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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-६८ जड़ है। जो ज्ञानस्वरूप है तो तेरे तो ज्ञान मन वा इन्द्रिय द्वारा ही होता दी है। इनि बिना कोई डान बतावै तो ताको जुदा तेरा स्वरूप मानै सो भासता नाहीं। बहुरि 'मन ज्ञाने' थातुसे मन शब्द निपजै है सो मन तो ज्ञानस्वरूप है। सो यहु ज्ञान किसका है ताको बताय सो जुदा कोऊ मासै नाही। बहुरि जो तू जड़ है तो ज्ञान बिना अपने स्वरूपका विचार कैसे करै है, यहु बनै नाहीं । बहुरि तू कहै है, ब्रह्म न्यारा है सो वह न्यारा ब्रह्म तू ही है कि और है। जो तू ही है तो तेरे 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा मानने वाला जो ज्ञान है सो तो मन स्वरूप ही है, मनः जुदा नाहीं अर भापा मानन आप ही विर्ष होय। जाको न्यारा जाने तिसविर आपा मान्यो जाय नाहीं। सो मनते न्यारा ब्रह्म है तो मनरूप ज्ञान ब्रह्मविषे आपा काहेको मान है। बहरि जो ब्रह्म और ही है तो तू ब्रह्मविषे आपण काहेको मानै ताते भ्रम छोड़ि ऐसा जानि, जैसे स्पर्शनादि इन्द्रिय तो शरीर का स्वरूप है सो जड़ है, याके द्वारि जो जानपनो हो है सो आत्माका स्वरूप है; तैसे ही मन भी सूक्ष्म परमाणुनिका पुञ्ज है सो शरीर ही का अंग है, ताकै द्वारि जानपना हो है वा कामक्रोधादि भाव हो है सो सर्व आत्माका स्वरूप है। विशेष इतना- जानपना तो निज स्वभाव है, काम-क्रोधादिक उपाथिक भाव है तिनकार आत्मा अशुद्ध है। जब काल पाय काम-क्रोधादि मिटेंगे अर जानपनांकै मन इन्द्रियका आधीनपना मिटेगा, तब केवलज्ञानस्वरूप आत्मा शुद्ध होगा। ऐसे ही बुद्धि अहंकारादिक भी जानि लेने, जातै मन अर बुझ्यादिक एकार्थ हैं अर अहंकारादिक हैं ते काम क्रोधादिकवतु उपाथिक भाव हैं। इनको आपतै भिन्न जानना प्रम है। इनको अपने जानि उपाधिक भावनिके अभाव करनेका उद्यम करना योग्य है। बहुरि जिनतें इनका अभाव न होय सकै अर अपनी महंतता चाहै ते जीव इनको अपने न ठहराय स्वच्छन्द प्रय हैं। काम - क्रोधादिक भावनिको बधाय विषय-सामग्रीनिविषे वा हिंसादिकार्यनिविषै तत्पर हो हैं। बहुरि अहंकारादिक का त्यागको भी अन्यथा मान है। सर्वको परमब्रह्म मानना, कहीं आपो न माननो ताको अहंकारका त्याग बतावै सो मिथ्या है जातें कोई आप है कि नाहीं। जो है तो आपविषै आप कैसे न मानिए, जो आप नाहीं है तो सर्वको ब्रह्म कौन माने है? तातै शरीरादि परविर्ष अहंबुद्धि न करनी, तहाँ कर्ता न होना सो अहंकार का त्याग है। आप विष अहंबुद्धि करनेका दोष नाही। बहुरेि सर्वको समान जानना, कोई विष भेद न करना ताको रागद्वेषका त्याग बतावै है सो भी मिथ्या है। जाते सर्व पदार्थ समान हैं नाहीं। कोई चेतन है कोई अचेतन है, कोई कैसा है कोई कैसा है तिनको समान कैसे मानिए? ताते परद्रव्यानको इष्ट अनिष्ट न मानना सो रागद्वेषका त्याग है। पदार्थनिका विशेष जानने में तो किछू दोष नाहीं । ऐसे ही अन्य मोक्षमार्गरूप भावनिकी अन्यथा कल्पना करै है। बहुरि ऐसी कल्पनाकरि कुशील सेवै है, अभक्ष्य भखै है, वर्णादि भेद नाहीं करै है, हीन क्रिया आचरै है इत्यादि विपरीतरूप प्रवर्ती है। जब कोऊ पूछै तब कहै, ए तो शरीरका धर्म है अथवा जैसी प्रालब्धि हैं तैसे हो है अथवा जैसे ईश्वर की इच्छा हो है, तैसे हो है, हमको तो विकल्प न करना। सो देखो झूठ, आप जानि-जानि प्रवर्ते ताको तो शरीर का धर्म बतावै। आप उद्यमी होय कार्य करै ताको प्रालब्धि कहै। आप इच्छाकरि सेवै ताको ईश्वरकी इच्छा बतायै । विकल्प करै अर कहै हमको तो विकल्प न करना । सो धर्मका आश्रय लेय विषयकषाय सेवने, ताल झूठी युक्ति वनावै है। जो अपने परिणाम किछू भी न मिला तो हम याका कर्त्तव्य न मानै। जैसे आप ध्यान घरे तिष्ठै है, कोऊ अपने ऊपरि वस्त्र गेरि गया तहां आप किछू सुखी न भया, तहां तो ताका कर्त्तव्य नाहीं
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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