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________________ पाँचवाँ अधिकार-६७ ठाकुरका करै अर तिनको आप भोगवै। भोजनादिक बनावै बहुरि ठाकुरको भोग लगाया कहै, पीछे आप ही प्रसादकी कल्पनाकरि ताका भक्षणादि करै। सो इहां पूछिये है, प्रथम तो ठाकुरकै क्षुथा तृषा पीड़ा होसी। न होइ तो ऐसी कल्पना कैसे सम्भौ । अर क्षुधादिकरि पीड़ित होय सो व्याकुल होइ तब ईश्वर दुःखी भया, औरका दुःख कैसे दूरि करै। बहुरि भोजनादि सामग्री आप तो उनके अर्थि अर्पण करी, सो करी, पीछे प्रसाद तो ठाकुर देवै तब होय, आपही का तो किया न होय। जैसे कोऊ राजाको भेंट कर पीछे राजा बक्से तो वाको ग्रहण करना योग्य अर आप राजा की भेंट करै अर राजा तो किछू कहै नाहीं, आप ही 'राजा मोकू बकसी ऐसे कहि वाको अंगीकार करे तो यह, ख्याल (खेल) भया। तैसे इहाँ भी ऐसे किए भक्ति तो भई नाही, हास्य करना भया ' कुहुरि लाकुर अर टू दो कि हो : मोग को तैंने भेंट करी, पीछे ठाकुर बकसै सो ग्रहण कीजे, आप ही ते ग्रहण काहेको करै है। अर तू कहेगा ठाकुरकी तो मूर्ति है तातै मैं ही कल्पना करूं हूं, तो ठाकुरका करने का कार्य से ही किया तब तू ही ठाकुर भया। बहुरि जो एक हो तो भेंट करनी, प्रसाद कहना झूठा भया। एक भए यह व्यवहार सम्भवै नाहीं तातें भोजनासक्त पुरुषनिकरि ऐसी कल्पना करिए है। बहुरि टाकुरके अर्थि नृत्य - गानादि करावना, शीत ग्रीष्म बसंत आदि ऋतुनिविषै संसारीनिकै सम्भवती ऐसी विषयसामग्री भेली करनी इत्यादि कार्य करै। तहाँ नाम तो ठाकुर का लेना अर इन्द्रियनिके विषय अपने पोषने सो विषयासक्त जीवनिकरि ऐसा उपाय किया है। बहुरि जन्म विवाहादिक की वा सोवना जागना इत्यादिककी कल्पना तहाँ करै है सो जैसे लड़की गुड्डागुडीनिका ख्याल बनाय करि कौतूहल करे, तैसे यह भी कौतूहल करना है। किछू परमार्थरूप गुण है नाहीं। बहुरि लड़के ठाकुरका स्वांग बनाय घेष्टा दिखावै। ताकरि अपने विषय पोषै अर कहै यह भी भक्ति है, इत्यादि कहा कहिए। ऐसी अनेक विपरीतता सगुण भक्ति विषे पाईए है। ऐसे दोय प्रकार भक्तिकरि मोक्षमार्ग कह सो ताको मिथ्या दिखाया। . अब ज्ञानयोगकरि मोक्षमार्ग कह है ताका स्वरूप कहिए है ज्ञानयोग मीमांसा एक अद्वैत सर्वव्यापी परमब्रह्म को मानना ताको ज्ञान कहै है सो ताका मिथ्यापना तो पूर्व कह्या ही है। बहुरि आपको सर्वथा शुद्ध ब्रह्मस्वरूप मानना, कामक्रोधादिक व शरीरादिकको भ्रम जानना ताको ज्ञान कहै है सो यहु भ्रम है आप शुद्ध है तो मोक्षका उपाय काहेको कर है। आप शुद्धब्रह्म ठहत्या तब कर्तव्य कहा रह्या? बहुरि प्रत्यक्ष आपके कामक्रोधादिक होते देखिए है अर शरीरादिक का संयोग देखिए है सो इनका अभाव होगा तब होगा, वर्तमान विषे इनका सद्भाव मानना भ्रम कैसे भया? बहुरि कहै हैं, मोक्षका उपाय करना भी प्रम है। जैसे जेवरी तो जेवरी ही है ताको सर्प जाने था सो प्रम था-भ्रम मेटे जेवरी ही है। तैसे आप तो ब्रह्म ही है, आएको अशुद्ध जानै था सो भ्रम था, भ्रम मेटे आप ब्रह्म ही है। सो ऐसा कहना मिथ्या है। जो आप शुख होय अर ताको अशुद्ध जानै तो अम अर आप कामक्रोधादिसहित अशुद्ध होय रमा साको अशुद्ध जानै तो भ्रम कैसे होइ। शुद्ध जाने भ्रम होइ सो झूठा भ्रम-करि आपको शुद्धब्रह्म माने कहा सिद्धि है। बहुरि तू कहेगा, ए काम क्रोधादिक तो मनके धर्म हैं, ब्रह्म न्यारा है तो तुझकू पूछिए है- मन तेरा स्वरूप है कि नाहीं। जो है तो काम-क्रोधादिक भी तेरे ही भए। अर नाहीं तो तू ज्ञानस्वरूप है कि
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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