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________________ सातवाँ अधिकार-१६१ है । अंतरंग कषायशक्ति घटे विशुद्धता भए निर्जरा हो है । सो इसका प्रगट स्वरूप आगै निरूपण करेंगे, तहाँ जानना । विशेष- "शुद्धभावनितै दोऊनि की निर्जरा हो है" प्रश्नकर्ता का यह कथन अकाट्य सत्य है । परन्तु यह कथन सहज रूप से तो धवल जयधवल महाधवल में भी उपलब्ध नहीं होता अतः बहुलता से प्ररूपण के अभाव में यह गम्य नहीं हो पाता । यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि शुभ प्रकृति/पुण्य प्रकृति के भी स्थितिकाण्डकघात होते हैं (ज.ध. १३/३३) तथा स्थितिकाण्डकों द्वारा स्थिति हीन होती हुई असंख्यातगुणी हीन हो जाती है । वे ऊपर के सब परमाणु नीचे की शेष बची अल्पतम स्थिति में आ जाते हैं और असंख्यातगुणहीन काल में ही असमय में ही निर्जीर्ण होने लगते हैं । शुद्ध मावों से गुणश्रेणिनिर्जरा होती है तथा ऐसी स्थिति में गुणश्रेणिनिर्जरा तीर्थंकर सदृश महापुण्य प्रकृति की भी होती है । (धवल १५ पृ. ३००-३०१-३०९ आदि) परन्तु यहाँ सर्वत्र यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसी निर्जरा को अवधि में मी पुण्य प्रकृति के परमाणुओं में से अनुभाग नहीं घटता । क्योंकि विशुद्धि से या शुद्धि से भी पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग नहीं घटता (जय ध, १४/१५२) । विस्तृत अन्य विवेचन पुण्य या पाप प्रकृति की सभी की स्थिति' (टिकाव) तो पाप रूप ही है (तीन शुभ आयु की स्थिति को छोड़कर), अतः कोई विशेष नहीं है । फिर भी शुभ भाव से स्थिति कम पड़ती है, अशुभ से ज्यादा, यह विशेष तो है ही। अनुभाग का घटना पुण्य प्रकृति का, अशुभ भाव से होता है; शुभ माव से पुण्य प्रकृति का अनुभाग बढ़ता है, शुद्धोपयोग से शुभ का अनुभाग भले ही न घटो, पर शुभ प्रकृति की स्थिति तो खण्डित होती रहती ही है, स्थितिकाण्डकों द्वारा । इस कारण शुद्धोपयोग से पुश्मप्रकृति अनुभाग भी कम काल में ही उदय आने योग्य तो कर ही दिया जाता है । सामान्यतः शुभभाव से पाप की निर्जरा नहीं होती 1' पर सत्तास्थित पाप प्रकृति का कुछ अंश अवश्य पुण्यरूप संक्रमण (बदली) कर जाता है । इस प्रकार शुभ भाव से पाप-परमाणु की हानि, पुण्य प्रकृति की वृद्धि तथा अनियम से धर्म योग्य वातावरण भी क्वचित् कदाचित् मिलते हैं (पृ. ४०८) शुद्धोपयोग से पाप की निर्जरा तथा पुण्यानुभाग की वृद्धि तो होती है ही, साथ ही साथ पुण्य प्रकृति की स्थिति घटती है तथा पुण्य प्रकृतियों की निर्जरा (गुणश्रेणिनिर्जरा) भी होती है । परन्तु उस पुण्य प्रकृति के परमाणुओं में से रस (अनुभाग) कम नहीं होता । वे तो सरस ही फल देकर झड़ते हैं । १. मात्र करणलब्धि युक्त अन्तिम अन्तर्मुहूर्तवर्ती मिथ्यादृष्टि के निर्जरा होती है । इतना विशेष जानना चाहिए ।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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