SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाँचवा अधिकार-१३३ है याको गोपने के अर्थ कहै हैं, देवनिका ऐसा ही कर्तव्य है । सो सांच, परन्तु कर्त्तव्यका तो फल होय ही होय। सो तहाँ धर्म हो है कि पाप हो है। जो धर्म हो है, तो अन्यत्र पाप होता था, यहाँ धर्म भया। याको औरनिके सदृश कैसे कहिए? यह तो योग्य कार्य भया । अर पाप हो है तो तहाँ 'मोत्युण' का पाठ पढ़या, सो पापके ठिकाने ऐसा पाठ काहेको पढ़या । बहुरि एक विचार यहाँ यहु आया, जो 'णमोत्युणं' के पाट विषै तो अरहंतकी भक्त है। सो प्रतिमाजी के आगै जाय यहु पाट पढ्या, तातै प्रतिमाजी के आगै जो अरहतभक्तिकी क्रिया है सो करनी युक्त भई। बहुरि जो वे ऐसा कहैं- देवनिकै ऐसा कार्य है. मनुष्यनिकै नाहीं; जातें मनुष्यनिकै प्रतिमा आदि वनावने विषै हिंसा हो है। तो उनहीके शास्त्रनिविषै ऐसा कथन है, द्रौपदी राणी प्रतिमाजी का पूजनादिक जैसे सूर्याभदेव किया, तैसे करती भई। तातें मनुष्यनिकै भी ऐसा कार्य कर्त्तव्य है। यहाँ एक यह विचार आया-चैत्यालय प्रतिमा बनावने की प्रवृत्ति न थी, तो द्रौपदी कैसे प्रतिमाका पूजन किया। बहुरि प्रवृत्ति थी. तो बनावने वाले धर्मात्मा थे कि पापी थे। जो धर्मात्मा थे तो गृहस्थनिको ऐसा कार्य करना योग्य भया अर पापी थे तो तहाँ भोगादिकका प्रयोजन तो था नाही, काहेको बनाया । बहुरि द्रौपदी तहाँ णमोत्धुणं' का पाठ किया वा पूजनादि किया, सो कुतूहल किया कि धर्म किया। जो कुतूहल किया तो महापापिणी भई। धर्मविषै कुतूहल कहा। अर धर्म किया तो औरनिको भी प्रतिमाजी की स्तुति-पूजा करनी युक्त है। . बहुरि वे ऐसी मिथ्यायुक्ति बनाये हैं- जैसे इन्द्र की स्थापनातै इन्द्रका कार्य सिद्ध नाही, तैसे अरहंत प्रतिमा करि कार्य-सिद्धि नाहीं । सो अरहंत आप काहूको भक्त मानि भला करते होय तो ऐसे भी माने । सो तो ये वीतराग हैं। यह जीव भक्तिरूप अपने भायनित शुभफल पाये है। जैसे स्त्री का आकाररूप काष्ठ पाषाणको मूर्ति देखि, तहाँ विकाररूप होय अनुराग करे तो ताकै पाप बंथ होय। तैसे अरहंत का आकाररूप धातु पाषाणादिक की मूर्ति को देखि धर्मबुद्रिते. तहाँ अनुराग करे, तो शुभकी प्राप्ति कैसे न होइ। तहाँ वे पाद हैं, बिना प्रतिमा ही हम अरहंत विष अनुराग करि शुभ उपजावेंगे। तो इनको कहिए है- आकार देखे जैसा भाव होय, तैसा परोक्ष स्मरण किए भाव होय नाहीं। याहीत लोकथिष भी स्त्रीका अनुरागी स्त्रीका चित्र बनावै है। ताते प्रतिमाका आलंबनकरि भाक्त विशेष होने से विशेष शुभकी प्राप्ति हो है। बहुरि कोऊ कई-प्रतिमाको देखो, परन्तु पूजनादिक करने का कहा प्रयोजन है? ताका उत्तर-जैसे कोऊ किसी जीव का आकार बनाय घात करे तो वाकै उस जीव की हिंसा किए का सा पाप निपजै वा कोऊ काहूका आकार बनाय द्वेषबुद्धि वाकी बुरी अवस्था करै तो जाका आकार बनाया वाकी बुरी अवस्था किए का सा फल निपजे । तैसे अरहंतका आकार बनाय रागबुद्धितै पूजनादि करै तो अरहंतके पूजनादि किए का सा शुभ (भाव) निपजै वा तैसा ही फल होय। अति अनुराग भए प्रत्यक्ष दर्शन न होते आकार बनाय पूजनादि करिए हैं। इस थर्मानुराग” महापुण्य उपजै है। बहुरि ऐसी कुलर्क करै है- जो जाकै जिस वस्तुका त्याग शेष ताकै आगे लिए वस्तु का परना हास्य करना है। ताते बंदनादिकरि अरहतका पूजन युक्त नाहीं।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy