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________________ पाँचवा अधिकार-१७ 'जीदों के निग्रह अनुग्रह के लिए सृष्टि एपना' का निराकरण बहुरि वह कहै है कि परमेश्वर को तो किछू प्रयोजन नाहीं। लोकरीतिकी प्रवृत्ति के अर्थि वा भक्तनिकी रक्षा, दुष्टनिका निग्रह ताके अर्थि अवतार धरै' है तो याको पूछिए है- प्रयोजन विना चीटी हू कार्य न करे, परमेश्वर काहेको करै। बहुरि नैं प्रयोजन भी कह्या, लोकरीतिकी प्रवृत्ति के अर्थि करै है। सो जैसे कोई पुरुष आप कुचेष्टाकरि अपने पुत्रनिको सिखावै बहुरि वे तिस चेष्टा रूप प्रवर्ते तब उनको मारै तो ऐसे पिता को भला कैसे कहिए तैसे ब्रह्मादिक आप कामक्रोधरूप चेष्टाकरि अपने निपजाए लोकनिकों प्रवृत्ति कराये। बहुरि ये लोक तैसे प्रवर्ते तब उनको नरकादिक विषे डारै। नरकादिक इनही भावनिका फल शास्त्रविषै लिख्या है सो ऐसे प्रभुको भला कैसे मानिए? बहुरि से यह प्रयोजन कह्या भक्तनिकी रक्षा, दुष्टनिका निग्रह करना। सो भक्तनिको दुखदायक जे दुष्ट भए ते परमेश्वर की इच्छाकरि भए कि बिना इच्छाकार भए। जो इच्छाकरि भए तो जैसे कोऊ अपने सेवक को आप ही काहू को कहकर मरावै बहुरि पीछे तिस मारने वाला को आप मारै सो ऐसे स्वामी को भला कैसे कहिए। तैसे ही जो अपने भक्तको आप ही इच्छाकरि दुष्टनिकरि पीड़ित करावै बहुरि पीछे तिन दुष्टनिकों आप अवतारधारि मारै तो ऐसे ईश्वर को भला कैसे मानिए? बहुरि जो तू कहेगा कि बिना इच्छा दुष्ट 'मए तो के तो परमेश्वरकै ऐसा आगामी ज्ञान न होगा जो ए दुष्ट मेरे भक्तनिको दुःख देवेंगे, कै पहिलै ऐसी शक्ति न होगी जो इनको ऐसे न होने है। बहुरि वाको पूछिए है जो ऐसे कार्य के अर्थि अवतार धात्या, सो कहा बिना अवतार थारे शक्ति थी कि नाहीं। जो थी तो अवतारकाहेको थारै अर न थी तो पीछे सामर्थ्य होने का कारण कहा भया। तब वह कहै है- ऐसे किए बिना परमेश्वर की महिमा प्रगट कैसे होच। याकों पूछिए है कि अपनी महिमा के अर्थि अपने अनुचरनिका पालन करे, प्रतिपक्षीनिका निग्रह करै सो ही राग द्वेष है। सो रागद्वेष तो लक्षण संसारी जीवका है। जो परमेश्वरकै भी रागद्वेष पाइए है तो अन्य जीवनिका रागद्वेष छोरि समता भाव करने का उपदेश काहेको दीजिए। बहुरि रागद्वेष के अनुसारि कार्य करना विचास्था सो कार्य थोरे वा बहुत काल लागे बिना होय नाही, तावत् काल आकुलता भी परमेश्वर के होती होसी। बहुरि जैसे जिस कार्य को छोटा आदमी ही कर सके तिस कार्य को राजा आप आय करे तो किष्ट राजा की महिमा होती नाही, निन्दा ही होय । तैसे जिस कार्य को राजा वा व्यंतरदेवादिक करि सके तिस कार्यको परमेश्वर आप अवतार धारि करे ऐसा मानिए तो किछू परमेश्वर की महिमा होती नाही, निन्दा ही है। बहुरि महिमा तो कोई और होय ताको दिखाइए है। तू तो अद्वैत ब्रह्म मान है, कौनको महिमा दिखावै है। अर महिमा दिखावने का फल तो स्तुति करावना है सो कौनपै स्तुति कराया चाहै है। बहुरि तू तो कहै है सर्व जीव परमेश्वर की इच्छा अनुसारि प्रवर्ते हैं अर आपके स्तुति करावने की इच्छा है तो सबकों अपनी स्तुतिरूप प्रवर्तावो, काईको अन्य कार्य करना परै। तातै महिमा के अर्थि भी कार्य करना न बने । बहुरि यह कई है-परमेश्वर इन कार्यनिकों करता संता भी अकर्ता है, वाका निर्धार होता नाहीं । १. परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्मनामि युगे युगे।।।। -गीता ४-८
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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