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________________ पंचवा अधिकार-८५ तो शरीर की वा घटादिक की या जीव की एक जाति भई। बहुरि वाकों पूछिए है- ब्रह्म की अर जीवनि की चेतना एक है कि भिन्न है। जो एक है तो ज्ञानका अधिकहीनपना कैसे देखिए है। बहुरि ए जीव पास्पर वह वाकी जानी को न जानै. वह बाकी जानी को न जानै सो कारण कहा? जो त कहेगा. यह घट उपाथि भेद है तो घट उपाधि होते तो चेतना भिन्न-भिन्न टहरी। घट उपाधि मिटे याकी चेतना ब्रह्म में निलेगी के नाश हो जायगी? जो नाश हो जायगी तो यहु जीव तो अचेतन रह जायेगा। अर तू कहेगा जीव ही ब्रह्म में मिल जाय है तो तहाँ ब्रह्मविषै मिले याका अस्तित्व रहे है कि नाहीं रहै है। जो अस्तित्व रहे है तो यहु रह्या, याकी चेतना याकै रही, ब्रह्मविषै कहा मिल्या? अर जो अस्तित्व न रहै है तो ताका नाश ही भया, ब्रह्मविषै कौन मिल्या? बहरि जो त कहेगा- बह्म की अर जीवनिकी चेतना भिन्न है तो ब्रह्म अर सर्वजीव आप ही भिन्न-भिन्न ठहरे। ऐसे जीवनि के चेतना है सो ब्रह्म की है, ऐसे भी बनै नाहीं। शरीरादिक को मायारूप मानने का निराकरण ___ शरीरादिक माया के कहो हो सो माया ही हाड़-मांसादिरूप हो है कि माया के निमित्ततें और कोई तिनरूप हो है। जो माया ही होय तो मायाकै वर्ण गंधादिक पूर्व ही थे कि नवीन भए। जो पूर्व ही थे तो पू] तो माया ब्रह्मकी थी, ब्रह्म अमूर्तीक है तहाँ वर्णादि कैसे सम्भवै ? बहुरि जो नवीन भए तो अमूर्तीक का मूर्तीक भया तब अमूर्तीक स्वभाव शाश्वता न टहत्या । बहुरि जो कहेगा, माया के निमित्त तैं और कोई हो है तो और पदार्थ तो तू ठहरावतां ही नाहीं, भया कौन? जो तू कहेगा नवीन पदार्थ निपजे । तो ते मायाः भिन्न निपजे कि अभिन्न निपजे। माया” भिन्न निपजे तो मायामयी शरीरादिक काहेको कहै, वे तो तिनपदार्थमय भए। अर अभिन्न निपजे तो नाया ही तद्रूप भई, नवीन पदार्थ निपजे काहेको कहै; ऐसे शरीरादिक मायास्वरूप हैं, ऐसा कहना भ्रम है। बहुरि वे कई हैं, माया ते तीन गुण निफ्जै-राजस १ तामस २ सात्विक ३। सो यह भी कहना कैसे बनै? जातें मानादि कषायरूप भावको राजत कहिए है, क्रोधादिकषायरूप भावको तामस कहिए है, मंदकषायरूप भावको सात्विक कड़िए है। सो ए तो भाव चेतनमई प्रत्यक्ष देखिए है अर माया का स्वरूप जड़ कहो हो सो जड़ते ए भाव कैसे निपजे। जो जड़के भी होई तो पाषाणादिककै भी होता सो तो चेतनास्वरूप जीव तिनहीके ए भाव दीसे हैं। तातें ए भाव मायाः निपजे नाहीं । जो माया को चेतन ठहरावै तो यहु माने। सो मायाको चेतन ठहराए शरीरादिक मायात निपजे कहेगा तो न मानेंगे त” निर्धारकर, भ्रमरूप माने नफा कहा है? तीन गुणों से तीन देयों की उत्पत्ति का निराकरण बहुरि वे कहै हैं तिन मुणनि तें ब्रह्मा विष्णु महेश ए तीन देव प्रगट भए सो कैसे सम्भवे? जाते गुणीत तो गुण होइ, गुणत गुणी कैसे निपजै। पुरुषते तो क्रोध होय, क्रोधः पुरुष कैसे निपजै । बहुरि इन गुणनिकी तो निन्दा करिए है। इनकरि निपजै ब्रह्मादिक तिनको पूज्य कैसे मानिए है। बहुरि गुण तो मायामई
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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