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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक- ८६ अर इनको 'ब्रह्म के अवतार " कहिए है सो ए तो माया के अवतार भए, इनको ब्रह्म के अवतार कैसे कहिए है? बहुरि ए गुण जिनके धोरे भी पाइए तिनको तो इनके छुड़ावने का उपदेश दीजिए अर जे इनही की मूर्ति तिनको पूज्य मानिए, यह कहा भ्रम है। बहुरि तिनका कर्तव्य भी इनमेंही भारी है। कौतूहलादिक वा स्त्रीसेवनादिक वा युद्धादिक कार्य करे है सो तिन राजसादि गुणनिकर ही एक क्रिया हो है सो इनके राजसादिक पाइये हैं ऐसा कहा । इनको पूज्य कहना, परमेश्वर कहना तो बने नाहीं । जैसे अन्य संसारी हैं। तैसे ए भी हैं। बहुरि कदाचित् तू कहेगा, संसारी तो माया के आधीन हैं सो बिना जाने तिन कार्यनिको करें हैं। ब्रह्मादिक कै माया आधीन है सो ए जानते ही इन कार्यनिको करै है । सो यहु भी भ्रम ही है। जातैं माया के आधीन भए तो काम-क्रोधादिक ही निपजै है, और कहा हो है । सो ए ब्रह्मादिकनिकै तो काम क्रोधादिककी तीव्रता पाइए है। काम की तीव्रताकरि स्त्रीनिके वशीभूत भए नृत्यगानादि करते भए, विल्ल होते भए, नाना प्रकार कुचेष्टा करते भए, बहुरि क्रोध के वशीभूत भए अनेक युद्धादि कार्य करते भए, मान के वशीभूत भए आपकी उच्चता प्रगट करने के अर्थि अनेक उपाय करते भए, माया के वशीभूत भए अनेक छल करते भए, लोभ के वशीभूत भए परिग्रह का संग्रह करते भए इत्यादि बहुत कहा कहिए। ऐसे वशीभूत भए चीरहरणादि निर्लज्जनिकी क्रिया और दधि-लुन्टनादि चौरनिकी क्रिया अर रुंडमाला धारणादि बाउलेनिकी क्रिया बहुरूपधारणादि भूतनिकीक्रिया, गउचारणादि नीच कुलवानों की क्रिया इत्यादिजे निंद्य क्रिया तिनकों तो करते भए, यातैं अधिक माया के वशीभूत भए कहा क्रिया हो है सो जानी न परी । जैसे कोऊ मेघपटलसहित अमावस्या की रात्रि को अंधकार रहित मानै तैसे बाह्य कुचेष्टा सहित तीव्र काम क्रोधादिकनिके धारी ब्रह्मादिकनिको मायारहित मानना है। 'लीला से सृष्टिरचना' का निराकरण I बहुरि वह कहै है कि इनको काम क्रोधादि व्याप्त नाहीं होता, यहु भी परमेश्वर की लीला है । याको कहिए है-ऐसे कार्य करे है ते इच्छाकरि करे है कि बिना इच्छा करे है। जो इच्छाकरि करे है तो स्त्रीसेवन की इच्छाही का नाम काम है, युद्ध करने की इच्छाही का नाम क्रोध है, इत्यादि ऐसे ही जानना । बहुरि ज़ो बिना इच्छा करे है तो आप जाको न चाहे ऐसा कार्य तो परवश भए ही होय, सो परवशपना कैसे सम्भवे ? बहुरि तू लीला बतावै है सो परमेश्वर अवतार धारि इन कार्यनिकरि लीला करे है तो अन्य जीवनिकों इन कार्यनित छुड़ाय मुक्त करने का उपदेश काहेको दीजिए है। क्षमा, सन्तोष, शील, संयमादिकका उपदेश सर्व झूठा भया । ब्रह्मा, विष्णु और शिव ये तीनों ब्रह्म की प्रधान शक्तियाँ हैं। - विष्णु पु. अ. २२-५८ कलिकाल प्रारम्भ में परब्रह्म परमात्माने रजोगुण से उत्पन्न होकर ब्रह्मा बनकर प्रजा की रचना की । प्रलय के समय तमोगुण से उत्पन्न हो काल (शिव) बनकर उस सृष्टि को ग्रस लिया। उस परमात्मा ने सत्वगुण से उत्पन्न हो नारायण बनकर समुद्र में शयन किया। वायु पु. अ. ७-६८, ६६ / २. नानारूपाय मुण्डाय वरूथपृथुदण्डिने । नमः कपालहस्ताय दिग्वासाय शिखण्डिने ।। मत्स्य पु. अ. २५०, श्लोक २ । 9.
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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