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________________ पाँचौं अधिकार- १३५ बहुत जलकरि अभिषेक करै है, समवसरणविष देव पुष्पवृष्टि चमर ढालना इत्यादि कार्य करे हैं, सो ये महापापी होय। जो तुम कहोगे, उनका ऐसा ही व्यवहार है, तो क्रिया का फल तो भए बिना रहता नाहीं। जो पाप है तो इन्द्रादिक तो सम्यग्दृष्टी है, ऐसा कार्य काहेको करे अर धर्म है तो कादेको निषेध करो हो। बहुरि भला तुमहीको पूछे हैं- तीर्थकर की वंदना को राजादिक गए, साधु की वंदना को दूरि भी जाईए है, सिद्धान्त सुनने आदि कार्य करने को गमनादि कार है, तहाँ मागविष हिंसा भई। बहुरि साधी जिमाइए है, साथुका मरण भये ताका संस्कार करिये है, साधु होते उत्सव करिये हैं, इत्यादि प्रवृत्ति अब भी दी है। सो यहाँ भी हिंसा हो है। सो ये कार्य तो धर्म ही के अर्थि हैं, अन्य कोई प्रयोजन नाहीं। जो यहाँ महापाप उपजै हैं, तो पूर्व ऐसे कार्य किये तिनका निषेध करो। अर अब भी गृहस्थ ऐसा कार्य करै हैं, तिनका त्याग करो। बहुरि जो धर्म उपजे है तो धर्म के अर्थि हिंसाविषे महापाप बताय काहेको प्रमाको हो। ताते ऐसे मानना युक्त है- जैसे थोरा धन ठिगाए बहुत धनका लाभ होय तो यह कार्य करना तैसे थोरा हिंसादिक पाप भये बहुत धर्म निपजै तो वह कार्य करना। जो थोरा धनका लोभकरि कार्य बिगारै तो मूर्ख है तैसे थोरी हिंसा का भयतें बड़ा थर्म छोरै तो पापी ही होय । बहुरि कोऊ बहुत धन ठिगावै अर स्तोक धन उपजावै वा न उपजावै तो वह मूर्ख ही है। तैसे बहुत हिंसादिकरि बहुतपाप उपजावै अर भक्ति आदि धर्मविष थोरा प्रवते वा न प्रवते तो वह पापी ही है। बहुरि जैसे बिना ठिगाए ही धन का लाभ होते ठिगावै तो मूर्ख है। तैसे निरवद्य धर्मरूप उपयोग होते सावध धर्मविष उपयोग लगायना युक्त नाहीं। ऐसे अपने परिणामनिकी अवस्था देखि भला होय सो करना। एकांतपक्ष कार्यकारी नाही। बहुरि अहिंसा ही केवल पर्म का अंग नाही है। रागादिकनिका घटना धर्मका अंग मुख्य है। तातै जैसे परिणामनिविष रागादिक घटै सो कार्य करना। बहुरि गृहस्थनिको अणुव्रतादिक का साधन भए बिना ही सामायिक, पडिकमणो, पोसह आदि क्रियानिका मुख्य आचरन करावै है। सो सामायिक तो रागद्वेपरहित साम्यमाव भए होय, पाठ मात्र पढ़े या उठना बैठना किए ही तो होइ नाहीं। बहुरि कहोगे अन्य कार्य करता ताते तो भला है। सो सत्य, परन्तु सामायिक पाठ विष प्रतिज्ञा तो ऐसी करै, जो मनवचनकार सावध को न कसंगा न कराऊंगा अर मनविष तो विकल्प हुआ ही करै। अर वचनकाय विषे भी कदाचित् अन्यथा प्रवृत्ति होय तहाँ प्रतिज्ञाभंग होय । सो प्रतिज्ञाभंग करने से न करनी भली। जाते प्रतिज्ञाभंग का महापाप है। बहुरि हम पूछ है - कोऊ प्रतिज्ञा भी न करें है अर भाषा पाठ पढ़ है, साका अर्थ जानि तिस विषै उपयोग राखै है। कोऊ प्रतिज्ञा करे, ताको तो नीके पाले नाहीं अर प्राकृतादिक का पाठ पढ़, ताकै अर्थका आपको ज्ञान नाहीं, बिना अर्थ जानै तहाँ उपयोग रहै नाहीं, तब उपयोग अन्यत्र भटकै। ऐसे इन दोऊनि विष विशेष धर्मात्मा कौन? जो पहले को कहोगे, तो ऐसा ही उपदेश क्यों न दीजिए। दूसरे को कहोगे, तो प्रतिज्ञाभंग का पाप भया वा परिणामनिके अनुसार धर्मात्मापना न ठहरया। पाठादि करने के अनुसारि ठहत्या । तातें अपना उपयोग जैसे निर्मल होय सो कार्य करना। सधै सो प्रतिमा करनी। जाका अर्थ जानिए सो पाठ पढ़ना। पद्धति करि नाम धरावने में नफा नाहीं ।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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