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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक - १३६ बहुरि पडिकमणो नाम पूर्वदोष निराकरण करने का है। सो 'मिच्छा मे दुक्कडं' इतना कहे ही तो दुष्कृत मिथ्या न होय, किया दुःकृत मिथ्या होने योग्य परिणाम भए होइ । तातें पाठ ही कार्यकारी नाहीं । बहुरि पडिकमणां का पाठ विषे ऐसा अर्थ है, जो बारह व्रतादिकविषै जो दुष्कृत लाग्या होय सो मिथ्या होहु । सो व्रत धारे बिना ही तिनका पाडेकमणा करना कैसे सम्भवै? जाकै उपवास न होय, सो उपवासविषै लाग्या दोषका निराकरण करे तो असम्भवपना होय । तातैं यह पाठ पढ़ना कौन प्रकार बने? बहुरि पोसहविषै भी सामायिकवत् प्रतिज्ञाकरि नाहीं पाले है । तातें पूर्वोक्त ही दोष है बहुरि पोसह नाम तो पर्वका है। सो पर्वके दिन भी केताइक कालपर्यंत पापक्रिया करे, पीछे पोसहधारी होय । सो जेते काल बने तेते काल साधन करनेका तो दोष नाहीं । परन्तु पोसहका नाम करिए सो युक्त नाहीं । सम्पूर्ण पर्वविषै निरवद्य रहे ही पोसह होय । जो थोरा भी कालौँ पोसह नाम होय तो सामायिकको भी पोसह कहो, नाहीं शास्त्र विषै प्रमाण बतावो जघन्य पोसहका इतना काल है। सो बड़ा नाम धराय लोगनिको भ्रमावना, बहु प्रयोजन भासे है । बहुरि आखड़ी लेनेका पाठ तो और पढ़े, अंगीकार और करे। सो पाठविषै तो "मेरे त्याग है" ऐसा वचन है, ता जो त्याग करे सो ही पाठ पढै, यह चाहिए। जो पाट न आवे तो भाषा ही तैं कहें परन्तु पद्धतिके अर्थ यह रीति है। I बहुरि प्रतिज्ञा ग्रहण करने करावने की तो मुख्यता अर यथाविधि पालने की शिथिलता वा भाव निर्मल होने का विवेक नाहीं । आर्त्तपरिणामनिकरि वा लोभादिककरि भी उपवासादि करै, तहाँ धर्म मानै । सो फल तो परिणामनित हो है । इत्यादि अनेक कल्पित बातें करे हैं, सो जैनधर्म्य विषे सम्भवै नाहीं । ऐसे यहु जैनविषे श्वेताम्बरमत है, सो भी देवादिकका वा तत्त्वनिका वा मोक्षमार्गादिकका अन्यथा निरूपण करें ता मिथ्यादर्शनादिकका पोषक है, सो त्याज्य है। सांचा जिनधर्म्य का स्वरूप आगे कहे हैं। ताकरि गोक्षमार्ग प्रवर्त्तना योग्य है। तहाँ प्रवर्त्ते तुम्हारा कल्याण होगा। इति श्रीमोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्रविषे अन्यमत निरूपण पाँचवाँ अधिकार समाप्त भया ।।५ ।। 事事事
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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