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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-१०० यामें कहा सिद्धि है। बहुरि ऐसे साथननित किंचित् अतीत अनागतादिक का ज्ञान होय वा वचनसिद्धि होय वा पृथ्वी आकाशादिविषे गमनादिक की शक्ति होय वा शरीरविषै आरोग्यतादिक होय तो ए तो सर्व लौकिक कार्य हैं। देवादिककै स्वयमेव ही ऐसी शक्ति पाइए है। इनितें किछु अपना भला तो होता नाही, भला तो विषयकवायकी वासना मिटे होय। सो ए तो विषयकषायपोषनेके उपाय हैं। तातै ए सर्व साधन किछू हितकारी हैं नाहीं । इनिविर्षे कष्ट बहुत मरणादि पर्यन्त होय अर हित सधै नाहीं । तात ज्ञानी वृथा ऐसा खेद करै नाहीं । कषायी जीव ही ऐसे साधनविषे लागे हैं। बहुरि काहूको बहुत तपश्चरणादिककरि मोक्षका सांधन कठिन बताये है। काहूको सुगमपने ही मोक्ष भया कहै। उद्धवादिकको परमभक्त कहै, तिनको तो तपका उपदेश दिया कहै, वेश्यादिककै बिना परिणाम (केवल) नामादिकहीत तरना बतावै, किछू थल है नाहीं। ऐसे मोक्षमार्ग को अन्यथा प्ररूपै है। अन्यमत कल्पित मोक्षस्वरूप की मीमांसा बहुरि मोक्षस्वरूप को भी अन्यथा प्ररूप है। तहाँ मोक्ष अनेक प्रकार बतावै है। एक तो मोक्ष ऐसा कहै है-जो वैकुण्ठधामविषै ठाकुर ठकुराणीसहित नाना भोगविलास करै है तहाँ जाय प्राप्त होय अर तिनिकी टहल किया करै सो मोक्ष है। सो यहु तो विरुद्ध है। प्रथम तो ठाकुर भी संसारीवत् विषयासक्त होय रह्या है। तो जैसा राजादिक है लेसा ही आसुर भया । बहुरि मान्य पासि टहल करावनी भई तब ठाकुरकै पराधीनपना भया। बहुरि जो यहु मोक्षको पाय तहाँ टहल किया करै तो जैसे राजाकी चाकरी करनी तैसे यह भी चाकरी भई, तहाँ पराधीन भए सुख कैसे होय? तात यह भी बनै नाहीं।। बहुरि एक मोक्ष ऐसा कहै हैं-ईश्वर के समान आप हो है सो भी मिथ्या है। जो उसके समान और भी जुदा होय है तो बहुत ईश्वर भए । लोकका कर्ता हर्ता कौन ठहरेगा? सबही ठहरै तो भिन्न इच्छा भए परस्पर विरुद्ध होय। एक ही है तो समानता न भई। न्यून है ताकै नीचापने करि उच्च होने की आमुलता रही, तब सुखी कैसे होय? जैसे बेटा रानाकै बम राजा संसारविषै हो है तैसे छोटा बड़ा ईश्वर मुक्तिविषै भी भया सो बने नाही। बहुरि एक मोक्ष ऐसा कहे -जो वैकुण्ठविषै दीपककीसी एक ज्योति है, तहाँ ज्योतिविषै ज्योति जाथ मिले है सो यह भी मिथ्या है। दीपककी ज्योति तो मूर्तीक अचेतन है, ऐसी ज्योति तहाँ कैसे सम्भव? बहुरि ज्योति में मिले यह ज्योति रहै है कि विनशि जाय है। जो रहे है तो ज्योति बघती जायसी, तब ज्योतिविषै हीनाधिकपनो होसी। अर विनशि जाय है तो आपकी सत्ता नाश होय ऐसा कार्य उपादेय कैसे मानिए। ताते ऐसे भी बन नाहीं। बहुरि एक मोक्ष ऐसा कहै है-जो आत्मा ब्रह्म ही है, मायाका आवरण मिटे मुक्ति ही है सो यहु भी मिथ्या है। यह माया का आवरणसहित था तब ब्रह्मस्यों एक था कि जुदा था। जो एक था तो ब्रह्मही मायारूप भया अर जुदा था तो माया दूरि भए ब्रह्मविष मिले है तब याका अस्तित्व रहै है कि नाहीं । जो रहे है तो सर्वज्ञको तो याका अस्तित्व जुदा भास, तब संयोग होनेत मिल्या कहो परन्तु परमार्थते तो मिल्या नाहीं। बहुरि अस्तित्व नाहीं रहै है तो आपका अभाव होना कौन चाहै, तात यह भी न बने।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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