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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२४ योग और उससे होने वाले प्रकृतिबन्ध प्रदेशबन्ध बहुरि इतना जानना जो नामकर्म के उदयतें शरीर वा वचन वा मन निपजै है तिनिकी चेष्टा के निमित्ततें आत्मा के प्रदेशनिका चंचलपना हो है ताकरि आत्मा के पुद्गलवर्गणासों एक बन्धान होने की शक्ति हो है, ताका नाम योग है। ताकै निमित्ततें समय-समयप्रति कर्मरूप होने योग्य अनंत परमाणुनिका ग्रहण हो है। तहाँ अल्पयोग होय तो थोरे परमाणुनिका ग्रहण होय, बहुत योग होय तो घने परमाणुनिका ग्रहण होय । बहुरि एक समय विषै जे पुद्गलपरमाणु-ग्रहे तिनि विषै ज्ञानावरणादि मूलप्रकृति वा तिनकी उत्तर प्रकृतिनिका जैसे सिद्धान्तविषे कहा है तैसे बटवारा हो है। तिस बटवारा माफिक परमाणु तिन प्रकृतिनिरूप आपही परिणमै हैं। विशेष इतना कि योग दोय प्रकार है-शुभयोग, अशुभयोग। तहाँ धर्मके अंगनिविषै मनवचनकायकी प्रवृत्ति भए तो शुभयोग हो है अर अधके अंगनिविर्षे तिनकी प्रवृत्ति भए अशुभयोग हो है |सो शुभ योग होहु वा अशुभयोग होहु सम्यक्त्व पाए बिना घातियाकर्मनिका तो सर्वप्रकृतिनिका निरन्तर बंध हुआ ही करै है। कोई समय किसी भी प्रकृतिका बन्ध हुआ बिना रहता नाहीं। इतना विशेष है जो मोहनीयका हास्य शोक युगलविष, रति अरति युगलविषै, तीनों वेदनिविषे एकै काल एक-एक ही प्रकृतिनिका बन्ध हो है। बहुरि अघातियानिकी प्रकृतिनिविष शुभयोग होते साता वेदनीय आदि पुण्यप्रकृतिनिका बन्ध हो है। अशुभ योग होते असासावेदनीय आदि पापप्रकृतिनिका बन्ध हो है। मिश्रयोग होते केई पुण्यप्रकृतिनिका केई पापप्रकृतिनिका बन्ध हो है। ऐसा योग के निमित्त ते कर्मका आगमन हो है। तातै योग है सो आस्त्रय है। बहुरि याकरि ग्रहे कर्मपरमाणुनिका नाम प्रदेश है तिनिका बंध भया अर तिन विषै मूल उत्तरप्रकृतिनिका विभाग मया तातै योगनिकरि प्रदेशबन्ध वा प्रकृतिबन्ध का होना जानना। कषाय से स्थिति और अनुभाग बहुरि मोह के उदयतै मिथ्यात्व क्रोधादिक भाव हो है, तिन सबनिका नाम सामान्यपने कषाय है। ताकरि तिनकर्मप्रकृतिनिकी स्थिति बन्थै है सो जितनी स्थिति बन्धै तिसविष आबाथाकाल छोड़ि तहाँ पोष्ट यावत् बैंधी स्थिति पूर्ण होय तावत् समय-समय तिस प्रकृति का उदय आया ही करें। सो देव मनुष्य तिथंचायु बिना अन्य सर्व धातिया अघातिया प्रकृतिनिका अल्पकषाय होतें धोरा स्थिति बन्ध होय, बहुत कषाय होते घना स्थितिबन्थ होय। तिन तीन आयुनि का अल्पकषायतें बहुत अर बहुत कषायतें अल्प स्थितिबन्ध जानना। बहुरि तिस कषायहीकरि तिन कर्मप्रकृतिनिविर्षे अनुभाग-शक्ति का विशेष हो है सो जैसा अनुभाग बंथे तैसा ही उदयकालविष तिन प्रकृतिनिका घना वा थोरा फल निपजे है। तहाँ घातिकर्मनिकी सर्व प्रकृतिनिविषे या अधातिकनिकी पाप प्रकृतिनिविषै तो अल्पकषाय होते योरा अनुभाग बंधै है, बहुत कषाय होतें घना अनुभाग बन्यै है। बहुरि पुण्यप्रकृतिनिविषै अल्पकषाय होतें घना अनुभाग बंधै है, बहुत कषाय होते थोरा अनुभाग बन्धे है। ऐसे कषायनिकरि कर्मप्रकृतिनिके स्थिति अनुभाग का विशेष भया ताते कषायनिकरि स्थितिबन्ध अनुभागबंध का होना जानना। इहाँ जैसे बहुत भी मदिरा है अर ताविषै थोरे
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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