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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-१० हुए थे परन्तु अननुबद्ध अक्रमपूर्वक कैवल्य उपार्जन करने वाले तो अन्य भी हुए हैं जिनमें अन्तिम केवली श्रीधर थे जो कुण्डलगिरि से मुक्त हुए। ___ - ति.प.४/१४७४-७५; महायवल पु.१ प्रस्तावना पृ. ८ + महावीर स्वामी के बाद होने वाले इन मात्र तीन अनुबद्ध केवलियों के पश्चात् अन्य कोई अनुवद्ध केवली तो नहीं हुआ (जयपवल १/५६-७७/६६४। तथा ति.प. ४/१४७८) परन्तु पूज्य १००८ जम्बूस्वामी के पश्चात् भी अन्य केवली हुए हैं। वे अननुबद्ध-असतत केवली हैं तथा उनमें अन्तिम केवली श्रीधर थे। - पं. रतनचन्द्र मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व पृ. ९२ पाठी श्रुतकेवली रहे, पीछे तिनका भी अभाव भया । बहुरि केतेक कालताई थोरे अंगनिके पाठी रहे (तिनने यह जानकर जो भविष्य कालमें हम सारिखे भी ज्ञानी न रहेंगे, तात ग्रन्थ-रचना आरम्भ करी और द्वादशांगानुकूल प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोगके ग्रन्थ रचे ।) पीछे तिनका भी अभाव भया । तब आचार्यादिकनिकरि तिनिके अनुसार बनाए ग्रन्थ वा अनुसारी ग्रन्थनिके अनुसारि बनाए ग्रन्थ तिनहींकी प्रवृत्ति रही। तिनविष भी कालदोषः दुष्टनिकरि कितेक ग्रन्थनिकी व्युच्छित्ति भई या महान् ग्रन्थनिका अभ्यासादि न होनेते व्युच्छित्ति भई। बहुरि केतेक महान् ग्रन्थ पाइए हैं तिनिका बुद्धिकी मंदतात अभ्यास होता नाहीं। जैसे दक्षिणमें गोमटूटस्वामीके निकट मूलबद्री नगरविष धवल महाधवल जयधवल पाइए है परन्तु दर्शनमात्र ही है। बहुरि कितेक ग्रन्थ अपनी बुद्धिकरि अभ्यास करने योग्य पाइए हैं। तिन विषे भी कितेक ग्रन्थनिका ही अभ्यास बने है। ऐसे इस निकृष्ट काल विषै उत्कृष्ट जैनमतका घटना तो भया परन्तु इस परम्पराकार अब भी जैन शास्त्रनि विष सत्य अर्थके प्रकाशनहारे पदनिका सद्भाव प्रक्र्त है। ग्रन्थकार का आगमाभ्यास और ग्रन्थ-रचना का निश्चय बहुरि हम इस काल विषै इहां अब मनुष्यपर्याय पाया सो इस विष हमारे पूर्व संस्कारत वा मला होनहारतें जैनशास्त्रनिविषे अभ्यास करने का उद्यम होत भया। तातै व्याकरण, न्याय, गणित आदि उपयोगी १. ये पंक्तियाँ खरड़ा प्रति में नहीं हैं, अन्य सब प्रतियों में है। इसीसे आवश्यक जान यहाँ दी गई हैं। २. परमपूज्य बा.व. शान्तिसागरजी महाराज (दक्षिण) को जब यह ज्ञान हुआ कि मूडबिद्री में जैनसिखान्त के प्राणभूत प्राचीन ग्रन्थ धवल, जयधवल, महायवल, ताडपत्र ग्रन्थ बहुत जीर्ण हो गये हैं, उनमें से महापवल का करीब चार पाँच हजार श्लोक प्रमाण भाग कीड़ों द्वारा नष्ट हो चुक्न है तो वे अत्यन्त चिन्तित हुए। आचार्यश्री के प्रभावक उपदेश से प्रेरित होकर जैनसमाज ने इन्हें ताम्रपत्र पर खुदवाने का कार्य प्रारम्भ किया। मूल ताड़पत्रों के फोटो लेने का भी निर्णय लिया उस समय (विक्रम संवत् २००६ से पूर्व) श्री धक्त ग्रन्थ को ताम्रपत्र पर खुदवाने में २१०००/- रुपया खर्च हुआ। फलटण में श्री चन्द्रप्रभ मन्दिर के सभामण्डप के ऊपर एक श्रुतभण्डार हॉल में धवल ताम्रपट तथा मुद्रित ग्रन्थ सुरक्षित रखे गये हैं। आज तो घयलादि तीनों ग्रन्थ सहस्राधिक प्रतियों में छपकर हम सबको सुलभ है। पण्डित टोडरमलजी को . इनके दर्शन नहीं हो पाये थे।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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