपदेश काहेको दिया। रतिसमय बिना भी बाका मनोरथ अनुसार न प्रवर्ते दुःख पावै। सो ऐसी असत्य युक्ति बनाय विषयपोषनेका उपदेश दे हैं। ऐसे ही दयादान वा पात्रदान बिना अन्य दान देय धर्म मानना सर्व कुधर्म है।
बहुरि ब्रतादिक करिकै तहाँ हिंसादिक वा विषयादिक बधाव है। सो व्रतादिक तो तिनको घटावनेके अर्थि कीजिए है। बहुरि जहाँ अन्नका तो त्याग करै अर कंदमूलादिकनिका भक्षण करै, तहाँ हिंसा विशेष भई- स्वादादिकविषय विशेष भए। बहरि दिवस विषै तो भोजन करै नाहीं अर रात्रिविषै करै। सो प्रत्यक्ष दिवसभोजनौं रात्रिभोजनविषै हिंसा विशेष भासे, प्रमाद विशेष होय। बहुरि व्रतादिकार नाना शृंगार बनावै, कुतूहल करे, जूवा आदि रूप प्रवर्ते, इत्यादि पापक्रिया करै। बहुरि व्रतादिकका फल लौकिक इष्टकी प्राप्ति, अनिष्टका नाशको चाहै, तहाँ कषायनिकी तीव्रता विशेष भई ऐसे व्रतादिकरि धर्म मानै है, सो कुधर्म है।
मिथ्या व्रत, भक्ति, तपादि का निषेध बहुरि भक्त्यादिकार्यनिविषै हिंसादिक पाप बधावे वा गीत - नृत्यगानादिक वा इष्ट 'मोजनादिक वा अन्य सामग्रीनिकरि विषयनिको पोषै, कुतूहल प्रमादादिरूप प्रयतै। तहाँ पाप तो बहुत उपजावै अर धर्मका किछू साधन नाही, तहाँ धर्म मानै सो सब कुधर्म है।
बहुरि केई शरीरको तो क्लेश उपजावै अर तहाँ हिंसादिक निफ्जायै वा कषायादिरूप प्रयतै। जैसे
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मोक्षमार्ग प्रकाशक- १५६
पंचाग्नि तापै, सो अग्निकरि बड़े छोटे जीव जलै, हिंसादिक बधै, यामैं धर्म कहा भया । बहुरि औधेमुख झूले, ऊर्ध्व बाहु राखै, इत्यादि साधन करे तहाँ क्लेश ही होय; किछू ए धर्म के अंग नाहीं । बहुरि पवन साधन करे, तहाँ नेती धोती इत्यादि कार्यनिविषै जलादिक कारे हिंसादिक उपजै, चमत्कार कोई उपजै, तातें मानादिक बधै, किछू तहाँ धर्मसाधन नाहीं । इत्यादि क्लेश करे विषयकषाय घटावनेका कोई साधन करे नाहीं । अंतरंग विषै क्रोध मान माया लोभ का अभिप्राय है, वृथा क्लेशकरि धर्म माने है, सो कुधर्म है। आत्मघात से धर्म का निषेध
बहुरि केई इस लोक विषै दुःख सह्या न जाय वा परलोकविषै इष्ट की इच्छा वा अपनी पूजा बढ़ावने के अर्थि वा कोई क्रोधादिकरि अपघात करै। जैसे पतिवियोग अग्निविषै जलकरि सती कहावे है। या हिमालय गलै है, काशीकरोत ले है, जीवित मांही ले है, इत्यादि कार्यकरि धर्म माने है। सो अपघातका तो बड़ा पाप है। जो शरीरादिकर्ते अनुराग घट्या था तो तपश्चरणादि किया होता, मरि जाने में कौन धर्म का अंग भया। तातैं अपघात करना कुधर्म है। ऐसे ही अन्य भी घने कुधर्मके अंग हैं। कहाँ ताई कहिए, जहाँ विषय व र क मानिए, सो सर्व कुछ जानने ।
जैनधर्म में कुधर्म-प्रवृत्ति का निषेध
देखो कालका दोष, जैनधर्म विषे भी कुधर्मकी प्रवृत्ति भई। जैनमतविषे जे धर्मपर्व कहे हैं, तहाँ तो विषय कषाय छोरि संयमरूप प्रवर्त्तना योग्य है। ताको तो आदरे नाहीं अर व्रतादिकका नाम धराय तहाँ नाना शृंगार बनावै था इष्ट भोजनादि करै वा कुतूहलादि करे वा कषाय बधायनेके कार्य करै, जूदा इत्यादि महापाप रूप प्रवर्ते ।
पापका
बहुरि पूजनादि कार्यनिविषै उपदेश तो यहु था 'सावद्यलेशो बहुपुष्यराशी दोषाय नालं" अंश बहुत पुण्य समूहविषै दोषके अर्थ नाहीं । इस छलकरि पूजाप्रभावनादि कार्यनिविषै रात्रि वि दीपकादिकरि वा अनन्तकायादिकका संग्रहकरि वा अयत्नाचार प्रवृत्तिकरि हिंसादिरूप पाप तो बहुत उपजावै अरस्तुति भक्ति आदि शुभ परिणामनिविषै प्रवर्ते नाहीं वा थोरे प्रवर्ते, सो टोटा घना नफा थोरा वा नफा किछू नाहीं। ऐसा कार्य करने में तो बुरा ही दीखना होय ।
बहुरि जिनमंदिर तो धर्मका ठिकाना है। तहाँ नाना कुकथा करनी, सोयना इत्यादिक प्रमाद रूप प्रवर्ते या तहाँ बाग-बाड़ी इत्यादि बनाय विषयकषाय पोषै। बहुरि लोभी पुरुषनिको गुरु मानि दानादिक दें या तिनकी असत्य स्तुतिकरि महंतपनो मानै, इत्यादि प्रकार करि विषयकषायनिको तो बधादें अर धर्म माने । सो जिनधर्म तो वीतरागभावरूप है। तिस विषै ऐसी विपरीत प्रवृत्ति कालदोषतें ही देखिए है। या प्रकार कुधर्म सेवन का निषेध किया।
१. पूज्यं जिनं त्यार्चयतो जनस्य, सावद्यलेशोबहुपुण्यराशौ ।
दोषाय नालं कणिका विषस्य, न दूषिका शीतशिवाम्बुराशी ।। - बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र ॥ ५८ ॥
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छठा अधिकार -१५७
कुधर्मसेवन से मिथ्यात्वभाव अब इस बिषै मिथ्यात्वभाव कैसे भया, सो कहिए है--
तत्त्वश्रद्धान करनेविषै प्रयोजनभूत एक यह है, रागादिक छोड़ना। इस भाव का नाम धर्म है। जो रागादिक भावनिको बधाय धर्म मानै, तहाँ तत्त्व श्रद्धान कैसे रह्या? बहुरि जिन आज्ञातै प्रतिकूली भया । बहुरि गगादिक भाव तो पाप है तिनको धर्म मान्या, सो यह झूट श्रद्धान भया। तातै कुधर्म सेवनविषै मिथ्यात्व भाव है। ऐसे कुदेव कुगुरु कुशास्त्र सेवन विषै मिथ्यात्व भावकी पुष्टता होती जानि याका निरूपण किया। सोई षट्पाहुड़ (मोक्खपा.) विष कह्या है
। विदेव धम्म कुच्उिपलिंगं च वंदए जो दु।
लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो दु।।२।। याका अर्थ- जो लज्जारौं वा भयत या वड़ाईते भी कुत्सित देवको वा कुत्सित धर्मको वा कुत्सित लिंगको वंदै है सो मिध्यादृष्टी हो है। ता” जो मिथ्यात्वका त्याग किया चाहै, सो पहले कुदेव कुगुरु कुधर्मका त्यागी होय। सभ्यश्च के पच्चीस मलनिके त्याग विप भी अमूढदृष्टि विषै वा षडायतनविषै इनहीका त्याग कराया है। तातै इनका अवश्य न्याग करना। बहुरि कुदेवादिकके सेवन” जो मिथ्यात्वभाव हो है, सो यह हिंसादिक पापनितें बड़ा पाप है। ण के फल्नै निगोद नरकादि पर्याय पाईए है। तहाँ अनंतकाल पर्यंत महासंकट पाईए है। सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति महादुर्लम होय जाय है। सो ही षट्पाहुड़ विषै (भावपाहुड़ में) कह्या है
कुच्छियधम्मम्मि-रओ, कुच्छिय पासंडि भत्तिसंजुत्तो।
कुच्छियत कुणंतो कुच्छिय गइभायणो होइ ।।१४०।। याका अर्थ- जो कुत्सितधर्मादिङ्ग रत है, कुत्सित पाखंडीनिकी भक्तिकरि संयुक्त है, कुत्सित तपको करता है, सो जीव कुत्सित जो खोटी गति ताको भोगनहारा हो है। सो हे भव्य हो, किंचिन्मात्रलोभते वा भयते कुदेवादिकका सेवनकरि जानें अनन्तकालपर्यंत महादुःख सहना होय ऐसा मिथ्यात्वभाव करना योग्य नाहीं जिनधर्म विर्ष यह तो आम्नाय है, पहलै बड़ा पाप छुड़ाय पीछे छोटा पाप छुड़ाया। सो इस मिथ्यात्वको सप्तव्यसनादिकते भी बड़ा पाप जानि पहले छुड़ाया है। ताते जे पापके फलते डरै हैं, अपने आत्माको दुःख समुद्र में न डुबाया चाहै हैं, ते जीव इस मिथ्याल्वको अवश्य छोड़ो। निन्दा प्रशंसादिकके विचारतें शिथिल होना योग्य नाहीं। जातें नीति विषै भी ऐसा कह्या है
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु, लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्। अद्यैव वास्तु मरणं तु युगान्तरे वा, न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।।१।।
(नीतिशतक८४) जे निन्दै हैं ते निन्दो. अर स्तवै हैं तो स्तवो, बहुरि लक्ष्मी आयो वा जहाँ तहाँ जावो, बहुरि अब
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१५८
ही मरण होहु या युगांतर विषे होहु परन्तु नीतिविष निपुण पुरुष न्यायमार्गत पैंडहु चले नाहीं। ऐसा न्याय विचारि निन्दा प्रशंसादिकका मयतें लोभादिकरौं अन्नाबाट निश्याच प्रवृत्ति करती गुल गाठी : अहो! क्षेत्र गुरु धर्म तो सर्वोत्कृष्ट पदार्थ हैं। इनके आधारि धर्म है। इन विषै शिथिलता राखै अन्य धर्म कैसे होई तात्तै बहुत कहनेकरि कहा, सर्वथा प्रकार कुदेव कुगुरु कुधर्मका त्यागी होना योग्य है। कुदेवादिकका त्याग न किए मिथ्यात्व भाव बहुत पुष्ट हो है। अर अवार इहां इनकी प्रवृत्ति विशेष पाईए है। तातै इनिका निषेधरूप निरूपण किया है। ताको जानि मिथ्यात्व भाव छोड़ि अपना कल्याण करो।
इति मोक्षमार्गप्रकाशकशास्त्रविषै कुदेय-कुगुरु-कुधर्मनिषेध वर्णन रूप छठा अधिकार समाप्त भया ।।६ ।।
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卐सातवाँ अधिकार जैन मतानुयायी मिथ्यादृष्टिका स्वरूप
* दोहा इस भव तरुका मूल इक, जानहु मिथ्या भाव।
ताकों करि निर्मूल अब, करिए मोक्ष उपाव ।।१।। अथ-जे जीव जैनी हैं, जिन आज्ञाको मानै हैं अर तिनके भी मिथ्यात्व रहै है ताका वर्णन कीजिए है जातें इस मिथ्यात्व वैरी का अंश भी बुरा है, तात सूक्ष्ममिथ्यात्व भी त्यागने योग्य है। तहां जिन आग: विषै निश्चय व्यवहाररूप वर्णन है। तिन विषे यथार्थका नाम निश्चय है, उपचार का नाम व्यवहार है। सो इनका स्वरूपको न जानते अन्यथा प्रवर्ते हैं, सोई कहिए है
केवल निश्चयनयावलम्बी जैनाभास का निरूपण केई जीव निश्चयको न जानते निश्चवाभासके श्रद्धानी होइ आपको मोक्षमार्गी माने हैं। अपने आत्माको सिद्ध समान अनुभव हैं। सो आप प्रत्यक्ष संसारी हैं। भ्रमकरि आपको सिद्ध मानै सोई मिथ्यादृष्टि है।' शास्त्रनिविषै जो सिद्ध समान आत्माको कह्या है सो द्रव्यदृष्टि करि कह्या है, पर्याय अपेक्षा समान नाहीं है। जैसे राजा अर रंक मनुष्यपनकी अपेक्षा समान है, राजापना रंकपनाकी अपेक्षा तो समान नाहीं । तैसे सिद्ध अर संसारी जीवत्वपनेकी अपेक्षा स्मान हैं, सिद्धपना संसारीपनाकी अपेक्षा तो समान नाहीं। यहु जैसे सिद्ध शुद्ध है, तैसे ही आपको शुद्ध मान । सो शुद्ध अशुद्ध अवस्था पर्याय है। इस पर्याय अपेक्षा समानता मानिए, सो यह मिथ्यादृष्टि है। बहुरि आपकै केवलज्ञानादिकका सद्भाव मानै सो आपकै तो क्षयोपशमरूप मतिश्रुतादि ज्ञानका सद्भाव है। क्षायिकभाव तो कर्मका क्षय भए होइ है। यह भ्रमतें कर्मका क्षय भए बिना ही क्षायिकभाव माने। सो यहु मिध्यादृष्टि है। शास्त्रविष सर्वजीवनिका
१. पद्मपुराण में पी लिखा है कि
सुखासनविहारः सन् सदाकशिपुसक्तथीः ।
सिद्धंपन्यो विमूढात्मा जनोऽयं स्वस्य वश्चकः । ११/१३१।। अर्थ - जो सुखपूर्वक उठता-बैठता तथा विहार करता है तथा सदा जो भोजन और वस्त्रों में बुद्धि लगाये रखता है, फिर भी अपने आपको सिद्ध समान मानता है. वह मूर्ख अपने आपको धोखा देता है।।१३१११
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१६०
केवलज्ञानस्वभाव कहा है, सो शक्ति अपेक्षा कया है। सर्वनीवनिविर्ष केवलज्ञानादिरूप होने की शक्ति है। वर्तमान व्यक्तता तो व्यक्त भए ही कहिए।
आत्मा के प्रदेशों में केवलज्ञान का निषेध कोऊ ऐसा मानै है- आत्माके प्रदेशनिविषै तो केवलज्ञान ही है, ऊपरी आवरणः प्रगट न हो है सो यहु भ्रम है। जो केवलज्ञान होइ तो वज्रपटलादि आड़े होते भी वस्तुको जानै। कर्मको आड़े आए कैसे अटकै। ता” कर्मके निमित्तनैं केवलज्ञानका अभाव ही है। जो याका सर्वदा सद्भाव रहे है तो याको पारिणामिकमाव कहते, सो यह तो भायिकभाव है। सर्वभेद जामै गर्भित ऐसा चैतन्यभाव सो पारिणामिक भाव है। याकी अनेक अवस्था मतिज्ञानादिरूप वा केवलज्ञानादिरूप है, सो ए पारिणामिकभाव नाहीं। ताते केवलज्ञानका सर्वदा सद्भाव न मानना । बहुरि जो शास्वाना सूर्यको दृष्टान्त दिया है, ताका इतना ही भाय लेना, जैसे मेघपटल होते सूर्य प्रकाश प्रगट न हो है, तैसे कर्मउदय होते केवलझान न हो है। बहुरि ऐसा भाव न लेना, जैसे सूर्यविष प्रकाश रहै है, तैसे आत्मविषे केवलज्ञान रहै है। जाते दृष्टांत सर्व प्रकार मिलै नाहीं । जैसे पुद्गल विषै वर्ण गुण है, ताकी हरित पीतादि अवस्था है। सो वर्तमान विर्ष कोई अवस्था होते अन्य अवस्थाका अभाव है। तैसे आत्मविषे चैतन्यगुण है, ताकी पतिज्ञानादिरूप अवस्था है। सो वर्तमान कोई अवस्था होते अन्य अवस्थाका अभाव ही है।
बहुरि कोऊ कहै कि आवरण नाम तो वस्तु के आच्छादनेका है, केवलज्ञान सद्भाव नाहीं है तो केवलज्ञानावरण काहेको कहो हो? ।
ताका उत्तर-यहाँ शक्ति है ताको व्यक्त न होने दे, इस अपेक्षा आवरण कह्या है। जैसे देशचारित्रका अभाव होते शक्ति घातने की अपेक्षा अप्रत्याख्यानावरण कषाय कह्या तैसे जानना । बहुरि ऐसे जानो-वस्तु विषै जो परनिमित्तते भाव होय ताका नाम औपाधिकभाव है अर पर निमित्त बिना जो भाव होय ताका नाम स्वभाव भाव है। सो जैसे जलकै अग्निका निमित्त होते उष्णपनो भयो, तहाँ शीतलपना का अभाव ही है। परन्तु अग्निका निमित्त मिटे शीतलता ही होय जाय तातै सदाकाल जलका स्वभाव शीतल कहिए, जात ऐसी शक्ति सदा पाईए है। बहुरि व्यक्त भए स्वभाव व्यक्त भया कहिए । कदाचित् व्यक्तरूप हो है। तैसे आत्माकै कर्मका निमित्त होते अन्य रूप भयो, तहाँ केवलज्ञानका अभाव ही है। परन्तु कर्म का निमित्त मिटे सर्वदा केवलज्ञान होय जाय । तातें सदाकाल आत्माका स्वभाव केवलज्ञान कहिए है। जातें ऐसी शक्ति सदा पाईए है। व्यक्त भए, स्वभाव व्यक्त भया कहिए। बहुरि जैसे शीतल स्वभावकरि उष्ण जल को शीतल मानि पानादि करे, तो दाझना ही होय। तैसे केवलज्ञान स्वभावकरि अशुद्ध आत्माको केवलज्ञानी मानि अनुभवै, तो दुःखी ही होय। ऐसे जे केयलन्नानादिकरूप आत्माको अनुभयै हैं, ते मिथ्यादृष्टि है।
रागादिक के सद्भाव में आत्मा को रागरहित मानने का निषेध
बहुरि रागादिक भाव आपकै प्रत्यक्ष होते प्रमकरि आत्माको रागादिरहित माने। सो पूछिए है- ए रागादिक तो होते देखिए हैं, ए किस द्रव्य के अस्तित्वविष हैं। जो शरीर वा कर्मरूपपुद्गलके अस्तित्ववियु
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सातवाँ अधिकार-१६१
होय तो ए भाव अचेतन वा मूर्तीक होय। सो तो ए रागादिक प्रत्यक्ष चेतनता लिए अमूर्तीक भावे मासै है। ता” ए भाव आत्मा ही के हैं। सोई समयसारके कलशविषे कह्या है
कार्यत्वादकृत न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्धयोरझायाः प्रकृतेः स्वकार्यफलमुग्भायानुषंगात् कृतिः। नैकस्याः प्रकृसेरचित्वलसनाम्जीवोऽस्य कर्ता ततो जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत् पुद्गलः ।।
(सर्ववि. अधिकार कलश २०३) याका अर्थ-यह रागादिरूप भावकर्म है, सो काहूकरि न किया, ऐसा नहीं है, जातें यह कार्यभूत है। बहुरि जीव अर कर्मप्रकृति इन दोऊनिका भी कर्तव्य नाहीं जात ऐसे होय तो अबेतन कर्मप्रकृतिक भी तिस भावकर्मका फल सुख-दुःख ताका भोगवना होइ, सो असंभव है। बहुरि एकली कर्मप्रकृतिका भी यह कर्तव्य नाही, जाते वाकै अचेतनपनो प्रगट है। तातै इस रागादिक का जीव ही कर्ता है अर सो रागादिक जीव ही का कर्म है। जातै भावकर्म तो चेतना का अनुसारी है, चेतना बिना न होइ। अर पुद्गल जाता है नाहीं। ऐसे रागादिकभाव जील के अस्तित्वनिष हैं.। अन्नको गणादिक, माननिका निमित्त कर्मही को मानि आपको रागादिकका अकर्ता मानै है, सो कर्ता तो आप अर आपको निरुद्यमी होय प्रमादी रहना, तातै कर्म ही का दोष ठहराव है। सो यहु दुःखदायक भ्रम है। सोई समयसारका कलशा विषे कहा है
रागजन्मनि निमित्तता परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते। उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं शुखबोधयिषुरान्ययुद्धयः॥
(सर्व वि. अधिकार कलश २२१) याका अर्थ- जे जीव रागादिककी उत्पत्तिविष परद्रव्यहीको निमित्तपनो मानै है, ते जीव शुख ज्ञानकरि रहित हैं अंधबुद्धि जिनकी ऐसे होत संते मोहनदीको नाहीं उतरे है। बहुरि समयसारका 'सर्वविशुद्धिअधिकार' विषै जो आत्मा को अकर्ता मानै है अर यह कहै है- कर्म ही जगावै सुवावे है, परघात कर्मत हिंसा है, वेदकर्मत अब्रह्म है, ताः कर्म ही कर्ता है; तिस जैनीको सांख्यमती कला है। जैसे सांख्यमती आत्माको शुद्ध मानि स्वच्छन्द हो है, तैसे ही यह भया। बहुरि इस श्रद्धानतें यहु दोष भया, जो रागादिक अपने न जाने आपको अकर्ता मान्या, तब रागादिक होने का भय रक्षा नाही वा रागादिक मेटने का उपाय करना रमा नाही, तब स्वच्छन्द होय खोटे कर्म बॉपि अनंत संसारविष रुल है। यहाँ प्रश्न - जो समयसारविषे ही ऐसा कह्या है
वर्णाधा या रागमोहादयो वा
भिन्ना भावाः स एवास्य पुंसः।' १. वर्णाया वा रागमोहादयो वा भिन्नाः भावाः सर्द एवास्य पुंसः।
तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेके परं स्यात् ।। (जीवाजी. कलश ३७)
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मोक्षमार्ग प्रकाशक -१६२
याका अर्थ- वर्णादिक वा रागादिकभाव हैं, ते सर्व ही इस आत्माते भिन्न हैं। बहुरि तहाँ ही रागादिकको पुद्गलमय कहे हैं। वारे अन्य शास्त्रवि मी माविक भिन्न- आत्मा को कह्या है, सो यहु कैसे है?
ताका उत्तर-रागादिक भाव परद्रव्य के निमित्ततें औपाधिकभाव हो है अर यह जीव तिनिको स्वभाव जानै है। जाको स्वभाव जाने, ताको बुरा कैसे मानै वा ताके नाश का उद्यम काहेको करै। सो यहु श्रद्धान भी विपरीत है। ताके छुड़ावने को स्वभाव की अपेक्षा रागादिक को भिन्न कहै हैं अर निमित्त की मुख्यताकरि पुद्गलमय कहे हैं। जैसे वैद्य रोग मेट्या चाहै है; जो शीतका आधिक्य देखै तो उष्ण औषधि बतायै अर आतापका आधिक्य देखै तो शीतल औषधि बतावै तैसे श्रीगुरु रागादिक छुड़ाया चाहै है। जो रागादिक परक मानि स्वच्छन्द हो निरुद्यमी होय, ताको उपादान कारण की मुख्यताकरि रागादिक आत्मा का है, ऐसा श्रद्धान कराया। बहुरि जो रागादिक आपका स्वभावमानि तिनिका नाश का उद्यम नाहीं करै है ताको निमित्त कारण की मुख्यताकरि रागादिक परभाव है, ऐसा श्रद्धान कराया है। दोऊ विपरीत श्रद्धानते रहित भए सत्य श्रद्धान होय तब मान-ए रागादिक भाव आत्मा का स्वभाव तो नाहीं हैं, कर्म के निनित्तते आत्मा के अस्तित्ववियु विभावपर्याय निपजे है। निमित्त मिटे इनका नाश होते स्वभावभाव रहि जाय है। ताः इनिके नाश का उद्यम करना।
यहाँ प्रश्न-जो कर्म का निमित्त तैं ए हो हैं, तो कर्म का उदय रहै तावत् ए विभाव दूरि कैसे होय? ताते याका उद्यम करना तो निरर्थक है।
ताका उत्तर- एक कार्य होनेयिष अनेक कारण चाहिए है तिनविषे जे कारण बुद्धिपूर्वक होय, तिनको तो उद्यम करि मिलावै अर अबुद्धिपूर्वक कारण स्वयमेव मिलै तब कार्यसिद्धि होय। जैसे पुत्र होने का कारण बुद्धिपूर्वक तो विवाहादिक करना है अर अबुद्धिपूर्वक भवितव्य है। तहाँ पुत्र का अर्थी विवाहादिकका तो उद्यम करै अर भवितव्य स्वयमेव होय, तब पुत्र होय । तैसे विभाव दूरि करने के कारण बुद्धिपूर्वक तो तत्वविचारादिक हैं अर अबुद्धिपूर्वक मोहकर्म का उपशमादिक है। सो ताका अर्थी सत्त्वविचारादिकका तो उद्यम करै अर मोहकर्म का उपशमादिक स्वयमेव होय, तब रागादिक दूरि होय ।
___ यहाँ ऐसा कहै है कि जैसे विवाहादिक भी भवितव्य आधीन है, तैसे तत्त्वविचारादिक भी कर्म का क्षयोपशमादिक के आधीन हैं, तातें उद्यम करना निरर्थक है।
ताका उत्तर-ज्ञानावरण का तो क्षयोपशम तत्त्वविचारादिक करने योग्य तेरे भया है। याहीत उपयोग को यहाँ लगावने का उद्यम कराइए है। असंज्ञी जीवनिकै क्षयोपशम नाहीं है, तो उनको काहेको उपदेश दीजिए है।
बहुरि वह कहै है- होनहार होय तो तहाँ उपयोग लागे, बिना होनहार कैसे लागै?
ताका उत्तर- जो ऐसा श्रद्धान है तो सर्वत्र कोई ही कार्य का उद्यम मति करै। तू खानपान व्यापारादिकका तो उद्यम करै अर यहाँ होनहार बतावै। सो जानिए है, तेरा अनुराग यहाँ नाहीं। मानादिक
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सातवाँ अधिकार-१६३
करि ऐसी झूठी बातें बना है। या प्रकार जे रागादिक होते तिन करि रहित आत्मा को मानै हैं, ते मिथ्यादृष्टी जानने।
आत्मा को कर्म-नोकर्म से अबद्ध मानने का निषेध बहुरि कर्म नोकर्म का सम्बन्ध होते आत्मा को निर्वन्ध मानै, सो प्रत्यक्ष इनिका बंधन देखिए है। ज्ञानावरणादिकतै ज्ञानादिकका धात देखिए है। शरीरकरि ताकै अनुसारि अवस्था होती देखिए है। बंधन कैसे नाहीं। जो बन्धन न होय तो मोक्षमार्गी इनके नाश का उद्यम काहेको करै। ... यहाँ कोऊ कहै- शास्त्रनिविधै आत्मा को कर्म-नोकर्म से भिन्न अबद्धस्पृष्ट कैसे का है?
ताका उत्तर- सम्बन्ध अनेक प्रकार है। तहाँ तादात्म्य संबंध अपेक्षा आत्माको कर्म-नोकर्मत भिन्न कह्या है। जाते द्रव्य पलटकरि एक नाही होय जाय है। अर इस ही अपेक्षा अबद्ध स्पृष्ट कह्या है। बहुरि मिमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध अपेक्षा बन्धन है ही। उनके निमित्त आत्मा अनेक अवस्था धरै ही है। ताते सर्वथा निर्बन्ध आपको मानना मिथ्यादृष्टि है। यहाँ कोऊ कहै- हमको तो बंथ-मुक्ति का विकल्प करना नाहीं, जाते शास्त्रविर्ष ऐसा कह्या है
“जो बंधउ मुक्कर मुणइ, सो बंधइ णिभंतु।" याका अर्थ- जो जीव बंध्या अर मुक्त भया माने है, सो निःसन्देह बंधे है ताको कहिए है- जे जीव केवल पर्यायदृष्टि होय बन्ध मुक्त अवस्था ही को मानै हैं, द्रव्य स्वभाव का ग्रहण नाहीं करै हैं, तिनको ऐसा उपदेश दिया है, जो द्रव्य-स्वभाव को न जानता जीव बंध्या मुक्त भया माने, सो बंधै है। बहुरि जो सर्वथा ही बन्ध मुक्ति न होय, तो सो जीव बंधै है, ऐसा काहेको कहै। अर बन्ध के नाश का, मुक्त होने का उद्यम काहेको करिए है। काहेको आत्मानुभव करिये है। तात द्रव्यदृष्टि करि एक दशा है, पर्यायदृष्टिकरि अनेक अवस्था हो है, ऐसा मानना योग्य है।
अपेक्षा न समझने से मिथ्याप्रवृत्ति ऐसे ही अनेकप्रकारकरि केवल निश्चय नय का अभिप्रायतें विरुद्ध श्रद्धानादिक करै है। जिनवाणीविषै तो नाना नय अपेक्षा कहीं कैसा कहीं कैसा निरूपण किया है। यह अपने अभिप्रायत निश्चयनय की मुख्यताकरि जो कथन किया होय, ताहीको अहिकरि मिथ्यादृष्टि को धारै है। बहुरि जिनवाणी विषै तो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की एकता भए मोक्षमार्ग कह्या है। सो याकै सम्यग्दर्शन ज्ञान विषै सप्ततत्त्वनिका प्रद्धान वा जानना भया चाहिए, सो तिनका विचार नाहीं। अर चारित्रविर्ष रागादिक दूरि किया चाहिए, ताका उद्यम नाहीं। एक अपने आत्मा को शुद्ध अनुभवना इसहीको मोक्षमार्ग जानि सन्तुष्ट भया है। ताका अभ्यास करने को अंतरंगविषै ऐसा चितवन किया करै है- मैं सिख समान शुद्ध हूँ, केवलज्ञानादि सहित हूँ, द्रव्यकर्म नोकर्म रहित हूँ, परमानन्दमय हूँ, जन्म-मरणादि दुःख मेरे नाही, इत्यादि चितवन कर है। सो यहाँ पूछिए है- यहु चितवन जो द्रव्यदृष्टिकरि करो हो, तो द्रव्य तो शुख अशुद्ध सर्वपर्यायनिका समुदाय
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१६४
है। तुम शुद्ध ही अनुभवन काहेको करो हो। अर पर्यायदृष्टि करि करो हो, तो तुम्हारे तो वर्तमान अशुख पर्याय है। तुम आपको शुद्ध कैसे मानो हो? बहुरि जो शक्ति अपेक्षा शुद्ध मानो हो, तो मैं ऐसा होने योग्य हूँ ऐसा मानो। मैं ऐसा हूँ ऐसे काहेको मानो हो। तातें आपको शुखरूप चिंतवन करना प्रम है। काहेते- तुम आपको सिद्धसमान मान्या, तो यहु संसार अवस्था कौनकी है। अर तुम्हारै केवलज्ञानादिक हैं, तो ये मतिज्ञानादिक कौनके हैं। अर द्रव्यकर्म नोकर्मरहित हो, तो ज्ञानादिककी व्यक्तता क्यों नहीं? परमानन्दमय हो, तो अब कर्त्तव्य कहा रह्या? जन्म - मरणादि दुःख ही नाही, तो दुःखी कैसे होते हो? तातै अन्य अवस्थाविषै अन्य अवस्था मानना भ्रम है।
यहाँ कोऊ कहै- शास्त्रविषै शुद्ध चितवन करनेका उपदेश कैसे दिया है?
ताका उत्तर- एक तो द्रव्य अपेक्षा शुद्धपना है, एक पर्याय अपेक्षा शुद्धपना है। तहाँ द्रव्यअपेक्षा तो परद्रव्यतै भिन्नपनो वा अपने भावनित अभिन्नपनो ताका नाम शुद्धपना है। अर पर्यायअपेक्षा
औपाधिकभावनिनाः अभाव होग, जाका नाममा मुद्धाना है । सो शुद्ध चितवनविष द्रव्य अपेक्षा शुखपना ग्रहण किया है। सोई समयसारव्याख्या विषै कह्या हैएष एयाशेषद्रव्यान्तरभायेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध इत्यभिलप्यते।
(समयसार आत्मख्याति टीका गाथा. ६) याका अर्थ-जो आत्मा प्रमत्त अप्रमत्त नाहीं है, सो यहु ही समस्त परद्रव्यनिके भावनित भिन्नपनेकरि सेया हुआ शुद्ध ऐसा कहिए है। बहुरि तहाँ ही ऐसा कह्या है। सकलकारकचक्रप्रक्रियोत्तीर्णनिर्मलानुभूतिमात्रत्वाच्छुद्धः।
(समयसार आत्मख्याति टीका गाथा, ७३) याका अर्थ- समस्त ही कर्ता कर्म आदि कारकनिका समूहकी प्रक्रियातें पारंगत ऐसी जो निर्मल अनुभूति जो अभेद ज्ञान तन्मात्र है, तातै शुद्ध है।
ताते ऐसे शुद्ध शब्द का अर्थ जानना। बहुरि ऐसे ही केवल शब्द का अर्थ जानना। जो परमावत मिन्न निष्केवल आप ही ताका नाम केवल है। ऐसे ही अन्य यथार्थ अर्थ अवधारना। पर्याय अपेक्षा शुद्धपनो माने वा केवली आपको माने महाविपरीत होय। तातें आपको द्रव्यपर्यायरूप अवलोकना। द्रव्यकरि सामान्यस्वरूप अवलोकना, पर्यायकरि अवस्था विशेष अवधारना । ऐसे ही चिंतवन किए सम्यग्दृष्टी हो है। जाते साँचा अवलोके बिना सम्यग्दृष्टी कैसे नाम पावै ।
शास्त्राभ्यास की निरर्थकता का निषेध बहुरि मोक्षमार्गविषै तो रागादिक मेटनेका श्रद्धान ज्ञान आचरण करना है सो तो विचार ही नाही। आपका शुद्ध अनुभवनते ही आपको सम्यग्दृष्टी मानि अन्य सर्व साधननिका निषेध करै है; शास्त्र अभ्यास करना निरर्थक बताये है, द्रव्यादिकका वा गुणस्थान मार्गणा त्रिलोकादिका विचारको विकल्प ठहरादै है,
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सातवाँ अधिकार - १६५
तपश्चरण करना वृथा क्लेश करना मान है, व्रतादिकका थारना बंधनमें परना ठहरावे है, पूजनादि कार्यनिको शुभास्रव जानि हेय प्ररूपै है; इत्यादि सर्व साधनको उठाय प्रमादी होय परिणमे है। सो शास्त्राभ्यास निरर्थक होय तो मुनिनकै भी तो ध्यान अध्ययन दोय ही कार्य मुख्य हैं । ध्यानविषे उपयोग न लागे, तब अध्ययनहीविषै उपयोगकूं लगाये है, अन्य ठिकाना बीच में उपयोग लगावने योग्य है नाहीं । बहुरि शास्त्र अभ्यासकार तत्त्वनिका विशेष जाननेतें सम्यग्दर्शन ज्ञान निर्मल होय । बहुरि तहाँ यावत् उपयोग रहै, तावत् कषाय मन्द रहे । बहुरि आगामी वीतरागभावनिकी वृद्धि होय। ऐसे कार्यको निरर्थक कैसे मानिए ?
बहुरि वह कहै है- जो जिनशास्त्रनिविषै अध्यात्म उपदेश है, तिनि का अभ्यास करना, अन्य शास्त्रनिका अभ्यासकरि किछू सिद्धि नाहीं ।
ताको कहिए है- जो तेरै सांची दृष्टि भई है, तो सर्व ही जैन शास्त्र कार्यकारी हैं। तहाँ भी मुख्यपने अध्यात्म शास्त्रनिविषै तो आत्मस्वरूपका मुख्य कथन है सो सम्यग्दृष्टी भए आत्मस्वरूपका तो निर्णय होय चुकै, तब तो ज्ञान की निर्मलता के अर्थि वा उपयोग को मंद कषायरूप राखनेके अर्थि अन्य शास्त्रनिका अभ्यास मुख्य चाहिए। अर आत्मस्वरूपका निर्णय भया है, ताको स्पष्ट राखने के अर्थ अध्यात्मशास्त्रनिका भी अभ्यास चाहिए परन्तु अन्य शास्त्रनिविषे अरुचि तो न चाहिए। जाकै अन्य शास्त्रनिकै अरुचि है, तार्क अध्यात्मकी रुचि सांची नाहीं। जैसे जाकै विषयासक्तपना होय, सो विषयासक्त पुरुषनिकी कथा भी रुचितें सुनै वा विषयके विशेषको भी जाने वा विषयके आचरनविषै जो साधन होय ताको भी हितरूप मानै वा विषयका स्वरूपको भी पहिचाने। तैसे जाकै आत्मरुचि भई होय, सो आत्मरुचिके धारक तीर्थंकरादिक तिनका पुराण भी जाने । बहुरि आत्माके विशेष जाननेको गुणस्थानादिकको भी जानै । बहुरि आत्माचरणाविषै जे व्रतादिक साधन हैं, तिनको भी हितरूप मानै । बहुरि आत्माके स्वरूपको भी पहिचान । तातें चारयों ही अनुयोग कार्यकारी हैं। बहुरि तिनका नीका ज्ञान होनेके अर्थ शब्द न्यायशास्त्रादिकको भी जानना चाहिए। सो अपनी शक्तिके अनुसार सबनिका थोरा वा बहुत अभ्यास करना योग्य है ।
बहुरि वह कहे है, 'पद्मनन्दिपच्चीसी' विषै ऐसा कह्या है- जो आत्मस्वरूपत निकसि बाह्य शास्त्रनिविषै बुद्धिं विचरै है, सो वह बुद्धि व्यभिचारिणी है।
ताका उत्तर- यहु सत्य कह्या है। बुद्धि तो आत्माकी है, ताको छोरि परद्रव्य शास्त्रनिविषै अनुरागिणी भई, ताको व्यभिचारिणी ही कहिए। परन्तु जैसे स्त्री शीलवती रहे तो योग्य ही है अर न रह्या जाय तो उत्तम पुरुषको छोरि चांडालादिकका सेवन किए तो अत्यन्त निंदनीक होइ। तैसे बुद्धि आत्मस्वरूपविषै प्रवर्ते तो योग्य ही है अर न रह्या जाय तो प्रशस्त शास्त्रादि परद्रव्यको छोरि अप्रशस्त विषयादिविषै लगे तो महानिंदनीक ही होइ। सो मुनिनिकै भी स्वरूपविषे बहुत काल बुद्धि रहे नाहीं तो तेरी कैसे रह्या करे? तातें शास्त्राभ्यासविषै उपयोग लगावना युक्त है।
बहुरि जो द्रव्यादिकका था गुणस्थानादिकका विचारको विकल्प ठहरावे है, सो विकल्प तो है परंतु निर्विकल्प उपयोग न रहै तब इनि विकल्पनिको न करे तो अन्य विकल्प होइ, ते बहुत रागादि गर्भित हो
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१६६
हैं। बहुरि निर्विकल्प दशा सदा रहै नाहीं। जात छद्मस्थका उपयोग एकरूप उत्कृष्ट रहै तो अन्तर्मुहूर्त रहे। बहुरि तू कहेगा- मैं आत्मस्वरूप ही का चितवन अनेक प्रकार किया करूंगा, सो सामान्य चितवनविषे तो अनेक प्रकार बनै नाहीं। अर विशेष करेगा, तब द्रव्य गुण पर्याय गुणस्थान मार्गणा शुद्ध अशुद्ध अवस्था इत्यादि विचार होयगा। बहुरि सुनि केवल आत्मज्ञानहीत तो मोक्षमार्ग होइ नाही । सप्ततत्त्वनिका श्रद्धान ज्ञान भए वा रागादिक दूरि किए मोक्षमार्ग होगा। सो सप्त तत्त्वनिका विशेष जानने को जीव अजीवके विशेष वा कर्मके आस्रव बंधादिकका विशेष अवश्य जानना योग्य है, जानें सम्यग्दर्शन ज्ञानकी प्राप्ति होय। बहुरि तहाँ पीग्दै कानिक दूरि का हो । यो के गागादिक भावने के कारण तिनको छोड़ि जे रागादिक घटावने के कारण होय तहाँ उपयोगको लगावना। सो द्रव्यादिकका गुणस्थानादिकका विचार रागादिक घटावनेको कारण है। इन विषै कोई रागादिकका निमित्त नाहीं। तारौं सम्यग्दृष्टी भए पीछैभी इहाँ ही उपयोग लगावना।
बहुरि वह कहै है- रागादि मिटावनेको कारण होय तिनविषे तो उपयोग लगावना परन्तु त्रिलोकवर्ती जीवनिका गति आदि विचार करना वा कर्मका बंध उदय सत्तादिक का घणा विशेष जानना वा त्रिलोकका आकार प्रमाणादिक जानना इत्यादि विचार कौन कार्यकारी है?
ताका उत्तर- इनिको भी विचार रागादिक बधते नाहीं । जाते ए ज्ञेय याकै इष्ट अनिष्टरूप हैं नाहीं। तातें वर्तमान रागादिकको कारण नाहीं । बहुरि इनको विशेष जाने ।त्वज्ञान निर्मल होय, तातै आगामी रागादिक घटाबनेको ही कारण हैं। तातें कार्यकारी हैं।
बहुरि दह कहै है- स्वर्ग-नरकादिकको जाने तहाँ रागद्वेष हो है।
ताका समायान- ज्ञानीकै तो ऐसी बुद्धि होइ नाहीं, अज्ञानीकै होय! तहां पाप छोरि पुण्यकार्यविष लागे तहाँ किछू रागादिक घटै ही हैं।
बहुरि वह कहै है- शास्त्रविर्ष ऐसा उपदेश है, प्रयोजनभूत थोरा ही जानना कार्यकारी है तातें बहुत विकल्प काहेको कीजिए।
ताका उत्तर- जे जीव अन्य बहुत जानै अर प्रयोजनभूतको न जानै अथवा जिनकी बहुत जानने की शक्ति नाही, तिनको यह उपदेश दिया है। बहुरि जाकी बहुत जाननेकी शक्ति होय, ताको तो यह कह्या नाहीं जो बहुत जाने बुरा होगा। जेता बहुत जानेगा, तितना प्रयोजनभूत जानना निर्मल होगा। जाते शास्त्रविषै ऐसा कह्या है
- सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भयेत् याका अर्थ- यहु सामान्य शास्त्रनै विशेष बलवान है। विशेषहीत नीके निर्णय हो है तातै विशेष जानना योग्य है।
तपश्चरण वृथा क्लेश नहीं है बहुरि यह तपश्चरणको वृथा क्लेश ठेहरावै है। सो मोक्षमार्गी भए तो संसारी जीवनित उलटी
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सातवाँ अधिकार-१७
परणति चाहिए। संसारीनिकै इष्ट अनिष्ट सामग्रीतें रागद्वेष हो है, याकै रागद्वेष न चाहिए। तहाँ राग छोड़नेके अर्थि इष्ट सामग्री भोजनादिकका त्यागी हो है अर द्वेष छोड़नेके अर्थि अनिष्ट सामग्री अनशनादिक ताका अंगीकार करै है। स्वाधीनपने ऐसा साधन होय तो पराधीन इष्ट अनिष्ट सामग्री मिले भी राग द्वेष न होय। सो चाहिए तो ऐसे अर तेरे अनशनादित द्वेष भया, ताक् ताको क्लेश ठहराया। जब यहु क्लेश भया, तब भोजन करना सुख स्वयमेव ठहत्या, तहाँ राग आया; तो ऐसी परिणति तो संसारीनिकै पाईएही है, तैं मोक्षमार्गी होय कहा किया।
बहुरि जो तू कहेगा, केई सम्यग्दृष्टी भी तपश्चरण नाहीं करै हैं।
ताका उत्तर- यहु कारण विशेषर्ते तप न होय सकै है परन्तु श्रद्धानविषै तो तपको भला जाने हैं। ताके साधनका उद्यम राखै हैं। तेरे तो श्रद्धान यहु है, तप करना क्लेश है। बहुरि तपका तेरे उद्यम नाही, तातै तेरे सम्यग्दृष्टि कैसे होय?
बहुरि वह कहै है- शास्त्रविषै ऐसा कया है तब आदिका क्लेश करै है तो करो, ज्ञान बिना सिद्धि
नाहीं।
ताका उत्तर- यहु जे जीव तत्त्वज्ञानते तो पराङ्मुख हैं, तपहीतैं मोक्ष माने हैं, तिनको रेसा उपदेश दिया है, तत्त्वज्ञान बिना केवल तपहीत मोक्षमार्ग न होय। बहुरि तत्त्वज्ञान भए रागादिक मेटने के अर्थि तपकरनेका तो निषेध है नाहीं। जो निषेध होय तो गणधरादिक तप काहेको करैं। तातें अपनी शक्ति
अनुसारि तप करना योग्य है । बहुरि वह व्रतादिकको बंधन माने है। सा स्वच्छन्दवृत्ति तो अज्ञान-अवस्थाही विर्षे थी, ज्ञान पाए तो परिणतिको रोकै ही है। बहुरि तिस परिणति रोकने के अर्थि बाह्य हिंसादिक कारणनिका त्यागी अवश्य भया चाहिए।
बहुरि वह कहै है- हमारे परिणाम तो शुद्ध हैं, बाह्य त्याग न किया तो न किया।
ताका उत्तर- जे ए हिंसादि कार्य तेरे परिणाम बिना स्वयमेव होते होंय, तो हम ऐसे नानैं । बहुरि जो तू अपना परिणामकरि कार्य करै, तहाँ तेरे परिणाम शुद्ध कैसे कहिए। विषयसेवनादि क्रिया वा प्रमादरूप गमनादि क्रिया परिणाम बिना कैसे होय। सो क्रिया तो आप उद्यमी होय तू करै अर वहाँ हिंसादिक होय ताको तू गिनै नाही, परिणाम शुद्ध मान। सो ऐसो मानि” तेरे परिणाम अशुद्ध ही रहेंगे।
प्रतिज्ञा न लेने का निषेध बहुरि वह कहै है- परिणामनिको रोकिए बाह्य हिंसादिक भी घटाईए; परन्तु प्रतिज्ञा करने में बन्धन हो है, तातै प्रतिज्ञारूप व्रत नाहीं अंगीकार करना।
ताका समाधान- जिस कार्य करनेकी आशा रहै है, ताकी प्रतिज्ञा न लीजिए है। अर आशा रहै तिसत राग रहे है। तिस रागभावः बिना कार्य किए भी अविरतिते कर्मका बन्ध हुवा करै। तातें प्रतिज्ञा अवश्य करनी युक्त है। अर कार्य करनेका बंधन भए बिना परिणाम कैसे रुकेंगे, प्रयोजन पड़े तद्रूप परिणाम होय ही होय वा बिना प्रयोजन पड़े ताकी आशा रहै। तातै प्रतिज्ञा करनी युक्त है।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - १६८
बहुरि वह कहै है- न जानिए कैसा उदय आवे, पीछे प्रतिज्ञाभंग होय तो महापाप लागे । तातें प्रारब्ध अनुसारि कार्य बने सो बनो, प्रतिज्ञाका विकल्प न करना ।
ताका समाधान प्रतिज्ञा ग्रहण करते जाका निर्वाह होता न जानै, तिस प्रतिज्ञाको तो करे नाहीं । प्रतिज्ञा लेते ही यहु अभिप्राय रहे, प्रयोजन पड़े छोड़ि दूंगा, तो वह प्रतिज्ञा कौन कार्यकारी भई । अर प्रतिज्ञा ग्रहण करतैं तो यहु परिणाम है, मरणांत भए भी न छोडूंगा तो ऐसी प्रतिज्ञा करनी युक्त ही है। बिना प्रतिज्ञा किए अविरत सम्बन्धी बंध मिटै नाहीं। बहुरि आगामी उदयका भयकरि प्रतिज्ञा न लीजिए सो उदयको विचारे सर्व ही कर्त्तव्यका नाश होय । जैसे आपको पचता जाने, तितना भोजन करें, कदाचित् काहूकै भोजन अजीर्ण भया होय तो तिस भयतें भोजन करना छांडै तो मरण ही होय । तैसे आपके निर्वाह होता जाने तितनी प्रतिज्ञा करे, कदाचित् काहूकै प्रतिज्ञातें भ्रष्टपना भया होय, तो तिस भय प्रतिज्ञा करनी छांडै तो असंयम ही होय । तातै बने सो प्रतिज्ञा लेनी युक्त है। बहुरि प्रारब्ध अनुसारि तो कार्य बने ही है, तू उद्यमी होय भोजनादि काहेको करे है। जो तहाँ उद्यम करे है, तो त्याग करने का भी उधम करना युक्त ही है। जब प्रतिमावत् तेरी दशा होय जायगी, तब हम प्रारब्ध ही मानेंगे, तेरा कर्तव्य न मानेंगे। तार्तें काहेको स्वच्छन्द होनेकी युक्ति बनाये है। बनै सो प्रतिज्ञाकरि व्रत धारना योग्य ही है।
शुभोपयोग सर्वथा हेय नहीं है
बहुरि वह पूजनादि कार्यको शुभात्रय जानि हेय माने है सो यहु सत्य ही है । परन्तु जो इनि कार्यनिको छोरि शुद्धोपयोगरूप होय तो भले ही है अर विषय कषायरूप अशुभरूप प्रवर्ते तो अपना बुरा ही किया । शुभोर्पयोग स्वर्गादि होय वा भली वासनात या भला निमित्ततें कर्मका स्थितिअनुभाग घटि जाय तो सम्यक्त्वादिककी भी प्राप्ति होय जाय। बहुरि अशुभोपयोग नरक निगोदादि होय वा बुरी वासना वा बुरा निमित्ततें कर्मका स्थिति अनुभाग बधि जाय, तो सम्यक्त्वादिक महादुर्लभ होय जाय । बहुरि शुभोपयोग होतें कषाय मंद हो है, अशुभोपयोगहोतें तीव्र हो है। सो मंदकषायका कार्य छोरि तीव्रकषाय का कार्य करना तो ऐसा है, जैसे कड़वी वस्तु न खानी अर विष खाना । सो यहु अज्ञानता है ।
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बहुरि वह कहे है- शास्त्र विषै शुभ अशुभको समान कया है, तार्ते हमको तो विशेष जानना युक्त
नाहीं ।
ताका समाधान - जे जीव शुभोपयोगको मोक्षका कारण मानि उपादेय माने हैं, शुद्धोपयोगको नहीं पहिचान हैं, तिनको शुभ अशुभ दोऊनिको अशुद्धताकी अपेक्षा वा बंधकारणकी अपेक्षा समान दिखाए हैं। बहुरि शुभ अशुभनिका परस्पर विचार कीजिए, तो शुभ भावनि विषै कषायमंद हो है, तातें बंध हीन हो है। अशुभ भावनिविषै कषाय तीव्र हो है, तातैं बंध बहुत हो है । ऐसे विचार किए अशुभकी अपेक्षा सिद्धान्तविषै शुभको भला भी कहिए है। जैसे रोग तो धोरा वा बहुत बुरा ही है परन्तु बहुत रोगकी अपेक्षा थोरा रोगको भला भी कहिए है । तातै शुद्धोपयोग नाहीं होय, तब अशुभतें छूटि शुभविषे प्रवर्त्तना युक्त है। शुभको छोरि अशुभविषे प्रवर्त्तना युक्त नाहीं ।
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सातवाँ अधिकार-१६६
..-...-- - बहुरि वह कहै है- जो कामादिक वा क्षुधादिक मिटावनेको अशुभरूप प्रवृत्ति तो भए बिना रहती नाहीं अर शुभप्रवृत्ति चाहिकरि करनी पर है, ज्ञानीकै चाह चाहिए नाहीं; तातै शुभका उद्यम नाहीं करना।
ताका उत्तर- शुभप्रवृत्तिविषै उपयोग लागनेकरि वा ताके निमित्तः विरागता बधनेकरि कामादिक हीन हो हैं अर क्षुधादिकविषै भी संक्लेश थोरा हो. है। तातै शुभोपयोगका अभ्यास करना। उद्यम किए भी जो कामादिक वा क्षुधादिक पीडै हैं तो ताकै अर्थि जैसे थोरा पाप लागै सो करना। बहुरि शुभोपयोगको छोरि निशंक पापरूप प्रवर्त्तना तो युक्त नाहीं। बहुरि तू कहै है- ज्ञानीकै चाहि नाही अर शुभोपयोग चाहि किए हो है सो जैसे पुरुष किंचिन्मात्र भी अपना धन दिया चाहै नाहीं परन्तु जहाँ बहुत द्रव्य जाता जाने, तहाँ चाहिकरि स्तोक द्रव्य देनेका उपाय करै है। तैसे ज्ञानी किंचिन्मात्र भी कषायरूप कार्य किया चाहै नाहीं परन्तु जहाँ बहुत कषायरूप अशुभ कार्य होता जानै तहाँ चाहिकरि स्तोक कषायरूप शुभ कार्य करनेका उद्यम करै है। ऐसे यह बात सिद्ध मई-जहाँ शुद्धोपयोग होता जाने, तहाँ तो शुभ कार्यका निषेध ही है अर जहाँ अशुभोपयोग होता जानै, तहाँ शुभको उपायकार अंगीकार करना युक्त है। या प्रकार अनेक व्यवहारकार्यको उथापि स्वच्छन्दपनाको स्थापै है, ताका निषेध किया।
अब तिस ही केवल निश्चयावलम्बी जीयकी प्रवृत्ति दिखाइए है
एक शुद्धात्माको जाने झानी हो है, अन्य किछू चाहिए नाहीं। ऐसा जानि कबहूं एकांत तिष्ठिकरि ध्यानि मुद्रा पारि मैं सर्वकर्म उपाधिरहित सिख समान आत्मा हूँ इत्यादि विचारकरि सन्तुष्ट हो है। सो ए विशेषण कैसे संभवै, ऐसा विचार नाहीं। अथवा अचल अखंड अनौपम्यादि विशेषण करि आत्माको ध्यावै है, सो ए विशेषण अन्य द्रव्यनिविषै भी सम्भव है। बहुरि ए विशेषण किस अपेक्षा है, सो विचार नाहीं । बहुरि कदाचित् सूता बैट्या जिस तिस अवस्थाविषै ऐसा विचार राखि आपको ज्ञानी मानै है। बहुरि ज्ञानी के आस्रव बन्ध नाहीं ऐसा आगमविषे कह्या है तातें कदाचित् विषयकषायरूप हो है। तहाँ बंध होनेका भय नाहीं है, स्वच्छन्द भया रागादिरूप प्रवत्र्त है। सो आपा-परको जाननेका तो चिह्न वैराग्यभाव है सो समयसारविषै कह्या है
“सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः।" याका अर्थ-यहु सम्यग्दृष्टीकै निश्चयसों ज्ञानवैराग्य शक्ति होय । बहुरि कह्या है
सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बन्धो न मे स्यादित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु। आलम्बन्ता समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा
आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्यरिक्ताः।।१३७।। १. सम्यग्दृष्टेभवति नियतं ज्ञान - वैराग्यशक्तिः,
एवं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या । यस्माजात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च, स्वस्मिन्नास्ते घिरमति परात्सर्वतो रागयोगात ।। निर्जरा. कलश १३६।।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक १७०
याका अर्थ- स्वयमेव यहु मैं सम्यग्दृष्टी हूँ, मेरे कदाचित् बंध नाहीं, ऐसे ऊँचा फुलाया है मुख जिनने ऐसे रागी वैराग्य शक्ति रहित भी आचरण करें हैं तो करो, बहुरि पंचसमिति की सावधानीको अवलम्बै है तो अक्लम्बो, जातैं वे ज्ञान शक्ति बिना अजहूं पापी ही हैं। ए दोऊ आत्मा अनानाका ज्ञानरहितपना सम्यक्त्वरहित ही हैं।
बहुरि पूछिए है- परको पर जान्या, तो परद्रव्यचिषै रागादि करने का कहा प्रयोजन रहा? तहाँ वह कहै है - मोहके उदयतें रागादि हो हैं । पूर्वे भरतादिक ज्ञानी भए, तिनकै भी विषय - कषाय रूप कार्य भया सुनिये है।
ताका उत्तर- ज्ञानीकै भी मोहके उदयतै रागादिक हो हैं- यहु सत्य परन्तु बुद्धिपूर्वक रागादिक होते नाहीं । सो विशेष वर्णन आगे करेंगे। बहुरि जाकै रागादिक होनेका किछू विषाद नाहीं, तिनके नाशका उपाय नाहीं, ताकै रागादिक बुरे हैं ऐसा श्रद्धान भी नाहीं सम्भव है। ऐसे श्रद्धान बिना सम्यग्दृष्टी कैसे होय ? जीवाजीयादि तत्त्वनिके श्रद्धान करनेका प्रयोजन तो इतना ही श्रद्धान है। बहुरि भरतादिक सम्यग्दृष्टीनिकै विषय कषायकी प्रवृत्ति जैसे हो है, सो भी विशेष आगे कहेंगे। तू उनका उदाहरणकरि स्वच्छन्द होगा तो तेरे तीव्र आस्त्रव बंध होगा। सोई कला है
मखाज्ञावनयैषिरि यदि से स्वच्छन्दमन्दोधनाः ।
याका अर्थ - यहु ज्ञाननयके अवलोकनहारे भी जे स्वच्छन्द मंद उद्यमी हो हैं, ते संसारविषे डूबैं और भी तहाँ “ ज्ञानिनः कर्म्म न जातु कर्तुमुचितं” - इत्यादि कलशाविषे या " तथापि न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनः " - इत्यादि कलशा विषै स्वच्छन्द होना निषेध्या है। बिना चाहि जो कार्य होय सो कर्मबन्धका कारण नाहीं । अभिप्रायतें कर्त्ता होय करै अर ज्ञाता रहे, यहु तो बनै नाहीं; इत्यादि निरूपण किया है। तातें रागादिक बुरे अहितकारी जानि तिनका नाशके अर्थ उद्यम राखना। तहाँ अनुक्रमविषै पहले तीव्ररागादिक छोड़ने के अर्थि अशुभ कार्य छोरि शुभ विषै लागना, पीछे मंदरागादि भी छोड़ने के अर्थि शुभको भी छोरि शुद्धोपयोगरूप होना ।
बहुरि केई जीव अशुभविषै क्लेश मानि व्यापारादि कार्य वा स्त्रीसेवनादि कार्यनिको भी घटावे हैं। बहुरि शुभको हेय जानि शास्त्राभ्यासादि कार्यनिविषै नाहीं प्रवर्ते हैं। वीतराग भाव रूप शुद्धोपयोगको प्राप्त भए नाहीं, ते जीव अर्थ काम धर्म्म मोक्षरूप पुरुषार्थतें रहित होते संते आलसी निरुद्यमी हो हैं। तिनकी निन्दा पंचास्तिकायकी व्याख्या विषै कीनी है । तिनको दृष्टांत दिया है - जैसे बहुत खीर खांड खाय पुरुष आलसी हो है वा जैसे वृक्ष निरुद्यमी हैं, तैसे ते जीव आलसी निरुद्यमी भए हैं।
भग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति ये, मग्नाः ज्ञाननयैषिणोपि यदि ते स्वच्छन्दमन्दोद्यमाः । विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं, ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च ॥
- समयसार कलश १११
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सातवाँ अधिकार- १७१
अब इनको पूछिए है- तुम बाह्य तो शुभ अशुभकार्यनिको घटाया परन्तु उपयोग तो आलम्बन बिना रहता नाहीं, सो तुम्हारा उपयोग कहां रहे है, सो कहो। जो वह कहै - आत्माका चिंतवन करै है, तो शास्त्रादि करि अनेक प्रकार आत्माका विचारको तो तुम विकल्प ठहराया अर कोई विशेषण आत्माका जानने में बहुतकाल लागै नाहीं । बारम्बार एकरूप चितवनविषै छद्मस्थका उपयोग लगता नाहीं । गणधरादिकका भी उपयोग ऐसे न रहि सकै, तातैं वे भी शास्त्रादि कार्यनिविषै प्रवर्ते हैं। तेरा उपयोग गणधरादिकतें भी कैसे शुद्ध भया मानिए । तातैं तेरा कहना प्रमाण नाहीं ।
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जैसे कोऊ व्यापारादिविषै निरुद्यमी होय टाला जैसे तैसे काल गुमावै, तैसे तू धर्म विषै निरुद्यमी हो प्रमादी यूँही काल गमावै है। कबहूँ किछू चिंतवनसा करै, कबहूँ बातैं बनावे, कबहूँ भोजनादि करे, अपना उपयोग निर्मल करनेको शास्त्राभ्यास तपश्चरण भक्ति आदि कार्यनिविषै प्रवर्त्तता नाहीं सुनासा होय प्रमादी होनेका नाम शुद्धोपयोग ठहराय, तहाँ क्लेश घोरा होनेते जैसे कोई आलसी होय परमा रहने में सुख माने, तैसे आनन्द माने है। अथवा जैसे सुपने विषै आपको राजा मानि सुखी होय, तैसे आपको भ्रमतें सिद्ध समान शुद्ध मानि आप ही आनन्दित हो है । अथवा जैसे कहीं रति मानि सुखी हो है, तैसे किछू विचार करने विषे रति मानि सुखी होय, ताको अनुभवजनित आनंद कहै है ।
बहुरि जैसे कहीं अरति मानि उदास होय, तैसे व्यापारादिक पुत्रादिकको खेदका कारण जानि तिनतें उदास रहे है, ताको वैराग्य या है। सो ऐसा ज्ञान-वैराग्य तो कषायगर्भित है । जो वीतरागरूप उदासीन दशाविषे निराकुलता होय, सो सांचा आनन्द, ज्ञान, वैराग्य ज्ञानी जीवनिकै चारित्रमोहकी हीनता भए प्रगट हो है । बहुरि वह व्यापारादि क्लेश छोड़ि यथेष्ट भोजनादिकरि सुखी हुवा प्रवत्ते है। आपको तहाँ कषायरहित माने है, सो ऐसे आनन्दरूप भए तो रौद्रध्यान हो है । जहाँ सुख -सामग्री छोड़ि दुख सामग्री का संयोग भए संक्लेश न होय, रागद्वेष न उपजै, तब निःकषाय भाव हो है। ऐसे भ्रमरूप तिनकी प्रवृत्ति पाईए है। या प्रकार जे जीव केवल निश्चयाभास के अवलम्बी हैं, ते मिथ्यादृष्टी जानने। जैसे वेदांती वा सांख्यम्मतवाले जीव केवल शुद्धात्मा श्रद्धानी हैं तैसे ए भी जानने। जाते श्रद्धानकी समानताकरि उनका उपदेश इनको इष्ट लाग है, इनका उपदेश उनको इष्ट लागे है ।
स्वद्रव्य और परद्रव्य के चिन्तन से निर्जरा और बंध का निषेध
बहुरि तिन जीवनिकै ऐसा श्रद्धान है- जो केवल शुद्धात्मा का चिंतवनतें तो संवर निर्जरा हो है वा मुक्तात्माका सुख का अंश तहां प्रगट हो है। बहुरि जीव के गुणस्थानादि अशुद्ध भावनिका वा आप बिना अन्य जीव पुद्गलादिकका चिंतयन किए आस्रव बन्ध हो है । तातें अन्य विचारतें पराङ्मुख रहे हैं। सो यहु भी सत्य श्रद्धान नाहीं जातें शुद्ध स्वद्रव्यका चितवन करो वा अन्य चिंतवन करो; जो वीतरागता लिये भाव होय, तो तहाँ संवर निर्जरा ही है बहुरि जहाँ रागादिरूप भाव होय, तहां आम्रव बंध ही है। जो परद्रव्य के जाननेही आम्रवबन्ध होय तो केवली तो समस्त परद्रव्य को जाने है, तिनकै भी आस्रव बन्ध हो है । बहुरि वह कहै है- जो छद्मस्थके परद्रव्य चिंतवन होत आस्रव बन्ध हो है । सो भी नाहीं, जातै शुक्ल ध्यानविषै भी मुनिनिकै छहों द्रव्यनिका द्रव्यगुण पर्यायका चिंतवन होना निरूपण किया
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मोक्षमार्ग प्रकाशक- १७२
है वा अवधिमनःपर्ययादिविषै परद्रव्य के जाननेही की विशेषता हो है। बहुरि चौथा गुणस्थानविषै कोई अपने स्वरूपका चिंतन करे है, ताकै भी आस्रवबन्ध अधिक है वा गुणश्रेणी निर्जरा नाहीं है। पंचम षष्टम गुणस्थानविषै आहार विहारादि क्रिया हो परद्रव्य चितवनतें भी आस्रव बन्ध थोरा हो है वा गुणश्रेणी निर्जरा हुवा करे है। तातैं स्वद्रव्य परद्रव्यका चिंतवनतें निर्जरा बंध नाहीं । रागादिक घंटे निर्जरा है, रागादिक भए बन्ध है। ताको रागादिकके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान नाहीं, तार्ते अन्यथा मान है।
प्रमाण निपादिका वा दर्शन
तहाँ यह पूछे है कि ऐसे है तो निर्निकला अनुभव ज्ञानादिकका भी विकल्प का निषेध किया है, सो कैसे है?
ताका उत्तर- जे जीव इनही विकल्पनिविषै लगि रहे हैं, अभेदरूप एक आपको अनुभव नाहीं हैं, तिनको ऐसा उपदेश दिया है, जो ए सर्व विकल्प वस्तुका निश्चय करने को कारण हैं। वस्तु का निश्चय भये इनका प्रयोजन किछू रहता नाहीं । तातें इन विकल्पनिको भी छोड़ि अभेदरूप एक आत्मा का अनुभव करना । इनिके विचाररूप विकल्पनि ही विषै फँसि रहना योग्य नाहीं । बहुरि वस्तु का निश्चय भए पीछे ऐसा नाहीं, जो सामान्यरूप स्वद्रव्यहीका चिंतवन रह्या करे। स्वद्रव्यका वा परद्रव्यका सामान्यरूप या विशेषरूप जानना होय परन्तु वीतरागता लिये होय, तिसहीका नाम निर्विकल्प दशा है।
तहाँ वह पूछें है- यहाँ तो बहुत विकल्प भए, निर्विकल्प संज्ञा कैसे सम्भवै?
ताका उत्तर निर्विचार होने का नाम निर्विकल्प नाहीं है । जातै छद्मस्थ के जानना विचार लिये है। ताका अभाव माने ज्ञानका अभाव होय, तब जड़पना भया सो आत्माकै होता नाहीं । तातैं विचार तो रहे हैं, बहुरि जो कहिए, एक सामान्य का ही विचार रहता है, विशेष का नाहीं । तो सामान्य का विचार तो बहुत काल रहता नाहीं वा विशेष की अपेक्षा बिना सामान्य का स्वरूप भासता नाहीं । बहुरि कहिएआपहीका विचार रहता है पर का नाहीं, तो परविषै पर बुद्धि भए बिना आपविषे निजबुद्धि कैसे आये ? तहाँ वह कहे है, समयसारविषै ऐसा कहा है-
भाययेद् भेदविज्ञानमिदमच्छिन्न धारया | तावद्यायत्पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठितं । ।
( कलश १३० - संवर अधिकार )
याका अर्थ - यहु भेदविज्ञान तावत् निरन्तर भावना, यावत् परतें छूटि ज्ञान है सो ज्ञानविषै स्थित होय । तातें भेदविज्ञान छूटे पर का जानना मिटि जाय है। केवल आप ही को आप जान्या करे है ।
सो यहाँ तो यहु कया है- पूर्वे आपा पर को एक जाने था, पीछे जुदा जानने को भेदविज्ञान को तावत् भावना ही योग्य है, यावत् ज्ञान पर रूप को भिन्न जानि अपने ज्ञानस्वरूप ही विषे निश्चित होय ! पीछे भेद - विज्ञान करने का प्रयोजन रह्या नाहीं । स्वयमेव पर को पररूप, आपको आप रूप जान्या करे है । ऐसा नाहीं, जो परद्रव्य का जानना ही मिट जाय है । तातैं पर द्रव्य का जानना वा स्वद्रव्य का विशेष जानने का नाम विकल्प नाहीं है । तो कैसे है? सो कहिए है- राग-द्वेष के वशर्तें किसी ज्ञेय के जानने
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सातवाँ अधिकार-१७३
विष उपयोग लगावना, किसी ज्ञेय के जानने से छुड़ावना, ऐसे बार-बार उपयोग को प्रमावना, ताका नाम विकल्प है। बहुरि जहाँ वीतरागरूप होय जाको जाने है, ताको यथार्थ जानै है। अन्य अन्य ज्ञेय के जानने के अर्थि उपयोग को नाही प्रमायै है, तहाँ निर्विकल्पदशा जाननी।
यहाँ कोऊ कहै- छद्मस्थ का उपयोग तो नाना ज्ञेय विषै भ्रमै ही प्रमै। तहाँ निर्विकल्पता कैसे सम्भवै है?
ताका उत्तर- जेते काल एक जानने सप रहै, तावत् निर्विकल्प नाम पावै। सिद्धान्तविष ध्यान का लक्षण ऐसा ही किया है- “एकाषितानिरोधो ध्यानम्।”
एक का मुख्य चिंतवन होय अर अन्य चिंता रुके, ताका नाम ध्यान है। सर्वार्थसिद्धि सूत्र की टीका विषै यहु विशेष कह्या है- जो सर्व चिंता रुकने का नाम ध्यान होय तो अचेतनपनो होय जाय। बहुरि ऐसी भी विवक्षा है जो संतान अपेक्षा नाना ज्ञेय का भी जानना होय । परन्तु यावत् वीतरागता रहे, रागादिककार आप उपयोग को प्रमावे नाही, तावत् निर्विकल्पदशा कतिए है !
बहुरि वह कहै- ऐसे है तो परद्रव्यत छुड़ाय स्वरूपविषै उपयोग लगावने का उपदेश काहेको दिया
ताका समाधान- जो शुभ-अशुभ भावनिको कारण पर द्रव्य है, तिनविष उपयोग लगे जिनके रागद्वेष होइ आवै है अर स्वरूपचितवन करे तो रागद्वेष घटै है, ऐसे नीचली अवस्थाबारे जीवनिको पूर्वोक्त उपदेश है। जैसे कोऊ स्त्री विकारभावकार पर घर जाती थी, ताको मनै करी-पर घर मति जाय, घर में बैठि रहो। बहुरि जो स्त्री निर्विकार भावकारे काहूके घर जाय यथायोग्य प्रवते तो किछू दोष है नाहीं । तैसे उपयोगरूप परणति राग-द्वेष भावकार पर द्रव्यनिविष प्रवर्तं थी, ताको मनै करी-परद्रव्यनिविर्ष मति प्रवर्ते, स्वरूपविषे मग्न रहो। बहुरि जो उपयोगरूप परणति वीतरागभावकरि परद्रव्यको जानि यथायोग्य प्रवर्ते, तो किछू दोष है नाही।
बहुरि वह कई है- ऐसे है तो महामुनि परिग्रहादिक चिंतवनका त्याग काहेको करे हैं।
ताका समाधान- जैसे विकाररहित स्त्री कुशीलके कारण परधरनिका त्याग करै सैसे वीतराग परणति रागद्वेष के कारण परद्रव्यनिका त्याग करै है। बहुरि जे व्यभिचारके कारण नाहीं, ऐसे परघर जाने का त्याग है नाहीं। तैसे जे रागद्वेषको कारण नाहीं, ऐसे परद्रव्य जानने का त्याग है नाहीं।
बहुरि यह कहै है- जैसे जो स्त्री प्रयोजन जानि पितादिकके धरि जाय तो जायो, बिना प्रयोजन जिस तिसके घर जाना तो योग्य नाहीं। तैसे परणतिको प्रयोजन जानि सप्ततत्त्वनिका विचार करना, बिना प्रयोजन गुणस्थानादिकका विचार करना योग्य नाहीं।
ताका समायान- जैसे स्त्री प्रयोजन जानि पितादिक वा मित्रादिकके भी घर जाय तैसे परणति
१. "उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्” (तत्त्वार्थसूत्र ६-२७)
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - १७४
तत्त्वनिका विशेष जानने को कारण गुणस्थानादिक वा कम्र्म्मादिकको भी जानै । बहुरि तहाँ ऐसा जानना जैसे शीलवती स्त्री उद्यमकरि तो विटपुरुषनिके स्थान न जाय, जो परवश तहाँ जाना बनि जाय, तहाँ कुशील न सेयै तो स्त्री शीलवती ही है। सैसे वीतराग परणति उपायकरि तो रागादिकके कारण परद्रव्यनिविषै न लागे, जो स्वयमेव तिनका जानना होय जाय, तहां रागादिक न करे तो परणति शुद्ध ही है । तातैं स्त्री आदिकी परीषह मुनिनकै होय, तिनिको जानें ही नाहीं अपने स्वरूप ही का जानना रहे है. ऐसा मानना मिथ्या है। उनको जाने तो है परन्तु रागादिक नाहीं करे हैं। या प्रकार परद्रव्यको जानतें भी वीतरागभाव हो है, ऐसा श्रद्धान करना ।
बहुरि वह कहे है ऐसे है तो शास्त्रविषै, ऐसे कैसे कह्या है, जो आत्माका श्रद्धान ज्ञान आचरण सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र है ।
ताका समाधान - अनादितें परद्रव्यविषै आपका श्रद्धान ज्ञान आचरण था, ताके छुड़ावने को यहु उपदेश है। आपही विषै आपका श्रद्धान ज्ञान आचरण भए परद्रव्यविषै रागद्वेषादि परणति करनेका श्रद्धान या ज्ञान वा आचरन मिटि जाय, तब सम्यग्दर्शनादि हो है । जो परद्रव्यका परद्रव्यरूप श्रद्धानादि करने हैं सम्यग्दर्शनादि न होते होय, तो केवलीकै भी तिनका अभाव होय । जहाँ परद्रव्यको बुरा जानना, निज द्रव्य को भला जानना तहाँ तो रागद्वेष सहज ही भया। जहाँ आपको आपरूप परको पररूप यथार्थ जान्या करें, तैसे ही श्रद्धानादिरूप प्रवर्ते, तब ही सम्यग्दर्शनादि हो हैं, ऐसे जानना। तातैं बहुत कहा कहिए, जैसे रागादि मिटावने का श्रखान होय सो ही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। बहुरि जैसे रागादि मिटावने का जानना होइ सोई जानना सम्यग्ज्ञान है। बहुरि जैसे रागादि मिटे सोही आचरण सम्यक्चारित्र है। ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है । या प्रकार निश्चयनयका आभास लिये एकान्तपक्षके धारी जैनाभास तिनके मिध्यात्व का निरूपण किया।
केवल व्यवहारावलम्बी जैनाभास का निरूपण
अब व्यवहाराभास पक्षके धारक जैनाभासनिके मिथ्यात्वका निरूपण कीजिए है- जिनआगम विषे जहां व्यवहार की मुख्यताकरि उपदेश है, ताको मानि बाह्यसाधनादिक हीका श्रद्धानादिक करे है, तिनके सर्व धर्मके अंग अन्यथारूप होय मिथ्याभावको प्राप्त होय हैं सो विशेष कहिए हैं। यहां ऐसा जानि लेना; व्यवहार धर्म की प्रवृत्ति पुण्यबंध होय हैं, तातैं पापप्रवृत्ति अपेक्षा तो याका निषेध है नाहीं । परन्तु इहाँ जो जीव व्यवहार प्रवृत्ति ही करि सन्तुष्ट होय, सांचा मोक्षमार्गविषै उद्यमी न होय है, ताको मोक्षमार्ग विषे सन्मुख करनेको तिस शुभरूप मिथ्याप्रवृत्तिका भी निषेधरूप निरूपण कीजिए है। जो यहु कथन कीजिए है, ताको सुनि जो शुभ प्रवृत्ति छोड़ि अशुभविषे प्रवृत्ति करोगे तो तुम्हारा बुरा होगा और जो यथार्थ श्रद्धान करि मोक्षमार्गविषै प्रवर्तोगे तो तुम्हारा भला होगा। जैसे कोऊ रोगी निर्गुण औषधिका निषेध सुनि औषधि साधन छोड़ि कुपथ्य करेगा तो वह मरेगा, वैद्य का किछू दोष नाहीं । तैसे कोउ संसारी पुण्यरूपधर्म का निषेध सुनि धर्मसाधन छोड़ि विषयकषायरूप प्रवर्तेगा, तो वह ही नरकादिविषै दुःख पावेगा । उपदेशदाताका तो दोष
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सातवाँ अधिकार- १७५
है नाहीं । उपदेश देनेवाले का तो अभिप्राय असत्य श्रद्धानादि छुड़ाय मोक्षमागविष लगावने का जानना। सो ऐसा अभिप्रायतें इहां निरूपण कीजिए है।
मुरल अपेक्षा धर्म मानने का निषेध तहाँ केई जीव तो कुलक्रमकारे ही जैनी हैं, जैनधर्मका स्वरूप जानते नाहीं। परन्तु कुलविष जैसी प्रवृत्ति चली आई, तैसे प्रवर्स हैं। सो जैसे अन्यमत्ती अपने कुलधर्मविषै प्रवर्त्त है, तैसे यह प्रवत् है। जो कुलक्रमहीतै धर्म होय, तो मुसलमान आदि सर्व ही धर्मात्मा होय । जैनधर्म का विशेष कहा रह्या? सोई कह्या
लोयम्मि रायणोई णायं ण कुलकमम्मि कइयादि। किं पुण तिलोयपहुणो जिणंदधम्माहिगारम्मि।।
(उप. सि. र. गाथा ७) याका अर्थ- लोकविषै यहु राजनीति है-कदाचित् कुलक्रमकरि न्याय नाहीं होय है। जाका कुल चोर होय, ताको चोरी करता पकरै तो वाफा कुलक्रम जानि छोड़े नाहीं, दंड ही दे। तो त्रिलोक प्रमु जिनेन्द्रदेवके धर्मका अधिकारविषे कहा कुलक्रम अनुसारि न्याय सम्भवै । बहुरि जो पिता दरिद्री होय आप धनवान होय, तहाँ तो कुलक्रम विचार आप दरिद्री रहता ही नाहीं तो धर्मविष कुलका कहा प्रयोजन है। बहुरि पिता नरक जाय पुत्र मोक्ष जाय, तहाँ कुलक्रम कैसे रह्या? जो कुल ऊपरि दृष्टि होय, तो पुत्र भी नरकगामी होय । ताते धर्मविषै कुलक्रमका किछू प्रयोजन नाहीं। शास्त्रनिका अर्थ विचारि जो कालदोष तैं जिनधर्म विषै भी पापी पुरुषनिकरि कुलदेव कुगुरु कुधर्म सेवनादिरूप वा विषय-कषाय पोषणादिरूप विपरीत प्रवृत्ति चलाई होय, ताका त्यागफरि जिनआज्ञा अनुसारि प्रवर्त्तना योग्य है।
इहाँ कोऊ कहै- परम्परा छोड़ि नवीन मार्गविर्षे प्रवर्तना युक्त नाहीं । ताको कहिए है
जो अपनी बुद्धिकरि नवीन मार्ग पकरै तो युक्त नाहीं। जो परम्परा अनादिनिधन जैनधर्मका स्वरूप शास्त्रनिविषै लिख्या है, ताकी प्रवृत्ति मेटि बीचिमें पापी पुरुषाँ अन्यथा प्रवृत्ति चलाई, तो ताको परम्परामार्ग कैसे कहिए । बहुरि ताको छोड़ि पुरातन जैनशास्त्रनिविषै जैसा धर्म लिख्या था तैसे प्रवर्ते, तो ताको नवीन मार्ग कैसे कहिए। बहुरि जो कुलविषै जिनदेवकी आज्ञा है, तैसे ही धर्म की प्रवृत्ति है, तो आपको भी तैसे ही प्रवर्त्तना योग्य है। परन्तु ताको कुलाचार न जानना, धर्म जानि ताके स्वरूप फलादिकका निश्चय करि अंगीकार करना । जो सांचा भी धर्मको कुलाचार जानि प्रवर्ते है तो बाको धर्मात्मा न कहिए, जात सर्व कुलके उस आचरणको छोड़े तो आप भी छोड़ि दे। बहुरि जो वह आचरण करै है सो कुल का भयकारे करै है, किछू धर्मबुद्धि” नाहीं करे है, तातै वह धर्मात्मा नाहीं। तातै विवाहादि कुल सम्बन्धी कार्यनिविषै तो कुलक्रम का विचार करना अर धर्मसम्बन्धी कार्यविषै कुलका विचार न करना । जैसे धर्ममार्ग साँचा है, तैसे प्रवर्तना योग्य है।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१७६
__ परीक्षारहित आज्ञानुसारी जैनत्व का प्रतिषेध बहुरि केई आज्ञानुसारि जैनी ही हैं। जैसे शास्त्रविषै आज्ञा है तैसे मान हैं परन्तु आज्ञाकी परीक्षा करते नाहीं। सो आज्ञा ही मानना धर्म होय तो सर्व मतवाले अपने-अपने शास्त्रकी आज्ञा मानि धर्मात्मा होय। तातै परीक्षाकरि जिनवचननिको सत्यपनो पहिचानि जिन आज्ञा माननी योग्य है। बिना परीक्षा किए सत्य-असत्यका निर्णय कैसे होय? अर बिना निर्णय किये जैसे अन्यमती अपने शास्त्रनिकी आज्ञा माने हैं, तैसे याने जैनशास्त्रनिकी आज्ञा मानी। यह तो पक्षकरि आज्ञा मानना है।
कोऊ कद, शास्त्रविषै दश प्रकार सम्यक्त्वविषै आज्ञा सम्यक्त्व कह्या है वा आज्ञाविचय धर्मध्यानका भेद कह्या है वा निःशंकित अंगविषै जिनवचनविषै संशय करना निषेध्या है, सो कैसे है?
___ताका समाधान- शास्त्रनिविषै कथन केई तो ऐसे हैं, जिनकी प्रत्यक्ष अनुमानादिकरि परीक्षा करि सकिए है। बहुरि केई कथन ऐसे हैं, जो प्रत्यक्ष अनुमानादि गोचर नाहीं । तातै आज्ञा ही करि प्रमाण होय हैं। तहाँ नाना शास्त्रनिविषे जे कथन समान होय, तिनकी तो परीक्षा करनेका प्रयोजन ही नाहीं। बहुरि जो कथन परस्पर विरुद्ध होई, तिनिविषै जो कथन प्रत्यक्ष अनुमानादि गोचर होय, तिनकी तो परीक्षा करनी। तहाँ जिनशास्त्र के कथन की प्रमाणता ठहरै, तिनि शास्त्रविषे जे प्रत्यक्ष अनुमान गोचर नाहीं ऐसे कथन किए होय, तिनको भी प्रमाणता करनी। बहुरि जिन शास्त्रनिके कथनकी प्रमाणता न ठहरै, तिनके सर्वहू कथनकी अप्रमाणता माननी।
___ इहाँ कोऊ कहै- परीक्षा किए कोई कथन कोई शास्त्रविषै प्रमाण भासै, कोई कथन कोई शास्त्रविर्ष प्रमाण भासै तो कहा करिए?
ताका समाधान- जो आप्तके भाषे शास्त्र हैं, तिनिविषे कोई ही कथन प्रमाण-विरुद्ध न होय। जाते कै तो जानपना ही न होय, के रागद्वेष होय तो असत्य कहै । सो आप्त ऐसा होय नाहीं, तातै परीक्षा नीकी नाही करी है, तातै भ्रम है।
बहुरि वा कई है- छद्मस्थकै अन्यथा परीक्षा होय जाय तो कहा करे?
ताका समाधान- सांची झुंटी दोऊ वस्तुनिको मीड़े अर प्रमाद छोड़ेि परीक्षा किए तो सांची ही परीक्षा होय। जहां पक्षपातकरि नीके परीक्षा न करे, तहाँ ही अन्यथा परीक्षा हो है।
बहुरि यह कह है, जो शास्त्रनिविष परस्पर विरुद्ध कथन तो घने, कौन-कौनकी परीक्षा करिए।
ताका समाधान- मोक्षमार्गविषै देव गुरु धर्म वा जीवादि तत्त्व वा बंधमोक्षमार्ग प्रयोजनभूत हैं, सो इनिकी परीक्षा करि लेनी। जिन शास्त्रनिविषै ए सांचे कहै, तिनकी सर्व आज्ञा माननी। जिनविषै ए अन्यथा प्ररूपे, तिनकी आज्ञा न माननी। जैसे लोकविषै जो पुरुष प्रयोजनभूत कार्यनिविषे झूठ न बोले, सो, प्रयोजनरहित कार्यनिविषै कैसे झूठ बोलेगा। तैसे जिस शास्त्रविष प्रयोजनभूत देवादिकका स्वरूप अन्यथा न कह्या, तिस विषै प्रयोजनरहित द्वीप-समुद्रादिकका कथन अन्यथा कैसे होय? जाते देवादिकका कथन अन्यथा किए वक्ताके विषय-कषाय पोषे जांय हैं।
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साली अधिकार--१७७
इहा प्रश्न-देवादिकका कथन तो अन्यथा विषयकषायतें किया, तिनि ही शास्त्रनिविष अन्य कथन अन्यथा काहेको किया।
ताका समाधान- जो एक ही कथन अन्यथा कहै, वाका अन्यथापना शीघ्र ही प्रगट होय जाय। जुदी पद्धति ठहरै नाहीं। तातै घने कथन अन्यथा करनेते जुदी पद्धति ठहरे। तहाँ तुच्छ बुद्धि भ्रममें पड़ि जाययहु भी मत है। यह भी मत है। तातै प्रयोजनभूतका अन्यथापना का मेलनेके अर्थि अप्रयोजनभूत भी अन्यथा कथन घने किए। बहुरि प्रतीति अनावनेके अर्थि कोई-कोई साँचा भी कथन किया। परन्तु स्याना होय सो भ्रम में परै नाहीं। प्रयोजनभूत कथनकी परीक्षाकरि जहाँ सांच भासै, तिस मत की सर्व आज्ञा माने, सो परीक्षा किए जैनमत ही सांचा भास है, अन्य नाहीं । जाते याका वक्ता सर्वज्ञ वीतराग है, सो झूठ काहेको कहै। ऐसे जिन आज्ञा माने जो सांचा श्रद्धान होय, ताका नाम आज्ञा सम्यक्व है। बहुरि तहाँ एकात्र चिन्तवन होय, ताहीका नाम आज्ञाविषय धर्मथ्यान है। जो ऐसे न मानिए अर बिना परीक्षा किए ही आज्ञा माने सम्यक्त्व वा धर्मध्यान होय जाय, तो जो द्रव्यलिंगी आज्ञा मानि मुनि भया, आज्ञा अनुसारि साधनकरि ग्रेवेयक पर्यन्त प्राप्त होय, ताकै मिथ्यादृष्टिपना कैसे रह्या? ताते किछु परीक्षाकरि आज्ञा माने ही सम्यक्त्व वा धर्मध्यान होय है। लोकविष भी कोई प्रकार परीक्षा भए ही पुरुषकी प्रतीति कीजिए है।
बहुरि से कहा- जिनवचनविषै संशय करनेः सम्यक्त्वका शंका नामा दोष हो है, सो 'न जानै यह कैसे है' ऐसा मानि निर्णय न कीजिए, तहाँ शंका नामा दोष हो है। बहुरि जो निर्णय करनेको विचार करते ही सम्यक्त्वको दोष लागै, तो अष्टसहस्रीविषै आज्ञाप्रधानतें परीक्षाप्रधानको उत्तम काहेको कहा? पृच्छना आदि स्वाध्यायके अंग कैसे कहै । प्रमाण नयत पदार्थनिका निर्णय करनेका उपदेश काहेको दिया। तातै परीक्षा करि आज्ञा मानना योग्य है। बहुरि केई पापी पुरुषां अपना कल्पित कथन किया है अर तिनको जिनवचन टहराया है, तिनको जैनमतका शास्त्र जानि प्रमाण न करना। तहाँ भी प्रमाणादिकतें परीक्षाकरि वा परस्पर शास्त्रनितें विधि मिलाय वा ऐसे सम्भव है कि नाहीं, ऐसा विचारकरि विरुद्ध अर्थको मिथ्या ही जानना । जैसे ठिग आप पत्र लिखि तामें लिखनेवालेका नाम किसी साहूकार का धस्या, तिस नामके भ्रमते धनको ठिगावै तो दरिद्री ही होय । तैसे पापी आप ग्रन्धादि बनाय, तहाँ कर्ताका नाम जिन गणधर आचार्यनिका धस्या, तिस नामके प्रमतें झूठा श्रद्धान करै तो मिथ्यादृष्टि ही होय।
बहुरि वह कहै है-गोम्मटसार' विष ऐसा कह्या है- सम्यग्दृष्टि जीव अज्ञान गुरुके निमित्तते झूट भी श्रद्धान करै तो आज्ञा माननेते सम्यग्दृष्टि ही है। सो यह कथन कैसे किया है?
ताका उत्तर- जे प्रत्यक्ष अनुमानादिगोचर नाहीं, सूक्ष्मपनेते जिनका निर्णय न होय सके, तिनिकी अपेक्षा यह कथन है। मूलभूत देव गुरु धर्मादि वा तत्त्वादिकका अन्यथा श्रद्धान भए तो सर्वथा सम्यक्त्व रहै नाहीं, यह निश्चय करना। तातै बिना परीक्षा किए केवल आज्ञा ही करि जैनी है, ते भी मिथ्यादृष्टी जानने। बहुरि केई परीक्षा भी करि जैनी हो है परन्तु मूल परीक्षा नाहीं करै है। दया शील तप संयमादि क्रियानिकारे १. सम्माइट्टी जीवो उवइट पवयणं तु सद्दहदि ।
सद्दहदि असभादं अजाणभाणो गुरुणियोगा ।। २७ ।।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-७८
वा पूजा प्रभावनादि कार्यनिकरि वा अतिशय चमत्कारादिकरि वा जिनधर्मत इष्ट प्राप्ति होनेकरि जिनमतको उत्तम जानि प्रीतिवंत होय जैनी होय है 1 सो अन्यमतविष भी ऐसा तो कार्य पाईए है, ताते इन लक्षणनिविषै अतिव्याप्ति पाईए है।
कोऊ कहे- जैसे जिनधर्मविषै ए कार्य हैं, तैसे अन्यमतविष न पाइए हैं, तातै अतिव्याप्ति नाहीं ।
ताका समाधान- यह तो सत्य है, ऐसे ही है। परन्तु जैसे तू दयादिक मानै है, तैसे तो वे भी निरूप है। परजीवनिकी रक्षाको दया तू कहै है, सोई वे कहै हैं। ऐसे ही अन्य जानने।
बहुरि वह कह है- उनकै ठीक नाहीं। कबहूँ दया प्ररूपै, कबहूँ हिंसा प्ररूपै ।
ताका उत्तर- तहाँ दयादिकका अंशमात्र तो आया। तातै अतिव्याप्तिपना इन लक्षणनिकै पाइए है। इनकरि साँची परीक्षा होय नाहीं। तो कैसे होय? जिनधर्म विर्ष सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र मोक्षमार्ग कहा है। तहाँ सांचे देवादिकका वा जीवादिकका श्रद्धान किए सम्यक्त्व होय वा तिनको जाने सम्यग्ज्ञान होय वा साँचा रागादिक मिटे सम्यक्चारित्र होय, सो इनक स्वरूप है जैसे जिनमत विष निरूपण किया है, तैसे कहीं निरूपण किया नाही वा जैनी बिना अन्यमती ऐसा कार्य करि सकते नाहीं। तातै यहु जिनमतका सांचा लक्षण है। इस लक्षण को पहचानि जे परीक्षा करे, तेई श्रद्धानी हैं। इस बिना अन्य प्रकार करि परीक्षा करि हैं, ते मिध्यादृष्टी ही रहे हैं।
बहुरि केई संगतिकरि जैनधर्म धारै हैं। केई महान् पुरुषको जिनधर्मविष प्रवर्तता देखि आप भी प्रवर्ते हैं केई देखादेखी जिनधर्म की शुद्ध वा अशुद्ध क्रियानिविषै प्रवर्ते हैं। इत्यादि अनेक प्रकारके जीव आप विचारकरि जिनधर्म का रहस्य नाहीं पहिचान हैं। अर जैनी नाम धरावै हैं, ते सर्व मिथ्यादृष्टी ही जानने। इतना तो है। जिनमतविष पापकी प्रवृत्तिविशेष नहीं होय सके है अर पुण्यके निमित्त घने हैं अर सांचा मोक्षमार्ग के भी कारण तहाँ बनि रहे हैं। तात जे कुलादिकरि भी जैनी हैं, ते भी औरनितें तो भले ही हैं।
आजीविकादि प्रयोजनार्थ धर्मसाधनका प्रतिषेध बहुरि जे जीव कपटकारे आजीविकाके अर्थि वा बड़ाई के अर्थि वा किछू विषयकषाय सम्बन्धी प्रयोजन विचारि जैनी हो हैं, ते तो पापी ही हैं। अति तीव्रकषाय भए ऐसी बुद्धि आवै है। उनका सुलझना भी कठिन है। जैनधर्म तो संसारका नाश के अर्थि सेइए है। ताकरि जो संसारीक प्रयोजन साध्या चाहै सो बड़ा अन्याय करै है। तातै ते तो मिथ्यादृष्टि हैं ही।
इहाँ कोऊ कहै-हिंसादिकरि जिन कार्यनिको करिए, ते कार्य धर्मसाधनकरि सिद्ध कीजिए तो बुरा कहा भया। दोऊ प्रयोजन सथे।
ताको कहिए है- पापकार्य अर धर्मकार्यका एक साधन किए पाप ही होय । जैसे कोऊ धर्मका साधन चैत्यालय बनाय, तिसहीको स्त्रीसेवनादि पापनिका भी साधन कर, तो पापी ही होय । हिंसादिकरि भोगादिकके अर्थि जुदा मन्दिर बनायै तो बनावो परन्तु चैत्यालयविर्ष भोगादि करना युक्त नाहीं। तैसे धर्मका साथन पूजा
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सातवाँ अधिकार-१७६
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शास्त्रादि कार्य हैं, तिनहीको आजीविका आदि पाप का भी साधन करे, तो पापी ही होय।' हिंसादि करि आजीविकादि के अर्थि व्यापारादि करै तो करो परन्तु पूजादि कार्यनिविषै तो आजीविका आदि का प्रयोजन विचारना युक्त नाहीं।
इहां प्रश्न- जो ऐसे है तो मुनि भी धर्म साधि पर घर भोजन करै हैं वा साधर्मी साधर्मी का उपकार करै करावै हैं, सो कैसे बने?
ताका उत्तर- जो आप तो किछू आजीविका आदि का प्रयोजन विचारि धर्म नाहीं साधै है, आपको थर्मात्मा जानि केई स्वयमेव भोजन उपकारादि करै हैं तो किछू दोष है नाहीं । बहुरि जो आप ही भोजनादिका प्रयोजन विचारि धर्म साधै है, तो पापी है ही। जे विरागी होय मुनिपनो अंगीकार करै है, तिनिकै भोजनादिका प्रयोजन नाहीं, शरीर की स्थिति के अर्थि स्वयमेव भोजनादि कोई दे तो ले, नाहीं समता राखे । संक्लेशरूप होय नाहीं । बहुरि आप हितके अर्थि धर्म साधे हैं, उपकार करयानेका अभिप्राय नाहीं है। अर आपर्क जाका त्याग नाही, ऐसा उपकार करावै। कोई साधर्मी स्वयमेव उपकार कर तो करो अर न करै तो आपके किछू
१. (A) पं. जगन्मोहनलाल सिद्ध्यन्तशास्त्री (कटनी, म.प्र.) लिखते हैं कि - (१) पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, पर्यों में प्रवचन विधान आदि धार्मिक कार्यों में पारिश्रमिक के रूप में ठहराव करके एवं/अथवा वेतन आदि के रूप में रुपया लेना/आजीविका चलाना तो पाप ही है। ऐसे विद्वान् टोडरमलजी कथित श्रेणी में अवश्य आते हैं। (२) जिन विद्वानों ने श्रतसेवा की है उनकी आजीविका की चिन्ता समाज को करनी आवश्यक है। अतएव जिन संस्थाओं या समाज द्वारा उनकी आजीविका में सहयोग किया गया है, यह उन संस्थाओं या समाज का कर्तव्य ही था अतः वे विद्वान इस श्रेणी में (पापजीविका की श्रेणी में) नहीं गिने जा सकते हैं। क्योंकि ऐसे विद्वानों ने आजीविका के लिए श्रुतसेवा नहीं की है, किन्तु समाज व संस्थाओं के आग्रह पर पुण्यकार्य ही किया है। उस स्थिति में समाज भी अपना कर्त्तव्य-निर्वाह करे यानी ऐसे सत पण्डितों के जीवन-निर्याह के बारे में सोचना व व्यवस्था करना समाज का कर्त्तव्य था जिसे समाज ने नहीं किया। (पत्र दि. २७.१०. ६२ व १५.१२.६२ कुण्डलपुर/सतना) __(B) डॉ. प. पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर लिखते हैं कि - जिस समय पं.सा. ने मोक्षमार्ग-प्रकाशक लिखा उस समय ब्राह्मण विद्वानों में पैसा लेकर पढ़ाना अप्रचलित था। वाराणसी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक ब्राह्मण विद्वान् ने वेतन लेकर पढ़ाने का काम इस शर्त पर स्वीकृत किया कि उन्हें घर से पालकी में ले जाया जाए तथा पालकी से ही पहुंचा दिया जाए। धीरे-धीरे अन्य लौकिक विषयों में अध्यापक नियुक्त हुए। तब वि.वि. में नौकरी प्राप्त करने की होड़ लग गई। जैन विद्वानों में रैपाणी व्यापार करते हुए ही पढ़ाते थे। कहीं से कुछ भी विदाई नहीं लेते थे। पं. पांचूरामजी इन्दौर को हमने सागर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में आमंत्रित किया था। विदाई के अवसर पर उन्होंने मार्गव्यय के नाम पर केवल ३० रु. स्वीकृत किये थे, पर आज प्रायः प्रतिष्ठाचार्यों ने प्रतिष्ठा-कार्य को धन्धा बना लिया है। __परिस्थितिवश यदि जैन विद्वान् जैनशालाओं में पैसा लेकर पढ़ाते हैं और ईमानदारी से काम पूरा करते है तो इसे पापजीविका नहीं कहा जा सकता। समाज विद्वान् को देती ही क्या है? पं. देवकीनन्दनजी (सम्पादक-धवला) ने जब मुरैना छोड़ा तब उन्हें तीस रु. ही मासिक मिलता था। आज भी जैन शालाओं में विद्वान् आत्यन्त सीमित वेतन में काम कर रहे हैं। फिर भी जिनकी सामर्थ्य अच्छी है, पारिवारिक चिन्ता नहीं रही है उन्हें वेतन लेकर धर्म नहीं पढ़ाना चाहिए। फिर भी अभी जो जैन विद्यालयों में अध्यापन हो रहा है उसे पापजीविका कहना उचित नहीं है।
- (पत्र दि. १२.१०.६२ जबलपुर)
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१८०
संक्लेश होता नाहीं। सो ऐसे तो योग्य है। अर आपही आजीविका आदिका प्रयोजन विचार बाह्य धर्मका साधन करै, जहाँ भोजनादि उपकार कोई न करै तहाँ संक्लेश करे, याचना करे, उपाय करै, वा धर्मसाधनविषै शिथिल होय जाय सो पापी ही जानना । ऐसे संसारीक प्रयोजन लिए जे धर्म साधै हैं ते पापी भी है अर मिथ्यादृष्टि हैं ही या प्रकार जिनमतवाले भी मिथ्यादृष्टि जानने । अब इनकै धर्मका साधन कैसे पाइए है, सो विशेष दिखाइए है
जैनाभासी मिथ्यादृष्टि की थर्म-साधना तहां केई जीव कुलप्रवृत्तिकरि वा देख्यां देखी लोभादिका अभिप्रायकरि धर्म साधे हैं, तिनिकै तो धर्मदृष्टि नाहीं। जो भक्ति करै है तो चित्त तो कहीं है, दृष्टि फिरया करै है। अर मुखत पाटादि कर है वा नमस्कारादि करै है परन्तु यहु ठीक नाही- मैं कौन हूँ किसकी स्तुति करूँ हूँ, किस प्रयोजन के अर्थि स्तुति करूं हूं, पाठविषे कहा अर्थ है, सो किछू ठीक नाहीं। बहुरि कदाचित् कुदेवादिककी भी सेवा करने लगे जाय। तहाँ सुदेवसुगुरुसुशास्त्रादि वा कुदेव कुगुरु कुशास्त्रादि विष विशेष पहिचान नाहीं। बहुरि जो दान दे है तो पात्र-अपात्र का विचाररहित जैसे अपनी प्रशंसा होय तैसे दान दे है। बहुरि तप करै है तो भूखा रहनेकरि महंतपनो होय सो कार्य करै है। परिणामनिकी पहिचान नाहीं। बहुरि प्रतादिक धारै है, तहां बाह्य क्रिया ऊपर दृष्टि है। सो भी कोई साँची क्रिया करै है, कोई झूठी करै है। अर अंतरंग रागादि भाव पाइए है, तिनिका विचार ही नाही वा बाह्य भी रागादि पोषने का साथन करै है। बहुरि पूजा प्रभावना आदि कार्य करै है, तहां जैसे लोकविष बढ़ाई होय वा विषय-कषाय पोषै जांय तैसे कार्य करै है। बहुरि बहुत हिंसादिक निपजाव है। सो ए कार्य तो अपना वा अन्य जीवनिका परिणाम सुधारने के अर्थ कहे हैं। बहुरि तहां किंचित् हिंसादिक भी निपजै है तो थोरा अपराध होय, गुण बहुत होय सो कार्य करना कह्या है। सो परिणामनिकी पहचान नाहीं । अर यहाँ अपराध केता लागै है, गुण केता हो है सो नफा टोटा का ज्ञान नाही चा विधि अविथिका ज्ञान नाहीं। बहुरि शास्त्राभ्यास करै है, तहाँ पद्धतिरूप प्रवत है। जो वांचै है तो
औरनिको सुनाय दे है। पढ़े है तो आप पढ़ि जाय है। सुनै है तो कहै है सो सुनि ले है। जो शास्त्राभ्यासका प्रयोजन है, ताको आप अंतरंग विष नाही अवधार है। इत्यादि धर्मकार्यनिका मर्मको नाही पहिचाने। केई तो कुलविषै जैसे बड़े प्रवते तैसे हमको भी करना अथवा और करै हैं तैसे हमको भी करना वा ऐसे किए हमारा लोभादिककी सिद्धि होसी, इत्यादि विचार लिये अभूतार्थ धर्म को साथै हैं। बहुरि केई जीव ऐसे हैं जिनके किछू तो कुलादिरूप बुद्धि है, किछू धर्मबुद्धि भी है, तातै पूर्वोक्त प्रकार भी धर्मका साधन करै हैं
अर किछू आगै कहिए हैं, तिस प्रकार करि अपने परिणामनिको भी सुथारै हैं । मिश्रफ्नो पाइए है। बहुरि . केई धर्मबुद्धिकरि धर्म साथै हैं परन्तु निश्चय धर्मको न जाने हैं। तातैं अभूतार्थ रूप धर्मको साथै हैं । तहाँ व्यवहार सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रको मोक्षमार्ग जानि तिनिका साधन करै है। तहाँ शास्त्रविषे देव गुरु धर्मकी प्रतीति किए सम्यक्त्व होना कह्या है। ऐसी आज्ञा मानि अरहन्तदेव, निर्गन्धगुरू, जैनशास्त्र बिना औरनिको नमस्कारादि करने का त्याग किया है परन्तु तिनिका गुण-अवगुणकी परीक्षा नाहीं करै है। अथवा परीक्षा
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सातवाँ अधिकार-११
भी करै है तो तत्त्वज्ञान पूर्वक साँची परीक्षा नाहीं करै है। बाह्य लक्षणनिकरि परीक्षा करै है। ऐसे प्रतीतिकरि सुदेव सुगुरु सुशास्त्रनिकी भक्तिविर्षे प्रवर्ते है।
अरहंतभक्तिका अन्यथा रूप तन्हा कारहंत देव, सो इन्साटिगरि पूज्य हैं, अनेक अतिशयसहित हैं, क्षुधादि दोषरहित है, शरीरकी सुन्दरताको धरै हैं, स्त्रीसंगमादि रहित हैं, दिव्यध्वनिकरि उपदेश दे हैं, केवलज्ञानकरि लोकालोक जाने है, काम-क्रोधादिक नष्ट किए हैं, इत्यादि विशेषण कहै हैं। तहां इनविषै केई विशेषण पुद्गलके आश्रय, केई जीवके आश्रय हैं, तिनको भिन्न-भिन्न नाही पहिचान है। जैसे असमानजातीय मनुष्यादि पर्यायनिविषै जीव पुद्गलके विशेषणनिको भिन्न न जानि मिथ्यादृष्टि धरै है तैसे यह असमानजातीय अरहन्तपर्यायविर्ष जीवपुद्गलके विशेषणनिको भिन्न न जानि मिथ्यादृष्टि धारै है। बहुरि जे बाह्य विशेषण हैं, तिनको तो जानि तिनकार अरहन्तदेवको महन्तपनो विशेष मानै है अर जे जीयके विशेषण हैं, तिनको यथावत् न जामि तिनकरि अरहन्तदेवको महन्तपनो आज्ञा अनुसार मानै है अथवा अन्यथा मानै है। जात यथावत् जीवका विशेषण जाने मिथ्यादृष्टी रहै नाहीं। बहुरि तिनि अरहन्तनिको स्वर्गमोक्षका दाता, दीनदयाल, अधम उधारक, पतितपावन मानै है सो अन्यमती कर्तृत्वबुद्धितै ईश्वरको जैसे माने है, तैसे ही यहु अरहन्तको माने है। ऐसा नाहीं जानै है-फलतो अपने परिणामनिका लागै है अरहन्त तिनिको निमित्तमात्र हैं, तातै उपचारकरि वे विशेषण सम्भवै हैं। अपने परिणाम शुद्ध भए बिना अरहन्तादिकके नामादिकतै श्वानादिक स्वर्ग पाया तहां नामादिकका ही अतिशय माने है। बिना परिणाम 'नाम लेने वालोंके भी स्वर्गकी प्राप्ति न होय तो सुननेवालेके कैसे होय । श्वानादिककै नाम सुनने के निमित्तते कोई मंदकषायरूप भाव भए हैं, तिनका फल स्वर्ग भया है। उपचारकरि नामहीकी मुख्यता करी है। बहुरि अरहन्तादिकके नाम-पूजनादिकतै अनिष्ट सामग्रीका नाश, इष्ट सामग्रीकी प्राप्ति मानि रोगादि मेटनेके अर्थि वा धनादिकी प्राप्ति के अर्थि नाम ले है वा पूजनादि करै है। सो इष्ट अनिष्टका तो कारण पूर्वकर्मका उदय है। अरहन्त तो कर्त्ता है नाहीं। अरहन्तादिककी भक्तिरूप शुभोपयोग परिणामनितें पूर्व पापका संक्रमणादिक होय जाय है। तातै उपचारकरि अनिष्टका नाशको वा इष्टकी प्राप्तिको कारण अरहंतादिककी भक्ति कहिए है। अर जे जीव पहलेही संसारी प्रयोजन लिए भक्ति करें, ताकै तो पापहीका अभिप्राय भया। कांक्षा विचिकित्सास्थप भाव भए तिनिकरि पूर्वपापका संक्रमणादि कैसे होय? बहुरि तिनिका कार्य सिद्ध न भया।
बहुरि केई जीव भक्तिको मुक्तिका कारण जानि तहाँ अति अनुरागी होय प्रवत्त है सो अन्यमती जैसे भक्ति तैं मुक्ति मानै है तैसे याकै भी श्रद्धान भया। सो भक्ति तो रागरूप है। रागत बंध है। ताज मोक्ष का कारण नाहीं। जब राग उदय आवै तब भक्ति न करे तो पापानुराग होय । ताते अशुभ राग भेडनेको मानी भक्ति विष प्रवत है वा मोसमार्ग को बास निमित्तमात्र भी जाने हैं। परन्तु यहाँ ही उपादेयपना मानि . कहा भी है : पवित्रं यन्निरातक सिद्धानां पदमव्ययं ।
दुष्प्राप्यं विदुषामर्थ्य प्राप्यते तज्जिनार्चकैः ।।१२/३६ अमितगति श्रावकाचार अर्थात् जिनदेव के पूजक पुरुष सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - १८२
संतुष्ट न हो है, शुद्धोपयोगका उद्यमी रहें है। सो ही पंचास्तिकायव्याख्याविषे कया है- '
इयं भक्तिः केवलभक्तिप्रधानस्याज्ञानिनो भवति । तीव्ररागज्वरविनोदार्थमस्थानरागनिषेधार्थ क्वचित् ज्ञानिनोऽपि भवति ।
याका अर्थ- यहु भक्ति केवल भक्ति ही है प्रधान जाकै ऐसा अज्ञानी जीवके हो है । बहुरि तीव्ररागज्वर मेटने के अर्थि वा कु-टिकाने रागनिषेधने के अर्थि कदाचित् ज्ञानीकै भी हो है ।
तहाँ वह पूछे है, ऐसे है तो ज्ञानी तैं अज्ञानीकै भक्तिकी अधिकता होती होगी।
ताका उत्तर - यथार्थपनेकी अपेक्षा तो ज्ञानीकै सांची भक्ति है अज्ञानीकै नाहीं है। अर रागभावकी अपेक्षा अज्ञानीकै श्रद्धानविषै भी मुक्तिका कारण जाननेते अति अनुराग है। ज्ञानीकै श्रद्धानविषै शुभबंधका कारण जाननेते तैसा अनुराग नाहीं है। बाह्य कदाचित् ज्ञानीकै अनुराग घना हो है, कदाचित् अज्ञानीकै हो है, ऐसा जानना। ऐसे देवभक्तिका स्वरूप दिखाया ।
अब गुरुभक्तिका स्वरूप वाकै कैसे है, सो कहिए है
गुरुभक्तिका अन्यथा रूप
केई जीव आज्ञानुसारी हैं। ते तो ए जैनके साधु हैं, हमारे गुरु हैं, तातें इनिकी भक्ति करनी, ऐसे विचारि तिनकी भक्ति करे हैं। बहुरि केई जीव परीक्षा भी करे हैं। तहां ए मुनि दया पालै हैं, शील पालै हैं, थनादि नाहीं राखे हैं, उपवासादि तप करे हैं, क्षुधादि परीषह सहै हैं, किसीसी क्रोधादि नाहीं करे हैं। उपदेश देय औरनिको धर्मविषे लगाये हैं, इत्यादि गुण विचार तिनविषै भक्तिभाव करें हैं। सो ऐसे गुण तो परमहंसादिक अन्यमती हैं, तिनविषै वा जैनी मिध्यादृष्टीनिविषै भी पाईए हैं। तातैं इनिविषे अतिव्याप्तपनो है । इनिकरि साँची परीक्षा होय नाहीं । बहुरि इनि गुणनिको विचारे हैं, तिनविषे केई जीवाश्रित हैं, केई पुद्गलाश्रित हैं, तिनका विशेष न जानता असमानजातीय मुनिपर्यायविषे एकत्व बुद्धितें मिथ्यादृष्टि ही रहे
• एकापि समर्थय जिनभक्ति दुर्गतिं निवारयितुम् ।
पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिजनम् ।। १५५ उपासकाध्ययन / पं. कैलाशचन्दजी |
अर्थात् अकेली जिनभक्ति ही ज्ञानी के दुर्गति का निवारण करने में, पुण्य का संचय करने में और मुक्तिरूपी लक्ष्मी को देने में समर्थ है।
•
कर्म भक्त्या जिनेन्द्राणां क्षयं गच्छति भरत । ( प.पु. ३२ - १८३ ) हे भरत ! जिनेन्द्र की भक्ति से कर्म भय को प्राप्त हो जाते हैं।
• सुह- सुद्ध परिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदी। ( जयधवल १ / ६ )
यदि
परिणामों से कर्मों का क्षय नहीं माना जाए तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता।
•
शुभ-शुद्ध देखें वरांगचरित २२ / ३८, पं. रतनचन्द मुख्तार व्यक्तित्व और कृतित्व-२, पृ. १४६४ - १४६७ । १. अयं हि स्थूललक्ष्यतया केवलभक्तिप्रधानस्याज्ञानिनो भवति । उपरितनभूमिकायामलब्धास्पदस्यास्थानराग- निषेधार्थं तीव्ररागज्दरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनो ऽपि भवतीति ।। स. टीका गा. १३६ ।।
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सातवाँ अधिकार-१९३
शा
हैं। बहुरि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी एकतारूप मोक्षमार्ग सोई मुनिनका सांचा लक्षण है, ताको पहिचान नाहीं। जातें यहु पहिचानि भए मिध्यादृष्टी रहता नाहीं। ऐसे मुनिनका सांचा स्वरूप ही न जाने तो सांची भक्ति कैसे होय? पुण्यबंधको कारणभूत शुभक्रियारूप गुणनिको पहचानि तिनकी सेवा” अपना भला होना जानि तिनविर्ष अनुरागी होय भक्ति करै है। ऐसे गुरुभक्तिका स्वरूप कह्या। अब शास्त्रभक्तिका स्वरूप कहिए है
शास्त्र-भक्ति का अन्यथा रूप केई जीव तो यह केवली भगवान की वाणी है, तातै केवलीके पूज्यपनाते यह भी पूज्य है, ऐसा जानि भक्ति करै हैं। बहुरि केई ऐसे परीक्षा कर हैं-इन शास्त्रनिविष विरागता दया क्षमा शील संतोषादिकका निरूपण है तातै ए उत्कृष्ट है, ऐसा जानि भक्ति करै है। सो ऐसा कथन तो अन्य शास्त्र वेदांतादिक तिनविष भी पाईए है। बहुरि इन शास्त्रनिवि त्रिलोकादिक का गम्भीर निरूपण है, तातै उत्कृष्टता जानि भक्ति करें हैं। सो इहाँ अनुमानादिक का तो प्रवेश नाहीं । सत्य-असत्यका निर्णयकरि महिमा कैसे जानिए। तातै ऐसे सांची परीक्षा होय नाहीं। इहाँ अनेकान्तरूप साँचा जीवादितत्त्वनिका निरूपण है अर साँचा रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग दिखाया है। ताफरि जैनशास्त्रनिकी उत्कृष्टता है, ताको नाही पहिचान हैं। जाते यहु पहचानि भए मिध्यादृष्टि रहै नाहीं। ऐसे शास्त्रभक्तिका स्वरूप कह्या।
या प्रकार याकै देव गुरु शास्त्रकी प्रतीति भई, तातै व्यवहार सम्यक्त्व भया माने है। परन्तु उनका साँचा स्वरूप भास्या नाहीं । तातै प्रतीति भी साँची भई नाहीं। साँची प्रतीति बिना सम्यक्त्वकी प्राप्ति नाहीं। तातें मिध्यादृष्टि ही है।
तत्त्वार्थ श्रद्धान का अयथार्थपना बहुरि शास्त्रविषै 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' (तत्त्वा.सू. १-२) ऐसा वचन कह्या है। ता” जैसे शास्त्रनिविष जीवादि तत्त्व लिखे हैं, तैसे आप सीखि लेहै। तहाँ उपयोग लगावै है। औरनिको उपदेश है परन्तु तिन तत्त्वनिका भाव मासता नाहीं। अर इहाँ तिस वस्तु के भावही का नाम तत्त्व कहा । सो भाव भासे बिना तत्त्वार्थ प्रधान कैसे होय? भावभासना कहा सो कहिए है
___ जैसे कोऊ पुरुष चतुर होनेके अर्थि शास्त्रकरि स्वर ग्राम मूर्छना रागनिका रूप ताल तानके भेद तिनको सीखै है परन्तु स्वरादिकका स्वरूप नाही पहिचान है। स्वरूप पहिचान भए बिना अन्य स्वरादिकको अन्य स्वरादिकरूप मान है वा सत्य भी माने है तो निर्णय करि नाहीं मान है, तात याकै चतुरपनो होय नाहीं। तैसे कोऊ जीव सम्यक्ती होने के अर्थ शास्त्रकरि जीवादिक तत्त्वनिका स्वरूपको सीखै है परन्तु तिनके स्वरूपको नाहीं पहिचाने है। स्वरूप पहिचाने बिना अन्य तत्त्वनिको अन्य तत्त्वरूप मानि ले है या सत्य भी मान है तो निर्णयकरि नाही मान है। तात वाकै सम्यक्त्व होय नाही। बहुरि जैसे कोई शास्त्रादि पढ़या है, वा न पढ़धा है, जो स्वरादिकका स्वरूपको पहिचान है तो वह चतुर ही है। तैसे शास्त्र पढ्या है वा न पढ़या है, जो जीवादिकका स्वरूप पहिचान है तो वह सम्यग्दृष्टी ही है। जैसे हिरण स्वर
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१८४
रागादिकका नाम न जाने है अर ताका स्वरूप को पहिचान है तैसे तुच्छ बुद्धि जीवादिकका नाम न जनै है अर तिनका स्वरूप को पहिचान है। यह मैं हूँ, ए पर हैं; ए माव बुरे हैं, ए भले है, ऐसे स्वरूप पहिचानै ताका नाम भावमासना है। शिवभूति' मुनि जीवादिकका नाम न जानै था, अर “तुषमाषभिन्न" ऐसा घोषने लगा, सो यहु सिद्धान्त का शब्द था नाहीं परन्तु आपा परका भावरूप ध्यान किया, तातें केवली भया। अर ग्यारह अंगके पाटी जीवादि सम्पनिका विशेषभेद जानै परन्तु भाव भासे नाही, तातें मिथ्यादृष्टी ही रहे हैं। अब याकै तत्त्वश्रद्धान किस प्रकार हो है सो कहिए है
जीव-अजीव तत्त्व के श्रद्धान का अन्यथा रूप जिन शास्त्रनित जीव के त्रस स्थावरादिरूप वा गुणस्थान मार्गणादिरूप भेदनिको जानै है, अजीवके पुद्गलादि भेदनिको वा तिनके वर्णादि विशेषनिको जानै है परन्तु अध्यात्मशास्त्रनिविष भेदविज्ञानको कारणभूत वा वीतरागदशा होने को कारणभूत जैसे निरूपण किया है तैसे न जाने है। बहुरि किसी प्रसंगरौं तैसे भी जानना होय तो शास्त्र अनुसारि जानि तो ले है परन्तु आपको आप जानि परका अंश भी आप विषै न मिलावना अर आपका अंश भी पर विष न मिलावना, ऐसा सांचा श्रद्धान नाहीं करै है। जैसे अन्य मिथ्यादृष्टी निर्धार बिना पर्यायबुद्धिकरि जानपना विष वा वर्णादिविषे अहंबुद्धि थारै है, तैसे यह भी आत्माश्रित ज्ञानादिविषै वा शरीराश्रित उपदेश उपवासादि क्रियानिविषै आपो मान है, बहुरि शास्त्र के अनुसार कबहूँ सांची बात भी बनावै परन्तु अंतरंग निर्धाररूप श्रद्धान नाहीं। तातै जैसे मतवाला माताको माता भी कहै तो स्याना नाहीं तैसे याको सम्यक्ती न कहिए। बहुरि जैसे कोई और ही की बातें करता होय तैसे आत्माका कथन कहै परन्तु यहु आत्मा मैं हूँ, ऐसा भाव नाहीं भासै । बहुरि जैसे कोई औरकू औरतें भिन्न बतावता होय तैसे आत्म-शरीर की भित्रता प्ररूपै परन्तु मैं इस शरीरादिकते भिन्न हूँ, ऐसा भाव भास नाहीं। बहुरि पर्यायविषै जीव पुद्गलके परस्पर निमित्तते अनेक क्रिया हो हैं, तिनको दोय द्रव्यका मिलापकार निपजी जाने। यहु जीवकी क्रिया है ताका पुद्गल निमित्त है, यहु पुद्गलकी क्रिया है ताका जीव निमित्त है, ऐसा भिन्न-भिन्न भाव भासे नाहीं। इत्यादि भाव भासे बिना जीव अजीवका सांचा श्रद्धानी न कहिए। तात जीवे अजीय जाननेका तो यह ही प्रयोजन था सो भया नाहीं।
आस्रव तत्त्वके श्रद्धानका अन्यथा रूप बहुरि आस्रव तत्त्वविषे जे हिंसादिरूप पापासव हैं, तिनको हेय जाने है। अहिंसादिरूप पुण्य आस्रव हैं, तिनको उपादेय माने है। सो ए तो दोऊ ही कर्मबंध के कारण, इन विष उपादेयपनो माननो सोई मिथ्यादृष्टि है। सोही समयसार का बंधाधिकारविषै कया है२.
सर्व जीवनिकै जीवन मरण सुख दुःख अपने कर्मके निमित्तते हो हैं। जहाँ अन्य जीव अन्य जीवके १. तुसमास घोसंतो भावविसुद्धो महाणुमावो य । __णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुडो जाओ ।। - भावपा. ५३।। २. समयसार गा. २५४ से २५६ ।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१८६
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सासादन सम्यग्दृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि है। (३) भाव से सम्यग्मिथ्यात्व हो परन्तु बाहर से मुनिबाना हो, वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी है। इसी तरह (४) अंसयत सम्यक्त्वी द्रव्यलिंगी तथा (५) देशसंयत द्रव्यलिंगी को भी कहना चाहिए। जिस नग्न मुनि के अन्तरंग में भी छठा गुणस्थान (या आगे के गुणस्थान) हो वह भावलिंगी मुनि है। पर यह सब भी प्रत्यक्षतः केवलज्ञानगम्य है तथा द्रव्यकों के परिज्ञान द्वारा कोई-कोई मनःपर्ययज्ञानी तथा अवधिज्ञानी भी जानते हैं। अन्य छद्मस्थ जीव मुनि के अन्तरंग को नहीं जान पाते। - पं. रतनचन्द्र मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व पृ. ७६४-६५, द्रव्यनिर्ग्रन्था नरा भावेन असंयता.... त्रि.सा. ५४५ टीका; धवल १३/१४१, धवल ४/२०८ आदि)।
बंध तत्त्व के श्रद्धान का अन्यथा रूप बहुरि बंधतत्त्वविषे जे अशुभभावनिकरि नरकादिरूप पापका बंध होय, ताको तो बुरा जानै अर शुभभावनिकरि देवादि रूप पुण्यका बंध होय, ताको भला जान । सो सर्व ही जीवनिकै दुःखसामग्रीविषै द्वेष, सुखसामग्रीविषै राग पाईए है, सो ही याकै राग द्वेष करनेका श्रद्धान भया। जैसा इस पर्यायसंबंधी सुखदुःखसामग्रीविषै राग द्वेष करना तैसा ही आगामी पर्यायसंबंधी सुख-दुःख सामग्रीविषै राग द्वेष करना। बहुरि शुभअशुभभावनिकरि पुण्यपापका वेशेष तो अघाति कर्मनिविषे हो है। सो अघातिकर्म आत्मगुणके घातक नाहीं । बहुरि शुभ अशुभ भावनिविषै घातिकर्मनिका तो निरंतर बंध होय, ते सर्व पापरूप ही हैं अर तेई आत्मगुणके घातक हैं। तातै अशुद्ध भावनिकरि कर्मबंध होय, तिसविर्ष भला बुरा जानना सोई मिथ्या श्रद्धान है। सो ऐसे श्रद्धानः बंधका भी यार्क सत्य श्रद्धान नाहीं।
संवर तत्त्व के श्रद्धान का अन्यथा रूप बहुरि संवरतत्त्वविषै अहिंसादिरूप शुभास्रव भाव तिनको संवर जाने है। सो एक कारणनै पुण्यबंध भी मानै अर संवर भी माने, सो बनै नाहीं।
यहाँ प्रश्न-जो मुनिनकै एक काल एकभाव हो है, तहाँ उनके बंध भी हो है अर संवर निर्जरा भी हो है, सो कैसे है?
ताका समाधान-यह भाव मिश्ररूप है। किछू चीतराग भया है, किछू सराग रह्या है। जे अंश वीतराग भए तिनकरि संवर है अर जे अंश सराग रहे तिनकरि बंध है। सो एक भावतें तो दोय कार्य बने परन्तु एक प्रशस्तरागहीत पुण्यासव भी मानना अर संवर-निर्जरा भी मानना सो आम है। मिनभावविषै भी यहु सरागता है, यह विरागता है; ऐसी पहिचान सम्यग्दृष्टिहीकै होय। तातें अवशेष सरागताको हेय श्रद्धे हैं 1 मिथ्यादृष्टीकै ऐसी पहिचान नाही तातै सरागभाव विष संवरका प्रमकरि प्रशस्त रागरूप कानिको उपादेय श्रद्धहे है।
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बहुरि सिद्धांतावषे गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र इनकरि संवर हो है, ऐसा कह्या है' सो इनको भी यथार्थ न श्रद्धहे है। कैसे सो कहिए है
बाह्य मन वचन कायकी चेष्टा मेटै, पापवितवन न करै, मौन धरै, गमनादि न करै सो गुप्ति मानै है। सो यहाँ तो मनविषै भक्ति आदि रूप प्रशस्त रागकरि नाना विकल्प हो हैं, वचन कायकी चेष्टा आप रोकि राखी है तहाँ शुभप्रवृत्ति है अर प्रवृत्तिविष गुप्तिपनो बनै नाहीं । तातै वीतरागभाव भए जहाँ मन वचन कायकी चेष्टा न होय सो ही साँची गुप्ति है।
बहुरि परजीवनिकी रक्षाके अर्थ यत्नाचार प्रवृत्ति ताको समिति मान है। सो हिंसाके परिणामनित तो पाप हो है अर रक्षाके परिणामनित संवर कहोगे तो पुण्यबंधका कारण कौन ठहरेगा। बहुरि एषणासमितिविषै दोष टाले है। तहाँ रक्षाका प्रयोजन है नाहीं। ताते रक्षाहोनेके अर्थ समिति नाहीं है। तो समिति कैसे हो है- मुनिन के किंचित् राग भए गमनादि क्रिया हो हैं। तहाँ तिन क्रियानिदिदै अति आसक्तताके अभावते प्रमादरूप प्रवृत्ति न हो है। बहुरि और जीवनिको दुःखीकरि अपना गमनादि प्रयोजन न साथै हैं ताः स्वयमेव ही दया पलै है। ऐसे सांची समिति है।
बहुरि बंधादिकके भयतें स्वर्गमोक्षकी चाहते क्रोधादि न करै है, सो यहाँ क्रोधादि करनेका अभिप्राय तो गया नाही। जैसे कोई राजादिकका भय” वा महतपनाका लोमः परस्त्री न सेवै है, तो वाको त्यागी न कहिए। तैसे ही यहु कोथादिका त्यागी नाहीं। तो कैसे त्यागी होय? पदार्थ अनिष्ट इष्ट भासै क्रोयादि हो है। जब तत्त्वज्ञान के अभ्यास ते कोई इष्ट अनिष्ट न भासै, तब स्वयमेव ही क्रोधादिक न उपजै, तब साँचा धर्म हो है।
बहुरि अनित्यादि चितवनतें शरीरादिकको बुरा जानि हितकारी न जानि तिनतें उदास होना ताका नाम अनुप्रेक्षा कई हैं। सो यहु तो जैसे कोऊ मित्र था, तब उस राग था, पीछे वाका अवगुण देखि उदासीन मया । तैसे शरीरादिकः राग था, पीछै अनित्यादि अवगुण अवलोकि उदासीन भया सो ऐसी उदासीनता तो द्वेषरूप है। जहाँ जैसा अपना वा शरीरादिकका स्वभाव है, जैसा पहिचान भ्रमको मेटि भला जानि राग न करना, बुरा जानि द्वेष न करना, ऐसी सांची उदासीनता अर्थि यथार्थ अनित्यत्वादिकका चितवन सोई सांची अनुप्रेक्षा है।
बहुरि क्षुधादिक भए तिनके नाशका उपाय न करना, ताको परीषह सहना कहै है। सो उपाय तो न किया अर अंतरंग क्षुधादि अनिष्ट सामग्री मिले दुःखी भया, रति आदिका कारण मिले सुखी भया तो जो दुःख-सुखरूप परिणाम हैं, सोई आतध्यान रौद्रध्यान हैं। ऐसे भावनितें संवर कैसे होय? ताः दुःखका कारण मिले दुःखी न होय, सुखका कारण मिले सुखी न होय. ज्ञेयरूपकरि तिनिका जाननहारा ही है, सोई सांची परीषहका सहना है।
बहुरि हिंसादि सावधयोगके त्यागको चारित्र मानै है। तहाँ महाव्रतादिरूप शुभयोगको उपादेयपनेकर १. स गुप्ति समितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयवारिकः । तत्त्वा. सू. ६-२
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१५८
ग्रहणरूप मान है। सो तत्त्वार्थसूत्रविषै आस्रव-पदार्थका निरूपण करते महाव्रत अणुव्रत भी आस्रवरूप कहे हैं। ए उपादेय कैसे होय? अर आस्रव तो बंधका साधक है, चारित्र मोक्षका साधक है तातै महाव्रतादिरूप आस्रवभावनिको चारित्रपनो सम्भवै नाही, सकल कषायरहित जो उदासीनभाव ताहीका नाम चारित्र है। जो चारित्रमोहके देशघाती स्पर्द्धकनिके उदयतें महामंद प्रशस्त राग हो है, सो चारित्रका मल है। याको छूटता न जानि याका त्याग न करै है, सावद्ययोगहीका त्याग करै है। परन्तु जैसे कोई पुरुष कंदमूलादि बहुत दोषीक हरितकायका त्याग करै है अर केई हरितकायनिको भखै है परन्तु ताको धर्म न माने है। तैसे मुनि हिंसादि तीव्रकषायरूप भावनिका त्याग करे है अर केई मंदकषाय रूप महाग्रतादिको पाले हैं परन्तु ताको मोक्षमार्ग न माने हैं।
विशेष- परम पूज्य धवला जी (पु.८ पृ.८३ पर) स्पष्ट कहा है कि असंखेज गुणाए सेडीए कम्मणिज्जरण हेदू वदं णाम अर्थात् असंख्यात गुणश्रेणी द्वारा निर्जरा होने के कारण निश्चय से व्रत है। (देखिए-वृहज्जिनोपदेश पृ.१८८-१८६) आगम में अणुव्रत-महाव्रत को क्षायोपशमिक भाव ही कहा है। धवल १३/३६० पर- अणुव्रतानामप्रत्याख्यानसंज्ञा (अणुव्रतों को अप्रत्याख्यान संज्ञा है) कहा तथा वहीं पर पच्चक्खाणं महव्ययाणि (घ. १३/३६०) अर्थात प्रत्यारगान का अर्थ महावत है, ऐसा कहा। फिर आगे कहा है कि उनका अर्थात् अणुव्रतों का आवरण करने वाला कर्म अप्रत्याख्यानावरण कषाय है तथा महाव्रतों का आवरण करने वाली प्रत्याख्यानावरण कषायें हैं। (धवल १३/३६०) इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिनके अणुव्रत या महाव्रत हैं उनके निश्चय ही उक्त कषायों की चौकड़ियाँ नहीं हैं और जिनके उक्त चौकड़ियाँ नहीं हैं, वे स्पष्टतः चारित्र गुण के क्षायोपशमिक भाव से युक्त हैं ही। कहा भी है-संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत ये तीनों क्षायोपशमिक भाव हैं। अतः अणुव्रत महाव्रत निर्जरा के कारण हैं। तथापि यहाँ जो लिखा है वह उस व्रत के साथ होने वाले मन्द राग को लक्ष्य कर उस दृष्टि से उसे आसव-बंध का कारण कहा है, ऐसा समझना चाहिए। देशव्रती महाव्रती को आस्त्रव-बंध संवर निर्जरा ये चारों होते ही हैं।
यहाँ प्रश्न- जो ऐसे है तो चारित्र के तेरह भेदनिविषै महाव्रतादि कैसे कहे हैं?
ताका समाधान- यहु व्यवहारचारित्र कह्या है। व्यवहार नाम उपचारका है। सो महाव्रतादि मए ही वीतरागचारित्र हो है। ऐसा सम्बन्ध जानि महाव्रतादिविषै चारित्रका उपचार किया है। निश्चयकरि निःकषाय भाव है सोई साँचा चारित्र है। या प्रकार संवरके कारणनिको अन्यथा जानता संवरका साँचा श्रद्धानी न हो है।
निर्जरा तत्त्वके श्रद्धानकी अयथार्थता बहुरि यहु अनशनादि तपत निर्जर माने है। सो केवल बाह्यतप ही तो किए निर्जरा होय नाहीं।
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सातवा अधिकार-१८E
बायतप तो शुद्धोपयोग बधावनेके अर्थि कीजिए है। शुद्धोपयोग निर्जराका कारण है तातै उपचारकरि तपको भी निर्जराका कारण कया है। जो बाह्य दुःख सहना ही निर्जराका कारण होय तो तिर्यंचादि भी भूख तृषादि सहै है।
___ तब वह कहै है- वे तो पराधीन सहै है, स्वाधीनपने धर्मबुद्रित उपवासादिरूप तप कर, ताकै निर्जरा हो है?
ताका समाधान- धर्मबुद्धि” बाह्य उपवासादि तो किए, बहुरि तहाँ उपयोग अशुभ शुभ शुद्धरूप जैसे परिणमै तैसे परिणमो। घने उपवासादि किए घनी निर्जरा होय, थोरे किए थोरी निर्जरा होय; जो ऐसे नियम ठहरै तो उपवासादिक ही निर्जरा का मुख्य कारण टहरै, सो तो बनै नाहीं। परिणाम दुष्ट भए उपवासादिकतै निर्जरा होनी कैसे सम्भवै? बहुरि जो कहिए- जैसे अशुभ शुभ शुद्धरूप उपयोग परिणमै ताकै अनुसार बंध निर्जरा है तो उपवासादि तप मुख्य निर्जराका कारण कैसे रह्या? अशुभ शुभ परिणाम बंधके कारण ठहरै, शुद्ध परिणाम किरा हो कार" हो।
यहाँ प्रश्न- जो तत्त्वार्थसूत्रविषै “तपसा निर्जरा च" (६-३) ऐसा कैसे कह्या है?
ताका समाधान- शास्त्रविष "इच्छानिरोधस्तपः" ऐसा कह्या है। इच्छाका रोकना ताका नाम तप है। सो शुभ अशुभ इच्छा मिटे उपयोग शुद्ध होय, तहाँ निर्जा हो है। तातै तपकरि निर्जरा कही है।
यहाँ कोऊ कहै; आहारादिरूप अशुभकी तो इच्छा दूरि भए ही तप होय परन्तु उपवासादिक वा प्रायश्चित्तादि शुभ कार्य हैं तिनकी इच्छा तो रहे?
ताका समाधान- ज्ञानी जननिकै उपदासादि की इच्छा नहीं है, एक शुद्धोपयोग की इच्छा है। उपवासादि किए शुद्धोपयोग बथै है, तातै उपवासादि करै हैं। बहुरि जो उपवासादिकर्तं शरीर वा परिणामनिकी शिथिलताकरि शुद्धोपयोग शिथिल होता जानै, तहाँ आहारादिक ग्रहै हैं। जो उपवासादिकहीते सिद्ध होय, तो अजितनाथादिक तेईस तीर्थकर दीक्षा लेय दोय उपवास ही कैसे धरते? उनकी तो शक्ति भी बहुत थी। परन्तु जैसे परिणाम भए तैसे बाह्य साधनकरि एक वीतराग शुद्धोपयोग का अभ्यास किया।
यहाँ प्रश्न- जो ऐसे है तो अनशनादिकको तपसंज्ञा कैसे भई?
ताका समाधान-इनिको बाह्यतप कहै हैं। सो बाह्य का अर्थ यहु-जो बाह्य औरनिको दीसे यह तपस्वी है। बहुरि आप तो फल जैसे अन्तरंग परिणाम होगा तैसा ही पावेगा। जाते परिणामशून्य शरीर की क्रिया फलदाता नाहीं है।
बहुरि इहाँ प्रश्न- जो शास्त्रविषै तो अकामनिर्जरा कही है। तहाँ बिना चाहि भूख तृषादि सहे निर्जरा हो है तो उपवासादिकरि कष्ट सह कैसे निर्जरा न होय?
ताका समाधान-अकामनिर्जराविष भी बाह्य निमित्त तो बिना चाहि भूख तृषाका सहना भया है! अर तहाँ मंद कषायरूप भाव होय तो पापकी निर्जरा होय, देवादि पुण्यका बंध होय। अर जो तीव्रकषाय
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मए भी कष्ट सहे पुण्यवंध होय, तो सर्व तिर्यंचादिक देव ही होय सो बनै नाहीं। तैसे ही चाहकार उपवासादि किए तहाँ भूख तृषादि कष्ट सहिए है। सो यहु बाह्य निमित्त है। यहाँ जैसा परिणाम होय तैसा फल पावे है। जैसे अन्न का प्राण कह्या । बहुरि ऐसे बाह्यसाधन भए अंतरंग तपकी वृद्धि हो है तातै उपचारकरि इनको तप कहे हैं। जो बाम तप तो करै अर अंतरंग तप न होय तो उपचारतें भी वाको तपसंज्ञा नाहीं। सोई कमा है
कषायविषयाहारो, त्यागो यत्र विधीयते।
उपवासः स विज्ञेयः शेष लंधनक यिदुः।। जहाँ कषाय, विषय, आहारका त्याग कीजिए सो उपवास जानना। अवशेषको श्रीगुरु लंघन कहै हैं। यहाँ कहेगा- जो ऐसे हैं तो हम उपवासादि न करेंगे?
ताको कहिए है- उपदेश तो ऊँचा चढ़नेको दीजिए है। तू उलटा नीचा पड़ेगा तो हम कहा करेंगे। जो तू मानादिकतै उपवासादि करै है तो करि वा मति करै; किछू सिद्धि नाहीं। अर जो धर्मबुद्धिर्त आहारादिकका अनुराग छोड़े है, तो जेता राग छुट्या तेता ही छूट्या परन्तु इसहीको तप जानि इसतै निर्जरा मानि सन्तुष्ट मति होहु । बहुरि अंतरंग तपनिविषै प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, त्याग, ध्यानरूप जो क्रिया ताविषै बाह्य प्रवर्त्तनसो तो बाह्य तपवत् ही जानना। जैसे अनशनादि बाह्य क्रिया हैं। तैसे ए भी बाह्यक्रिया हैं। तातै प्रायश्चित्तादि बाह्य साधन अंतरंग तप नाहीं है। ऐसा बाह्य प्रवर्तन होते जो अंतरंग परिणामनिकी शुद्धता होय, ताका नाम अंतरंग तप जानना। तहाँ भी इतना विशेष है, बहुत शुद्धता भए शुद्धोपयोगरूप परिणति होइ; तहाँ तो निर्जरा ही है, बंध नाहीं हो है। अर स्तोक शुद्धता भए शुभोपयोगका भी अंश रहै, तो जेती शुद्धता भई ताकरि तो निर्जरा है अर जेता शुभ भाव है ताकरि बंध है। ऐसा मिश्रभाव युगपत् हो है, तहाँ बंध वा निर्जरा दोऊ हो हैं।
यहाँ कोऊ कहै- शुभ भावनितें पापकी निर्जरा हो है, पुण्यका बंध हो है, शुख भावनित दोऊनिकी निर्जरा हो है, ऐसा क्यों न कहो?
___ ताका उत्तर- मोक्षमार्गविष स्थितिका तो घटना सर्वही प्रकृतीनि का होय । तहाँ पुण्य पाएका विशेष है ही नाहीं। अर अनुभाग का घटना पुण्यप्रकृतीनिक शुद्धोपयोगरौं भी होता नाहीं। ऊपरि ऊपरि पुण्यप्रकृतीनिके अनुभाग का तीव्र बंध उदय हो है और पापप्रकृति के परमाणु पलटि शुभप्रकृतिरूप होय, ऐसा संक्रमण शुभ व शुद्ध दो भाव होते होय। तातै पूर्वोक्त नियम सम्भव नाहीं। विशुद्धताहीके अनुसार नियम सम्भवै है। देखो, धतुर्यगुणस्थानवाला शास्त्राभ्यास आत्मचितवनादि कार्यकरै, तहाँ भी निर्जरा नाहीं, बंध भी घना होय। अर पंचमगुणस्थानवाला विषय-सेवनादि कार्य करे, तहाँ भी वाके गुणश्रेणि निर्जरा हुआ कर, बंध भी थोरा होय। बहुरि पंधम गुणस्थानवाला उपवासादिवा प्रायश्विचादि तप करे, तिस कालविषै भी वाकै निर्जरा थोरी अर छठा गुणस्थानवाला आहार-विहारादि क्रिया करे, विस कालविष भी वाके निर्जरा धनी, उसतें भी बंध योरा होय। तातै वाय प्रवृत्तिके अनुसारि निर्जरा नाही
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सातवाँ अधिकार-१६१
है । अंतरंग कषायशक्ति घटे विशुद्धता भए निर्जरा हो है । सो इसका प्रगट स्वरूप आगै निरूपण करेंगे, तहाँ जानना ।
विशेष- "शुद्धभावनितै दोऊनि की निर्जरा हो है" प्रश्नकर्ता का यह कथन अकाट्य सत्य है । परन्तु यह कथन सहज रूप से तो धवल जयधवल महाधवल में भी उपलब्ध नहीं होता अतः बहुलता से प्ररूपण के अभाव में यह गम्य नहीं हो पाता । यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि शुभ प्रकृति/पुण्य प्रकृति के भी स्थितिकाण्डकघात होते हैं (ज.ध. १३/३३) तथा स्थितिकाण्डकों द्वारा स्थिति हीन होती हुई असंख्यातगुणी हीन हो जाती है । वे ऊपर के सब परमाणु नीचे की शेष बची अल्पतम स्थिति में आ जाते हैं और असंख्यातगुणहीन काल में ही असमय में ही निर्जीर्ण होने लगते हैं ।
शुद्ध मावों से गुणश्रेणिनिर्जरा होती है तथा ऐसी स्थिति में गुणश्रेणिनिर्जरा तीर्थंकर सदृश महापुण्य प्रकृति की भी होती है । (धवल १५ पृ. ३००-३०१-३०९ आदि) परन्तु यहाँ सर्वत्र यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसी निर्जरा को अवधि में मी पुण्य प्रकृति के परमाणुओं में से अनुभाग नहीं घटता । क्योंकि विशुद्धि से या शुद्धि से भी पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग नहीं घटता (जय ध, १४/१५२) । विस्तृत अन्य विवेचन
पुण्य या पाप प्रकृति की सभी की स्थिति' (टिकाव) तो पाप रूप ही है (तीन शुभ आयु की स्थिति को छोड़कर), अतः कोई विशेष नहीं है । फिर भी शुभ भाव से स्थिति कम पड़ती है, अशुभ से ज्यादा, यह विशेष तो है ही। अनुभाग का घटना पुण्य प्रकृति का, अशुभ भाव से होता है; शुभ माव से पुण्य प्रकृति का अनुभाग बढ़ता है, शुद्धोपयोग से शुभ का अनुभाग भले ही न घटो, पर शुभ प्रकृति की स्थिति तो खण्डित होती रहती ही है, स्थितिकाण्डकों द्वारा । इस कारण शुद्धोपयोग से पुश्मप्रकृति अनुभाग भी कम काल में ही उदय आने योग्य तो कर ही दिया जाता है ।
सामान्यतः शुभभाव से पाप की निर्जरा नहीं होती 1' पर सत्तास्थित पाप प्रकृति का कुछ अंश अवश्य पुण्यरूप संक्रमण (बदली) कर जाता है । इस प्रकार शुभ भाव से पाप-परमाणु की हानि, पुण्य प्रकृति की वृद्धि तथा अनियम से धर्म योग्य वातावरण भी क्वचित् कदाचित् मिलते हैं (पृ. ४०८) शुद्धोपयोग से पाप की निर्जरा तथा पुण्यानुभाग की वृद्धि तो होती है ही, साथ ही साथ पुण्य प्रकृति की स्थिति घटती है तथा पुण्य प्रकृतियों की निर्जरा (गुणश्रेणिनिर्जरा) भी होती है । परन्तु उस पुण्य प्रकृति के परमाणुओं में से रस (अनुभाग) कम नहीं होता । वे तो सरस ही फल देकर झड़ते हैं ।
१. मात्र करणलब्धि युक्त अन्तिम अन्तर्मुहूर्तवर्ती मिथ्यादृष्टि के निर्जरा होती है । इतना विशेष जानना चाहिए ।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१६२
जबकि पाप प्रकृति के परमाणु निर्जीर्ण रस होकर गुणश्रेणिनिर्जरा में झड़ते हैं, यह गूढार्थ है।
सारतः शुद्ध भाव से पुण्य-पाप दोनों की निर्जरा होती है, यह अकाट्य सत्य है। पर यहाँ पुण्य परमाणु हीनानुभाग होकर नहीं झरते; यथानुभाग ही वेदित हो कर झरते हैं।
दूसरा, यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि यद्यपि पंचम गुणस्थान में निरन्तर गुणश्रेणिनिर्जरा होती रहती है चाहे आत्मा का चिन्तन या देवपूजा कर रहा हो या विषयसेवन; परन्तु इतना विशेष है कि आत्मचिन्तनादि विशुद्ध परिणामों के समय होने वाली गुणश्रेणिनिर्जरा से विषयसेवनादि अविशुद्ध (संक्लेश) परिणाम निमित्तक प्रवृत्तियों के समय होने वाली गुणश्रेणिनिर्जरा प्रायः असंख्यातगुणी हीन हो जाती है। कहा भी है--संयतासंयत की गुणश्रेणिनिर्जरा संक्लेश और विशुद्धि के अनुसार न्यूनाधिक होती रहती है। विशुद्धि के अनुसार प्रत्येक समय में पूर्व समय की अपेक्षा कभी असंख्यात गुणी, कमी संख्यात गुणी, कभी संख्यातवाँ भाग अधिक और कभी असंख्यातवाँ भाग अधिक होती है तथा संक्लेश के अनुसार कभी अंसख्यागुनी हीन, को संख्यातनी होन, कभी सख्यातवाँ भाग हीन, कमी असंख्यातवाँ भाग हीन होती है। परन्तु गुण श्रेणिनिर्जरा बराबर बनी रहती है।
(जयधवल १३/१३०, प्रस्ता. पृ. १५-१६) परिणामानुसार उक्त चार स्थान वृद्धिरूप या चार स्थान हानि रूप द्रव्य का ऊपर से अपकर्षण होकर गुणश्रेणी में पतन होता है; यह अभिप्राय है। (लब्धिसार १७६ टीका)
ऐसे अनशनादि क्रियाको तपसंज्ञा उपचारतें जाननी। याहीत इनको व्यवहार तप कया है। व्यवहार उपचार का एक अर्थ है। बहुरि ऐसा साधनतें जो वीतरागभावरूप विशुद्धता होय सो साँचा तप निर्जराका कारण जानना । यहाँ दृष्टांत-जैसे धनको वा अत्रको प्राण कह्या सो धनतें अन्न ल्याय 'मक्षण किए प्राण पोषे जांय, तातें उपचार करि धन अत्र को प्राण कह्या । कोई इन्द्रियादिक प्राणको न जानै अर इनहीको प्राण जानि संग्रह करे, तो मरणही पाचे। तैसे अनशनादिकको वा प्रायश्चित्तादिकको तप कह्या, सो अनशनादि साधनतें प्रायश्चित्तादिरूप प्रवत्तें वीतरागभावरूप सत्य तप पोष्या जाय। तातै उपचारकरि अनशनादिको वा प्रायश्चित्तादिको तप कह्या । कोई वीतरागभावरूप तपको न जानै अर इनिहीको तप जानि संग्रह करै तो संसारही में प्रमै। बहुत कहा, इतना समझि लेना, निश्चय धर्म तो वीतरागभाव है। अन्य नाना विशेष बाह्य साधन अपेक्षा उपचारत किए हैं, तिनको व्यवहारमात्र धर्मसंज्ञा जाननी। इस रहस्य को न जाने, तातै वाकै निर्जराका भी साँचा श्रद्धान नाहीं है।
मोक्ष तत्त्वके श्रद्धानकी अयथार्थता बहुरि सिद्ध होना ताको मोक्ष मान है। बहुरि जन्म जरा मरण रोग क्लेशादि दुःख दूरि भए अनन्तज्ञान करि लोकालोकका जानना भया, त्रिलोकपूज्यपना भया, इत्यादि रूपकरि ताकी महिमा जानै है।
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सातवा आंधकार-१६३
सो सर्व जीवनिकै दुःख दूर करनेकी वा ज्ञेय जाननेकी वा पूज्य होने की चाहि है। इनिहीके अर्थ मोक्ष की चाह कीनी तो याकै और जीवनिका श्रद्धानतें कहा विशेषता भई।
___ बहुरि याकै ऐसा भी अभिप्राय है- स्वर्गविर्ष सुख है, तिनिः अनन्तगुणे मोक्षविष सुख है। सो इस गुणकारविषै स्वर्ग मोक्ष सुखकी एक जाति जानै है। तहाँ स्वर्गविषै तो विषयादि सामग्रीजनित सुख हो है, ताकी जाति याको भासै है अर मोक्षविषै विषयादि सामग्री है नाहीं, सो वहाँका सुखकी जाति याको भारी तो नाहीं परन्तु स्वगते भी मोक्षको उत्तम महान पुरुष कहै हैं, तातें यह भी उत्तम ही मानै है। जैसे कोऊ गानका स्वरूप न पहिचानै परन्तु सर्व सभाके सराहें, तातें आप भी सराहै हैं । तैसे यहु मोक्षको उत्तम मानै
__ यहाँ वह कहै है- शास्त्रविष भी तो इन्द्रादिकते अनंत गुणा सुख सिद्धनिकै प्ररूप हैं।
ताका उत्तर- जैसे तीर्थंकरके शरीरकी प्रभाको सूर्यप्रभात कोट्यां गुणी कही तहाँ तिनकी एक जाति नाहीं। परन्तु लोकविषै सूर्यप्रभा की महिमा है, तातें भी बहुत महिमा जनावनेको उपमालंकार कीजिए है। तैसे सिद्ध सुखको इन्द्रादिसुखः अनन्त गुणा कह्या। तहाँ तिनकी एक जाति नाहीं। परन्तु लोकविषै इन्द्रादिसुखकी महिमा है, तातें भी बहुत महिमा जनावनेको उपमालंकार कीजिए है।
बहुरि प्रश्न- जो सिद्ध सुख अर इन्द्रादिसुखकी एक जाति वह जानै है, ऐसा निश्चय तुम कैसे किया?
ताका समाधान- जिस धर्मसाधन का फल स्वर्ग मानै है, तिस धर्मसाधन ही का फल मोक्ष माने है। कोई जीव इन्द्रादिपद पावै, कोई मोक्ष पावै, तहाँ तिन दोऊनिकै एक जाति धर्मका फल भया माने। ऐसा तो मानै जो जाकै साधन थोरा हो है सो इन्द्रादिपद पाये है, जार्क सम्पूर्ण साधन होय सो मोक्ष पावै है परन्तु तहाँ धर्मकी जाति एक जान है। सो जो कारणकी एक जाति जाने, ताको कार्यकी भी एक जातिका श्रद्धान अवश्य होय। जाते कारणविशेष भए ही कार्यविशेष हो है। तात्रै हम यह निश्चय किया, वाकै अभिप्राय विषै इन्द्रादिसुख अर सिद्धसुख की एक जातिका श्रद्धान है। बहुरि कर्मनिमित्तः आत्माकै औपाधिक भाव थे, तिनका अभाव होते शुद्ध स्वभावरूप केवल आत्मा आप भया। जैसे परमाणु स्कंधते विछुरे शुद्ध हो हैं, तैसे यहु कर्मादिकते मित्र होय शुद्ध हो है। विशेष इतना-वह दोऊ अवस्थाविषै दुःखी सुखी नाहीं, आत्मा अशुद्ध अवस्थाविषे दुःखी था, अब बाके अभाव होनेर्ते निराकुल लक्षण अनंतसुखकी प्राप्ति भई। बहुरि इन्द्रादिकनिक जो सुख है, सो कषायभावनिकरि आकुलता रूप है। सो वह परमार्थत दुःख ही है। तातै वाकी याकी एक जाति नाहीं । बहुरि स्वर्गसुखका कारण प्रशस्तराग है, मोक्षसुखका कारण वीतराग भाव है, तातै कारण विषै भी विशेष है। सो ऐसा भाव याको मासै नाहीं। तातै मोक्षका भी याकै साँचा श्रद्धान नाहीं है।
या प्रकार याकै साँचा तत्त्व श्रद्धान नाहीं है। इस ही वास्ते समयसारविर्ष' कह्या है- “अभव्यकै
१. सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि ।
धम्म भोगणिमित्तं ण द सो कम्मक्खयणिमित्तं ।। गाथा २७५ ।।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१६४
तत्त्वश्रद्धान भए भी मिथ्यादर्शन ही रहै है।" वा प्रवचनसारविषै' कह्या है- “आत्मज्ञानशून्य तत्त्वार्थ-प्रदान कार्यकारी नाही" बहुरि यह व्यवहारदृष्टिंकारे सम्यग्दर्शन के आठ अंग कहै हैं तिनिको पाले है। पच्चीस दोष कहै हैं, तिनको टाले है। संवेगादिक गुण कहै हैं, तिनिको धारै है। परन्तु जैसे बीज बोए बिना खेतका तब साधन किए भी अन्न होता नाही, तैसे साँचा तत्त्व श्रद्धान भए बिना सम्यक्त होता नाहीं । सो पंचास्तिकाय व्याख्याविषै जहाँ अन्तविषै व्यवहाराभासवालेका वर्णन किया है, तहाँ ऐसा ही कथन किया हैं। या प्रकार याकै सम्यग्दर्शन के अर्थि साधन करते भी सम्यग्दर्शन न हो है।
सम्यग्ज्ञान के अर्थि साधन में अयथार्थता अब यह सम्यग्ज्ञान के अर्थि शास्त्रविष शास्त्राभ्यास किए सम्यग्ज्ञान होना कह्या है, ताते शास्त्राभ्यासविषै तत्पर रहे है। तहाँ सीखना, सिखायना, याद करना, बाँचना, पढ़ना आदि क्रियाविषै तो उपयोगको रमावै है परन्तु वाकै प्रयोजन ऊपरि दृष्टि नाहीं है। इस उपदेशविर्ष मुझको कार्यकारी कहा, सो अभिप्राय नाहीं। आप शास्त्राभ्यासकरि औरनिको सम्बोथन देनेका अभिप्राय राखै है। घने जीव उपदेश माने तहाँ सन्तुष्ट हो है। सो कामालास तो आपके अर्दिता है, प्रसंग पाय परका भी भला होय तो परका भी भला करे। बहुरि कोई उपदेश न सुने तो मति सुनो, आप काहेको विषाद कीजिए। शास्त्रार्थ का भाव जानि आपका मला करना। बहुरि शास्त्राभ्यासविषै भी केई तो व्याकरण न्याय काव्य आदि शास्त्रनिको बहुत अभ्यास है सो ए तो लोकवि पंडितता प्रगट करनेके कारण हैं। इन विषै आत्महित निरूपण तो है नाहीं इनका तो प्रयोजन इतना ही है, अपनी बुद्धि बहुत होय तो थोरा बहुत इनका अभ्यासकरि पीछे आत्महित के साधक शास्त्र तिनिका अभ्यास करना। जो बुद्धि थोरी होय, तो आत्महित के साथक सुगम शास्त्र तिनहीका अभ्यास करे। ऐसा न करना, जो व्याकरणादिकका ही अभ्यास करते-करते आयु पूरी होय जाय अर तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति न बने।
यहाँ कोऊ कहै- ऐसे है तो व्याकरणादिकका अभ्यास न करना। ताको कहिए है। तिनिका अभ्यास बिना महान् ग्रन्थनिका अर्थ खुलै नाहीं। तातै तिनका भी अभ्यास करना योग्य
बहुरि यहाँ प्रश्न- महान् ग्रन्थ ऐसे क्यों किए, जिनका अर्थ व्याकरणादि बिना न खुले। भाषारि सुगमरूप हितोपदेश क्यों न लिख्या। उनकै किछू प्रयोजन तो था नाही?
ताका समाधान- भाषाविषै भी प्राकृत संस्कृतादिक के ही शब्द है परन्तु अपभ्रंश लिये है। बहुरि देश-देशविषै भाषा अन्य-अन्य प्रकार है सो महत पुरुष शास्त्रनिविषै अपभ्रंश शब्द कैसे लिखे। बालक तोतला बोले तो बड़े तो न बोले। बहुरि एक देश के भाषा रूप शास्त्र दूसरे देशविषै जाँय तो तहाँ ताका अर्थ कैसे भासे। तातै प्राकृत संस्कृतादि शुद्ध शब्दरूप ग्रन्थ जोड़े। बहुरि व्याकरण बिना शब्द का अर्थ यथावत् न भासे । न्याय बिना लक्षण परीक्षा आदि यथावत न होय सके। इत्यादि वचनद्वारि वस्तु का स्वरूप १. अतः आत्मज्ञानशून्यमागमज्ञान - तत्त्यार्थश्रद्धान-संयतत्त्वयोगपद्यमप्यकिंचित्करमेय ।। सं. टीका अ. ३ गाथा ३६।।
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सातवाँ अधिकार - १६५
निर्णय व्याकरणादि बिना नीके न होता जानि तिनकी आम्नाय अनुसार कथन किया। भाषाविषै भी तिनकी थोरी बहुत आम्नाय आए ही उपदेश होय सकेँ है । तिनको बहुत आम्नायते नीक निर्णय हो सके है।
बहुरि जो कहोगे - ऐसे हैं, तो अब भाषारूप ग्रन्थ काहेको बनाइए है?
ताका समाधान - कालदोष जीवनिकी मंद बुद्धि जानि केई जीवनिकै जेता ज्ञान होगा तेता ही होगा, ऐसा अभिप्राय विचारि भाषाग्रन्थ कीजिए है। सो जे जीव व्याकरणादिका अभ्यास न करि सकै, तिनको ऐसे ग्रन्थनिकरि ही अभ्यास करना । बहुरि जे जीव शब्दनिकी नाना युक्ति लिए अर्थ करने को ही व्याकरण अवगाहै हैं, वादादिकरि महंत होने को न्याय अवगाहै हैं, चतुरपना प्रगट करने के अर्थि काव्य अवगाहे हैं, इत्यादि लौकिक प्रयोजन लिए इनिका अभ्यास करे हैं, ते धर्मात्मा नाहीं । बनै जेता थोरा बहुत अभ्यास इनका करि आत्महित के अर्थि तत्त्वादिकका निर्णय करे है, सोई धर्मात्मा पंडित जानना ।
बहुरि केई जीव पुण्य-पापादिक फल के निरूपक पुराणादिक शास्त्र वा पुण्य-पापक्रिया के निरूपक आचारादि शास्त्र वा गुणस्थान मार्गणा कर्मप्रकृति त्रिलोकादिक के निरूपक करणानुयोग के शास्त्र तिनका अभ्यास करें है। सो जो इनिका प्रयोजन आप न विचारै, तब तो सूवाकासा ही पढ़ना भया। बहुरि जो इनका प्रयोजन विचारे है तहाँ पाप को बुरा जानना, पुण्यको भला जानना, गुणस्थानादिक का स्वरूप जानि लेना, इनका अभ्यास करेंगे तितना हमारा भला है, इत्यादि प्रयोजन विचारया सो इसतें इतना तो होसी - नरकादिक न होसी, स्वर्गादिक होसी परन्तु मोक्षमार्ग की तो प्राप्ति होय नाहीं । पहले साँचा तत्त्वज्ञान होय, तहाँ पीछे पुण्यपाप का फल को संसार जानै, शुद्धोपयोग मोक्ष मार्ने, गुणस्थानादिरूप जीव का व्यवहार निरूपण जानै, इत्यादि जैसा का तैसा श्रद्धान करता संता इनिका अभ्यास करे तो सम्यग्ज्ञान होय । सो तत्त्वज्ञानको कारण अध्यात्मरूप द्रव्यानुयोग के शास्त्र हैं; बहुरि केई जीव तिन शास्त्रनिका भी अभ्यास करे हैं। परन्त जहाँ जैसे लिख्या है, तैसे आप निर्णय करि आपको आपरूप, परको पररूप, आस्रवादिक को आस्रवादिरूप न श्रद्धान करे है। मुखर्ते तो यथावत् निरूपण ऐसा भी करें, जाके उपदेशतें और जीव सम्यग्दृष्टी होय जाँय । परन्तु जैसे लड़का स्त्री का स्वांगकरि ऐसा गान करें, जाको सुनतें अन्य पुरुष स्त्री काम रूप होय जाँय परन्तु वह जैसे सीख्या तैसे कहे है, वाको किछू भाव भासे नाहीं, तातैं आप कामासक्त न हो है। तैसे यहु जैसे लिख्या तैसे उपदेश दे परन्तु आप अनुभव नाहीं करे है। जो आपके श्रद्धान भया होता तो और तत्त्व का अंश और तत्त्वविषै न मिलायता। सो याकै थल नाहीं, तार्ते सम्यग्ज्ञान होता नाहीं । ऐसे यह ग्यारह अंगपर्यंत पढ़े तो भी सिद्धि होती नाहीं । सो समयसारादिविषै मिध्यादृष्टी के ग्यारह अंगनिका ज्ञान होना लिख्या है।
यहाँ कोऊ कई ज्ञान तो इतना हो है परन्तु जैसे अभव्यसेनकै श्रद्धानरहित ज्ञान भया, तैसे हो है ?
ताका समाधान - वह तो पापी था, जाकै हिंसादिकी प्रवृत्ति का भय नाहीं । परन्तु जो जीव वैवेयिक आदिविषै जाय हैं, ताकै ऐसा ज्ञान हो है सो तो श्रद्धानरहित नाहीं: वाकै तो ऐसा ही श्रद्धान है, ए ग्रन्थ
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१६६
साँचे हैं परन्तु तत्त्वश्रद्धान साँचा न भया। समयसारविर्षे' एक ही जीव के धर्म का श्रद्धान, एकदशांगका ज्ञान, महाव्रतादिकका पालना लिख्या है। प्रवचनसारविर्षे ऐसा लिख्या है- आगमज्ञान ऐसा भया जाकर सर्वपदार्थनिको हस्तामलकवत् जान है। यह भी जाने है, इनका जाननहारा मैं हूँ। परन्तु मैं ज्ञानस्वरूप हूँ ऐसा आपको परद्रव्यतै भिन्न केवल चैतन्यद्रव्य नाहीं अनुमवै है। तातें आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान भी कार्यकारी नाहीं । या प्रकार सम्यग्ज्ञानकं अधि जैनशास्त्रनिका अभ्यास करै है, तो भी याकै सम्यग्ज्ञान नाहीं।
सम्यक्चारित्रके अर्थि साधनमें अयथार्थता बहुरि इनकै सम्यक्चारित्रके अर्थ कैसे प्रवृत्ति है सो कहिए है-बाह्यक्रिया ऊपरि तो इनकै दृष्टि है अर परिणाम सुधरने बिगरनेका विचार नाहीं । बहुरि जो परिणामनिका भी विचार होय, तो जैसा अपना परिणाम होता दीसै, तिनहीके ऊपरि दृष्टि रहै है। परन्तु उन परिणामनिकी परम्परा विचारे अभिप्रायविषै जो वासना है, ताको न विचारै है। अर फल लागै है सो अभिप्रायविषै वासना है ताका लागै है। सो इसका विशेष व्याख्यान आगै करेंगे, तहाँ स्वरूप नीके मासेगा। ऐसी पहिचान बिना बाह्य आचरणका ही उद्यम
तहाँ केई जीव तो कुलक्रमकरि वा देखादेखी वा क्रोध मान माया लोभादिकतै आचरण आचरै हैं। सो इनकै तो धर्मबुद्धि ही नाही, सम्यक्चारित्र कहाँतै होय। ए जीव कोई तो भोले हैं या कषायी हैं, सो अज्ञानभाव वा कषाय होते सम्यक्चारित्र होता नाहीं। बहुरि केई जीव ऐसा मान है, जो जानने में कहा (अर मानने में कहा है) किछू करेगा तो फल लागेगा। ऐसे विचारि व्रत तप आदि क्रिया ही के उद्यमी रहै है अर तत्त्वज्ञानका उपाय न करै है। सो तत्त्वज्ञान बिना महाव्रतादिका आचरण भी मिथ्याचारित्र ही नाम पावै है। अर तत्त्वज्ञान भए किछू भी व्रतादिक नाहीं हैं, तो भी असंयतसम्यग्दृष्टी' नाम पावै है। तातै पहले तत्त्वज्ञान
१. मोक्ख असदहतो अभवियसत्तो दु जो अथीएज्ज।
पाठो ण करेदि गुणं असद्दहतस्स गाणं तु ।। गाथा २७४ ।। मोक्षं हि न तावदभव्यः श्रद्धत्ते शुद्धज्ञानमयात्मज्ञानशून्यत्वात्। ततो ज्ञानमपि नासौ श्रद्धत्ते । ज्ञानमश्रद्दधान-श्चाचाराधेकादशांग श्रुतमधीयानोऽपि श्रुताध्ययनगुणाभाबान्न ज्ञानी स्यात् । स किल गुणःश्रुताध्ययनस्य यद्विविक्तवस्तुभूतज्ञानमयात्मज्ञान; तच्च विविक्तवस्तुभूतं ज्ञानमश्रद्दधानस्याभव्यस्य श्रुताध्ययनेन न विषातुं शक्येत ततस्तस्य तद्गुणाभावः। सतश्च ज्ञानश्रद्धानाभावात सोऽजानीति प्रतिनियतः। परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो।
विज्जदि जदि सो सिद्धिं ग लहदि सब्बागमधरो वि।। अ, ३ गाथा ३६ ।। ३. यहाँ इतना अवश्य जानना चाहिए कि मनुष्य असंयत सम्यक्त्यी भी ढाई द्वीप में मात्र ७०० करोड़ हैं। (घवल पु.
३/२५२, . पृ. ६४, ब्रह्मविलास पृ. ११०) तथा सकल मनुष्यों की संख्या यदि न्यूनतम २२ अंक प्रमाण भी मानी जावे (पवल पु. ३/२५५) तो भी १३ अंक प्रमाण संख्या पर एक असंयत सम्यक्त्वी मनुष्य औसतन प्राप्त होता है। अर्थात् औसतन दस खरव मनुष्यों में से एक असंयत सम्यग्दृष्टि आत्मा है। अतः हर कोई अपने आपको सम्यक्त्वी नहीं मान बैठे।
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सातयाँ अधिकार- १६७
का उपाय करना, पीछे कषाय पटावनेको बाह्य साधन करना । सो ही योगीन्द्रदेवकृत श्रावकाचारविषै कह्या
है
#दसणभूमिहं बाहिरा जिय वयरुक्ख ण हुति । *
याका अर्थ- यहु सम्यग्दर्शनभूमिका बिना हे जीव व्रतरूपी वृक्ष न होय । बहुरि जिन जीवनिकै तत्त्वज्ञान नहीं, ते यथार्थ आचरण न आचरे हैं। सोई विशेष दिखाईए है
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केई जीव पहले तो बड़ी प्रतिज्ञा घर बैठे अर अंतरंग विषय - कषायवासना मिटी नाहीं । तब जैसे तैसे प्रतिज्ञा पूरी किया चाहें, तहाँ तिस प्रतिज्ञाकरि परिणाम दुःखी हो हैं । जैसे बहुत उपवासकरि बैठे, पीछे पीड़ा दुःखी हुवा रोगीवत् काल गमावै, थर्मसाधन न करै सो पहले ही सपती जानिए तितनी ही प्रतिमा क्यों न लीजिए। दुःखी होनेमें आर्तध्यान होय, ताका फल भला कैसे लागेगा । अथवा उस प्रतिज्ञा का दुःख न सह्या जाय, तब ताकी एवज विषय पोषने को अन्य उपाय करे। जैसे तृषा लागे तब पानी तो न पीवै अर अन्य शीतल उपचार अनेक प्रकार करै वा घृत तो छोडै अर अन्य स्निग्ध वस्तुको उपायकरि भी । ऐसे ही अन्य जानना । सो परीषह न सही जाय थी, विषयवासना न छूटै थी, तो ऐसी प्रतिज्ञा काहेको करी । सुगम विषय छोड़ि पीछे विषम विषयनिका उपाय करना पडे, ऐसा कार्य काहेको कीजिए । यहाँ तो उलटा रागभाव तीव्र हो है अथवा प्रतिज्ञाविषै दुःख होय तब परिणाम लगावनेको कोई आलम्बन विचारै । जैसे उपवासकरि पीछे क्रीड़ा करे। कई पापी जूवा आदि कुविसनविषै लगे हैं अथवा सोय रह्या चाहैं । यहु जाने, किसी प्रकारकरि काल पूरा करना। ऐसे ही अन्य प्रतिज्ञाविषै जानना ।
अथवा केई पापी ऐसे भी हैं, पहले प्रतिज्ञा करै, पीछे तिसतें दुःखी होय तब प्रतिज्ञा छोड़ि दें। प्रतिज्ञा लेना - छोड़ना तिनके ख्यालमात्र है । सो प्रतिज्ञा भंग करने का महापाप है। इसतें तो प्रतिज्ञा न लेनी ही भली है। या प्रकार पहले तो निर्विचार होय प्रतिज्ञा करै, पीछे ऐसी दशा होय । जैनधर्मविषै प्रतिज्ञा न लेनेका दण्ड तो है नाहीं। जैनधर्मविषे तो यहु उपदेश है, तो पहले तो तत्त्वज्ञानी होय । पीछे जाका त्याग करै, ताका दोष पहिचानै। त्याग किए गुण होय, ताको जाने । बहुरि अपने परिणामनिको ठीक करे। वर्त्तमान परिणामनि ही के भरोसे प्रतिज्ञा न कर बैठे। आगामी निर्वाह होता जानै, तो प्रतिज्ञा करै। बहुरि शरीर की शक्ति वा द्रव्य क्षेत्र काल भावादिकका विचार करें। ऐसे विचारि पीछे प्रतिज्ञा करनी, सो भी ऐसी करनी जिस प्रतिज्ञातैं निरादरपना न होय, परिणाम चढ़ते रहें। ऐसी जैनधर्मकी आम्नाय है।
यहाँ कोऊ कहै - चांडालादिकोंने प्रतिज्ञा करी, तिनकै इतना विचार कहाँ हो है ।
ताका समाधान - मरणपर्यन्त कष्ट होय तो होहु परन्तु प्रतिज्ञा न छोड़नी, ऐसा विचारकरि प्रतिज्ञा करे है, प्रतिज्ञाविषै निरादरपना नाहीं । अर सम्यग्दृष्टी प्रतिज्ञा करें है, सो तत्त्वज्ञानादिपूर्वक ही करे है। बहुरि जिनके अंतरंग विरक्तता न भई अर बाह्य प्रतिज्ञा घरै हैं ते प्रतिज्ञाके पहले या पीछे जाकी प्रतिज्ञा करे, ताविषे अति आसक्त होय लागे हैं। जैसे उपवासके धारने पारने भोजनविषै अति लोभी होय गरिष्ठादि भोजन करे, शीघ्रता घनी करै सो जैसे जलको मूंदि राख्या था, छूट्या तब ही बहुत प्रवाह चलने लागा ।
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माक्षमार्ग प्रकाशक-१६८
तैसे प्रतिज्ञाकरि विषय प्रवृत्ति दि अंतरंग आसक्तता बधती गई। प्रतिज्ञा पूरी होते ही अत्यंत विषयप्रवृत्ति होने लागी। सो प्रतिज्ञाका कालविषै विषयवसना मिटी नाहीं। आगे पीछे ताकी एवज अधिक राग किया, तो फल तो रागभाव मिटे होगा। तात जेती विरक्तता भई होय, तितनी ही प्रतिज्ञा करनी। महामुनि भी थोरी प्रतिज्ञा कर, पीछै आहारादिविष उछटि करै। अर बड़ी प्रतिज्ञा करै हैं, सो अपनी शक्ति देखकर करै है। जैसे परिणाम चढ़ते रहै सो करै हैं, प्रमाट पी न होट अर आकुलता भी न उपजै; ऐसी प्रवृत्ति कार्यकारी जाननी।
बहुरि जिनकै धर्म ऊपरि दृष्टि नाही, ते कबहूँ तो बड़ा धर्म आचरै, कबहूँ अधिक स्वच्छन्द होय प्रवर्त। जैसे कोई धर्मपर्वविषै तो बहुत उपवासादि करै, कोई धर्मपर्वविष बारम्बार भोजनादि करै। सो धर्मबुद्धि होय तो यथाशक्ति सर्व धर्मपर्वनिविष यथायोग्य संयमादि धरै। बहुरि कबहुँ तो कोई धर्मकार्यविष बहुत धन खरचै, कबहुँ कोई धर्मकार्यआनि प्राप्त भया होय, तो भी तहाँ थोरा भी धन न खरचै। सो थर्मबुद्धि होय, तो यथाशक्ति यथायोग्य सर्व ही धर्मकार्यनिविषै धन खरच्या करै। ऐसे ही अन्य जानना।
बहुरि जिनके साँचा धर्मसाधन नाही, ते कोई क्रिया तो बहुत बड़ी अंगीकार करै अर कोई हीनक्रिया किया करै। जैसे धनादिकका तो त्याग किया अर चोखा भोजन चोखा वस्त्र इत्यादि विषयनिविर्षे विशेष प्रवर्ते । बहुरि कोई जामा पहरना, स्त्रीसेवन करना, इत्यादि कार्यनिका तो त्यागकरि धर्मात्मापना प्रगट करै अर पीछे खोटे व्यापारादि कार्य कर, लोकनिंद्य पापक्रियाविषै प्रवर्ते ऐसे ही कोई क्रिया अति ऊँची, कोई क्रिया अति नीची करै। तहाँ लोकनिंद्य होय थर्मकी हास्य करावै। देखो अमुक धर्मात्मा ऐसे कार्य करै हैं। जैसे कोई पुरुष एक वस्त्र तो अति उत्तम पहरै, एक वस्त्र अतिहीन पहरै तो हास्य ही होय, तैसे यह हास्य पावै है। साँचा धर्मकी तो यह आम्नाय है, जेता अपना रागादि दूर भया होय, ताके अनुसार जिस पदयिषै जो धर्मक्रिया सम्भवै, तो सर्व अंगीकार करै । जो थोरा रागादि मिट्या होय तो नीचा ही पदविर्ष प्रवर्ते परन्तु ऊँचा पद पराय नीची क्रिया न करै।'
यहाँ प्रश्न- जो स्त्रीसेवनादिकका त्याग ऊपर की प्रतिमाविषे कह्या है, सो नीचली अवस्था-वाला तिनका त्याग कर कि न करे?
ताका समायान- सर्वथा तिनका त्याग नीचली अवस्थावाला कर सकता नाहीं। कोई दोष लागै है, ताते ऊपरकी प्रतिमाविषे त्याग कह्या है। नीचली अवस्थाविषै जिस प्रकार त्याग सम्भवे, तैसा नीचली अवस्थावाला भी करै। परन्तु जिस नीचली अवस्थाविषै जो कार्य सम्भवै ही नाहीं ताका करना तो कषायभावनिहीत हो है। जैसे कोऊ सप्तव्यसन सेवै, स्वस्वीका त्याग करै, तो कैसे बने? यद्यपि स्वस्त्रीका त्याग करना धर्म है, तथापि पहले सप्तव्यसन का त्याग होय, तब ही स्वस्त्रीका त्याग करना योग्य है। ऐसे ही अन्य जानने।
बहुरि सर्व प्रकार धर्मको न जाने, ऐसा जीव कोई धर्मका अंगको मुख्यकरि अन्य धर्मनिको गौण
१. इसी ग्रन्थ का छठा अधिकार भी देखिए। पृ.सं. १४२ ॥
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सातवाँ अधिकार-१६६
करै है। जैसे केई जीव दयाधर्मको मुख्य करि पूजा प्रभावनादि कार्यको उथाप है, केई पूजा प्रभावनादि धर्मको मुख्यकरि हिंसादिक का भय न राखै है, केई तपकी मुख्यताकरि आर्त्त ध्यानादिकरिके भी उपवासादि करै वा आपको तपस्वी मानि निःशंक क्रोधादि करै, केई दानकी मुख्यताकरि बहुत पाप करिके भी धन उपजाय दान दे है, केई आरम्भ-त्यागकी मुख्यताकरि याचना आदि करै है।' इत्यादि प्रकार करि कोई धर्मको मुख्यकरि अन्य धर्मको न गिनै है वा वाकै आसरै पाप आचरै है। सा जैसे अविवेकी व्यापारी कोई व्यापारका नफेके अर्थि अन्य प्रकारकरि बहुत टोटा पाड़े तैसे यह कार्य भया। चाहेए तो ऐसे, जैसे व्यापारीका प्रयोजन नफा है, सर्व विचारकरि जैसे नफा घना होय तैसे करै। तैसे ज्ञानीका प्रयोजन वीतरागभाव है। सब विचारकरि जैसे वीतरागभाव घना होय तैसे करै। जानै मूलधर्म वीतरागभाव है। याही प्रकार अविवेकी जीव अन्यथा धर्म अंगीकार कर है, तिनकै तो सम्यक्वारित्रका आभास भी न होय।
बहुरि केई जीव अणुव्रत महाव्रतादि रूप यथार्थ आचरण करै हैं। बहुरि आचरणके अनुसार ही परिणाम हैं। कोई माया लोभादिकका अभिप्राय नाहीं है। इनिको धर्म जानि मोक्षके अर्थि इनिका साधन करै हैं। कोई स्वर्गादिक भोगनि की भी इच्छा न राखै है परन्तु तत्त्वज्ञान पहलै न भया, ताः आप तो जानै मैं मोक्षका साधन करूं हूँ अर मोक्षका साधन जो है ताको जाने भी नाहीं । केवल स्वर्गादिकहीका साथन करै। सो मिश्रीको अमृत जानि भखे अमृतका गुण तो न होय। आपकी प्रतीतिके अनुसार फल होता नाहीं। फल जैसा साधन कर, तैसा ही लागै है। शास्त्रविषै ऐसा कह्या है- चारित्रवि 'सम्यक्' पद है, सो अज्ञानपूर्वक आचरणकी निवृत्ति के अर्थि है । तातै पहलै तत्त्वज्ञान होय, तहाँ पीछे चारित्र होय सो सम्यक्धारित्र नाम पावै है। जैसे कोई खेतीवाला बीज तो बोवै नाही अर अन्य साधन करै तो अन्नप्राप्ति कैसे होय, घास फूस ही होय। तैसे अज्ञानी तत्त्वज्ञानका तो अभ्यास करै नाही अर अन्य साधन करै तो मोक्षप्राप्ति कैसे होय, देवपदादिक ही होय । तहाँ केई जीव तो ऐसे हैं, तत्त्वादिकका नीके नाम भी न जाने केवल व्रतादिकविषै ही प्रवर्ते हैं। केई जीव ऐसे हैं, पूर्वोक्त प्रकार सम्यग्दर्शन ज्ञानका अयथार्थ साधनकरि व्रतादि विष प्रवर्ते हैं। सो यद्यपि व्रतादिक यथार्थ आचरै तथापि यथार्थ श्रद्धान ज्ञान बिना सर्व आचरण मिथ्याचारित्र ही है। सोई समयसारका कलशाविषै कह्या है
क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः क्लिश्यन्तां च परे महायततपोभारेण भग्नाश्चिरम्। साक्षान्मोक्षमिदं निरामयपद संवेद्यमानं स्वयं, ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि।।
- निर्जराधिकार ।।१४२।।
५. यहाँ खरड़ा प्रति में अन्य कुछ और लिखने के लिए संकेत किया है। यह संकेत निम्न प्रकार है :
"इहाँ स्नानादि शौच धर्म का कथन तथा लौकिक कार्य आए धर्म छोड़ि तहाँ लगि जाय है, तिनिका कधन लिखना है, किन्तु पं. जी लिख नहीं पाये।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक- २००
याका अर्थ- मोक्ष पराङ्मुख ऐसे अतिदुस्तर पंचाग्नि तपनादि कार्य तिनकरि आपही क्लेश करे है तो करो। बहुरि अन्य केई जीव महाव्रत अर तपका भारकरि चिरकालपर्यन्त क्षीण होते क्लेश करे हैं तो करो। परन्तु यहु साक्षात् मोक्षस्वरूप सर्वरोगरहित पद जो आप आप अनुभवमें आवै, ऐसा ज्ञानस्वभाव सो तो ज्ञानगुण बिना अन्य कोई भी प्रकारकरि पावने को समर्थ नाहीं है। बहुरि पंचास्तिकायविषै जहाँ अंतविषै व्यवहाराभास वालेका कथन किया है तहाँ तेरह प्रकार चारित्र होते भी तरका मोक्षमार्गविषे निषेध किया है। बहुरि प्रवचनसारविषै आत्मज्ञानशून्य संयमभाव अकार्यकारी कला है। बहुरि इनही ग्रन्थनिविषै वा अन्य परमात्मप्रकाशादि शास्त्रनिविषै इस प्रयोजन लिए जहाँ तहाँ निरूपण है । तातैं पहले तत्त्वज्ञान भए ही आचरण कार्यकारी है ।
यहाँ कोऊ जानेगा, बाह्य तो अणुव्रत महाव्रतादि साधै हैं, अंतरंग परिणाम नाहीं वा स्वर्गादिंककी वांछाकर साधे हैं, सो ऐसे साधे तो पापबंध होय । द्रव्यलिंगी मुनि उपरिम ग्रैवेयकपर्यन्त जाय है । परावर्तनिविषै इकतीस सागर पर्यन्त देवायुकी प्राप्ति अनन्तबार होनी लिखी है। सो ऐसे ऊंचेपद तो तब ही पावै जब अंतरंग परिणामपूर्वक महाव्रत पाले, महामंदकषायी होय, इस लोक परलोकके भोगादिकी चाह न होय, केवल धर्मबुद्धिर्ते मोक्षाभिलाषी हुवा साधन साथै । तातें द्रव्यलिंगीकै स्थूल तो अन्यथापनो है नाहीं, सूक्ष्म अन्यथापनो है सो सम्यग्दृष्टीको भारी है। अब इनकै धर्मसाधन कैसे है अर तामें अन्यथापनो कैसे है? सो कहिए है
द्रव्यलिंगी के धर्म-साधन में अन्यथापना
प्रथम तो संसारविषै नरकादिकका दुःख जानि वा स्वर्गादिविषे भी जन्म-मरणादिकका दुःख जानि संसारत उदास होय मोक्षको चाहैं हैं । सो इनि दुःखनिको तो दुःख सब ही जाने है । इन्द्र अहमिन्द्रादिक विषयानुरागर्ते इन्द्रियजनित सुख भोगवे हैं ताको भी दुःख जानि निराकुल सुख अवस्थाको पहचानि मोक्ष चाहे हैं, सोई सम्यग्दृष्टि जानना । बहुरि विषयसुखादिकका फल नरकादिक है, शरीर अशुचि विनाशीक है-पोषने योग्य नाहीं, कुटुम्बादिक स्वार्थके सगे हैं, इत्यादि परद्रव्यनिका दोष विचारि तिनिका तो त्याग करे हैं। व्रतादिकका फल स्वर्गमोक्ष है, तपश्चरणादि पवित्र अविनाशी फलके दाता है, तिनकरि शरीर सोखने योग्य है, देव गुरु शास्त्रादि हितकारी हैं, इत्यादि परद्रव्यनिका गुण विचारि तिनहीको अंगीकार करे है। इत्यादि प्रकारकरि कोई परद्रव्यको बुरा जानि अनिष्ट श्रद्ध है, कोई परद्रव्य को भला जानि इष्ट श्रद्धे है। सो परद्रव्यविषै इष्ट अनिष्टरूप श्रद्धान सो मिथ्या है। बहुरि इसही श्रद्धानते याकै उदासीनता भी द्वेषबुद्धि रूप हो है । जातैं काहूको बुरा जानना, ताहीका नाम द्वेष है।
कोऊ कहेगा, सम्यग्दृष्टी भी तो बुरा जानि परद्रव्यको त्याग है ।
ताका समाधान - सम्यग्दृष्टी परद्रव्यनिको बुरा न जाने है। अपना रागभावको बुरा जाने है। आप रागभावको छोरै, तातै ताका कारणका भी त्याग हो है । वस्तु विचारै कोई परद्रव्य तो बुरा भला है। नाहीं ।
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सातवाँ अधिकार-२०१
कोऊ कहेगा, निमित्तमात्र तो है।
ताका उत्तर- परद्रव्य जोरावरी तो कोई बिगारता नाहीं। अपने भाव बिगरै तब वह भी बासनिमित्त है। बहुरि वाका निमित्त बिना भी भाव बिगरै हैं। तातै नियमरूप निमित्त भी नाहीं। ऐसे परद्रव्यका तो दोष देखना मिथ्याभाव है। रागादिभाव ही बुरे हैं सो याकै ऐसी समझि नाहीं। यह परद्रव्यनिका दोष देखि तिनविर्षे द्वेषरूप उदासीनता करै है। सांची उदासीनता तो ताका नाम है, कोई ही द्रव्यका दोष वा गुण न भास, तात काहूको बुरा भला न जाने। आपको आप जाने, परको पर जाने, परतें किछू भी प्रयोजन मेरा नाहीं ऐसा मानि साक्षीभूत रहै। सो ऐसी उदासीनता ज्ञानीहीकै होय । बहुरि यहु उदासीन होय शास्त्रविषै व्यवहारचारित्र अणुव्रत महाव्रत रूप कह्या है ताको अंगीकार कर है, एकदेश वा सर्वदेश हिंसादि पापको छोड़े है, तिनकी जायगा अहिंसादि पुण्यरूप कार्यनिविष प्रयत है। बहुरि जैसे पर्यायाश्रित पापकार्यनिविर्ष कापना अपना मानै था तैसे ही और पर्यायाश्रित पुण्यकार्यनिविषे कर्त्तापना अपना मानने लागा, ऐसे पर्यायाश्रित कार्यनिविषै अहंबुद्धि मानने की समानता भई। जैसे मैं जीव मारूं हूँ, मैं परिग्रहधारी हूँ, इत्यादिरूप मानि थी, तैसे ही मैं जीवनिकी रक्षा करूं हूँ, मैं नग्न, परिग्रहरहित हूँ, ऐसी मानि भई। सो पर्यायाश्रित कार्यविषै अहंबुद्धि सो ही मिथ्यादृष्टि है। सोई समयसारविष कामा है
ये तु कर्तारमात्मानं पश्यन्ति तमसातताः। सामान्यजनदत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षुता ।।।
(सर्व वि. अधिकार १६६) याका अर्थ- जे जीव मिथ्या अन्धकार व्याप्त होते संते आपको पर्यायाश्रित क्रियाका कर्ता माने हैं, ते जीव मोक्षाभिलाषी हैं, तोऊ तिनकै जैसे अन्यमती सामान्य मनुष्यनिकै मोक्ष न होय तैसे मोक्ष न हो है। जातें कर्त्तापनाका श्रद्धानकी समानता है। बहुरि ऐसे आप कर्ता होय श्रावकधर्म वा मुनिधर्मकी क्रिया विषै मन वचन कायकी प्रवृत्ति निरन्तर राखै है। जैसे उन क्रियानिविषै भंग न होय तैसे प्रवत्तें हैं। सो ऐसे भाव तो सराग हैं। चारित्र है सो वीतरागभाव रूप है। तातें ऐसे साधनको मोक्षमार्ग मानना मिथ्याबुद्धि है।
यहाँ प्रश्न- जो सराग वीतराग भेदकरि दोयप्रकार चारित्र कह्या है सो कैसे है?
ताका उत्तर- जैसे तन्दुल दोय प्रकारके हैं- एक तुषसहित हैं, एक तुषरहित हैं, तहाँ ऐसा जाननातुष है सो तन्दुलका स्वरूप नाही, तन्दुलविषै दोष है। अर कोई स्याना तुषसहित तन्दुलका संग्रह करै था, ताको देखि कोई भोला तुषनि ही को तन्दुल मानि संग्रह करै तो वृथा खेदखिन ही. होय । तैसे चारित्र दोय प्रकारका है- एक सराग है एक वीतरांग है। तहाँ ऐसा जानना- राग है सो चारित्रका स्वरूप नाही, चारित्रविषै दोष है। अर केई ज्ञानी प्रशस्तरागसहित चारित्र धरै हैं, तिनको देखि कोई अज्ञानी प्रशस्तरागहीको चारित्र मानि संग्रह करे तो वृथा खेदखिन्न ही होय।
यहाँ कोऊ कहेगा- पापक्रिया करते तीदरागादिक होते थे, अब इनि क्रियानिको करते मंदराग भया। तातें जेता अंशा रागभाव घट्या, तितना अंशा तो चारित्र कहो। जेता अंशा राग रह्या, तेता अंशा राग कहो। ऐसे याकै सरागचारित्र सम्भवै है।
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पोक्षमार्ग प्रकाशक-२०२
ताका समाधान- जो तत्त्वज्ञानपूर्वक ऐसे होय तो कहो हो तैसे ही है। तत्त्वज्ञान बिना उत्कृष्ट आचरण होते भी असंयम ही नाम पावै है। जाते रागभाव करनेका अभिप्राय नाहीं मिट है। सोई दिखाईए
द्रव्यलिंगी के अभिप्राय में अयथार्थपना द्रव्यलिंगी मुनि राज्यादिकको छोड़ि निर्ग्रन्थ हो है, अठाईस मूलगुणनिको पाले है, उग्रोग्र अनशनादि घना तप कर है, क्षुथादिक बाईस परीषह सहै है, शरीरका खंड खंड भए भी व्यग्र न हो है, व्रत भंगके कारण अनेक मिले तो भी दृढ़ रहे है, कोई सेती क्रोध न कर है, ऐसा साधनका मान न कर है, ऐसे साधनविष कोई कपटाई नाहीं है, इस साथनकरि इस लोक परलोकके विषय-सुखको न चाहै है, ऐसी याकी दशा भई है। जो ऐसी दशा. न होय तो गैवेयकपर्यन्त कैसे पहुंचे' परन्तु याको मिथ्यादृष्टि असंयमी ही शास्त्रविषै कह्या । सो ताका कारण यह है-याकै तत्त्वनिका श्रद्धान ज्ञान साँचा भया नाहीं। पूर्व वर्णन किया, तैसे तत्त्वनिका श्रद्धान ज्ञान गया है। तिसही अभिप्रायतें सब साथन करै है। सो इन साधननिका अभिप्रायकी परम्पराको विचारे कषायनिका अभिप्राय आवै है। कैसे? सो सुनहु-यह पापका कारण रामादिकको तो हेय जानि छोरै है परन्तु पुण्यका कारण प्रशस्त रागको उपादेय मान है। ताके बधनेका उपाय करै है। सो प्रशस्तराग भी तो कषाय है। कषायको उपादेय मान्या, तब कषाय करने का ही श्रद्धान रह्या। अप्रशस्त परद्रव्यनिस्यों द्वेषकरि प्रशस्त परद्रव्यनिविषै राग करनेका अभिप्राय भया। किछू परद्रव्यनिविषै साम्यमावरूप अभिप्राय न भया। १, इस कथन का अभिप्राय यह है कि मिथ्यात्वी मुनि भी नवमवेयक तक पहुँच सकते हैं। इस कथन का अभिप्राय ऐसा
मत समझना कि वेयक में द्रव्यलिंगी ही जाते हैं, या मिथ्यादृष्टि ही जाते हैं। नवम ग्रैवेयक में जितने भी जीव है उनकी संख्या पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण मात्र ही है (यवल ३/२१) तथा नवम ग्रेवेयक में जो भी जीव (मुनिराज) जाते हैं वे प्रायः सम्यक्त्वी तथा भावलिंगी ही झेते हैं। यही कारण है कि नवम वेयक में स्थित देवों में जितने मिथ्यात्वी है उनसे संख्यातगुणे सम्यग्दृष्टि है। (धवल ३/२८३-८४, २६६, २६९ के अल्पबाघ) जिसका तथ्यात्मक अर्थ यह निकला कि जिनलिंग यानी मुनिपद धारण करके फिर भी द्रव्यसंयम (मात्रद्रव्यलिंग) ही बना रहे ऐसे पुनि अल्प ही होते हैं। (धवत ३/२६४) स्थूलार्थ यह है कि - यदि मनुष्यों में स्थित सकल ऐसे श्रेष्ठ तपस्वियों को संचित (इकट्ठा) किया जाए जो नवम ग्रैवयेक में जाने योग्य तप तप रहे है तो उन सब एकत्र श्रेष्ठ तपस्वी मुनियों में से संख्यात बहुमाग प्रमाण सम्यकवी होंगे तथा एक भाग प्रमाण ही मिथ्यादृष्टी प्राप्त होंगे। ऐसा समझना चाहिए।
द्वितीय तथ्य यह है कि - अन्तिम प्रैवेयक में जाने वाले द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि साधुओं के जीव दिव) इतने कम हैं - इतने कम है कि वे स्वों के सम्यग्दृष्टि देवों के असंख्यातवें भाग प्रमाण ही हैं। दिखे थक्स ३, पृ. २६-१६ सोहम्मीसाण असंजद.....गाव उपरिम उवरिमगेवज्जो ति। तदो अणुविस. का सार) अतः हे भव्यो। ऐसे व्यलिंगी साधु भी है कहाँ? अनन्तों में से एक जीव ही ऐसे प्रकृष्ट पुरुषार्थ वाला होता है। ___पं. टोडरमलजी का यहाँ अभिप्राय यह है कि सम्यक्त्व बिना तप का मूल्य नहीं है, वह तो सत्य ही है। पर यहाँ श्रीमद् राजचन्द्र का कथन भी स्मरणीय है कि श्रद्धा और ज्ञान प्राप्त कर लेने पर भी यदि संयम नहीं आया और प्रमाद का नाश नहीं हुआ तो जीव बांसवृक्ष की उष्मा को पाता है। (श्रीमद् पृ. ५६२) किंच, बान का फल विरति है। वीतराग का यह वचन सभी को स्मरण रखना योग्य है। श्रीमद् अंक ७४६ पृष्ठ ६४४)
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सातवाँ अधिकार-२०३
यहाँ प्रश्न- जो सम्यग्दृष्टी भी तो प्रशस्तरागका उपाय राखै है।
ताका उत्तर यहु- जैसे काहूकै बहुत दंड होता था, सो वह थोरा दंड देनेका उपाय राखै है अर योरा दंड दिए हर्ष भी मानै है परन्तु श्रद्धानविषै दंड देना अनिष्ट ही मान है। तैसे सम्यग्दृष्टीकै पापरूप बहुत कषाय होता था, सो यहु पुण्यरूप थोरा कषाय करने का उपाय राखै है। अर थोरा कषाय भए हर्ष भी मानै है परन्तु श्रद्धान विषै कषाय को हेय ही माने है। बहुरि जैसे कोऊ कमाईका कारण जानि व्यापारादिकका उपाय राखै है, उपाय बनि आए हर्ष मान है तैसे द्रव्यलिंगी मोक्षका कारण जानि प्रशस्त रागका उपाय राखै है, उपाय बनिआए हर्ष माने है। ऐसे प्रशस्तरागका उपायविषै वा हर्षविष समानता होते भी सम्यग्दृष्टीकै तो दण्डसमान, मिथ्यादृष्टिकै व्यापारसमान श्रद्धान पाईए है। ता” अभिप्रायविर्ष विशेष भया।
बहुरि याकै परीषह तपश्चरणादिक के निमित्त दुःख होय, ताका इलाज तो न करै है परन्तु दुःख वेदै है। सो दुःखका वेदना कषाय ही है। जहाँ वीतरागता हो है, तहाँ तो जैसे अन्य ज्ञेयको जानै है तैसे ही दुःखका कारण बने तानै है। मो. ऐसी दाना पानी नही है । सहुनि उनको सहै है, सो भी कषायका अभिप्रायरूप विचारतें सहै है। सो विचार ऐसा ही है- जो परवशपने नरकादिगतिविषै बहुत दुःख सहे, ये परीषहादिका दुःख तो थोरा है। याको स्ववश सहे स्वर्ग मोक्षसुखकी प्राप्ति हो है। जो इनको न सहिए अर विषयसुख सेइए तो नरकादिककी प्राप्ति होसी, तहाँ बहुत दुःख होगा। इत्यादि विचारविर्ष परीषहनिविषै अनिष्टबुद्धि रहै है। केवल नरकादिकके भयते वा सुखके लोभते तिनको सहै है। सो ए सर्व कषायभाव ही हैं। बहुरि ऐसा विचार हो है-जे कर्म बाँधे थे, ते भोगे बिना छूटते नाही, तातै मोको सहने आए। सो ऐसे विचारतें कर्मफलचेतना रूप प्रवत्र्ते है। बहरि पर्यायदृष्टितै जे परीषहादिकरूप अवस्था हो है, ताको आपके भई माने है। द्रव्यदृष्टितें अपनी वा शरीरादिककी अवस्थाको भिन्न न पहिचान है। ऐसे ही नाना प्रकार व्यवहार विचारतें परीषहादिक सहै है।
बहुरि याने राज्यादि विषयसामग्रीका त्याग किया है वा इष्ट भोजनादिकका त्याग किया करै है। सो जैसे कोऊ दाहज्वरवाला वायु होनेके भयत शीतलवस्तु सेवनका त्याग करै है परन्तु यावत् शीतल वस्तुका सेवन रुचे तावत् वाकै दाहका अभाव न कहिए । तैसे राग सहित जीव नरकादिके भयतै विषयसेवनका त्याग कर है परन्तु यावत् विषयसेवन रुचै तावत् रागका अभाव न कहिए। बहुरि जैसे अमृत का आस्वादी देवको अन्य भोजन स्वयमेव न रुचै, तैसे स्वरसके आस्वादकरि विषयसेवनकी रुचि याकै न हो है। या प्रकार फलादिक की अपेक्षा परीषह सहनादिको सुखका कारण जानै है अर विषयसेवनादिको दुःखका कारण जाने है। बहुरि तत्कालविषै परीषह सहनादिकतै दुःख होना माने है, विषयसेवनादिकतै सुख माने है। बहुरि जिनसे सुख दुःख होना मानिए, तिनविषै इष्ट अनिष्ट बुद्धित रागद्वेष रूप अभिप्रायका अभाव होय नाहीं। बहुरि जहाँ रागद्वेष है, तहाँ चारित्र होय नाहीं। तातै यहु द्रव्यलिंगी विषयसेवन छोरि तपश्चरणादि करै है। तथापि असंयमी ही है। सिद्धांतविष असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टीत भी याको हीन कह्या है। जात उनकै चौथा पाँचवाँ गुणस्थान है, याकै पहला ही गुणस्थान है।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२०४
यहाँ कोऊ कहै कि- असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टीकै कषायनिकी प्रवृत्ति विशेष है अर द्रव्यलिंगी मुनिकै थोरी है, याहीत असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टी तो सोलहवाँ स्वर्ग पर्यन्त ही जाय अर द्रव्यलिंगी उपरिन ग्रैवेयकपर्यन्त जाय। तातै भावलिंगी मुनितें तो द्रव्यालीको हीन कहो, असंयत देशसयत सम्यग्दृष्टीत याको हीन कैसे कहिए?
___ ताका समाधान- असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टीकै कषायनिकी प्रवृत्ति तो है परन्तु श्रद्धानविष किसी ही कषायके करनेका अभिप्राय नाहीं। बहुरि द्रव्यलिंगीकै शुभ कषाय करने का अभिप्राय पाइए है। श्रद्धानविष तिनको भले जाने है। तातें श्रद्धान अपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टितै भी याकै अधिक कषाय है। बहुरि द्रव्यलिंगीकै योगनिकी प्रवृत्ति शुभ रूप घनी हो है अर अघातिकर्मनिविषै पुण्य पापबंधका विशेष शुभ अशुभ योगनिके अनुसार है। तातें उपरिम अवेयकपर्यन्त पहुँचै है, सो किछू कार्यकारी नाहीं। जात अघातिया कर्म आत्मगुणके घातक नाहीं। इनके उदयतें ऊँचैनीचे पद पाए तो कहा भया। ए तो बाह्य संयोगमात्र संसार दशाके स्वांग हैं। आप तो आत्मा है, तातै आत्मगुण के घातक घातिया कर्म हैं, तिनका हीनपना कार्यकारी है। सो घातियाकर्मनिका बंध बाह्य प्रवृत्ति के अनुसार नाहीं। अंतरंग कषाय शक्ति के अनुसार है। याहीत, द्रव्यलिंगीत असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टिकै घातिकर्मनिका बंध थोरा है। द्रव्यलिंगीकै तो सर्वघातिकर्मनिका बंध बहुत स्थिति अनुभाग लिए होय अर असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टिकै मिथ्यात्व अनन्तानुबंधी आदि कर्मका तो बंध है ही नाहीं, अवशेषनिका बंध हो है सो स्तोक स्थिति अनुभाग लिए हो है। बहुरि द्रव्यलिंगी के कदाचित् गुणश्रेणीनिर्जरा न होय, सम्पग्दृष्टीकै कदाधित हो है अर देशसंयम सकलसंयम भए निरन्तर हो है। याहीत यहु मोक्षमार्गी भया है। तातै द्रव्यलिंगी मुनि असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टीत हीन शास्त्रविषै कह्या है। सो समयसार शास्त्रविषै द्रव्यलिंगी मुनिका हीनयना गाथा वा टीकाकलशानिविषै प्रगट किया है। बहुरि पंचास्तिकायकी टीकाविषै जहाँ केवल व्यवहारावलम्बीका कथन किया है, तहाँ व्यवहार पंचाचार होते भी ताका हीनपना ही प्रगट किया है। बहुरि प्रवचनसारविषै संसार तत्त्व द्रव्यलिंगीको कह्या । बहुरि परमात्मप्रकाशादि अन्य शास्त्रनिविषै भी इस व्याख्यानको स्पष्ट किया है। बहुरि द्रव्यलिंगी के जप तप शील संयमादि क्रिया पाइए है, तिनको भी अकार्यकारी इन शास्त्रनिविषै जहाँ तहाँ दिखाई है, सो तहाँ देखि लेना। यहाँ ग्रन्थ बधनेके भयतें नाहीं लिखिए हैं। ऐसे केवल व्यवहाराभासके अवलम्बी मिथ्यादृष्टी तिनका निरूपण किया। . अब निश्चय-व्यवहार दोऊ नयनिके आभासको अवलम्बै है, ऐसे मिथ्यादृष्टी तिनका निरूपण कीजिए है
निश्चय व्यवहारनयामासावलम्बी मिथ्यादृष्टियों का निरूपण जे जीव ऐसा माने हैं- जिनमतविधै निश्चय व्यवहार दोय नय कहे हैं, ताते हमको तिन दोऊनिका अंगीकार करना। ऐसे विचारि जैसे केवल निश्चयाभास के अवलम्बीनिका कथन किया था, तैसे तो निश्चयका अंगीकार कर हैं अर जैसे केवल व्यवहारामासके अवलम्बीनिका कथन किया था, तैसे व्यवहारका अंगीकार करै हैं। यद्यपि ऐसे अंगीकार करने विषै दोऊ नयनिके परस्पर विरोध है तथापि कर कहा, साँचा
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सातवाँ अधिकार-२०५
तो दोऊ नयनिका स्वरूप भारया नाहीं अर जिनमतविषै दोय नय कहे, तिनिविर्ष काहूको छोड़ी भी जाती नाहीं । तातें भ्रम लिए दोऊनिका साधन साधै है, ते भी जीव मिथ्यादृष्टी जानने।
अब इनकी प्रवृत्तिका विशेष दिखाईए है. अंतरंगविषै आप तो निर्धार करि यथावत् निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग को पहिचान्या नाहीं, जिनआज्ञा मानि निश्चय व्यवहाररूप मोक्षमार्ग दोय प्रकार मानै है सो मोक्षमार्ग दोय नाही, मोक्षमार्ग का निरूपण दोय प्रकार है। जहाँ सांचा मोक्षमार्गको मोक्षमार्ग निरूपिए सो निश्चय मोक्षमार्ग है अर जहाँ जो मोक्षमार्ग तो है नाहीं परन्तु मोक्षमार्ग का निमित्त है वा सहचारी है, ताको उपचारकरि मोक्षमार्ग कहिए सो व्यवहार मोक्षमार्ग है, जातै निश्चय व्यवहारका सर्वत्र ऐसा ही लक्षण है। सांचा निरूपण सो निश्चय, उपचार निरूपण सो व्यवहार, तातै निरूपण अपेक्षा दोय प्रकार मोक्षमार्ग जानना। एक निश्चय मोक्षमार्ग है, एक व्यवहार मोक्षमार्ग है; ऐसे दोय मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। बहुरि निश्चय व्यवहार दोऊनिक उपादेय माने है, सो भी भ्रम है। जाते निश्चय व्यवहारका स्वरूप तो परस्पर विरोध लिए है। जाते समयसार विषै ऐसा कह्या है
“यवहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ।' गाथा ११ याका अर्थ-- व्यवहार अभूतार्थ है। सत्य स्वरूपको न निरूप है। किसी अपेक्षा उपचारकरि अन्यथा निरूपै है। बहुरि शुद्धनय जो निश्चय है सो भूतार्थ है। जैसा वस्तु का स्वरूप है तैसा निरूप है। ऐसे इन दोऊनिका स्वरूप तो विरुद्धता लिए है।
विशेषः - मो. मा. प्र. (सस्ती ग्रन्धमाला, दिल्ली प्रकाशन के पृष्ट ४४३ अधिकार ८) में ही लिखा है- “तातें जो उपदेश होय ताको सर्वथा न जानि लेना। उपदेश का अर्ध को जानि तहाँ इतना विचार करना, यह उपदेश किस प्रकार है, किस प्रयोजन को लिए है, किस जीव को कार्यकारी है।"
पृ. २८८ (वही संस्करण) पर कहा है- “जैसे वैद्य रोग मेट्या चाहे है। जो शीत का आधिक्य देखै, तो उष्ण औषधि बतावै अर आताप का आधिक्य देखै तो शीतल औषधि बतावै । तैसे श्री गुरु रागादिक छुड़ाया चाहै है। जो रागादिक पर का माने स्वच्छन्द होय निरुद्यमी होय ताको उपादानकारण की मुख्यता करि रागादिक आत्मा का है ऐसा श्रद्धान कराया। बहुरि जो रागादिक आपका स्वभाव मानि तिनिका नाश का उद्यम नाहीं करे है, ताको निमित्तकारण की मुख्यता करि रागादिक परभाव हैं, ऐसा श्रद्धान कराया है।"
मो. मा. प्र. के उपर्युक्त दोनों वाक्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाना जीवों को नानाप्रकार का मिथ्यात्व रोग लग रहा है। क्योंकि मिथ्यात्व रोग नाना प्रकार का है, अतः उसका १. ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुखणओ। ___ भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्टी हवइ जीवो ।। गाथा ११।।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२०६
उपचार भी नाना उपदेशरूपी औषधियों द्वारा बतलाया गया है। इसलिए किसी भी उपदेश को सर्वथा न समझ लेना चाहिए। अपने मिथ्यात्वरूपी रोग के कारण को पहिचान कर, उन नाना उपदेशरूपी
औषधियों में से उस कारण को दूर करनेवाली औषधि का सेवन करेगा तो रोग उपशांत हो जायगा। यदि विपरीत औषधि का सेवन करेगा तो मिथ्यात्वरूपी रोग पुष्ट हो जायगा। समयसार गाथा ५० से ५५ तक में निश्चयनय की अपेक्षा रागादि को पुद्गलमय कहे और गाथा ५६ में व्यवहारनय की अपेक्षा जीव के कहे हैं। यदि कोई निश्चयनय के कथन को सत्यार्थ मान और व्यवहारनय के कथन को असत्यार्थ मान अपने-आपको रागादि से सर्वथा भिन्न अनुभवे तो उसको व्यवहारनय की उपदेश रूपी औषधि का सेवन करना चाहिए अर्थात् व्यवहारनयके उपदेश को सत्यार्थ मान अर्थात् रागादि को आत्मा के भाव मानकर उनको दूर करने का उपाय करना चाहिए। अन्यथा उसका मिथ्यात्वरूपी रोग दूर नहीं होगा। किन्तु निश्चयनय के उपदेशरूपी औषधि सेवन करने से उसका मिथ्यात्वरूपी रोग पुष्ट होता जायगा। इसी बात को भो. मा. प्र. पृ. २६१ (यही संस्करण) पर कहा
"यहाँ कोऊ कहे- हमको तो बंध मुक्ति का विकल्प करना नाहीं, जाते शास्त्रविषे ऐसा कह्या है- 'जो बंधउ मुक्काउ मुणइ, सो बंधइ णिभंतु।' याका अर्थ - जो जीव बंध्या अर मुक्त भया मानै है, सो निःसंदेह बंधै है। ताको कहिये है- जे जीव केवल पर्यायदृष्टि होय बंध मुक्त अवस्था ही को माने हैं, द्रव्यस्वभाव का ग्रहण नाहीं करे हैं, तिनको ऐसा उपदेश दिया है, जो द्रव्यस्वभाव को न जानता जीव बंध्या मुक्त भया माने, सो बंधै है। बहुरि जो सर्वथा ही बंध मुक्ति न होय, तो सौ जीव बंधै है, ऐसा काहे को कहै । अर बंध के नाश का, मुक्त होने का उद्यम काहे को करिये है। काहे को आत्मानुभव करिए है। ता” द्रव्यदृष्टि करि एकदशा है, पर्यायदृष्टि करि अनेक अवस्था हो है, ऐसा मानना योग्य है। ऐसे ही अनेक प्रकार करि केवल निश्चयनय का अभिप्रायतें विरुद्ध श्रद्धानादिक करै है। जिनवाणी विषै तो नाना नय अपेक्षा, कहीं कैसा कहीं कैसा निरूपण किया है। यह अपने अभिप्रायतें निश्चयनय की मख्यता करि जो कथन किया होय, ताही को ग्रहिकरि मिथ्यादृष्टि को घारै है।"
पृ. २६२ पर कहा है- “यहु चतवन जो द्रव्यदृष्टि करि करो हो, तो द्रव्य तो शुद्ध-अशुद्ध सर्वपर्यायनिका समुदाय है। तुम शुद्ध हो अनुभवन काहे को करो हो। अर पर्यायदृष्टि करि करो हो तो तुम्हारे तो वर्तमान अशुद्धपर्याय है। तुम आपको शुद्ध कैसे मानो हो? बहुरि जो शक्ति अपेक्षा शुद्ध मानो हो, तो मैं ऐसा होने योग्य हूँ, ऐसा मानो। मैं ऐसा हूँ ऐसे काहे को मानो हो। तात आपको शुखरूप चितवन करना भ्रम है। काहे ते-तुम आपको सिद्ध समान मान्या, तो यह संसार-अवस्था कौन की है। अर तुम्हारे केवलज्ञानादिक हैं तो ये मतिज्ञानादिक कौन के हैं। अर
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सातवाँ अधिकार-२०७
द्रव्यकर्म नोकर्म-रहित हो तो ज्ञानादिक की व्यक्तता क्यों नहीं? परमानन्दमय हो तो अब कर्तव्य कहा रह्या? जन्म-मरणादी दुःख ही नाहीं तो दुःखी कैसे होते हो? तातै अन्य अवस्थाविषै अन्य अवस्था मानना 'प्रम है।"
पृ. २६३ पर कहा है- आपको द्रव्यपर्यायरूप अवलोकना। द्रव्यकरि सामान्यस्वरूप अवलोकना, पर्यायकरि अवस्था विशेष अवधारना। ऐसे ही चिंतवन किये सम्यग्दृष्टी हो है।"
इन उपर्युक्त कथनों में यह कहा गया है कि 'निश्चय की मुख्यता करि जो कथन किया होय ताहि को ग्रहण करि मिथ्यादृष्टि होय है। यदि "निश्चयनय भूतार्थ है और वस्तु का जैसा स्वरूप है तैसा निरूपै है" (पृ. ३६६), तो निश्चयनय के कथन को ग्रहण करने वाला मिथ्यादृष्टि क्यों? 'शुद्ध रूप चिंतवन करना प्रम है' (पृ. २६२) ऐसा क्यों?
व्यवहारनय करि जीव की मुक्त अवस्था है। निश्चयनय करि तो जीव न प्रमत्त है और न अप्रमत्त है, किन्तु एक अवस्थारूप है। व्यवहारनय का कथन जो मुक्तअवस्था को उपादेय न माने अर्थात् यदि व्यवहारनय को उपादेय न माने तो 'बन्ध के नाश का मुक्त होने का उद्यम काहे को करिये है, काहे को आत्मानुभव करिये है।' पृ. २६१ के इस कथन से स्पष्ट है कि व्यवहारनय के कथन को भी उपादेय माना गया है। पृ. २६८ पर भी कहा है- “बहुरि जो तू कहेगा, केई सम्यग्दृष्टी भी तपश्चरण नाहीं करे हैं। ताका उत्तर- यहु कारण विशेषतै तप न होय सकै है परन्तु श्रद्धानविषै तो तप को भला जाने हैं। ताके साधन का उद्यम राखे हैं।” यहाँ पर भी व्यवहारनय के इस कथन को सम्यग्दृष्टि उस (तप) को श्रद्धानि विष भला जानै है। (अर्थात् उपादेयरूप श्रद्धान करे है) और तप के साधन का उद्यम राखै है (अर्थात् सम्यग्दृष्टि अनशनादि तप का उपादेयरूप से श्रद्धान करे है और उसतप को उपादेय मान उसके साधन का प्रयत्न करे है) यहाँ पर भी व्यवहारनय के कथन अनशनादि तप को उपादेय रूप से श्रद्धान करने को और ग्रहण करने को कहा है।
वृ. २६३ पर "द्रव्यकरि सामान्य स्वरूप अवलोकना, पर्यायकरि अवस्था विशेष अवधारना। ऐसे ही चिंतवन किए सम्यग्दृष्टी हो है।" वस्तु सामान्यरूप भी है और विशेषरूप भी है। सामान्य निश्चयनय का विषय है, 'विशेष' व्यवहारनय का विषय है। सामान्य-विशेष दोनों रूप अर्थात् 'ऐसे भी है, ऐसे भी है" इसरूप चिंतवन करने वाला सम्यग्दृष्टी है। यह इस कथन का तात्पर्य है। यदि कोई निश्चयनय के कथन 'सामान्य' को सत्यार्थ माने और व्यवहारनय के विषय विशेष (परिणमन को असत्यार्थ मानेगा तो उसके मत में वस्तु नित्य कूटस्थ हो जाने से अर्थक्कियाकारी नहीं रहेगी, जिससे वस्तु के अभाव का प्रसंग आ जायगा और सांख्यमत की तरह एकान्तमिथ्यादृष्टि हो जाएगा। इसीलिए निश्चयनय के कथन 'सामान्य और व्यवहारनय के कथन 'विशेष' दोनों की श्रद्धा करने वाले को सम्यग्दृष्टि कहा है।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२०८
पृ. २६६ पर भी कहा है- "केवल आत्मज्ञान ही ते तो मोक्षमार्ग होइ नाहीं। सप्त तत्त्वनिका श्रद्धान ज्ञान भए वा रागादिक दूरि किये मोक्षमार्ग होगा। सो सप्ततत्वनिका विशेष जानने को भाव-अजीव के विशेष का कर्म के जान-ब-पादिक का विशेष अवश्य जानना योग्य है, जाते सम्यग्दर्शन-ज्ञान की प्राप्ति होय । बहुरि तहाँ पीछे रागादिक दूरि करने, सो जे रागादिक बधावने के कारण तिनको छोड़ि जे रागादिक घटावने के कारण होय तहाँ उपयोगको लगावना।” यहाँ पर निश्चयनय के कथनरूप जो आत्मज्ञान उसके तो मोक्षमार्गपने का निषेध किया। और व्यवहारनय के कथन “सात तत्त्व का श्रद्धान, ज्ञान व रागादिक औपाधिक भावों का दूर करना' इसको मोक्षमार्ग कहा है।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मो. मा. प्र. में स्वयं दो प्रकार का कधन पाया जाता है। अतः उपर्युक्त उपदेश को सर्वथा न समझ लेना चाहिए। मो.मा.प्र. में स्वयं कहा है- “इसलिए जो उपदेश हो उसको सर्वथा न समझ लेना चाहिए। उपदेश के अर्थ को जानकर वहाँ इतना विचार करना चाहिए कि यह उपदेश किस प्रकार है, किस प्रयोजन को लेकर है और किस जीव को कार्यकारी है।"
जो उपर्युक्त कथन (पृ. ३६६ व.३६६ के कथन) को सर्वथा मान बैटे हैं क्या वे 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' के स्वाध्याय करने वाले कहे जा सकते हैं?
यहाँ तक निश्चयनय व व्यवहारनय के सम्बन्ध में 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' के अनुसार कथन हुआ। अब आर्षग्रन्थ के अनुसार कथन किया जाता है
यदि यह कहा जाय कि निश्चयनय की दृष्टि में व्यवहारनय का विषय अभूतार्थ है, तो इससे यह सिद्ध नहीं होता कि व्यवहारनय का विषय सर्वथा अभूतार्थ है।
शंका - ववहारोऽभूयत्थो (गाथा ११ स.सा.), इसका व्यवहार असत्य है', ऐसा अर्थ करना क्या समुचित है?
समाधान - समुचित है। परन्तु यहाँ अपेक्षा विशेष से ही व्यवहार को असत्य कहा है। समयसार अध्यात्मग्रन्थ है तथा अध्यात्मनिश्चयप्रधान होता है। अध्यात्म में निश्चय का ही कथन होता है। अतः
१. भूत = सत्य, अर्थ = स्वरूप, भूतार्थ = सत्य स्वरूप या सत्यार्थ (मूलाचार गाथा २०३, पृष्ठ १६८ ज्ञानपीठ) तथा
जिनसहस्रनामस्तोत्र (श्रुतसागरीय टीका ६/११३) स.सा.ता वृत्ति तथा लौकिक ग्रन्थ अभि.शाकु. अंक १ मृच्छकटिक्स
३/२४ आदि। इनमें भूतार्थ व अभूतार्थ क्रमशः सत्य य असत्य अर्थ के वाचक हैं। २. अ.अ.क. पृष्ठ ३।
३. स.प्रा.पृ. ४ (प्रकाशक : शान्तिलालजी कागजी, दिल्ली)
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सातवाँ अधिकार-२०E
समयसार में प्रायः निश्चय की दृष्टि से - निश्चय की मुख्यता से ही कथन किया हुआ है। तदनुसार निश्चय की दृष्टि से ही यहाँ व्यवहार को असत्यस्वरूप कहा है। परन्तु अपने अर्थ में तो यह उतना ही सत्य है जितना कि निश्चय।' इसके लिए समयसार के निम्न प्रमाण दृष्टव्य हैं - १. व्यवहार ...... मत छोड़ो।२ २. व्यवहार नय को यदि कोई सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो....... | संसार में ही भ्रमण करेगा। ३. व्यवहार कथंचित् असत्यार्थ है। वह सर्वथा असत्यार्थ नहीं है। ४. सर्व नयों की कचित् सत्यार्थता का प्रसार करने से ही सम्यक्दृष्टि हुआ जा सकता है।' ५. व्यवहारनय व्यवहारी जीवों को परमार्थ (निश्चयनय) का कहने वाला है। ६. यदि व्यवहार को सर्वथा असत्यार्थ ही समझा जाये तो.... परमार्थ का भी लोप हो जायेगा।" ७. निश्चय और व्यवहार श्रुतज्ञान के अवयव हैं। ८. एक नय का सर्वधा पक्ष ग्रहण किया जाये तो मिथ्यात्व के साथ मिला हुआ राग होता है। प्रयोजनवश
एक नय को प्रधान करके उसका ग्रहण करें तो मिथ्यात्व बिना चारित्रमोह का राग हो जाता है। ६. पांचों प्रमाण, दोनों नय तथा चारों निक्षेप साधक अवस्था में तो सत्यार्थ ही हैं। तथा भिन्न लक्षण से
रहित अपने एक चेतन लक्षण रूप जीव स्वभाव का अनुभव करने पर ये सभी अभूतार्थ हैं यानी प्रमाण नय निक्षेप सविकल्प अवस्था में भूतार्थ हैं, किन्तु परम समाधि के काल में ये भी अभूतार्थ हो जाते हैं। इसी तरह नव पदार्थ प्राथमिक शिष्य की अपेक्षा भूतार्थ हैं, निर्विकल्प समाथि अवस्था में अभूतार्थ हैं।०
१. वर्णी अ.न.पृ. ३५४-५. पं. फूलचन्दजी सि.शास्त्री। २. जई जिणमयं पवजह ता मा बबाणिच्छए मुयह ।
एकेण विणा छिज्जइ तिथं अण्णेण उण तच्च । स.सा.गा. १२ आ.रा. ३. समयप्राभृत पृ. ४६ आ.ख्या. जयचन्दजी छाबड़ाकृत वचनिका ।
प्रकाशक : शान्तिलालजी कागजी, २४४, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली तथा धर्मामृत अनगार पृ. ७४ (जानपीट) ४. समयप्राभृत वही पृ. ४६, ६०, ८१. १३१ आदि (गाथा १२,१४,२८,६० की यचनिका) ५. अर्थात कोई भी नय सर्वथा सत्यार्थ नहीं है। स.प्रा.प्र. ६० गाथा १४ की वचनिका तथा स.प्रा.आ ग्व्या. १४३ दचनिका। ६. स.सा. ६ आ.ख्या.। ७. स.मा. ६० आ.ख्या.. t. स.सा. १४३ आ.ख्या.। ६. स.सा. १४३ जयचन्दजी की वधानका। १०. मूलाचार पृ. १७१ सानपीट (इसी तरह व्यवहार नय शुभोपयोग के काल में भूतार्थ है। वही शुद्धोपयोग के काल में
अभूताई हो जाता है। पुनः वहां से पतित होकर नीचे की भूमिका में आने पर पुनः व्यवहार भूतार्थ हो जाता है।
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१०. व्यवहार नय भूतार्थ भी है तथा अभूतार्थ भी है । इस तरह दो प्रकार का है ।' ११. निश्चय और व्यवहार में समय लाना है।
इन सब बिन्दुओं को गम्भीरता से देखने पर यह अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहारनय अध्यात्म में निश्चय नय की अपेक्षा मिथ्या कहा गया है, परन्तु व्यवहार की अपेक्षा व्यवहार सत्य ही है । बौद्ध निश्चय की अपेक्षा व्यवहार को झूठ मानते हैं उसी प्रकार के व्यवहार को व्यवहार दृष्टि से भी असत्य मानते हैं । परन्तु जैनमत में ऐसा नहीं है । जैनमत में सभी नय कथंचित् सत्यार्थ हैं ।'
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज समयसार टीका (अजमेर प्रकाशन) में पृष्ठ १४-१५ पर लिखते हैं कि यहाँ पर भूतार्थ शब्द का अर्थ सत्यार्थ व अभूतार्थ का अर्थ असत्यार्थ किया है, किन्तु यहाँ पर असत्यार्थ का अर्थ सर्वथा निस्सार नहीं लेना चाहिए किन्तु 'अ' का अर्थ ईषत् लेकर व्यवहारनय अभूतार्थ अर्थात तात्कालिक प्रयोजनवान है, ऐसा लेना चाहिए । जैसाकि स्वयं जयसेनाचार्यजी ने भी अपने तात्पर्यार्थ में बतलाया है।
किंच, भूत शब्द का अर्थ संस्कृत भाषा के विश्वलोचनकोश में जिस प्रकार सत्य बतलाया है, उसी प्रकार उसका अर्थ 'सम' भी बतलाया है। अतः भूतार्थ सम है अर्थात् सामान्य धर्म को स्वीकार करने वाला है तो अभूतार्थ का अर्थ विषम अर्थात् विशेषता को कहने वाला स्वतः हो जाता है जिससे व्यवहारनय अर्थात् पर्यायार्थिकनय और निश्चयनय अर्थात् द्रव्यार्थिक नय, इसप्रकार का अर्थ अनायास ही निकल जाता है ।
निष्कर्ष : अ शब्द प्रसक्त अर्थ के अवयव में भी रहता है अतः भूतार्थ-विद्यमान पदार्थ है तो अभूतार्थ-विद्यमान पदार्थ की पर्याय । अतः भूतार्थ =द्रव्यार्थिक नय तथा अभूतार्थ पर्यायार्थिक नय, यह सिद्ध होता है।
दूसरे जिस प्रकार निश्चयनय की दृष्टि में व्यवहारनय का विषय अभूतार्थ है उसी प्रकार व्यवहारनय की दृष्टि में निश्चयनय का विषय अभूतार्थ है । इन दोनों कथनों के समर्थन में आर्षवाक्य इस प्रकार हैं
_ 'ननु सौगतोपि ब्रूते व्यवहारेण सर्वज्ञः तस्य किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति ? तत्र परिहारमाह-सौगतादिमते यथा निश्चयापेक्षया व्यवहारो मषा, तथा व्यवहाररूपेणापि व्यवहारो न
१. स.सा. १३ ता. वृ. भूतााभूतार्थभेदेन व्यवहारोऽपि द्विधा । २. निश्चयव्यवहारयोः साथ्यसाधकमावत्वात् । स.सा. पृ. १६८ फलटण प्रकाशन तथा पं. का. पृ. २३० (राजचन्द्र) स.सा. गाथा
१२०,१६०,१६१,२३६ की टीकाएँ तथा तत्थार्थ सार भी देखें। ३. स.सा. गाथा ३८७ से ३६६ ता.पृ. । ४. स.सा. गाथा १४ जयचन्दजी की यवनिका ।
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सातवाँ अधिकार-२११
सत्प इति। जैनमते पुनर्व्यवहारनयो यद्यपि निश्चयापेक्षया मृषा तथापि व्यवहाररूपेण सत्य इति। यदि पुनर्लोकव्यवहाररूपेणापि सत्यो न भवति तर्हि सोपि लोकव्यवहारो मिथ्या भवति, तथा सत्यतिप्रसंगः। एवमात्मा व्यवहारेण पत्यं जानाति पश्यति निश्चयेन पुनः स्वहव्यमेवेति'। (समयसार गाथा ३६१ टीका)
अर्थ इसप्रकार है
प्रश्न- जैसे कुन्दकुन्दभगवान ने गाथा ३६१ में कहा है 'परद्रव्य को व्यवहारनय से जानता है।' उसीप्रकार बौद्ध भी व्यवहारनय से सर्वज्ञ कहते हैं। फिर आप बौद्धों का क्यों खण्डन करते हैं?
उत्तर- जैसे निश्चयनय की अपेक्षा बौद्ध व्यवहारनय को झूठ मानते हैं उसी प्रकार व्यवहाररूप से भी व्यवहार को सत्य नहीं मानते, किन्तु जैनमत में यद्यपि निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहार नय झूटा है तथापि व्यवहाररूप से सत्य है। यदि व्यवहारनय लोक-व्यवहाररूप से भी सत्य न हो तो समस्तलोक-व्यवहार मिथ्या हो जायगा और ऐसा होने से अतिप्रसंगदोष आजायगा। यह आत्मा व्यवहारनय से परद्रव्य को जानता देखता है और निश्चयनय से स्वद्रव्य को जानता देखता
श्री समयसार गाथा १४ की टीका में भी कहा है- 'आत्मनोऽनादिवखस्य बखस्पृष्टत्वपर्यायेनानुभूयमावतायां बद्धस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकांततः पुद्गलास्पृश्यमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थ.
अर्थ- अनादिकाल से बंधे हुए आत्मा का पर्याय से (व्यवहारनय से) अनुभव करने पर बद्धस्पृष्टता भूतार्थ है, तथापि पुद्गल से किंचितमात्र भी स्पर्शित न होने योग्य आत्मस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर (निश्चयनय से) बद्धस्पृष्टता अभूतार्थ है।
जिनको उपर्युक्त आर्ष पर श्रद्धा नहीं है और यह मानते हैं कि जैसा व्यवहारनय का कथन है वैसा नहीं है, उनके मत में सर्वज्ञता सिद्ध नहीं होती और न जिनवाणी सिद्ध होती है तथा द्वादशांग की रचना, शास्त्ररचना भी सिद्ध नहीं होती, क्योंकि यह सब व्यवहारनय का विषय सत्य नहीं है अर्थात् अवस्तु है।
जिस प्रकार निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहारनय का विषय सत्य नहीं है अर्थात् अवस्तु है, उसी प्रकार व्यवहारनय की अपेक्षा निश्चय का विषय भी अवस्तु है। कहा भी है
दवट्टियवत्तव्बं अवत्यु णियमेण पज्जवणयस्स। तह पज्जययत्यु अयत्युमेय दवष्टियणयस्स।।१०।। (सं.त.)
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२१२
अर्थ - जिस प्रकार पर्यायदृष्टि वाले के अर्थात् व्यवहारनयावलम्बी के निश्चयनय अर्थात् द्रव्यार्थिकनय का कथन नियम से अवस्तु है उसी प्रकार द्रव्यार्थिकदृष्टिवाले के निश्चयनयावलम्बी के पर्यायार्थिक अर्थात् व्यवहारनय का विषयभूत पदार्थ अवस्तु है।
व्यवहार पर्वथा झूट नहीं है क्योंकि झूठ के द्वारा अज्ञानी जीवों को यथार्थ नहीं समझाया जा सकता है और न झूठ के द्वारा परमार्थ का उपदेश दिया जा सकता है। झूठ किसी को भी प्रयोजनवान नहीं हो सकता और न पूज्य हो सकता है, किन्तु आर्षग्रन्थों में कहा है कि व्यवहार के द्वारा अज्ञानी जीव संबोधे जाते हैं, परमार्थ का उपदेश दिया जाता है तथा व्यवहारनय प्रयोजनवान है और पूज्य है।
'अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् ।' (पु.सि.उ. श्लोक ६)। आचार्य महाराज अज्ञानी जीवों को संबोधने के लिए व्यवहारनय का उपदेश देते हैं।
तह ववहारेण विणापरमत्युयएसणमसक्कं ।।८।। (समयसार) अर्थात- व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है। (इसका यह अर्थ कभी नहीं हो सकता कि 'झूठ के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है।)
ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमेट्टिदा माये।।१२।। (समयसार) अर्थात्- जो अनुत्कृष्ट अवस्था में स्थित हैं उनको व्यवहारनय का उपदेश प्रयोजनवान है।
इसलिए शुद्धनय का विषय जो शुद्धांत्मा, उसकी प्राप्ति जब तक न हो तब तक व्यवहारनय प्रयोजनवान है।
पद्मनन्दि पञ्चविंशति के श्लोक ६०८ में 'व्ययहतिः पूज्या' इन शब्दों द्वारा 'व्यवहार पूज्य है', ऐसा कहा है।
इन आर्षवाक्यों के विरुद्ध 'व्यवहारनय' को झूठ, हेय, छोड़ने योग्य कैसे कहा जा सकता है। निश्चय और व्यवहार की अपेक्षा वस्तु को स्याद् नित्य, स्यादनित्य मानने वाले का ज्ञान भ्रमात्मक कैसे हो सकता है।
अनेकान्त और स्यावाद के द्वारा ही इस जीव का कल्याण हो सकता है। "
बहुरि तू ऐसे मान है, जो सिद्धसमान शुद्ध आत्माका अनुभवन सो निश्चय अर व्रतशील संयमादिरूप प्रवृत्ति सो व्यवहार, सो ऐसा तेरा मानना ठीक नाहीं । जाते कोई द्रव्यभावका नाम निश्चय, कोई का नाम व्यवहार ऐसे है नाहीं । एक ही द्रव्यके भावको तिस स्वरूपही निरूपण करना, सो निश्चयनय है। उपचारकरि तिस द्रव्यके भावको अन्य द्रव्यके भावस्वरूप निरूपण करना, सो व्यवहार है। जैसे माटीके घड़े
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सातवाँ अधिकार- २१३
को माटीका घड़ा निरूपिए सो निश्चय अर घृत संयोगका उपचारकरि वाको ही घृतका घड़ा कहिए सो व्यवहार। ऐसे ही अन्यत्र जानना । तातैं तू किसी को निश्चय माने, किसीको व्यवहार मानै सो भ्रम है। बहुरि तेरे मानने विषै भी निश्चय व्यवहारकै परस्पर विरोध आया। जो तू आपको सिद्धसमान शुद्ध माने है, तो व्रतादिक काहेको करै है । जो व्रतादिकका साधनकारे सिद्ध भया चाहे हैं, तो वर्तमानविषै शुद्ध आत्माका अनुभवन मिथ्या भया । ऐसे दोऊ नयनिकै परस्पर विरोध है । तातैं दोऊ नयनिका उपादेयपना बनै नाहीं । यहाँ प्रश्न- जो समयसारादिविषै शुद्ध आत्माका अनुभव निरक्षर का है, व्रत संयमादिकको व्यवहार का है, तैसे ही हम माने है।
ताका समाधान - शुद्ध आत्माका अनुभव साँचा मोक्षमार्ग है ता बाको निश्चय का । इहाँ स्वभावतैं अभिन्न, परभावर्तै भिन्न ऐसा शुद्ध शब्दका अर्थ जानना । संसारीको सिद्ध मानना ऐसा भ्रमरूप अर्थ शुद्ध शब्दका न जानना । बहुरि व्रत तप आदि मोक्षमार्ग हैं नाहीं, निमित्तादिककी अपेक्षा उपचारत इनको मोक्षमार्ग कहिए है तातें इनको व्यवहार कह्या । ऐसे भूतार्थ अभूतार्थ मोक्षमार्गपनाकरि इनको निश्चय व्यवहार कहै हैं । सो ऐसे ही मानना । बहुरि ए दोऊ ही साँचे मोक्षमार्ग हैं, इन दोऊनिको उपादेय मानना सो तो मिथ्याबुद्धि ही है। तहाँ वह कहै है श्रद्धान तो निश्चयका राखे है अर प्रवृत्ति व्यवहार रूप राखे है ऐसे हम दोऊनिको अंगीकार करे हैं। सो ऐसे भी बने नाहीं जातें निश्चयका निश्चयरूप अर व्यवहारका व्यवहार रूप श्रद्धान करना युक्त है। एक ही नयका श्रद्धान भए एकान्तमिथ्यात्व हो है । बहुरि प्रवृत्तिविषै नयका प्रयोजन ही नाहीं । प्रवृत्ति तो द्रव्यकी परणति है। तहाँ जिस द्रव्यकी परणति होय, ताको तिसहीकी प्ररूपिए सो निश्चयनय अर तिसहीको अन्य द्रव्यकी प्ररूपिए सो व्यवहारनय ऐसे अभिप्राय अनुसार प्ररूपणतैं तिस प्रवृत्तिविषै दोऊ नय बने हैं। किछू प्रवृत्ति ही तो नयरूप है नाहीं । तातैं या प्रकार भी दोऊ नयका ग्रहण मानना मिथ्या है। तो कहा करिए, सो कहिए है- निश्चयनयकरि जो निरूपण किया होय, ताको तो सत्यार्थ मानि ताका श्रद्धान अंगीकार करना अर व्यवहारनयकरि जो निरूपण किया होय, ताको असत्यार्थ मानि ताका श्रद्धान छोड़ना । सो ही समयसार विषै कया है
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै
स्तन्मन्ये व्यवहार एवं निखिलो ऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः । सम्यग्निश्चयमेकमेव तदमी निष्कम्पमाक्रम्य किं
शुद्धज्ञानघने महिम्न न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम् । 199 ।।
समयसार कलश बंधाधिकार १७३
याका अर्थ - जातै सर्व ही हिंसादि वा अहिंसादिविषै अध्यवसाय हैं सो समस्त ही छोड़ना, ऐसा जिनदेवनिकरि कथा है । तातैं मैं ऐसे मानूँ हूँ, जो पराश्रित व्यवहार है सो सर्व ही छुड़ाया है। सन्त पुरुष एक परम निश्चयहीको भले प्रकार निष्कम्पपने अंगीकारकरि शुद्ध ज्ञानघनरूप निजमहिमाविषै स्थिति क्यों न करे हैं।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२१४
भावार्थ- यहाँ व्यवहारका तो त्याग कराया, लात निश्चयको अंगीकारकरि निजमहिमारूए प्रवर्त्तना युक्त है। बहुरि षट्पाहुविधै कया है
जो सुत्तो वयहारे सो जोई जागदे सकज्जम्मि।
जो जागदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे।।१।। याका अर्थ- जो व्यवहारविषै सृता है सो जोगी अपने कार्यविथै जारी है। बहुरि जो व्यवहारविषै जागै है सो अपने कार्यविषै सूता है। तातै व्यवहारनयका श्रदान छोड़ि निश्चयनयका श्रद्धान करना योग्य है। व्यवहारनय स्वद्रव्य परद्रव्यको वा तिनके भावनिको वा कारण कायांदिकको काहूको काहूविषै मिलाय निरपण करै है। सो ऐसे ही श्रद्धाननै मिथ्यात्व है ताते याका त्याग करना। बहुरि निश्चयनय तिनही को यथावत् निरूप है, काहूको काहूविषै न मिला है। सो ऐसे ही श्रद्धानतें सम्यक्त्व हो है ताते याका श्रद्धान करना।
वहाँ प्रश्न जो ऐसे है तो जिनमावि पोऊ नयाँनेको ग्रहण करना कह्या है सो कैसे?
ताका समाधान- जिनमार्गविषै कहीं तो निश्चयनयकी मुख्यता लिए व्याख्यान है ताको तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है। ऐसा जानना। बहुरि कहीं व्यवहारनयकी मुख्यता लिए व्याख्यान है ताको ‘ऐसे है नाही, निमित्तादि अपेक्षा उपचार किया है। ऐसा जानना। इस प्रकार जानने का नाम ही दोऊ नयनिका ग्रहण है। वहुरि दोऊ नयनिके व्याख्यानको समान सत्यार्थ जानि ऐसे भी है, ऐसे भी है- ऐसा भ्रमरूप प्रवर्त्तनेकरि तो दोऊ नयनिका ग्रहण करना कह्या है नाहीं।
बहुरि प्रश्न- जो व्यवहारनय असत्यार्थ है तो ताका उपदेश जिनमार्गविष काहेको दिया? एक निश्चयनयहीका निरूपण करना था। ___ ताका समाधान- ऐसा ही तर्क समयसारविर्ष किया है। तहाँ यह उत्तर दिया है
जह णवि सक्कमणिज्जो अणज्जभासंथिणा उ गाहेउं ।
तह ववहारेण विणा परमत्युवएसणमसक्कं ।। गाथा ८ ॥ याका अर्थ- जैसे अनार्य जो म्लेच्छ सो ताहिको म्लेच्छभाषा बिना अर्थ ग्रहण करावनेको समर्थ न हूजे । तैसे व्यवहार बिना परमार्थका उपदेश अशक्य है। तातै व्यवहारका उपदेश है। बहुरि इसही सूत्रकी व्याख्याविषै ऐसा कह्या है- 'व्यवहारनयो नानुसतव्यः' । याका अर्थ- यह निश्चयके अंगीकार कराबनेको व्यवहार करि उपदेश दीजिए है। बहुरि व्यवहारनय है सो अंगीकार करने योग्य नाहीं।
यहाँ प्रश्न- व्यवहारबिना निश्चय का उपदेश कैसे न होय । बहुरि व्यवहारनय कैसे अंगीकार न करना, सो कहो?
___ताका समाधान- निश्चयनयकरि तो आत्मा परद्रव्यनि भिन्न स्वभावनितें अभिन स्वयंसिद्ध वस्तु है। ताको जे न पहिचान, तिनको ऐसे ही कह्या करिए तो वह समझै नाहीं। तब उनको व्यवहारनयकरि शरीरादिक परद्रव्यनिकी सापेक्षकरि नर नारक पृथ्वीकायादिरूप जीवके विशेष किए। तब मनुष्यजीव हैं,
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सातवी अधिकार-२१५
नारकी जीव हैं, इत्यादि प्रकार लिए वाकै जीवको पहिचान भई। अथवा अभेदवस्तुविषे भेद उपजाय ज्ञान दर्शनादि गुणपर्यायरूप जीवके विशेष किए, तब जाननेवाला जीव है, देखनेवाला जीव है, इत्यादि प्रकार लिए बाकै जीवकी पहिचान भई । बहुरि निश्चयकरि वीतरागभाव मोक्षमार्ग है। ताको जे न पहिचाने, तिनिको ऐसे ही कह्या करिए, तो वे समझे नाहीं। तब उनको व्यवहारनयकरि तत्त्वश्रद्धानज्ञानपूर्वक पर द्रब्यका निमित्त मेटनेका सापेक्षकरि व्रतशील संयमादिकरूप वीतराग भावके विशेष दिखाए, तब वाकै वीतरागभावकी पहिचान भई। याही प्रकार अन्यत्र भी व्यवहारविना निश्चय के उपदेशका न होना जानना। बहुरि यहाँ व्यवहारकरि नर नारकादि पर्यायहीको जीव कह्या, सो पर्यायहीको जीव न मानि लेना। पर्याय तो जीव पुद्गलका संयोगरूप है। तहाँ निश्चयकरि जीवद्रव्य जुदा है, ताहीको जीव मानना। जीवका संयोगते शरीरादिकको भी उपचारकरि जीव कह्या, सो कहने मात्र ही है। परमार्थते शरीरादिक जीव होते नाहीं, ऐसा ही श्रद्धान करना । बहुरि अभेद आत्माविषै ज्ञानदर्शनादि भेद किए, सो तिनको भेदरूप ही न मानि लेने। भेद तो समझावने के अर्थ किये हैं। निश्चयकरि आत्मा अभेद ही है, तिसहीको जीव वस्तु मानना। संज्ञा संख्यादिकरि भेद कहे, सो कहने मात्र ही हैं, परमार्थत जुदे-जुदे हैं नाहीं। ऐसा ही श्रद्धान करना। बहुरि परद्रव्य का निमित्त मिटने की अपेक्षा व्रतशीलसंपमादिकको मोक्षमार्ग कह्या, सो इनहीको मोक्षमार्ग न मानि लेना। जाते परद्रव्यका ग्रहण त्याग आत्मा के होय, तो आत्मा परद्रव्य का कर्ता हर्ता होय। सो कोई द्रव्य कोई द्रव्यके आधीन है नाही 1 तातें आत्मा अपने भाव रागादिक हैं, तिनको छोड़ि वीतरागी हो है। सो निश्चयकार वीतराग भार है, गरेक्षा है। पीतग पनि जर पिकनिकै कदाचित् कार्य कारणपनो है। तातै व्रतादिकको मोक्षमार्ग कहे, सो कहनेमात्र ही है। परमार्थः बाह्य क्रिया मोक्षमार्ग नाहीं, ऐसा ही श्रद्धान करना। ऐसे ही अन्यत्र भी व्यवहारनय का अंगीकार न करना जानि लेना।
यहाँ प्रश्न- जो व्यवहारनय परको उपदेशविषे ही कार्यकारी है कि अपना भी प्रयोजन साधै है?
ताका समाधान- आप भी यावत् निश्चयनयकरि प्ररूपित वस्तुको न पहिचाने, तावत् व्यवहार मार्गकरि वस्तुका निश्चय करै। तातें नीचली दशाविषै आपको भी व्यवहारनप कार्यकारी है। परन्तु व्यवहारको उपचार मात्र मानि वाके द्वारे वस्तुका ठीक (निश्चय) कर, ती तो कार्यकारी होय। बहुरि जो निश्चयवत व्यवहार को भी सत्यभूत मानि वस्तु ऐसे ही है, ऐसा श्रद्धान करै तो उलटा अकार्यकारी होय जाय। सो ही पुरुषार्थसिद्धयुपायविष कह्या है
अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्यरा देशयन्त्यभूतार्थम्। व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ।।६।। माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य।
व्यवहार एव हि तथा निश्चयता यात्यनिश्चयज्ञस्य ।।७।। इनका अर्थ- मुनिराज अज्ञानीके समझायनेको असत्यार्थ जो व्यवहारनय ताको उपदेश है। जो केवल व्यवहार ही को जाने है, ताको उपदेश ही देना योग्य नाहीं है। बहुरि जैसे जो साँचा सिंहको न जाने,
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२१६
ताकै बिलाव ही सिंह है। तैसे जो निश्चयको न जाने, ताकै व्यवहार ही निश्चयपणाको प्राप्त हो है।
इहाँ कोई निर्विचार पुरुष ऐसे कहै- तुम व्यवहारको असत्यार्थ हेय कहो हो तो हम व्रत शील संयमादि व्यवहार कार्य काहेको करें- सर्व को छोड़ि देवेंगे। ताको कहिए है- किछू व्रत शील संयमादिक का नाम व्यवहार नाहीं है। इनको मोक्षमार्ग मानना व्यवहार है सो छोड़ि दे। बहुरि ऐसा श्रद्धानकरि जो इनको तो बाह्य सहकारी जानि उपचारतें मोक्षमार्ग कह्या है। ए तो परद्रव्याश्रित हैं। बहुरि सांचा मोक्षमार्ग वीतरागभाव है सो स्वद्रव्याश्रित है। ऐसे व्यवहारको असत्यार्थ हेय जानना। व्रतादिकको छोड़नेते तो व्यवहारका हेयपना होता है नाहीं। बहुरि हम पूछे हैं- व्रतादिकको छोड़ि कहा करेगा? जो हिंसादिरूप प्रवत्तेगा तो तहाँ तो मोक्षमार्ग का उपचार भी सम्मवै नाहीं। तहाँ प्रवर्त्तनेते कहा भला होयगा, नरकादिक पावोगे। ताते ऐसे करना तो निर्विचारपना है। बहुरि व्रतादिकरूप परिणति मेटि केवल वीतराग उदासीन भावरूप होना बनै तो भले ही है। सो नीचली दशाविषै होय सकै नाहीं । ताते व्रतादिसाधन छोड़ि स्वच्छन्द होना योग्य नाहीं। या प्रकार श्रद्धानविषे निश्चयको, प्रवृत्तिविषे व्यवहारको उपादेय मानना सो भी मिथ्याभाव ही है।
___ बहुरि यहु जीव दोऊ नयनिका अंगीकार करनेके अर्थि कदाचित् आपको शुद्ध सिद्धसमान रागादिरहित केवलज्ञानादिसहित आत्मा अनुभव है, ध्यानमुद्रा धारि ऐसे विचारविषै लागै है । सो ऐसा आप नाहीं परन्तु भ्रमत निश्चय करि मैं ऐसा ही है, ऐसा मानि सन्तुष्ट हो है। कदाचित् वचनद्वारि निरूपण ऐसे ही करै हैं। सो निश्चय तो यथावत् वस्तुको प्ररूपै, प्रत्यक्ष आप जैसा नाहीं तैसा आपको मानना, सो निश्चय नाम कैसे पावै। जैसा केवल निश्चयाभासवाला जीवकै पूर्व अयथार्थपना कह्या था, तैसे ही याकै जानना ।
अथवा यह ऐसे मान है, जो इस नयकरि आत्मा ऐसा है, इस नयकरि ऐसा है। सो आत्मा तो जैसा है तैसा ही है, तिसविषै नयकरि निरूपण करने का जो अभिप्राय है, ताको न पहिचान है। जैसे आत्मा निश्चयकरि तो सिद्धसमान केवलज्ञानादिसहित द्रव्यकर्म-नोकर्म-भावकर्मरहित है, व्यवहारनय करि ससारी मतिज्ञानादिसहित वा द्रव्यकर्म-नोकर्म-भावकर्मसहित है- ऐसा माने है। सो एक आत्मा के ऐसे दोय स्वरूप तो होय नाहीं। जिस भावहीका सहितपना तिस भावहीका रहितएना एकवस्तुविषे कैसे सम्भवै? तातें ऐसा मानना भ्रम है। तो कैसे है- जैसे राजा रंक मनुष्यपने की अपेक्षा समान है, तैसे सिख संसारी जीवत्यपने की अपेक्षा समान कहे है केवलज्ञानादि अपेक्षा समानता मानिए सो है नाहीं। संसारीकै निश्चयकार मतिज्ञानादिक ही है, सिद्धकै केवलज्ञान है। इतना विशेष है- संसारीकै मतिज्ञानादिक कर्म का निमित्तते हैं ताः स्वभावअपेक्षा संसारीके केवलज्ञानकी शक्ति कहिए तो दोष नाहीं। जैसे रंक मनुष्यकै राजा होने की शक्ति पाईए, तैसे यहु शक्ति जाननी। बहुरि नोकर्म द्रव्यकर्म पुद्गलकरि निपजे हैं तातें निश्चयकरि संसारीकै भी इनका भिन्त्रपना है। परन्तु सिद्धवत् इनका कारण कार्य अपेक्षा सम्बन्ध भी न मानें तो भ्रम ही है। बहुरि भावकर्म आत्माका भाव है, सो निश्चयकरि आत्माहीका है। कर्मके निमित्तत हो हैं, तातै व्यवहारकरि कर्म का कहिए है। बहुरि सिद्धवत् संसारीकै भी रागादिक न मानना, कर्मही का मानना यहु प्रम है। याही प्रकारकारे नयफरि एक ही वस्तुको एक भावअपेक्षा वैसा भी मानना, वैसा भी मानना, सो तो मिथ्याबुद्धि है। बहुरि जुदे-जुदे भावनिकी अपेक्षा नयनिकी प्ररूपणा है, ऐसे मानि यथासंभव वस्तुको मानना सो साँचा
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सातयाँ अधिकार-२५७
श्रद्धान है। तातें मिथ्यादृष्टी अनेकान्तरूप वस्तुको मानै परन्तु यथार्थ भावको पहिचानि मानि सकै नाही, ऐसा जानना।
___ बहुरि इस जीवकै व्रत शील संयमादिकका अंगीकार पाईए है, सो व्यवहारकरि 'ए भी मोक्ष के कारण हैं' ऐसा मानि तिनको उपादेय मानै है। सो जैसे केवल व्यवहारावलम्बी जीवकै पूर्व अयथार्थपना कह्या था, तैसे ही याकै भी अयथार्थपना जानना। बहुरि यहु ऐसे भी मानै है.. जो यथायोग्य व्रतादि क्रिया तो करनी योग्य है परन्तु इनविषै ममत्व न करना। सो जाका आप कर्त्ता होय, तिसविषै ममत्व कैसे न करिए। आप कर्ता न है, तो मुझको करनी योग्य है ऐसा भावा कैसे किया। अर जो कर्त्ता है, तो वह अपना कर्म भया, तब कत्ताकर्म सम्बन्ध स्वयमंच ही भया । सो ऐस: मान्यता तो भ्रम है। तो कैसे है-बाह्य व्रतादिक हैं सो तो शरीरादि परद्रव्यके आश्रय हैं। परद्रव्यका आप कर्ता है नाहीं, तात तिसविषै कर्तृत्वबुद्धि भी न करनी अर तहाँ ममत्व भी न करना। बहुरि व्रतादिकविषै ग्रहण त्यागरूप अपना शुभोपयोग होय सो अपने आश्रय है। ताका आप कर्ता है तातै तिस विष कर्तृत्वबुद्धि भी माननी अर तहाँ ममत्व भी करना। बहुरि इस शुभोपयोगको बंधका ही कारण जानना, मोक्षका कारण न जानना, जातें बंध अर मोक्षकै तो प्रतिपक्षीपना है। तातें एक ही भाव पुण्यबंध को भी कारण होय अर मोक्षको भी कारण होय, ऐसा मानना भ्रम है । ताते व्रत अव्रत दोऊ विकल्परहित जहाँ परद्रव्य के ग्रहण-त्यागका किछू प्रयोजन नाहीं, ऐसा उदासीन वीतराग शुद्धोपयोग सोई मोक्षमार्ग है। बहुरि नीचली दशाविषै केई जीवनिकै शुभोपयोग अर शुद्धोपयोगका युक्तपना पाईए है। तातै उपचारकरि व्रतादिक शुभोपयोग को मोक्षमार्ग कया है। वस्तुविचारतां शुभोपयोग मोक्षका घातक ही है। जाते बंधको कारण सोई मोक्षका घातक है, ऐसा श्रद्धान करना। बहुरि शुद्धोपयोगहीको उपादेय मानि ताका उपाय करना, शुभोपयोग अशुभोपयोग को हेय जानि तिनके त्यागका उपाय करना, जहाँ शुखोपयोग न होय सकै, तहाँ अशुभोपयोग को छोड़ि शुभही विषे प्रवर्त्तना । जातें शुभोपयोगनै अशुभोपयोगविषै अशुद्धता की अधिकता है। बहुरि शुद्धोपयोग होय, तब तो परद्रत्यका साक्षीभूत ही रहै है। तहाँ तो किछू परद्रव्य का प्रयोजन ही नाहीं। बहुरि शुभोपयोग होय, तहाँ बाह्य व्रतादिककी प्रवृत्ति होय अर अशुभोपयोग होय, तहाँ बाह्य अव्रतादिककी प्रवृत्ति होय जाते अशुद्धोपयोगकै अर परद्रव्यको प्रवृत्तिकै निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध पाईए है। बहुरि पहलै अशुभोपयोग शूटि शुभोपयोग होइ, पीछे शुभोपयोग छूटि शुद्धोपयोग होइ। ऐसी क्रमपरिपाटी है।
बहुरि कोई ऐसे माने कि शुभोपयोग है सो शुद्धोपयोगको कारण है। सो जैसे अशुभोपयोग छूटि शुभोपयोग हो है, तैसे शुभोपयोग छूटि शुद्धोपयोग हो है- ऐसे ही कार्यकारणपना होय तो शुमोपयोग का कारण अशुभोपयोग ठहरै। अथवा द्रव्यलिंगी के शुभोपयोग तो उत्कृष्ट हो है, शुद्धोपयोग होता ही नाहीं । ताते परमार्थत इनकै कारण-कार्यपना है नाहीं। जैसे रोगी के बहुत रोग था, पीछे स्तोक रोग भया, तो वह स्तोक रोग तो निरोग होनेका कारण है नाहीं। इतना है, स्तोक रोग रहे निरोग होने का उपाय करे तो होइ जाय। बहुरि जो स्तोक रोगहीको भला जानि ताका राखने का यत्न करै तो निरोग कैसे होय। तैसे कषायीकै तीद्रकवायरूप अशुभोपयोग था, पीछै मंदकषायरूप शुभोपयोग भया, तो वह शुभोपयोग तो निःकषाय
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मोक्षमार्ग प्रकाशक- २१८
शुद्धोपयोग होनेको कारण है नाहीं । इतना है- शुभोपयोग भए शुद्धोपयोग का यत्न करे तो होय जाय। बहुरि जो शुभोपयोगही को भला जानि ताका साधन किया करै तो शुद्धोपयोग कैसे होय । तार्तें मिध्यादृष्टी का शुभोपयोग तो शुद्धोपयोग को कारण है नाहीं । सम्यग्दृष्टीकै शुभोपयोग भए निकट शुद्धोपयोग प्राप्त होय, ऐसा मुख्यपनाकरि कहीं शुभोपयोग को शुद्धोपयोग का कारण भी कहिए है, ऐसा जानना ।
बहुरि यह जीव आपको निश्चय व्यवहाररूप मोक्षमार्गका साधक माने है। तहाँ पूर्वोक्त प्रकार आत्माको शुद्ध मान्या सो तो सम्यग्दर्शन भया । तेसे ही जान्या सो सम्यग्ज्ञान भया । तैसे ही विचारविषै प्रवर्त्मा सो सम्यक्चारित्र भया। ऐसे तो आपके निश्चय रत्नत्रय भया मानै । सो मैं प्रत्यक्ष अशुद्ध सो शुद्ध कैसे मानू, जानू, विचारू हूँ, इत्यादि विवेकरहित भ्रमते सन्तुष्ट हो है । बहुरि अरहंतादि बिना अन्य देवादिकको न माने है वा जैन शास्त्र अनुसार जीवादिके भेद सीखि लिए हैं तिनहीको माने है, औरको न मानै सो तो सम्यग्दर्शन मया । बहुरि जैनशास्त्रनिका अभ्यास विषै बहुत प्रवर्त्ते है सो सम्यग्ज्ञान भया । बहुरि व्रतादिरूप क्रियानिविषै प्रवर्त्ते है सो सम्यक्चारित्र भया। ऐसे आपके व्यवहार रत्नत्रय भया मानै । सो व्यवहार तो उपचार का नाम है। सो उपचार भी तो तब बनै जब सत्यभूत निश्चय रत्नत्रयका कारणादिक होय । जैसे निश्चय रत्नत्रय सधै तैसे इनको साधै तो व्यवहारपनो भी सम्भवै । सो याकै तो सत्यभूत निश्चय रत्नत्रयकी पहिचान ही भई नाहीं । यहु ऐसे कैसे साथि सकै। आज्ञा अनुसारी हुवा देख्यांदेखी साधन करै है । तातैं याकै निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग न भया। आगे निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग का निरूपण करेंगे, ताका साधन भए ही मोक्षमार्ग होगा।
ऐसे यहु जीव निश्चयाभासको माने जाने है परन्तु व्यवहार साधनको भी भला जाने है, तातें स्वच्छन्द होय अशुभरूप न प्रवर्ते है । व्रतादिक शुभोपयोगरूप प्रवर्तें है, तार्ते अन्तिम ग्रैवेयक पर्यन्त पदको पावे है। बहुरि जो निश्चयाभासकी प्रबलतात अशुभरूप प्रवृत्ति होय जाय तो कुगतिविषै भी गमन होय, परिणामनिके अनुसारि फल पावै है परन्तु संसारका ही भोक्ता रहे हैं। साँचा मोक्षमार्ग पाए बिना सिद्धपदको न पावै है । ऐसे निश्चयाभास व्यवहाराभास दोऊनिके अवलम्बी मिध्यादृष्टी तिनिका निरूपण किया।
अब सम्यक्त्वके सन्मुख जे मिथ्यादृष्टी तिनका निरूपण कीजिए है
सम्यक्त्वके सन्मुख मिथ्यादृष्टि का निरूपण
कोई मंदकषायादिकका कारण पाय ज्ञानावरणादि कर्मनिका क्षयोपशम भया, तार्तं तत्त्वविचार करने की शक्ति भई अर मोह मंद भया, तार्ते तत्त्वविचारविषै उद्यम भया । बहुरि बाह्य निमित्त देव, गुरु, शास्त्रादिकका भया, तिनकरि साँचा उपदेशका लाभ भया । तहाँ अपने प्रयोजनभूत मोक्षमार्गका वा देवगुरुधर्मादिकका वा जीवादि तत्त्वनिका वा आपा परका वा आपको अहितकारी हितकारी भावनिका इत्यादिकका उपदेशर्तें सावधान होय ऐसा विचार किया-अहो मुझको तो इन बातनिकी खबरि ही नाहीं, मैं भ्रमत भूलि पाया पर्याय ही विषै तन्मय भया । सो इस पर्यायकी तो थोरे ही कालकी स्थिति है। बहुरि यहाँ मोको सर्व निमित्त मिले हैं। तातें मोको इन बातनिका ठीक करना । जातैं इनविषै तो मेरा ही प्रयोजन भासै
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सातवा अधिकार-२१८
है। ऐसे विचारि जो उपदेश सुन्या ताका निर्धार करनेका उद्यम किया। तहाँ उद्देश, लक्षणनिर्देश, परीक्षा द्वारकरि तिनका निर्धार होय। तातै पहले तो तिनके नाम सीखै सो उद्देश भया। बहुरि तिनके लक्षण जाने। बहुरि ऐसे सम्भवै है कि नाहीं, ऐसा विचार लिए परीक्षा करने लगे। तहाँ नाम सोखिलना अर लक्षण जानि लेना ये दोऊ तो उपदेशके अनुसार हो हैं। जैसे उपदेश दिया तैसे याद करि लेना। बहरि परीक्षा करनेविषे अपना विवेक चाहिए है। सो विवेककरि एकान्त अपने उपयोगविषै विचार, जैसे उपदेश दिया तैसे ही है कि अन्यथा है। तहाँ अनुमानादि प्रमाणकरि ठीक करै वा उपदेश तो ऐसे है अर ऐसे न मानिए तो ऐसे होय । सो इनविष प्रबल युक्ति कौन है अर निर्बल युक्ति कौन है। जो प्रबल भासै, ताको साँचा जानै। बहुरि जो उपदेश अन्यथा साँच भासै वा सन्देह रहै, निर्धार न होय तो बहुरि विशेष ज्ञानी होय तिनको पूछ । बहुरि वह उत्तर दे, ताको विचारै। ऐसे ही यावत् निर्धार न होय, तावत् प्रश्न उत्तर करै। अथवा समानबुद्धिके धारक होय, तिनको अपना विचार जैसा भया होय तैसा कहै। प्रश्न उत्तरकरि परस्पर चर्चा करै। बहरि जो प्रश्नोत्तरविषै निरूपण 'मया होय, ताको एकान्तविषै विचारै। याही प्रकार अपने अन्तरंगविषै जैसे उपदेश दिया था, तैसे ही निर्णय होय भाव न भासै, तावत् ऐसे ही उद्यम किया करै। बहुरि अन्यमतीनिकरि कल्पित तत्त्वनिका उपदेश दिया है, ताकरि जैन उपदेश अन्यथा भासै वा सन्देह होय तो भी पूर्वोक्त प्रकारकरि उद्यम करै। ऐसे उद्यम किए जैसे जिनदेव का उपदेश है तैसे ही साँच है, मुझको भी ऐसे ही भारी है, ऐसा निर्णय होय। जातें जिनदेव अन्यथावादी हैं नाही।
यहाँ कोऊ कहै- जिनदेव जो अन्यथावादी नाहीं हैं तो जैसे उनका उपदेश है तैसे श्रद्धान करि लीजिए, परीक्षा काहेको कीजिए?
ताका समाधान- परीक्षा किए बिना यहु तो मानना होय, जो जिनदेव ऐसे कह्या है सो सत्य है परन्तु उनका भाव आपको भासै नाहीं। बहुरि भाव भासे बिना निर्मल श्रद्धान न होय। जाकी काहू का वचन ही करि प्रतीति करिए, ताकी अन्यका वचनकरि अन्यथा भी प्रतीति होय जाय, तातें शक्तिअपेक्षा वचनकरि कीन्हीं प्रतीति अप्रतीतिवत् है। बहुरि जाका भाव भास्या होय, ताको अनेक प्रकारकरि भी अन्यथा न माने। तातें भाव भासे प्रतीति होय सोई सांची प्रतीति है। बहरि जो कहोगे, पुरुषप्रमाणते वचनप्रमाण कीजिए है, तो पुरुषकी भी प्रमाणता स्वयमेव तो न होय । वाकै केई वचननिकी परीक्षा पहले करि लीजिए, तब पुरुषकी प्रमाणता होय।
यहाँ प्रश्न- उपदेश तो अनेक प्रकार, किस-किसकी परीक्षा करिए?
ताका समाधान- उपदेशविषै केई उपादेय केई हेय केई ज्ञेय तत्त्व निरूपिए हैं। तहाँ उपादेय हेय तत्त्वनिकी तो परीक्षा करि लेना। जाते इन विष अन्यथापनो भए अपना बुरा हो है। उपादेयको हेय मानि लै तो बुरा होय, हेयको उपादेय मानि ले तो बुरा होय।
बहुरि जो कहेगा- आप परीक्षा न करी अर जिनवचनही उपादेयको उपादेय जाने, हेयको हेय जानै तो यामें कैसे बुरा होय?
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२२०
ताका समाधान- अर्थका भाव भासे बिना वचनका अभिप्राय न पहिचानै । यह तो मानि ले जो मैं जिनवचन अनुसारि मायूँ हूँ परन्तु भाव भासे बिना अन्यथापनो होय जाय। लोकवि भी किंकर को किसी कार्यको भेजिए सो यह उस कार्यका भाव जाने तो कार्यको सुधारै, जो भाव न भासै तो कहीं चूकि हो जाय। तातै भाव भासने के अर्थि हेय उपादेय तत्त्वनिकी परीक्षा अवश्य करनी।
बहुरि वह कहै है- जो परीक्षा अन्यथा होय जाय तो कहा करिए?
ताका समाधान- जिन बचन अर अपनी परीक्षा इनकी समानता होय, तब तो जानिए सत्य परीक्षा भई। यावत् ऐसे न होय तावत् जैसे कोई लेखा करै है, ताकी विधि न मिले तावत् अपनी चूकको ढूंढै। तैसे यह अपनी परीक्षा विषै विचार किया करै। बहुरि जो ज्ञेयतत्त्व हैं, तिनकी परीक्षा होय सके तो परीक्षा करै। नाहीं यह अनुमान करै, जो हेय उपादेय तत्त्व ही अन्यथा न कहै तो ज्ञेयतत्त्व अन्यथा किस अर्थि कहै। जैसे कोऊ प्रयोजनरूप कार्यनिविषे झूट न बोलै सो अप्रयोजन झूठ काहेको बोले । तातै ज्ञेयतत्त्यनिका परीक्षा कर भी वा आज्ञाकरि स्वरूप जाने है। तिनका यथार्थ भाव न भासै तो भी दोष नाहीं। याहीत जैनशास्त्रनिविषै तत्त्वादिकका निरूपण किया, तहाँ तो हेतु युक्ति आदिकरि जैसे याकै अनुमानादिकरि प्रतीति आवै, तैसे कथन किया । बहुरि त्रिलोक, गुणस्थान, मार्गणा. पुराणादिकका कथन आज्ञा अनुसारि किया। ताते हेयोपादेय तत्त्वनिकी परीक्षा करनी योग्य है। तहाँ जीवादिक द्रव्य वा तत्त्व तिनको पहचानना । बहुरि तहाँ आपा पर को पहचानना। बहुरि त्यागने योग्य मिथ्यात्व रागादिक अर ग्रहणे योग्य सम्यग्दर्शनादिक तिनका स्वरूप पहिचानना। बहुरि निमित्त नैमित्तिकादिक जैसे हैं, तैसे पहिचानना । इत्यादि मोक्षमार्गविषै जिनके जाने प्रवृत्ति होय, तिनको अवश्य जानने। सो इनकी तो परीक्षा करनी। सामान्यपने किसी हेतु युक्ति करि इनको जानने वा प्रमाण नयकरि जानने वा निर्देश स्वामित्यादिकरि वा सत् संख्यादि करि इनका विशेष जानना। जैसी बुद्धि होय जैसा निमित्त बने तैसे इनको सामान्य विशेषरूप पहचानने। बहुरि इस जाननेका उपकारी गुणस्थान, मार्गणादिक वा पुराणादिक वा व्रतादिक क्रियादिकका भी जानना योग्य है। यहाँ परीक्षा होय सके तिनकी परीक्षा करनी, न होय सकै ताका आज्ञा अनुसारि जानपना करना।।
ऐसे इस जानने के अर्थ कबहूँ आपही विचार कर है, कबहूँ शास्त्र बाँचे है, कबहूँ सुनै है, कबहूँ अभ्यास करै है, कबहूँ प्रश्नोत्तर करै है इत्यादि रूप प्रवत है। अपना कार्य करनेका जाकै हर्ष बहुत है, ताते अंतरंग प्रीतित ताका साधन करै। या प्रकार साधन करता यावत् सांचा तत्त्वखान न होय, 'यहु ऐसे ही है' ऐसी प्रतीति लिए जीवादि तत्त्वनिका स्वरूप आपको न मासै, जैसे पर्याय विष अंहबुद्धि है तैसे केवल आत्मविष अहंबुद्धि न आवे, हित अहितरूप अपने भावनिको न पहिचान, तावत् सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टी है। यह जीव धोरे ही कालमें सम्यक्तको प्राप्त होगा। इस ही भव में वा अन्य पर्यायविषे सम्यक्तको पावेगा। इस भव में अभ्यासकरि परलोकविषै तिर्यंचादि गतिविष भी जाय तो तहाँ संस्कार के बलते देव गुरु शास्त्रका निमित्त बिना भी सम्यक्त होय जाय। जातें ऐसे अभ्यासके बलत मिथ्यात्वकर्म का अनुभाग हीन हो है। जहाँ वाका उदय न होय, तहाँ ही सम्यक्त्त होय जाय। मूलकारण यहु ही है। देवादिकका तो बाह्य निमित्त है. सो मुख्यताकरि तो इनके निमित्तहीः सम्यक्त हो है। तारतम्यतें पूर्व अभ्यास
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सालका अधिकार -२२१
संस्कार वर्तमान इनका निमित्त न होय तो मी सम्यक्त होय सके है। सिद्धान्तविषै ऐसा सूत्र है"तनिसर्गादधिगमाता (तत्त्वा. सू. १,३)
याका अर्थ- यहु सो सम्यग्दर्शन निसर्ग वा अधिगमते हो है। तहाँ देवादिक बाह्य निमिन बिना होय, सो निसर्गत भया कहिए। देवादिकका निमित्तते होय सा अधिगमतें भया कहिए। देखो तत्त्वविचारकी महिमा, तत्त्वविचाररहित देवादिककी प्रतीति करै, बहुत शास्त्र अभ्यास, व्रतादिक पालै, तपश्चरणादि करै, ताकै तो सम्यक्त होनेका अधिकार नाहीं। अर तत्त्वविचारवाला इन बिना भी सम्यक्त का अधिकारी हो है। बहुरि कोई जीवकै तत्त्वविचारके होने पहले किसी कारण पाय देवादिककी प्रतीति होय वा व्रत तपका अंगीकार होय, पीछै तत्त्वविचार करै। परन्तु सम्यक्तका अधिकारी तत्त्वविचार भए ही हो है।
बहुरि काहूकै तत्त्वविचार भए पीछे तत्त्वप्रतीति न होनेः सम्यक्त तो न भया अर व्यवहार धर्मकी प्रतीति रुचि होय गई, तातैं देवादिक की प्रीति करै है वा व्रत तपको अंगीकार करै है। काहूकै देवादिककी प्रतीति अर सम्यक्त युगपत् होय अर व्रत तप सम्यक्तकी साथ भी होय अर पहलै पीछे भी होय, देवादिककी प्रतीतिका तो नियम है। इस बिना सम्यक्त न होय। व्रतादिकका नियम है नाहीं। घने जीव तो पहलै सम्यक्त होय पीछे ही व्रतादिकको धारै हैं । काहूकै युगपत् भी होय जाय है। ऐसे यह तत्त्वविचारवाला जीव सम्यक्तका अधिकारी है परन्तु याकै सभ्यक्त होय ही होय, ऐसा नियम नाहीं। जाते शास्त्रविषै सम्यक्त होनेतें पहलै पंच लब्धिका होना कह्या है
__ पंच लब्धियों का स्वरूप क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य, करण। तहाँ जिसको होते संते तस्वविचार होय सकै, ऐसा ज्ञानावरणादि कर्मनिका क्षयोपशम होय। उदयकालको प्राप्त सर्वघाती स्पर्द्धकनिके निषेकनिका उदयका अभाव सो क्षय अर अनागतकालविष उदय आवने योग्य तिनही का सत्तारूप रहना सो उपशम, ऐसी देशघाती स्पर्द्धकनिका उदय सहित कनिकी अवस्था ताका नाम क्षयोपशम है। ताकी प्राप्ति सो क्षयोपशमलब्धि है।
विशेष- क्षयोपशम लब्धि में ज्ञानावरणादि कर्म के क्षयोपशम की ही बात नहीं, अपितु अशुभ अघाति कमों की भी अनुभाग शक्ति की प्रतिसमय अनन्तगुणहानि (वेदन में) आवश्यक होती है और अघाति कर्म क्षयोपशम से असम्बद्ध हैं। क्षयोपशम की बात तो मात्र घातिया कर्मों में ही होती है। कहा भी है- “क्षयोपश लब्धि में यथासम्भव घाती और अघाती सभी अप्रशस्त को सम्बन्धी अनुभाग शक्ति प्रतिसमय अनन्तगुणहानि (उदय में) होना विवक्षित है।" ( ल.सा.पृ. ४ पं. फूलचन्द जी सि.शा., विशेषार्थ)
दूसरी बात यहाँ देशघाती सर्वघाती के उदयानुदय से सम्बद्ध क्षयोपशम को क्षयोपशम लाय कहा सो ठीक नहीं है। यह तो पंच भावों में से क्षायोपशमिक भाव है। जहाँ कहीं क्षायोपशमिक भाव को क्षयोपशम लब्धि भी कदाचित् कह दिया है यदि, तो वह क्षायोपशमिक भाव अर्थ में ही
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२२२
अभिहित/अभिप्रेत हुआ है । पर यहाँ पर तो प्रथम सम्यक्त्व की हेतुभूत पंच लब्धियों में से आय क्षयोपशम नामक लब्धि का प्रकरण है । क्षयोपशम लब्धि में तो १४८ कर्मों में से यथासम्भव सभी पापहारी सुभाा निरन्तः स गुणा हीन होकर उदीरित होना क्षयोपशम लब्धि रूप से विवक्षित है । लब्धिसार गा, ४ व मुख्तारीय टीका में (पृ. ५ पर) लिखा है
कम्ममलपडलसत्ती पउिसमयमणंतगुणविहीणकमा ।
होदूणुदीरदि जदा तदा खओवसम लद्धी दु ॥४॥ अर्थ- प्रतिसमय क्रम से अनन्त गुणीहीन होकर कर्ममल पटल शक्ति की जब उदीरणा होती है तब क्षयोपशम लब्धि होती है ।
। विशेषार्थ- पूर्व संचित कर्मों के मलरूप पटल के अर्थात्-अप्रशस्त (पाप) कर्मों के अनुभाग स्पर्धक जिस समय विशुद्धि के द्वारा प्रतिसमय अनन्त गुणे हीन हुए उदीरणा को प्राप्त होते हैं, उस समय क्षयोपशम लब्धि होती है । धवल ६/२०४ में भी लिखा है-"पुब्बसंचिदकम्ममलपडलस्स अणुभागफद्दयाणि जदा विसोहीए पडिसमयमणंतगुणहीणाणि होइणुदीरिज्जति तदा खओवसमलद्धी होदि।" अर्थ वही है जो लब्धिसार गाथा ४ का ऊपर किया है । क्षयोपशम लब्धि के काल में प्रथम समय में जितना पाप कर्मानुभाग उदित हुआ उससे दूसरे समय में अनन्तगुणाहीन अनुभाग उदय होगा । दूसरे समय के उदित अनुभाग से तीसरे समय में अनन्तगुणा हीन उदित अनुभाग होगा। इसी तरह आगे के समयों में कहना चाहिए । यही क्षयोपशम लब्धि है ।
____ अन्य ग्रन्थों में भी ऐसा का ऐसा कथन है, जैसा कि धवल पु. ६/२०४ का कथन ऊपर लिखा है(१) अनगार धर्मामृत स्वोपज्ञ टीका २/४६-४७/१४७ भारतीय ज्ञानपीठ (२) अमित. पंच सं. १/२८७ (३) श्रीपालसुत डड्ढ विरचित पंचसंग्रह १/२१६ तथा प्रा. पं. सं. पृ. ६७१ (४) जयथवला १२/२०१ (५) जयधवला १२/प्रस्ता. पृ. १८ (६) तत्त्वार्थसूत्र पृ. २०६ अनु. पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य, में पं. फूलचन्द्र जी का लिखित
प्रकरण ।
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सातवाँ अधिकार-२२३
अतः क्षयोपशमलब्धि का लक्षण थवल, पंचसंग्रह, लब्धिसार आदि के अनुसार ही समझना चाहिए।
बहुरि मोहका मंद उदय आवनेते मंदकषाय रूप भाव होय जहाँ तत्त्वविचार होय सकै सो विशुद्धिलब्धि है। बहुरि जिनदेवका उपदेश्या तत्त्वका धारण होय, विचार होय सो देशनालब्धि है। जहाँ नरकादिविषै उपदेशका निमित्त न होय, तहाँ पूर्वसंस्कारते होय। बहुरि कर्मनिकी पूर्व सत्ता (घटकारे) अंतः कोटाकोटी सागर प्रमाण रहि जाय अर नवीन बंध अंतःकोटाकोटी प्रमाण ताके संख्यातवें भाग मात्र होय, सो भी तिस लब्धि-कालतें लगाय क्रमतें घटना होय, केतीक पापप्रकृतिनिका बंध क्रमतें मिटता जाय, इत्यादि योग्य अवस्थाका होना सो प्रायोग्यलब्धि है। लो ए च्यारों लब्धि भव्य या अभव्यकै होय हैं। इन च्यार लब्धि भए पी सम्यक्त होय तो होय, न होय तो नाहीं भी होय। ऐसे 'लब्धिसार' विषे कह्या है'। तातै तिस तत्त्व विचारवालाकै सम्यक्त्व होने का नियम नाहीं। जैसे काहूको हितकी शिक्षा दई, ताको वह जानि विचार करे, यह सीख दई सो कैसे है? पी? विचारतां वाकै ऐसे ही है, ऐसी उस संख को प्रति हाय जाय। अपया अन्यथा विचार होय वा अन्य विचारविषै लागि तिस सीखका निर्धार न करे, तो प्रतीति नाहीं भी होय । तैसे श्रीगुरु तत्त्वोपदेश दिया, ताको जानि विचार करै, यह उपदेश दिया सो कैसे है। पीछे विचार करनेते वाकै ‘ऐसे ही है' ऐसी प्रतीति होय जाय। अथवा अन्यथा विचार होय वा अन्य विचारविषै लागि जिस उपदेशका निर्धार न करै तो प्रतीति नाहीं भी होय सो मूल कारण मिथ्यात्व कर्म है, याका उदय मिटै तो प्रतीति होई जाय, न मिटै तो नाहीं होय, ऐसा नियम है। याका उद्यम तो तत्त्वविचार करने मात्र ही है।
बहुरि पाँचवी करणलब्धि भए सम्यक्त होय ही होय, ऐसा नियम है। सो जाकै पूर्वं कही थी च्यारि लब्धि ते तो भई होय अर अंतर्मुहूर्त पीछे जाकै सम्यक्त होना होय, तिसही जीवके करणलब्धि हो है। सो इस करणलब्धिवालाकै बुद्धिपूर्वक तो इतनाही उद्यम हो है-तिस तत्त्वविचारविष उपयोग तद्रूप होय लगाचे, ताकरि समय-समय परिणाम निर्मल होते जांय हैं। जैसे काहूकै सीखका विचार ऐसा निर्मल होने लग्या, जाकरि याकै शीघ्र ही ताकी प्रतीति होय जासी । तैसे तत्त्वउपदेश का विचार ऐसा निर्मल होने लग्या, जाकरि याकै शीघ्र ही ताका श्रद्धान होसी। बहुरि इन परिणामनिका तारतम्य केवलज्ञानकरि देख्या, ताका निरूपण करणानुयोगविष किया है। सो इस करणलब्धिके तीन भेद हैं-अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण। इनका विशेष व्याख्यान तो लब्धिसार शास्त्रविष किया है, तिस जानना । यहाँ संक्षेपसों कहिए है
त्रिकालवर्ती सर्व करणलब्धिवाले जीव तिनके परिणामनिकी अपेक्षा ए तीन नाम हैं। तहाँ करण नाम तो परिणामका है। बहुरि जहाँ पहले पिछले समयनिके परिणाम समान होय सो अधःकरण है । जैसे कोई जीवका परिणाम तिस करणके पहिले समय स्तोक विशुद्धता लिए भया, पीछ समय-समय अनंतगुणी विशुद्धताकर बधते भए। बहुरि वाकै जैसे द्वितीय तृतीयादि समयनिविषै परिणाम होय, तैसे केई अन्य जीवनिकै प्रथम समयविषै ही होय। ताकै तिसते समय-समय अनन्तगुणी विशुद्धताकरि बधते होय। ऐसे अधःप्रवृत्तिकरण जानना। १. लब्धि. ३ 1
२. लब्धि . ३५ ।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२२४
बहुरि जिसविषे पहले पिछले समयनिके परिणाम समान न होय, अपूर्व ही होय, सो अपूर्वकरण है। जैसे तिस करणके परिणाम जैसे पहले समय होय तैसे कोई ही जीवकै द्वितीयादि समयनिविषे न होय, बधते ही होय। बहुरि इहाँ अधःकरणवत् जिन जीवनिकै करणका पहला समय ही होय, तिनि अनेक जीवनिकै परस्पर परिणाम समान भी होय अर अधिक होन विशुद्धता लिए भी होय। परन्तु यहाँ इतना विशेष भया, जो इसकी उत्कृष्टतात भी द्वितीयादि समयवालेका जघन्य परिणाम भी अनन्तगणी विशुद्धता लिए ही होय। ऐसे ही जिनको करण मांडे द्वितीयादि समय भया होय, तिनकै तिस समयवालों के तो परस्पर परिणाम समान वा असमान होय परन्तु ऊपरले समयवालोंके तिस समय समान सर्वधा न होय, अपूर्व ही होय। ऐसे अपूर्वकरण' जानना ।
___ बहुरि जिस विषै समान समयवर्ती जीवनिकै परिणाम समान ही होय, निवृत्ति कहिए परस्पर भेद ताकरि रहित होय। जैसे तिस करणका पहला समयविष सर्व जीवनिका परिणाम परस्पर समान ही होय, ऐसे ही द्वितीयादि समयनिविषै समानता परस्पर जाननी। बहुरि प्रथमादि समयवालोंतें द्वितीयादि समयवालोंके अनन्तगुणी विशुद्धता लिए होय। ऐसे अनिवृत्तिकरण जानना।
ऐसे ए तीन करण जानने। नहाँ पहलै अंतर्मुहूर्त कालपर्यन्त अधःकरण होय । तहाँ च्यारि आवश्यक हो हैं। समय समय अनन्तगुणी विशुद्धता होय, बहुरि एक अंतर्मुहूर्त करि नवीन बंधकी स्थिति घटती होय सो स्थितिबंधापसरण होय, बहुरि समय-समय प्रशस्त प्रकृतिनिका अनन्तगुणा अनुभाग बंधै, बहुरि समय-समय अप्रशस्त प्रकृतिनिका अनुभागबंध अनन्तवें भाग होय: ऐसे च्यारि आवश्यक होय-तहाँ पीछे अपूर्वकरण होय । ताका काल अधःकरणके काल के संख्यात भाग है। ताविषे ए आवश्यक और होय। एक एक अन्तर्मुहूर्त्तकरि सत्ताभूत पूर्वकर्मकी स्थिति थी, ताको घटावै सो स्थितिकाण्डकघात होय । बहुरि तिसत स्तोक एक एक अन्तर्मुहूर्त्तकरि पूर्वकर्मका अनुभागको घटावै सो अनुभाग कांडकघात होय । बहुरि गुणश्रेणिका कालविषे क्रमते असंख्यातगुणा प्रमाण लिए कर्म निर्जरने योग्य करिए सो गुण श्रेणीनिर्जरा होय। बहुरि गुणसंक्रमण यहाँ नाहीं हो है। अन्यत्र अपूर्वकरण हो है, तहाँ हो है। ऐसे अपूर्वकरण भए पीछे अनिवृत्तिकरण होय । ताका काल अपूर्वकरणके भी संख्यातवें भाग है। तिसविर्ष पूर्वोक्त आवश्यकसहित केता
१. समए समए भिण्णा भावा तम्हा अपुवकरणो हु ।
जम्हा उवरिमभाया हेट्ठिमभावेहिं गत्थि सरिसत्तं ।। लब्धि. ३६ ।। तम्हा विदिय करण अपुवकरणेत्ति णिद्दिष्टुं ।। लब्धि. ५१।। करणं परिणामो अपुवाणि च ताणि करणाणि च अपुन्यकरणाणि, असमाणपरिणामा नि ज उत्तं होदि।
- धवला १-६--४ २. एगसमए वटुंताणं जीवाणं परिणामेहि ण विज्जदे णियट्टी णिवित्ती जत्थ ते अणियट्टीपरिणामा। श्वला +E---४।
एक्कम्हि कालसमये सटाणादीहिं जह गियति । ण णियति तहा विय परिणामेहिं मिहोजेहिं ।। गो.जी. ५६ ।।
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सातवाँ अधिकार-२२५
काल गए पीछै अन्तरकरण' करै है। अनिवृत्तिकरण के काल पीछ उदय आवने योग्य ऐसे मिथ्यात्वकर्मके मुहूर्तमात्र निषेक तिनिका अभाव करै है, तिन परमाणुनिको अन्य स्थितिरूप परिणमाये है। बहुरि अन्तरकरण किये पीछै उपशमकरण करै है।
विशेष : इस प्रकार है
किमतरकरणं णाम? विवक्खियकम्माणं हेट्ठिमोवरिमट्टिदीओ मोत्तूण मज्झे अंतोमुत्तमेत्तीर्ण द्विदीर्ण परिणामविसेसेण गिसेगाणमभावीकरणमंतरकरणमिदि भण्णदे। (ज.प. १२/२७२ भगवद् वीरसेन स्वामों)
अर्थ- अन्तरकरण किसे कहते हैं? उत्तर- विवक्षित कर्मों की अधस्तन और उपरिम स्थितियों को छोड़कर मध्य की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितियों के निषेकों का परिणाम विशेष के कारण अभाव करने को अन्तरकरण कहते हैं (यही बात जयथवल १२/२७४ चरम पंक्ति एवं पृ. २७५, पहली-दूसरी पंक्ति तथा थयल ६/२३१, ज. प. अ. प्र. पृष्ठ ६५३, क. पा. सु. पृ. ६२६. टिप्पण, क. पा. सु. पृष्ठ ७५२ टिप्पण में लिखी है।)
लब्धिसार ८६ संस्कृत टीका में भी कहा है- “तदुपर्यन्तर्मुहूर्तमात्रोऽन्तरायामः।" अर्थ- ताकै उपरि जिनि निषैकनिका अभाव किया सो अन्तर्मुहूर्त मात्र अन्तर याम है। नोट- लब्धिसार २४३ की हिन्दी टीका में भी अन्तरायाम अन्तर्मुहूर्त बताया गया है।
इस प्रकार इन उक्त सकल सिद्धान्तशास्त्रों व टीकाओं के अनुसार अन्तर्मुहूर्त ही अन्तरायाम होता है। अतः "मुहूर्त मात्र निषेकनिका अभाव करै है" इस स्थल की जगह “अन्तर्मुहूर्त मात्र निषैकनिका अभाव करै है," ऐसा चाहिए।
यदि कोई कहे कि मुहूर्त व अन्तर्मुहूर्त में खास फर्क नहीं पड़ता है, लगभग समान हैं; अतः अन्तर्मुहूर्त की जगह सामीप्यार्थक मुहूर्त लिखदें तो क्या आपत्ति है? तो इसका उत्तर यह है कि यहाँ समीपता कथमपि नहीं है। मुहूर्त (४८ मिनट) के अन्तरकरण काल का अन्तर्मुहूर्त से सामीप्य (लगभग समानता) भी नहीं है, जिससे कि उपचार से भी अन्तर्मुहूर्त को मुहूर्त कहदें। क्योंकि यहाँ अन्तरायाम (अन्तर्मुहूर्त) से संख्यातगुणी जो जघन्य आबाधा है वह भी अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है।
१. किमन्तरकरणं णाम ? विवक्खियकम्पाणं हेट्ठिमोवरिमद्विदीओ मोत्तूण मझे अन्तोमुहूत्तमेत्ताणं द्विदीणं परिणामविसेसेण णिसेगाणामभावीकरणमन्तरकरणमिदि भण्णदे ।।
__ - जय ध.अ.प. ६५३ अर्थ - अन्तरकरण का क्या स्वरूप है? उत्तर - विवक्षित को की अधस्तन और उपरिम स्थितियों को छोड़कर मध्यवर्ती अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थितियों के निषेकों का परिणाम विशेष के द्वारा अभाव करने को अन्तरकरण कहते हैं।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - २२६
( जयधवला १२ / २६१-६२) किञ्च प्रथमास्था तथा अन्तरायाम को मिलाकर कुछ अधिक करने पर जो आता है वह भी अन्तर्मुहूर्त ही होता है। (यथा- प्रथमस्थिति + अन्तरायाम + कुछ काल = अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बध्यमान मिध्यात्व की अन्तरकरणकालीन आबाधा । ल. सा. पृ. ६८ प्रथम अनुच्छेद पं. फूलचन्द्र जी सि. शा.)
यहाँ प्रथम स्थिति भी नियम से संख्यात अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। (देखें ज. ध. १२ / २८६ ) यानी अन्तरायाम के अन्तर्मुहूर्त में संख्यात अन्तर्मुहूर्ती को मिलाने पर भी प्रकृत में मुहूर्त नहीं बनता । यह कथनाभिप्राय है ।
इस प्रकार मोक्षमार्गप्रकाशक में इस स्थल पर मुहूर्त की जगह अन्तर्मुहूर्त ही चाहिए, ऐसा निर्विवाद उपादेय है। किंच, स्वयं पं. टोडरमलजी ने ही अन्यत्र ४ स्थानों पर अन्तर्मुहूर्त मात्र निषेकों का अभाव करना कहा है, मुहूर्तमात्र निषेकों का नहीं । यथा
( १ )... ऐसा अन्तर्मुहूर्त मात्र अन्तरायाम है। इतने निषेकनिका अभाव करै है | ( ल. सा. पृ. २६६ जैन सि. प्र. संस्था, कलकत्ता) :
( २ ) .... अन्तरायाम हो है । एते निषेकनि का अभाव करिए है, सो ए भी अन्तर्मुहूर्त मात्र हैं ( ल. सा. ८६ की सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका, पृ. ६७, राजचन्द्रशास्त्रमाला )
(३) जिनि निषेकनिका अभाव किया सो अन्तर्मुहूर्त मात्र अन्तरायाम है। ( वही पृष्ठ )
( ४ ) ल. सा. ६५ की सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका से भी यही स्पष्ट होता है।
अन्तरकरणकार अभावरूप किए निषेकनिके ऊपर जो मिथ्यात्वके निषेक तिनको उदय आबनेको अयोग्य करे है । इत्यादिक क्रियाकरि अनिवृत्तिकरणका अन्तसमयके अनन्तर जिन निषेकनिका अभाव किया था, तिनका उदयकाल आया तब निषेकनि बिना उदय कौनका आवै । तातैं मिध्यात्वका उदय न होने प्रथमोपशम सम्यक्त की प्राप्ति हो है । अनादिमिध्यादृष्टीकै सम्यक्तमोहनीय, मिश्रमोहनीय की सत्ता नाहीं है । ता एक मिथ्यात्वकर्महीको उपशमाय उपशमसम्यग्दृष्टी होय है। बहुरि कोई जीव सम्यक्त पाय पीछे भ्रष्ट हो है, ताकी भी दशा अनादिमिध्यादृष्टीकी सी होय जाय है ।
यहाँ प्रश्न- जो परीक्षाकारे तत्त्वश्रद्धान किया था, ताका अभाव कैसे होय ?
ताका समाधान - जैसे किसी पुरुषको शिक्षा दई, ताकी परीक्षा करि वाकै ऐसे ही है ऐसी प्रतीति भी आई थी, पीछे अन्यथा कोई प्रकारकरि विचार भया, तातैं उस शिक्षाविषे सन्देह भया । ऐसे है कि ऐसे है, अथवा 'न जानों कैसे है, अथवा तिस शिक्षाको झूट जानि तिसर्ते विपरीत भई, तब वाकै प्रतीति न भई, तब वाकै तिस शिक्षा की प्रतीतिका अभाव होय । अथवा पूर्वे तो अन्यथा प्रतीति थी ही, बीचिमें शिक्षा
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सातवां अधिकार-२२७
का विचारतें यथार्थ प्रतीति भई थी बहुरि तिस शिक्षाका विचार किए बहुत काल होय गया तब ताको भूलि जैसे पूर्वं अन्यथा प्रतीति थी तैसे ही स्वयमेव होय गई तब तिस शिक्षा की प्रतीतिका अभाव होय जाय। अथवा यथार्थ प्रतीति पहले तो कीन्हीं, पीछे न तो किछु अन्यथा विचार किया, न बहुत काल भया परन्तु तैसा ही कर्म उदयतें होनहार के अनुसार स्वयमेव ही तिस प्रतीति का अभाव होय अन्यथापना भया। ऐसे अनेक प्रकार तिस शिक्षा की यथार्थ प्रतीतिका अभाव हो है। तैसे जीवके जिनदेव का तत्त्वादिरूप उपदेश भया, ताकी परीक्षाकरि वाकै 'ऐसे ही है' ऐसा श्रद्धान भया, पीछ पूर्वे जैसे कहे तैसे अनेक प्रकार तिस पदार्थश्रद्धान का अभाव हो है। सो यह कथन स्थूलपने दिखाया है। तारतम्यकरि केवलज्ञानविषै भारी है-इस समय दान कि इस समय नाही है। जाते यही मूल कारण मिथ्यात्वकर्म है। ताका उदय होय, तब तो अन्य विचारादि कारण मिलो वा मति मिलो, स्वयमेव सम्यागका अभाव हो है। बहुरि ताका उदय न होय, तब अन्य कारण मिलो वा मति मिलो, स्वयमेव सम्यक् श्रद्धान होय जाय है। सो ऐसी अन्तरंग समय-समय सम्बन्धी सूक्ष्मदशाका जानना छनस्थकै होता नाहीं।' तातें अपनी मिथ्या सम्यश्रद्धानरूप अवस्थाका तारतम्य याको निश्चय हो सकै नाही, केवलज्ञानायधै भास है। तिस अपेक्षा गुणस्थाननिकी पलटनि शास्त्रविषै कही है। या प्रकार जो सम्पदन्तत भ्रष्ट होय सो सादि मिथ्यादृष्टी कहिए। ताकै भी बहुरि सम्यक्तकी प्राप्ति विधै पूर्वोक्त पाँच लब्धि हो हैं। विशेष इतना-यहाँ कोई जीवक दर्शन मोहकी तीन प्रकृतिनिकी सत्ता हो है सो तीनोंको उपशमाय प्रथमोपशमसम्यक्ती हो है। अथवा काहूक सम्यक्त्तमोहनीयका उदय आवै है, दोय प्रकृतिनिका उदय न हो है, सो क्षयोपशमसम्यक्ती हो है। याकै गुणश्रेणी आदि क्रिया न हो है वा अनिवृत्तिकरण न हो है। बहुरि काहूकै मिश्रमोहनीवका उदय आवै है, दोय प्रकृतिनिका उदय न हो है, सो मिश्रगुणस्थानको प्राप्त हो है। याकै करण न हो है। ऐसे सादि मिथ्यादृष्टीके मिथ्यात्य छूटै दशा हो है। क्षायिकसम्यक्तको वेदकसम्यादृष्टीही पावै है तातै ताका कथन यहाँ न किया है। ऐसे सादि मिथ्यादृष्टीका जघन्य तो मध्यम अन्तर्मुहूर्त्तमात्र उत्कृष्ट किंचित्ऊन अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन मात्र काल जानना। देखो परिणामनिकी विचित्रता, कोई जीव तो ग्यारहवें गुणस्थान यथाख्यातचारित्र पाय बहुरि मिध्यादृष्टी होय किंचित् ऊन अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन कालपर्यंत संसार में रुलै अर कोई नित्यनिगोदमेंसों निकसि मनुष्य होय मिथ्यात्व छूटे पीछे अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान पावै । ऐसे जानि अपने परिणाम बिगरनेका भय राखना अर तिनके सुधारने का उपाय करना।
बहुरि इस सादिमिध्यादृष्टीकै थोरे काल मिथ्यात्वका उदय रहै तो बाह्य जैनीपना नाही नष्ट हो है वा तत्त्वनिका अश्रद्धान व्यक्त न हो है वा बिना विचार किए ही वा स्तोक विचारहीत बहुरि सम्यक्तकी प्राप्ति होय जाय है। बहुरि बहुत काल मिथ्यात्वका उदय रहै तो जैसी अनादि मिथ्यादृष्टीकी दशा तैसी याकी
१. इतना विशेष है कि यद्यपि अर्थपर्यायें छप्रस्थ की दृष्टि का विषय नहीं होती। (जैनगजट १७-१-६६) तथापि अवधिज्ञानी
तथा मनःपर्ययज्ञानी आत्माएँ अर्थपर्यायों को जानती हैं (भूयः सूक्ष्मार्थपर्यायविन्मनःपर्ययोवः अर्थात् अवधि से भी मनःपर्यय अधिक अर्थपर्यायें जानता है।
- श्लोकवार्तिक अ. १ सूत्र २५ की टीका, भाग ४ पृ. ३६ कुन्धुसागर ग्रन्थमाला
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पाश
भी दशा हो है । गृहीत मिध्यात्वको भी ग्रहै है । निगोदादिविषै भी रुलै है । याका किछू प्रमाण नाहीं ।
बहुरि कोई जीव सम्यक्ततें भ्रष्ट होय सासादन हो है। सो तहाँ जघन्य एक समय उत्कृष्ट छह आवली प्रमाण काल रहे है, सो याका परिणामकी दशा वचनकरि कहने में आवती नाहीं। सूक्ष्मकालमात्र कोई जाति के केवलज्ञानगम्य परिणाम हो है। तहाँ अनंतानुबंधीका तो उदय हो है, मिध्यात्वका उदय न हो है । सो आगम प्रमाणत याका स्वरूप जानना ।
बहुरि कोई जीव सम्यक्त भ्रष्ट होय, मिश्रगुणस्थान को प्राप्त हो है। तहाँ मिश्रमोहनीयका उदय हो है । याका काल मध्यम अन्तर्मुहूर्त मात्र है। सो याका भी काल थोरा है, सो याकै भी परिणाम केवलज्ञानगम्य हैं । यहाँ इतना भारी है - जैसे काहूको सीख दई तिसको वह किछू सत्य किछू असत्य एकै काल मानै तैसे तत्त्वनिका श्रद्धा अश्रद्धान एकै काल होय सो मिश्रदशा है। केई कहे हैं - हमको तो जिनदेव वा अन्य देव सर्व ही वंदने योग्य हैं, इत्यादि मिश्र श्रद्धान को मिश्रगुणस्थान कहै हैं, सो नाहीं । यहु तो प्रत्यक्ष मिथ्यात्यदशा है । व्यवहाररूप देवादिका श्रद्धान भए भी मिध्यात्व रहै है, तो याकै तो देव कुदेव को किछू ठीक ही नाहीं । याकै तो यहु विनयमिथ्यात्व प्रगट है, ऐसा जानना ।
विशेष- सम्यग्मिथ्यात्व के विषय में सकलतत्त्वों के पारदर्शी केवली के समान नैसर्गिकी प्रज्ञा के धारक १०८ वीरसेन स्वामी लिखते हैं-- “ समीचीन और असमीचीन रूप दोनों श्रद्धाओं का क्रम से एक आत्मा में रहना सम्भव है तो कभी किसी आत्मा में एक साथ भी उन दोनों का रहना बन सकता है। यह सब कथन काल्पनिक नहीं है क्योंकि पूर्व स्वीकृत अन्य देवता के अपरित्याग के साथ-साथ अर्हन्त भी देव हैं ऐसे अभिप्राय वाला पुरुष पाया जाता है" (यही सम्यग्मिथ्यादृष्टि है | ) धवल १/१६८
अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती गो. जी. म. प्र. टीका २२ में लिखते हैं कि- "जैसे किसी के अपने मित्र के प्रति तो मित्रता है तथा चैत्र नामक व्यक्ति से शत्रुता है। इस प्रकार उस जीव के एक काल में उसके हृदय में मित्रता व शत्रुता के भाव युगपत् रहते हैं। तथैव किसी पुरुष के अर्हन्त आदि में श्रद्धान की अपेक्षा सम्यक्त्व है तथा अनाप्त आदि में श्रद्धान की अपेक्षा मिध्यात्व है। ये दोनों भाव विषयभेद होने से एक ही पुरुष में एक काल में सम्भव होते हैं, इस कारण सम्यग्मिथ्यादृष्टित्व अविरुद्ध है ।
I
उक्तगाथा की टीका में ही केशव वर्गी तथा नेमिचन्द्र एक स्वर से लिखते हैं कि पूर्व गृहीत अतत्त्व श्रद्धान के त्यागे बिना उसके साथ तत्त्वश्रद्धान भी होता है ( सम्यग्मिथ्यादृष्टि के ) । पं. सं. प्रा. १/१० में कुछ भी विशेष कथन नहीं है।
सोमदेव अपने उपासकाध्ययन ( ४ / १४४ / पृ. ३६ ज्ञानपीठ प्रकाशन) में लिखते हैं कि
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सातनों अधिकार-२२६
कुदेव को देव मानना, अव्रत को व्रत मानना तथा अतत्त्व को तत्त्व मानना, मिथ्यात्व है। यदि कोई इनका सर्वथा त्याग नहीं करता ( और सम्यक्त्व के साथ-साथ किसी मूढ़ता का भी पालन करता है) तो उसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि मानना चाहिए। क्योंकि मिथ्यात्व-सेवन के कारण उसके धर्माचरण का भी लोप कर देना ठीक नहीं, अर्थात् उसे मिथ्यादृष्टि ही मानना टीक नहीं, बल्कि मिश्र. मानना चाहिए।
श्रीमद् राजचन्द्र (पृ. ८१२) लिखते हैं-उन्मार्ग को मोक्षमार्ग माने और मोक्षमार्ग को उन्मार्ग माने वह मिथ्यात्वी है। उन्मार्ग से मोक्ष नहीं होता, इसलिए मार्ग दूसरा होना चाहिए; ऐसा जो भाव वह मिश्रमोहनीय है। आत्मा यह होगी? ऐसा ज्ञान होना सम्यक्त्व मोहनीय है। आत्मा यह है; ऐसा निश्चय भाव सम्यक्त्व है। प्रथम संस्करण /द्वितीय खण्ड पू. ८१२
उपर्युक्त समस्त कथनों का सार यह है कि तत्त्व श्रद्धान तथा अतत्त्वश्रद्धान युगपत होने के साथ-साथ भी यदि सम्यग्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोह कर्म का उदय हो तो उस श्रद्धानाश्रद्धान के मिश्रित भाव को सम्यग्मिध्यात्व परिणाम कहते हैं। इस परिणाम को केवल सम्यक्त्व रूप से तथा केवल मिथ्यात्व रूप से व्यवस्थापित करना शक्य नहीं है। इस काल में इस जीव के किंचित् अनाप्त श्रद्धान का लब (अंश) अवश्य रहता है (अन्यथा अतत्त्व श्रद्धान का अंश भी जीवित नहीं रहे)। कदाचित् यह कहा जाए कि उसके अतत्त्वश्रद्धान तो, "यह जिनाज्ञा ही है;" ऐसा ज्ञानपूर्वक, ज्ञान मात्र की कमी के कारण ही होता है। तो उत्तर यह है कि ऐसा अतत्त्व श्रद्धान तो सम्यक्त्वी के भी होता है (गो. जी. २७) तथा इस सम्यग्मिथ्यात्वी के ऐसा भाव त्रिकाल भी नहीं होता कि "सब देवता तथा सब दर्शन एक समान हैं" क्योंकि यह तो विनय मिथ्यात्व है। ( स. सि. ८/१/पृ.२८४, रा. वा. ८/१/२८, त. सा. ५/८, त. वृत्ति८/१, आदि) सम्यग्मिध्यात्वी कुदेव की वंदना भी नहीं करता, क्योंकि वह तो मिथ्यात्व है (द. पा. २२ तथा भावसंग्रह देवसेन ७३-७५) इन सबके बर्जन के बाद; जो जैसा अनाप्त के प्रति श्रद्धानांश, यथाजिनदृष्ट रहता है उसे स्वीकार करना चाहिए। उसके साथ आप्त व तत्त्वों के प्रति श्रद्धान के मिश्रण से वह सम्यग्मिथ्यात्वी होता है। यह सम्यग्मिथ्यात्वी नियम से ऐसा जीव ही बन सकता है जिसने पहले सम्यग्दर्शन पाया हो, यह शर्त भी उक्त तथ्यों में ध्यान रखनी चाहिए।
ऐसे सम्यक्त के सन्मुख मिथ्यादृष्टीनिका कथन किया। प्रसंग पाय अन्य भी कथन किया है। या प्रकार जैनमतवाले मिथ्यादृष्टीनिका स्वरूप निरूपण किया। यहाँ नाना प्रकार मिथ्यादृष्टीनिका कथन किया है ताका प्रयोजन यह जानना- जो इन प्रकारनिको पहिचानि आपविर्ष ऐसा दोष होय तो ताको दूरिकार सम्यक्श्रद्धानी होना। औरनि हीके ऐसे दोष देखि देखि कषायी न होना । जातें अपना 'मला-बुरा तो अपने परिणामनित है। औरनिकों तो सचिवान देखिए, तो किछू उपदेश देय वाका भी भला कीजिये। तातें अपने परिणाम सुधारने का उपाय करना योग्य है। जाते संसार का मूल मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व समान अन्य पाप
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - २३०
नाहीं है । एक मिध्यात्व अर ताके साथ अनन्तानुबंधीका अभाव भए इकतालीस प्रकृतिनिका तो बंध ही मिटि जाय । स्थिति अन्तः कोटाकोटी सागर की रहि जाय। अनुभाग थोरा ही रहि जाय। शीघ्र ही मोक्षपदको पावै । बहुरि मिथ्यात्वका सद्भाव रहे अन्य अनेक उपाय किए भी मोक्षमार्ग न होय । तातें जिस तिस उपायकरि सर्व प्रकार मिध्यात्वका नाश करना योग्य है ।
इति मोक्षमार्गप्रकाशकनाम शास्त्रविषे जैनमतवाले मिथ्यादृष्टीनिका निरूपण जामें भया ऐसा सातवाँ अधिकार सम्पूर्ण भया ॥ ७ ॥
事
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פן.
आठवाँ अधिकार
उपदेश का स्वरूप
अथ मिथ्यादृष्टी जीवनको मोक्षमार्ग का उपदेश देय तिनका उपकार करना बहु ही उत्तम उपकार है। तीर्थंकर गणथरादिक भी ऐसा ही उपकार करे है । तातें इस शास्त्रविषे भी तिनहीका उपदेशके अनुसारि उपदेश दीजिए है। तहाँ उपदेशका स्वरूप जानने के अर्थ किछू व्याख्यान कीजिए है। जातै उपदेशको यथावत् न पहिचान तो अन्यथा मानि विपरीत प्रवत् ता उपदेशका स्वरूप कहिए है -
जिनमतविषै उपदेश च्यारि अनुयोगकार दिया है। सो प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयो ए च्यारि अनुयोग हैं। तहाँ तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि महान् पुरुषनिके चरित्र जिसविषै निरूपण किया होय, सां प्रथमानुयोग है।' बहुरि गुणस्थान मर्मणादिकरूप जीवका वा कर्मनिका वा त्रिलोकादिकका जाविषे निरूपण होय, सो करणानुयोग है। " बहुरि गृहस्थ मुनिके धर्म आचरण करनेका जाविषे निरूपण होय, सो चरणानुयोग है। बहुरि षट् द्रव्य सप्ततत्त्वादिक या स्वप भेद विज्ञानाधिषका जाविषनिरूपण होय, सो द्रव्यानुयोग है।" अब इनका प्रयोजन कहिये है
प्रथमानुयोग का प्रयोजन
प्रथमानुयोगविषै तो संसारकी विचित्रता, पुण्य-पापका फल, महंतपुरुषनिकी प्रवृत्ति इत्यादि निरूपणकरि जीवनको धर्मविष लगाईए हैं। जे जीव तुच्छबुद्धि होय, ते भी तिसकरि धर्म सन्मुख हो है, जातैं वे जीव सूक्ष्मनिरूपणको पहिचानै नाहीं। लौकिक वार्तानिको जाने तहाँ तिनका उपयोग लागे बहुरि लोकविषै तो राजादिककी कथानिविषै पापका पोषण हो है। तहाँ महंत पुरुष राजादिक तिनकी कथा तो है परन्तु प्रयोजन जहाँ तहाँ पापको छुड़ाय धर्मविषै लगावनेका प्रगट करे हैं। तातें ते जीव कथानिके लालचकरि तो तिसको बांचे, सुनै, पीछे पापको बुरा, धर्मको भला जानि धर्मविषै रुचिवंत हो हैं। ऐसे तुच्छ बुद्धीनिके समझावनेको यहु अनुयोग है। 'प्रथम' कहिए 'अव्युत्पन्न मिथ्यादृष्टी' तिनके अर्थि जो अनुयोग सो प्रथमानुयोग है। ऐसा अर्थ गोमट्टसारकी टीकाविषै' किया है। बहुरि जिन जीवनिके तत्त्वज्ञान भया होय, पीछे इस प्रथमानुयोगको
१. रत्नक. २, २ । २. रत्नक. २, ३ । ३. रत्नक २, ४ ४. रत्नक. २, ५
५. प्रथमं मिथ्यादृष्टिमव्रतिकमव्युत्पन्नं या प्रतिपाद्यमाश्रित्य प्रवृत्तोऽनुयोगो ऽधिकारः प्रथमानुयोगः, जी. प्र. टी. गा. ३६१-२ ।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - २३२
बांचे सुनै, तो तिनको यहु तिसका उदाहरणरूप भासे है। जैसे जीव अनादिनिधन है, शरीरादिक संयोगी पदार्थ हैं, ऐसे यहु जानै था । बहुरि पुराणनिविषै जीवनिके भवांतर निरूपण किए, ते तिस जानने के उदाहरण भए। बहुरि शुभ अशुभ शुद्धोपयोगको जानै था वा तिनके फलको जाने था । बहुरि पुराणनिविषै तिन उपयोगनिकी प्रवृत्ति अर तिनका फल जीवनिकै भया, सो निरूपण किया। सो ही तिस जाननेका उदाहरण भया । ऐसे ही अन्य जानना । यहाँ उदाहरण का अर्थ यहु जो जैसे जाने था तैसे ही तहाँ कोई जीवकै अवस्था भई तातें यह तिस जानने की साखि भई बहुरि जैसे कोई सुभट है, सो सुभटनिकी प्रशंसा अर कायरनिकी निन्दा ना हो ऐसी कोई पुराणपुरुषनिकी कथा सुननेकरि सुभटपनाविषै अति उत्साहवान हो है । तैसे धर्मात्मा है, सो धर्मात्मानिकी प्रशंसा अर पापीनिकी निन्दा जाविषै होय, ऐसे कोई पुराणपुरुषनिकी कथा सुननेकरि धर्मविषै अति उत्साहवान हो है। ऐसे यहु प्रथमानुयोग का प्रयोजन जानना । करणानुयोग का प्रयोजन
बहुरि करणानुयोगविषै जीवनिकी वा कर्मनिका विशेष वा त्रिलोकादिककी रचना निरूपणकरि जीवनको धर्मविषै लगाईए हैं। जे जीव धर्मविषै उपयोग लगाया चाहे, ते जीवनिका गुणस्थान मार्गणा आदि विशेष अर कर्मनिका कारण अवस्था फल कौन-कौन कै कैसे-कैसे पाइए, इत्यादि विशेष अर त्रिलोकविषै नरक स्वर्गादिकके ठिकाने पहिचानि पापते विमुख होय धर्मविषे लागे हैं। बहुरि ऐसे विचारविषै उपयोग रमि जाय, तब पाप प्रवृत्ति छूटि स्वयमेव तत्काल धर्म उपजै है । तिस अभ्यासकरि तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति शीघ्र हो है । बहुरि ऐसा सूक्ष्म यथार्थ कथन जिनमतविषे ही है, अन्यत्र नाहीं, ऐसे महिमा जानि जिनमतका श्रद्धानी हो है । बहुरि जे जीव तत्त्वज्ञानी होय इस करणानुयोगको अभ्यास हैं, तिनको यहु तिसका विशेषरूप भा है जो जीवादिक तत्त्व आप जाने है, तिनहीका विशेष करणानुयोगविषे किए हैं। तहाँ केई विशेषण तो यथावत् निश्चयरूप हैं, केई उपचार लिए व्यवहाररूप हैं। केई द्रव्य क्षेत्र काल भावादिकका स्वरूप प्रमाणादिरूप हैं, केई निमित्त आश्रयादि अपेक्षा लिए हैं । इत्यादि अनेक प्रकारके विशेषण किए हैं, तिनको जैसाका तैसा मानना तिस करणानुयोगको अभ्यासे हैं। इस अभ्यास तत्त्वज्ञान निर्मल हो है । जैसे कोऊ यहु तो जाने था यहु रत्न है परन्तु उस रत्न के घने विशेष जाने निर्मल रत्नका पारखी होय, तैसे तत्त्वनिको जान था ए जीवादिक हैं परन्तु तिन तत्त्वनिके घने विशेष जानै तो निर्मल तत्त्वज्ञान होय । तत्त्वज्ञान निर्मल ए आप ही विशेष धर्मात्मा हो है । बहुरि अन्य ठिकाने उपयोगको लगाईए तो रागादिककी वृद्धि होय अर छद्मस्थका एकाग्र निरन्तर उपयोग रहे नाहीं । तातैं ज्ञानी इस करणानुयोगका अभ्यासविषै उपयोगको लगावै है । तिसकरि केवलज्ञानकरि देखे पदार्थनिका जानपना याकै हो है। प्रत्यक्ष अप्रत्यक्षहीका भेद है, भासनेविषै विरुद्ध है नाहीं ऐसे यहु करणानुयोगका प्रयोजन जानना । 'करण' कहिए गणित कार्यको कारण सूत्र तिनका जाविषै 'अनुयोग' अधिकार होय, सो करणानुयोग है। इस विषै गणित वर्णनकी मुख्यता है, ऐसा जानना । विशेष त्रिलोकसार गाथा १-३ की टीका में "केवलज्ञानसमानं करणानुयोगनामानं परमागमं...” इन शब्दों द्वारा करणानुयोग को केवलज्ञान समान कहा । लोक- अलोक के विभाग
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आवयाँ अधिकार-२३
को, युगों के परिवर्तन को तथा चारों गतियों को दर्पण के समान प्रकट करने वाला करणानुयोग है। (र.क.श. ४४, अन.य. ३/१०)
करणानुयोग में सूक्ष्मतम कर्मसिद्धान्त तथा लोकविभाग, कालप्ररूपण, तीर्थंकरों का अन्तराल, सकल रचना आदि प्ररूपित होती हैं। इस अनुयोग को जानने से बुद्धि अतिशय सूक्ष्मज्ञ हो जाती है तथा तत्त्वज्ञान निर्मल हो जाता है।
चरणानुयोगका प्रयोजन अब चरणानुयोगका प्रयोजन कहिए है। चरणानुयोगविषै नाना प्रकार धर्मके साधन निरूपणकरि जीवनिको धर्मविषे लगाईए है। जे जीव हित-अहितको जानै नाहीं, हिंसादिक पाप कार्यनिविषै तत्पर होय रहे हैं, तिनको जैसे पापकार्यनिको छोड़ि धर्मकार्यनिविषै लागै तैसे उपदेश दिया, ताको जानि धर्म आचरण करनेको सन्मुख भए, ते जीव गृहस्थधर्म वा मुनिधर्म का विधान सुनि आपतै जैसा सधै तैसा धर्म-साधनविर्षे लागे हैं। ऐसे साधनः कषाय मंद हो है। ताके फलते इतना तो हो है, जो कुगतिविर्षे दुःख न पावै अर सुगतिविषे सुख पावै । बहुरि ऐसे साधनतें जिनमत का निमित बन्या रहे, तहाँ तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होनी होय तो होय जावै । बहुरि जे जीव तत्त्वज्ञानी होयकारे चरणानुयोगको अभ्यासे हैं, तिनको ए सर्व आचरण अपने वीतरागभावके अनुसारी मासे हैं। एकदेश वा सर्वदेश वीतरागता भए ऐसी श्रावकदशा ऐसी मुनिदशा हो है। जाते इनके निमित्त-नैमित्तकपनो पाईए है। ऐसे जानि श्रावक मुनिधर्मके विशेष पहिचानि जैसा अपना वीतरागभाव भया होय, तैसा अपने योग्य धर्मको साधै है। तहाँ जेता अंशां वीतरागता हो है, ताको कार्यकारीजाने है। जेता अंशा राग रहै है, ताको हेय जाने है। सम्पूर्ण वीतरागताको परमधर्म माने है। ऐसे चरणानुयोगका प्रयोजन है।
द्रव्यानुयोगका प्रयोजन अब द्रव्यानुयोगका प्रयोजन कहिये है। द्रव्यानुयोगविष द्रव्यनिका वा तत्त्वनिका निरूपण करि जीवनिको धर्मविष लगाईए है। जे जीव जीवादिक द्रव्यनिको वा तत्त्वनिको पहिचान नाही, आपा परको भिन्न जाने नाही, तिनको हेतु दृष्टांत युक्तिकार वा प्रमाण-नयादिककरि तिनका स्वरूप ऐसे दिखाया जैसे याकै प्रतीति होय जाय। ताके अभ्यासतें अनादि अज्ञानता दूरि होय, अन्यमत कल्पित तत्त्वादिक झूठ भासे, तब जिनमतकी प्रतीति होय ।अर उनके भावको पहिचाननेका अभ्यास राखै तो शीघ्र ही तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होय जाय । बहुरि जिनकै तत्त्वज्ञान भया होय, ते जीव द्रव्यानुयोगको अभ्यास। तिनको अपने श्रद्धान के अनुसारि सो सर्व कथन प्रतिभासे है। जैसे काहूने किसी विद्याको सीखि लई परन्तु जो ताका अभ्यास किया करे तो वह यादि रहै, न करै तो भूलि जाय। तैसे याकै तत्त्वज्ञान भया रहै, न करै तो भूलि जाय। अथवा संक्षेपपने तत्त्वज्ञान भया था, सो नाना युक्ति हेतु दृष्टांताविकार स्पष्ट होय जाय तो तिसविष शिथिलता न होय सके। बहुरि इस अभ्यासतें रागादि घटनेते शीघ्र मोक्ष सथै । ऐसे द्रव्यानुयोग का प्रयोजन जानना।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२३४
अब इन अनुयोगनिविषै किस प्रकार व्याख्यान है, सो कहिए है
प्रथमानुयोग में व्याख्यान का विधान प्रथमानुयोगविषै जे मूलकथा है, ते तो जैसी की तैसी ही निरूपिये हैं ।अर तिनिविषै प्रसंग पाय व्याख्यान हो है सो कोई तो जैसा का तैसा हो है, कोई ग्रंथकर्ताका विचार के अनुसारि हो है परन्तु प्रयोजन अन्यथा न हो है।
ताका उदाहरण-जैसे तीर्थंकर देवनिके कल्याणकनिविर्ष इन्द्र आया, यहु कथा तो सत्य है। बहुरि इन्द्र स्तुति करी, ताका व्याख्यान किया, सो इन्द्र तो और ही प्रकार स्तुति कीनी थी अर यहाँ ग्रन्थकर्ता और ही प्रकार स्तुति कीनो लिखी परन्तु स्तुतिरूप प्रयोजन अन्यथा न भया बहुरि परस्पर किनिहूकै वचनालाप भया। तहाँ उनके तो और प्रकार अक्षर निकसे थे, यहाँ ग्रन्थकर्ता अन्य प्रकार कहे परन्तु प्रयोजन एक ही दिखावै है। बहुरि नगर वन संग्रामादिकका नामादिक तो यथावत् ही लिखै अर वर्णन हीनाधिक भी प्रयोजनको पोषता निरूपै हैं। इत्यादि ऐसे ही जानना। बहुरि प्रसंगरूप कथा भी ग्रन्थकर्ता अपना विचार अनुसारि कहै। जैसे धर्मपरीक्षाविध मूर्खनिकी कथा लिखी, सो ए ही कथा मनोवेग कही थी ऐसा नियम नाहीं। परन्तु मूर्खपनाको पोषती कोई वार्ता कही ऐसा अभिप्राय पोषे है। ऐसे ही अन्यत्र जानना ।
यहाँ कोऊ कहे- अयथार्थ कहना तो जैन शास्त्रनिविधै सम्भवै नाही?
ताका उसर-अन्यथा तो वाका नाम है, जो प्रयोजन और का और प्रगट करै। जैसे काहूको कहातू ऐसे कहियो, वान वे ही अक्षर तो न कहे परन्तु तिसही प्रयोजन लिए कहा तो वाको मिथ्यावादी न कहिए, तैसे जानना। जो जैसा का तैसा लिखनेकी सम्प्रदाय होय तो काहूने बहुत प्रकार वैराग्य चितवन किया था, ताका वर्णन सब लिखे ग्रन्थ बधि जाय, किछू न लिखे तो वाका भाव भासै नाहीं। तातै वैराग्यके ठिकाने थोरा बहुत अपना विचार के अनुसारि वैराग्यपोषता ही कथन करै, साग-पोषता न करे, तहाँ प्रयोजन अन्यथा न भया तात याको अयथार्थ न कहिए, ऐसे ही अन्यत्र जानना।
बहुरि प्रथमानुयोगविषै जाकी मुख्यता होय, ताको ही पोषे हैं। जैसे काहूने उपवास किया, ताका तो फल स्तोक था बहुरि याकै अन्यधर्म परिणतिकी विशेषता भई, तातै विशेष उच्चपदकी प्राप्ति भई। तहाँ तिसको उपवासहीका फल निरूपण करै, ऐसे ही अन्य जानने । बहुरि जैसे काहूने शीलादिककी प्रतिज्ञा दृढ़ राखी या नमस्कार मन्त्र स्मरण किया वा अन्य धर्म साधन किया, ताकै कष्ट दूरि भए, अतिशय प्रगट भये, तहाँ तिनही का तैसा फल न भया अर अन्य कोई कर्म के उदयतें वैसे कार्य भए तो भी तिनको तिन शीलादिकका ही फल निरूपण करै। ऐसे ही कोई पापकार्य किया, ताकै तिसहीका तो तैसा फल न भया अर अन्य कर्म उदयतें नीचगतिको प्राप्त भया वा कष्टादिक भए, ताको तिसही पापकार्य का फल निरूपण करै । इत्यादि ऐसे ही जानना।
यहाँ कोऊ कहै- ऐसा झूठा फल दिखावना तो योग्य नाहीं, ऐसे कथनको प्रमाण कैसे कीजिए?
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आठवाँ अधिकार-२३५
ताका समाधान- जे अज्ञानी जीव बहुत फल दिखाए बिना धर्म विष न लागै वा पाप न डरे, तिनका भला करने के अर्थि ऐसा वर्णन करिए है। बहुरि झूठ तो तब होय, जब धर्म का फल को पापका फल बतावै, पापका फलको धर्मका फल बतावै । सो तो है नहीं। जैसे दश पुरुष मिलि कोई कार्य करै, तहाँ उपचारकरि एक पुरुष का भी किया कहिए तो दोष नाही अयंवा जाके पितादिकने कोई कार्य किया होय, ताको एक जाति अपेक्षा उपचारकरि पुत्रादिकका किया कहिए तो दोष नाहीं। तैसे बहुत शुभ वा अशुभकार्यनिका एक फल भया; ताको उपचारकरि एक शुभ वा अशुभकार्यका फल कहिए तो दोष नाही अथवा और शुभ वा अशुभकार्यका, फल जो भया होय, ताको एक जाति अपेक्षा उपचारकरि कोई और ही शुभ वा अशुभकार्यका फल कहिए तो दोष नाहीं। उपदेशविषै कहीं व्यवहार वर्णन है, कहीं निश्चय वर्णन है। यहाँ उपचाररूप व्यवहार वर्णन किया है, ऐसे याको प्रमाण कीजिए है। याको तारतम्य न मानि लेना। तारतम्य करणानुयोगविषै निरूपण किया है, सो जानना।
बहुरि प्रथमानुयोगविषै उपचाररूप कोई धर्मका अंग भए सम्पूर्ण धर्म भया कहिए है। जैसे जिन जीवनिकै शंका कांक्षादिक न भए, तिन के सम्यक्त भया कहिए। सो एक कोई कार्यविष शंका कांक्षा न किए ही तो सम्यक्त न होय, सम्यक्त तो तत्वश्रद्धान भए हो है। परन्तु निश्चय सम्यक्तका तो व्यवहार सम्यक्त विषै उपचार किया, बहुरि व्यवहार सम्यक्त के कोई एक अंगविषै सम्पूर्ण व्यवहार सम्यक्त का उपचार किया, ऐसे उपचारकरि सम्यक्त भया कहिए है। 'बहुरि कोई जैनशास्त्रका एक अंग जाने सम्यग्ज्ञान भया कहिए है, सो संशयादिरहित तत्त्वज्ञान भए सम्यग्ज्ञान होय परन्तु पूर्ववत् उपचारकरि कहिए। बहुरि कोई मला आचरण भए सम्यक्चारित्र भया कहिए है। तहाँ जाने जैनधर्म अंगीकार किया होय वा कोई छोटी-मोटी प्रतिज्ञा ग्रही होय,ताको श्रावक कहिए सो श्रावक तो पंचमगुणस्थानवर्ती भए हो है परन्तु पूर्ववतू उपचार करि याको श्रावक कह्या है उत्तरपुराणविष श्रेणिकको श्रावकोत्तम कह्या सो वह तो असंयत था परन्तु जैनी था तातें कह्या। ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि जो सम्यक्तरहिल मुनिलिंग धारै वा कोई द्रव्याँ भी अतीचार लगावता होय, ताको मुनि कहिए । सो मुनि तो षष्टादि गुणस्थानवर्ती भए हो है परन्तु पूर्ववत् उपचारकरि मुनि कह्या है। समवसरणसभाविष मुनिनिकी संख्या कही, तहाँ सर्व ही शुद्ध भावलिंगी मुनि न थे परन्तु मुनिलिंग धारनेत सबनिको मुनि कहे। ऐसे ही अन्यत्र जानना ।
__ बहुरि प्रथमानुयोगविषै कोई धर्मबुद्धितै अनुचित कार्य करै ताकी भी प्रशंसा करिये है। जैसे विष्णुकुमार मुनिनिका उपसर्ग दूरि किया सो धर्मानुरागते किया परन्तु मुनिपद छोड़ि पहु कार्य करना योग्य न था।' जातै ऐसा कार्य तो गृहस्थधर्मविषे सम्भवै अर गृहस्थ धर्मः मुनिधर्म ऊँचा है। सो ऊँचा धर्म छोड़ि नीचाधर्म अंगीकार किया तो अयोग्य है परन्तु वात्सल्य अंग की प्रधानताकरि विष्णुकुमार जी की
१. भस्मकत्याधिग्रस्त समन्तभद्र स्वामी ने गुरु की आज्ञावश (क्योंकि उनसे महान् धर्म-प्रभावना होने वाली थी) अधस्तन पद
अंगीकार किया था। वे समन्तभट आगे तीर्थकर होने वाले हैं। इसमीचीनधर्मशास्त्र प्रस्ता. पृ.१०} इसी तरह सात सौ मुनिराजों की रक्षार्थ वात्सल्य भाव से प्रेरित होकर कुछ क्षों के लिए स्वपद को छोड़ने वाले विष्णुकुमार महामुनि थे। ये तो इसी भव से मोक्ष को भी प्राप्त हुए थे प्रश्नोत्तर श्रावकाचार ६/७०}
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२३६६
परम श्रद्धास्पद पं. टोडरमलली ने यहां जो कुछ कहा है उसका मात्र इतना ही अभिप्राय समझना है कि इन विष्णुकुमार
महापुनि के आचरण का अन्यथा अथं लगाकर कोई पूज्य पुरुष ऊंचा धर्म छोड़कर नीचा धर्म अंगीकार नहीं करे। जैसे कोई सत्पुरुष श्रेष्ट पद धारण कर चन्दा-बिट्ठा करना, स्वयं रसीदें काटना आदि जैसा गृहस्थ पद का आचरण करे तो यह अनुचित है, चाहे वह कार्य अतिशयक्षेत्र-निर्वाणक्षेत्र के लिए भी क्यों नहीं किया जाता हो। इसी तरह अन्य अकरणीय आचरण के विषय में जानना चाहिए। मात्र ऐसी ही धारणा मन में रखकर उन्होंने तथ्य रूप से अन्त में लिखा
है कि “इस छल करि औरनिको ऊँचा धर्म छोड़ि नीचा धर्म अंगीकार करना योग्य नाहीं।" १०८ पूज्य विष्णुकुमार मुनिराज ने जो कार्य किया वह तो अपरिहार्य परिस्थितिवश (समन्तभद्रवत् ही किया था। १०८
सागरचन्द्राचार्य ने अपने अवधिज्ञान से जानकर स्पष्ट कहा था कि इस उपसर्ग को मात्र विक्रियाऋद्धिधारी विष्णुकुमार मुनि ही दूर कर सकते हैं {प्रश्नो.पा.६/४६ तथा आराधनाकथाकोश १२/६५ स एव निवारयति तमुपसगंकम्} अन्य कोई भी इस उपसर्ग को दूर करने में समर्थ नहीं है इषटू प्रामृत पृ. ६६ सम्पा. सीमाग्यमल रांवका, जयपुर) इसके बाद भी सागरचन्द्र के वचनों को सुनकर १. पृष्पदन्त की सूचना के पश्चात वे विष्णुकुमार राजा पद्म से ही कहते हैं कि "राजन्! इस उपसर्ग को दूर करो।" जब राणा भी कहता है कि मैं कुछ नहीं कर सकता, इस समय तो मैं भी पराधीन हूँ और इस उपसर्ग को आप ही दूर कर सकते हैं। षट्मामृत पृ. ६९ तया आ. कथाकोश १२/७३] तभी जाकर तद्भव मोक्षगामी १०८ विष्णकुमार ने जैसा अपनी बुद्धि से उचित समझा उस विधि से उस उपसर्गको दूर किया। जिससे ७०१ दिगम्बर यतियों की रक्षा हुई, चागें मन्त्री जैन श्रावक बन गए {आराधना. १२/८८} साथ ही उस समय मनुष्य व देव लोक में जैन धर्म की महती प्रभावना भी हुई थी जिसे हरिवंश पुराण २०/५१-६५ पृ.३८६-३६० से जाननी चाहिए, क्या विष्णुकुमार जैसी प्रभावना कोई गृहस्थ कर सकता था? कदापि नहीं, यह प्रभावना तो उन्हीं के द्वारा सम्भव थी, अन्यथा दिव्यज्ञानी (अवधिज्ञानी गुरु अन्य किसी प्रभावी गृहस्थ के
द्वारा यह कार्य सम्पन्न होना जानते तो भु. पुष्पदन्त को उस ऐसे प्रभावशाली गृहस्थ का नाम ही बता देते। हरिवंश पुराण {२०४६४} में विष्णुकुमार के इस चरित्र {आचरण को सर्वथा पापों का नाश करने वाला बताया है।
आराधनाकथाकोश १२/६५ में विष्णुकुमार को उपसर्ग निवारण करने वाला “विशिष्टधी" कहा है तथा उनकी स्तुति की है (१२/६१) आचार्य सकलकीर्ति ने अपने प्रश्नोत्तर प्रायकाचार {६/६४ में उन्हें धन्यवाद के पात्र कहा है। और संसार-सागर से पार करने हेतु जहाज के समान [९/७०बताया है। फिर उनके प्रति उपालम्भ (कुछ भी शिकायत समुचित नहीं है। अरे! वे तो अन्तर्मुहूर्त में पुनः यथाविधि स्वपद में आ गये थे। तथैव गुरु से प्रायश्चित तप लेकर श्रेष्ठतप करके केवलज्ञान को प्राप्त हो गए थे। किञ्च विष्णुकुमार उस विवक्षित अन्तर्मुहूर्त में वामन रूप धारण करते
समय भी ऋद्धिसम्पन्न संयतासयत {थयल ४/४४-४५] तथा अखण्ड ब्रह्मचारी तो थे ही। सारतः, परिस्थितियश की गई क्रिया को नियम नहीं मान लेना चाहिए। सथैय परिस्थितिवश घटित आचरण-किया की मजाक
भी नहीं करनी चाहिए। भैया! परिस्थितिवश संजायमान किया तो परिस्थिति विशेष में ही घटाने -आचरित करने योग्य होती है। परिस्थितिवश तो मुनिराज स्वयं अन्य क्षपक मुनिराजों के लिए आहार तक लाते हैं भगवती आराधना प्रस्ता. पृ. ३५ पं. कैलाशचन्द्र सि. शा. मूल.पृ ४४३) इत्यादि अन्य भी परिस्थितिजन्य क्रियाएँ होती हैं। उन्हें सामान्य दिनों में अनाचरणीय मात्र जानकर परिस्थिति विशेष में भी उनका घटित होना हास्यास्पद या उपालम्भ योग्य नहीं मानना
चाहिए। अन्त में, इस स्थल पर हमें इतना मात्र ही इस कथन का अभिप्राय हृदयंगत करना चाहिए कि महातपस्वी, विकियर्बिसम्पन्न, तद्भव मोक्षगामी, सन्मार्गप्रभावक १०८ विष्णुकुमार मुनिराज का उक्त आचरण हमें शिथिलाचार, हीनाचार या अथस्तनाग्रार के पोषण के लिए उदाहरण के रूप में नहीं लगाना चाहिए। विष्णुकुमार का वह कदम तो संख्यात साधुओं की रक्षार्थ, पापियोंको सन्मार्ग प्राप्त कराने हेतु तथा देव-नर लोक में अपूर्व प्रभावनाकरणार्थ था।
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आठवाँ अधिकार-२३७
प्रशंसा करी। इस छलकरि औरनिको ऊँचा धर्म छोड़ि नींचा धर्म अंगीकार करना योग्य नाहीं। बहुरि जैसे गुवालिया मुनिको अग्नि करि तपाया सो करुणातें यह कार्य किया। परन्तु आया उपसर्गको तो दूरि करे, सहज अवस्थाविषै जो शीतादिककी परीषह हो है, ताको दूर किए रति माननेका कारण होय, उनको रति करनी नाहीं, तब उलटा उपसर्ग होय । याहीतै विवेकी उनके शीतादिकका उपचार करते नाहीं । गुवालिया अविवेकी था, करुणाकरि यह कार्य किया, ताते याकी प्रशंसा करी। इस छलकार औरनिको धर्मपद्धति विष जो विरुद्ध होय सो कार्य करना योग्य नाहीं। बहुरि जैसे बजकरण राजा सिंहोदर राजाको नम्या नाहीं, मुद्रिकाविर्ष प्रतिमा राखी। सो बड़े-बड़े सम्यग्दृष्टी राजादिकको नमै, याका दोष नाही अर मुद्रिकाविषै प्रतिमा राखने में अविनय होय, यथावत् विधितैं ऐसी प्रतिमा न होय, ताः इस कार्यविषै दोष है। परन्तु वाकै ऐसा ज्ञान न था, धर्मानुराग” मैं औरको नमूं नाहीं, ऐसी बुद्धि भई, तातै वाकी प्रशंसा करी। इस छलकरि औरनिको ऐसे कार्य करने युक्त नाहीं। बहुरि केई पुरुषों ने पुत्रादिककी प्राप्तिके अर्थि वा रोग-कष्टादि दूरिकरने के अर्थि चैत्यालय पूजनादि कार्य किए, स्तोत्रादि किए, नमस्कार मन्त्र स्मरण किया। सो ऐसे किए तो निकासित गुग का लगाया किमलंगामा गाभ्यान होय पापहीका प्रयोजन अंतरंगविषे है, तातै पापहीका बंध होई। परन्तु मोहित होयकरि भी बहुत पापबंध का कारण कुदेवादिकका तो पूजनादि न किया, इतना वाका गुण ग्रहणकरि वाकी प्रशंसा करिए है, इस छलकार औरनिको लौकिक कार्यनिके अर्थि धर्मसाधन करना युक्त नाहीं। ऐसे ही अन्यत्र जानने। ऐसे ही प्रथमानुयोगविष अन्य कथन भी होय, ताको यथासम्भव जानि भ्रम रूप न होना। अब करणानुयोगविष किस प्रकार व्याख्यान है, सो कहिये है
करणानुयोग में व्याख्यान का विधान जैसे केवलज्ञानकरि जान्या तैसे करणानुयोगविषै व्याख्यान है। बहुरि केवलज्ञानकरेि तो बहुत जान्या परन्तु जीवको कार्यकारी जीव कर्मादिकका वा त्रिलोकादिकका ही निरूपण या विष हो है। बहुरि तिनका भी स्वरूप सर्व निरूपण न होय सके, तात जैसे वचनगोचर होय छमस्थके ज्ञानविषै उनका किछू भाव भासे तैसे संकोचन करि निरूपण करिए है। यहाँ उदाहरण- जीवके भावनिकी अपेक्षा गुणस्थानक कहे, ते भाव अनन्तस्वरूप लिये, वचनगोचर नाहीं। तहाँ बहुत भावनिकी एक जातिकरि चौदह गुणस्थान कहे । बहुरि जीव जाननेके अनेक प्रकार हैं। तहाँ मुख्य चौदह मार्गणाका निरूपण किया। बहुरि कर्मपरमाणु अनन्तप्रकार शक्तियुक्त हैं, तिनविषै बहुतनिकी एक जाति करि आट वा एक सौ अड़तालीस प्रकृति कही। बहुरि त्रिलोकविषे अनेक रचना हैं, तहाँ मुख्य केतीक रचना निरूपण करिए है। बहुरि प्रमाण के अनन्त भेद तहाँ संख्यातादि तीन भेद वा इनके इक्कीस भेद निरूपण किए', ऐसे ही अन्यत्र जानना।
१. संख्यात, असंख्यात, अनन्त । असंख्यात के तीन भेद-१. परीतासंख्यात २. युक्तासंख्यात ३. असंख्यातासंख्यात अनन्त
के तीन भेद-१. परीतानन्त २. युक्तानन्त ३. अनन्तानन्त और संख्यात एक ही प्रकार का है- इस तरह कुल सात हुए। इनमें से प्रत्येक के निधन्य २ मध्यम और ३ उत्कृष्ट भेद करने से कुल प्रमाण (संख्यामान) के २१ भेद होते हैं।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - २३८.
बहुरि करणानुयोगविषे यद्यपि वस्तु के क्षेत्र, काल भावादिक अखंडित हैं, तथापि छद्मस्थको हीनाधिक ज्ञान होनेके अर्थि प्रदेश समय अविभागप्रतिच्छेदादिककी कल्पनाकरि तिनका प्रमाण निरूपिए है। बहुरि एक वस्तुविषे जुदे - जुदे गुणनिका वा पर्यायनिका भेदकरि निरूपण कीजिए है। बहुरि जीव पुद्गलादिक यद्यपि भिन्न-भिन्न हैं, तथापि सम्बन्धादिककरि अनेक द्रव्यकार निपज्या गति जाति आदि भेद तिनको एक जीवके निरूपै हैं, इत्यादि व्यवहार नयकी प्रधानता लिये व्याख्यान जानना । जातैं व्यवहारबिना विशेष जनि सकै नाहीं । बहुरि कहीं निश्चयवर्णन भी पाइए है। जैसे जीवादिक द्रव्यनिका प्रमाण निरूपण किया, सो जुदे - जुदे इतने ही द्रव्य हैं। सो यथासम्भव जानि लेना ।
बहुरि करणानुयोगविषै जे कथन हैं ते केई तो छद्मस्थ के प्रत्यक्ष अनुमानादिगोचर होय, बहुरि जे न होय तिनको आज्ञा प्रमाणकरि मानने। जैसे जीव पुद्गलके स्थूल बहुत कालस्थायी मनुष्यादि पर्याय वा घटादि पर्याय निरूपण किए, तिनका तो प्रत्यक्ष अनुमानादि होय सकै, बहुरि समय- समय प्रति सूक्ष्म परिणमन अपेक्षा ज्ञानादिकके वा स्निग्ध रूक्षादिकके अंश निरूपण किए ते आज्ञाही प्रमाण हो हैं। ऐसे ही अन्यत्र जानना ।
बहुरि करणानुयोगविषै छद्मस्थनिकी प्रवृत्ति के अनुसार वर्णन किया नाहीं, केवलज्ञानगम्य पदार्थनिका निरूपण है। जैसे केई जीव तो द्रव्यादिक का विचार करें हैं वा व्रतादिक पाले हैं परन्तु तिनकै अन्तरंग सम्यक्त चारित्रशक्ति नाहीं, तातैं उनको मिथ्यादृष्टि अव्रती कहिए है। बहुरि केई जीव द्रव्यादिकका वा व्रतादिकका विचार रहित हैं, अन्य कार्यनिविषै प्रवर्त्ते हैं वा निद्रादिकरि निर्विचार होय रहे हैं परन्तु उनकै सम्यक्तादि शक्तिका सद्भाव है, तातैं उनको सम्यक्त्वी वा व्रती कहिए है। बहुरि कोई जीवकै कषायनिकी प्रवृत्ति तो घनी है अर वाकै अन्तरंग कषायशक्ति थोरी है, तो वाको मंदकषायीकहिए है। अर कोई जीवके कषायनिकी प्रवृत्ति तो थोरी है अर वाकेँ अन्तरंग कषायशक्ति घनी है, तो वाको तीव्रकषाय कहिए है । जैसे व्यन्तरादिक देव कषायनितें नगरनाशादि कार्य करे, तो भी तिनकै थोरी कषायशक्तितें पीतलेश्या कही । बहुरि एकेन्द्रियादिक जीव कषायकार्य करते दीखे नाहीं, तिनकै बहुत कषायशक्तितें कृष्णादि लेश्या कही । बहुरि सर्वार्थसिद्धि के देव कषायरूप थोरे प्रवर्तै, तिनकै बहुत कषायशक्तिर्ते असंयम कह्या अर पंचमगुणस्थानी व्यापार अब्रह्मादि कषायकार्यरूप बहुत प्रवर्त्ती, तिनकै मन्दकषाय शक्ति देशसंयम कह्या अर ऐसे ही अन्यत्र
जानना ।
विशेष- यहाँ पण्डित टोडरमल जी ने स्थूलदृष्टि से ऐसा कहा है। सूक्ष्म विवेचन इस प्रकार है- देव पंचेन्द्रिय संज्ञी हैं तथा एकेन्द्रिय जीव स्थावर हैं। इसलिए ( १ ) एकेन्द्रियों की कषाय से पंचेन्द्रियों की कषाय अनन्तगुणी होती है तथा एकेन्द्रिय के योग से भी संज्ञी पंचेन्द्रियों का योग असंख्यात गुणा होता है। [ धवल १४ / ४२७ तथा धवल १० पृ. ३४ } (२) एकेन्द्रियों के स्थितिबन्ध एक सागरोपम होता है तथा पंचेन्द्रिय संज्ञी के स्थितिबन्ध ७० कोटा कोटी सागर होता है [ रा. वा. ८/१४ - २०, महाथवल २।२४।१७-२६, धवल ६ १६६, थवल ११।२२५ से २२८, गो. क. मुख्तारी सम्पादन, स्थितिबन्ध प्रकरण आदि } अतः एकेन्द्रिय के स्थितिबन्ध से संज्ञी पंचेन्द्रिय का
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आठवाँ अधिकार- २३६.
स्थिति बन्ध संख्यातगुणा है। ( समस्त अक्षपक - अनुपशमक संयमी व सम्यक्त्वी में भी स्थितिबन्ध एकेन्द्रिय से संख्यातगुणा ही होता है (ज. ध. १३/ २१६ जयभ्र. १४ । १६१ आदि) अतः संख्यातगुणे विशतिबन्ध की नियाएक हेतुपत कषाय नियम से अनन्तगुणी सिद्ध होती है । कारण देखो - {थवल ११ / २२६ - २३७] संख्यातगुणी स्थिति वृद्धि अनंतगुणत्व युक्त कषाय से ही हो सकती है; यही न्याय्य है [ धवल ११ पृष्ठ २३५-३६ ] और कषाय के बिना स्थितिबन्ध होता नहीं। कहा भी है-ठिदि अणुभागं कसायदो कुणइ ( पंचसंग्रह प्रा. ४ / ५३, स. सि. ८/३ ययल १२/२८६, द्र. स. ३३, रा. वा. ८/३/६ आदि) (३) पंचेन्द्रिय संज्ञी शुभ लेश्यावान देव स्थावर की आयु भी बाँधता है (तह ते चय थावर तन धरै (छहढाला ) } । जबकि असंजी ही होता है ऐसा एकेन्द्रिय निगोद सीधा चरम शरीरी मनुष्य की आयु को अशुभ लेश्या के होते [ धवल २ / ५७१] भी बाँध लेता है ( सिलोयपण्णत्ती ५ / ३१६ चोत्तीस भेद संजुत्त... ) । ऐसी स्थिति में किसके परिणाम प्रशस्त कहे जाएंगे किसकी कषाय मन्द कही जाएगी? स्पष्ट है कि उक्त दो कालों की तुलना करने पर तो एकेन्द्रिय की ही कषाय मन्द है । पारिशेष न्यायतः (४) कषाय व लेश्या सर्वथा एक नहीं हैं, ये भिन्न-भिन्न परिणाम हैं। अकषायी जीव के भी लेश्या हो सकती है, क्योंकि लेश्या में योग की प्रधानता है । ( थ. १/१५०-५१ - ३६३ आदि) अथवा मिथ्यात्य, असंयम, कषाय व योग; ये सब लेश्या हैं जबकि कषाय तो मात्र कषायात्मक ही हैं अतः कषाय व लेश्या एक नहीं हो सकते। (धवल ८ / ३५६ ) (५) लेश्याओं में कुछ अंश सामान्य (Common) होते हैं। जिससे एक लेश्या तुल्य कार्य अन्य लेश्या में हो जाते हैं तथा शुक्ल लेश्यावान मिध्यात्वी देव भी अपनी देव पर्याय से च्युत होने के ठीक अनन्तर समय में सीधा (Direct) मनुष्य पर्याय के प्रथम समय में अशुभत्रिक में से एक लेश्या को प्राप्त होता हुआ नजर आता है। ( ब्र. रतनचन्द्र पत्रावली तथा गो.जी. पृ. ५८५ आदि)
इस प्रकार एकेन्द्रियों की कषाय संज्ञी पंचेन्द्रिय या इतर पंचेन्द्रिय से अधिक नहीं होती, हीन ही होती है। {क्षपक उपशमक यहाँ अप्रकृत हैं} ज.. १२ पृ. १६६ - १७१ में भी अत्यन्त स्पष्ट लिखा है कि असंज्ञी जीव (एकेन्द्रिय आदि) के कषायों का उदय व बन्ध द्विस्थानीय ही नियम से होता है परन्तु संज्ञी तो कषायों का चतुःस्थानीय बन्ध व उदय भी करता है। (see also मूल क. पा. सु. चतुस्थान ८/८५)
इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि देवों से एकेन्द्रियों की कषाय नियम से अनन्तगुणी हीन ही होती है। यह अकाट्य सत्य है ।
बहुरि कोई जीवके मन वचन काय की चेष्टा थोरी होती दीसे, तो भी कर्माकर्षण शक्ति की अपेक्षा बहुत योग कह्या । काहूकै चेष्टा बहुत दीसे तो भी शक्ति की हीनतातें स्तोक योग कह्या जैसे केवली
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२४०
गमनादिक्रियारहित भया, तहाँ भी ताकै योग बहुत कह्या । बेंद्रियादिक जीव गमनादि करै है, तो भी तिनकै स्तोक कहै। ऐसे ही अन्यत्र जानना।
बहुरि कहीं जाकी व्यक्तता किछू न भासै, तो भी सूक्ष्मशक्ति के सद्भाव ताका तहाँ अस्तित्व कह्या । जैसे मुनिकै अब्रह्मकार्य किछू नाहीं, तो भी नवम गुणस्थानपर्यन्त मैथुनसंज्ञा कही। अहमिंद्रनिकै दुःख का कारण व्यक्त नाही, तो भी कदाचित् असाता का उदय का। नारकीनिकै सुख का कारण व्यक्त नाही, तो भी कदाचित् साता का उदय कह्या। ऐसे ही अन्यत्र जानना।
बहुरि करणानुयो। सयदर्शन-शान पारिवादिक यनं का निरूपण कर्मप्रकृतिनिका उपशमादिक की अपेक्षा लिये सूक्ष्मशक्ति जैसे पाइए तैसे गुणस्थानादिविषे निरूपण करै है वा सम्यग्दर्शनादिक के विषयभूत जीवादिक तिनका भी निरूपण सूक्ष्मभेदादि लिये कर है। यहाँ कोई करणानुयोग के अनुसारे आप उद्यम करै तो होय सकै नाहीं। करणानुयोगविषै तो यथार्थ पदार्थ जनावने का मुख्य प्रयोजन है, आवरण करावने की मुख्यता नाहीं। तात यहु तो चरणानुयोगादिक के अनुसार प्रवर्ते, तिसतें जो कार्य होना है सो स्वयमेव ही होय है। जैसे आप कर्मनिका उपशमादि किया चाहै तो कैसे होय? आप तो तत्त्वादिक का निश्चय करने का उद्यम करे, तातें स्वयमेव ही उपशमादे सम्यक्त होय। ऐसे ही अन्यत्र जानना। एक अन्तर्मुहूर्त्तविषै ग्यारहवाँ गुणस्थान स्यों पड़ि क्रमः मिथ्यादृष्टी होय बहुरि चढिकर केवलज्ञान उपजावै। सो ऐसे सम्यक्त्वादिक के सूक्ष्मभाय बुद्धिगोचर आवते नाहीं, तातै करणानुयोग के अनुसारि जैसा का तैसा जानि तो ले अर प्रवृत्ति बुद्धिगोचर जैसे भला होय तैसे करे।
बहुरि करणानुयोगविषै भी कहीं उपदेश की मुख्यता लिये व्याख्यान हो है, ताको सर्वथा तैसे ही न मानना । जैसे हिंसादिकका उपाय को कुमतिज्ञान कह्या, अन्यमतादिक के शास्त्राभ्यास को कुश्रुतज्ञान कह्या, बुरा दीसै भला न दीसै ताको विभंगज्ञान कह्या, सो इनको छोड़ने के अर्थि उपदेशकरि ऐसे कह्या । तारतम्यते मिथ्यादृष्टीकै सर्व ही ज्ञान कुज्ञान है, सम्यग्दृष्टीकै सर्व ही ज्ञान सुज्ञान है। ऐसे ही अन्यत्र जानना।
बहुरि कहीं स्थूल कथन किया होय, ताको तारतम्यरूप न जानना। जैसे व्यासते तिगुणी परिधि कहिए, सूक्ष्मपने किछू अधिक तिगुणी हो है। ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि कहीं मुख्यता की अपेक्षा व्याख्यान होय, ताको सर्व प्रकार न जानना जैसे मिथ्यादृष्टी सासादन गुणस्थानयालेको पापजीव कहे, असंयतादि गुणस्थानवालेको पुण्यजीव कहे सो मुख्यपने ऐसे कहे, तारतम्यते दोऊनिकै पाप पुण्य यथासम्भव पाईए है। ऐसे ही अन्यत्र जानना। ऐसे ही और भी नाना प्रकार पाईए है, ते यथासम्भव जानने। ऐसे करणानुयोगविषै व्याख्यानका विधान दिखाया। अब धरणानुयोगविषै किस प्रकारका व्याख्यान है, सो दिखाईए है
चरणानुयोग में व्याख्यान का विधान चरणानुयोगविषै जैसे जीवनिकै अपनी बुद्धिगोवर धर्मका आचरण होय सो उपदेश दिया है। तहाँ ।। धर्म तो निश्चयरूप मोक्षमार्ग है सोई है। ताके साधनादिक उपचारनै धर्म है सो व्यवहारनयकी प्रधानताकरि
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आरा आंधकार-२४१
नाना प्रकार उपचार धर्मके भेदादिक याविषै निरूपण करिए है। जाते निश्चय धर्मविषै तो किछू ग्रहण त्यागका विकल्प नाही अर याकै नीचली अवस्थाविर्ष विकल्प छूटता नाही, तातें इस जीवको धर्मविरोधी कार्यनिको छुड़ाबनेका अर थर्मसाधनादि कामिक ग्रहण करने का माश गा वि है ! सो उपदेश दोय प्रकार दीजिए है। एक तो व्यवहारहीका उपदेश दीजिए है, एक निश्चय सहित व्यवहार का उपदेश दीजिए है। तहाँ जिन जीवनिकै निश्चयका ज्ञान नाहीं है या उपदेश दिए भी न होता दीसै ऐसे मिथ्यादृष्टी जीव किछू धर्मको सन्मुख भए तिनको व्यवहारहीका उपदेश दीजिए है।
बहुरि जिन जीवनिकै निश्चय-व्यवहारका ज्ञान है या उपदेश दिए तिनका ज्ञान होता दीसे है, ऐसे सम्यग्दृष्टी जीव वा सम्यक्त को सन्मुख मिथ्यादृष्टी जीव तिनको निश्चयसहित व्यवहारका उपदेश दीजिए है। जात श्रीगुरु सर्व जीवनिके उपकारी हैं। सो असंज्ञी जीव तो उपदेश ग्रहणे योग्य नाही, तिनका तो उपकार इतना ही किया और जीदनिको तिनकी दयाका उपदेश दिया। बहुरि जे जीव कर्मप्रबलतात निश्चयमोक्षमार्गको प्राप्त होय सकै नाही, तिनका इतना ही उपकार किया-जो उनको व्यवहार धर्मका उपदेश देय कुगतिके दुःखनिका कारण पापकार्य छुड़ाय सुगतिके इन्द्रियसुखनिका कारण पुण्यकार्यनिविर्ष लगाया। जेता दुःख मिट्या तितना ही, उपकार भया। बहुरि पापीकै तो पापवासना ही रहै अर कुगतिविर्ष जाय तहाँ धर्मका निमित्त नाहीं। तातै परम्पाय दुःखहीको पाया करै। अर पुण्ययानकै धर्मवासना रहै अर सुगति विष जाय, तहाँ धर्म के निमित्त पाईए, तातै परम्पराय सुखको पावै । अथया कर्मशक्ति हीन होय जाय तो मोक्षमार्गको भी प्राप्त होय जाय । तातै व्यवहार उपदेशकरि पापतै छुड़ाय पुण्यकार्यनिविष लगाईए
बहुरि जे जीव मोक्षमार्गको प्राप्त भये वा प्राप्त होने योग्य हैं, तिनका ऐसा उपकार किया जो उनको निश्चयसहित व्यवहारका उपदेश देय मोक्षमार्गविर्षे प्रवाए । श्रीगुरु तो सर्वका ऐसा ही उपकार करै। परन्तु जिन जीवनिका ऐसा उपकार न बनै तो श्रीगुरु कहा करे। जैसा बन्या तैसा ही उपकार किया। तातें दोय प्रकार उपदेश दीजिए है। तहाँ व्यवहार उपदेशविर्ष तो बाह्य क्रियानिहीकी प्रधानता है। तिनका उपदेशते जीव पापक्रिया छोड़ि पुण्यक्रियानिविष प्रवतै। सहाँ क्रियाके अनुसार परिणाम मी तीव्रकषाय छोड़ि किछू मंदकषायी होय जाय। सो मुख्यपने तो ऐसे है। बहुरि काहूके न होय तो मति होहु । श्रीगुरु तो परिणाम सुधारनेके अर्थि बालक्रियानिको उपदेश है।
बहुरि निश्चयसहित व्यवहारका उपदेशविषै परिणामनिहीकी प्रधानता है। ताका उपदेशः तत्त्वज्ञानका अभ्यासकरि वा वैराग्य भावनाकरि परिणाम सुधार, तहाँ परिणामके अनुसारि बाह्यक्रिया भी सुथरि जाय। परिणाम सुधरे बाह्यक्रिया सुधरै ही सुधरै । तातै श्रीगुरु परिणाम सुधारनेको मुख्य उपदेशै हैं । ऐसे दोय प्रकार उपदेशविषै जहाँ व्यवहारही का उपदेश होय तहाँ सम्यग्दर्शनके अर्थि अरहंत देव, निर्ग्रन्थ गुरु,दया धर्मको ही मानना, औरको न मानना। बहुरि जीवादिक तत्त्वनिका व्यवहारस्वरूप कह्या है ताका श्रद्धान करना, शंकादि पच्चीस दोष न लगावने, निशंकितादिक अंग वा संवेगादिक गुण पालने, इत्यादि उपदेश दीजिए है।
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पोक्षमार्ग प्रकाशक-२४२
बहुरि सम्यग्ज्ञानके अर्थ जिनमतके शास्त्रनिका अभ्यास करना, अर्थ व्यंजनादि अंगनिका साथन करना इत्यादि उपदेश दीजिए है। बहुरि सम्यक्चारित्रके अर्थि एकोदेश वा सर्वदेशहिंसादि पापनिका त्याग करना, व्रतादि अंगनिको पालने, इत्यादि उपदेश दीजिए है। बहुरि कोई जीवको विशेष धर्मका साधन न होता जानि एक आखड़ी आदिकका ही उपदेश दीजिए है। जैसे भीलको कागलाका मांस छुड़ाया, गुवालियाको नमस्कार मन्त्र जपने का उपदेश दिया, गृहस्थको चैत्यालय पूजा-प्रभायनादि कार्यका उपदेश दीजिये है, इत्यादि जैसा जीव होय ताको तैसा उपदेश दीजिए है।
___ बहुरि जहाँ निश्चयसहित व्यवहारका उपदेश होय, तहाँ सम्यग्दर्शन के अर्थि यथार्थ तत्त्वनिका श्रद्धान कराईए है। तिनका जो निश्चय स्वरूप है सो भूतार्थ है। व्यवहार स्वरूप है सो उपचार है। ऐसा श्रद्धान लिए वा स्वपरका भेदविज्ञानकरि परद्रव्यविषै रागादि छोड़ने का प्रयोजन लिए तिन तत्त्वनि का श्रद्धान करनेका उपदेश दीजिए है। ऐसे श्रद्धानत अरहंतादि बिना अन्य देवादिक झूठ भासै तब स्वयमेव तिनका मानना छूट है, ताका भी निरूपण करिए है। बहुरि सम्यम्हानके भर्थि संशयादिरहिन तिनहीं तत्त्वनिका तैसे ही जाननेका उपदेश दीजिए है, तिस जाननेको कारण जिनशास्त्रनिका अभ्यास है। तातें तिस प्रयोजनके अर्थि जिनशास्त्रनिका भी अभ्यास स्वयमेव हो है, ताका निरूपण करिए है। बहुरि सम्यक्चारित्रके अर्थि रागादि दूरि करनेका उपदेश दीजिए है। तहाँ एकदेश वा सर्वदेश तीव्ररागादिकका अभाव भए तिनके निमित्ततें होती थी जे एकदेश सर्वदेश पापक्रिया, ते छूटे हैं : बहुरि मंदरागते श्रावकमुनिके व्रतनिकी प्रवृत्ति हो है। बहुरि मंदरागादिकनिका भी अभाव भए शुद्धोपयोगकी प्रवृत्ति हो है, ताका निरूपण करिए है। बहुरि यथार्थ श्रद्धान लिए सम्यग्दृष्टीनिकै जैसे यथार्थ कोई आखड़ी हो है वा भक्ति हो है वा पूजा प्रभावनादिक कार्य हो है, वा ध्यानादिक हो है, तिनका उपदेश दीजिए है। जैसा जिनमतविथै सांची परम्परा मार्ग है, तैसा उपदेश दीजिए है। ऐसे दोय प्रकार उपदेश चरणानुयोगविष जानना।
___ बहुरि चरणानुयोगविषे तीव्रकषायनिका कार्य छुड़ाय मंदकषाय रूप कार्यकरनेका उपदेश दीजिए है। यद्यपि कषाय करना बुरा ही है, तथापि सर्वकषाय न छूटते जानि जेते कषाय घटै तितना ही मला होगा, ऐसा प्रयोजन तहाँ जानना। जैसे जिन जीवनिकै आरम्भादि करने की वा मंदिरादि बनावनेकी वा विषय सेवनेकी वा क्रोधादि करनेकी इच्छा सर्वथा दूरि न होती जाने, तिनको पूजा-प्रभावनादिक करनेका वा चैत्यालयादि बनावनेका वा जिनदेवादिकके आगे शोभादिक नृत्यगानादि करनेका वा धर्मात्मा पुरुषनिकी सहायादि करनेका उपदेश दीजिए है। जाते इनिविषे परम्परा कषायका पोषण न हो है। पापकार्यनिविषै परम्परा कषाय पोषण हो है, तातें पापकार्यनित छुड़ाय इन कार्यनिविषै लगाईए है। बहुरि थोरा बहुत जेता छूटता जाने, तितना पापकार्य छुड़ाय सम्यक्त वा अणुव्रतादि पालनेका तिनको उपदेश दीजिए है। बहुरि जिन जीवनिकै सर्वथा आरम्भादिककी इच्छा दूरि भई, तिनको पूर्वोक्त पूजादिक कार्य वा सर्व पापकार्य छुड़ाय महाव्रतादि क्रियानिका उपदेश दीजिए है। बहुरि किंचित रागादिक छूटता न जानि, तिनको दया धर्मोपदेश प्रतिक्रमणादि कार्य करने का उपदेश दीजिए है। जहाँ सर्व राग दूरि होय, तहाँ किछू करने का कार्य ही रह्या नाहीं। तातै तिनको किछू उपदेश ही नाहीं। ऐसे क्रम जानना।
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आटदा अधिकार-२४३
बहुरि चरणानुयोगविषै कषायी जीवनिको कषाय उपजायफरि भी पापको छुड़ाईए है अर धर्मविर्ष लगाईए है। जैसे पापका फल नरकादिकके दुःख दिखाय तिनिको भय कषाय उपजाय पापकार्य छुड़ाईए है। बहुरि पुण्यका फल स्वर्गादिकके सुख दिखाय तिनको लोभ कषाय उपजाय धर्मकार्यनिविषै लगाईए है। बहुरि यहु जीव इन्द्रियविषय शरीर पुत्रधनादिकके अनुरागते पाप करै है, धर्मपराङ्मुख रहै है, ताते इन्द्रियविषयनिको मरण क्लेशादिकके कारण दिखावनेकरि तिनविष अरतिकषाय कराईए है। शरीरादिकको अशुचि दिखाक्नेकरि तहाँ जुगुप्साकषाय कराईए है, पुत्रादिको धनादिकके ग्राहक दिखाय तहाँ द्वेष कराईए है, बहुरि धनादिकको मरण क्लेशादिकका कारणदिखाय तहाँ अनिष्टबुद्धि कराईए है, इत्यादि उपायतें विषयादिविषै तीव्रराग दूरि होनेकरि तिनकै पापक्रिया छूटि धर्मविर्ष प्रवृत्ति हो है। बहुरि नाम-स्मरण स्तुतिकरण पूजा दान शीलादिकतें इस लोकविर्ष दारिद्र कष्ट दुःख दूरि हो है, पुत्रधनादिककी प्राप्ति हो है, ऐसे निरूपणकरि तिनकै लोभ उपजाय तिन धर्मकार्यनिविष लगाईए है। ऐसे ही अन्य उदाहरण जानने।
यहाँ प्रश्न- जो कोई कषाय छुड़ाय कोई कषाय करावनेका प्रयोजन कहा?
नाका समाधान- जैसे रोग तो शीतांग भी है अर ञ्चर भी है परन्तु कोई कै शीतांगते मरण होता जाने, तहाँ वैद्य है सो वाकै ज्चर होनेका उपाय कर, ज्वर भए पीछे वाकै जीवनेकी आशा होय, तब पीछे ज्चर के भी मेटने का उपाय करै । तैसे कषाय तो सर्व ही हेय हैं परन्तु केई जीवनिकै कषायनित पापकार्य होता जानै, तहाँ श्रीगुरु है सो उनके पुण्यकार्यको कारणभूत कषाय होने का उपाय करै, पीछे बाकै सांची धर्मबुद्धि भई जाने, तब पीछ तिस कषाय मेटने का उपाय करै; ऐसा प्रयोजन जानना।
बहुरि चरणानुयोगविषै जैसे जीव पाप छोड़ि धर्मविष लागै, तैसे अनेक युक्तिकरि वर्णन करिए है। तहाँ लौकिक दृष्टान्त युक्ति उदाहरण न्यायप्रवृत्तिके द्वारि समझाईए है वा कहीं अन्यमत के भी उदाहरणादि कहिए है। जैसे सूक्तिमुक्तावली विषै लक्ष्मीको कमलवासिनी कही वा समुद्रविषै विष अर लक्ष्मी उपजे,तिस अपेक्षा विषकी भगिनी कही। ऐसे ही अन्यत्र कहिए है। तहाँ केई उदाहरणादिक झूठे भी हैं परन्तु साँचा प्रयोजनको पोष है, तातै दोष नाहीं।
यहाँ कोउ कहै कि झूट का तो दोष लागै। ताका उत्तर- जो झूठ भी है अर सांचा प्रयोजनको पोषै तो वाको झूठ न कहिए। बहुरि सांच भी है अर झूठा प्रयोजनको पोषै तो वह झूठा ही है। अलंकारयुक्ति नामादिकविष वचन अपेक्षा झूट सांच नाहीं, प्रयोजन अपेक्षा झूठ सांच है। जैसे तुच्छशोभासहित नगरीको इन्द्रपुरी के समान कहिए है सो झूठ है परन्तु शोभा का प्रयोजन को पोषै है तातै झूट नाहीं । बहुरि "इस नगरीविष छत्रहीकै दंड" है, अन्यत्र नाहीं, ऐसा कह्या, सो झूठ है। अन्यत्र भी दंड देना पाईए है परन्तु - तहाँ अन्यायवान थोरे हैं, न्यायवान को दण्ड न दीजिए है, ऐसा प्रयोजनको पोष है, तातै झूठ नाहीं। बहुरि वृहस्पतिका नाम 'सुरगुरु' लिखै वा मंगलका नाम 'कुज' लिखै, सो ऐसे नाम अन्यमत अपेक्षा हैं। इनका अक्षरार्थ है सो झूटा है। परन्तु वह नाम तिस पदार्थका अर्थ प्रगट करै है, तातै झूठ नाहीं। ऐसे अन्य मतादिक के उदाहरणादि दीजिए है सो झूठे हैं परन्तु उदाहरणादिकका तो प्रदान करावना है नाहीं, श्रद्धान सो प्रयोजन का करावना है। सो प्रयोजन सांचा है, तात दोष नाहीं है।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२४४
बहुरि चरणानुयोगविष छमस्थकी बुद्धिगोवर स्थूलपनाको अपेक्षा लोकप्रतिको मुख्यता लिए उपदेश दीजिए है। बहुरि केवलज्ञानगोचर सूक्ष्मपनाकी अपेक्षा न दीजिए है, जारौं तिसका आचरण न होय सकै । यहाँ आचरण करावने का प्रयोजन है। जैसे अणुव्रतीकै त्रसहिंसाका त्याग कह्या अर वाकै स्त्रीसेवनादि क्रियानिविषे त्रसहिंसा हो है। यह भी जान है. जिनवानी विषै यहाँ त्रस कहे हैं परन्तु याकै त्रस मारने का अभिप्राय नाहीं अर लोकविषै जाका नाम सघात है, ताको करै नाहीं तातें तिस अपेक्षा वाके त्रसहिंसाका त्याग है। बहुरि मुनिक स्थावरहिंसाका भी त्याग कह्या, सो मुनि पृथ्वी जलादिविषै गमनादि करै है, तहाँ सर्वथा त्रसका भी अभाव नाहीं। जाते त्रसजीवकी भी अवगाहना ऐसी छोटी हो है, जो दृष्टिगोचर न आवै अर तिनकी स्थिति पृथ्वी जलादि विष ही है। सो मुनि जिनवानीत जाने हैं वा कदाचित् अवधिज्ञानादिकरि भी जानै है परन्तु याकै प्रमादत स्थावर त्रसहिंसाका अभिप्राय नाहीं । बहुरि लोकविष भूमि खोदना अप्रासुक जलते क्रिया करनी इत्यादि प्रवृत्तिका नाम स्थावरहिंसा है अर स्थूल त्रसनिके पीडने का नाम त्रसहिंसा है, ताको न करे। तातें मुनिकै सर्वथा हिंसा का त्याग कहिए है। बहुरि ऐसे ही अनृत, स्तेय, अब्रह्म, परिग्रह का त्याग कह्या। अर केवलज्ञानका जानने की अपेक्षा असत्यवचनयोग बारहवाँ गुणस्थान पर्यन्त कह्मा । अदत्तकर्मपरमाणु आदि परद्रव्यका ग्रहण तेरहवाँ गुणस्थान पर्यन्त है। वेदका उदय नवमगुणस्थान पर्यन्त है, अंतरंगपरिग्रह दसवाँ गुणस्थान पर्यन्त है। बाह्य परिग्रह समवसरणादि केवलीकै भी हो है परन्तु प्रमादते पापरूप अभिप्राय नाहीं अर लोकप्रवृत्तिविषै जिन क्रियानिकरि यहु झूट बोलै है, चोरी करै है, कुशील सेवै है, परिग्रह राखै है ऐसा नाम पावै, वे क्रिया इनकै हैं नाहीं । तातें अनृतादिकका इनिकै त्याग कहिए है । बहुरि जैसे मुनिके मूलगुणनिविष पंचइन्द्रियनिके विषय का त्याग करा सो जानना तो इन्द्रियनिका मिटै नाहीं अर विषयनिविषै रागद्वेष सर्वथा दूरि भया होय तो यथाख्यात चारित्र होय जाय सो भया नाहीं परन्तु स्थूलपने विषय इच्छा का अभाव भया अर बाह्य विषय सामग्री मिलावने की प्रवृत्ति दूरि भई तात याकै इन्द्रियविषयका त्याग कह्या । ऐसे ही अन्यत्र जानना । बहुरि व्रती जीव त्याग वा आचरण करै है, सो चरणानुयोगकी पद्धति अनुसारि वा लोक प्रवृत्तिके अनुसारि त्याग करै है। जैसे काहूने असहिंसा का त्याग किया, तहाँ चरणानुयोगविष वा लोकविध जाको त्रसहिंसा कहिए है, ताका त्याग किया है केवलज्ञानादिकरि जे त्रस देखिए हैं, तिनिकी हिंसा का त्याग बनै ही नाहीं । तहाँ जिस प्रसहिंसा का त्याग किया, तिसरूप मनका विकल्प न करना सो मनकरि त्याग है, वचन न बोलना सो वचनकरि त्याग है, कायकरि न प्रवर्तना सो कायकरि त्याग है। ऐसे अन्य त्याग वा ग्रहणहो है, सो ऐसी पद्धति लिए ही हो है, ऐसा जानना।
यहाँ प्रश्न-जो करणानुयोगविषै तो केवलज्ञान अपेक्षा तारतम्य कथन है, तहाँ छठे गुणस्थानि सर्वथा बारह अविरतिनिका अभाव कह्या, सो कैसे कह्या?
ताको उत्तर-अविरति भी योगकषायविषै गर्भित थे परन्तु तहाँ भी चरणानुयोग अपेक्षा त्यागका अभाव तिसहीका नाम अविरति कहा है। तात तहाँ तिनका अभाव है। मन अविरतिका अभाव कह्या, सो मुनिकै मनके विकल्प हो हैं परन्तु स्वेच्छाचारी मनकी पापरूप प्रवृत्तिके अभावते मनअविरतिका अभाव कह्या . है, ऐसा जानना।
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आटवा अधिकार -२४५
बहुरि चरणानुयोगविषे व्यवहार लोकप्रवृत्ति अपेक्षा ही नामादिक कहिए है। जैसे सम्यक्त्वीको पात्र कह्या, मिथ्यात्वीको अपात्र कह्या। सौ यहाँ जाकै जिनदेवादिकका श्रद्धान पाईए सो तो सम्यक्ची, जाके तिनका श्रद्धान नाहीं सो मिथ्यात्वी जानना। जाते दान देना चरणानुयोगविषै कह्या है, सो चरणानुयोगहीके सम्यक्त्व मिथ्यात्व ग्रहण करने। करणानुयोग अपेक्षा सम्यक्त्व मिथ्यात्व ग्रहे वो ही जीव ग्यारहवें गुणस्थान था अर वो ही अन्तर्मुहूर्तमें पहले गुणस्थान आवै, तहाँ दातार पात्र-अपात्रका कैसे निर्णय करि सके? बहुरि द्रव्यानुयोग अपेक्षा सम्यक्त्व मिथ्यात्व ग्रहे मुनिसंघविषै द्रव्यलिंगी भी हैं, भावलिंगी भी हैं ।सो प्रथम तो तिनका ठीक होना कठिन है जातें बाह्य प्रवृत्ति समान है। अर जो कदाचित् सम्यक्तीको कोई चिह्न कार ठीक पर्ड अर वह वाकी भक्ति न करै, तब औरनिकै संशय होय, याकी भक्ति क्यों न करी। ऐसे वाका मिथ्यादृष्टीपना प्रगट होय, तब संघविषै विरोथ उपजे । तातें यहाँ व्यवहार सम्यक्च मिथ्यात्वकी अपेक्षा कथन जानना।
यहाँ कोई प्रश्न करै-सम्यक्ती तो द्रव्यलिंगीको आपते हीनगुणयुक्त माने है, ताकी भक्ति कैसे करे?
ताका समाधान- व्यवहारधर्मका साथन द्रव्यलिंगीकै बहुत है अर भक्ति करनी सो भी व्यवहार ही है। तातें जैसे कोई धनवान होय परन्तु जो कुलविषै बड़ा होय ताको कुल अपेक्षा बड़ा जानि ताका सत्कार करै, तैसे आप सम्यक्त्वगुणसहित है परन्तु जो व्यवहारधर्मविष प्रधान होय ताको व्यवहारधर्म अपेक्षा गुणाधिक मानि ताकी भक्ति करै है, ऐसा जानना। बहुरि ऐसे ही जो जीव बहुत उपवासादि करें, ताको तपस्वी कहिए है। यद्यपि कोई ध्यान अध्ययनादि विशेष करै है सो उत्कृष्ट तपस्वी है तथापि इहाँ चरणानुयोगविणे बाबतपहीकी प्रधानता है, ता तिसहीको तपस्वी कहिए है। याही प्रकार अन्य नामादिक जानने। ऐसे ही अन्य अनेक प्रकार लिए चरणानुयोगविषै व्याख्यानका विधान जानना।
अब द्रव्यानुयोगविषै कहिए है
द्रव्यानुयोग में व्याख्यान का विधान जीवनिकै जीवादि द्रव्यनिका यथार्थ श्रद्धान जैसे डोय, तैसे विशेष युक्ति हेतु दृष्टान्तादिकका यहाँ निरूपण कीजिए है। जाते या विषै यथार्थ श्रद्धान करावनेका प्रयोजन है। तहाँ यद्यपि जीवादि वस्तु अभेद है तथापि तिनविष भेदकल्पनाकरि व्यवहारतें द्रव्य गुण पर्यायादिकका भेद निरूपण कीजिए है। बहुरि प्रतीति अनायनेके अर्थ अनेक युक्तिकरि उपदेश दीजिए है अथवा प्रमाणनयकार उपदेश दीजिए सो भी युक्ति है। बहुरि वस्तुका अनुमान प्रत्यभिज्ञानादि करनेको हेतु दृष्टांतादिक दीजिए है। ऐसे तहाँ वस्तुकी प्रतीति करावनेको उपदेश दीजिए है। बहुरि यहाँ मोक्षमार्गका श्रद्धान करावनेके अर्थ जीवादि तत्त्वनिका विशेष युक्ति हेतु दृष्टांतादिकरि निरूपण कीजिए है। तहाँ स्वपरभेदविज्ञानादिक जैसे होय तैसे जीव अजीवका निर्णय कीजिए है। बहुरि वीतरागभाव जैसे होय तैसे आम्नवादिकका स्वरूप दिखाइए है। बहुरि तहाँ मुख्यपने ज्ञान
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२४६
वैराग्य को कारण आत्मानुभवनादिक ताकी महिमा गाइए है । बहुरि द्रव्यानुयोग विषे निश्चय अध्यात्म उपदेश की प्रधानता होय, तहाँ व्यवहारधर्म का भी निषेध कीजिए है। जे जीव आत्मानुभवन के उपायको न करें हैं अर बाह्य क्रियाकांडविषे मग्न हैं, तिनको तहाँतै उदासकरि आत्मानुभवनादिविष लगावने को व्रत शील संयमादिक का हीनपना प्रगट कीजिए है। तहाँ ऐसा न जानि लेना, जो इनको छोड़ि पापविष लगना। जाते तिस उपदेश का प्रयोजन अशुभविषै लगावने का नाही है। शुद्धोपयोगविष लगावने को शुभोपयोग का निषेध कीजिए है।
यहाँ कोऊ कहे कि अध्यात्म-शास्त्रनिविषै पुण्य-पाप समान कहे हैं, तातें शुद्धोपयोग होय तो भला ही है, न होय तो पुण्यविषे लगो वा पापविषै लगो।
ताका उत्तर- जैसे शूद्रजातिअपेक्षा जाट चांडाल समान कहे परन्तु चांडालते जाट किछू उत्तम है। वह अस्पृश्य है, यह स्पृश्य है। तैसे बन्धकारण अपेक्षा पुण्य-पाप समान हैं परन्तु पापते पुण्य किछू भला है। वह सीव्रकषायरूप है, यह मंदकषायरूप है तातै पुण्य छोड़ि पापविषै लगना युक्त नाहीं, ऐसा जानना।
___ बहुरि जे जीव जिनबिम्बभक्त्यादि कार्यनिविषै ही मग्न हैं, तिनको आत्मश्रद्धानादि करावने को "देहविष देव है, देहुराविषे नाही" इत्यादि उपदेश दीजिए है। तहाँ ऐसा न जानि लेना, जो भक्ति छुड़ाय भोजनादिकतें आपको सुखी करना। आशलिस उपदेश का प्रयोजन ऐसा नहीं है। ऐसे ली अन्य व्यवहारका निषेध तहाँ किया होय,ताको जानि प्रमादी न होना। ऐसा जानना-जे केवल व्यवहार साधनविष ही मग्न हैं, तिनको निश्चयरुचि करावने के अर्थि व्यवहारको हीन दिखाया है। बहुरि तिन ही शास्त्रनिविष सम्यग्दृष्टीके विषय-भोगादिकको बंधका कारण न कह्या, निर्जरा का कारण कह्या । सो यहाँ भोगनिका उपादेयपना न जानि लेना। तहाँ सम्यग्दृष्टिकी महिमा दिखावने को जे तीव्रबंध के कारण भोगादिक प्रसिद्ध थे, तिन भोगादिक को होतेसंते भी श्रद्धानशक्ति के बलते निर्जरा विशेष होने लगी, तात उपचार भोगनिको भी बंथका कारण न कह्या, निर्जरा का कारण कह्या। विचार किए भोग निर्जराके कारण होय, तो तिनको छोड़ि सम्यग्दृष्टी मुनिपदका ग्रहण काहेको करे? यहाँ इस कथन का इतना ही प्रयोजन है-देखो, सम्यक्त्वकी महिमा जाके बलते भोग भी अपने गुणको न करि सकै है। याही प्रकार और भी कथन होय ताका यथार्थपना जानि लेना।
बहुरि द्रव्यानुयोगविषै भी चरणानुयोगवत् ग्रहण-त्याग करावनेका प्रयोजन है। तातें छद्मस्थ के बुद्धिगोचर परिणामनिकी अपेक्षा ही तहाँ कथन कीजिए है। इतना विशेष है, जो चरणानुयोगविषै तो बाह्यक्रिया की मुख्यताकरि वर्णन करिए है, द्रव्यानुयोगविषै आत्मपरिणामनिकी मुख्यताकरि निरूपण कीजिए है। बहुरि करणानुयोगवत् सूक्ष्मवर्णन न कीजिए है। ताके उदाहरण कहिए है
उपयोग के शुभ, अशुभ, शुद्ध ऐसे तीन भेद कहे। तहाँ धर्मानुरागरूप परिणाम सो शुभोपयोग अर पापानुरागरूप वा द्वेषरूप परिणाम सो अशुभोपयोग अर रागद्वेषरहित परिणाम सो शुद्धोपयोग, ऐसे कह्या सो इस छद्मस्थ के बुद्धिगोचर परिणामनिकी अपेक्षा यह कथन है। करणानुयोगविषै कापयशक्ति अपेक्षा गुणस्थानादिविष संक्लेश विशुद्ध परिणाम अपेक्षा निरूपण किया है सो विवक्षा यहाँ नाहीं है। करणानुयोगविषै
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आठवा अधिकार.-२४७
तो रागादिरहित शुद्धोपयोग यथाख्यात चारित्र भए होय, लो मोह का नाशर्त स्वयमेव होसी। नीचली अवस्थावाला शुद्धोपयोगका साधन कैसे करै अर द्रव्यानुयोग विषे शुद्धोपयोग करनेही का मुख्य उपदेश है, ताते यहाँ छद्मस्थ जिस कालविषै बुद्धिगोचर भक्ति आदि वा हिंसा आदि कार्यरूप परिणामनिको छुड़ाय आत्मानुभवनादि कार्यनिविषै प्रवर्ते तिस काल ताको शुद्धोपयोगी कहिए । यद्यपि यहाँ केवलज्ञानगोचर सूक्ष्मरागादिक हैं तथापि ताकी विवक्षा यहाँ न करी, अपने बुद्धिगोचररागादिक छोडै तिस अपेक्षा याको शुद्धोपयोगी कह्या । ऐसे ही स्वपर श्रद्धानादिक भए सम्यक्त्वादिक कहे, सो बुद्धिगोचर अपेक्षा निरूपण है। सूक्ष्म भावनिकी अपेक्षा गुणस्थानादिविष सम्यक्त्वादिकका निरूपण करणानुयोगविर्ष पाईए है। ऐसे ही अन्यन्न जानने । तात द्रव्यानुयोग के कथन की करणानुयोगते विधि मिलाया चाहै सो कहीं तो मिले, कहीं न मिले है। जैसे यथाख्यातचारित्र भए तो दोऊ अपेक्षा शुद्धोपयोग है, बहुरि नीचली दशाविषै द्रव्यानुयोग अपेक्षा तो कदाचित् शुद्धोपयों होय अर करणानुभंग अशा या कास करायअंश के सद्भाव” शुद्धोपयोग नाहीं। ऐसे ही अन्य कथन जानि लेना।
बहुरि द्रव्यानुयोगविर्ष परमतविषै कहै तत्त्वादिक तिनको असत्य दिखावने के अर्थ तिनका निषेध कीजिए है, तहाँ द्वेषबुद्धि न जाननी। तिनको असत्य दिखाय सत्य श्रद्धान करावने का प्रयोजन जानना । ऐसे ही और भी अनेक प्रकारकरि द्रव्यानुयोगविधै व्याख्यान का विधान है। या प्रकार च्यारों अनुयोग के व्याख्यान का विधान का। सो कोई ग्रन्थविषे एक अनुयोग की, कोई विषै दोय की, कोई विषे तीन की, कोई विषे च्यारों की प्रधानता लिए व्याख्यान हो है। सो जहाँ जैसा सम्भवै, तहाँ तैसा समझ लेना। ___अब इन अनुयोगनिविषै कैसी पद्धति की मुख्यता पाईए है, सो कहिए है
चारों अनुयोगों में व्याख्यान की पद्धति प्रथमानुयोगविषै तो अलंकारशास्त्रनिकी वा काव्यादि शास्त्रनिकी पद्धति मुख्य है जातें अलंकारादिकते मन रंजायमानहोय, सूधी बात कहे ऐसा उपयोग लागै नाहीं जैसा अलंकारादि युक्ति सहित कथनौं उपयोग लागै! बहुरि परोक्ष बात को किछू अधिकताकरि निरूपणकरिए तो वाका स्वरूप नीके भासै। बहुरि करणानुयोगविषे गणित आदि शास्त्रनिकी पद्धति मुख्य है जाते तहाँ द्रव्य क्षेत्र काल भायका प्रमाणादिक निरूपण कीजिए है। सो गणित ग्रन्थनिकी आम्नायत ताका सुगम जानपना हो है। बहुरि चरणानुयोगविषे सुभाषित नीतिशास्त्रनिकी पद्धति मुख्य है जाते यहाँ आचरण करावना है, सो लोकप्रवृत्ति के अनुसार नीतिमार्ग दिखाए वह आचरण करे। बहुरि द्रव्यानुयोगविषै न्यायशास्त्रनिकी पद्धति मुख्य है जातें यहाँ निर्णय करनेका प्रयोजन है अर न्यायशास्त्रनिविष निर्णय करने का मार्ग दिखाया है। ऐसे इन अनुयोगनिविष पद्धति मुख्य है। और भी अनेक पद्धति लिए व्याख्यान इनविष पाईए है।
यहाँ कोऊ कहै- अलंकार गणित नीति न्याय का तो ज्ञान पण्डितनिके होय, तुच्छबुद्धि समझे नाहीं तातें सूथा कथन क्यों न किया?
ताका उत्तर-शास्त्र है सो मुख्यपने पंडित अर चतुरनिके अभ्यास करने योग्य है। सो अलंकारादि
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२४०
आम्नाय लिए कथन होय तो तिनका मन लागे । बहुरि जे तुच्छबुद्धि हैं, तिनको पंडित समझाय दें, अर जे न समझि सके, तो तिनको मुख सूधा ही कथन कहै। परन्तु ग्रन्थनिविषै सूधा कथन लिखै विशेषबुद्धि तिनका अभ्यासविषै विशेष न प्रवत्त । तातै अलंकारादि आम्नाय लिए कथन कीजिए है। ऐसे इन व्यारि अनुयोगनिका निरूपण किया।
बहुरि जिनमतविष घने शास्त्र तो इन च्यारों अनुचोगनिविषै गर्भित हैं। बहुरि व्याकरण न्याय छन्द कोशादिक शास्त्र वा वैद्यक ज्योतिष मन्त्रादि शास्त्र भी जिनपतविषै पाईए है। तिनका कहा प्रयोजन है, सो सुनहु
व्याकरण न्यायादिकका अभ्यास भए अनुयोगरूप शास्त्रनिका अभ्यास होय सकै है। ताते व्याकरणादि शास्त्र कहे हैं।
कोऊ कहै- भाषारूप सूधा निरूपण करते तो व्याकरणादिकका कहा प्रयोजन था?
ताका उत्तर- भाषा तो अपभ्रंशरूप अशुद्ध वाणी है। देश-देश विषै और-और है। सो महंत पुरुष शास्त्रनिविषै ऐसी रचना कैसे करै। बहुरि व्याकरण न्यायादिकरि जैसा यथार्थ सूक्ष्म अर्थ निरूपण हो है, तैसा सूधी भाषाविषै होय सकै नाहीं। तातें व्याकरणादि आम्नायकरि वर्णन किया है। सो अपनी बुद्धि अनुसारे थोरा बहुत इनिका अभ्यासकरि अनुयोगरूप प्रयोजनभूत शास्त्रनिका अभ्यास करना। बहुरि वैधकादि चमत्कारतें जिनमतकी प्रभावना होय वा औषधादिक ते उपकार भी बने। अथवा जे जीव लौकिक कार्यविषै अनुरक्त हैं ते वैद्यकादिक चमत्कार” जैनी होय पीछै साँचा धर्म पाय अपना कल्याण करै । इत्यादि प्रयोजन लिए वैद्यकादि शास्त्र कहे हैं। यहाँ इतना है-ए भी जिनशास्त्र हैं, ऐसा जानि इनका अभ्यासविर्ष बहुत लगना नाहीं । जो बहुत बुद्धितै इनिका सहज जानना होय अर इनिको जाने आपकै रागादिक विकार बधते न जाने, तो इनिका भी जानना होहु । अनुयोग शास्त्रवत् ए शास्त्र बहुत कार्यकारी नाहीं । तातै इनिका अभ्यासका विशेष उद्यम करना युक्त नाहीं।
यहाँ प्रश्न- जो ऐसे हैं तो गणधरादिक इनकी रचना काहेको करी?
ताका उत्तर- पूर्वोक्त किंचित् प्रयोजन जानि इनकी रचना करी। जैसे बहुत धनवान कदाचित स्तोक कार्यकारी वस्तु का भी संचय करै। बहुरि थोरा धनवान उन वस्तुनिका संचय करें तो धन तो तहां लगि जाय, बहुत कार्यकारी वस्तुका संग्रह काहेरौं करे। तैसे बहुत बुद्धिमान गणधरादिक कथंचित् स्तोककार्यकारी वैद्यकादि शास्त्रनिका भी संचय करै। थोरा बुद्धिमान उनका अभ्यासविष लगै तो तहाँ लगि जाय, उत्कृष्ट कार्यकारी शास्त्रनिका अभ्यास कैसे करै? बहुरि जैसे मंदरागी तो पुराणादिविषे शृंगारादि निरूपण करै तो भी विकारी न होय, तोवरागी तैसे शृंगारादि निरूपै तो पाप ही बाँधै। तैसे मंदरागी गणधरादिक हैं ते वैद्यकादि शास्त्र निरूपै तो भी विकारी न होय, तीव्ररागी तिनका अभ्यासविषै लगि जाय तो रागादिक बधाय पापकर्मको बाँधे, ऐसे जानना। या प्रकार जैनमतके उपदेशका स्वरूप जानना।
अब इनविषे दोषकल्पना कोई करै है, ताका निराकरण कीजिए है
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आठवाँ अधिकार २४६
प्रथमानुयोग में दोष - कल्पना का निराकरण
केई जीव कहे हैं- प्रथमानुयोगविषै शृंगारादिकका वा संग्रामादिकका बहुत कथन करै, तिनके निमित्त रागादिक बंध जाय, तार्तें ऐसा कथन न करना था वा ऐसा कथन सुनना नाहीं । ताको कहिए हैकथा कहनी हो तब तो सर्व ही अवस्था का कथन किया चाहिए। बहुरि जो अलंकारादिकरि बधाय कथन करे हैं सो पंडितनिके बचन युक्ति लिए ही निकसै I
अर जो तू कहेगा, सम्बन्ध मिलावने को सामान्य कथन किया होता, वधाकरि कपन काहे को
किया?
ताका उत्तर यहु है जो परोक्षकथनको बधाय कहे बिना बाका स्वरूप भासै नाहीं । बहुरि पहले तो भोग-संग्रामादि ऐसे किये, पीछे सर्वका त्यागकर मुनि भए, इत्यादि चमत्कार तबही भासै जब बधाय कथन कीजिए । बहुरि तू कहै है, ताके निमित्त रागादिक बधि जाय । सो जैसे कोऊ चैत्यालय बनावै, सो चाका तो प्रयोजन तहाँ धर्मकार्य करावनेका है अर कोई पापी तहाँ पापकार्य करे तो चैत्यालय बनानेवालेका तो दोष नाहीं । तैसे श्रीगुरू पुराणादिविषै शृंगारादि वर्णन किए, तहाँ उनका प्रयोजन रागादिक करावनेका तो है नाहीं, धर्मविषै लगावने का प्रयोजन है। अर कोई पापी धर्म न करें अर रागादिक ही बधावै, तो श्रीगुरुका कहा दोष है?
बहुरि जो तू कहै जो रागादिकका निमित्त होय सो कथन ही न करना था ।
ताका उत्तर यह है- सरागी जीवनिका मन केवल वैराग्य कथनविषै लागे नाहीं । तातैं जैसे बालकको पतासाके आश्रय औषधि दीजिए, तैसे सरागीको भोगादि कथनके आश्रय धर्मविषै रुचि कराईए है ।
बहुरि तू कहेगा- ऐसे है तो विरागी पुरुषनिको तो ऐसे ग्रंथनिका अभ्यास करना युक्त नाहीं । ताका उत्तर यहु है - जिनकै अन्तरंगविषै रागभाव नाहीं, तिनके श्रृंगारादि कथन सुने रागादि उपजे ही नाहीं । यहु जाने ऐसे ही यहाँ कथन करने की पद्धति है ।
बहुरि तू कहेगा- जिनके शृंगारादि कथन सुने रागादि होय आवै, तिनको तो वैसा कथन सुनना योग्य नाहीं ।
ताका उत्तर यहु है - जहाँ धर्मही का तो प्रयोजन अर जहाँ तहाँ धर्म को पोषै ऐसे जैनपुराणादिक तिनविषे प्रसंग पाय शृंगारादिकका कथन किया, ताको सुने भी जो बहुत रागी भया तो वह अन्यत्र कहाँ विरागी होसी, पुराण सुनना छोड़ि और कार्य भी ऐसा ही करेगा जहाँ बहुत रागादि होय । तातें वाकै भी पुराण सुने थोरी बहुत धर्मबुद्धि होय तो होय और कार्यनित यहु कार्य भला ही है ।
बहुरि कोई कहै - प्रथमानुयोगविषे अन्य जीवनिकी कहानी है, तातैं अपना कहा प्रयोजन सधै है ? ताको कहिए है- जैसे कामीपुरुषनिकी कथा सुने आपके भी काम का प्रेम बयै है, तैसे धर्मात्मा पुरुषनिकी कथा सुने आपके धर्म की प्रीति विशेष हो है । तातें प्रथमानुयोगका अभ्यास करना योग्य है।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक - २५०
करणानुयोग में दोष- कल्पना का निराकरण
बहुरि केई जीव कहे हैं- करणानुयोगविषै गुणस्थान मार्गणादिक का वा कर्मप्रकृतिनिका कथन किया या त्रिलोकादिकका कथन किया, सो तिनको जानि लिया 'यहु ऐसे है', 'यहु ऐसे है, यामें अपना कार्य कहा सिद्ध भया? कै तो भक्ति करिए, के व्रत दानादि करिए, कै आत्मानुभवन करिए, इनतें अपना भला होय ।
ताको कहिए -- परमेश्वर तो वीतराग हैं। भक्ति किए प्रसन्न होयकरि किछु करते नाहीं । भक्ति करतैं मंदकषाय हो है, ताका स्वयमेव उत्तम फल हो है। सो करणानुयोग के अभ्यासविषै तिसतें भी अधिक मन्द कषाय होय सकै है, तातैं याका फल अति उत्तम हो है । बहुरि व्रतदानादिक तो कषाय घटाने के बा निमित्तका साधन हैं अर करणानुयोगका अभ्यास किए तहाँ उपयोग लागि जाय, तब रागादिक दूरि होय, सो यहु अंतरंग निमित्तका साधन है । तातैं यहु विशेष कार्यकारी है । प्रतादिक धारि अध्ययनादि कीजिए है । बहुरि आत्मानुभव सर्वोत्तम कार्य है । परन्तु सामान्य अनुभवविषै उपयोग थम्भ नाहीं अर न थम्मै तब अन्य विकल्प होय, तहाँ करणानुयोगका अभ्यास होय तो तिस विचारविषे उपयोगको लगावै । यहु विचार वर्तमान भी रागादिक घटावे है अर आगामी रागादिक घटावने का कारण है तातें यहाँ उपयोग लगावना । जीव कर्मादिकके नाना प्रकार करि भेद जानें, तिनविषै रागादिकरने का प्रयोजन नाहीं, तातैं रागादि बधै नाहीं । वीतराग होने का प्रयोजन जहाँ-तहाँ प्रगटे है, तातें रागादि मिटावने को कारण है।
यहाँ कोऊ कहै - कोई तो कथन ऐसा ही है परन्तु द्वीप समुद्रादिकके योजनादि निरूपै तिनमें कहा सिद्धि है ?
ताका उत्तर- तिनको जान किछु तिनविषै इष्ट अनिष्ट बुद्धि न होय, तार्तें पूर्वोक्त सिद्धि हो है । बहुरि वह कई है - ऐसे है तो जिसतें किछु प्रयोजन नाहीं ऐसा पाषाणादिकको भी जाने तहाँ इष्ट अनिष्टपनो न मानिए है, सो भी कार्यकारी भया ।
ताका उत्तर- सरागी जीव रागादि प्रयोजनविना काहूको जानने का उद्यम न करै । जो स्वयमेव उनका जानना होय तो अंतरंग रागादिकका अभिप्रायके वशकरि तहाँतें उपयोग को छुड़ाया ही चाहे है। यहाँ उद्यमकरि द्वीप - समुद्रादिकको जाने है तहाँ उपयोग लगावै है । सो रागादि घटे ऐसा कार्य होय । बहुरि पाषाणादिकविषै इस लोक का कोई प्रयोजन भासि जाय तो रागादिक होय आये। अर द्वीपादिकविषै इस लोक सम्बन्धी कार्य किछु नाहीं तातें रागादिकका कारण नाहीं । जो स्वर्गादिककी रचना सुनि तहाँ राग होय तो परलोक सम्बन्धी होयताका कारण पुण्यको जाने तब पाप छोड़ पुण्यविषै प्रवर्त्ते, इतना ही नफा होय । बहुरि द्वीपादिकके जाने यथावत् रचना भासै तब अन्यमतादिकका का झूठ भासे, सत्य श्रद्धानी होय । बहुरि यथावत् रचना जानने करि भ्रम मिटे उपयोगकी निर्मलता होय, तार्तें यह अभ्यास कार्यकारी है।
बहुरि केई कहे हैं- करणानुयोगविषै कठिनता घनी, तातैं ताका अभ्यासविषै खेद होय ।
ताको कहिए है जो वस्तु शीघ्र जानने में आयें, तहाँ उपयोग उलझे नाहीं अर जानी वस्तुको
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आठवाँ अधिकार-२५१
बारम्बार जानने का उत्साह होय नाहीं, तब पापकार्यनिविषै उपयोग लगि जाय। तातें अपनी बुद्धि अनुसारि कठिनताकरि भी जाका अभ्यास होता जानै ताका अभ्यास करना। अर जाका अभ्यास होय ही सकै नाही, ताका कैसे करे? बहुरि तू कहै है-खेद होय सो प्रमादी रहने में तो थर्म है नाहीं। प्रमादः सुखिया रहिए, तहाँ तो पाप ही होय । तातें धर्म के अर्थ उद्यम करना ही युक्त है। या विचार करणानुयोगका अभ्यास करना।
चरणानुयोग में दोष-कल्पना का निराकरण बहुरि केई जीय ऐसे कहै है- चरणानुयोगविषै बाह्य व्रतादि साधनका उपदेश है, सो इनित किछु सिद्धि नाहीं। अपने परिणाम निर्मल चाहिए, बाह्य चाहो जैसे प्रवर्तो । ताइस उपदेशः पराङ्मुख रहै हैं।
तिनको कहिए है- आत्मपरिणामनिकै और बाह्य प्रवृत्तिकै निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। जाते छद्मस्थक क्रिया परिणामपूर्वक हो है। कदाचित् बिना परिणाम कोई क्रिया हो है, सो परवशते हो है। अपने वशः उद्यमकरि कार्य करिए अर कहिए परिणाम इस रूप नाहीं है, सो यहु भ्रम है। अथवा बाह्य पदार्थ का आश्रय पाय परिणाम होय सके हैं। तातें परिणाम मेटने के अर्थ बालवस्तुका निषेध करना समयसारादिविषै कया है। इसही वास्ते रागादिभाव घटै बाह्य ऐसे अनुक्रमः श्रावक मुनिधर्म होय। अथवा ऐसे श्रावक मुनिधर्म अंगीकार किए पंचम षष्टमआदि गुणस्थान तिनिविषे रागादि घटनेरूप परिणामनिकी प्राप्ति होय। ऐसा निरूपण चरणानुयोगविष किया। बहुरि जो बाह्य संयमतें किछु सिद्धि न होय, तो सर्वार्थसिद्धि के वासी देव सम्यग्दृष्टी बहुतज्ञानी तिनकै तो चौथा गुणस्थान होय अर गृहस्थ श्रावक मनुष्यकै पंचम गुणस्थान होय, सो कारण कहा? बहुरि तीर्थकरादिक गृहस्थपद छोड़ि काहेको संयम ग्रहैं। तात यहु नियम है- बाम संयम साधनविना परिणाम निर्मल न होय सके हैं तातै बाह्य साधनका विथान जाननेको चरणानुयोगका अभ्यास अवश्य किया चाहिए।
द्रव्यानुयोग में दोष-कल्पना का निराकरण बहुरि केई जीव कहै हैं - जो द्रव्यानुयोगविष व्रत संयमादि व्यवहारधर्मका हीनपना प्रगट किया है। सम्यग्दृष्टीके विषय-भोगादिकको निर्जराका कारण कह्या है। इत्यादि कथन सुनि जीव हैं, सो स्वच्छन्द होय पुण्य छोड़ि पापविषे प्रवर्ते, ताः इनिका वांचना सुनना युक्त नाहीं । ताको कहिए है- जैसे गर्दभ मिश्री खार मरै, तो मनुष्य तो मिश्री खाना न छोड़े। तैसे विपरीतबुद्धि अध्यात्मग्रन्थ सुनि स्वच्छन्द होय, तो विवेकी तो अध्यात्मग्रन्थनिका अभ्यास न छोड़े। इतना करै-जाको स्वच्छन्द होता जाने, ताको जैसे वह स्वच्छन्द न होय, तैसे उपदेश दे बहुरि अध्यात्मग्रन्थनिविषै भी स्वच्छन्द होने का जहाँ तहाँ निषेध कीजिए है, तातें जो नीके तिनको सुनै, सो तो स्वच्छन्द होता नाहीं। अर एक बात सुनि अपने अभिप्रायते कोऊ स्वच्छन्द होसी, तो ग्रन्थका तो दोष है नाही, उस जीवहीका दोष है। बहुरि जो झूठा दोषकी कल्पनाकार अध्यात्मशास्त्रका वांचना सुनना निषेथिए तो मोक्षमार्गका मूल उपदेश तो तहाँ ही है। ताका निषेध किए मोक्षमार्गका निषेध होय । जैसे पेघवर्षा भए बहुत जीवनिका कल्याण होय अर काहूकै उलटा टोटा पड़े, तो तिसकी मुख्यताकरि
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२५२
पेघका तो निषेध न करना। तैसे समाविषै अध्यात्म उपदेश भए बहुत जीवनिको मोक्षमार्ग की प्राप्ति होय अर काहूकै उलटा पाप प्रवर्त, तो तिसको मुख्यताकरि अध्यात्मशास्त्रनि का तो निषेध न करना। बहुरि अध्यात्मग्रन्थनित कोऊ स्वच्छन्द होय सो तो पहले भी मिथ्यादृष्टी था अब भी मिथ्यादृष्टी ही रह्या इतना ही टोटा पड़े, जो सुगति न होय कुगति होय। अर अध्यात्म उपदेश न भए बहुत जीवनिकै मोक्षमार्ग की प्राप्तिका अभाव होय, सो यामें घने जीवनिका घना बुरा होय । ताः अध्यात्म उपदेशका निषेध न करना।
बहुरि केई जीव कहै हैं- जो द्रव्यानुयोगरूप अध्यात्म उपदेश है, सो उत्कृष्ट है सो ऊँची दशाको प्राप्त होय, तिनको कार्यकारी है। नीचली दशावालों को तो व्रत-संयमादिकका ही उपदेश देना योग्य है।
ताको कहिए है- जिनमतविष तो यह परिपाटी है, जो पहले सम्यक्त होय पीछे व्रत होय। सो सम्यक्त स्वपरका श्रद्धान भए होय अर सो श्रद्धान द्रव्यानुयोगका अभ्यास किए होय । तातै पहले द्रव्यानुयोगके अनुसार श्रद्धानकरि सम्यग्दृष्टि होय, पीछे चरणानुयोग के अनुसार व्रतादिक धारि व्रती होय ऐसे मुख्यपनैं तो नीचली दशाविषे ही द्रव्यानुयोग कार्यकारी है, गौणपने जाको मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती न जानिए, ताको पहलै कोई व्रतादिकका उपदेश दीजिए है ताते ऊँची दशावालों को अध्यात्म अभ्यास योग्य है, ऐसा जानि नीचली दशावालों को तहाँत पराङ्मुख होना योग्य नाहीं।
बहुरि जो कहोगे- ऊँचा उपदेश का स्वरूप नीचली दशावालोंको भारी नाहीं।
ताका उत्तर यह है- और तो अनेक प्रकार चतुराई जानै अर यहाँ मूर्खपना प्रगट कीजिए, सो युक्त नाहीं । अभ्यास किए स्वरूप नीके भारी है। अपनी बुद्धि अनुसार थोरा बहुत भारी परन्तु सर्वथा निरुद्यमी होनेको पोषिए, सो तो जिनमार्गका द्वेषी होना है।
बहुरि जो कहोगे- अबार काल निकृष्ट है, तातै उत्कृष्ट अध्यात्म उपदेशकी मुख्यता न करनी।
ताको कहिए है- अबार काल साक्षात् मोक्ष न होने की अपेक्षा निकृष्ट है, आत्मानुभवनादिककार सम्यक्तादिक होना अबार मनै नाही, ताक् आत्मानुभवनादिकके अर्थि द्रव्यानुयोगका अवश्य अभ्यास करना । सोई षट्पाहुइविषै (मोक्षपाहड़में) कमर है:
अज्जवि तिरयणसुखा अप्पामाऊण जति सुरलोए।
लोयंते देवत्तं यत्य धुया णिव्युदि अंति ७७।। ___ याका अर्थ- अबहू त्रिकरणकरि शुद्ध जीव आत्माको ध्यायकरि सुरलोकविष प्राप्त हो हैं वा लौकान्तिकविषै देवपणो पाये हैं। तहाँतै च्युत होय मोक्ष जाय हैं। बहुरि' तातें इस कालविर्षे भी द्रव्यानुयोगका उपदेश मुख्य कहिए।
बहुरि कोई कहै है- द्रव्यानुयोगविषै अध्यात्मशास्त्र है, तहाँ स्वपरभेद-विज्ञानादिकका उपदेश दिया
१. यहाँ 'बहुरि' के आगे ३-४ लाइन का स्थान खरड़ापति में छोड़ा गया है जिससे ज्ञात होता है कि पण्डित जी वहाँ कुछ
और भी लिखना चाहते थे किन्तु लिख नहीं सके।
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आठवाँ अधिकार - २५३
सो तो कार्यकारी भी घना अर समझिमें भी शीघ्र आवे परन्तु द्रव्यगुणपर्यायादिकका वा प्रमाण नय आदिक का वा अन्यमतके कहे तत्त्वादिके निराकरणका कथन किया, सो तिनिका अभ्यासतें विकल्प विशेष होय । बहुत प्रयास किए जाननेमें आवै । तातैं इनिका अभ्यास न करना । तिनिको कहिए है
सामान्य जानने विशेष जानना बलवान है। ज्यों-ज्यों विशेष जानें त्यों-त्यों वस्तुस्वभाव निर्मल भासै, श्रद्धान दृढ़ होय, रागादि घटै तातें तिस अभ्यासविषै प्रवर्त्तना योग्य है । ऐसे व्यारों अनुयोगनिविषै दोषकल्पनाकरि अभ्यासतें पराङ्मुख होना योग्य नाहीं ।
बहुरि व्याकरण न्यायादिक शास्त्र हैं, तिनका भी थोरा बहुत अभ्यास करना । जातैं इनिका ज्ञान बिना बड़े शास्त्रनिका अर्थ भासै नाहीं । बहुरि वस्तुका भी स्वरूप इनकी पद्धति जाने जैसा भासे तैसा भाषादिककरि भासै नाहीं । तातैं परम्परा कार्यकारी जानि इनका भी अभ्यास करना परन्तु इनहीविषै फंसि न जाना। किछू इनका अभ्यासकरि प्रयोजनभूत शास्त्रनिका अभ्यासविषै प्रवर्त्तना । बहुरि वैद्यकादि शास्त्र हैं, तिनतैं मोक्षमार्गविषै किछू प्रयोजन ही नाहीं । तातैं कोई व्यवहारधर्मका अभिप्रायतें बिनाखेद इनका अभ्यास होय जाय तो उपकारादि करना, पापरूप न प्रवर्त्तना । अर इनका अभ्यास न होय तो मत होहु, किछू बिगार नाहीं । ऐसे जिनमतके शास्त्र निर्दोष जानि तिनका उपदेश मानना ।
अपेक्षा ज्ञान के अभाव से आगम में दिखाई देने वाले परस्पर विरोध का निराकरण
अब शास्त्रनिविषै अपेक्षादिकको न जाने परस्पर विरोध भासे, ताका निराकरण कीजिए है। प्रथमादि अनुयोगनिकी आम्नायके अनुसारि जहाँ जैसे कथन किया होय, तहाँ तैसे जानि लेना। और अनुयोग का कथनको और अनुयोगका कथनतें अन्यथा जानि सन्देह न करना । जैसे कहीं तो निर्मल सम्यग्दृष्टीहीकै शंका कांक्षा विचिकित्सा का अभाव कह्या, कहीं भय का आठवाँ गुणस्थान पर्यन्त, लोभ का दशमा पर्यन्त, जुगुप्साका आठवाँ पर्यन्त उदय कथा, तहाँ विरुद्ध न जानना । श्रद्धानपूर्वक तीव्र शंकादिकका सम्यग्दृष्टीकै अभाव भया अथवा मुख्यपने सम्यग्दृष्टी शंकादि न करे, तिस अपेक्षा चरणानुयोगविषै शंकादिकका सम्यग्दृष्टीकै अभाव कह्या । बहुरि सूक्ष्मशक्ति अपेक्षा भयादिकका उदय अष्टमादि गुणस्थान पर्यन्त पाईए है । तातैं करणानुयोगविषे तहाँ पर्यन्त तिनका सद्भाव कह्या ऐसे ही अन्यत्र जानना । पूर्वे अनुयोगनिका उपदेशविधानविषै कई उदाहरण कहे हैं, ते जानने अथवा अपनी बुद्धि
समझि लेने ।
बहुरि एक ही अनुयोगविषै विवक्षाके वशर्ते अनेकरूप कथन करिए है । जैसे करणानुयोगविष प्रमादनिका सप्तम गुणस्थानविषै अभाव का, तहाँ कषायादिक प्रमाद के भेद कहे। बहुरि तहाँ ही कषायादिकका सद्भाव दशमादि गुणस्थान पर्यन्त कह्या तहाँ विरुद्ध न जानना । जातें यहाँ प्रमादनिविषै तो जे शुभ अशुभ भावनि का अभिप्राय लिए कषायादिक होय तिनका ग्रहण है। सो सप्तम गुणस्थानविषै ऐसा अभिप्राय दूर भया, तातैं तिनिका तहाँ अभाव कला | बहुरि सूक्ष्मादिभावनिकी अपेक्षा तिनहीका दशमादि गुणस्थान पर्यन्त सद्भाव का है।
बहुरि चरणानुयोगविषै चोरी, परस्त्री आदि सप्त व्यसनका त्याग प्रथम प्रतिमाविषै कह्या, बहुरि तहाँ
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२५४
ही तिनका त्याग द्वितीय प्रतिमाविषै कह्या, तहाँ विरुद्ध न जानना। जातै सप्तव्यसनविषै तो चोरी आदि कार्य ऐसे ग्रहे हैं, जिनकरि दंडादिक पावै, लोकविषै अतिनिन्दा होय। बहुरि व्रतनिविष चोरी आदि का त्याग करनेयोग्य ऐसे कहे हैं, जे गृहस्थ धर्मविर्ष विरुद्ध होय वा किंचित् लोकनिंद्य होय, ऐसा अर्थ जानना। ऐसे ही अन्यत्र जानना।
बहुरि नाना भावनिकी सापेक्षते एकही भावको अन्य-अन्य प्रकार निरूपण कीजिए है। जैसे कहीं तो महाव्रतादिक चारित्रके भेद कहे, कहीं महाव्रतादि होते भी द्रव्यलिंगीको असंयमी कह्या, तहाँ विरुद्ध न जानना। जाते सम्यग्ज्ञानसहित महाव्रतादिक तो चारित्र हैं अर अज्ञानपूर्वक व्रतादिक भए भी असंयमी ही
है।
बहुरि जैसे पंच मिथ्यात्वनिविषै भी विनय कह्या अर बारह प्रकार तपनिविष भी विनय कला, तहाँ विरुद्ध न जानना। जाते विनय करने योग्य नहीं तिनका भी विनय करि धर्म मानना सो तो विनय मिथ्याच है अर धर्म पद्धतिकरि जे विनय करने योग्य हैं,तिनका यथायोग्य विनय करना, सो विनय तप है। बहुरि जैसे कहीं तो अभिमानकी निन्दा करी, कहीं प्रशंसा करी, तहाँ विरुद्ध न जानना । जात मानकषायतें आपको ऊँचा मनावनेके अर्थ विनयादि न करै, सो अभिमान तो निंद्य ही है अर निर्लोभपनाते दीनता आदि न करे, सो अभिमान प्रशंसा योग्य है।
बहुरि जैसे कहीं चतुराई को निन्दा करी, कहीं प्रशंसा करी, तहाँ विरुद्ध न जानना। जाते मायाकषायते काहूको ठिगनेके अर्थ चतुरई कीजिए, सो तो निंद्य ही है अर विवेक लिए यथासम्भव कार्यकरनेविषै जो चतुराई होय सो श्लाघ्य ही है, ऐसे ही अन्यत्र जानना।
बहुरि एक ही भावकी कहीं तो तिसत उत्कृष्ट भावकी अपेक्षाकरि निन्दा करी होय अर कहीं तिसत हीनभावकी अपेक्षाकरि प्रशंसा करी होय, तहाँ विरुद्ध न जानना। जैसे किसी शुभक्रियाकी जहाँ निन्दा करी होय, तहाँ तो तिसत ऊँची शुभक्रिया वा शुद्धभाव तिनकी अपेक्षा जाननी अर जहाँ प्रशंसा करी होय, तहाँ तिसतै नीची क्रिया वा अशुभक्रिया तिनकी अपेक्षा जाननी, ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि ऐसेही काहू जीवकी ऊँचे जीवकी अपेक्षा निन्दा करी होय, तहाँ सर्वथा निन्दा न जाननी। काहूकी नीचे जीवकी अपेक्षा प्रशंसा करी होय, तो सर्वथा प्रशंसा न जाननी। यथासम्भव वाका गुण दोष जानि लेना, ऐसे ही अन्य व्याख्यान जिस अपेक्षा लिए किया होय, तिस अपेक्षा वाका अर्थ समझना।
बहुरि शास्वविषै एक ही शब्दका कहीं तो कोई अर्थ हो है, कहीं कोई अर्थ हो है, तहाँ प्रकरण पहचानि वाका सम्भवता अर्थ जानना। जैसे मोक्षमार्गविष सम्यग्दर्शन कह्या तहाँ दर्शन शब्द का अर्थ श्रद्धान है अर उपयोग वर्णनदिङ्ग दर्शन शब्द का अर्थ वस्तु का सामान्य स्वरूप ग्रहण मात्र है अर इन्द्रियवर्णनविषै दर्शन शब्दका अर्थ नेत्रकरि देखने मात्र है। बहुरि जैसे सूक्ष्म बादर का अर्थ वस्तुनिका प्रमाणादि कथनविषे छोटा प्रमाण लिए होय, ताका नाम सूक्ष्म अर बड़ा प्रमाण लिए होय ताका नाम बादर, ऐसा अर्थ होय । अर पुद्गल स्कंघादिका कथनविष इन्द्रियगम्य न होय सो सूक्ष्म, इन्द्रियगम्य होय सो बादर, ऐसा अर्थ है।
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आटवाँ अधिकार-२५५
जीवादिका कथनविष ऋद्धि आदिका निमित्त विना स्वयमेव रुके नाहीं ताका नाम सूक्ष्म, रुकै ताका नाम बादर, ऐसा अर्थ है। वस्त्रादिकका कथनविषै महीन का नाम सूक्ष्म, मोटाका नाम बादर, ऐसा अर्थ है। (करणानुयोग के कथनविर्ष पुद्गलस्कथके निमित्तते रुक नाहीं ताका नाम सूक्ष्म है अर रुक जाय ताका नाम बादर है।)
बहुरि प्रत्यक्ष शब्दका अर्थ लोकव्यवहारविषै तो इन्द्रियकरि जाननेका नाम प्रत्यक्ष है, प्रमाणभेदनिविषै स्पष्ट प्रतिभासका नाम प्रत्यक्ष है, आत्मानुभवनादिविषै आपविष अवस्था होय ताका नाम प्रत्यक्ष है। बहुरि जैसे मिथ्यादृष्टी के अज्ञान कह्या तहाँ सर्वथा ज्ञानका अभावः न जानना, सम्यग्ज्ञान के अभावः अज्ञान कपा है। बहुरि जैसे उदीरणा शब्दका अर्थ जहाँ देवादिककै उदीरणा न कही, तहाँ तो अन्य निमित्तते मरण होय ताका नाम उदीरणा है अर दश करणनिका कथनविष उदीरणाकरण देवायुकै भी कह्या, तहाँ ऊपरिके निषेकनिका द्रव्य उदयावलीविषै दीजिए ताका नाम उदीरणा है। ऐसे ही अन्यत्र यथासम्भव अर्थ जानना।
बहुरि एक ही शब्दका पूर्व शब्द जोड़े अनेक प्रकार अर्थ हो है या उस ही शब्दके अनेक अर्थ हैं। तहाँ जैसा सम्भवै तैसा अर्थ जानना। जैसे 'जीत' ताका नाम 'जिन' है परन्तु धर्मपद्धतिविषै कर्मशत्रुको जीतै, ताका नाम 'जिन' जानना। यहाँ कर्मशत्रु शब्दको पूर्व जोड़े जो अर्थ होय सो ग्रहण किया, अन्य न किया, बहुरि जैसे 'प्राण धारै' ताका नाम 'जीव' है। जहाँ जीवनमरणका व्यवहार अपेक्षा कथन होय, तहाँ तो इन्द्रियादि प्राणथारै सो जीव है। बहुरि द्रव्यादिकका निश्चय अपेक्षा निरूपण होय तहाँ चैतन्यप्राणको थारै सो जीव है। बहुरि जैसे समय शब्दके अनेक अर्थ हैं तहाँ आत्माका नाम समय है, सर्व पदार्थका नाम समय है, कालका नाम समय है, समयमात्र काल का नाम समय है, शास्त्र का नाम समय है, मतका नाम समय है। ऐसे अनेक अर्थनिविषै जैसा जहाँ सम्भवै तैसा तहाँ अर्थ जानि लेना। बहुरि कहीं तो अर्थ अपेक्षा नामादिक कहिए है, कहीं रूढ़ि अपेक्षा नामादिक कहिए है, जहाँ रूढ़ि अपेक्षा नामादिक लिख्या होय, तहाँ वाका शब्दार्थ न ग्रहण करना । याका रूढ़िवाद अर्थ होय सो ही ग्रहण करना। जैसे सम्यक्तादिकको धर्म कह्या तहाँ तो यहु जीवको उत्तमस्थानविषै धारै है, तात याका नाम सार्थक है। बहुरि धर्मद्रव्यका नाम धर्म कह्या तहाँ रूढ़ि नाम है, याका अक्षरार्थ न ग्रहण करना। इस नाम धारक एक वस्तु है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना, ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि कहीं जो शब्दका अर्थ होता होई सो तो ग्रहण न करना अर सहाँ जो प्रयोजनभूत अर्थ होय सो ग्रहण करना। जैसे कहीं किसीका अभाव कह्या, होय अर तहाँ. किंचित् सद्भाव पाईए, तो तहाँ सर्वथा अभाव ग्रहण करना। किंचित् सद्भावको न गिणि अभाव कह्या है, ऐसा अर्थ जानना। सम्यग्दृष्टी के रागादिकका अभाव कह्या, तहाँ ऐसे अर्थ जानना । बहुरि नोकषायं अर्थ तो यहु- ' कषाय का निषेध ' सो तो अर्थ न ग्रहण करना अर यहाँ क्रोधादि सारिखे ए कषाय नाही, किंचित् कषाय हैं ताते नोकषाय हैं, ऐसा अर्थ ग्रहण करना। ऐसे ही, अन्यत्र जानना।
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पोक्षमार्ग प्रकाशक-२५६
बहुरि जैसे कहीं कोई युक्तिकरि किया होय, तहाँ प्रयोजन ग्रहण करना समयसार का कलशाविवे' यह कहा- “धोबी का दृष्टान्तवत् परभावका त्यागकी दृष्टि यावत् प्रवृत्तिको न प्राप्त भई तावत् यह अनुभूति प्रगट भई । सो यहाँ यहु प्रयोजन है-परभावका त्याग होते ही अनुभूति प्रगट हो है। लोकविष काहूके आवर्त ही कोई कार्य भया होय, तहाँ ऐसे कहिए-"जो यहु आया ही नाहीं अर यहु कार्य होय गया।" ऐसा ही यहाँ प्रयोजन ग्रहण करना 1 ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि जैसे कहीं प्रमाणादिक किछु कह्या होय, सोई तहाँ न मानि लेना, तहाँ प्रयोजन होय सो जानना। ज्ञानार्णवाविषे ऐसा कह्या है- अवार दोय तीन सत्पुरुष है।"२ सो नियम” इतने ही नाही, यहाँ 'थोरे हैं ऐसा प्रयोजन जानना। ऐसे ही अन्यत्र जानना 1 इस ही रीति लिये और भी अनेक प्रकार शब्दनिके अर्थ हो हैं, तिनको यथासम्भव जानने। विपरीत अर्थ न जानना।
बहुरि जो उपदेश होय, ताको यथार्थ पहचानि जो अपने योग्य उपदेश होय ताका अंगीकार करना। जैसे वैद्यकशास्त्रनिविषे अनेक औषधि कही हैं, तिनको जानै अर ग्रहण तिसहीका करे, जाकर अपना रोग दूरि होय। आपकै शीतका रोग होय तो उष्ण औषधिका ही ग्रहण करे, शीतल औषधिका ग्रहण न करे, यहु
औषधि औरनिको कार्यकारी है, ऐसा जानै । और पैशा माहित ने उप हैं, तिनको जानै अर ग्रहण तिसहीका करै, जाकर अपना विकार दूरि होय। आपकै जो विकार होय ताका निषेध करनहारा उपदेशको ग्रहै, तिसका पोषक उपदेशको न ग्रहै । यहु उपदेश औरनिको कार्यकारी है, ऐसा जाने । यहाँ उदाहरण कहिए है- जैसे शास्त्रविषै कहीं निश्चयपोषक उपदेश है, कहीं व्यवहार पोषक उपदेश है। तहाँ आपकै व्यवहार का आधिक्य होय तो निश्चय पोषक उपदेशका ग्रहण करि यथावत् प्रवत्तै अर आपकै निश्चयका आधिक्य होय तो व्यवहारपोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत् प्रवतै। बहुरि पूर्व तो व्यवहार श्रद्धानः आत्मज्ञानतें प्रष्ट होय रह्या था, पीछे व्यवहार उपदेशहीकी मुख्यताकरि आत्मज्ञानका उद्यम न करै अथवा पूर्व तो निश्चयश्रद्धानतें वैराग्यनै प्रष्ट होय स्वच्छन्द होय रह्या था, पीछे निश्चय उपदेशहीकी मुख्यताकरि विषयकषाय पोषै। ऐसे विपरीत उपदेश ग्रहे बुरा ही होय। बहुरि जैसे आत्मानुशासनविषै ऐसा कहा- जो तू गुणवान् होय दोष क्यों लगाये है। दोषवान होना था तो दोषमय ही क्यों न भया।" सो जो जीव आप तो गुणवान् होय अर कोई दोष लगता होय तहाँ तिस दोष दूर करने के अर्थि तिस उपदेशको अंगीकार करना। बहुरि आप तो दोषवान् है अर इस उपदेशका ग्रहणकरि गुणवान् पुरुषनिको नीचा दिखावै तो बुरा ही होय। सर्वदोषमय १. अवतरति न यावद्वृत्तिमत्यन्तवेगादनवमपरभावत्यागदृष्टान्तदृष्टिः।
झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता, स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविबभूव ।। (जीवाजीव अ. कलशा २६) २. दुःप्रजावतलुप्तवस्तुनिधया विज्ञानशून्याशयाः। विद्यन्ते प्रतिमन्दिर निजनिजस्वार्थोद्यता देहिनः ।। आनन्दामृतसिन्धुशीकरवनिर्वाप्य जन्मज्वरं, ये मुक्तेर्वदनेन्दुवीक्षणपरास्ते सन्ति वित्रा यदि ।।२४।। - झानार्णव, पृष्ठ ६८ हे चन्द्रमः किपितिलाञ्छनवानभूस्त्वं, तद्वान् भवेः किमिति तन्मय एवं नाभूः। किं ज्योत्स्नयामलमलं तव घोषयन्त्या, स्वानवजन तथा सति नाऽसि लक्ष्यः 11१४१।।
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आठवाँ अधिकार-२५७
होनेते तो किंचित् दोषरूप होना बुरा नाहीं है तातें तुझसे तो वह भला है। बहुरि यहाँ यह कहा। "तू दोषमय ही क्यों न भया" सो यह तर्क करी है। किछू सर्व दोषमय होने के अर्थि यहु उपदेश नाहीं है। बहुरि जो गुणवान्के किंचित् दोष भए भी निन्दा है तो सर्वदोषरहित तो सिद्ध हैं, नीचली दशाविषे तो कोई गुण कोई दोष होय-ही-होय।
___ यहाँ कोऊ कहै- ऐसे है, तो “मुनिलिंग धारि किंचित् परिग्रह राखै तो भी निगोद जाय" ऐसा षट्पाहुड़ विर्ष कैसे कह्या है?
ताका उत्तर-ऊँची पदवी धारि तिस पदविषै न सम्भवता नीचा कार्य करै तो प्रतिज्ञाभंगादि होने” महादोष लागै है अर नीची पदवींविषै तहाँ सम्भवता गुणदोष होय तो होय, तहाँ वाका दोष ग्रहण करना योग्य नाहीं, ऐसा जानना।
बहुरि उपदेशसिद्धान्तरत्नमालाविषे कह्या-"आज्ञा अनुसार उपदेश देने वाले का क्रोध भी क्षमा का भंडार है।" सो यहु उपदेश वक्ता का ग्रहया योग्य नाहीं। इस उपदेशः वक्ता क्रोध किया करै तो वाका बुरा ही होय। यहु उपदेश श्रोतानिका ग्रहवा योग्य है। कदाचित् वक्ता क्रोधकरिकै भी साँचा उपदेश दे तो श्रोता गुण ही माने। ऐसे ही अन्यत्र जानना।
बहुरि जैसे काहूकै अतिशीतांग रोग होय, ताके अर्थ अति उष्ण रसादिक औषथि कही है, तिस औषधि को जाकै दाह होय वा तुच्छ शीत होय सो ग्रहण कर तो दुःख ही पावै । तैसे काहूकै कोई कार्य की अतिमुख्यता होय, ताके अर्थ तिसके निषेध का अति खींचकरि उपदेश दिया होय, ताको जाकै तिस कार्य की मुख्यता न होय वा धोरी मुख्यता होय तो ग्रहण करे तो बुरा ही होय । यहाँ उदाहरण- जैसे काहूकै शास्त्राभ्यास की अतिमुख्यता अर आत्मानुभव का उद्यम ही नाही, ताके अर्थि बहुत शास्त्राभ्यास निषेध किया , बहुरि जाके शास्त्राभ्यास नाही वा थोर शास्त्राभ्यास है सो जीव तिस उपदेश शास्त्राभ्यास छोड़े अर आत्मानुभवविषै उपयोग रहै नाहीं, तब वाका तो बुरा ही होय । बहुरि जैसे काहूकै यज्ञ स्नानादिककरि हिंसातें धर्म मानने की मुख्यता है, ताके अर्थ " जो पृथ्वी उलटै तो भी हिंसा किए पुण्यफल न होय", ऐसा उपदेश दिया। बहुरि जो जीव पूजनादि कार्यनिकरि किंचित् हिंसा लगावै अर बहुत पुण्य उपजाचे, सो जीव इस उपदेशतें पूजनादि कार्य छोड़े अर हिंसारहित सामायिकादि धर्मविर्षे उपयोग लागै नाही, तक वाका तो बुरा ही होय। ऐसे ही अन्यत्र जानना ।
बहुरि जैसे कोई ओषधि गुणकारी है परन्तु आपके यावत् तिस औषधित हित होय, तावत् तिसका ग्रहण करे। जो शीत मिटे भी उष्ण औषधिका सेवन किया ही करै तो उल्टा रोग होय । तैसे कोई थर्म कार्य
१. जह जायस्वसरिसो तिलतुसमित्तं ण गहदि हनेसु । ___ जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोयं ।।१८।। (सूत्रपाहुड़) २. रोसोवि खमाकोसो सत्तं भासल जस्सणधणस्स।
उस्सुत्तेण खमाविय दोस महामोहआदासो।।१४।।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२५८
है परन्तु आपकै यावत् तिस धर्मकार्य तें हित होय तावत् तिसका ग्रहण करै। जो ऊँची दशा होते नीची दशा सम्बन्धी धर्मका सेवनविषे लागै तो उल्टा विकार ही होय। यहाँ उदाहरण- जैसे पाप मेटने के अर्थि प्रतिक्रमणादि धर्मकार्य कहे, तसा आल होते कि आदिक शि५ करै तो उल्टा विकार बथै, याहीते समयसार विर्षे प्रतिक्रमणादिकको विष का है। बहुरि जैसे अव्रतीके करने योग्य प्रभावनादि धर्मकार्य कहे, तिनको व्रती होयकार करै तो पाप ही बाँथे । व्यापारादि आरम्भ छोड़ि चैत्यालयादि कार्यनिका अधिकारी होय सो कैसे बनै? ऐसे ही अन्यत्र जानना।
बहुरि जैसे पाकादिक औषधि पुष्टकारी है परन्तु ज्वरवान् ग्रहण करै तो महादोष उपजै । तैसे ऊँचा धर्म बहुत भला है परन्तु अपने विकारभाव दूरि न होय अर ऊँचा धर्म ग्रहै तो महादोष उपजे। यहाँ उदाहरण-जैसे अपना अशुभविकार भी न छूट्या अर निर्विकल्प दशाको अंगीकार करै तो उल्टा विकार बथै । बहुरि जैसे भोजनादि विषयनिविषै आसक्त होय अर आरम्भ त्यागादि धर्मको अंगीकार कर तो दोष ही उपजै। बहुरि जैसे व्यापारादि करनेका बेकार तो न छूटै अर त्यागका भेषरूप धर्म अंगीकार करै तो महादोष उपजै। ऐसे ही अन्यत्र जानना।
याही प्रकार और भी साँचा विचारतें उपदेशको यथार्थ जानि अंगीकार करना। बहुत विस्तार कहाँ ताईं कहिए। अपने सम्याज्ञान भए आपहीको यथार्थ भासै । उपदेश तो वचनात्मक है। बहुरि वचनकरि अनेक अर्थ युगपत् कहे जाते नाहीं । तात उपदेश तो एक ही अर्थकी मुख्यता लिए हो है। बहुरि जिस अर्थका जहाँ वर्णन है, तहाँ तिसहीकी मुख्यता है। दूसरे अर्थ की तहाँ ही मुख्यता करै तो दोऊ उपदेश दृढ़ न होय । तातें उपदेशविष एक अर्थको दृढ़ करै। परन्तु सर्व जिनमत का चिह्न स्याद्वाद है सो 'स्यात्' पदका अर्थ कथंचित है। तातै जो उपदेश होय ताको सर्वथा न जानि लेना। उपदेशका अर्थको जानि तहाँ इतना विचार करना, यह उपदेश किस प्रकार है, किस प्रयोजन लिए है, किस जीयको कार्यकारी है? इत्यादि विचारकरि तिसका यथार्थ अर्थ ग्रहण करै, पीछे अपनी दशा देखै, जो उपदेश जैसे आपको कार्यकारी होय तिसको तैसे आप अंगीकार करै अर जो उपदेश जानने योग्य ही होय तो ताको यथार्थ जानि लै । ऐसे उपदेश के फलको पादै।
यहाँ कोई कहे- जो तुच्छ बुद्धि इतना विचार न कर सकै सो कहा करै?
ताका उत्तर- जैसे व्यापारी अपनी बुद्धिके अनुसारि जिसमें समझै सो थोरा वा बहुत व्यापार करै परन्तु नफा टोटाका ज्ञान तो अवश्य चाहिए। तैसे विवेकी अपनी बुद्धिके अनुसारि जिसमें समझै सो थोरा वा बहुत उपदेशको ग्रहै परन्तु मुझको यहु कार्यकारी है, यह कार्यकारी नाही- इतना तो ज्ञान अवश्य चाहिए। सो कार्य तो इतना है- यथार्थ श्रद्धानज्ञानकरि रागादि घटावना। सो यहु कार्य अपने सथै, सोई उपदेशका प्रयोजन ग्रहै। विशेष ज्ञान न होय तो प्रयोजनको तो मूल नाही, यह तो सावधानी अवश्य चाहिए। जिसमें अपने हितकी हानि होय, तैसे उपदेशका अर्थ समझना योग्य नाहीं। या प्रकार स्याद्वाददृष्टि लिए जैनशास्त्रानका अभ्यास किए अपना कल्याण हो है।
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आधा अथिकार-२५६
यहाँ कोई प्रश्न करे- जहाँ अन्य-अन्य प्रकार सम्भवै, तहाँ तो स्याद्वाद सम्भये । बहुरि एक ही प्रकारकरि शास्त्रनिविषै परस्पर विरुद्ध भासै तहाँ कहा करिए? जैसे प्रथमानुयोगविषै एक तीर्थंकरकी साथि हजारों मुक्ति गए बताए । करणानुयोगविष छह महीना आठ समयविषै छहसै आट जीव मुक्ति जाय- ऐसा नियम किया। प्रथमानुयोगविषै ऐसा कथन किया-देव देवांगना उपजि पीछे मरि साथ ही मनुष्यादि पर्यायविषै उपजै; करणानुयोगवि देवका सागरों प्रमाण, देवांगनाका पल्यों प्रमाण आयु कह्या । इत्यादि विधि कैसे मिले?
ताका उत्तर- करणानुयोगवि कथन है, सो तो तारतम्य लिए है, अन्य अनुयोगविषै कथन प्रयोजन अनुसार है। ना करगानुयोगका कथन तो जैसे किया तसे ही है। औरनिका कथनकी जैसे विधि मिलें, तैसे मिलाय लेनी हजारों मुनि तीर्थकरकी साथि मुक्त गए वताए, तहाँ बहु जानना-एक ही काल इतने मुक्ति गए नाहीं । जहाँ तीर्थकर गमनादि क्रिया मेटि स्थिर भए, तहाँ तिनके साथ इतने मुनि तिष्ठे, बहुरि मुक्ति आगे-पीछे गए। ऐसे प्रथमानुयोग करणानुयोगका विरोध दूरि हो है; बहुर देव-देवांगना साथि उपजै; पीछे देवांगना चयकर बीच में अन्य पाय धरै, तिनका प्रयोजन न जानि कथन न किया। पीछे वह साथि मनुष्य पर्यायविषै उपजै, ऐसे विधि मिलाए बिरोध दृरि हो है। ऐसे ही अन्यत्र विधि मिलाय लेनी ।
बहुरि प्रश्न जो ऐसे कधननिदिप भी कोई प्रकार विधि मिलै परन्तु कहीं नेमिनाथ स्वामीका सौरीपुरविषै, कहीं द्वारावतीवि जन्म कया, रामचन्द्रादिककी कथा अन्य अन्य प्रकार लिखी इत्यादि। एकेन्द्रियादिक को कहीं सासादन गुणस्थान लिख्या, कहीं न लिख्या इत्यादि इन कथननिकी विधि कैसे मिले?
ताका उत्तर- ऐसे विरोथ लिए कथन कानदोष भए हैं। इस कालविषै प्रत्यक्ष ज्ञानी वा बहुश्रुतनिका तो अभाव भया अर स्तोकबुद्धि ग्रन्थ करने के अधिकारी भए । तिनके भ्रमतें कोई अर्थ अन्यथा भासै ताको तैसे लिखै अथवा इस कालविषै भी कषायो भए हैं सो तिनने कोई कारण पाय अन्यथा कथन लिख्या है। ऐसे अन्यथा कथन भया, ताल जैनशास्त्रनिविर्षे विरोध भासने लागा। जहाँ विरोष भासै तहाँ इतना करना कि इस कथन करनेवाले बहुत प्रमाणीक हैं कि इस कथन करने वाले बहुत प्रमाणीक हैं। ऐसा विचारकरि बड़े आचार्यादिकनिका कह्या कथन प्रमाण करना। बहुरि जिनमतके बहुत शास्त्र हैं तिनकी आम्नाय मिलावनी। जो परम्पराआम्नायतें मिले, सो कथन प्रमाण करना। ऐसे विचार किए भी सत्य- असत्यका निर्णय न होय सकै तो जैसे केवलीको भास्या है तैसे प्रमाण है, ऐसे मानि लेना। जाते देवादिकका वा तत्त्वनिका निर्धार भए बिना तो मोक्षमार्ग होय नाहीं। तिनिका तो निर्धार भी होय सके है, सो कोई इनका स्वरूप विरुद्ध कहै तो आपहीको भासि जाय । बहुरि अन्य कथनका निर्धार न होय वा संशयादि रहै वा अन्यथा भी जानपना होय जाय अर केवलीका कह्या प्रमाण है ऐसा श्रद्धान रहै तो मोक्षमार्गविषै विघ्न नाहीं, ऐसा जानना।
यहाँ कोई तर्क करे- जैसे नाना प्रकार कथन जिनमतविष कह्या, तैसे अन्यमतविषै भी कथन पाइए है। सो तुम्हारे मतके कथनका तो तुम जिस तिस प्रकार स्थापन किया, अन्यमतविष ऐसे कथनको तुम दोष लगावो हो, सो यहु तुम्हारे रागद्वेष है।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२६०
ताका समाधान- कथन तो नाना प्रकार होय अर प्रयोजन एकहीको पोषै तो कोई दोष है नाहीं। अर कहीं कोई प्रयोजन पोषै, कहीं कोई प्रयोजन पोषै तो दोष ही है। सो जिनमतविषै तो एक प्रयोजन रागादि मेटने का है, सो कहीं बहुत रागादि छुड़ाय थोड़ा रागादि करावनेका प्रयोजन पोष्या है, कहीं सर्व रागादि मिटावने का प्रयोजन पोष्या है परन्तु रागादि बधावने का प्रयोजन कहीं भी नाहीं तातै जिनमत का कथन सर्व निर्दोष है। अर अन्यमतविषै कहीं रागादि मिटावने का प्रयोजन लिए कथन करै, कहीं रागादि बधावने का प्रयोजन लिए कथन करे, ऐसे ही और भी आयोजन की विनता तिः कथन करै हैं तातै अन्यमतका कथन सदोष है। लोकविषै भी एक प्रयोजन को पोषतै नाना वचन कहै, ताको प्रमाणीक कहिए है अर प्रयोजन और-और पोषती बातें करै, ताको बावला कहिए है। बहुरि जिनमतविषै नाना प्रकार कथन है सो जुदीजुदी अपेक्षा लिए है, तहाँ दोष नाहीं। अन्यमतविष एक ही अपेक्षा लिए अन्य-अन्य कथन करै तहाँ दोष है। जैसे जिनदेवके वीतरागभाव है अर समवसरणादि विभूति भी पाइए है, तहाँ विरोध नाहीं । समवसरणादि विभूति की रचना इन्द्रादिक करै हैं, इनकै तिसविषै रागादिक नाहीं, तातें दोऊ बात सम्भवै हैं। अर अन्यमतविष ईश्वरको साक्षीभूत वीतराग भी कहै अर तिसहीकरि किए काम-क्रोधादि भाव निरूपण करे, सो एक आत्मा ही के वीतरागपनो अर काम-क्रोधादि भाव कैसे सम्भवै? ऐसे ही अन्यत्र जानना।
बहुरि कालदोषः जिनमतविपै एकही प्रकारकरि कोई कथन विरुद्ध लिख्या है। सो यहु तुच्छ बुद्धीनिकी भूलि है, किछू मतविणे दोष नाहीं। सो भी जिनमत का अतिशय इतना है कि प्रमाणविरुद्ध कथन कोई कर सके नाहीं। कहीं सौरीपुरविषै कहीं द्वारावतीविषै नेमिनाथस्वामीका जन्म लिख्या है, सो कटै ही होहु परन्तु नगरविषे जन्म होना प्रमाणविरुद्ध नाहीं। अब भी होता दीसे है।
आगमाभ्यास का उपदेश __बहुरि अन्यमतविषै सर्वज्ञादिक यथार्थ ज्ञानी के किये ग्रन्थ बतावै, बहुरि तिनिविषै परस्पर विरुद्ध भासै । कहीं तो बालब्रह्मचारी की प्रशंसा करै, कहीं कहैं "पुत्र बिना गति ही होय नाही" सो दोऊ साँचा कैसे होय। सो ऐसे कथन तहाँ बहुत पाइए हैं। बहुरि प्रमाणविरुद्ध कथन तिनविष पाइए है। जैसे वीर्य मुखविर्ष पड़नेरौं मछलीके पुत्र हुवो, सो ऐसे अबार काहूकै होता दीसे नाही, अनुमानते मिले नाहीं। सो ऐसे भी कथन बहुत पाइए हैं। सो यहाँ सर्वज्ञादिक की भूलि मानिए सो तो वे कैसे भूलै अर विरुद्ध कथन मानने में आवे नाहीं, तातै तिनके मतविषै दोष टहराइए है। ऐसा जानि एक जिनमत ही का उपदेश ग्रहण करने योग्य है।
तहाँ प्रथमानुयोगादिक का अभ्यास करना। तहाँ पहिले याका अभ्यास करना, पीछे याका करना, ऐसा नियम नाहीं।' अपने परिणामनिकी अवस्था देखि जिसके अभ्यासतें अपने धर्मविषै प्रवृत्ति होय, तिसही का अभ्यास करना। अथवा कदाचित् किसी शास्त्र का अभ्यास करै, कदाचित् किसी शास्त्र का अभ्यास
१. पूजा के अन्त में बोले जाने वाले शान्तिपाठ में चारों अनुयोगों का क्रम इस तरह बताया है- प्रथम करणं चरणं द्रव्ये
नमः यह क्रमपद परम्परा से चल रहा है और यह क्रम स्वाध्याय के लिए अनुकरणीय है।
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आठवाँ अधिकार-२६१
करै। बहुरि जैसे रोजनामाविषै तो अनेक रकम जहाँ तहाँ लिखी हैं, तिनिको खाते में ठीक खतावै तो लेना-देना का निश्चय होय तैसे शास्त्रनिविषै तो अनेक प्रकार उपदेश जहाँ-तहाँ दिया है, ताको सम्यग्ज्ञानविषै यथार्थ प्रयोजन लिए पहिचाने तो हित-अहित का निश्चय होय। तातै स्यात्पद की सापेक्ष लिए सम्यग्ज्ञानकरि जे जीव जिनवचननिविषै रमै हैं, ते जीव शीघ्र ही शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त हो हैं। मोक्षमागविर्ष पहिला उपाय आगमज्ञान कया है। आगमज्ञान बिना और धर्म का साधन होय सकै नाहीं। तातें तुमको भी यथार्थ बुद्धिकरि आगम अभ्यास करना। तुम्हारा कल्याण होगा।
इति श्रीमोक्षमार्गप्रकाशक नाम शास्त्रविषै उपदेशस्वरूप
प्रतिपादक नामा आठवाँ अधिकार सम्पूर्ण भया ।
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म नवमा अधिकार
. . . .. .. मोक्षमार्ग का स्वरूप : ...
दोहा शिवउपाय करते प्रथम, कारन मंगलरूप ।
विघनविनाशक सुखकरन, नमी शुद्ध शिवभूप ।।१।। अथ मोक्षमार्ग का स्वरूप कहिए है- पहिलै मोक्षमार्ग के प्रतिपक्षी मिथ्यादर्शनादिक तिनिका स्वरूप दिखाया। तिनिको तो दुःख रूप दुःख का कारन जानि हेय मानि तिनिका त्याग करना। बहुरि बीच में उपदेश का स्वरूप दिखाया। ताको जानि उपदेशको यथार्थ समझना। अब मोक्ष के मार्ग सम्यग्दर्शनादिक तिनिका स्वरूप दिखाइए है। इनिको सुखरूप सुखका कारण जानि उपादेय मानि अंगीकार करना। जाते आत्मा का हित मोक्ष ही है। तिसहीका उपाय आत्माको कर्तव्य है। तारौं इसहीका उपदेश यहाँ दीजिए है। तहाँ आत्माका हित मोक्ष ही है और नाहीं. ऐसा निश्चय कैसे होय सो कहिए है
आत्मा का हित एक मोक्ष ही है आत्माके नाना प्रकार गुणपर्यायरूप अवस्था पाइए है। तिनविषै और तो कोई अवस्था होडू, किछु आत्माका बिगाड़ सुधार नाहीं। एक दुःख सुख अवस्थातें बिगाड़ सुधार है। सो इहाँ किछु हेतु दृष्टांत चाहिए नाहीं। प्रत्यक्ष ऐसे ही प्रतिभासै है।
लोकविर्ष जेते आत्मा हैं, तिनिकै एक उपाय यह पाईए है--दुःख न होय, सुख ही होय । बहुरि अन्य उपाय भी जेते करै हैं, तेते एक इस ही प्रयोजन लिये करै हैं, दूसरा प्रयोजन नाहीं। जिनके 'निमित्तते' दुःख होता जाने, तिनिको दूर करने का उपाय करै हैं अर जिनके निमित्ततें सुख होता जानें, तिनिके होने का उपाय करे हैं। बहुरि संकोच विस्तार आदि अवस्था भी आत्माहीकै हो है। वा अनेक परद्रव्यनिका भी संयोग मिले है परन्तु जिनकरि सुख-दुःख होता न जाने, तिनके दूर करने का वा होने का कुछ भी उपाय कोऊ करै नाहीं । सो इहाँ आत्मद्रव्यका ऐसा ही स्वभाव जानना। और तो सर्व अवस्थाको सहि सकै, एक दुःखको सह सकता नाहीं। परवश दुःख होय तो बहु कहा करै ताको भोगवै परन्तु स्ववशपने तो किंचित् भी दुःखको न सहै। अर संकोच विस्तारादि अवस्था जैसी होय तैसी होहु, तिनिको स्ववशपने भी भोगवै, सो स्वभावविर्ष
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नवमा अधिकार - २६३
तर्क नाहीं । आत्माका ऐसा ही स्वभाव जानना। देखो, दुःखी होय तब सूता चाहै, सो सोवने में ज्ञानादिक मरने में अपना मन्द हो जाय है परन्तु जड़ सरिखा भी होय दुःखको दूरि किया चाहे है वा मूआ चाहे । नाश माने है परन्तु अपना भी अस्तित्व खोय दुःख दूर किया चाहे है। तातै एक दुःखरूप पर्यायका अभाव करना ही याका कर्तव्य है । बहुरि दुःख न होय सो ही सुख है। जातैं आकुलतालक्षण लिए दुःख तिसका अभाव सोई निराकुल लक्षण सुख है। सो यहु भी प्रत्यक्ष भासै है । बाह्य कोई सामग्री का संयोग मिलो, जाकै अंतरंगविषे आकुलता है सो दुःखी ही है । जाकै आकुलता नाहीं सो सुखी है। बहुरि आकुलता हो है, सो रागादिक कषायभाव भये हो है । जातें रागादिभावनिकरि यहु तो द्रव्यनिकों और भाँति परिणमाया चाहै अर वे द्रव्य और भाँति परिणमें, तब याकै आकुलता होय तहाँ के तो आपकै रागादिक दृरि होय, कै आप चाहै तैसे ही सर्व द्रव्य परिणमै तो आकुलता मिटै। सो सर्वद्रव्य तो याके आधीन नाहीं । कदाचित् कोई द्रव्य जैसी याकी इच्छा होय तैसे ही परिणमै, तो भी याकी सर्वथा आकुलता दूरि न होय । सर्व कार्य चाका चाह्या ही होय, अन्यथा न होय, तब यहु निराकुल रहे। सो यहु तो होय ही सकै नाहीं । जातें कोई द्रव्यका परिणमन कोई द्रव्यके आधीन नाहीं तातें अपने रागादि भाव दूरि भए निराकुलता होय सो यहु कार्य बनि सके है। जातै रागादिक भाव आत्माका स्वभाव भाव तो है नाहीं, उपाधिकभाव हैं, परनिमित्ततै भए हैं, सो निमित्त मोहकर्मका उदय है। ताका अभाव भए सर्व रागादिक विलय होय जांय, तब आकुलता नाश भए दुःख दूरि होय सुखकी प्राप्ति होय । तातें मोहकर्मका नाश हितकारी है।
बहुरि तिस आकुलताको सहकारी कारण ज्ञानावर्णादिकका उदय है। ज्ञानावर्ण दर्शनावर्णके उदयतें ज्ञानदर्शन सम्पूर्ण न प्रगटै, तातें याकै देखने जाननेकी आकुलता होय अथवा यथार्थ सम्पूर्ण वस्तुका स्वभाव न जाने, तब रागादिरूप होय प्रवर्ते, तहाँ आकुलता होय ।
बहुरि अंतरायके उदयतें इच्छानुसार दानादि कार्य न बने, तब आकुलता होय । इनिका उदय है, सो मोहका उदय होते आकुलताको सहकारी कारण है। मोहके उदयका नाश भए इनिका बल नाहीं । अंतर्मुहूर्त्तकालकर आप आप नाशको प्राप्त होय । परन्तु सहकारी कारण भी दूरि होय जाय, तब प्रगट रूप निराकुल दशा भासे । तहाँ केवलज्ञानी भगवान अनन्तसुखरूप दशाको प्राप्त कहिए ।
बहुरि अघाति कर्मनिका उदयके निमित्त शरीरादिकका संयोग हो है, सो मोहकर्म का उदय होत शरीरादिकका संयोग आकुलताको बाह्य सहकारी कारण है। अंतरंग मोहका उदयतें रागादिक होय अर बाह्य अघाति कर्मनिके उदय रागादिकको कारण शरीरादिकका संयोग होय, तब आकुलता उपजै है । बहुरि मोहका उदय नाश भए भी अघातिकर्मका उदय रहे है, सो किछू भी आकुलता उपजाय सकै नाहीं । परन्तु पूर्वी आकुलताका सहकारी कारण था, तातैं अघाति कर्मनिका भी नाश आत्माको इष्ट ही है। सो केवलीकै इनिके होते किछु दुःख नाहीं तातैं इनिके नाशका उद्यम भी नाहीं । परन्तु मोहका नाश भए ए कर्म आप आप थोरे ही कालमें सर्व नाशको प्राप्त होय जाय हैं। ऐसे सर्व कर्मका नाश होना आत्माका हित है। बहुरि सर्व कर्मके नाशहीका नाम मोक्ष है। सातैं आत्माका हित एक मोक्ष ही है और किछू नाहीं, ऐसा निश्चय करना ।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२६४
इहाँ कोऊ कहै- संसार दशाविषै पुण्यकर्मका उदय होते भी. जीव सुखी हो है, ताः केवल मोक्ष ही हित है, ऐसा काहेको कहिए?
सांसारिक सुख दुःख ही है ताका समाधान- संसारदशाविषै सुख तो सर्वथा है ही नाही, दुःख ही है। परन्तु काहूके कबहूँ बहुत दुःख हो है, काहूकै कबहूँ थोरा दुःख हो है। सो पूर्वे बहुत दुःख था वा अन्य जीवनिकै बहुत दुःख पाइए है, तिस अपेक्षातै थोरे दुःखवालेको सुखी कहिए। बहुरि तिस ही अभिप्रायतै थोरे दुःखवाला आपको सुखी मानै है। परमार्थतें सुख है नाहीं। बहुरि जो थोरा भी दुःख सदाकाल रहै है, तो वाका भी हित ठहराइए, सो भी नाहीं । थोरे काल ही पुण्यका उदय रहै, तहाँ थोरा दुःख होय पोछै बहुत दुःख होइ जाय । तातै संसार अवस्था हितरूप नाहीं । जैसे काहूकै विषम ज्वर है, ताकै कबहू असाता बहुत हो है, कबहू थोरी हो है ।थोरी असाता होय, तब वह आपको नीका माने लोक भी कहैं-नीका है। परन्तु परमार्थत यावत् ज्वर का सद्भाव है, तावत् नीका नाहीं है। तैसे संसारीकै मोहका उदय है। ताकै कबहू आकुलता बहुत हो है, कबहू थोरी हो है, थोरी आकुलता होय तब तद अपको मुम्ही पाने लोग भी कहैं सुम्बी है ! परन्तु परमार्थत यावत् मोहका सद्भाव है, तावत् सुख नाहीं। बहुरि सुनि, संसार दशाविषै भी आकुलता घटे सुख नाम पावै है। आकुलता बधे दुःख नाम पावै है। किछू बाह्य सामग्रीतें सुख दुःख नाहीं। जैसे काहू दरिद्रीकै किंचित् धनकी प्राप्ति भई, तहाँ किछू आकुलता घटनेते दाको सुखी कहिए अर वह भी आपको सुखी माने। बहुरि काहू बहुत धनवानकै किंचित् थनकी हानि भई, तहाँ किछू आकुलता बधनेत वाको दुःखी कहिए अर वह भी आपको दुःखी माने है। ऐसे ही सर्वत्र जानना।
बहुरि आकुलता घटना-बधना भी बाह्य सामग्री के अनुसार नाही, कषाय भावनिके घटने-बधनेके अनुसार है।
विशेष : स्वयं पण्डित टोडरमलजी इसी ग्रन्थ के आठवें अधिकार में 'चरणानुयोग में दोषकल्पना का निराकरण' प्रकरण में लिखते हैं- "अथवा बाह्य पदार्थ का आश्रय पाय परिणाम होय सके है। तातै परिणाम मेटने के अर्थि बाह्य वस्तु का निषेध करना समयसारादि विषै कपा
है।
समयसार सदृश आध्यात्मिक ग्रन्थ में भी कहा है कि तत एव चाध्ययसानाश्रयभूतस्य बाझवस्तुनोऽत्यन्तप्रतिषेधः (कृतः)। हेतुप्रतिषेधेनैव हेतुमत् प्रतिषेयात् । अर्थ : इसीलिए रागादि की आश्रयभूत बाह्यवस्तु का अत्यन्त निषेध किया है-त्याग कराया है। क्योंकि कारण के निषेध से ही कार्य का निषेध हो जाता है। ( स.सा. २६५)
जैसे काहूकै थोरा धन है अर वाकै संतोष है, तो वाकै आकुलता-थोरी है। बहुरि काहूकै बहुत धन है अर वाकै तृष्णा है, तो वाकै आकुलता धनी है। बहुरि काहूको काहूने बहुत बुरा कह्या अर वाकै क्रोध
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नयमा अधिकार-२६५
न भया, तो वाकै आकुलता न हो है अर थोरी बातें कहे ही क्रोध होय आवै, तो याकै आकुलता धनी हो है। बहुरि जैसे गउकै बछड़े किछू भी प्रयोजन नाहीं परन्तु मोह बहुत, तातै वाकी रक्षा करनेकी बहुत आकुलता हो है। बहुरि सुभटके शरीरादिकतै घने कार्य सधै हैं परन्तु रणविषै मानादिककरि शरीरादिकते मोह घटि जाय, तब मरनेकी भी थोरी आकुलता हो है। तातै ऐसा जानना- संसार अवस्थाविषै भी आकुलता घटने बधने ही तैं सुख-दुःख मानिए है। बहुरि आकुलताका घटना बधना रागादिक कषाय घटने बधने के अनुसार है। बहुरि परद्रव्यरूप बाह्य सामग्रीके अनुसारि सुख दुःख नाहीं । कषायतें याकै इच्छा उपजै अर याकी इच्छा अनुसारि बाह्य सामग्री मिलै, तब याका किछू कषाय उपशमनेते आकुलता घटै, तब सुख मानै अर इच्छानुसारि सामग्री न मिले, तब कषाय बधनेते आकुलता बथै, तब दुःख माने। सो है तो ऐसे अर यह जानै- मोकू परद्रव्यके निमित्ततें सुख-दुःख हो है। सो ऐसा जानना भ्रम ही है। ता" इहाँ ऐसा विचार करना, जो संसार अवस्थाविषे किंचित् कषाय घटे सुख मानिए, ताको हित जानिए, तो जहाँ सर्वथा कषाय दूर भए वा कषायके कारण दूरि भए परम निराकुलता होनेकरि अनन्तसुख पाइए ऐसी मोक्षअवस्था को कैसे हित न मानिए? बहुर संभार अदायादिौ न पत्तो पावै, तो भी के तो विषयसामग्री मिलावनेकी आकुलता होय, के विषय-सेवनकी आकुलता होय, के अपने और कोई क्रोधादि कषाय इच्छा उपजे, ताको पूरण करनेकी आकुलता होय, कदाचित् सर्वथा निराकुल होय सके नाही, अभिप्रायविषै तो अनेक प्रकार आकुलता बनी ही रहै। अर बाह्य कोई आकुलता मेटने के उपाय करें, सो प्रथम तो कार्य सिद्ध होय नाहीं अर जो भवितव्य योग” वह कार्य सिद्ध होय जाय, तो तत्काल और आकुलता मेटनेका उपायविर्ष लागे। ऐसे आकुलता मेटनेकी आकुलता निरन्तर रह्या करै। जो ऐसी आकुलता न रहै तो नये-नये विषयसेवनादि कार्यनिविषे काहेको प्रवर्ते है? तात संसार अवस्थाविषै पुण्यका उदयः इन्द्र अहमिन्द्रादि पद पावै तो भी निराकुलता न होय, दुःखी ही रहै। तातै संसार अवस्था हितकारी नाहीं।
बहुरि मोक्षअवस्थाविषै कोई ही प्रकारकी आकुलता रही नाहीं तातै आकुलता मेटनेका उपाय करने का भी प्रयोजन नाहीं । सदा काल शांतरसकरि सुखी रहै । तातें मोक्ष अवस्थाही हितकारी है। पूर्वे भी संसार अवस्थाका दुःखका अर मोक्ष अवस्थाका सुखका विशेष वर्णन किया है, सो इसही प्रयोजनके अर्थि किया है। ताको भी विचारि मोक्षको हितरूप जानि मोक्षका उपाय करना, सर्व उपदेशका तात्पर्य इतना है।
इहाँ प्रश्न- जो मोक्षका उपाय काललब्धि आए भवितव्यानुसारि बने है कि मोहादिकका उपशमादि भए बने है कि अपने पुरुषार्थत उद्यम किए बने है, सो कहो। जो पहिले दोय कारण मिले बने है, तो हमको उपदेश काहेको दीजिए है अर पुरुषार्थत बने है, तो उपदेश सर्व सुनै, तिनविष कोई उपाय कर सकै, कोई न करि सकै सो कारण कहा?
मोक्षसाधन में पुरुषार्थ की मुख्यता ताका समायान- एककार्यहोनेविषे अनेक कारण मिले हैं। सो मोक्षका उपाय बने हैं। तहाँ तो पूर्वोक्त तीनों ही कारण मिले हैं अर न बने हैं, तहाँ तीनों ही कारण न मिले हैं। पूर्वोक्त तीन कारण कहे,
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२६६
तिनविषै काललब्धि वा होनहार तो किछु वस्तु नाहीं। जिस कालविषै कार्य बनै सोई काललब्धि अर जो कार्य मया सोई होनहार।
विशेष : इस कथन में पण्डितजी ने काललब्धि का सामान्य कथन किया है। विशेष की अपेक्षा इस वाक्य पर सीधी पंडित मोतीचन्दजी व्याकरणाचार्य { अष्टसहस्री व समयसार के महाटीकाकार } द्वारा प्रवर्णित समीक्षा यहाँ उद्धृत की जाती है
" काललब्धि जिनागम का पारिभाषिक शब्द है। उसका अर्थ जानने के लिए निम्नलिखित उद्धरण प्रस्तुत हैं। देखिए- (१) तत्र काललब्धिस्तावत् कर्माविष्ट आत्मा भव्यः कालेऽर्द्धपुद्गलपरिवर्तनाख्येऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्यो भवति। इयम् एका काललब्धिः (२) अपरा कर्मस्थितिका काललब्धिः । उत्कृष्ट-स्थितिकेषु कर्मसु जघन्यास्थतिकेषु च प्रथमसम्यक्त्वलाभो न भवति । क्व तर्हि भवति? अन्तःकोटाकोटिसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेसु विशुद्धिपरिणामवशात् सत्कर्मसु च ततः संख्येयसागरोपमसहनोनायामन्तः कोटाकोटिसागरोपमस्थितौ स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्चयोग्यो भवति (३) अपरा काललब्धिर्भवापेक्षया। भव्यः पञ्चेन्द्रियः संज्ञीपर्याप्तकः सर्वविशुद्धः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति।
अर्थ- काललब्धि का स्वरूप कहा जाता है-(१) कर्मबद्ध भव्यात्मा अर्द्धपुद्गलपरिवर्तनसंज्ञक काल शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व-ग्रहण के योग्य होता है, अधिक काल शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण के योग्य नहीं होता। इस प्रकार यह एक काललब्धि हुई।(२) दूसरी काललब्धि कर्मस्थितिक है- कर्म उत्कृष्ट स्थिति वाला और जघन्य स्थिति वाला होने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती। यदि ऐसा है तो वह कब होती है?
__ अन्तःकोटाकोटी सागरोपम स्थिति वाले कर्म जब होते हैं और जब विशुद्धि परिणाम के कारण संख्यात सागरोपमसहस्र कम अन्तःकोटाकोटीसागरोपम स्थिति वाले कर दिये जाते हैं तब जीव प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है।
(३) भव की अपेक्षा से अन्य काललब्धि-भव्य, पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्तक और सर्वविशुद्ध जीव प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति करता है। इस प्रकार तीन काललब्धियाँ होने पर सम्यक्त्व मात्र या सम्यक्त्व व संयम दोनों हो सकते हैं, अन्यथा नहीं।
सार- ऊपर जो सर्वार्थसिद्धि २/३ तथा तत्त्वार्थराजवार्तिक २/३/२ तथा अमितगति पंचसंग्रह संस्कृत १/२८६ तथा अनगार धर्मामृत टीका २/४६ का सार रूप संस्कृत प्रकरण देकर अर्थ किया है उसमें लिखा काललब्धि का स्वरूप उचित है। अतः मोक्षमार्गप्रकाशक का कथन सामान्य कथन है।
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नवमा अथिकार-२६७
बहुरि जो कर्मका उपशमादिक है, सो पुद्गल की शक्ति है, : आमा कार्य हा नाहीं। बहुरि पुरुषार्थत उद्यम करिए है, सो यहु आत्माका कार्य है। तातें आत्माको पुरुषार्थकरि उद्यम करनेका उपदेश दीजिए है। तहाँ यहु आत्मा जिस कारणनै कार्यसिद्धि अवश्य होय, तिस कारणरूप उद्यम करे, तहाँ तो अन्य कारण मिलै ही मिलै अर कार्यकी भी सिद्धि होय ही होय । बहुरि जिस कारण कार्य की सिद्धि होय अथवा नाहीं भी होय, तिस कारणरूप उद्यम करे, तहाँ अन्य कारणं मिले तो कार्यसिद्धि होय, न मिलै तो सिद्धि न होय । सो जिनमतविषै जो मोक्षका उपाय कह्या है, सो इसते मोक्ष होय ही होय। तातें जो जीव पुरुषार्थकरि जिनेश्वरका उपदेश अनुसार मोक्ष का उपाय करै है, ताकै काललब्धि वा होनहार भी भया अर कर्मका उपशमादि भया है तो यह ऐसा उपाय करे है। तातें जो पुरुषार्धकरि मोक्षका उपाय करै है, ताकै सर्वकारण मिले हैं, ऐसा निश्चय करना अर वाकै अयश्य मोक्षकी प्राप्ति हो है बहुरि जो जीव पुरुषार्थकरि मोक्षका उपाय न करे, साकै काललब्धि वा होनहार भी नाहीं अर कर्मका उपशमादि न भया है तो यह उपाय न करै है। तातै जो पुरुषार्थकरि मोक्षका उपाय न करै है, ताकै कोई कारण मिले नाहीं ऐसा निश्चय करना अर वाकै मोक्षकी प्राप्ति न हो है। बहुरि तू कहै है- उपदेश तो सर्व सुने है, कोई मोक्ष का उपाय करि सकै, कोई न करि सके, सो कारण कहा? सो कारण यहु ही है- जो उपदेश सुनि पुरुषार्थ करै है, सो मोषका उपाय करि सके है अर पुरुषार्थ न करै है सो मोक्षका उपाय न करि सके है। उपदेश तो शिक्षा मात्र है, फल पुरुषार्थ करै तैसा लागै।
द्रव्यलिंगी के मोक्षोपयोगी पुरुषार्थ का अभाव बहुरि प्रश्न- जो द्रव्यलिंगी मुनि मोक्षके अर्थि गृहस्थपनो छोड़ि तपश्चरणादि करै है, तहाँ पुरुषार्थ तो किया, कार्य सिद्ध न भया, तातै पुरुषार्थ किए तो किछू सिद्धि नाहीं।
ताका समाधान- अन्यथा पुरुषार्थकरि फल चाहै, तो कैसे सिद्धि होय? तपश्चरणादि व्यवहार-साधनविष अनुरागी होय प्रवर्त, ताका फल शास्त्रविषै तो शुभबंध कह्या अर यहु तिसतै मोक्ष चाहै है, तो कैसे होय। यहु तो भ्रम है।
बहुरि प्रश्न- जो भ्रमका भी तो कारण कर्म ही है, पुरुषार्थ कहा करे?
ताका उत्तर- सांचा उपदेशनै निर्णय किए भ्रम दूरि हो है ।सो ऐसा पुरुषार्थ न कर है, तिसहीत भ्रम रहै है। निर्णय करनेका पुरुषार्थ करे, तो भ्रमका कारण मोहकर्म ताका भी उपशमादि होय, तब भ्रम दूरि होय जाय । जाते निर्णय करतां परिणामनिकी विशुद्धता होय, तिसत मोहका स्थिति अनुभाग घटै है।
बहुरि प्रश्न- जो निर्णय करनेविष उपयोग न लगावै है, ताका भी तो कारण कर्म है।
ताका समाधान- एकेन्द्रियादिककै विचार करने की शक्ति नाही, तिनकै तो कर्महीका कारण है। याकै तो ज्ञानावरणादिकका क्षयोपशम निर्णय करने की शक्ति भई। जहाँ उपयोग लगावै, तिसहीका निर्णय होय सके। परन्तु यह अन्य निर्णय करनेविष उपयोग लगादै, यहाँ उपयोग न लगावै। सो यह तो याहीक दोष है, कर्मका तो किछु प्रयोजन नाहीं।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२६८
__बहुरि प्रश्न-जो सम्यक्त्व चारित्रका घातक मोह है, ताका अभाव भए बिना मोक्षका उपाय कैसे
बनै?
ताका उत्तर- तत्त्वनिर्णय करनेविषै उपयोग न लगावै, सो तो याहीका दोष है। बहुरि पुरुषार्धकार तत्त्वनिर्णयविष उपयोग लगावै, तब स्वयमेव ही मोहका अभाव भए सम्यक्वादिरूप मोक्षके उपायका पुरुषार्थ बनै है। सो मुख्यपने तो तत्त्वनिर्णयविषै उपयोग लगावनेका पुरुषार्थ करना, बहुरि उपदेश भी दीजिए है सो इस ही पुरुषार्थ करावने के अर्थि दीजिए है बहुरि इस पुरुषार्थत मोक्षके उपायका पुरुषार्थ आपहीते सिद्ध होयगा । अर तत्त्वनिर्णय न करनेविषे कोई कर्म का दोष है नाही, तेरा ही दोष है। अर तू आप तो महन्त रह्या चाहै अर अपना दोष कर्मादिककै लगावै, सो जिन आज्ञा माने तो ऐसी अनीति सम्भव नाहीं। तोको विषय-कषायरूपही रहना है, तातें झूठ बोल है। मोक्षकी सांची अभिलाषा होय, तो ऐसी युक्ति काहेको बनावै। संसारीक कार्यनिविणे अपना पुरुषार्थत सिद्धि न होती जानै तौ भी पुरुषार्थकरि उद्यम किया करे, यहाँ पुरुषार्थ खोय बैठे। सो जानिए है, मोक्षको देखादेखी उत्कृष्ट कहै है। वाका स्वरूप पहचानि ताको हितरूप न जाने है। हित जानि ताका उद्यम बनै सो न करै, यहु असम्भव है।
द्रव्य और भाव कर्म की परम्परा में पुरुषार्थ के न होने का खण्डन
इहाँ प्रश्न- जो तुम कह्या सो सत्य, परन्तु द्रव्यकर्म के उदयतें भायकर्म होय, भावकर्मत द्रव्यकर्म का बंध होय, बहुरि ताके उदयते भावकर्म होय, ऐसे ही अनादित परम्परा है, तब मोक्ष का उपाय कैसे होय सकै?
ताका समाधान- कर्म का बंध वा उदय सदाकाल समान ही हुवा करै तो तो ऐसे ही है; परन्तु परिणामनिके निमित्तते पूर्वबद्ध कर्मका भी उत्कर्षण-अपकर्षण-संक्रमणादि होते तिनकी शक्ति हीन अधिक होय है तातै तिनका उदय भी मन्द तीन हो है। तिनके निमित्त" नवीन बंध भी मन्द तीव्र हो है । तातै संसारी जीवनिकै कर्मउदयके निमित्त करि कबहूँ ज्ञानादिक घने प्रगट हो हैं, कबहूँ थोरे प्रगट हो हैं। कबहूँ रागादिक मन्द हो हैं कबहूँ तीव्र हो है। ऐसे पलटनि हुवा करै है। तहाँ कदाचित् संझी पंचेन्द्रिय पर्याप्त पर्याय पाया, तब मनकरि विचार करने की शक्ति भई । बहुरि याकै कबहूँ तीव्र रागादिक होय, कबहूँ मन्द होय । तहाँ रागादिकका तीव्र उदय होते तो विषयकषायादिकके कार्यनिविणे ही प्रवृत्ति होय । बहुरि रागादिकका मन्द उदय होते बाह्य उपदेशादिकका निमित्त बनै अर आप पुरुषार्थकरि तिन उपदेशादिक विषै उपयोगको लगावै तो धर्मकार्यनिविषै प्रवृत्ति होय। अर निमित्त न बनै वा आप पुरुषार्थ न करे, तो अन्य कार्यनिविष ही प्रवत्त परन्तु मन्द रागादि लिए प्रवत्त, ऐसे अवसरविषे उपदेश कार्यकारी है। विचारशक्तिरहित एकेन्द्रियादिक हैं, तिनिकै तो उपदेश समझनेका ज्ञान ही नाहीं। अर तीव्ररागादिसहित जीवनिका उपदेशविर्ष उपयोग लागै नाहीं। तातें जो जीव विचारशक्तिसहित होय अर जिनकै रागादि मंद होय, तिनको उपदेशका निमित्त धर्मकी प्राप्ति होय जाय, तो ताका भला होय। बहुरि इस ही अवसरविषे पुरुषार्थ कार्यकारी है। एकेन्द्रियादिक तो धर्मकार्य करने को समर्थ ही नाहीं, कैसे पुरुषार्थ करै अर तीव्रकषायी पुरुषार्थ करै सो पाप
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नवमा अधिकार-२६८
ही का करै- धर्मकार्यका पुरुषार्थ होय सकै नाहीं। तातै विचारशक्तिसहित होय अर जिसके रागादिक मन्द होय, सो जीव पुरुषार्थकरि उपदेशादिकके निमित्त” तत्त्वनिर्णयादिविष उपयोग लगावै, तो याका उपयोग तहाँ लगे, तब याका भला होय । बहुरि इस अवसरविष भी तत्त्वनिर्णय करनेका पुरुषार्थ न करे, प्रमाद काल गमावै । के तो मन्दरागादि लिए विषयकषायनिके कार्यनिहीविष प्रवत्र्त, के व्यवहार धर्मकार्यनिविष प्रवत्त; तब अवसर तो जाता रहै, संसारहीविष प्रमण होय।
बहुरि इस अवसरविषै जे जीव पुरुषार्थकरि तत्त्वनिर्णय करने विषै उपयोग लगावनेका अभ्यास राखे, तिनिकै विशुद्धता बधे, ताकरि कर्मनिकी शक्ति हीन होय। कितेक कालविवे आपआप दर्शनमोहका उपशम होय तब याकै तत्त्वनिकी यथावत् प्रतीति आवै। सो याका तो कर्तव्य तत्त्वनिर्णयका अभ्यास ही है। इसहीत दर्शनमोहका उपशम सो स्वयमेव होय । यामें जीवका कर्तव्य किछू नाहीं । बहुरि ताको होते जीवकै स्वयमेव सम्यग्दर्शन होय । बहुरि सम्यग्दर्शन होते प्रधान तो यहु भया- मैं आत्मा हूँ , मुझको रागादिक न करने परन्तु चारित्रमोहके उदयते रागादिक हो । तहाँ तीव्र उदय होय, तब तो विषयादिविष प्रवर्ते है। अर मन्द उदय होय, तब अपने पुरुषार्थ धर्मकार्यनिविष वा वैराग्यादिभावनाविधै उपयोगको लगाव है ताके निमित्ततें चारित्रमोह मन्द होता जाय, ऐसे होते देशचारित्र वा सकलचारित्र अंगीकार करने का पुरुषार्थ प्रगट होय। बमुनि चाचित्रको प्रति अपना मुरुगाईगरि यति । पतिको बधावै, तहाँ विशुद्धता करि कर्मकी हीन शक्ति होय, तात विशुद्धता बध, ताकरि अधिक कर्मकी शक्ति हीन होय । ऐसे क्रमते मोहका नाश करै तब सर्वथा परिणाम विशुद्ध होय तिनकार ज्ञानावर्णादिका नाश होय तब केवलज्ञान प्रगट होय। तहाँ पीछे बिना उपाय अघाति कर्मका नाशकरि शुद्धसिद्धपदको पावै। ऐसे उपदेशका तो निमित्त बनै अर अपना पुरुषार्थ करे, तो कर्मका नाश होय।
बहुरि जब कर्मका उदय तीव्र होय, तब पुरुषार्थ न होय सके है। ऊपरले गुणस्थाननित भी गिर जाय है। तहाँ तो जैसा होनहार होय तैसा ही होप। परन्तु जहाँ मन्द उदय होय अर पुरुषार्थ झेय सके, तहों तो प्रमावी न होना-सावधान होय अपना कार्य करना। जैसे कोऊ पुरुष नदीका प्रवाहविषे पड्या बहै है, तहाँ पानीका जोर होय तब तो वाका पुरुषार्थ किछू नाहीं, उपदेश भी कार्यकारी नाहीं। और पानीका जोर थोरा होय, तब जो पुरुषार्थकरि निकसै तो निकसि आवै, तिसहीको निकसनेकी शिक्षा दीजिए है। अर न निकसै तो होले-होले बहै, पीछे पानीका जोर भए ब्रह्मा चल्या जाय। तैसे जीव संसारविष अम है, तहाँ कर्मनिका तीव्र उदय होय तब तो वाका पुरुषार्थ किछू नाही, उपदेश भी कार्यकारी नाहीं । अर कर्मका मन्द उदय होय, तब पुरुषार्थकरि मोक्षमार्गविषे प्रवर्ते तो मोक्ष पावै; तिसहीको मोक्षमार्ग का उपदेश दीजिए है। अर मोक्षमार्गविष न प्रवर्स तो किथित विशुद्धता पाय पीछे तीव्र उदय आएं निगोदादि पर्यायको पावै। ताते अवसर चूकना योग्य नाहीं। अब सर्व प्रकार अवसर आया है, ऐसा अवसर पावना कठिन है।तात श्रीगुरु दयालु होय मोक्षमार्गको उपदेशै, तिसविषे भव्य जीवनिको प्रवृत्ति करनी। अब मोक्षमार्ग का स्वरूप कहिए
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२७०
मोक्षमार्ग का स्वरूप जिनके निमित्ततें आत्मा अशुद्ध दशाको धारि दुःखी भया, ऐसे जो मोहादिक कर्म तिनिका सर्वथा नाश होते केवल आत्माकी जो सर्व प्रकार शुद्ध अवस्था का होना, सो मोक्ष है। ताका जो उपाय-कारण, सो मोक्षमार्ग जानना। सो कारण तो अनेक प्रकार हो हैं। कोई कारण तो ऐसे हो हैं, जाके भए बिना तो कार्य न होय अर जाके भए कार्य होय वा न भी होय। जैसे मुनिलिंग थारे बिना तो मोक्ष न होय अर मुनिलिंग धारे मोक्ष होय भी अर नाहीं भी होय। बहुरि केई कारण ऐसे हैं, जो मुख्यपने तो जाके भए कार्य होय अर काइके विना भए भी कार्यसिद्धि होय। जैसे अनशनादि बाझ तप का साधन किए मुख्यपने मोक्ष पाइए है, भरतादिकके बाम तप किए बिना ही भोक्षकी प्राप्ति भई।
विशेष पूज्य भरत ने सर्वप्रथम अर्ककीर्ति को राज्य दिया था फिर उपवास ग्रहण कर जिनदीक्षा-नग्न मुद्रा धारण की, सिर के केशों का लोच किया, जो कि उग्र तप है' (केशलोच मूलगुण के साथ-साथ कायक्लेश नामक बाह्यतप स्वरूप भी है), फिर हिंसादि पापों की निवृत्तिरूप पंव महाव्रत ग्रहण किये। फिर दृढ़ आसनपूर्वक ध्यान में विराजमान होकर समस्त विकल्प रहित हुए और अन्तर्मुहूर्त में ही मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त किया। फिर अन्तर्मुहूर्त बाद केवलज्ञान प्राप्त हुआ। फिर सब देशों में चिरकाल तक विहार किया। आयु के अन्त में योगनिरोध कर मोक्ष गये। परन्तु स्तोक काल (अन्तर्मुहूर्त) में ही केवलज्ञान हो जाने से महाव्रत, मूलगुण, समिति, संयम तथा उभयविध तप की लोक में प्रसिद्धि नहीं हुई। पर भैया! तपःकर्म का जघन्य काल तो अन्तर्मुहूर्त ही है।
किंच, भरत जी ने इस पर्याय में तो सूक्ष्मदृष्ट्या यह अल्पकालिक तथा अल्पतम बाह्य तप ही किया अतएव स्थूलतः “बाह्य तप बिना ही मुक्ति को गए" कहा जाता है। पर साथ ही साथ इसके पीछे भरतजी की पूर्व भव की साधना भी निहित है। भरतजी ने अपने कुछ भवों पूर्व की सिंह पर्याय में शिलातल पर शान्त भाव से बैठकर समाधि धारण की थी। उस सिंह ने • दिन तक आठ महोपवास रूप घोर तपश्चर्या की। फिर आयु के अन्त में परम शान्त भाव से देह-विसर्जन कर वह ईशान स्वर्ग में दिवाकरप्रभ देव हुआ था।
इस प्रकार बहिरंग तपों का सर्वथा अतिक्रमण करके तो कोई भी जीव मोक्ष नहीं जाता। बहिरंग तप भी साधक के किंचित् कथंचित् बन ही जाते हैं।
१. अ.आ. ६ पृष्ठ १२६ (जीवराज ग्रन्थमाला) तथा म.आ. २२२-२३ वी गाथा। २. मूलाधार प्रदीप ४/७५ ३. आदिपुराण पर्व ४७ श्लोक ३६३-६४-६५; ३८७-६८ तथा परमात्मप्रकाश २/५२ पृष्ठ १७३-७४ (राजचन्द्र
शास्त्रमाला) ४. धवल १३/१०६
५. आदिपुराण ८/२१ पृ. ३०१ (श्री महावीरजी प्रकाशन)
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ट्रव्यलिंग (नग्न मुनि बाना) धारण किये बिना तीन काल में न किसी को मुक्ति हुई है, न होगी (भावप्राभृत गा. ७०) अतः द्रलिंग भी मुक्ति में कारण माना गया है (भा. पा. गाथा. ७०)
भगवान महावीर के परम्परागत उपदेशों में उसे कारण कहा गया है।
जेण विणा जं ण होदि चेव तं तस्स कारणं (थयल १४/६०)
अर्थात् जिसके बिना जो नहीं हो वह उसका कारण है। ऐसा नहीं कि जिसके बिना जो नहीं हो तथा जिसके होने पर हो ही जाय; वही कारण है शास्त्रों में कारणों की विविध परिभाषाएँ बताई गई हैं; उनमें से एक को ग्रहण कर इतर को अमान्य करने वाला मिथ्यादृष्टि होता है। कहा भी है:- जिन भगवान की वाणी के एक अक्षर को भी जो अस्वीकार करता है-अमान्य करता है वह शेष सम्पूर्ण आगम को मानता हुआ भी मिथ्यादृष्टि है। भगवती आराधना ३६] यदि यह कहा जाय कि मात्र अंतरंग कारण से ही कार्य हो जाएगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि
“उपादानकारणं सहकारीकारणम् अपेक्षते" (स्व. स्तोत्र ६२ टीका)
अर्थ- उपादान कारण सहकारी कारण की अपेक्षा रखता है। न हि किंचित स्वस्मादेव जायते (न्यायदीपिका २/४/२७) अर्थ- कोई भी वस्तु अपने से ही पैदा नहीं होती, किन्तु अपने से भिन्न कारणों से पैदा होती है। इससे विपरीत मान्यता रखने पर अनेक दोष प्राप्त होंगे। {परीक्षामुख ६/६३ तथा जयथवल १/२६५} अतः हे भव्य पुरुषो! द्रव्यलिंग भी मोक्ष का कारग है- आवश्यक कारण है। इतना अवश्य है कि वह भावलिंग के साथ ही कार्य (मोक्ष) का सम्पादन करता है।
बहुरि केई कारण ऐसे हैं, जाके भए कार्यसिद्धि ही होय और जाके न भए सर्वथा कार्यसिद्धि न होय। जैसे सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की एकता भए तो मोक्ष होय ही होय, अर ताको न भए सर्वथा मोक्ष न होय। ऐसे ए कारण कहे, तिनविष अतिशयकरि नियमते मोक्ष का साधक जो सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र का एकीभाव, सो मोक्षमार्ग जानना। इन सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रनिविषै एक भी न होय तो मोक्षमार्ग न होय। सोई तत्त्वार्थसूत्रविष कह्या है
सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥१॥ इस सूत्र की टीकाविषे कह्या है- जो यहाँ “मोक्षमार्ग:" ऐसा एक वचन कमा ताका अर्थ यह हैजो तीनों मिले एक मोक्षमार्ग है। जुदे-जुदे तीन मार्ग नाहीं हैं।
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यहाँ प्रश्न- जो असंयतसम्यग्दृष्टी के तो चारित्र नाहीं, वाकै मोक्षमार्ग भया है कि न भया है।
ताका समाधान - मोक्षमार्ग याकै होसी, यहु तो नियम भया । तातै उपचारतें याकै मोक्षमार्ग भया भी कहिए। परमार्थतैं सम्यक्चारित्र भए ही मोक्षभार्ग हो है। जैसे कोई पुरुष के किसी नगर घालने का निश्चय भया तार्ते याको व्यवहारतें ऐसा भी कहिए " यहु तिस नगर को चल्या है", परमार्थतें मार्गविषै गमन किए ही चलना होसी । तैसे असंयतसम्यग्दृष्टी के वीतरागभावरूप मोक्षमार्ग का श्रद्धान भया, तातें वाको उपचारतें मोक्षमार्गी कहिए, परमार्थतें वीतरागभावरूप परिणमे ही मोक्षमार्ग होसी । बहुरि प्रवचनसार विषै भी तीनों की एकाग्रता भए ही मोक्षमार्ग का है, तातैं यह जानना तत्त्वश्रद्धान ज्ञान बिना तो रागादि घटाए मोक्षमार्ग नाहीं अर रागादि घटाए बिना तत्त्व श्रद्धानज्ञानतें भी मोक्षमार्ग नाहीं तीनों मिले साक्षात् मोक्षमार्ग हो है ।
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लक्षण और उसके दोष
अब इनका निर्देश कर लक्षण निर्देश अर परीक्षाद्वारकरि निरूपण कीजिए है। तहाँ 'सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र मोक्षका मार्ग है,' ऐसा नाम मात्र कथन सो तो 'निर्देश' जानना बहुरि अतिव्याप्ति अव्याप्ति असम्भवपनाकरि रहित होय अर जाकरि इनको पहिचानिए, सो 'लक्षण' जानना । ताका जो निर्देश कहिए, निरूपण सो 'लक्षण निर्देश' जानना। तहाँ जाको पहिचानना होय, ताका नाम लक्ष्य है उस बिना औरका नाम अलक्ष्य है। सो लक्ष्य था अलक्ष्य दोऊविषे पाइए, ऐसा लक्षण जहाँ कहिए तहाँ अतिव्याप्तिपनो जानना । जैसे आत्माका लक्षण 'अमूर्त्तत्व' कहा। सो 'अमूर्तत्व' लक्षण है, सो लक्ष्य जो है आत्मा तिसविषै भी पाइए अर अलक्ष्य जो हैं आकाशादिक तिनविषे भी पाइए है। तातैं यह 'अतिव्याप्त' लक्षण है । याकरि आत्मा पहिचाने आकाशादिक भी आत्मा होय जांय, यहु दोष लागे ।
बहुरि जो कोई लक्ष्यविषे तो होय अर कोई विषै न होय, ऐसा लक्ष्य का एकदेशविषै पाइए, ऐसा लक्षण जहाँ कहिए, तहाँ अव्याप्तिपनो जानना । जैसे आत्माका लक्षण केवलज्ञानादिक कहिए, सो केवलज्ञान कोई आत्माविषै तो पाइए, कोईविषै न पाइए, तातें यहु 'अव्याप्त' लक्षण है । याकरि आत्मा पहिचाने स्तोकज्ञानी आत्मा न होय, यहु दोष लागे ।
बहुरि जो लक्ष्यविषै पाइए ही नाहीं, ऐसा लक्षण जहाँ कहिए तहाँ असम्भवपना जानना । जैसे आत्माका लक्षण जड़पना कहिए सो प्रत्यक्षादि प्रमाणकरि यहु विरुद्ध है जाते यहु 'असम्भव' लक्षण है। याकरि आत्मा माने पुद्गलादिक भी आत्मा होय जाय। अर आत्मा है सो अनात्मा हो जाय, यहु दोष लागे ।
ऐसे अतिव्याप्त अव्याप्त असम्भव लक्षण होय सो लक्षणाभास है। बहुरि लक्ष्यविषै तो सर्वत्र पाइए अर अलक्ष्यविषै कहीं न पाइए सो सांचा लक्षण है। जैसे आत्माका स्वरूप चैतन्य है सो यहु लक्षण सर्व ही आत्माविषै तो पाइए है, अनात्माविषै कहीं न पाइए। तातें यहु सांचा लक्षण है । याकरि आत्मा माने आत्मा
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अनात्माका यथार्थ ज्ञान होय, किछु दोष लागे नाहीं। ऐसे लक्षणका स्वरूप उदाहरण मात्र कह्या। उसब सम्यग्दर्शनादिकका सांचा लक्षण कहिए है
सम्यग्दर्शन का सच्चा लक्षण विपरीताभिनिवेश रहित जीवादिक तत्त्वार्थश्रद्धान सो सम्यग्दर्शनका लक्षण है। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ए सात तत्त्वार्थ हैं। इनका जो श्रद्धान-ऐसे ही हैं, अन्यथा नाहीं; ऐसा प्रतीति भाव सो तत्त्वार्थ श्रद्धान है। बहुरि विपरीताभिनिवेश जो अन्यथा अभिप्राय ताकरि रहित सो सम्यग्दर्शन है। यहाँ विपरीत्ताभिनिवेशका निराकरण के अर्थि 'सम्यक्' पद कह्या है, जाते 'सम्यक्' ऐसा शब्द प्रशंसावाचक है। सो श्रद्धानविष विपरीताभिनिवेशका अभाव भए ही प्रशंसा सम्भवै है, ऐसा जानना।
यहाँ प्रश्न- जो 'तत्त्व' अर 'अर्थ' ए दोय पद कहे, तिनिका प्रयोजन कहा?
ताका समाधान-'तत्' शब्द है सो 'यत्' शब्दकी अपेक्षा लिये है। तातै जाका प्रकरण होय सो तत् कहिए अर जाका जो भाव कहिए स्वरूप सो तत्त्व जानना। जाते 'लस्य मावस्तत्त्वं' ऐसा तत्त्व शब्द का समास होय है ।बहुरि जो जानने में आवै ऐसा 'द्रव्य' वा 'गुण पर्याय' ताका नाम अर्थ है। बहुरि 'तत्त्वेन अर्थस्तत्त्वार्थः' तत्त्व कहिए अपना स्वरूप, ताकरि सहित पदार्थ तिनिका श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन है। यहाँ जो 'तत्त्व श्रद्धान' ही कहते तो जाका यह भाव (तत्त्व) है, ताका श्रद्धान विना केवल भावहीका श्रद्धान कार्यकारी नाहीं । बहुरि जो 'अर्थश्रद्धान' ही कहते तो भाव का श्रद्धान विना पदार्थ का श्रद्धान भी कार्यकारी नाहीं । जैसे कोईकै ज्ञान-दर्शनादिक वा वर्णादिकका तो श्रद्धान होय-यह जानपना है, यह श्वेतवर्ण है, इत्यादि प्रतीति हो है परन्तु ज्ञान दर्शन आत्माका स्वभाव है-सो मैं आत्मा हूँ, बहुरि वर्णादि पुद्गलका स्वभाव है, पुद्गल मोते भिन्न जुदा पदार्थ है-ऐसा पदार्थका श्रद्धान न होय तो भायका श्रद्धान कार्यकारी नाही। बहुरि जैसे 'मैं आत्मा हूँ' ऐसे श्रद्धान किया परन्तु आत्मा का स्वरूप जैसा है तैसा श्रद्धान न किया तो भावका श्रद्धान विना पदार्थका भी श्रद्धान कार्यकारी नाहीं। तातें तत्त्वकरि अर्थ का श्रद्धान हो है सोई कार्यकारी है। अथवा जीवादिकको तत्वसंज्ञा भी है अर अर्थ संज्ञा भी है तातै 'तस्वमेवार्थस्तत्त्वार्थः' जो तत्त्व सो ही अर्थ, तिनका श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन है। इस अर्थकरि कहीं तत्त्वश्रद्धानको सम्पग्दर्शन कहै. वा कहीं पदार्थ श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहै, तहाँ विरोध न जानना। ऐसे 'तत्त्व' और 'अर्थ' दोय पद कहने का प्रयोजन है।
तत्त्व सात ही क्यों हैं बहुरि प्रश्न- जो तत्त्वार्थ तो अनन्ते हैं। ते सामान्य अपेक्षाकरि जीव-अजीवविष सर्व गर्भित भए, ताते दोय ही कहने थे, के अनंते कहने थे। आम्रवादिक तो जीव-अजीव ही के विशेष हैं, इनको जुदा कहने का प्रयोजन कहा?
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२७५
ताका समाधान- जो यहाँ पदार्थ श्रद्धान करने का ही प्रयोजन होता तो सामान्यकरि वा विशेषकरि जैसे सर्व पदार्थनिका जानना होय तैसे ही कथन करते। सो तो यहाँ प्रयोजन है नाहीं। यहाँ तो मोक्ष का प्रयोजन है। सो जिन सामान्य वा विशेष भावनिका श्रद्धान किए मोक्ष होय अर जिनका श्रद्धान किए बिना मोक्ष न होय, तिनही का यहाँ निरूपण किया। सो जीव अजीव ए दोय तो बहुत द्रव्यनिकी एक जाति अपेक्षा सामान्यरूप तत्त्व कहे। सो ए दोय जाति जाने जीव के आपा परका श्रद्धान होय। तब पर” भिन्न आपाको जाने, अपना हित के अर्थि मोक्ष का उपाय करे अर आपतै भिन्न परको जाने, तब परद्रव्यते उदासीन होय रागादिक त्यागि मोक्षमार्गविषै प्रवः । तातें ए दोय जाति का श्रद्धान भए ही मोक्ष होय अर दोय जाति जाने बिना आपा परका श्रद्धान न होय, तब पर्यायबुद्धिः संसारीक प्रयोजन ही का उपाय करै। परद्रव्यविषै रागद्वेष रूप होय प्रवत्तै, तब मोक्षमार्गविष कैसे प्रवत् । तातें इन दोय जातिनिका श्रद्धान न भए मोक्ष न होय। ऐसे ए दोय तो सामान्य तत्त्व अवश्य श्रद्धान करने योग्य कहे। बहुरि आम्नवादिक पाँच कहे, ते जीव पुपल की पर्याय हैं। तात ए विशेषरूप तत्त्व हैं। सो इन पाँच पर्यायनिको जाने मोक्ष का उपाय करने का श्रद्धान होय। तहाँ मोक्ष को पहिचाने, तो ताको हित मानि ताका उपाय करे। तातें मोक्ष का श्रद्धान करना। बहुरि मोक्षका उपाय संवर निर्जरा है सो इनको पहिचान तो जैसे संवर निर्जरा होय तैसे प्रवत् । तातै संवर निर्जस का श्रद्धान करना। बहुरि संवर निर्जरा तो अभाव लक्षण लिये हैं; सो जिनका अभाव किया चाहिए, तिनको पहिचानने चाहिए। जैसे क्रोध का अभाव भए क्षमा होय सो क्रोध को पहिचान तो ताका अभाव करि क्षमारूप प्रवत्त । तैसे ही आस्रव का अभाव भए संवर होय अर बंध का एकदेश अभाव भए निर्जरा होय सो आस्रव बंथ की पहिचान तो तिनिका नाश करि संयर निर्जरारूप प्रवत् । तातै आम्नव बंध का श्रद्धान करना। ऐसे इन पांच पर्यायनिका श्रद्धान भए ही मोक्षमार्ग होय इनको न पहिचान तो मोक्ष की पहिचान बिना ताका उपाय काहेको करै। संवर निर्जरा की पहिचान बिना तिनविष कैसे प्रवः। आस्रव बंध की पहिचान बिना तिनिका नाश कैसे करे? ऐसे इन पाँच पर्यायनिका श्रद्धान न भए मोक्षमार्ग न होय । या प्रकार यद्यपि तत्त्वार्थ अनन्ते हैं, तिनिका सामान्य विशेषकरि अनेक प्रकार प्ररूपण होय। परन्तु यहाँ एक मोक्ष का प्रयोजन है तात दोय तो जाति अपेक्षा सामान्य तत्त्व अर पांच पर्यायरूप विशेष तत्त्व मिलाय सात ही तत्त्व कहे इनका यथार्थ श्रद्धान के आधीन मोक्षमार्ग है। इनि बिना औरनिका प्रधान होहु वा मति होहु वा अन्यथा श्रद्धान होहु, किसी के आधीन मोक्षमार्ग नाहीं, ऐसा जानना। बहुरि कहीं पुण्य पाप सहित नव पदार्थ कहे हैं सो पुण्य पाप आम्रयादिक के ही विशेष हैं, तातें सात तत्त्वनिविषै गर्भित भए । अथवा पुण्यपाप का श्रद्धान भए पुण्य को मोक्षमार्ग न माने वा स्वच्छन्द होय पापरूप न प्रवत्र्त, तारौं मोक्षमार्गविषै इनका श्रद्धान भी उपकारी जानि दोय तत्त्व विशेष के विशेष मिलाय नव पदार्थ कहे वा समयसारादिविषै इनको नय तत्त्व भी कहे हैं।
बहुरि प्रश्न- इनिका प्रधान सम्यग्दर्शन कह्या, सो दर्शन तो सामान्य अवलोकनमात्र अर श्रद्धान प्रतीतिमात्र, इनिकै एकार्थपना कैसे सम्भवै?
ताका उत्तर- प्रकरण के वशर्त धातु का अर्थ अन्यथा होय है। सो यहाँ प्रकरण मोक्षमार्ग का है,
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नवमा अधिकार - २७५
तिसविषै 'दर्शन' शब्द का अर्थ सामान्य अवलोकनमात्र न ग्रहण करना । जातैं चक्षु अचक्षु दर्शनकरि सामान्य अवलोकन तो सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि के समान होय हैं, किछु याकरि मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति अप्रवृत्ति होती नाहीं । बहुरि श्रद्धान हो है सो सम्यग्दृष्टीही कै हो है, याकरि मोक्ष ार्ग की प्रवृत्ति हो है । तार्ते 'दर्शन' शब्द का अर्थ भी यहाँ श्रद्धान मात्र ही ग्रहण करना ।
बहुरि प्रश्न- यहाँ विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान करना कया, सो प्रयोजन कहा ?
ताका समाधान- अभिनिवेश नाम अभिप्रायका है। सो जैसा तत्त्वार्थश्रद्धान का अभिप्राय है तैसा न होय, अन्यथा अभिप्राय होय, ताका नाम विपरीताभिनिवेश है। सो तत्त्वार्थ श्रद्धान करने का अभिप्राय केवल तिनिका निश्चय करना मात्र ही नाहीं है। तहाँ अभिप्राय ऐसा है- जीव अजीवको पहचानि आपको वा परको जैसा का तैसा माने बहुरि आसवको पहिचानि ताको हेय मानै । बहुरि बंधको पहिचानि ताको अहित माने । बहुरि संवर को पहचानि ताको उपादेय मानै । बहुरि निर्जराको पहचानि ताको हितका कारण मानै । बहुरि मोक्षको पहचानि ताको अपना परम हित माने। ऐसे तत्वार्थ श्रद्धानका अभिप्राय है। तिसतें उलटा अभिप्राय का नाम विपरीताभिनिवेश है। सो सांचा तत्त्वार्थ श्रद्धान भए याका अभाव होय । तातैं तत्त्वार्थ श्रद्धान है सो विपरीताभिनिवेशरहित है, ऐसा यहाँ कहा है।
अथवा काहूकै आभास मात्र तत्त्वार्थश्रद्धान होय है परन्तु अभिप्रायविषै विपरीतपनो नाहीं छूटे है । कोई प्रकारकरि पूर्वोक्त अभिप्रायतें अन्यथा अभिप्राय अन्तरंगविषै पाइए है तो वाकै सम्यग्दर्शन न होय । जैसे द्रव्यलिंगी मुनि जिनवचननित तत्त्वनिकी प्रतीति करे परन्तु शरीराश्रित क्रियानिविषै अहंकार वा पुण्यास्वविषै उपादेयपनो इत्यादि विपरीत अभिप्रायतें मिथ्यादृष्टी ही रहे है तातें जो तत्त्वार्थश्रद्धान विपरीताभिनिवेश रहित है सोई सम्यग्दर्शन है । ऐसे विपरीताभिनिवेश रहित जीवादि तत्त्वार्थनिका श्रद्धानपना सो सम्यग्दर्शनका लक्षण है। सम्यग्दर्शन लक्ष्य है । सोइ तत्त्वार्यसूत्र विषे कला है- “तत्त्वार्थश्रखानं सम्यग्दर्शनम् ।। १२ ।। " तत्त्वार्थनिका श्रद्धान सोई सम्यग्दर्शन है। बहुरि सर्वार्थसिद्धि नाम सूत्रनिकी टीका है, तिसविषै तत्त्वादिक पदनिका अर्थ प्रगट लिख्या है, वा सात ही तत्त्व कैसे कहे सो प्रयोजन लिख्या है, ताका अनुसार यहाँ किछू कथन किया है ऐसा जानना ।
बहुरि पुरुषार्थसिद्धयुपाय विषै भी ऐसे ही कह्या है
जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्त्तव्यम् ।
श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ।। २२ ।।
याका अर्थ - विपरीताभिनिवेशकरि रहित जीव अजीव आदि तत्वार्थनिका श्रद्धान सदाकाल करना योग्य है। सो यहु श्रद्धान आत्माका स्वरूप है |दर्शनमोह उपाधि दूर भए प्रगट हो है, तातै आत्माका स्वभाव है। चतुर्थादि गुणस्थानविषे प्रगट हो है । पीछे सिद्ध अवस्थाविषै भी सदाकाल याका सद्भाव रहे है, ऐसा
'जानना ।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक- २७६
तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण में अव्याप्ति- अतिव्याप्ति असंभव - दोष का परिहार तिर्यचों के सात तत्त्वों का श्रद्धान
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यहाँ प्रश्न उपजे है जो तिर्यंचादि तुच्छज्ञानी केई जीव सात तत्त्वनिका नाम भी न जानि सकै, तिनिकै भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति शास्त्रविषै कही है । तातैं तत्त्वार्थ श्रद्धानपना तुम सम्यक्त्वका लक्षण कला, तिसविषे अव्याप्तिदूषण लागे है ।
ताका समाधान - जीव अजीवादिकका नामादिक जानो वा मति जानो वा अन्यथा जानो, उनका स्वरूप यथार्थ पहचानि श्रद्धान किए सम्यक्त्व हो है। तहाँ कोई सामान्यपने स्वरूप पहिचानि श्रद्धान करें। कोई विशेषपने स्वरूप पहिचानि श्रद्धान करे। तातैं तुच्छज्ञानी तिर्यंचादिक सम्यग्दृष्टी हैं सो जीवादिक का नाम भी न जाने हैं, तथापि उनका सामान्यपने स्वरूप पहिचानि श्रद्धान करे हैं। तातैं उनके सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो है । जैसे कोई तिर्यंच अपना वा औनिका नामालिक तो नाहीं जानै परन्तु पट आपो माने है, औरनिको पर माने है। तैसे तुच्छज्ञानी जीव अजीवका नाम न जानै परन्तु जो ज्ञानादिस्वरूप आत्मा है तिसविषै तो आपो माने है अर जो शरीरादि है तिनको पर माने है- ऐसा श्रद्धान वाकै हो है, सो ही जीव अजीवका श्रद्धान है। बहुरि जैसे सोई तिर्यंच सुखादिकका नामादिक न जाने है, तथापि सुख अवस्थाको पहिचान ताके अर्थ आगामी दुःख का कारणको पहिचानि ताका त्यागको किया चाहै है । बहुरि जो दुःख का कारण बनि रह्या है, ताके अभाव का उपाय करे है। तैसे तुच्छज्ञानी मोक्षादिकका नाम न जाने, तथापि सर्वथा सुखरूप मोक्षअवस्थाको श्रद्धान करता ताके अर्थि आगामी बंधका कारण रागादिक आस्रव ताका त्यागरूप संवरको किया चाहे है। बहुरि जो संसार दुःखका कारण है, ताकी शुद्धभावकरि निर्जरा किया चाहे है। ऐसे आस्रवादिकका वाकै श्रद्धान है। या प्रकार वाकै भी सप्ततत्त्वका श्रद्धान पाइए है। जो ऐसा श्रद्धान न होय, तो रागादि त्यागि शुद्ध भाव करने की चाह न होय । सोई कहिए है
जो जीव अजीवको जाति न जानि आपापरको न पहिचान तो परविषै रागादिक कैसे न करे? रागादिकको न पहिचान तो तिनिका त्याग कैसे किया चाहे । सो रागादिक ही आस्रव हैं। रागादिकका फल बुरा न जाने तो काहे को रागादिक छोड़या चाहै । सो रागादिकका फल सोई बंध है। बहुरि रागादि रहित परिणामको पहिचान है तो तिसरूप हुआ चाहे है। सो रागादिरहित परिणामका ही नाम संवर है। बहुरि पूर्व संसार अवस्थाका कारण की हानिको पहिचाने हैं तो ताके अर्थि तपश्चरणादिकरि शुद्धभाव किया चाहे है । सो पूर्व संसार अवस्थाका कारण कर्म है, ताकी हानि सोई निर्जरा है। बहुरि संसार अवस्था का अभावको न पहिचाने तो संवर निर्जरारूप काहेको प्रवर्ते । सो संसार अवस्था का अभाव सो ही मोक्ष है। तातें सातों तत्त्वनिका श्रद्धान भए ही रागादिक छोड़ि शुद्ध भाव होने की इच्छा उपजै है । जो इनविषै एक भी तत्त्वका श्रद्धान न होय तो ऐसी चाह न उपजै । बहुरि ऐसी चाह तुच्छज्ञानी तिर्यचादि सम्यग्दृष्टी हो ही है। ता वाकै सप्त तत्त्वनिका श्रद्धान पाउए है, ऐसा निश्चय करना । ज्ञानावरण का क्षयोपशम थोरा होते विशेषपने तत्त्वनिका ज्ञान न होवै, तथापि दर्शनमोहका उपशमादिकर्ते सामान्यपने तत्त्वश्रद्धान की शक्ति प्रगट हो है। ऐसे इस लक्षणविषे अव्याप्ति दूषण नाहीं है ।
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नवमा अधिकार-२७७
विषयसेवन के समय सम्पापती के श्रद्धा का सिमाश नहीं बहुरि प्रश्न- जिसकालविषै सम्यग्दृष्टी विषयकषायनिके कार्यविषै प्रवर्ते है तिसकालविषै सप्त तत्त्वनिका विचार ही नाही, तहाँ प्रधान कैले सम्मकै? अर सम्यक्त्व रहै ही है, तातै तिस लक्षणविषै अव्याप्ति दूषण आवै है।
ताका समाधान- विचार है, सो तो उपयोग के आधीन है। जहाँ उपयोग लागै, तिसहीका विचार हो है। बहुरि श्रद्धान है, सो प्रतीतिरूप है। तातें अन्य ज्ञेयका विचार होते वा सोवना आदि क्रिया होते तत्त्वनिका विचार नाही, तथापि तिनकी प्रतीति बनी रहै है, नष्ट न हो है। तातै वाकै सम्यक्त्वका सद्भाव है। जैसे कोई रोगी मनुष्यकै ऐसी प्रतीति है- मैं मनुष्य हूँ, निर्यचादि नाहीं हूँ। मेरे इस कारणले रोग भया है सो अब कारण मेटि रोगको घटाय नीरोग होना। बहुरि दो ही मनुष्य अन्य विचारादिरूप प्रवत्र्त है, तब वाकै ऐसा विचार न हो है परन्तु श्रद्धान ऐसा ही रह्या करै है। तैसे इस आत्माकै ऐसी प्रतीति है- मैं आत्मा हूँ, पुद्गलादि नाहीं हूँ, मेरे आम्नवतै बन्ध भया है, सो अब संवरकरि निर्जराकरि मोक्षरूप होना। बहुरि सोई आत्मा अन्यविचारादिरूप प्रवत्र्त है, तब बाकै ऐसा विचार न हो है परन्तु श्रद्धान ऐसा ही रह्या करै है।
बहुरि प्रश्न- जो ऐसा श्रद्धान रहै है, तो बंध होनेके कारणविषे कैसे प्रवर्ते है?
ताका उत्तर- जैसे सोई मनुष्य कोई कारण के वशतें रोग बधने के कारणनिविर्ष भी प्रयत्नैं है, व्यापारादिक कार्य वा क्रोधादिक कार्य करै है, तथापि तिप्त श्रद्धानका वाकै नाश न हो है। तैसे सोई आत्मा कर्म उदय निमित्त के वश बन्ध होने के कारणनिविषै भी प्रवत्र्त है, विषयसेवनादि कार्य वा क्रोधादि कार्य कर है, तथापि तिस श्रद्धानका वाकै नाश न हो है। इसका विशेष निर्णय आगे करेंगे। ऐसे सप्त तत्त्व का विचार न होते भी श्रद्धानका सद्भाव पाइए है, तात तहाँ अव्याप्तिपना नाहीं है।
निर्विकल्प दशा में भी तत्त्वार्थ श्रद्धान का सद्भाव बहुरि प्रश्न- ऊँची दशाविषै जहाँ निर्विकल्प आत्मानुभव हो है, तहाँ तो सप्त तत्त्वादिकका विकल्प भी निषेध किया है। सो सम्यक्त्व के लक्षणका निषेध करना कैसे सम्भवे? अर तहाँ निषेध सम्भवै है तो अव्याप्ति दूषण आया।
ताका उत्तर- नीचली दशाविषे सप्ततत्त्वनिके विकल्पनिविषै उपयोग लगाया, ताकरि प्रतीलिको दृढ़ कीन्हीं अर विषयादिकतें उपयोग छुड़ाय रागादि घटाया। बहुरि कार्य सिद्ध भए कारणनिका भी निषेथ कीजिए है। तातै जहाँ प्रतीति भी दृढ़ भई अर रागादिक दूर भए तहाँ उपयोग प्रमावने का खेद काहेको करिए। तातें तहाँ तिन विकल्पनिका निषेध किया है। बहुरि सम्यक्त्व का लक्षण तो प्रतीति ही है। सो प्रतीतिका तो निषेध न किया। जो प्रतीति छुड़ाई होय, तो इस लक्षणका निषेध किया कहिए। सो तो है नाहीं। सातों तत्त्वनिकी प्रतीति तहाँ भी बनी रहै है। तातै यहाँ अव्याप्तिपना नाही है।
बहुरि प्रश्न- जो छद्मस्थकै तो प्रतीति अप्रतीति कहना सम्भवै, तातें तहाँ सप्ततत्त्वनिकी प्रतीति
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२७५
सम्यक्त्वका लक्षण कह्या सो हम मान्या परन्तु केवली सिद्ध भगवानकै तो सर्वका जानपना समानरूप है, तहाँ सप्ततत्त्वनिकी प्रतीति कहना सम्भवै नाहीं अर तिनकै सम्यक्त्व गुण पाइए ही है, तारौं तहाँ तिस लक्षणविष अव्याप्तिपना आया।
ताका समाधान- जैसे छमस्थकै श्रुतज्ञान के अनुसार प्रतीति पाइए है, तैसे केवली सिद्धभगवानके केवलज्ञान के अनुसार प्रतीति पाइए है। जो सप्त तत्त्वनिका स्वरूप पहले टीक किया था, सो ही केवलज्ञानकरि जान्या। तहाँ प्रतीतिको परम अवगाड़पनो भयो । याहीतै परमअवगाढ़ सम्यक्त्व कह्या। जो पूर्व श्रद्धान किया था. लाको हाट नाय दोना तो तहाँ आतीति होती। सो तो जैसा सप्त तत्वनिका श्रद्धान छमस्थकै भया था, तैसा ही केवली सिद्ध भगवानकै पाइए है तातें ज्ञानादिककी हीनता अधिकता होतें भी तिर्यचादिक वा केवली सिद्ध भगवान तिनकै सम्यक्त्व गुण समान ही कहा।' बहुरि पूर्वअवस्थाविषै यहु मानै थे- संवर निर्जराकरि मोक्षका उपाय करना। पोछै मुक्त अवस्था भए ऐसे मानने लगे, जो संवर निर्जराकरि हमारे मोक्ष भई । बहुरि पूर्वे ज्ञान की हीनताकरि जीवादिकके थोड़े विशेष जानै था, पीछे केवलज्ञान भए तिनके सर्वविशेष जानै परन्तु मूलभूत जीवादिकके स्वरूपका श्रद्धान जैसा छद्मस्थकै पाइए है तैसा ही केवली के पाइए है। बहुरि यद्यपि केवली सिद्ध भगवान अन्यपदार्थनिको भी प्रीति लिए जाने है तथापि ते पदार्थ प्रयोजनभूत नाहीं। तारौं सम्यक्त्व गुणविषे सप्त तत्त्वनिहीका श्रद्धान ग्रहण किया है। केवली सिद्ध भगवान रागादिरूप न परिणमै हैं, संसार अवस्थाको न चाहै हैं। सो यह इस श्रद्धानका बल जानना।
बहुरि प्रश्न- जो सम्यग्दर्शन को तो मोक्षमार्ग कया था, मोक्ष विषै याका सद्भाव कैसे कहिए है?
ताका उत्तर-कोई कारण ऐसा भी हो है, जो कार्य सिद्ध भए भी नष्ट न होय। जैसे काहू वृक्ष कै कोई एक शाखाकरि अनेक शाखायुक्त अवस्था भई, तिसको होते वह शाखा नष्ट न हो है तैसे काहू आत्मा के सम्यक्त्व गुणकरि अनेकगुणयुक्त मुक्त अवस्था भई, ताको हो” सम्यक्त्व गुण नष्ट न हो है। ऐसे केवली सिद्ध भगवान के भी तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण ही पाइए है, तातै यहाँ अव्याप्तिपनो नाहीं है।
तिर्यंच, मनुष्य तथा केवली के सामान्य (सदृश परिणाम) की अपेक्षा सभी सम्यग्दर्शनों में एकत्व है। विशेष (विसदृश परिणाम) की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के असंख्यात लोक प्रमाण भेद अनेकत्व) हैं ही।
(विशेष हेतु देखो - पं. रतनचन्द मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्य ग्रन्थ पृ. ३६३-३६५ तथा पृ. १७०)
सभी क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों के सम्यक्त्व परिणाम समान ही होते हैं क्योंकि "क्षायिकभावानां न हानि पि वृद्धिरिति” (श्लोकवार्तिक १/१/४४-४१), क्षायिक भावों में न हानि होती है, न वृद्धि।
इसी तरह प्रथम उपशम सप्यग्दृष्टि जीवों में भी परस्पर के लिए कहना चाहिए। परन्तु भायिक दर्शन तथा क्षयोपशम सम्यग्दर्शन रूप परिणाम परस्पर कभी समान नहीं होते। ___ इसी तरह क्षयोपशम (वेदक) सम्यग्दृष्टि जीवों के क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन रूप परिणाम भी परस्पर समान नहीं होते, क्योंकि क्षायोपशम सम्यक्त्व के असंख्यात लोक प्रमाण भेद होते । (थयला १/३६८)
सारतः संसार के सभी जीवों में सम्यग्दर्शनों में समानता सर्वसम्यग्दृष्टिजीव व्यापी सामान्य सम्यग्दर्शनपने (सदृश परिणाम) की अपेक्षा ही है, अन्य प्रकार से नहीं।
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नवमा अधिकार- २७६
बहुरि Tea frangटी के भी हो है, ऐसा शास्त्रविषै निरूपण है। प्रवचनसारविषै आत्मज्ञानशून्य तत्त्वार्थश्रद्धान अकार्यकारी कया है । तातैं सम्यक्त्व का लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान कया है, तिस विषै अतिव्याप्ति दूषण लागे है ।
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ताका समाधान - मिध्यादृष्टि के जो भी तत्त्वश्रद्धान कया है, सो नामनिक्षेपकरि का है। जामें तत्त्वश्रद्धान का गुण नाहीं अर व्यवहारविषै जाका नाम तत्त्व श्रद्धान कहिए सो मिथ्यादृष्टी के हो है अथवा आगमद्रव्य निक्षेपकरि हो है । तत्त्वार्थ श्रद्धान के प्रतिपादक शास्त्रनिको अभ्यासै है, तिनिका स्वरूप निश्चय करनेविषै उपयोग नाहीं लगाये है, ऐसा जानना । बहुरि यहाँ सम्यक्त्व का लक्षण तत्त्वार्थं श्रद्धान कया है सो भाव निक्षेपकरि कह्या है । सो गुणसहित सांचा तत्त्वार्थश्रद्धान मिथ्यादृष्टी के कदाचित् न होय । बहुरि आत्मज्ञानशून्य तत्त्वार्थश्रद्धान कया है, तहाँ भी सोई अर्थ जानना । सांचा जीव अजीवादिक का जाकै श्रद्धान होय, ताकै आत्मज्ञान कैसे न होय ? होय ही होय । ऐसे कोई ही मिध्यादृष्टी के सांचा तत्त्वार्थ श्रद्धान सर्वथा न पाइए है, तार्ते तिस लक्षणविषै अतिव्याप्ति दूषण न लागे है ।
बहुरि जो यहु तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण कथा, सो असम्भव भी नाहीं है । जातें सम्यक्त्व का प्रतिपक्षी मिथ्यात्व - यह नाहीं है, बाका लक्षण इस विपरीतता लिये है ।
ऐसे अव्याप्ति अतिव्याप्ति असम्भविपनाकरि रहिल सर्व सम्यग्दृष्टीनिविषै तो पाईए अर कोई मिथ्यादृष्टिविषे न पाइए ऐसा सम्यग्दर्शन का सांचा लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान है।
बहुरि प्रश्न उपजे है जो यहाँ सातों तत्त्वनिके श्रद्धान का नियम कहो हो सो बने नाहीं, जातें कहीं परतैं भिन्न आपका श्रद्धानहिीको सम्यक्त्व कहै है । समयसारविषै' 'एकत्वे नियतस्य' इत्यादि कलशा ( लिखा) है, तिसविषे ऐसा कया है- जो इस आत्मा का परद्रव्यतें भिन्न अवलोकन सो ही नियमतें सम्यग्दर्शन है। तातैं नव तत्त्व की संतति को छोड़ि हमारे यहु एक आत्मा ही होहु । बहुरि कहीं एक आत्मा के निश्चय ही को सम्यक्त्व कहे है । पुरुषार्थसियुपायविषै 'दर्शनमात्मविनिश्चितिः' ऐसा पद है। सो याका यहु ही अर्थ है। तातें जीव अजीव ही का वा केवल जीव ही का श्रद्धान भए सम्यक्त्व हो है । सातों का श्रद्धान का नियम होता तो ऐसा काहेको लिखते ।
ताका समाधान - परतें भिन्न आपका श्रद्धान हो हैं, सो आस्रवादिक का प्रद्धान करि रहित हो है कि सहित हो है । जो रहित हो है, तो मोक्ष का अद्धान बिना किस प्रयोजन के अर्थि ऐसा उपाय करै है। संवर निर्जरा का श्रद्धान बिना रागादिकरहित होय स्वरूपविषै उपयोग लगावने का काहेको उद्यम राखे
१. एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः । पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् ।।
सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयम् ।
तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्मायमेको ऽस्तु नः । जीवाजीव. अ. कलश ।। ६ ।।
२. दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः ३
स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ॥ पु. सि. २१६ ॥ ॥
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माक्षमागं प्रकाशक-२८०
है। आस्रव बंध का श्रद्धान बिना पूर्व अवस्था को काहेको छांड है। लातें आत्रवादिक का श्रद्धान रहित आपापरका श्रद्धान करना सम्भवै नाहीं। बहुरि जो आस्वादिक का श्रद्धान सहित हो है, तो स्वयमेव ही सातों तत्त्वनिके श्रद्धान का नियम भया। बहुरि केवल आत्मा का निश्चय है, सो परका पररूप श्रद्धान भए बिना आत्मा का श्रद्धान न होय, ताः अजीव का श्रद्धान भए ही जीव का श्रद्धान होय। बहुरि ताकै पूर्ववत आस्त्रवादिक का भी श्रद्धान होय ही होय । तातै यहाँ भी सातों तत्त्वनिके ही श्रद्धान का नियम जानना। बहुरि आस्रवादिक का श्रद्धान बिना आपापर का श्रद्धान वा केवल आत्मा का श्रद्धान सांचा होता नाहीं। जाते आत्मा द्रव्य है, सो तो शुद्ध अशुद्ध पर्याय लिये है। जैसे तन्तु अवलोकन बिना पटका अवलोकन न होय, तैसे शुद्ध-अशुद्ध पर्याय पहिचाने बिना आत्मद्रव्य का श्रद्धान न होय । सो शुद्ध अशुद्ध अवस्था की पहिचानि आस्रवादिक की पहिचानतें हो है। बहुरि आसवादिक का श्रद्धान बिना आपापरका श्रद्धान वा केवल आत्मा का श्रद्धान कार्यकारी भी नाहीं ! जाते श्रद्धान करो वा मति करो, आप है सो आप है ही, पर है सो पर है। बहुरि आमवादिक का श्रद्धान होय, तो आसव बंध का अभावकरि संवर-निर्जरारूप उपायतै मोक्षपद को पावै। बहुरि जो आपापरका भी श्रद्धान कराइए है, सो तिस ही प्रयोजन के अर्थि कराइए है। तातें आस्रवादिक का श्रद्धानसहित आपापरका जानना वा आपका जानना कार्यकारी है।
यहाँ प्रश्न-जो ऐसे है, तो शास्त्रनिविषै आपा पर का श्रद्धान वा केवल आत्मा का श्रद्धानहीको सम्यक्त्व कह्या वा कार्यकारी कह्या बहुरि नव तत्त्व की सन्तति छोड़ि हमारे एक आत्मा ही होहु, ऐसा कह्या । सो कैसे कह्या?
ताका समाधान- जाकै सांचा आपापरका श्रद्धान वा आत्मा का श्रद्धान होय, ताकै सातों तत्त्वनिका श्रद्धान होय ही होय । बहुरि जाकै सांचा सात तत्त्वनिका श्रद्धान होय, ताकै आपापरका वा आत्मा का श्रद्धान होय ही होय । ऐसा परस्पर अविनाभावीपना जानि आपापरका श्रद्धान को वा आत्मश्रद्धान ही को सम्यक्त्व कह्या है। बहुरि इस छलकरि कोई सामान्यपने आपापरको जानि वा आत्मा को जानि कृतकृत्यपनो मानै, तो वाकै भ्रम है। तातें ऐसा कह्या है- 'निर्विशेष हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत्। याका अर्थ यहुजो विशेषरहित सामान्य है सो गधे के सींग समान है। जातें प्रयोजनभूत आम्नवादिक विशेषनिसहित आपापरका वा आत्मा का श्रद्धान करना योग्य है। अथवा सातों तत्त्वार्थनिका श्रद्धानकरि रागादिक मेटने के अर्थि परद्रव्यनिको भिन्न भाव है वा अपने आत्मा ही को भाव है, ताकै प्रयोजन की सिद्धि हो है। तातै मुख्यताकरि भेदविज्ञान को वा आत्मज्ञान को कार्यकारी कह्या है। बहुरि तत्त्वार्थश्रद्धान किए बिना सर्व . जानना कार्यकारी नाहीं । जाते प्रयोजन तो रागादिक मेटने का है, सो आस्त्रवादिक का श्रद्धान बिना यह प्रयोजन भासै नाहीं। तब केवल जानने ही तैं मानको बधावे, रागादिक छां. नाहीं, तब वाका कार्य कैसे सिद्धि होय । बहुरि नवतत्त्वसंततिका छोड़ना कह्या है। सो पूर्वे नवतत्त्व के विचार करि सम्यग्दर्शन भया, पी? निर्विकल्पदशा होने के अर्थि नवतत्त्वनिका भी विकल्प छोड़ने की चाह करी। बहुरि जाकै पहिले ही नवतत्त्वनिका विचार नाही, ताकै तिस विकल्प छोड़ने का कहा प्रयोजन है। अन्य अनेक विकल्प आपके पाइए है, तिनही का त्याग करो, ऐसे आपापरका श्रद्धानविषै वा आत्म प्रद्धानविषै सप्ततत्त्व श्रद्धान की सापेक्षा पाइए है, ताते तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यक्त्वका लक्षण है।
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नवमा अधिकार - २८१
बहुरि प्रश्न- जो कहीं शास्त्रनिविषै अरहन्तदेव निर्ग्रन्थ गुरु हिंसारहित धर्म का श्रद्धान को सम्यक्त्व कया है, सो कैसे है?
ताका समाधान- अरहंत देवादिक का श्रद्धानतें कुदेवादिक का श्रद्धान दूरि होनेकरि गृहीत मिथ्यात्व का अभाव हो है। तिस अपेक्षा बाको सम्यक्त्व का है। सर्वथा सम्यक्त्व का लक्षण यहु नाहीं । जातैं द्रव्यलिंगी मुनि आदि व्यवहार धर्म के धारक मिथ्यादृष्टी तिनिकै भी ऐसा श्रद्धान हो है। अथवा जैसे अणुव्रत महाव्रत हो तो देशचारित्र सकलचारित्र होय वा न होय परन्तु अणुव्रत महाव्रत भए बिना देशचारित्र सकलचारित्र कदाचित् न होय । तातें इनि व्रतनिको अन्वयरूप कारण जानि कारणविषै कार्य का उपचार कर इनको चारित्र कह्या । तैसे अरहन्त देवादिक का श्रद्धान होतें तो सम्यक्त्व होय वा न होय परन्तु अरहंतादिकका श्रद्धान भए बिना तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप सम्यक्त्व कदाचित् न होय । तार्ते अरहन्तादिक के श्रद्धान को अन्वयरूप कारण जानि कारणविषै कार्यका उपचारकरि इस श्रद्धान को सम्यक्त्व कला है। याहीर्ते याका नाम व्यवहारसम्यक्त्व है। अथवा जाकै तत्त्वार्थश्रद्धान होय, ताकै सांचा अरहन्तादिक के स्वरूप का श्रद्धान होय ही होय । तत्त्वार्थश्रद्धान बिना पक्षकार अरहन्तादिक का श्रद्धान करें परन्तु यथावत् स्वरूप की पहिचान लिए श्रद्धान होय नाहीं । बहुरि जाकै सांचा अरहन्तादिक के स्वरूप का श्रद्धान होय, तार्क तत्त्वश्रद्धान होय ही होय । जातैं अरहन्तादिक का स्वरूप पहिचाने जीव अजीव आक्षवादिक की पहिचान हो है । ऐसे इनको परस्पर अविनाभावी जानि कहीं अरहन्तादिक के श्रद्धान को सम्यक्त्व का है।
यहाँ प्रश्न- जो नारकादिक जीवनिकै देवकुदेवादिकका व्यवहार नाहीं अर तिनिके सम्यक्त्व पाइए है, तातैं सम्यक्त्व होते अरहंतादिकका श्रद्धान होय ही होय, ऐसा नियम सम्भवे नाहीं ?
ताका समाधान - सप्त तत्त्वनिका श्रद्धानविषे अरहंतादिकका श्रद्धान गर्भित है । जातैं तत्त्वश्रद्धानविषै मोक्षतत्त्वको सर्वोत्कृष्ट माने है। सो मोक्षतत्त्व तो अरहंत सिद्धका लक्षण है। जो लक्षणको उत्कृष्ट मानै, सो ताके लक्ष्यको उत्कृष्ट माने ही माने । तातैं उनको भी सर्वोत्कृष्ट मान्या, और को न मान्या, सो ही देवका श्रद्धान 'भया । बहुरि मोक्षके कारण संवर निर्जरा हैं, तातें इनको भी उत्कृष्ट माने है। सो संवर निर्जरा के धारक मुख्यपने मुनि हैं। तातैं मुनिको उत्तम मान्या, और को न मान्या, सो ही गुरुका श्रद्धान भया । बहुरि रागादिकरहित भावका नाम अहिंसा है, ताहीको उपादेय माने है, और को न माने है, सोई धर्मका श्रद्धान भया । ऐसे तत्त्वश्रद्धान विषै गर्भित अरहंतदेवादिकका भी श्रद्धान हो है । अथवा जिस निमित्ततें याकै तत्त्वार्थ श्रद्धान हो है, तिस निमित्ततैं अरहंतदेवादिकका भी श्रद्धान हो है । तातें सम्यक्त्वविषै देवादिकके श्रद्धान का नियम है।
बहुरि प्रश्न- जो केई जीव अरहंतादिकका श्रद्धान करे हैं, तिनिके गुण पहिचान हैं अर उनके तत्त्वश्रद्धानरूप सम्यक्त्व न हो है । तातें जाकै सांचा अरहंतादिकका श्रद्धान होय, तार्के तत्त्वश्रद्धान होय ही होय, ऐसा नियम सम्भवे नाहीं ?
ताका समाधान तत्त्वश्रद्धान विना अरहतादिकके छियालीस आदि गुण जाने है, सो पर्यायाश्रित गुण जाने है परन्तु जुदा-जुदा जीव पुद्गलविषै जैसे सम्भवै तैसे यथार्थ नाहीं पहिचान है । तातैं सांचा श्रद्धान
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२५२
भी न होय। जात जीव अजीवकी जाति पहिचाने विना अरहतादिकके आत्माश्रित गुणनिको वा शरीराश्रित गुणनिको भिन्न-भिन्न न जाने। जो जानै तो अपने आत्माको परद्रव्यतै भिन्न कैसे न माने? तातै प्रवचनसारविषे ऐसा कह्या है
जो जाणदि अरहंतं ददत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं ।
सो जाणवि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।।१०।। याका अर्थ यहु- जो अरहंतको द्रव्यत्य गुणत्व पर्यायत्वकरि जाने है, सो आत्माको जानै है । ताका मोह विलयको प्राप्त हो है। तातें जाकै जीवादिक तत्त्वनिका श्रद्धान नाही, ताकै अरहंतादिकका भी सांचा श्रद्धान नाहीं । बहुरि मोक्षादिक तत्त्वका श्रद्धान विना अरहंतादिकका माहात्म्य यथार्थ न जाने। लौकिक अतिशयादिककरि अरहंत का, तपश्चरणादिकरि गुरुका अर परजीवनिकी अहिंसादिकरि धर्मकी महिमा जाने, सो ए पराश्रित भाव हैं। बहुरि आत्माश्रित भावनिकरि अरहंतादिकका स्वरूप तत्त्वश्रद्धान भए ही जानिए है। तार्तं जाकै सांचा अरहंतादिकका श्रद्धान होय, ताकै तत्त्वश्रद्धान होय ही होय, ऐसा नियम जानना। या प्रकार सम्यक्त्वका लक्षणनिर्देश किया।
यहाँ प्रश्न-जो सांचा तत्त्वार्थश्रद्धान वा आपापरका श्रद्धान वा आत्मश्रद्धान वा देवगुरुधर्मका श्रद्धान सम्यक्त्वका लक्षण कया। बहुरि इन सर्व लक्षणनिकी परस्पर एकता भी दिखाई सो जानी। परन्तु अन्य-अन्य प्रकार लक्षण कहनेका प्रयोजन कहा?
ताका उत्तर- ए चारि लक्षण कहे, तिनिविषै सांची दृष्टिकरि एक लक्षण ग्रहण किए चास्यों लक्षण का ग्रहण हो है। तथापि मुख्य प्रयोजन जुदा-जुदा विचारि अन्य-अन्य प्रकार लक्षण कहे हैं। जहाँ तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण कया है, तहाँ तो यहु प्रयोजन है जो इन तत्त्वनिको पहिचानै तो यथार्थ वस्तु के स्वरूपका वा अपने हित अहितका श्रद्धान करै तब मोक्षमार्गविषै प्रवर्ती। बहुरि जहाँ आपापरका भिन्न श्रद्धान लक्षण कह्या है, तहाँ तत्त्वार्थ श्रद्धानका प्रयोजन जाकरि सिद्ध होय, तिस श्रद्धानको मुख्य लक्षण कह्या है। जीव अजीव के श्रद्धान का प्रयोजन आपापरका भिन्न श्रद्धान करना है। बहुरि आम्रवादिकके श्रद्धानका प्रयोजन रागादिक छोड़ना है सो आपापरका भिन्न श्रद्धान भए परद्रव्यविषै रागादि न करनेका श्रद्धान हो है ऐसे तत्त्वार्थ श्रद्धान का प्रयोजन आपापरका भिन्न श्रद्धानते सिद्ध होता जानि इस लक्षणको कहा है। बहुरि जहाँ आत्मश्रद्धान लक्षण करा है, तहाँ आपापरका भिन्न-श्रद्धानका प्रयोजन इतना ही है-आपको आप जानना। आपको आप जने परका भी विकल्प कार्यकारी नाहीं। ऐसा मूलभूत प्रयोजनकी प्रधानता जानि आत्म प्रद्धानको मुख्य लक्षण कह्या है। बहुरि जहाँ देवगुरुधर्मका श्रद्धान लक्षण कह्या है, तहाँ बाह्य साधनकी प्रधानता करी है। जातें अरहन्तदेवादिक का श्रद्धान सांचा तत्त्वार्थश्रद्धान को कारण है अर कुदेवादिक का श्रद्धान कल्पित तत्त्व श्रद्धान को कारण है। सो बाह्य कारण की प्रधानता करि कुदेवादिकका श्रद्धान छुड़ाय सुदेवादिक का श्रद्धान करावने के अर्थि देवगुरुधर्म का श्रद्धान को मुख्यलक्षण कहा है। ऐसे जुदे-जुदे प्रयोजननिकी मुख्यता करि जुदे-जुदे लक्षण कहे हैं।
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नवमा अधिकार-२८३
इहाँ प्रश्न- जो ए चारि लक्षण कहे, तिनविषै यह जीव किस लक्षण को अंगीकार करे?
ताका समाधान- मिथ्यात्वकर्म का उपशमादि होते विपरीताभिनिवेश का अभाव हो है तहाँ च्यारों लक्षण युगपत् पाइए है। बहुरि विचार अपेक्षा मुख्यपने तत्त्वार्थनिको विचार है। के आपापरका भेद विज्ञान करै है। के आत्मस्वरूपहीको सम्भार है। के देवदिक का स्वरूप विचार है। ऐसे ज्ञानविषै तो नाना प्रकार विचार होय परन्तु श्रद्धानविषै सर्वत्र परस्पर सापेक्षपनो पाइए है। तत्त्वविचार कर है तो भेददिज्ञानादिकका अभिप्राय लिए करै है अर भेदविज्ञान फरें है तो तत्वविचार दि. 4. अभिप्राय लिए करै है। ऐसे ही अन्यत्र भी परस्पर सापेक्षपणों है। ताः सम्यग्दृष्टी के श्रद्धानवियु च्यारों ही लक्षणनिका अंगीकार है। बहुरि जाकै मिथ्यात्व का उदय है ताकै विपरीताभिनिवेश पाइए है। ताकै ए लक्षण आभास मात्र होय, साँचे न होय। जिनमत के जीवादिकतत्त्वनिको मानै, और को न माने, तिनके नाम-भेदादिक को सीखे है, ऐसे तत्त्वार्थश्रद्धान होय परन्तु तिनिका यथार्थ भाव का श्रद्धान न होय। बहुरि आपापरका भिन्नपना की बातें करै अर वस्त्रादिकविषै परबुद्धिको चितवन करै परन्तु जैसे पर्यायविषे अहंबुद्धि है अर वस्त्रादिकविषै परबुद्धि है, तैसे आत्माविषै अहंबुद्धि अर शरीरादि विषै परबुद्धि न हो है। बहुरि आत्मा को जिनवचनानुसार चिन्तवै परन्तु प्रतीतिरूप आपको आप श्रद्धान न करै है। बहुरि अरहन्तदेवादिक बिना और कुदेवादिक को न मानै परन्तु तिनके स्वरूप को यथार्थ पहचानि श्रद्धान न करे, ऐसे ए लक्षणाभास मिथ्यादृष्टी कै हो हैं। इन विषै कोई होय, कोई न होय। तहाँ इनकै भिन्नपनो भी सम्भवै है। बहुरि इन लक्षणाभासनिविषै इतना विशेष है जो पहिले तो देयादिक का श्रद्धान होय, पीछे तत्त्वनिका विचार होय, पीछे आपापरका चितवन करै, पीछे केवल आत्मा को चिन्तदै । इस अनुक्रमत साथन करे तो परम्परा सांथा मोक्षमार्ग को पाय कोई जीव सिद्धपद को भी पायै ।बहुरि इस अनुक्रम का उलंघन करि जाकै देवादिक मानने का तो किछू ठीक नाहीं अर बुद्धि की तीव्रताः तत्त्वविचारादिकविष प्रवते है तातें आपको ज्ञानी जाने है। अथवा तत्त्वविचारविषै भी उपयोग न लगायै है, आपापरका भेदविज्ञानी हुवा रहै है। अथवा आपापरका भी ठीक न करै है अर आपको आत्मज्ञानी माने है। सो ए सर्व चतुराई की बाते हैं। मानादिक कषाय के साधन हैं। किछू. भी कार्यकारी नाहीं तात जो जीव अपना भला किया चाहै, तिसको यावत् सांचा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति न होय, तावत् इनिको भी अनुक्रमहीतें अंगीकार करना। सोई कहिए है
सम्यक्त्व के उपाय १. पहले तो आज्ञादिकरि वा कोई परीक्षाकरि कुदेवादिक का मानना छोड़ि अरहंतदेवादिक का श्रद्धान करना । जातें इस श्रद्धान भए गृहीतमिथ्यात्व का तो अभाव हो है। बहुरि मोक्षमार्ग के विघ्नकरनहारे कुदेवादिक का निमित्त दूरि हो है। मोक्षमार्ग का सहाई अरहंतदेवादिक का निमित्त मिले है। सो पहिले देवादिक का श्रद्धान करना। २. बहुरि पीछे जिनमतविषै कहे जीवादिक तत्त्व तिनिका विचार करना। नाम लक्षणादि सीखने । जाते इस अभ्यासतें तत्त्वार्थ श्रद्धान की प्राप्ति होय । ३. बहुरि पीछे आपापरका भिन्नपना जैसे भासै तैसे विचार किया करै । जाते इस अभ्यास भेवविज्ञान होय। ४. बहुरि पीछे आपविष आपो मानने के अर्थि स्वरूप का विचार किया करै। जाते इस अभ्यास से आत्मानुभव की प्राप्ति हो है। बहुरि
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२८४
ऐसे अनुक्रमते इनको अंगीकार करि १. पीछे इनहीविषै कबहू देवादिक का विचारविष, कबहू तत्त्वविचारविष, कबहू आपापरका विचारविषे, कबहू आत्मविचारविषै उपयोग लगावै। ऐसे अभ्यासतें दर्शनमोह मन्द होता जाय तब कदाचित् साँचा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होय; बहुरि ऐसा नियम तो है नाहीं। कोई जीव के कोई विपरीत कारण प्रबल बीच में होय जाय, तो सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नाहीं भी होय परन्तु मुख्यपने घने जीवनि कै तो इस अनुक्रम” कार्यसिद्धि हो है। ताः इनिको ऐसे अंगीकार करने। जैसे पुत्र का अर्थी विवाहादि कारणनिको मिलावै, पीछे धने पुरुषनिकै तो पुत्र की प्राप्ति होय ही है। काहूकै न होय तो न होय। याको तो उपाय करना । तैसे सम्वच का अर्थी इति कारणनिको मिलाये, पीछे घने जीवनि के तो सम्पक्त्व की प्राप्ति होय ही है। काहूकै न होय तो नाहीं भी होय । परन्तु याको तो आपते बने सो उपाय करना। ऐसे सम्यक्त्व का लक्षण निर्देश किया।
यहाँ प्रश्न- जो सम्यक्त्व के लक्षण तो अनेक प्रकार कहै, तिन विषै तुम तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण को मुख्य किया, सो कारण कहा?
ताका समाधान- तुच्छबुद्धीनिको अन्य लक्षणविषै प्रयोजन प्रगट भासै नाही वा भ्रम उपजै। अर इस तत्त्यार्थ श्रद्धान लक्षणविषै प्रगट प्रयोजन भासै किछू भ्रम उपजै नाहीं । तातें इस लक्षण को मुख्य किया है। सोई दिखाइए है
___ देवगुरुधर्म का श्रद्धानविषे तुच्छबुद्धीनिको यहु भासै- अरहंतदेवादिकको मानना और को न मानना, इतना ही सम्यक्त्व है। तहाँ जीव अजीव का वा बंथमोक्ष के कारणकार्य का स्वरूप न मास, तब मोक्षमार्ग प्रयोजन की सिद्धि न होय वा जीवादिक का श्रद्धान भए बिना इस ही श्रद्धानविषै सन्तुष्ट होय आपको सम्यक्त्वी माने। एक कुदेवादिकर्ते द्वेष तो राखै, अन्य रागादि छोड़ने का उद्यम न करे, ऐसा प्रम उपजै। बहुरि आपापरका श्रद्धानविषै तुच्छबुद्धीनिको यहु भासै कि आपापरका ही जानना कार्यकारी है। इसते ही सम्यक्त्व हो है। तहाँ आस्रवादिकका स्वरूप न भासे। तब मोक्षमार्ग प्रयोजन की सिद्धि न होय वा आमवादिक का श्रद्धान भए बिना इतना ही जाननेविष सन्तुष्ट होय आपको सम्यक्त्वी मान स्वच्छन्द होय रागादि छोड़ने का उद्यम न करै, ऐसा भ्रम उपजै। बहुरि आत्मश्रद्धानयिषै तुच्छबुद्धीनिको यहु भासै कि आत्माही का विचार कार्यकारी है। इसहीत सम्यक्त्व हो है। तहाँ जीव अजीवादिक का विशेष वा आम्नवादिक का स्वरूप न भासै, तब मोक्षमार्ग प्रयोजन की सिद्धि न होय या जीवादिक का विशेष या आनवादिक का श्रद्धान भए बिना इतना ही विचारतें आपको सम्यक्त्वी माने स्वच्छन्द होय रागादि छोड़ने का उद्यम न करै। याकै भी ऐसा प्रम उपजै है। ऐसा जानि इन लक्षणनिको मुख्य न किए।
बहुरि तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणविष जीव अजीवादिक का वा आम्नवादिक का श्रद्धान होय। तहाँ सर्व का स्वरूप नीके भासै, तब मोक्षमार्ग के प्रयोजन की सिद्धि होय । बहुरि इस श्रद्धान भए सम्यक्त्व होय परन्तु यहु सन्तुष्ट न हो है। आस्रवादिक का श्रद्धान होने से रामादि छोड़ि मोक्ष का उद्यम राखै है। याकै प्रम न उपजै है। तातै तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणको मुख्य किया है। अथवा तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणविष तो देवादिक का श्रद्धान वा आपापर का प्रधान या. आत्मश्रद्धान गर्भित हो है सो तो तुच्छबुद्धीनिको भी भासै। बहुरि अन्य
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नवपा अधिकार-२८५
लक्षणविषै तत्त्वार्थश्रद्धान का गर्मितपनो विशेष बुद्धिमान होय, तिनहीको भासै; तुच्छबुद्धीनिको न भासै ताते तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण को मुख्य किया है। अथया मिथ्यादृष्टी के आभास मात्र ए होय। तहाँ तत्त्वार्थनिका विचार तो शीघ्रपने विपरीताभिनिवेश दूर करने को कारण हो है, अन्य लक्षण शीघ्र कारण नाहीं होय वा विपरीताभिनिवेश का भी कारण होय जाय। तातै यहाँ सर्वप्रकार प्रसिद्ध जानि विपरीताभिनिवेश रहित जीवादि तस्वार्थनिका ऋखान सोही सम्यक्त्व का लक्षण है, ऐसा निर्देश किया। ऐसे लक्षण निर्देश का निरूपण किया। ऐसा लक्षण जिस आत्मा का स्वभावविष पाइए है, सो ही सम्यक्त्वी जानना।
सम्यक्त्व के भेद और उनका स्वरूप अब इस सम्यक्त्व के भेद दिखाईए है, तहाँ प्रथम निश्चय व्यवहार का भेद दिखाईए हैविपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धानरूप आत्मा का परिणाम सो तो निश्चय सम्यक्त्व है, जात यहु सत्यार्थ सम्यक्त्व का स्वरूप है। सत्यार्थही का नाम निश्चय है। बहुरि विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान को कारणभूत श्रद्धान सो व्यवहार सम्यक्त्व है, जाते कारणविष कार्य का उपचार किया है। सो उपचार ही का नाम व्यवहार है। तहाँ सम्यग्दृष्टी जीवकै देवगुरुधदिक सांचा अचान है सिरही निमिरस बागश्रद्धानविषय विपरीताभिनिवेश का अभाव है। सो यहाँ विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान सो तो निश्चय सम्यक्त्व है अर देवगुरु थर्मादिक का श्रद्धान है सो यह व्यवहार सम्यक्त्व है। ऐसे एक ही कालविषै दोऊ सम्यक्त्व पाइए
१.
आगम में निश्चय सम्यग्दर्शन तथा व्यवहार सम्यग्दर्शन का कथन अनेक दृष्टियों से किया गया है। गुण-गुणी की अभेद दृष्टि से सम्यक्त्व का कथन (सम्यक्त्व ही आत्मा है या आत्मा ही सम्यक्त्व है) निश्चय सम्पग्दर्शन है तथा जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान या आत्मा का श्रद्धान व्यवहार सम्यग्दर्शन है क्योंकि यह भेद दृष्टि का कथन है। निश्चय और व्यवहार सम्यग्दर्शन के लक्षण इस प्रकार करने पर एक जीय में दोनों सम्यग्दर्शन साथ-साथ रह सकते हैं।
इसी तरह विपरीताभिनिवेश रहित आत्म-श्रद्धा निश्चय सम्यक्त्व तथा देवगुरुशास्त्र का श्रद्धान व्यवहार सम्यक्त्व है ही क्योंकि ये क्रमशः निश्चय (एक द्रव्याश्रित होने से) तथा व्यवहार (भिन्नद्रव्याश्रित कथन होने से) नय के कथन
है।
परन्तु जहाँ पर सराग सभ्यग्दर्शन को अथवा सविकल्प सम्यग्दर्शन को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा है और वीतराग सम्यग्दर्शन को अथवा निर्विकल्प सम्यग्दर्शन को निश्चय सम्यग्दर्शन कहा है वहाँ पर निश्चय तथा व्यवहार सम्यग्दर्शन दोनों साथ-साथ कदापि नहीं रह सकते । (पं. रतनचन्द मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व पू. ८६९-९०१) क्योंकि चौथे से छठे गुणस्थान मेक बुद्धिपूर्वक राग रूप प्रवृत्ति होती है अतः इन तीन गुणस्थानों में सराग सम्पवत्व कहा। सातवें गुणस्थान से बुद्धिपूर्वक रागसप प्रवृत्ति को अभाव हो जाता है अतः सातयें से वीतराग सम्यक्त्व कहा है। (समयसार गावा ७७ तात्पर्यवृत्ति) यह वीतराग सम्यक्त्व वीतराग चारित्र के साथ ही रहता है तथा इसे ही निश्चय सम्यक्त्व कहा है। वथा - वीतरागसम्पपत्वं निणशुखात्मानुभूतिलमण वीतरागचारित्राविनामूतं तदेव निश्वयसम्यक्त्वमिति (परमात्मप्रकाश २/१७ टीका)। यही बात दृहद्रव्यसंग्रह २२ की टीका, समयसार गा, १३ ता. वृ. तथा समयसार पृष्ठ १५ अजमेर प्रकाशन में लिखी है। अतः उपुर्यक्त लक्षण वाला यह निश्चय सम्पकत्व यानी वीतराग सम्यक्त्व चौथे गुणस्थान में कदापि नहीं हो सकता । यह तो पाँचवें छठे गुणस्थान में भी नहीं हो सकता। (प. रतनचन्द, मुख्तार व्यक्तित्व और कृतित्व, पृ. ६२-२२)
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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२९६
हैं। बहुरि मिथ्यादृष्टी जीव के देवगुरुथर्मादिक का श्रद्धान आभास मात्र हो है अर याके श्रद्धानविषै विपरीताभिनिवेश का अभाव न हो है। तातै यहाँ निश्चयसम्यक्त्व तो है नाही अर व्यवहार सम्यक्त्व भी आभासमात्र है जात याकै देवगुरुधर्मादिक का प्रधान है सो विपरीताभिनिवेश के अभाव को साक्षात् कारण भया नाही, कारण भए बिना उपचार सम्भवै नाहीं । तातें साक्षात् कारण अपेक्षा व्यवहार सम्यक्त्व भी याकै न सम्भव है। अथवा याकै देवगुरुधर्मादिक का श्रद्धान नियमरूप हो है सो विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान को परम्परा कारणभूत है। यद्यपि नियमरूप कारण नाही, तथापि मुख्यपने कारण है। बहुरि कारणविषे कार्य का उपचार सम्भव है। तात मुख्यरूप परम्परा कारण अपेक्षा पिथ्यादृष्टी के भी व्यवहार सम्यक्त्व कहिए
यहाँ प्रश्न- जो केई. शास्त्रनिविषै देवगुरुधर्म का श्रद्धानको वा तत्त्वश्रद्धानको तो व्यवहार सम्यक्त्य कह्या है अर आपापरका श्रद्धान को वा केवल आत्मा के श्रद्धानको निश्चय सम्यक्त्व कहा है, सो कैसे है?
ताका समाधान- देयगुरुयर्म का श्रद्धानविषै तो प्रवृत्ति की मुख्यता है, जो प्रवृत्तिविषै अरहतादिकको देवादिक माने, और को न माने, सो देवादिक का श्रद्धानी कहिए है अर तत्त्वप्रधानविष तिनकै विचार की मुख्यता है। जो ज्ञानविषे जीवादिकतत्त्वनिको विचारे, ताको तत्त्वश्रद्धानी कहिए है। ऐसे मुख्यता पाइए है। सो ए दोऊ काहू जीव के सम्यक्त्व को कारण तो होय परन्तु इनिका सद्भाव मिथ्यादृष्टी के भी सम्भव है। तारौं इनिको व्यवहार सम्यक्त्व कह्या है। बहुरि आपापर' का श्रद्धानविषे वा आत्म श्रद्धानविषे विपरीताभिनिवेश रहितपना की मुख्यता है। जो आपापरका भेदविज्ञान करें या अपने आत्मा को अनुभवे, ताकै मुख्यपने विपरीताभिनिवेश न होय। तात मेदविज्ञानी को वा आत्मज्ञानी को सप्यादृष्टी कहिए है। ऐसे मुख्यताकार आपापर का खान वा आत्मप्रधान सम्यग्दृष्टी ही कै पाइए है। सास इनिको निश्चय सम्यक्त्व कया, सो ऐसा कथन मुख्यता की अपेक्षा है। तारतम्पपने ए च्यारों आभासपात्र मिथ्यादृष्टी के होय। सांचे सम्यग्दृष्टी के होय । तहाँ आभासमात्र हैं सो तो नियम बिना परम्परा कारण हैं अर सांचे हैं सो नियम रूप साक्षात् कारण हैं। तातै इनिको व्यवहाररूप कहिये । इनिके निमित्ततें जो विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान भया सो निश्चय सम्यक्त्व है, ऐसा जानना।
प्रशम, संदेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य की अभिव्यक्ति लमगवाला सराग सम्यग्दर्शन होता है, यही व्यवहार सम्यग्दर्शन है। इसका गुणस्थान चौधे से पठे तक ही है। सरागसम्यकावं तदेव व्यवमरसम्मानित (परमात्मप्रकाश २/७ टीका, समयसार ७७ तात्पर्यवृत्ति) । राजवार्तिक में जो भायिक सम्यक्त्व को वीतराग सम्पब कहा है (उ.मा. १/२/२६-३१) वह इस दृष्टि से कहा गया है कि अनन्तकाल तक स्थिर रहने वाले वीतराग चारित्र की उत्पत्ति तो शायिक सम्यक्त्वी मुनि को ही हो सकती है अतः मायिक सप्पकत्व को कतराग सम्यक्त्व कहा। (विशेष मेनु देखो पं.' रतलचन्द मुख्तारः व्यक्तित्व और कृतित्व पृ. ५७, १०६)
स्मरण रहे कि सराग सम्यकप या व्यवहार सम्यक्त्व भी वास्तविक सम्पकाव है। क्योंकि चोचे से छठे गुणस्थान तक सम्यक्त्व का अस्तित्व मिथ्या नहीं है। (विशेन हेतु देखो • बड़ी ग्रन्थ पृ. ८५८)
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नवमा अधिकार-२८७
बहुरि प्रश्न- केई शास्त्रनिधिषे लिम्वे हैं-आत्मा है सो ही निश्चय सम्यक्त्व है, और सर्व व्यवहार है सो कैसे है?
ताका समाधान- विपरीताभिनिवेशरहित श्रन्द्रान भया सो आत्मा ही का स्वरूप है, तहाँ अभेदबुद्धि करि आत्मा अर सम्यक्त्वविर्ष भिन्नता नाहीं, तात निश्चयकरि आत्माही को सम्यक्त्व का। और सर्व सम्यक्त्नको निमित्तमात्र हैं वा भेदकल्पना किए आत्मा अर सम्यक्त्वक भिन्नता कहिए है तात और सर्व व्यवहार कह्या है, ऐसे जानना। या प्रकार निश्चयसम्यक्त्व अर व्यवहार सम्यक्त्वकरि सम्यक्त्व के दोय भेद
हैं अर अन्य निमित्तादि अपेक्षा आज्ञासम्यक्त्वादि सम्यक्त्व के दश भेद कहे हैं, सो आत्मानुशासनविर्ष कया है
माहामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात 1....
विस्तारार्थाभ्यां भवपवगाढपरमायगाढं च ।।११।। याका अर्थ- जिनआझातें तस्वश्रद्धान भया होय सो आज्ञा सम्यक्त्व है। यहाँ इतना जानना-"मोको जनआज्ञा प्रमाण है", इतना ही श्रद्धान सम्यक्त्व नाहीं है। आज्ञा पानना तो कारणभूत है। याहीत यहाँ आज्ञातें उपज्या कह्या है। तातें पूर्व जिनआज्ञा माननेते पाछ जो तत्व श्रद्धान भया सो आज्ञासम्यक्त्व है। ऐसे ही निर्गन्धमार्ग के अवलोकनेते तत्त्व श्रद्धान भया सो मार्गसम्यक्त्व है।
(बहुरि उत्कृष्ट पुरुष तीर्थकरादिक तिनके पुराणनिका उपदेशते जो उपज्या सम्यग्ज्ञान ताकरि उत्पन्न आगमसमुद्रविष प्रवीणपुरुषनिकरि उपदेश आदित भई जो उपदेशदृष्टि सो उपदेशसम्यक्त्व है। मुनि के आचरण का विधानको प्रतिपादन करता जो आचारसूत्र ताहि सुनकरि श्रद्धान करना जो होय सो सूत्रदृष्टि भलेप्रकार कही है। यहु सूत्रसम्यक्त्व है। बहुरि बीज जे गणितज्ञान को कारण तिनकरि दर्शनमोहका अनुपम उपशम के बलते, दुष्कर है जानने की गति जाकी ऐसा पदार्थनिका समूह, ताकी भई है उपलब्धि अर्थात् श्रद्धानरूप परणति जाकै, ऐसा कर गानुयोग का ज्ञानी भया, ताकै बीजदृष्टि हो है। यहु बीज सम्यक्त्व जानना । बहुरि पदार्थनिको संक्षेपपनेत जानकरि जो श्रद्धान भया सो माली संक्षेपदृष्टि है। यह संक्षेपसम्यक्त्व जानना। जो द्वादशांगवानी को सुन कीहीं जो रुचि श्रद्धान, ताहि विस्तारदृष्टि हे भव्य तू जानि। यह विस्तारसम्यक्त्व है। बहुरि जैनशास्त्र के यचनविना कोई अर्थका निमित्तते भई सो अर्थदृष्टि है। यह अर्थसम्यक्त्व जानना।) ऐसे आट भेद तो कारण अपेक्षा किए। बहुरि अंग अर अंगवायसहित जैनशास्त्र ताको अवगाह करि जो निपजी सो अवगादृष्टि है। यह अवगाढ़सम्यक्त्व जानना । बहुरि श्रुतकेवली के जो तत्त्वश्रद्धान है, ताको अवगाइसम्यक्त्व कहिए। केवलज्ञानी के जो तत्त्वश्रद्धान है, ताको परमावगाढ़सम्यक्त्व
१. मार्ग सम्यक्त्व के बाद मत्तजी की वहस्तलिखित प्रति में तीन लाइन का स्थान अन्य सम्यक्त्वों के लक्षण लिखने के __ लिए छोड़ा गया है। यहाँ ये लक्षण मुद्रित तथा हस्तलिखित अन्य प्रतियों के अनुसार दिये गये हैं।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक- २८८
कहिए' ऐसे दोय भेद ज्ञानका सहकारीपनाकी अपेक्षा किए। या प्रकार दशभेद सम्यक्त्व के किए । तहाँ सर्वत्र सम्यक्त्वका स्वरूप तत्त्वार्थ श्रद्धान ही जानना ।
बहुरि सम्यक्त्व के तीन भेद किए हैं। १. औपशमिक २. क्षायोपशमिक ३. क्षायिक । सो ए तीन भेद दर्शनमोहकी अपेक्षा किए हैं। तहाँ औपशमिकसम्यक्त्व के दोय भेद हैं। प्रथमोपशम सम्यक्त्व, द्वितीयोपशम सम्यक्त्व । तहाँ मिथ्यात्वगुणस्थानविषै करणकरि दर्शनमोहको उपशमाय सम्यक्त्व उपजै, ताको प्रथमोपशमसम्यक्त्व कहिए है। तहाँ इतना विशेष है- अनादि मिध्यादृष्टिकै तो एक मिथ्यात्व प्रकृतिहीका उपशम होय है, जातें याकै मिश्रमोहनी अर सम्यक्त्व - मोहनी की सत्ता है नाहीं । जब जीव उपशमसम्यक्त्व को प्राप्त होय, तहाँ तिस सम्यक्त्वके कालविषै मिध्यात्व के परमाणुनिको मिश्रमोहनीरूप वा सम्यक्त्वमोहनी रूप परिणमा है, तब तीन प्रकृतीनिकी सत्ता हो है । तातें अनादि मिध्यादृष्टी के एक मिध्यात्वप्रकृतिकी ही सत्ता है । तिसहीका उपशम हो है ।
बहुरि सादिमिध्यादृष्टिकै काहूकै तीन प्रकृतीनिकी सत्ता है, काहूकै एक ही की सत्ता है । जाकै सम्यक्त्वकालविषै तीनकी सत्ता भई थी, सो सत्ता पाईए, ताकै तीनकी सत्ता है अर जाकै मिश्रमोहनी सम्यक्त्वमोहनी की उद्वेलना होय गई होय, उनके परमाणु मिथ्यात्वरूप परिणमि गए होय, तार्के एक मिध्यात्व की सत्ता है। ता सादि मिध्यादृष्टी के तीन प्रकृतीनिका वा एक प्रकृतिका उपशम हो है।
विशेष- जिस जीव के सम्यक्त्व काल में तीन की सत्ता हुई थी वह जिस मिथ्यात्वी के पाई जाती है और वह उपशम सम्यक्त्व के योग्य होता है तो तीन का उपशम करता है। यदि उसके सम्यक्त्व की उद्वेलना हो गई हो तो मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व; ऐसे दो का सत्व रहता है। तथा जिसके सम्यग्मिथ्यात्व की भी उद्वेलना हो गई हो तो वह एक ( मिथ्यात्व) का उपशम करता है इस तरह सादि मिथ्यादृष्टि के किसी के तीन प्रकृति की सत्ता है, किसी के दो प्रकृति की सत्ता है तथा किसी के एक ही की सत्ता है।.... इस कारण सादि मिध्यादृष्टि के तीन प्रकृति का या दो प्रकृति का या एक प्रकृति का उपशम होता है। ऐसा कथन समीचीन है ।
बात यह है कि सम्यक्त्व के उद्वेलना काल से सम्यग्मिथ्यात्व का उद्वेलना - काल विशेष अधिक है। कहा भी है- सम्मत्तुब्वेलणकालावो सम्मामिच्छतुव्वेलणकालस्स विसेसाहियत्तादो (श्री जयधवल ८/८०) यही कारण है कि सादि मिध्यात्वी के जब सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना हो जाती है तब उस विवक्षित क्षण में भी सम्यग्मिथ्यात्व का सत्त्व बना रहता है। और इसी कारण २७ प्रकृतिक सत्त्व स्थान बन जाता है। तथा इस २७ प्रकृतिक सत्त्वस्थान का काल मिथ्यात्वी के
-
१. सम्यक्त्व के इन दस भेदों का कथन निम्नलिखित ग्रन्थों में भी है राजवार्तिक ३/३६/२/२०१, दर्शनपाहुड़ टीका १२, यशस्तिलकचप्पू ६ / २३७ पृ. २८६, अनगारधर्मामृत २ / ६२ उत्तरपुराण ७६/५६४ तथा ५४ / २२६, पं. रतनचन्द मुख्तार व्यक्तित्व एवं कृतित्य - पृ. ३६४ ॥
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मधमा अधिकार -२९६
उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग रूप है। इस काल में वह यदि सम्यक्त्व पाता है तो उपशम सम्यक्त्व ही पावेगा तथा दो का (मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व का) उपशम करके उपशम सम्यग्दृष्टि बन जायगा। कहा भी है
अट्ठाविससंतकम्मियमिच्छाइट्टिणा पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तकालेण सम्मत्ते उव्वेल्लिदे सत्तावासविहत्ती होदि। तदो सव्वुक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदि भागमेत्तकालेण जाव सम्मामिच्छत्तमुव्वेल्लेदि ताव सत्तावीसविहत्तीए पलिदोवमस्म असंखेज्जदि भागमेत्तुक्कस्सकालुवलंभादो। (श्री जयधवल २/२५५)
अर्थ- “२८ प्रकृतियों की सत्ता वाला (यानी दर्शनमोह की ३ प्रकृति वाला) मिथ्यात्वी जीव पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल द्वारा सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना करके २७ प्रकृतिक (यानी दर्शनमोह की दो) सत्ता वाला होता है। इसके बाद वह जीव जब तक सबसे उत्कृष्ट पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल के द्वारा सम्यग्मिथ्यात्व की उद्वेलना करता है तब तक उसके २७ प्रकृतिक स्थान पाया जाता है। इस तरह २७ प्रकृतिक स्थान का उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यातवें माग प्रमाण है।" यानी सादि मिथ्यात्ची के दर्शनमोह की दो प्रकृति की सत्ता असंख्यात अन्तर्मुहूर्त तक रह सकती है।
अब हम उस आगम को देखते हैं जहाँ यह लिखा है कि २७ प्रकृतिक सत्त्व वाला मिथ्यात्वी भी उपशम सम्यक्त्व को पाता है।
२७ प्रकृतिक सत्त्व स्थानवाला उपशम सम्यक्त्व पाता है। (ज.ध.८/३२ विशे.) श्री जयधवल १२/२०८ में लिखा है
अणादियमिच्छाइट्टिस्स सादिमिच्छाइट्ठिस्स छबीससंतकम्मियस्स वा तदुवलंभादो। अहवा सम्मत्तेण विणा मोहणीयस्स सत्तावीसं पयडीओ संतकम्मं होइ, सम्मत्तमुवेलिय उक्समसम्मत्ताहिमुहम्मि तदविरोहादो। अथवा सम्मत्तेण सह अटावीससंतकम्म होइ, वेदगपाओग्गकालं बोलिय सम्मतमणिव्वेलियूण उवसमसम्मत्ताहिमुहम्मि तहाविहसंभवदंसणादो।
अर्थ- उपशमसम्यक्त्वाभिमुख जीव के- अनादि मिथ्यादृष्टि के तथा २६ प्रकृति सत्कर्म वाले सादि मिथ्यादृष्टि के २६ का सद्भाव पाया जाता है। अथवा सादि मिथ्यावृष्टि के सम्यक्त्व प्रकृति के बिना मोहनीय की २७ प्रकृतियाँ सत्कर्म रूप से होती हैं क्योंकि सम्यक्त्व की उद्वेलना कर उपशम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जीव के उनके होने में कोई विरोध नहीं है। अथवा, २८ प्रकृतियाँ सत्कर्म रूप से होती हैं क्योंकि वेदकसम्यक्त्व के योग्य काल का उल्लंघन कर, जिसने सम्यक्त्व प्रकृति की
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मोक्षमार्ग प्रकाशक- २६०
उद्वेलना नहीं की है, ऐसे उपशम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जीव के २८ प्रकृतियों का सद्भाव देखा जाता है। ( यही बात श्री धवल ६ / २०७ में लिखी है। तथा यही बात जयधवल १२ / २५७ में है । जयध. १२ प्रस्ता. पृ. २० भी देखें) इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उपशम सम्यक्त्व के अभिमुख २६, २७, २८, तीनों ही सत्त्व स्थान वाले यानी दर्शनमोह की १, २ या ३ प्रकृति वाले होते हैं। यही का यही कथन अनगार धर्मामृत २ / ४६-४७ की स्वोपज्ञ टीका पृ. १४७ ( ज्ञानपीठ) पर संस्कृत टीका में है। इस प्रकार उपशम सम्यक्त्वाभिमुख चरम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि के भी २७ २८ या २६ तीनों प्रकार के स्थान मिल सकते हैं। (ज.ध. २/ २५३ से २५६ ) इस प्रकार दर्शनमोह उपशामना के प्रस्थापक या निष्ठापक के २६, २७, २८ तीनों ही स्थान बन जाते हैं।
जय धवल १२ / ३१० विशेषार्थ भी दृष्टव्य है। जिसके एक की सत्ता है वह सातिशयमिध्यात्वी एक की ही प्रथमस्थिति करता है ( अनिवृत्तिकरण में अन्तरकरण क्रिया में) जिसके दो की सत्ता है। वह दो की तथा ३ की सत्ता वाला तीन की प्रथम स्थिति स्थापित करता है।
इसी तरह जितने ( १, २ या ३) कर्माश हों उतने का ही अन्तरकरण होता है । (चवल ६- जमत्थि दंसणमोहणीयं तस्स सव्वस्स अंतरं कीरदि । )
इस तरह यह सिद्ध हुआ कि सादि मिध्यादृष्टि के किसी के एक क्री, किसी के दो की, किसी के तीन की सत्ता है। तथा सत्ता के अनुसार उतनी की ही [१ या २ या ३ की] उपशमक्रिया होती है । यह निर्विवाद सत्य है
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उपशम कहा ? सो कहिए है
अनिवृत्तिकरणविषै किया अंतरकरणविधानतै जे सम्यक्त्व का कालविषै उदय आवने योग्य निषेक थे, तिनिका तो अभाव किया, तिनिके परमाणु अन्यकालविषै उदय आवने योग्य निषेकरूप किए बहुरि अनिवृत्तिकरणही विषै किया उपशमविधान जे तिसकाल के पीछे उदय आवने योग्य निषेक थे ते उदीरणारूप होय इस कालविषै उदय न आय सके, ऐसे किए। ऐसे जहाँ सत्ता तो पाइए अर उदय न पाइए, ताका नाम उपशम है। सो यहु मिध्यात्वतें भया प्रथमोपशम सम्यक्त्व, सो चतुर्थादि सप्तमगुणस्थानपर्यन्त पाइए है। बहुरि उपशमश्रेणी को सन्मुख होर्ते सप्तम गुणस्थानदिषै क्षयोपशमसम्यक्त्यतैं जो उपशम सम्यक्त्व होय, ताका नाम द्वितीयोपशमसम्यक्त्व है। यहाँ करणकरि तीन ही प्रकृतीनिका उपशम हो है, जातें यार्क तीनहीकी सत्ता पाइए | यहाँ भी अंतरकरणविधान वा उपशमविधान तिनिके उदय का अभाव करे है सोही उपशम है सो यहु द्वितीयोपशम सम्यक्त्व सप्तमादि ग्यारवाँ गुणस्थानपर्यन्त हो है। पड़तां कोईकै छठे पाँचवें (चौथे गुणस्थान)' भी रहे है, ऐसा जानना। ऐसे उपशम सम्यक्त्व दोय प्रकार है। सो यहु सम्यक्त्व वर्तमान
9. "चौथे गुणस्थान" यह अन्य प्रतियों में अधिक है।
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नवमा अधिकार-२६१
काल विषै क्षायिकवत् निर्मल है। याका प्रतिपक्षी कर्म की सत्ता पाईए है, तात अन्तर्मुहूर्त कालमात्र यहु सम्यक्त्व रहै है। पीछे दर्शनमोह का उदय अवै है, ऐसा जानना। ऐसे उपशम सम्यक्त्व का स्वरूप कह्या।
बहुरि जहाँ दर्शनमोह की तीन प्रकृतीनिविषै सम्यक्त्वमोहनी का उदय होय (पाइए है, ऐसी दशा जहाँ होय सो क्षयोपशम है। जाते समलतत्या प्रशान होय, सोनोपान न्याय ।।) अर शेय का उदय न होय, तहाँ क्षयोपशम सम्यक्त्व हो है। सो उपशम सम्यक्त्व का काल पूर्ण भए यहु सम्यक्त्व हो है वा सादि मिथ्यादृष्टी के मिथ्यात्व गुणस्थानत वा मिश्रगुणस्थानते भी याकी प्राप्ति हो है।
क्षयोपशम कहा? सो कहिए है__दर्शनमोह की तीन प्रकृतीनिविष जो मिथ्यात्व का अनुभाग है ताकै अनन्तर्वे भाग मिश्रमोहनी का है। ताकै अनन्तवें भाग सम्यक्त्यमोहनी का है। सो इनिविष सम्यक्त्वमोहनी प्रकृति देशघाती है। याका उदय होते भी सम्यक्त्व का घात न होय। किंचित् मलीनता करे, मूलघात न कर सके; ताहीका नाम देशघाती है। सो जहाँ मिथ्यात्व वा मिश्रमिथ्यात्वका वर्तमानकालविष उदय आवने योग्य निषेक तिनका उदय हुए बिना ही निर्जरा हो है सो तो मय जानना और इनिही का आगामीकालविष उदय आवने योग्य निषेकनिकी सत्ता पाइए सो ही उपशम है और सम्यक्त्यमोहनी का उदय पाइए है, ऐसी दशा जहाँ होय सो क्षयोपशम है, नाते समलतत्त्वार्थ श्रद्धान होय सो क्षयोपशम सम्यक्त्व है। यहाँ मल लाग है, ताका तारतम्य स्वरूप तो केवली जाने है, उदाहरण दिखावने अर्थि चल-मलिन-अगाढ़पना कह्या है। तहाँ व्यवहार मात्र देवादिक की प्रतीति तो होय परन्तु अरहन्तदेवादिविषै यहु मेरा है, यहु अन्यका है, इत्यादि भाव सो चलपना है। शंकादि मल लागै सो मलिनपना है। यहु शांतिनाथ शांति का कर्ता है इत्यादि भाव सो अगादपना है। सो ऐसे उदाहरण व्यवहारमात्र दिखाए परन्तु नियमरूप नाहीं। क्षयोपशम सम्यक्त्य विष जो नियमरूप कोई मल लामै है सो केवली जाने है। इतना जानना-याकै तत्त्वार्थश्रद्धानविषै कोई प्रकार करि समलपनो हो है तात यह सम्यक्त्व निर्मल नाहीं है। इस क्षयोपशम सम्यक्त्वका एक ही प्रकार है। याविषे किछू भेद नाहीं है। इतना विशेष है- जो क्षायिक सम्यक्त्व को सन्मुख होते अन्तर्मुहूर्त्तकाल मात्र जहाँ निय्यात्व की प्रकृति का क्षय करे है, तहाँ दोय ही प्रकृतीनिकी सत्ता रहै है । बहुरि पीछे मित्रमोहनी का भी क्षय करै है। तहाँ सम्यक्त्वमोहनी की ही सता रहे है। पीछे सम्यक्त्व मोहनीय की कांडकघातादि क्रिया न करै है। तहाँ कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि नाम पावै है, ऐसा जानना। बहुरि इस क्षयोपशमसम्यक्त्व ही का नाम वेदकसम्यक्त्व है। जहाँ मिथ्यात्वमिश्रमोहनी की मुख्यता करि कहिए, तहाँ क्षयोपशम नाम पाये है। सम्यक्त्व मोहनी की मुख्याकरि कहिए, तहाँ वेदक नाम पावै है। सो कहने मात्र दोय नाम हैं, स्वरूपविवे भेद है नाहीं। बहुरि यहु क्षयोपशम सम्यक्त्व चतुर्थादि सप्तमगुणस्थान पर्यन्त पाइए है, ऐसे क्षयोपशम सम्यक्त्व का स्वरूप कहा।
बहुरि तीनों प्रकृतीनि के सर्वथा सर्व निषेकनिका नाश भए अत्यन्त निर्मल तत्त्वार्थश्रद्धान होय सो मायिक सम्यक्त्व है। सो चतुर्थादि चार गुणस्थाननियिषे कहीं क्षयोपशम सम्यग्दृष्टी के याकी प्राप्ति हो है।
१, अर्थात् सर्वधाती रूप से उदय न होकर सम्यक्त्व के देशघाती स्पर्षक रूप से उदय में आना ।
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कैसे हो है ? सो कहिए है- प्रथम तीन करणकरि तहाँ मिध्यात्व के परमाणूनिको मिश्रमोहनी वा सम्यक्त्व मोहनीरूप परिणमावै वा निर्जरा करे, ऐसे मिथ्यात्व की सत्ता नाश करे। बहुरि मिश्रमोहनी के परमाणूनिको सम्यक्त्व मोहनीरूप परिणमावे वा निर्जरा करें, ऐसे मिश्रमोहनी का नाश करे। बहुरि सम्यक्त्वमोहनी के निषेक उदय आय खिरे, वाकी बहुत स्थिति आदि होय तो ताको स्थितिकांडादिकरि घटावै । जहाँ अन्तर्मुहूर्त्तस्थिति रहै, तब कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टी होय । बहुरि अनुक्रमतें इन निषेकनिका नाश करि क्षायिक सम्यग्दृष्टी हो है । सो यहु प्रतिपक्षी कर्म के अभाव निर्मल है वा मिथ्यात्वरूप रंजना के अभावतें वीतराग है । याका नाश न होय । जहाँतें उपजे तहाँ सिद्ध अवस्था पर्यन्त याका सद्भाव है। ऐसे क्षायिक सम्यक्त्व का स्वरूप कह्या । ऐसे तीन भेद सम्यक्त्व के हैं ।
1
बहुरि अनन्तानुबंधी कषाय की सम्यक्त्व होत दोय अवस्था हो है। कै तो अप्रशस्त उपशम हो है, के विसंयोजन हो है। तहाँ जो करणकरि उपशम विधान उपशम होय ताका नाम प्रशस्त उपशम है। उदय का अभाव ताका चाप राप्रशस्त उस है । सो आन्तास्त उपशम तो होय ही नाहीं, अन्य मोहकी प्रकृतीनिका हो है । बहुरि इस का अप्रशस्त उपशम हो है ।
विशेष- लब्धिसार टीका पृ. ८३ पर सिद्धान्तशिरोमणि करणानुयोग प्रभाकर रतनचंद मुख्तार लिखते हैं: - अनन्तानुबन्धी चतुष्क का न तो अन्तर होता है और न ही प्रशस्त उपशम होता है। हाँ, परिणामों की विशुद्धता के कारण प्रतिसमय स्तिबुक संक्रमण द्वारा अनन्तानुबन्धी कषाय का अप्रत्याख्यानावरण आदि कषाय रूप परिणमन होकर परमुख उदय होता रहता है (उपशम सम्यक्त्व के काल में)। फिर प्रथमोपशम सम्यक्त्व के काल में अधिक से अधिक ६ आवली तथा कम-से-कम १ समय शेष रहने पर परिणाम की विशुद्धि में हानि हो जाये तो अनन्तानुबन्धी का स्तिबुक संक्रमण रुक जाता है और अनन्तानुबन्धी के परमुख उदय के बजाय स्वमुख उदय आने के कारण प्रथमोपशम सम्यक्त्व की आसादना (विराधना ) हो जाती है। '
I
बहुरि जो तीन करणकरि अनन्तानुबंधीनि के परमाणुनिको अन्य चारित्रमोह की प्रकृति रूप परिणमाय तिस की सत्ता नाश करिए, ताका नाम विसंयोजन है । सो इनविषै प्रथमोपशम सम्यक्त्वविषै तो अनन्तानुबंधी का अप्रशस्त उपशम ही है । बहुरि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति पहिले अनन्तानुबंधी का विसंयोजन भए ही होय; ऐसा नियम कोई आचार्य लिखे हैं, कोई नियम नाहीं लिखे हैं । बहुरि क्षयोपशम सम्यक्त्वविषै कोई जीव कै अप्रशस्त उपशम हो है या कोईकै विसंयोजन हो है । बहुरि क्षायिक सम्यक्त्व है सो पहले अनन्तानुबंधी का विसंयोजन भए ही हो है, ऐसा जानना । यहाँ यह विशेष है- जो उपशम क्षयोपशम सम्यक्त्वीक अनन्तानुबंधी का विसंयोजन सत्ता नाश भया था, बहुरि वह मिथ्यात्वविषै आवे तो
१. यहाँ कोई ऐसा न समझ ले कि अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना नहीं होती है, अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना होती है पर यहाँ विशेषार्थ में हमें मात्र अप्रशस्त उपशम ही स्पष्ट करना अभीष्ट रहा है. 1
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अनन्तानुबंधी का बंध करे, तहाँ बहुरि वाकी सत्ता का सद्भाव हो है । अर क्षायिकसम्यग्दृष्टी मिथ्यात्वविर्ष आवे नाही, तातै वाकै अनंतानुबंधी की सत्ता कदाचित् न होय ।
यहाँ प्रश्न- जो अनन्तानुबंधी तो चारित्रमोह की प्रकृति है सो चारित्र को घात, याकरि सम्यक्त्व का घात कैसे सम्भवै ?
ताका समायान- अनन्तानुबंधी के उदयत क्रोधादिरूप परिणाम हो है, किछु अतत्त्व श्रद्धान होता नाहीं। तात-अनन्तानुबंधी चारित्रही को घाते है, सम्यक्त्व को नाहीं घाते है ।
विशेष- अनन्तानुबन्धी कषाय ४ तथा मिथ्यात्व व सम्यगिमथ्यात्व इन छह प्रकृतियों का भाव (उदयाभाव) होने पर ही सम्यक्त्व होता है तथा इनमें से एक के भी सद्भाव होने पर नियम से सम्यक्त्व नष्ट हो ही जाता है । इसप्रकार इन ६ प्रकृतियों के अन्वय व व्यतिरेक में सम्यग्दर्शन का व्यतिरेक व अन्वय निश्चित है, अतः श्यार्थशास्त्र के अनुसार सम्पतिवाइन छह प्रकृतिने को कहा है। सम्यक्त्वघातरूप कार्य अनन्तानुषन्धी के उदय से निश्चित रूप से होता है तथा अनन्तानुबंधी के उदय रहते सम्यक्त्व का उत्पाद त्रिकाल असम्भव है । इस कारण न्यायतः अनन्तानुबन्धी भी सम्यक्त्वधातक है ही और न्याय का अपलाप नहीं किया जा सकता ।
विपरीताभिनिवेश दो प्रकार का होता है-अनन्तानुबन्धी-जनित तथा मिथ्यात्वजनित । इन दोनों प्रकार के विपरीताभिनिवेशों के अभाव से ही सम्यक्त्व सम्भव है । (धवल १/१६५)
सो परमार्थतें है तो ऐसे ही परन्तु अनन्तानुबंधी के उदयतें जैसे क्रोधादिक हो हैं, तैसे क्रोधादिक सम्यस्त्व होत न होय । ऐसा निमित्त-नैमित्तिकपना पाईए है। जैसे त्रसपना की घातक तो स्थावरप्रकृति ही है परन्तु सपना होते एकेन्द्रिय जाति प्रकृति का भी उदय न होय, ताते उपचारकरि एकेन्द्रिय प्रकृति को भी सपना का घातकपना कहिए तो दोस नाहीं । तैसे सम्यक्त्व का घातक तो दर्शनमोह है परन्तु सम्यक्त्व होते अनन्तानुबंधी कषायनिका भी उदय न होय, ताते उपचारकरि अनन्तानुबंधीक भी सम्यक्त्व का घातकपना कहिए तो दोष नाहीं ।
बहुरि यहाँ प्रश्न- जो अनन्तानुबंथी चारित्रही को पाते है तो याके गए किछू चारित्र भया कहो । असंयत गुणस्थानविष असंयम काहे को कहो हो ?
ताका समाधान- अनन्तानुबंधी आदि भेद है, ते तीव्र मंद कषाय की अपेक्षा नाहीं है । जाते मिध्यादृष्टीके तीव्र कषाय होते वा मंदकपाय होते अनन्तानुबंधी आदि च्यारों का उदय युगपत् हो है 1 तहाँ च्यारों के उत्कृष्ट स्पर्द्धक समान कहे हैं ।
विशेष- अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान व संज्वलन के उत्कृष्ट स्पर्थक समान नहीं हैं । परमपूज्य जयधवल पु. ५ पृ. १३३-३४ पर लिखा है- ण तेसिं सवेसि पि चरिफदयाणि
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सरिसाणि। त कुदो जब महापं मारिनामामामो तं बह-विच्छतुक्कस्सट्ठाण चरिमफद्दयादो सेलसमाणादो अणंताणुबंधी-लोभचरिमाणु-भागफदयमणतगुणहीणं। लोभचरिमाणुभागफदयादो मायाए चरिमाणुभागफदर्य विसेसहीणं । तत्तो कोधचरिमफद्वयं विसेसहीणं । कोषचरिमफदयादो माणचरिमफदयं विसेसहीणं। अणंताणुबंधिमाणचरिमफद्दयादो लोभसंजलणचरिमाणुभागफद्दयमणंतगुणहीणं तत्तो तस्सेव मायाचरिमफदयं विसेसहीणं । तदो तस्सेव कोषचरिमफदर्य विसेसहीणं । तदो तस्सेव माण-चरिमफद्दयं विसेसहीणं । माणसंजलणचरिमफद्दयावो पच्चक्खाणायरण लोभ चरिमफद्दयं अणंतगुणहीणं। तदो तस्सेव मायाचरिमफदर्य विसेसहीणं, तदो तस्सेव कोधचरिमफद्दयं विसेसहीणं । तदो तस्सेय माणचरिमफदयं विसेसहीणं। पच्चक्खाणावरणमाणचरिमफद्दयादो अपच्चक्खाणावरण लोभचरिमफद्दयमणंतगुणहीणं । तदो तस्सैव माया-चरिमफद्दयं विसेसहीणं । तदो तस्सेव-कोषचरिमफद्दयं विसेसहीणं । तदो तस्सेव माणचरिमफदयं विसेसहीणं । {जयथवल)
अर्थ-चारों कषायों के अन्तिम स्पर्धक समान नहीं हैं। शंका-यह कैसे जाना जाता है कि मिथ्यात्वादि के अन्तिम स्पर्धक समान नहीं हैं ? समाधान-महाबन्ध नामक सूत्रग्रंथ {यानी श्री महाधवला से यह जाना जाता है। यथा-मिथ्यात्व के उत्कृष्ट स्थान शैल समान अन्ति'. स्पर्धक से अनन्तानुबन्धी लोभ का अन्तिम अनुभाग स्पर्धक अनन्तगुणा हीन है। लोभ के अन्तिम प्रभाग स्पर्धक से माया का अन्तिम अनुभाग स्पर्धक विशेषहीन है। उससे क्रोध का अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। उससे मान का अन्तिम स्पर्धक विशेष हीन है।
अनन्तानुबन्धी मान के अन्तिम स्पर्धक से संचलन लोभ का अन्तिम स्पर्धक अनन्तगुणाहीन है। उससे उसी की माया का अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। उससे उसी के क्रोध का अन्तिम स्पर्थक विशेषहीन है। उससे उसी के मानका अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। संज्वलन मान के अन्तिम स्पर्धक से प्रत्याख्यानावरण लोभ का अन्तिम स्पर्धक अनन्तगुणा हीन है। उससे उसी की माया का अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है, उससे उसी के क्रोध का अन्तिम स्पर्थक विशेष हीन है। उससे उसी के मान का अन्तिम स्पर्थक विशेषहीन है। प्रत्याख्यानाकरण मान के अन्तिम स्पर्धक से अप्रत्याख्यानावरण लोभ का अन्तिम स्पर्धक अनन्तगुणाहीन है। उससे उसी की माया का अन्तिम स्पर्थक विशेष हीन है। उससे उसी के क्रोध का अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। उससे उसी के मान का अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। इस प्रकार जयधवला जी व महाधवलजी से चारों कषायों के अन्तिम स्पर्धकों की असमानता सिद्ध है। (देखें-जैन गजट दि. ७.७.७३ ई., सि. शिरोमणि ब्र. रतनचन्द मुख्तार • इतना विशेष है- जो अनन्तानुबंधी के साथ जैसा तीव्र उदय अप्रत्याख्यानादिक का होय, तैसा ताको गए न होय। ऐसे ही अप्रत्याख्यान की साथि जैसा प्रत्याख्यान संचलन का उदय होय, तैसा ताको गए न
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होय । बहुरि जैसा प्रत्याख्यान की साथि संज्वलन का उदय होय, तैसा केवल संज्वलन का उदय न होय । ता अनन्तानुबंधी के गए किछू कषायनिकी मंदता तो हो है परन्तु ऐसी मन्दता न हो है, जाकरि कोउ चारित्र नाम पावै । जातैं कषायनि के असंख्यात लोकप्रमाण स्थान हैं । तिनविषै सर्वत्र पूर्वस्थानतें उत्तरस्थानविषे मंदता पाईए है परन्तु व्यवहारकरि तिन स्थाननिविषै तीन मर्यादा करी आदि के बहुत स्थान तो असंयमरूप कहे, पीछे केतेक देशसंयमरूप कहे, पीछे केतेक सकलसंयमरूप कहे । तिनविषै प्रथम गुणस्थान लगाय चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त जे कषाय के स्थान हो हैं ते सर्व असंयमही के हो हैं। तातें कषायनिकी मंदता होतें भी चारित्र नाम न पावै है । यद्यपि परमार्थ कषाय का घटना चारित्र का अंश है, तथापि व्यवहारतें जहाँ ऐसा कषायनिका घटना होय, जाकरि श्रावकधर्न वा मुनिधर्म का अंगीकार होय, तहाँ ही चारित्र नाम पाये है। सो असंयमविषै ऐसे कषाय घटै नाहीं, तातैं यहाँ असंयम कहा है । कषायनिका अधिक हीनपना होते भी जैसे प्रमत्तादिगुणस्थाननिविषै सर्वत्र सकलसंयम ही नाम पावै तैसे मिथ्यात्वादि असंयतपर्यंत गुणस्थाननिविषै असंयम नाम पावै है । सर्वत्र असंयम की समानता न जाननी ।
विशेष- यह ठीक है कि चतुर्थ गुणस्थान में कषाय की एक चौकड़ी का अभाव हो जाता है, अतः इतने अंशों में वहाँ कषायांश तो घटता ही है, पर उसे संयमरूप चारित्र नाम नहीं मिलता है। चारितं णत्थि जदो अविरद अंतेसु ठाणेसु [गो. जी. १२] इस आर्ष वचन के अनुसार वहाँ चारित्र नहीं होता । षट्खण्डागम में भी चतुर्थगुणस्थान में असंयत भाव को औदयिक ही कहा; क्षायोपशमिक नहीं ( धवल ५ / २११ ) हाँ, चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्वाचरण चारित्र अवश्य होता है । परन्तु संयमरूप चारित्र वहाँ नहीं होता। लोक में भी संयमरूप चारित्र को ही चारित्र कहा जाता है। तथा आगम में भी संयमरूप चारित्र ही निर्जरा का कारण कहा है (पवल ८/८३, मो. भा. प्र. पृ. ३४७ सातवाँ अधिकार तथा पृ. ३०७ अधिकार ७, धवल ३ / ११६, धवल ६ / २७३, ल. सा. पृ. २७४ रायचन्द्र शास्त्रमाला आदि ) । सूक्ष्म वस्तु रचना में साक्षात् सर्वज्ञरूप ही स्वीकृत, विश्वविद्यानिधि के द्रष्टा, शब्दब्रह्म १०८ भगवद् वीरसेन ( ज थ १६ / १४६ ) कहते हैं कि चारित्र के विषय में अनन्तानुबंधी का कार्य यह है कि वह अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के उदयप्रवाह को अनन्त (अनन्तसागरकालिक-अपरिमित काल तक उदय वाली) कर देती है। इसलिए चारित्र में अनन्तानुबन्धी चतुष्क का व्यापार निष्फल नहीं है। [ धवल ६ / ४३ }
बहुरि यहाँ प्रश्न जो अनन्तानुबंधी सम्यक्त्व को न घाते है तो याके उदय होर्ते सम्यक्त्व भ्रष्ट होय सासादन गुणस्थान को कैसे पाये है?
ताका समाधान - जैसे कोई मनुष्य के मनुष्यपर्याय नाश का कारण तीव्ररोग प्रगट भया होय, ताको मनुष्यपर्याय का छोड़नहारा कहिए। बहुरि मनुष्यपना दूर भए देवादिपर्याय होय, सो तो रोग अवस्थाविषे न
भया । इहाँ मनुष्य ही की आयु है । तैसे सम्यक्त्वीके सम्यक्त्व के नाश का कारण अनन्तानुबंधी का उदय प्रगट भया, ताको सम्यक्त्व का विरोधक सासादन कह्या बहुरि सम्यक्त्व का अभाव भए मिथ्यात्व होय सो
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तो सासादनविषै न भया । यहाँ उपशमसम्यक्त्व ही का काल है, ऐसा जानता । ऐसे अनन्तानुबंधी चतुष्क की सम्यक्त्व होते अवस्था हो है, तातै सात प्रकृतीनि के उपशमादिकते भी सम्यक्त्व की प्राप्ति कहिए है ।
विशेष- (१) सासादन भी कथंचित् मिथ्यात्व है यथा सम्यक्त्वचारित्रप्रतिबंधि - अनन्तानुबन्धिउदयोत्पादित-विपरीताभिनिवेशस्य तत्र सद्भावात्भवति मिथ्यादृष्टिः अपि तु मिथ्यात्वकर्मोदयजनितविपरीताभिनिवेशाभावात् न तस्य मिथ्यादृष्टिव्यपदेशः, किन्तु सासादन इति व्यपदिश्यते (धवल १/१६५)
अर्थ- सम्यग्दर्शन और चारित्र का प्रतिबंध करने वाले अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश दूसरे गुणस्थान में पाया जाता है, इसीलिए (इस दृष्टि से) द्वितीय गुणस्थानवी जीव मिथ्यात्वी है, किन्तु मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पत्र हुआ विपरीताभिनिवेश वहाँ नहीं पाया जाता है इसलिए (इस दृष्टि से) उसे मिथ्यादृष्टि नहीं कहते हैं, किन्तु सासादन सम्यक्त्वी कहते हैं।
(२) “सासादन में उपशम सम्यक्त्व का काल है ।" इसका अर्थ कोई यह नहीं समझे कि दूसरे गुणस्थान में उपशम सम्यक्त्व है । क्योंकि दूसरे गुणस्थान वाला णासियसम्मोत्तो (गो. जी. २०, प्रा. पं. सं. १/९, धवल १/१६६) अर्थात् नाशित सम्यक्त्व (जिसका सम्यक्त्व रत्न नष्ट हो चुका ऐसा जीव) कहलाता है। सासादन गुणी असदृष्टि है । (थवल १/१६५) वह उपशम सम्यक्त्व के काल के अन्त में पतिानाशित सम्यक्त्व होकर ही सासादन को प्राप्त होता है; स्थितिमूत उपशम सम्यक्त्व के साथ सासादन में नहीं जाता, यह अभिप्राय है । "सासादन में उपशम सम्यक्त्व का काल है" इसका अभिप्राय यह है कि उपशम सम्यक्त्व काल की अन्तिम ६ आवली की अवधि में कोई जीव परिणाम-हानिवश सम्यक्त्वरत्न को खोकर (ल.ना. पृ. ८३ मुख्तारी) सासादन (नाशित सम्यक्त्व व मिथ्यात्वगुण के अभिमुख) हो सकता है । (जयधवल १२, लब्धिसार गा. ६६ से १०६, धवल ४/३३६-३४३ आदि)'
(३) अनन्तानुबन्धी यद्यपि चारित्रमोहनीय ही है तथापि वह स्वक्षेत्र तथा परक्षेत्र में घात करने की शक्ति से युक्त है । थवल में कहा है कि:- अणताणुबंधिणो.....सम्मतचारित्ताणं विरोहिणो । दुविहसत्तिसंजुदत्तादो।....एदेसिं...सिद्धं दसणमोहणीयत्तं चरित्तमोहणीयत्तं च (धवल ६/४२-४३) अर्थगुरूपदेश तथा युक्ति से जाना जाता है कि अनन्तानुबंधी कषायों की शक्ति दो प्रकार की है। इसलिए सम्यक्त्व व चारित्र इन दोनों को धातने वाली दो प्रकार की शक्ति से संयुक्त अनन्तानुबंधी है ।..... इस प्रकार सिद्ध होता है कि अनन्तानुबंथी दर्शनमोहनीय भी है; चारित्र मोहनीय भी है । अर्थात् सम्यक्त्व तथा चारित्र को घातने की शक्ति से संयुक्त है । (धवल ६/४३) इस प्रकार अनन्तानुबन्थी की दोनों शक्तियों को स्वीकार करना चाहिए ।
१. सासादन सम्यक्त्व का काल जघन्य से एक समय है उत्कृष्ट छह आवली प्रमाणकाल है।
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बहुरि प्रश्न-सम्यक्त्वमार्गणा के छह भेद किए हैं, सो कैसे हैं?
ताका समाधान-सम्यक्त्व के तो भेद तीन ही हैं। बहुरि सम्यक्त्य का अभावरूप मिथ्यात्व है। दोऊनिका मिश्रभाव सो मिश्र है मगरम का घाव मे समापन है ! ऐगे सम्यक्त्व मार्गणाकरि जीवका विचार किये छह भेद कहे हैं। यहाँ कोई कहै कि सम्यक्त्वते भ्रष्ट होय मिथ्यात्वविषै आया होय, ताको मिथ्यात्वसम्यक्त्व कहिए। सो यहु असत्य है, जाते अभव्यकै भी तिसका सद्भाव पाइए है। बहुरि मिथ्यात्वसम्यक्त्व कहना ही अशुद्ध है। जैसे संयममार्गणाविषे असंयम कह्या, 'भव्यमार्गणाविषै अभव्य कह्या, तेसे ही सम्यक्त्वमार्गणा विषै मिथ्यात्व कह्या है। मिथ्यात्व को सम्यक्त्व का भेद न जानना । सम्यक्त्व अपेक्षा विचार करते केई जीवनिकै सम्यक्त्व का अभाव भासै तहाँ मिथ्यात्व पाइए है, ऐसा अर्थ प्रगट करने के अर्थि सम्यक्त्वमार्गणा विषै मिथ्यात्व कह्या है। ऐसे ही सासादन मिश्र भी सम्यक्त्व के भेद नाहीं हैं। सम्यक्त्व के भेद तीन ही हैं, ऐसा जानना। यहाँ कर्म के उपशमादिक ते उपशमादिक सम्यक्त्व कहे सो कर्म का उपशमादिक याका किया होता नाहीं। यह तो तत्त्वश्रद्धान करने का उद्यम करै, तिसके निमित्त स्वयमेव कर्म का उपशमादिक हो है। तब याकै तत्त्वश्रद्धान की प्राप्ति हो है, ऐसा जानना। या प्रकार सम्यक्त्व के भेद जानने। ऐसे सम्यग्दर्शन का स्वरूप कह्या।
सम्यग्दर्शन के आठ अंग बहुरि सम्यग्दर्शन के आठ अंग कहे हैं। निःशंकितत्व, निःकांक्षितत्व, निर्विचिकिरसत्व, अमूढदृष्टित्व, उपवृहण, स्थितीकरण, प्रभावना, यात्सल्य। तहाँ भय का अभाव अथवा तत्त्वनिविषै संशय का अभाव, सो निःशंकितत्व है। बहुरि परद्रव्यादिविषे रागरूप वांछा का अभाव, सो निःकांक्षितत्व है। बहुरि पराव्यादिविर्षे द्वेषरूप ग्लानिका अभाय, सो निर्विचिकित्सत्व है, बहुरि तत्त्वनिविषै वा देवादिकविषै अन्यथा प्रतीतिरूप मोह का अभाव, सो अमूहदृष्टित्व है। बहुरि आत्मधर्म का वा जिनधर्म का बधावना, ताका नाम उपहण है। इस ही अंग का नाम उपगूहन भी कहिए है। तहाँ धर्मात्मा जीवनि का दोष ढांकना ऐसा ताक अर्थ जानना । बहुरि अपने स्वभावविषे वा जिनधर्मविषै आपको वा परको स्थापन करना, सो स्थितीकरण है। बहुरि अपने स्वरूप की वा जिनधर्म की महिमा प्रगट करना, सो प्रभावना है। बहुरि स्वरूपविष वा जिनधर्मविष वा धर्मात्मा जीदनिविष अतिप्रीति भाव, सो वात्सल्य है। ऐसे ए आठ अंग जानने। जैसे मनुष्य शरीर के इस्तपादादिक अंग हैं, तैसे ए सम्यक्त्व के अंग हैं।
यहाँ प्रश्न-जो केई सम्यक्त्वी जीवनिकै भी भय इच्छा ग्लानि आदि पाइए है अर केई मिथ्यादृष्टीकै न पाइए है, तातै निःशंकितादिक अंग सम्यक्त्व के कैसे कहो हो ?
ताका समाधान- जैसे मनुष्य शरीर के हस्तपादादि अंग कहिए है, तहाँ कोई मनुष्य ऐसा भी होय, जाके हस्तपादादिविषै कोई अंग न होय। तहाँ वाकै मनुष्यशरीर तो कहिए परन्तु तिनि अंगनि बिना वह शोभायमान सकल कार्यकारी न होय। तैसे सन्यक्त्व के निःशंकितादि अंग कहिए है, तहाँ कोई सम्यक्ती ऐसा भी होय, जाकै निःशंकितत्वादिविषै कोई अंग न होय 1 तहाँ वाकै सम्यक्त्व तो कहिए परन्तु तिनि अंगनिबिना
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वह निर्मल सकल कार्यकारी न होय। बहुरि जैसे बांदरेकै भी हस्तपादादि अंग हो हैं परन्तु जैसे मनुष्य के होय, तैसे न हो हैं। तैसे मिध्यादृष्टीनिकै भी व्यवहाररूप निःशंकितादिक अंग हो हैं परन्तु जैसे निश्चय की सापेक्ष लिए सम्यक्त्वो के होय तैसे न हो हैं ही सम्य सपिय पचीज ला पहें हैं- आशंकादिक, आठ मद, तीन मढ़ता, षट् अनायतन, सो ए सम्यक्त्वीक न होय। कदाचित् काहूकै कोई लागै सम्यक्त्वका सर्वथा नाश न हो है, तहाँ सम्यक्त्व मलिन ही हो है, ऐसा जानना। बहु.....
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परिशिष्ट रक्ण् ' ....
परिशिष्ट १ : कथाभाग छठा अधिकार-पृ. १५२ पंक्ति ९
(१) मुनियों को आहारदान न देने की कथा प्रभापुर नगर के राजा श्रीनन्दन और रानी धरणी के सुरमन्यु, श्रीमन्यु, निचय, सर्वसुन्दर, जयवान, विनयलालस और जयमित्र ये सात पुत्र हुए। प्रीतिंकर स्वामी के केवलज्ञान को देख प्रतिबोध को प्राप्त हो पिता-पुत्र संसार से विरक्त हो गये। पिता श्रीनन्दन तो केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गये और ये सातों पुत्र चारणऋद्धि आदि अनेक ऋद्धियों के धारक श्रुतफेवली हो सप्तर्षि के नाम से विहार करने लगे।
__ "सो चातुर्मासिक विषै मथुरा के वनविषे वट के वृक्ष तले आय विराजे । तिनके तप के प्रभावकरि चमरेन्द्र की प्रेरी मरी दूर भई।... मथुरा का समस्त मण्डल सुखरूप भया... । वे महामुनि रसपरित्यागादि तप अर बेला तेला पक्षोपवासादि अनेक तप के धारक, जिन चार महीना चौमासे रहना तो पथुरा के वनविषै, अर चारणऋद्धि के प्रभावतें चाहे जहाँ आहार कर आवे। सो एक निमिष मात्र विष आकाश के मार्ग होय पोदनापुर पारणा कर आये, बहुरि विजापुर कर आवै।... एक दिन वे धीर वीर महाशान्त भाव के धारक जूड़ा प्रमाण घरती देख विहार कर ईर्यासमिति के पालनहारे आहार के समय अयोध्या आये। शुद्ध भिक्षा के लेनहारे, प्रलंबित हैं महाभुजा जिनकी, अर्हदत्त सेठ के घर आय प्राप्त भये। तब अहंद ने विचारी वर्षाकाल विषै मुनि का विहार नाही, ये चौमासा पहिले तो यहाँ आये नाहीं। अर मैं यहाँ जे जे साधु विराजे है, गुफा में, नदी के तीर, वृक्षतले, शून्य स्थानक विष, वन के चैत्यालयनिविषै, जहाँ-जहाँ चौमासा साधु तिष्ठे हैं, वे मैं सर्व बंद। ये तो अब तक देखे नाहीं। ये आचारांग सूत्र की आज्ञा से पराङ्मुख इच्छाबिहारी हैं, वर्षाकाल विषै भी प्रमते फिरै हैं, जिन आज्ञा पराङ्मुख, ज्ञानरहित, निराचारी, आचार्य की आम्नाय से रहित हैं। जिन आज्ञा पालक होय तो वर्षाविषै विहार क्यों करे? सो यह तो उट गया, अर याकै पुत्र की वथू ने अति भक्ति कर प्रासुक आहार दिया। सो मुनि आहार लेय भगवान के चैत्यालय आय जहाँ धुतिभट्टारक विराजते हुते, ये सप्तर्षि ऋद्धि के प्रभाव कर धरती से चार अंगुल अलिप्त चले आये अर चैत्यालयविषै धरती पर पग धरते आये। आचार्य उठ खड़े भये, अति आदर से इनकू नमस्कार किया। अर जे द्युतिभट्टारक के शिष्य हुते तिन सबने नमस्कार किया। बहुरि ये सप्त तो जिनधन्दना करि आकाश के मार्ग मधुरा गये। इनके गये पीछे अर्हदत्त सेट चैत्यालय विषै आया। तब द्युतिभट्टारक ने कही - सप्त महर्षि महायोगीश्वर चारणमुनि यहाँ आये हुते, तुमने हूं वह वंदे हैं? वे महापुरुष महातप के धारक हैं, चार महीने मथुरा निवास किया है, अर चाहै जहाँ आहार ले जाय । आज अयोध्याविषै आहार लिया, चैत्यालय दर्शन कर गये, हमसे धर्मचर्चा करी, वे महातपोधन नगरगामी शुभ चेष्टा के धरणहारे, परम उदार, ते मुनि बन्दिवे योग्य हैं। तब वह श्रावकनिविषै अग्रणी आचार्य के मुख सूं चारणमुनिनि की महिमा सुनकर खेदखिन्न होय पश्चाताप करता भया। धिक्कार मोहि मैं सम्यक्दर्शन रहित वस्तु का स्वरूप न पिछान्या, मैं अत्याचार
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परिशिष्ट - ३००
मिथ्यादृष्टि, मो समान और अधर्मी कौन? वे महामुनि मेरे मन्दिर अहारकू आये अर मैं नवधा भक्ति कर
आहार न दिया। जो साधुकू देख सन्मान न करै अर भक्ति कर अन्नजल न देय सो मिथ्यादृष्टि है। मैं पापी, पापात्मा, पाप का भाजन, महानिंद्य, मो समान और अज्ञानी कौन? मैं जिनवाणी से विमुख। अब मैं जौलग उनका दर्शन न करूं तौलग मेरे मन का दाह न मिटै।" जब अष्टाहिका आई तो अर्हदत्त सेट ने मथुरा पहुँच कर मुनियों की पूजा-स्तुति की और आहार देकर चित्त को शान्त किया।
__-पद्मपुराण, पर्व ६२ अनुवाद पं. दौलतरामजी, पृ. सं. ७१२-७१४ श्रीमहावीरजी प्रकाशन सातौं अधिकार-पृ. १८१ पंक्ति १५
(२) कुत्ते के देव होने की कथा एक बार कुछ विन यज्ञ कर रहे थे, तभी एक कुत्ते ने आकर उनकी हवन-सामग्री जूठी कर दी। उन विप्रों ने उरा कुत्ते को बेरहमी से इतना मारा कि वह मरणासन्न हो गया। संयोग से जीवन्धर कुमार उधर आ निकले। उन्होंने कुत्ते को मरते देख कर उसे नमस्कार मन्त्र सुनाया। मन्त्र के प्रभाव से कुत्ता मर कर यक्षों का इन्द्र सुदर्शन हुआ। अनशिज्ञान से अपने उपकारी का स्मरण कर वह जीवन्धर कुमार के पास आया और बोला कि "हे जीवन्धर! जब भी तुम पर कोई विपत्ति आये तो मेरा स्मरण करना, मैं उसी समय आकर आपकी विपनि दूर कर दूंगा।” यह कह कर वह चला गया। कालान्तर में जब जीवन्धर को मृत्युदण्ड मिलता है तब सुदर्शन यक्षेन्द्र आकर जीवन्धर की रक्षा करते हैं।
क्षत्रचूड़ामणि (जीवन्धर चरित्र) ४/१-१४ तथा ५/१४,२४ आदि सातवाँ अधिकार-उ. १८४ तीसरी पंक्ति
(३) शिवभूति केवली की कथा शिवभूति नागका निकटभव्य संसार से विरक्त होकर दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगा। वह कुछ पढ़ा-लिखा नहीं था। गुरुमुख ने उसने सुन रखा था कि आत्मा और शरीर इस प्रकार भिन्न है जिस प्रकार तुष और मास भिन्न होते हैं। इसी भावज्ञान के आधार पर वह साधु हुआ था और आठ प्रवचन माताओं (पाँच समिति + तीन गुप्ति) का ज्ञान होने से माधुचर्या का समीचीनतया पालन करता था। परन्तु बुद्धि की मन्दता से वह एक दिन गुरुमुख से सुने हुए इस दृष्टान्त को भी भूल गया कि आत्मा और शरीर तुष-मास की तरह भिन्न हैं। बहुत प्रयत्न करने पर भी वह याद नहीं कर सका । एक दिन आहार को जाते हुए उसने किसी स्त्री को दाल धोते हुए देखा। उसने उस स्त्री से पूछा कि तुम यह क्या कर रही हो? तो स्त्री ने उत्तर दिया - मैं दाल धोकर उसके तुष (छिलके) अलग कर रही हूँ।" इतना सुनते ही उसे 'तुष-मास भिन्न' उदाहरण याद आ गया। वह जाकर ध्यान करने लगा और केवल इतने ही द्रव्य और भावश्रुत के प्रभाव से अन्तर्मुहूर्त में घातिया कर्मों को नष्ट कर अरहन्त केवली बन गया। अनन्तर शेष चार घातिया कर्मों को भी नष्ट कर मोक्ष गया।
-- षट्प्राभृत-भावप्राभृत गाथा ५३ की टीका
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परिशिष्ट - ३०१
सातवाँ अधिकार-पृ. १९५ पंक्ति २७
(४) भव्यसेन मुनि की कथा विजया: पर्वत की दक्षिण श्रेणी के मेधकूटपुर नामक नगर में राजा चन्द्रप्रभ अपनी सुमति नामकी पटरानी के साथ राज्य करता था। एक दिन राजा अपने पुत्र चन्द्रशेखर को राज्यं देकर, कुछ विद्याएँ साथ लेंकर, मुनिवन्दना करने हेतु दक्षिण मशुग गया और निगुप्त आवार्य के पास श्रावक के व्रत ग्रहण कर क्षुल्लक बन गया। वहाँ से जब वह मुनियों की वन्दना करने हेतु चला तो उसने गुरुदेव से पूछा कि प्रभो किसी को कुछ कहना हो तो मुझे बता दीजिए - मैं जा रहा हूँ - कह दूंगा। आचार्य ने कहा कि सुव्रत मुनि को नमोऽस्तु कहना और वरुण महाराज की पत्नी रेवती को धर्मवृद्धि कहना। क्षुल्लक ने पुनः पूछा कि और किसी को तो कुछ नहीं कहना है? आचार्य ने मना कर दिया। क्षुल्लक ने पुनः पूछा तो भी आचार्य ने वही उत्तर दिया। क्षुल्लक ने मन में सोचा कि “वहाँ भव्यसेन नाम के मुनि भी रहते हैं लेकिन गुरु ने उनका नाम भी नहीं लिया, इसका क्या कारण है? चलो, वहीं चल कर देखूगा कि क्या बात है?" इस प्रकार विचार कर क्षुल्लक उत्तर मथुरा पहुंचा और सुव्रत मुनि को आचार्य का नमोस्तु कह कर भव्यतेन मुनि के स्थान पर गया। भव्यसेन मुनि ने क्षुल्लक से यात भी नहीं की। जब भव्यसेन कमण्डलु लेकर बाहर जाने लगा तो क्षुल्लक भी उसके साथ हो लिया। उसने विद्या के प्रभाव से सारे रास्ते में पास ही घास पैदा कर दी। भव्यसेन मुनिराज घास को देख कर भी उस पर पैर रखकर चले गये। इसके बाद जब भव्यसेन शौच से निवृत्त हुए तो क्षुल्लक ने अपनी विद्या से कमण्डलु का पानी सुखा दिया और मुनि से कहा कि “भगवन्! कमण्डलु में पानी नहीं है और न कोई प्रासुक ईंट ही दिखाई देती है अतः मिट्टी लेकर इस तालाब में आप शुचि कर लें। मव्यसेन मुनि ने इसको अनाचार समझकर भी आगम की उपेक्षा कर शुद्धि कर ली। भव्यसेन मुनि के इस प्रकार के आचरण से क्षुल्लक ने समझ लिया कि ये मुनि द्रव्यलिंगी हैं। अतः उनका नाम उसने भव्यसेन की जगह अभव्यसेन कर दिया।
- षट्प्राभृत-भावप्राभृत-गाथा ५२ टीका सातवाँ अधिकार-पृ. १९७ पंक्ति २५
(५) यमपाल चाण्डाल की कथा काशी के राजा पाकशासन ने एक समय अपनी प्रजा को महामारी से पीड़ित देख कर ढिंढोरा पिटवा दिया कि “नन्दीश्वर पर्व में आठ दिन पर्यन्त किसी जीव का वध न हो। इस राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाला प्राणदण्ड का भागी होगा। वहीं एक सेठपुत्र रहता था। उसका नाम तो था धर्म, पर असल में वह महा अधर्मी था। सप्त व्यसनों का सेवन करने वाला था। उसे मांस खाने की बुरी आदत पड़ी हुई थी। एक दिन भी बिना मांस खाये उससे नहीं रहा जाता था। एक दिन वह गुप्तरीति से राजा के बगीधे में गया। यहाँ राजा का एक खास मेंढ़ा बँधा करता था। उसने उसे मार डाला और उसके कच्चे ही मांस को खाकर उसकी हड्डियों को एक गड्ढे में गाड़ दिया।
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परिशिष्ट - ३०२
दसरे दिन जब राजा ने बगीचे में मेंढा नहीं देखा और बहुत खोज करने पर जब उसका पता नहीं चला तब उन्होंने उसका पता लगाने के लिए अपने गुप्तचर नियुक्त किये। एक गुप्तचर राजा के बाग में भी चला गया। वहाँ का बागवान रात को सोते समय अपनी स्त्री से सेटपुत्र के द्वारा मेंढे के मारे जाने का हाल कह रहा था। उसे गुप्तचर ने सुन लिया। उसने महाराज से जाकर सब हाल कह दिया। राजा को यह सुनकर सेठपुत्र पर बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने कोतवाल को बुलाकर आज्ञा की कि पापी सेटपुत्र ने एक तो जीवहिंसा की और दूसरे राजाझा का उल्लंघन किया है, अतः उसे ले जाकर शूली पर चढ़ा दो।
कोतवाल सेठपुत्र को पकड़ कर शूली के स्थान पर ले गया और नौकरों को भेज कर उसने यमपाल चाण्डाल को बुलवाया क्योंकि शूली पर चढ़ाने का काम उसी का था। पर यमपाल ने एक दिन सौषधि ऋद्धिधारी मुनिराज के द्वारा जिनधर्म का पवित्र उपदेश सुन कर यह प्रतिज्ञा ली थी कि "मैं चतुर्दशी के दिन कभी जीवहिंसा नहीं करूंगा।" इसलिए उसने राजसेवकों को आते हुए देखकर अपने व्रत की रक्षा के लिए अपनी स्त्री से कहा - "प्रिये! किसी को मारने के लिए मुझे बुलाने हेतु राजसेवक अप रहे हैं, सो तुम उनसे कह देना कि वे घर में नहीं हैं, दूसरे गाँव गये हुए हैं।" इस प्रकार अपनी पत्नी को कह कर वह अपने घर में ही छिप गया। जब राजसेवक उसके घर पर आये तो चाण्डाल की स्त्री ने अपने स्वामी के बाहर जाने का समाचार कह दिया तो सेवकों ने बड़े खेद के साथ कहा - "हाय, वह बड़ा अभागा है। आज ही तो एक सेठपुत्र को मारने का मौका आया था। यदि वह आज सेठपुत्र को मारता तो उसे उसके सब वस्त्राभूषण प्राप्त होते 1" वस्त्राभूषण का नाम सुनते ही चांडालिनी के मुँह में पानी भर आया। वह अपने लोभ के सामने अपने स्वामी का हानि-लाभ कुछ नहीं सोच सकी। उसने रोने का ढोंग बनाकर और यह कहते हुए कि हाय! वे आज ही गाँव को चले गये, आती हुई लक्ष्मी को उन्होंने पाँव से ठुकरा दिया, हाथ के इशारे से घर के भीतर छिपे हुए अपने स्वामी को बता दिया। यह देख राजसेवकों ने उसे घर से बाहर निकाला। निकलते ही निर्भय होकर उसने कहा - "आज चतुर्दशी है और मुझे आज अहिंसाव्रत है, इसलिए मैं किसी तरह-चाहे मेरे प्राण ही क्यों न जायें, हिंसा नहीं करूंगा।" सेवक उसे राजा के पास ले गये। वहाँ भी वैसा ही कहा। ठीक है - "यस्य धमें सुविश्वासः क्वापि भीतिं न याति सः।"
राजा सेटपुत्र के अपराध के कारण उसपर तो अत्यन्त कुपित थे ही, चाण्डाल की निर्भयपने की बात ने उन्हें और अधिक क्रोधी बना दिया। उन्होंने उसी समय आज्ञा दी कि - "जाओ, इन दोनों को ले जाकर मगरमच्छादि क्रूर जीवों से भरे तालाब में डाल दो।" वहीं किया गया। कोतवाल ने दोनों को लालाब में डलवा दिया। तालाब में डालते ही पापी सेठपुत्र को तो जलजीवों ने खा लिया। रहा यमपाल-सो वह अपने जीवन की कुछ भी परवाह न कर अपने व्रतपालन में निश्चल बना रहा। उसके उच्च भावों और ग्रत के प्रभाव से देवों ने आकर उसकी रक्षा की। उन्होंने धर्मानुराग से तालाब में ही एक सिंहासन पर यमपाल चाण्डाल को बैठाया, उसका सत्कार किया और उसे खूब स्वर्गीय वस्त्राभूषण प्रदान किये। जब राजा प्रजा को यह हाल सुन पड़ा तो उन्होंने भी उस चाण्डाल का हर्षपूर्वक सम्मान किया। व्रतपालन का ऐसा अचिन्त्य प्रभाव देखकर भव्य पुरुषों को उचित है कि वे स्वर्गमोक्ष का सुख देने वाले जिनधर्मोपदिष्ट व्रत-संयमपालन में अपनी बुद्धि लगावें।
- आराधना कथाकोश : प्रथम भाग : २४वी कथा मूल - ब्र. नेमिदत्त, अनु. उदयलाल कासलीवाल
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परिशिष्ट - ३०३
आठवाँ अधिकार-पृ. २३५ पंक्ति २४
(६) विष्णुकुमार मुनि की कथा उज्जैन में किसी समय राजा श्रीवर्मा राज्य करता था। उसके चार मन्त्री थे। बलि, वृहस्पति, प्रहलाद और नमुचि। एक बार आचार्य अकम्पन अपने संघके ७०० मुनियों के साथ विहार करते हुए उज्जैन आये। प्रजा की देखा-देखी उक्त चारों मन्त्री और राजा भी मुनियों के दर्शन करने गये। परन्तु आचार्य ने अपने दिव्यज्ञान से राज्याधिकारियों को मिथ्यादृष्टि जानकर समस्त संघको उनसे वार्तालाप करने की मनाही कर दी। मन्त्रियों ने पहुंचकर मुनियों को नमस्कार किया। किन्तु जब उन्होंने नमस्कार के बदले किसीको आशीर्वाद देते तक भी न देखा तो उन्होंने मुनियों की हँसी की और कहा "ये सब बैल हैं, कुछ नहीं जानते।” नगर को लौटते समय उन्हें आहार लेकर आते हुए श्रुतसागर मुनि दीख पड़े। वहाँ उन मुनि से चारों ब्राह्मणों का विवाद हो गया और वे पराजित हो गये। मुनि अपने संघमें पहुंचे और उन्होंने मार्ग का सब वृत्तान्त आचार्य से निवेदन किया। आचार्य ने उन्हें प्रायश्चित्तस्वरूप जहाँ विवाद हुआ था, रात भर वहीं कायोत्सर्ग करने के लिए कहा। मुनि ने वैसा ही किया। वे चारों मन्त्री पराजय के अपमानसे दुःखी होकर रात में संघको मारने चले। किन्तु मार्ग में उन्हीं मुनि को खड़ा देखकर पहले उन्हीं को मारना चाहा। मुनि के वध के लिए जैसे ही उन्होंने तलवार उठाई कि नगर-देवता ने उन्हें उसी प्रकार कील दिया। प्रातः लोगों ने उन्हें उस प्रकार खड़ा देखकर बड़ा धिक्कारा, और राजाने उन्हें गधेपर चढ़ा कर नगर से निकाल दिया। इधर हरितनागपुरका राजा महापद्म अपने बड़े पुत्र पद्म को राज्य देकर छोटे पुत्र विष्णुकुमार सहित मुनि हो गया। वे चारों मन्त्री वहाँ से निकलकर हस्तिनागपुर में उसी राजा पद्म के मन्त्री हो गये। उन्होंने राजा पद्म के अजेय शत्रु राजा सिंहबलको किसी प्रकार पकड़ कर पद्म के सामने ला दिया। पद्म इस पर प्रसन्न हो गया और उनसे वर मांगने के लिए कहा। मन्त्रियों ने कहा 'समय आने दीजिए, हम अपना वर मांग लेंगे।'
संयोग से वे ही आचार्य अकम्पन अपने संघके ७०० मुनियों के साथ विहार करते हुए हस्तिनागपुर पहुंचे। उन्हें देखकर मन्त्रियों ने अपने पूर्व अपमान का बदला लेना चाहा। राजा को मुनिमक्त जानकर उन्होंने उस समय अपना वर माँगना उचित समझा और उसे पूरा करने के लिए राजा से सात दिन के लिए राज्य की याचना की। राजा ने उसे स्वीकार कर लिया। राज्य पाकर उन मन्त्रियों ने कायोत्सर्ग से खड़े हुए उन मुनियों को चारों ओर से घेर कर एक यज्ञमण्डप बनवाया और वे यज्ञ करने लगे। यज्ञ में पशुओं की चर्बी और चर्म आदि के जलने से जो धुंआ उठा, उससे मुनियों के गले रुंध गये। याहाँ तक कि अपने कण्टगत प्राण देखकर मुनियों ने संन्यास धारण कर लिया। इधर मिथिलानगरी में आधी रातको आचार्य श्रुतसागर ने श्रवण नक्षत्र को कम्पायमान देखा। अवधि-ज्ञान से मुनियों पर उपसर्ग जानकर उनके मुँह से 'हा' निकल पड़ा। पास बैठे हुए पुष्पधर नाम के एक क्षुल्लकने आचार्य से इसका कारण पूछा। आचार्य ने उपसर्ग का सब वृत्तान्त कह दिया और उसके निवारण का उपाय बताया कि धरणिभूषण पर्वतपर
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परिशिष्ट - ३०४
विष्णुकुमार मुनि को विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न हुई है। वे उपसर्ग दूर कर सकते हैं। सुल्लक विष्णुकुमार मुनि के पास गया और ७०० मुनियों के उपसर्ग की बात कह कर उन्हें विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न होने की बात कही। परीक्षा के लिए विष्णुकुमार मुनि ने ज्योंही अपना हाथ पसारा कि वह पर्वतादिक से बिना रुके हुए बहुत दूर चला गया। इस तरह ऋद्धि की परीक्षा कर अपना बावन का रूप बनाकर, उन मन्त्रियों के पास, जो उस समय राजा थे, पहुँचे। वहाँ जाकर खूब वेदध्वनिकी और दक्षिणा में तीन पैंड पृथ्वी माँगी, राजाने स्वीकार कर लिया। मुनि ने अपना एक पैर सुमेरु पर रक्खा, दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर, तीसरा देव-गन्धों में क्षोभ पैदा कर राजा बलिकी पीठपर रख दिया। इस तरह सारी पृथ्वी अपने अधिकार में कर मुनियों का उपसर्ग दूर किया। वे मन्त्री लज्जित होकर मुनिसंघ के पैरों पर गिर पड़े और तबसे सम्यग्दृष्टि श्रायक हो गये।
(१) आराधना कथाकोश (ब्र.नेमिदत्त अनु. उदयलाल कासलीवाल) प्रथम भाग - १२ वी कथा
(२) प्रश्नोत्तर प्रावकाचार (सम्पत्प्च का याल्पल्य अंग) आठवाँ अधिकार-पृ. २३७ पंक्ति ७
(७) वज्रकर्ण सिंहोदर की कथा दशांगपुर नगर का राजा बज्रकर्ण बड़ा धर्मात्मा और साथुचरित पुरुष था। उसके यह प्रतिज्ञा थी कि मैं देव, शास्त्र, गुरुको छोड़कर अन्य किसी को नमस्कार नहीं करूंगा। अपनी प्रतिज्ञा के निर्वाह के लिए उसने अँगूठी में अरहतका एक छोरा सा प्रतिबिम्ब जड़वा लिया था। वह जब किसी को नमस्कार करता, तब उसी अंगूठी के प्रतिबिम्ब को धोक देता लेकिन मालूम ऐसा पड़ता कि सामने वाले आदमी को नमस्कार कर रहा है। यह अपने स्वामी राजा सिंहोदर के साथ भी यही व्यवहार करता था। उसका यह भेद किसी ने राजा सिंहोदर से कह दिया। सिंहोदरने क्रोध में आकर उसे पकड़ लानेके लिए सेना भेजी लेकिन वह अपने दुर्ग में जाकर छिपकर बैठ गया। सिंहोदर तब स्वयं युद्ध-साधनों से सज्जित होकर दशपुर नगर आया
और एक दूत द्वारा वज्रकर्ण से कहलवाया कि 'वह शीघ्र मुझे आकर नमस्कार करे अन्यथा उसे उसकी ढीठताका फल भोगना होगा।' वज्रकर्ण ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। इस पर सिंहोदर ने उसका सारा नगर उजाड़ दिया। संयोग से उधर राम, लक्ष्मण और सीता घूमते हुए आ निकले और एक आदमी से नगर के उजड़ने का कारण जानकर वहीं ठहर गये। दूसरे दिन प्रातःकाल ही लक्ष्मण खाना लाने के लिए नगर में गये और सीधे वज्रकर्ण के यहाँ पहुँचे। वज्रकर्ण ने लक्ष्मण को आदरपूर्वक बड़े ही सुस्वादु व्यंजन दिये। लक्ष्मण उन्हें लेकर राम के पास आये। जब सब खा चुके तब रामचन्द्रजी ने लक्ष्मण से वज्रकर्ण की सहायता करने के लिए कहा। लक्ष्मण बिना कुछ हथियार लिये सिंहोदर के कटक में पहुंचे और वजकर्ण को छोड़ देने के लिये कहा। जब सिंहोदरने इन्कार किया तब दोनों ओर से युद्ध हुआ। युद्ध में लक्ष्मण ने सिंहोदर को पकड़ लिया और वज्रकर्ण से क्षमायाचना कराकर उसका राज्य लौटा दिया।
-पद्मपुराण भाग २, सर्ग ३३ पृ. १०१-१२४
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
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परिशिष्ट -२
ग्रन्थगत पारिभाषिक शब्दकोश अकामनिर्जरा - सहने की हार्दिक इच्अ न होने पर भी | अमव्य - कभी मुक्त न होने वाला जीव।
क्षुधादिक से विवश होने पर मन्दकषाय अमूर्तिक - रूप, रस, गन्ध, स्पर्श से रहित पदार्थ । की दशा में फल देकर कमो का स्वयमेव अरिहन्त - पातियाकर्मरहित, ३४ अतिशय सहित झड़ जाना।
और १६ दोष रहित परमेष्ठी अगुरुलघु - गोत्र कर्म के अभाव से होने वाला अापत्ति - एक वाक्य से अन्य अर्थ का बोध सिद्धों का एक गुण।
होना । जैसे मोय देवदत्त दिन में नहीं अगृहीत -जो वाह्य कारण बिना, स्वभाव से होता है वह।
खाता। इस वाक्य से देवदत्त के रात अपातिया कर्म - आत्मगुणों का घात न करने वाला
में खाने का बोध होता है। कर्म।
अलोक - जहाँ केवल आकाश द्रव्य ही होता है, अपापन - चक्षु को भेड़ कर अन्य इन्द्रियों से
अन्य, द्रव्य नहीं होते। होने वाला दर्शन।
अदगाइनत्व
आय कर्म के अभाव से पैदा होने आराआश्चर्यजनक घटनायें।
वाला सिहों का एक गुण। परस्पर में अणुव्रत- पापों का स्थूल त्याग।
बिना ही मिले अवगाहन करने की अतिचार - व्रत की अपेक्षा रखते हुए उसका एकदेश
शक्ति। मंग
इन्द्रियों और मन की सहायता के अषःकरण - जहाँ ऊपर और नीचे के समयवर्ती
बिना मूर्तिक पदार्थों को मर्यादापूर्वक जीवों के परिणाम समान हों।
जान लेने वाला ज्ञान । इसका दूसरा अनाचार - व्रत का पूर्ण अंग।
नाम सीमाबान भी है। अनायतन - अयोग्य स्थान। सम्यक्त्व में दोषजनक अविरति- पत्रों में प्रवृत्ति, व्रतहीनता। एक से चौथे कुदेवादिक की प्रशंसा।
गुणस्थान तक में अविरति होती है। अनिवृतिकरण - जहाँ एक समयवर्ती जीवों के परिणामों अशुभोपयोग - कवाय, पाप और व्यसन आदि निन्य की विशुद्धता में कोई भेद न हो; नौवाँ
कार्यों की ओर मन-वधन काय का गुणस्थान।
लक्ष्य होना। अनुप्रेक्षा - संसार, शरीर और भोगों के स्वरूप
असंही -
मनरहित जीव। का बार-बार विचार । अनित्यादि बारह अझमिन्द्र - सोलह स्वर्गों से ऊपर के देव जिनमें भावनाएँ।
इन्द्र आदि का भेद नहीं होता। अनुभाग - कर्मों की फलदान शक्ति।
आगमद्रव्यनिक्षेप - आगम का जात किन्तु आगम के अनेकान्त- भिन्न-भिन्न धर्मों की अपेक्षा एक वस्तु
उपयोग से रहित आत्मा। को विरोषरहित अनेकवर्मात्मक कथन आबाकाकाल - कौ के उदय या उदीरणा होने से करने वाला सिद्धान्त।
पहले का समय। अपकर्षण- कों की स्थिति अनुभाग का घट जाना। आर्तध्यान- इष्टवियोग, अलिष्टसंयोग, वेदना और अपर्याप्शक- आहारादि छक पर्याप्तियों में से जिस
निशान आदि से चिन्तित रहना। जीव की एक भी पर्याप्ति पूर्ण न हुई आवली
काल का एक परिणाम। असंख्यात हो।
समयों की एक आवती मेती है। अपूर्वकरण - महाँ भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम आवश्यक- अवश्य करने योग्य पैनिक कर्तव्य।
अपूर्व ही अपूर्व हो; आठवाँ गुणस्थान। । इतरेतरात्रययोष - दो चीजें जहाँ परस्पर आश्रित बताई
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परिशिष्ट - ३०६
जाय। न्याय का एक दोष। कापोतलेश्या - परनिन्दा,
आत्मप्रशंसा, इतरनिगोद . असराशि से निकल कर पुनः निगोद
छिद्रान्वेषणता, विवेकहीनता आदि रूप में जाने वाले जीव।
परिणाम विशेष उत्कर्षण - कर्मों की स्थिति व अनुभाग का बढ़ना। कुटीचर - हिन्दू संन्यासियों का एक भेद । उदय - कर्मों का फल देना।
कुलिंगी - मिथ्यावेशधारी पुरुष। उदीरणा - समय के पहले ही कर्मों का फल केवली - सर्वज्ञ। देना।
केवलदर्शन - त्रिकाल और त्रिलोक को युगपत् देखना। उद्वेलना - एक कर्मप्रकृति का सजातीय कर्मप्रकृति केवलज्ञान - समस्त पदार्थों की त्रिकाल और त्रिलोक रूप परिणमन करा कर नाश करना।
में होने वाली समस्त पर्यायों को एक उपभोग - बार-बार भोग में आ सकने वाली
सापानने मला आता वस्तु।
कृतकृत्य सम्यग्दृष्टि -मिध्यात्व और मिश्रमोहनीय को नष्ट उपमान - प्रमाण का एक भेद। एक की समानता
कर अन्तर्मुहूर्त में क्षायिक सम्यग्दृष्टि से दूसरे का ज्ञान करना।
होने वाला जीव। उपयोग - जीव की ज्ञानदर्शन शक्ति। जानने- कृष्णलेश्या - निर्दय, दुष्ट और अत्याचारी, परिणाम देखने रूप चेतना का परिणाम विशेष ।
विशेष। उपशमकरण - कमों का अनुदय।
गणथर - तीर्थंकरों के साक्षात शिष्य जो उनके उपदेशों उपाथिकर्म।
को बारह अंगों में निबद्ध करते हैं। (1) पोसह - उपवास।
गति -
गति नाम कर्म के उदय से प्राप्त होने एकेन्द्रिय - स्पर्शन इन्द्रिय वाले जीव।
वाली जीव की पर्याय। एकाशन - दिन में एक बार भोजन करना। गुण - जो द्रव्य में रहता है परन्तु जिसमें एकान्त पम - अनेक धर्मों की सत्ता की अपेक्षा नहीं
स्वयं गुण नहीं रहता। करके वस्तु को सर्वथा एक रूप मानना। गुणव्रत - मूलगुणों और अणुव्रतों को दृढ़ करने वाले व्रत। एषणा समिति - निदोष विधि से आहार लेना। गुणश्रेणी निर्जरा - असंख्यातगुणी-२ निर्जरा। औदारिक शरीर - मनुष्य और तिर्यञ्चों का स्थूल शरीर। | गुणस्थान - मोह और योग के भाव तथा अभाव औपाधिक भाव - कर्मजन्य भाव।
से होने वाला आत्मा का क्रमिक अंग - गौतम गणधर कृत जैनों का मूल साहित्य ।
विकास। अन्तरकरण - आगे उदय में आने वाले कर्म के कुछ गुप्ति - पन, वचन, काय की प्रवृत्ति को भली निषेकों को बीच से उठाकर आगे-पीछे
प्रकार रोकना। करना।
प्रदेषक- सोलहवें स्वर्ग से ऊपर और अनुदिशों अन्तर्मुहूर्त - आवली से ऊपर और मुहूर्त से नीचे
से नीचे के देवों का निवासस्थान। का समय।
गृहीतमिष्मात्य - दूसरे के उपदेश आदि से ग्रहण किया करण - परिणाम । इन्द्रिय । गणितसूत्र।
गया मिथ्यात्व। कर्म -
योग और कषाय के निमित्त से आत्मा पातिपाकर्म - आत्मगुणों का घात करने वाले कर्म। से सम्बन्ध को प्राप्त होने वाला एक घक्षुदर्शन - चक्षुज्ञान से पहले होने वाला पान। प्रकार का पुदगल द्रव्य, जो आत्मा के चारित्रमोह - चारित्र का घातक मोहनीय ।
असली स्वभाव को ढकता है। चेतना - ज्ञान-दर्शन शक्ति। कषाय - जो आत्मा को कषता, दुःख देता और चौइन्द्रिय - चार (स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु) इन्द्रियों पराधीन करता है। क्रोध, मान, माया,
वाला जीव। लोभादि रूप परिणाम।
चैत्य
प्रतिमा, पूर्ति।
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परिशिष्ट - ३०७
अमस्थ -
जन्म - जन्मकल्याणक -
जिनवाणी - जुगुप्सा - ज्योतिष्क
तादात्म्य - तीन इन्द्रिय -
तीर्थकर -
तुषमासभिन्न -
त्रस -
अल्पज्ञानी। केवलज्ञान से पहले का | देशघाती - . . . आत्मगणों का आंशिक घात करने वाला सब ज्ञान।
कर्म। जीव के नवीन पर्याय का उत्पाद। देशचारित्र - बारह व्रतरूप श्रावकों का चारित्र। तीर्थंकरों के जन्मसमय देवों द्वारा मनाया देशद्रती - श्रावक के व्रतों का पालक पंचमगुण जाने वाला उत्सव।
स्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि जीव। तीर्थंकरों का उपदेश।
दो इन्द्रिय - स्पर्शन और रसना इन्द्रिय वाले जीव । ग्लानि भाव।
द्रव्य
गुण और पर्याय सहित वस्तु। सूर्य चन्द्र ग्रह नक्षत्र तारा आदि द्रव्यकर्म - कर्मशक्ति को प्राप्त पुद्गल पिण्ड, ज्योतिष्क जाति के देय।
ज्ञानाबरणादि कर्म। गुण और गुणी का अभेद।
द्रव्यप्राण- पाँच इन्द्रियों, तीन बल, आयु और तीन (स्पर्शन, रसना, घ्राण) इन्द्रिय
श्वासोच्छ्वास। वाले जीव
द्रव्यलिंग - मुनिवेशी किन्तु अंतरंग से प्रमतसंयत तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करने वाले
गुणस्थान से रहित, १ से ५ तक धर्म के प्रवर्तक आत्मा विशेष।
किसी एक गुणस्थानवाला जीव। धान्य और उसके छिलके की तरह
द्रव्यदृष्टि -
सामान्य को ग्रहण करने वाली दृष्टि। आत्मा और शरीर को अलग-अलग
द्रव्यार्थिक नय। समझना।
द्रव्यमन - हृदय में आठ पाँखुड़ी के कमल के एकेन्द्रिय को छोड़ कर शेष सब संसारी
आकार एक प्रकार की शारीरिक रचना जीव।
जो सोचने-विधारने में सहायक है। ज्ञान से पहले होने वाला उपयोग। द्रव्येन्द्रिय - स्पर्शन, रसना आदि बाह्य इन्द्रियाँ । उपयोग से उपयोगान्तर होने में आत्मा ध्यान
सब विकल्प छोड़ कर चित्त को एक की अवस्था विशेष।
लक्ष्य में स्थिर करना। सम्यग्दर्शन को घात करने वाला मोहनीय नय -
जो यस्तु के एकदेश को जानता है। कर्म।
यस्तु का आंशिक आन। बंध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, निक्षेप - प्रमाणों और नयों से प्रचलित उदीरणा, सत्त्व, उदय, उपशम, नित्ति,
लोक-व्यवहार। निकाचना-कर्मों में होने वाली ये दस | नामनिक्षेप - गुण न होने पर भी पदार्थ को उस क्रियायें।
नाम से कहना जैसे - जन्मान्ध का उत्पाद पूर्व से लेकर विद्यानुयाद पूर्य
नाम सुलोचन रख लेना। तक दस पूर्वो के झाता।
नारकी
नरक के दुःख भोगने वाला जीव। तीर्थकर सर्वज्ञ की वाणी।
निगोद - जिनका आहार, श्वासोच्छ्वास, जन्मअनन्तानुबन्धी के विसंयोजनपूर्वक होने
मरण और लक्षण समान होता है, वे वाला उपशम-सम्यक्त्व । उपशम श्रेणी
साधारण जीव। चढ़ने के सम्मुख अवस्था में होने नित्पनिगोद - वह जीव जिसने कभी उस पर्याय नहीं वाला सम्यक्त्व। यह सम्यक्त्व वेदक
पाई है। सम्यकवी को ही प्राप्त होता है। जब निर्जरा - थे हुए कर्मों का आत्मा से अलग कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व को मिथ्यावृष्टि
होना। जीव प्राप्त करता है।
निर्ग्रन्थ - परिग्रह रहित, दिगम्बर भाव। वर आदि की चाह से रागीद्वेषी देवों । निषेक - एक समय में उदय में आने वाले की पूजा।
कर्मपरमाणुओं का समूह।
वर्शनमोह
दशकरण -
दशपूर्वषारी -
दिव्यध्यनिद्वितीयोपशम -
देवमूढ़ता -
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परिशिष्ट - ३०४
नीललेश्या - अधिक निद्रा, पर-बञ्चकता, तीव्र । प्रदेशबन्ध -
विषयासक्ति आदि परिणाम। नीहार - मलमूत्रादि।
प्रतिमाधारीनोकर्म - तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के
योग्य पुद्गल परमाणुओं का ग्रहण। प्रत्यक्ष ज्ञान -
कमोदय में सहायक द्रव्य । नन्दीश्वर - मध्यलोक का आठवाँ द्वीप जहाँ देव प्रत्येक -
अष्टाहिका पर्योत्सव मनाते हैं। पडिकमण-प्रतिक्रमण -'मेरे पाप मिथ्या हो इस प्रकार का प्रमाण - भाव।
प्रमावपरिणति - परमईस - हिन्दुओं के नग्न साधु, नागासम्प्रदाय प्रशस्त राग - के साथु।
.पंचम काल - परिवर्सन - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव रूप
संसारचक्र में परिभ्रमण। परीषह - कर्म-निर्जरा के लिए समताभाव से
भूख-प्यास आदि के कष्ट सहना।। बहूदकइनकी संख्या २२ है।
भवनवासी - परोमनाम - इन्द्रियादिक की सहायता से वस्तु को भव्य -
जानने वाला ज्ञान। पर्याप्तक- आहार, शरीरादि छहों पर्याप्तियों की भावकर्मपूर्णता को प्राप्त जीव।
भावनिक्षेप - पर्याय - द्रव्य की अवस्था विशेष। गुणों का विकार।
मावलिंगी - पर्यायवृष्टि - विशेष को ग्रहण करने वाली दृष्टि । विशेषापेक्षा कथन।
पदविज्ञान - पल्यउपमा प्रमाण का एक भेद।
मतिमान - पंचेन्द्रिय - स्पर्शनादि पाँच इन्द्रिय वाले जीव। पारिणामिक माव -कर्म के निमित्त बिना स्वभावतः होने
मदवाले जीव के भाव। पुगल - रूप रस गंध स्पर्शादि गुण वाला भौतिक मनःपर्यय -
पदार्थ। पुद्गल परावर्तन -कर्म, नोकर्म परमाणुओं को ग्रहण करने
की अपेक्षा संसार-परिभ्रमण का सूचक महायतकालविशेष।
मार्गणा - प्रकृति पंथ - नानावरणादि कर्मों का बंध। मिथ्यात्वप्रतिच्छेद - शक्ति के अविभागी अंश।
मिथ्यानान - प्रथमोपशम सम्यक्त्व -मोहनीय की सात प्रकृतियों के उपशम मिथ्याचारित्र - से होने वाला सम्यक्त्व।
मित्रगुणस्थान - प्रदेश
अणु के बराबर स्थान।
सूक्ष्म अनन्तानन्त कर्म-परमाणुओं का आत्मा से सम्बन्ध होना। दर्शन, व्रत आदि प्रतिमाओं को धारण करने वाला श्रावक। बिना सहायता के पदार्थों का स्पष्ट ज्ञाता ज्ञान। जिसमें एक भरीर का स्वामी एक प्राणी होता है, ऐसे वृक्ष, फल आदि। सच्चा ज्ञान । यथार्थ ज्ञान। कषाय या इन्द्रियासक्ति रूप आचरण। शुभ राग। कलिकाल। जैनों की मान्यतानुसार भगवान महावीर के निर्वाण के ३ वर्ष
महीने बाद से प्रारम्भ होने वाला २१००० वर्ष का काल। हिन्दू संन्यासी का एक भेद। देवों की एक जाति। मुक्त होने की योग्यता या रत्नत्रय की प्राप्ति की योग्यतायुक्त जीव ।
आत्मा के रागद्वेषादि भाव। वर्तमान पर्यायसंयुक्त पदार्थ-जैसे राज्य करते हुए को ही राजा कहना। बाहर से नग्न तथा अन्तरंग से छठे गुणस्थान वाता मुनि। शरीर और आत्मा का पृथक् अनुभवन। इन्द्रियों और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान। ज्ञान, जाति, कुल, पूजा, बल, ऋद्धि, तप और शरीर का गर्व। द्रव्यादिक की अपेक्षा परकीय मनोगत सरल और गूढ़ रूपी पदार्थ को जानने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान। स्थूल और सूक्ष्म पापों का सर्वथा त्याग। जीवों को खोजने के धर्मविशेष । अतत्व श्रद्धान। मिथ्यादर्शन के साथ होने वाला ज्ञान। मिथ्यात्व के साथ होने वाला चारित्र। जहाँ मिथ्यात्व और सम्यक्त्वरूप मित्र भाव रहते हैं।
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परिशिष्ट - ३०
मित्रमोहनीय - वह कर्म जिसके उदय से सम्यक्त्य । वैयावृत्त्य - मुनि, श्रावक की सेवा-शुश्रूषा ।
और मिथ्यात्व रूप मिले हुए भाव शुक्लध्यान - अत्यन्त निर्मल और वीतरागतापूर्ण रहते हैं।
ध्यान। मुँहपट्टी - ढूंढक साधुओं के मुंह पर बाँधने का कपड़ा।
शुद्धोपयोग -
स्वानुभूति । वीतरागविज्ञान । यह सातवें पूढ़ता - धर्म दा सम्यक्पच में दोषजनक
गुणस्थान से ही प्रारम्भ होता है। अविवेकीपन के कार्य।
शुभोपयोग - पण्यानराग। प्रशस्तराग । देवपूजा आदि मूर्तिक - रूपादिमान पदार्थ।
धर्मकार्यों की ओर त्रियोग का लक्ष्य। मूलगुण - आवश्यक रूप से पालन करने के नियम। श्रुतज्ञान - मतिज्ञान से ज्ञात पदार्थ के विशेष को मूलप्रकृतियाँ - कर्म के मूल आठ भेद ।
जानने वाला ज्ञान। मोह -
सांसारिक वस्तुओं ममत्व! - श्वेताम्बर - श्वेत, बलादारी साधुओं का पूजक एक यथाख्यातचारित्र - स्वाभाविक चारित्र, संज्वलन कषाय के
जैन सम्प्रदाय। अभाव में होने वाला चारित्र। सकलचारित्र - महाव्रत । पूर्णचारित्र। योग -
मन-वचन-काय की हलन-चलन । सप्त व्यसन - जुआ, चोरी, मांसभक्षणा, मद्यपान, रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्वारित्र।
वेश्यासे बन, शिकार खेलना, लब्ध्यपर्याप्तक - जिस जीव की एक भी पर्याप्ति
परस्त्रीरमरण- ये सात प्रकार की बुरी नहीं होती।
आदतें। लेश्या - कषायमिश्रित योगों की प्रवृत्ति। जो सम्यक्त्व - तत्त्वश्रद्धान।
आत्मा को कमों से लिप्त करे वह। सम्यग्हान - सम्यग्दृष्टि का ज्ञान। लोक - जिसमें जीवादिक छहों द्रव्य रहते हैं सम्यक्चारित्र - सम्यग्दृष्टि का चारित्र। या देखे जाते हैं।
सम्भूर्छन - बिना गर्भ के उत्पन्न होने वाले लोकमूढ़ता - धर्म समझ कर जलाशयों में स्नान
जीवजन्तु। करना, मिट्टी व पत्थर के ढेर लगाना समयबद्ध - एक समय में बंधने वाले कर्मपरमाणुओं आदि कार्य।
का समूह। व्यन्तर - देवों की जाति विशेष।
समवसरण - तीर्थकर सर्वज्ञ के उपदेश का सभास्थल । वायुकाय - वायु शरीरधारी स्थावर जीव। समिति - प्राणिपीड़ा न होने देने के अभिप्राय से विक्रिया - शरीर को छोटा-बड़ा करने की शक्ति; मूल शरीर
मुनि का सावधान होकर प्रवृत्ति करना। से भित्र शरीर बनाने की शक्ति।
प्रवृत्ति में यत्नाचार। विनय मिथ्यात्व - अविवेकपूर्वक सभी देव-देवियों की समय
काल का सबसे छोटा हिस्सा। समान विनय करना।
सम्यग्दृष्टि - तस्य श्रद्धानी, देवशास्त्र- गुरु का भक्त। विपरीताभिनिवेश -अतत्त्व में तत्त्वबुद्धि रखना। उल्टा समुघात - मूल शरीर को बिना छोड़े आत्मप्रदेशों अभिप्राय।
का बाहर निकल जाना। विमान - कर्मजन्य भाव।
सर्वघाती - आत्यगुणों का पूर्ण घात करने वाला विसंयोजन - अनन्तानुबन्धी का अन्य कषायरूप
कर्म। परिणमन।
सम्मिानिर्जरा - समय आने पर फल देकर कर्मों का वीतरागविज्ञान - शुद्धोपयोग रूप रागरहित जान।
झड़ जाना। देवकसम्यग्दृष्टि - क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि । सम्यक्त्य प्रकृति सागर - व्यवहारपल्य से असंख्यातगुणा के उदय का वेदन करने वाला
उद्धारपल्य। उद्धारपल्य से सम्यग्दृष्टि।
असंख्यातगुणा अद्धापल्प और दस वैमानिक - कल्पों/स्वर्गों और ग्रैयेयों आदि के
कोडाकोड़ी अद्धापल्यों का एक सागर। ऊर्ध्वलोकवासी देव।
सामान्य -अनेक वस्तुओं में समानता से रहने वाला धर्म।
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सामायिक
सावघयोग सासादन -
सूक्ष्मत्व
संशय संक्रमण
-
w
उद्धरण
नियत काल तक सब पापों का पूर्णतः
त्याग कर ध्यान करना।
सदोष कार्य आरम्भी प्रवृत्ति । सम्यक्त्व विराधना का काल । सम्यक्त्व से च्युत होकर मिध्यात्व को प्राप्त न होने तक के परिणाम। दूसरी गुणस्थान |
नामकर्म के अभाव में पैदा होने वाला सिखों का एक गुण ।
दो तरफ ढलता हुआ अनिश्चित ज्ञान । एक प्रकृति का अन्य प्रकृतिरूप हो जाना।
अकारादिहकारान्तं
अज्जवि तिरयणसुद्धा अनेकानि सहस्राणि
अबुधस्य बोधनार्थं
अरहंतो महदेवो
आज्ञा गर्गसमुद्भव आशागर्तः प्रतिप्राणि
इच्छा निरोधस्तपः
इतस्ततश्च त्रस्तो
इयं भक्तिः केवलभक्तिप्रधानस्य
एकत्वे नियतस्य
एकाग्रचिन्ता निरोधो ध्यानम्
एको रागिषु राजते
एवं जिणस्स रूवं
एतद्देवि परं तत्त्वं
परिशिष्ट - ३१०
संदी
एष एवाशेष द्रव्यान्तर
ॐ त्रैलोक्यप्रतिष्ठितान्
ॐ नमोऽर्हतो ऋषभाय कलिकाले महाघोरे
११६
२५२
११८
२१५
१२०
२८७
४७
१८६
१४८
१८२
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१७३
११३
१४४
११६
१६४
9919
-
परिशिष्ट - ३
* उद्धरण सूची
पृष्ठ
११७
११६
स्कन्ध -
स्थावर -
स्पर्द्धक
स्थितिबंध
स्वरूपाचरण -
स्याद्वाद -
उद्धरण
कषायविषयाहारो
कार्यत्वादकृतं
कालनेमिर्महावीरः
मनसहित जीव। वह जीव जिसमें सोचने-विचारने की शक्ति है। पुद्गल परमाणुओं का समूह । पृथ्वी आदि पाँच प्रकार के जीव । वर्गणाओं का समूह।
कर्म का आत्मा के साथ रहने का काल ।
आत्मस्वरूप में विचरना ( लीन होना) स्वरूप में चरण करना स्वरूपाचरण है |
आपेक्षिक कथन । कथंचिद् उक्ति ।
कुच्छियदेव धम्मं
कुच्छियधम्मम्मि रओ
कुण्डासना जगद्धात्री
कुलादिबीजं सर्वेषां केणवि अप्पा वंचियउ
क्लिश्यन्तां स्वयमेव
क्षुत्क्षामः किल को पि
गुरुण भट्टा जाया यातुर्मास्ये तु सम्प्राप्ते
चिल्ला चिल्लीपुरमि
जस्स परिग्गहगहणं
जह कुवि वेस्सारत
जह जायरूवसरिसो
जह गवि सक्कमणिज्जो
जीवाजीवादीनां
जे जिणलिंगथरेवि
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________________ परिशिष्ट - 311 उद्धरण उद्धरण 147 147 116 172 148 170 148 147 114 115 115 282 118 117 215 201 146 163 115 161 170 116 175 183 146 214 जे दंसणेसु भट्टा गाणे जे दसणेसु भट्टा पाए जे पंवचेलसत्ता जे पाव मोहियमई जेवि पडति च तेसिं जैनमार्गरतो जैनो जैनं पाशुपतं सांख्यं जैना एकस्मिन्नेव जो जाणदि अरहतं जो बंधउ मुक्कउ मुणउ जो सुत्तो ववहारे ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तु णमो अरहताणं तत्वार्थश्रद्धानं तत्तद्दर्शनमुख्यशक्ति तथापि न निरर्गलं चरितुं तनिसर्गादधिगमाद्वा तपसा निर्जरा च तं जिण आणपरेण दर्शनमात्मदिनिश्चिति दर्शयन् वर्त्म वीराणां दशभिर्भोजितैर्विप्रैः दंसणभूमियाहिरा दसणमूलो धम्मो थाम्म णिप्पिवासो नाहं रामो न मे वाञ्छा निन्दन्तु नीतिनिपुणाः निर्विशेष हि सामान्य नैवं अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्मसम्बन्धस्य पद्मासनसमासीनः पंडिय पंडिय पंडिय प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहदयः बध्वा पद्मासन यो 114 70 221 161 बहुगुणविन्जाणिलओ भवस्य पश्चिमे भागे भावयेद् भेदविज्ञानं मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि मद्यमांसाशनं रात्रौ मरुदेवी च नाभिश्च माणवक एव सिंहो ये तु कर्तारमात्मानं यैातो न च वर्धितो गं शैटा मापापते रागजन्मनि निमित्तता पर रैवताद्रो जिनो नेमिः लोयम्भि रायणीइ वरं गार्हस्थ्यमेवाद्य व्यवहारनयो नानुसतंच्यः वर्णाद्यः वा रागमोहादयो या वहारोऽभूयस्थो वृधा एकादशी प्रोक्ता सकलकारकचक्र सप्पुरिसाणं दाणं सप्पेदिट्टेणासइ सप्पो इक्कं मरणं सपरं वाधासहियं सम्माइट्ठी जीवो सम्यग्दर्शनज्ञान सम्यग्दृष्टेर्भवति नियत सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं सर्वत्राथ्यवसाय सामान्यशास्त्रतो नूनं सावद्यलेशो बहुपुण्यराशी साहीणे गुरुजोगे सुच्चा जाणइ कल्लाणं 205 18 118 164 276 117 146 117 146 167 147 147 114 157 280 271 166 166 16 213 116 166 116 | 134