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________________ भोक्षमार्ग प्रकाशक - १३८ बहुरि घने व इस पर्याय सम्बन्धी शत्रुनाशादिक या रोगादिक भिटवाना वा धनादिककी प्राप्ति वा पुत्रादिककी प्राप्ति इत्यादि दुःख मेटने का वा सुख पावनेका अनेक प्रयोजन लिए कुदेवनिका सेवन करे हैं। बहुरि हनुमानादिको पूजे हैं। बहुरि देवीनिको पूजै हैं । बहुरि गणगौर सांझी आदि बनाय पूजे हैं। चौथि शीतला दिहाड़ी आदिको पूजे हैं। बहुरि अऊत पितर व्यंतरादिकको पूजे हैं। बहुरि सूर्य चन्द्रमा शनिश्चरादि ज्योतिषीनिको पूजे हैं। बहुरि पीर पैगम्बरादिकनिको पूजे हैं। बहुरि गऊ घोटकादि तिर्यंचनिको पूजे हैं। अग्नि जलादिकको पूजै हैं। शस्त्रादिक को पूजे हैं। बहुत कहा कहिए, रोड़ी इत्यादिकको भी पूजें हैं । सो ऐसे कुदेवनिका सेवन मिथ्यादृष्टि ते हो है। काहेतें, प्रथम तो जिनका सेवन करै सो केई तो कल्पना मात्र ही देव हैं। सो तिनका सेवन कार्यकारी कैसे होय । बहुरि केई व्यंतरादिक हैं, सो ए काहूका भला बुरा करने को समर्थ नाहीं । जो वे ही समर्थ होय, तो वे ही कर्त्ता ठहरे। सो तो उनका किया किछू होता दीसता नाहीं । प्रसन्न होय धनादिक देय सकै नाहीं । द्वेषी होय बुरा कर सकते नाहीं । इहाँ कोऊ कहे- दुःख तो देते देखिए है, मानेतैं दुःख देते रहि जाय हैं। ताका उत्तर- याकै पापका उदय होय, तब ऐसी ही उनके कुतूहल बुद्धि होय, ताकरि वे चेष्टा करें। चेष्टा करते यहु दुःखी होय । बहुरि वे कुतूहलतें किछू कहें, यहु कथा करे तब वे चेष्टा करनेते रहि जाँय । बहुरियाको शिथिल जानि कुतूहल किया करें। बहुरि जो याकै पुण्यका उदय होय तो किछू कर सकते नाहीं । सो भी देखिए हैं , कोऊ जीव उनको पूजै नाहीं वा उनकी निन्दा करै वा वे भी उस द्वेष करे परन्तु ताको दुःख देई सकै नाहीं । वा ऐसे भी कहते देखिए हैं, जो फलाना हमको माने नाहीं परन्तु उस किछू हमारा वश नाहीं । तातैं व्यन्तराविक किछू करनेको समर्थ नाहीं । याका पुण्य पापहीतें सुख-दुःख हो हैं । उनके माने पूजे उलटा रोग लागे हैं, किछू कार्यसिद्धि नाहीं । बहुरि ऐसा जानना जे कल्पित देव हैं, तिनका भी कहीं अतिशय चमत्कार होता देखिए है सो व्यंतरादिक करि किया हो है। कोई पूर्व पर्यायविषै उनका सेवक था, पीछे मरि व्यन्तरादि भया, तहाँ ही कोई निमित्ततें ऐसी बुद्धि भई, तब वह लोकविषै तिनिके सेवने की प्रवृत्ति करावने के अर्थि कोई चमत्कार दिखाये है। जगत् भोला किंचित् चमत्कार देखि तिस कार्य विषै लग जाय है। जैसे जिन प्रतिमादिकका भी अतिशय होता सुनिए वा देखिए है सो जिनकृत नाहीं, जैनी व्यंतरादिकृत हो है । तैसे ही कुदेवनिका कोई चमत्कार होय, सो उनके अनुचरी व्यंतरादिकनिकरि किया हो है, ऐसा जानना । बहुरि अन्यमतविषे भक्तनिकी सहाय परमेश्वर करी या प्रत्यक्ष दर्शन दिए इत्यादि कहे हैं। तहां केई तो कल्पित बातें कही हैं। केई उनके अनुचरी व्यन्तरादिककरि किए कार्यनिको परमेश्वरके किए कहे हैं। जो परमेश्वरके किए होय तो परमेश्वर तो त्रिकालज्ञ है। सर्व प्रकार समर्थ है। भक्तको दुःख काहेको होने दे। बहुरि अबहू देखिए है। म्लेच्छ आय भक्तनिको उपद्रव करें हैं, धर्म विध्वंस करे हैं, मूर्तिको विघ्न करे हैं, सो परमेश्वरको ऐसे कार्यका ज्ञान न होय तो सर्वज्ञपनो रहे नाहीं । जाने पीछे सहाय न करें तो भक्तवत्सलता गई वा सामर्थ्यहीन भया । बहुरि साक्षीभूत रहे है तो आगे भक्तनिकी सहाय करी कहिए है सो झूठ है। उनकी तो एकसी वृत्ति है। बहुरि जो कहोगे वैसी भक्ति नाहीं है। तो ग्लेच्छनितें तो भले हैं वा मूर्ति आदि तो नही
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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