SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक - १३४ ताका समाधान - मुनिपद लेते ही सर्व परिग्रहका त्याग किया था, केवलज्ञान भए पीछे तीर्थंकरदेवकै समवसरणादि बनाए, छत्रचामरादि किए, सो हास्य करी कि भक्ति करी । हास्य करी तो इन्द्र महापापी भया, सो बनै नाहीं। भक्ति करी तो पूजनादिकविषे भी भक्ति ही करिए है । छद्मस्थके आगे त्याग करी वस्तुका धरना हास्य करना है, जातें वाकै विक्षिप्तता होय आवै है । केवलीक वा प्रतिमाके आगे अनुरागकरि उत्तम वस्तु धरने का दोष नाहीं । उनके विक्षिप्तता होय नाहीं । धर्मानुरागतें जीवका भला होय । बहुरि वे कहे हैं- प्रतिमा बनावने विषै चैत्यालयादि करावने विषै, पूजनादि करावने विषे हिंसा होय अर धर्म अहिंसा है। तार्ते हिंसाकरि धर्म मानने महापाप हो है, तातैं हम इन कार्यनिको निषेध हैं । ताका उत्तर- उनही के शास्त्रविषे ऐसा वचन हैं सुच्चा जाणइ कल्लाणं सुच्चा जाणइ पावगं । उभयं पि जाणए सुच्चा जं सेयं तं समायर ।।१।। यहाँ कल्याण, पाप, उभय ए तीन शास्त्र सुनिकरि जाणै, ऐसा कया। सो उभय तो पाप अर कल्याण मिले होय सो ऐसा कार्यका भी होना ठहरया । तहाँ पूछिए है- केवल धर्म्मत तो उभय घाटि है ही अर केवल पाप उभय बुरा है कि भला है। जो बुरा है तो यायें तो किछू कल्याणका अंश मिल्या, पाप बुरा कैसे कहिए। भला है तो केवल पाप छोड़ ऐसा कार्य करना ठहरचा । बहुरि युक्तिकरि भी ऐसे ही सम्भवै है। कोऊ त्यागी होय, मन्दिरादिक नाहीं करावे है या सामायिकादिक निरवद्य कार्यनिविषै प्रवर्तें है। ताको तो छोरि प्रतिमादि करावना वा पूजनादि करना उचित नाहीं । परन्तु कोई अपने रहनेके वास्ते मन्दिर बनावे, तिसर्तें तो चैत्यालयादि करावनेवाला हीन नाहीं। हिंसा तो भई परन्तु वाकै तो लोभ पापानुराग की वृद्धि भई, याकै लोभ छुट्या, धर्मानुराग भया । बहुरि कोई व्यापारादि कार्य करै, तिसतें तो पूजनादि कार्य करना हीन नाहीं । वहाँ तो हिंसादि बहुत हो है, लोभादि बंधे है, पापहीकी प्रवृत्ति है । यहाँ हिंसादिक भी किचित् हो है, लोभादिक घंटे है, धर्म्मानुराग बर्थ है। ऐसे जे त्यागी न होय, अपने धनको पापविषे खरवते होय तिनको चैत्यालयादि करावना | अर जे निरवध सामायिकादि कार्यनिविषे उपयोग को नाहीं लगाय सकै, तिनको पूजनादि करना निषेध नाहीं । बहुरि तुम कहोगे निरवद्य सामायिक आदि कार्य ही क्यों न करें, धर्मविषे काल गभावना तहाँ ऐसे कार्य काहेको करे ? ताका उत्तर जो शरीरकरि पाप छोरे ही निरवद्यपना होय, तो ऐसे ही करे परन्तु परिणामनिविषै पाप छूटे निरवद्यपना हो है । सो बिना अवलम्बन सामायिकादिविषै जाका परिणाम लागे नाहीं सो पूजनादिकरि तहाँ अपना उपयोग लगावे है। तहाँ नानाप्रकार आलम्बनकरि उपयोग लगि जाय है। जो तहाँ उपयोग को न लगावै, तो पापकार्यनिविषे उपयोग भटकै तब बुरा होय । तातें यहाँ प्रवृत्ति करनी युक्त है। बहुरि तुम कहो हो धर्म के अर्थि हिंसा किए तो महापाप हो है, अन्यत्र हिंसा किए थोरा पाप हो है । सो यह प्रथम तो सिद्धान्त का वचन नाहीं अर युक्ति भी मिलें नाहीं । जाते ऐसे मानै इन्द्र जन्मकल्याणकविषै
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy