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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-१६२ जबकि पाप प्रकृति के परमाणु निर्जीर्ण रस होकर गुणश्रेणिनिर्जरा में झड़ते हैं, यह गूढार्थ है। सारतः शुद्ध भाव से पुण्य-पाप दोनों की निर्जरा होती है, यह अकाट्य सत्य है। पर यहाँ पुण्य परमाणु हीनानुभाग होकर नहीं झरते; यथानुभाग ही वेदित हो कर झरते हैं। दूसरा, यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि यद्यपि पंचम गुणस्थान में निरन्तर गुणश्रेणिनिर्जरा होती रहती है चाहे आत्मा का चिन्तन या देवपूजा कर रहा हो या विषयसेवन; परन्तु इतना विशेष है कि आत्मचिन्तनादि विशुद्ध परिणामों के समय होने वाली गुणश्रेणिनिर्जरा से विषयसेवनादि अविशुद्ध (संक्लेश) परिणाम निमित्तक प्रवृत्तियों के समय होने वाली गुणश्रेणिनिर्जरा प्रायः असंख्यातगुणी हीन हो जाती है। कहा भी है--संयतासंयत की गुणश्रेणिनिर्जरा संक्लेश और विशुद्धि के अनुसार न्यूनाधिक होती रहती है। विशुद्धि के अनुसार प्रत्येक समय में पूर्व समय की अपेक्षा कभी असंख्यात गुणी, कमी संख्यात गुणी, कभी संख्यातवाँ भाग अधिक और कभी असंख्यातवाँ भाग अधिक होती है तथा संक्लेश के अनुसार कभी अंसख्यागुनी हीन, को संख्यातनी होन, कभी सख्यातवाँ भाग हीन, कमी असंख्यातवाँ भाग हीन होती है। परन्तु गुण श्रेणिनिर्जरा बराबर बनी रहती है। (जयधवल १३/१३०, प्रस्ता. पृ. १५-१६) परिणामानुसार उक्त चार स्थान वृद्धिरूप या चार स्थान हानि रूप द्रव्य का ऊपर से अपकर्षण होकर गुणश्रेणी में पतन होता है; यह अभिप्राय है। (लब्धिसार १७६ टीका) ऐसे अनशनादि क्रियाको तपसंज्ञा उपचारतें जाननी। याहीत इनको व्यवहार तप कया है। व्यवहार उपचार का एक अर्थ है। बहुरि ऐसा साधनतें जो वीतरागभावरूप विशुद्धता होय सो साँचा तप निर्जराका कारण जानना । यहाँ दृष्टांत-जैसे धनको वा अत्रको प्राण कह्या सो धनतें अन्न ल्याय 'मक्षण किए प्राण पोषे जांय, तातें उपचार करि धन अत्र को प्राण कह्या । कोई इन्द्रियादिक प्राणको न जानै अर इनहीको प्राण जानि संग्रह करे, तो मरणही पाचे। तैसे अनशनादिकको वा प्रायश्चित्तादिकको तप कह्या, सो अनशनादि साधनतें प्रायश्चित्तादिरूप प्रवत्तें वीतरागभावरूप सत्य तप पोष्या जाय। तातै उपचारकरि अनशनादिको वा प्रायश्चित्तादिको तप कह्या । कोई वीतरागभावरूप तपको न जानै अर इनिहीको तप जानि संग्रह करै तो संसारही में प्रमै। बहुत कहा, इतना समझि लेना, निश्चय धर्म तो वीतरागभाव है। अन्य नाना विशेष बाह्य साधन अपेक्षा उपचारत किए हैं, तिनको व्यवहारमात्र धर्मसंज्ञा जाननी। इस रहस्य को न जाने, तातै वाकै निर्जराका भी साँचा श्रद्धान नाहीं है। मोक्ष तत्त्वके श्रद्धानकी अयथार्थता बहुरि सिद्ध होना ताको मोक्ष मान है। बहुरि जन्म जरा मरण रोग क्लेशादि दुःख दूरि भए अनन्तज्ञान करि लोकालोकका जानना भया, त्रिलोकपूज्यपना भया, इत्यादि रूपकरि ताकी महिमा जानै है।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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