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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक - ६६ नामही का अपना कैसे कार्यकारी होय । जो तू कहेगा, नामहीका अतिशय है तो जो नाम ईश्वरका है सो ही नाम किसी पापी पुरुषका थरचा, तहाँ दोऊनिका नाम उच्चारणविषै फलकी समानता होय सो कैसे बनै। ता स्वरूपका निर्णयकरि पीछे भक्ति करने योग्य होय ताकी भक्ति करनी। ऐसे निर्गुणभक्तिका स्वरूप दिखाया। बहुरि जहाँ काम-क्रोधादिकरि निपजे कार्यनिका वर्णनकरि स्तुत्यादि करिए ताको सगुणभक्ति कहै है। तहां सगुणभक्तिविषे लौकिक शृंगार वर्णन जैसे नायक नायिका का करिए तैसे ठाकुर ठकुरानीका वर्णन करे है। स्वकीया परकीया स्त्रीसम्बन्धी संयोगवियोगरूप सर्वव्यवहार तहाँ निरूपै है । हुरि स्नान करती स्त्रीनिका वस्त्र चुरावना, दधि लूटना, स्त्रीनिके पगां पड़ना, स्त्रीनिके आगे नाचना इत्यादि जिन कार्यनिको संसारी जीव भी करते लज्जित होय तिनि कार्यनिका करना ठहरावे है। सो ऐसा कार्य अतिकाम पीड़ित भी बने । बहुरि युद्धादिक किए कहै तो ए क्रोध के कार्य हैं। अपनी महिमा दिखावने के अर्थि उपाय किए कहें सोए मान के कार्य है। अनेक छटा लिए कहै सो मायाके कार्य हैं। विषय सामग्री प्राप्तिके अर्थ यत्न किए कहै सो ए लोभ के कार्य हैं। कौतूहलादिक किए कहै सो हास्यादिकके कार्य हैं। ऐसे ए कार्य क्रोधादिकार युक्त भए ही बनै। या प्रकार काम-क्रोधादिकरि निपजे कार्यनिको प्रगटकरि कहैं, हम स्तुति करें हैं। सो काम-क्रोधादिके कार्य ही स्तुतियोग्य भए तो निंद्य कौन ठहरेंगे। जिनकी लोकविषै, शास्त्रविषै अत्यन्त निन्दा पाइए तिनि कार्यनिका वर्णनकरि स्तुति करना तो हस्तचुगलकासा कार्य भया । हम पूछे हैं- कोऊ किसीका नाम तो कहै नाहीं अर ऐसे कार्यनिहीका निरूपण करि कहै कि किसीने ऐसे कार्य किए हैं, तब तुम वाको भला जानो कि बुरा जानो । जो भला जानो तो पापी भले भए, बुरा कौन रखा। बुरे जानो तो ऐसे कार्य कोई करो सो ही बुरा भया । पक्षपात रहित न्याय करो। जो पक्षपातिकरि कहोगे, ठाकुरका ऐसा वर्णन करना भी स्तुति हैं तो ठाकुर ऐसे कार्य किस अर्थ किए। ऐसे निद्यकार्य करने में कहा सिद्धि भई ? कहोगे, प्रवृत्ति चलावनेके अर्थ किए तो परस्त्रीसेवन आदि निंद्यकार्यनिकी प्रवृत्ति चलावनेमें आपकै या अन्यकै कहा नफा भया । तातें ठाकुरकै ऐसा कार्य करना सम्भव नाहीं । बहुरि जो ठाकुर कार्य न किए तुम ही कहो हो, तो जामें दोष न था ताको दोष लगाया, तातैं ऐसा वर्णन करना तो निंदा है, स्तुति नाहीं । बहुरि स्तुति करते जिन गुणनिका वर्णन करिए तिस रूप ही परिणाम होय वा तिनही विषै अनुराग आवै । सो काम-क्रोधादि कार्यनिका वर्णन करता आप भी कामक्रोधादिरूप होय अथवा कामक्रोधादि विषे अनुरागी होय तो ऐसे भाव तो भले नाहीं । जो कहोगे, भक्त ऐसा भाव न करे हैं तो परिणाम भए बिना वर्णन कैसे किया । तिनका अनुराग भए बिना भक्ति कैसे करी । सो ए भाव ही भले होय तो ब्रह्मचर्यको वा क्षमादिकको भले काहेको कहिए। इनके तो परस्पर प्रतिपक्षीपना है। बहुरि सगुणभक्ति करने के अर्थि राम - कृष्णादिककी मूर्ति भी शृंगारादि किए वक्रत्वादिसहित स्त्री आदि संग लिए बनाये है, जाको देखते ही कामक्रोधादि भाव प्रगट होय आवै अर महादेवके लिंगहीका आकार बनाये है। देखो विडम्बना, जाका नाम लिए लाज आवै, जगत् जिसको ढाँक्या राखे ताके आकारका पूजन करावे हैं। कहा अन्य अंग वाके न थे? परन्तु धनी विडम्बना ऐसे ही किए प्रगट होय । बहुरि सगुणभक्तिके अर्थि नाना प्रकार विषयसामग्री भेली करें। बहुरि नाम तो I
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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