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________________ पहला अधिकार-६ अक्षरनिकरि निपजे सत्यार्थ के प्रकाशक पद तिनके समूह का नाम श्रुत है सो भी अनादिनिधन है । जैसे 'जीव' ऐसा अनादिनिधन पद है सो जीव का जनावनहारा है। ऐसे अपने-अपने सत्य अर्थ के प्रकाशक अनेक पद तिमका जो समुदाय सो श्रुत जानना । बहुरि जैसे मोती तो स्वयंसिद्ध है तिन विषे कोऊ थोरे मोतीनिकों, कोऊ घने मोतीनिकों, कोऊ किसी प्रकार, कोऊ किसी प्रकार गंधि गहना बनावे है तैसे पद तो स्वयंसिद्ध है तिन विषै कोऊ थोरे पदनिकों, कोऊ घने पदनिकों, कोऊ किसी प्रकार, कोऊ किसी प्रकार गूंथि ग्रंथ बनावै है । इहां मैं भी तिन सत्यार्थ पदनिकों मेरी बुद्धि अनुसारि गूंथि ग्रंथ बनाऊँ हूँ। मेरी मति करि कल्पित झूठे अर्थ के सूचक पद या विषे नाहीं गूंथू हूं । तातैं यह ग्रंथ प्रमाण जानना । इहाँ प्रश्न जो तिन पदनिकी परम्परा इस ग्रंथ पर्यंत कैसे प्रवर्ते है ? ताका समाधान - अनादितें तीर्थंकर केवली होते आये हैं, तिनिके सर्व का ज्ञान हो है तातें तिन पदनिका वा तिनके अर्थनिका भी ज्ञान ह्मे है। बहुरि तिन तीर्थकर केवलीनिया जाकरि अन्य जीवनिकै पदनि के अर्थनिका ज्ञान होय ऐसा दिव्यध्वनि करि उपदेश हो है । ताके अनुसारि गणधरदेव अंग प्रकीर्णकरूप ग्रंथ गूंथे हैं । बहुरि तिनके अनुसारि अन्य - अन्य आचार्यादिक नाना प्रकार ग्रंथादिक की रचना करे हैं। तिनिकों कई अभ्यासे हैं, केई कहे हैं, केई सुने हैं, ऐसे परम्पराय मार्ग चल्या आवे है । महावीर से द्वादशांग का उद्भव तथा अंगश्रुत की परम्परा सो अब इस भरतक्षेत्र विषै वर्तमान अवसर्पिणी काल है, तिस विषे चौबीस तीर्थंकर भए, तिनि विषै श्रीवर्द्धमान नामा अन्तिम तीर्थंकर देव भये । सो केवलज्ञान विराजमान होइ जीवनिकों दिव्यध्वनि करि उपदेश देते भये । ताके सुनने का निमित्त पाय गौतम नामा गणधर अगम्य अर्थनिकों भी जानि धर्मानुराग के बशर्तें अंगप्रकीर्णकनि की रचना करते भये । बहुरि वर्द्धमान स्वामी तो मुक्त भए, तहाँपीछे इस पंचम कालविषै तीन केवली भए गौतम १, सुर्ध्वाचार्य २, जम्बू, स्वामी ३, तहां पीछे कालदोषतें केवलज्ञानी होने का तो अभाव बहुरि केतेक काल लाई द्वादशांग के विशेष - सामान्यतया सर्वत्र यही कहा है कि महावीर स्वामी की मुक्ति के बाद तीन केवली हुए । परन्तु विशेष ज्ञातव्य यह है कि महावीर की मुक्ति के बाद तीन से अधिक केवली हुए हैं। तीन तो अनुबद्ध-पट्टधर-सतत-परम्परा - अत्रुटित संतान स्वरूप केवली हुए । महावीर के मुक्त होने के समय गौतम को केवलज्ञान हुआ । गौतम के मुक्त होने के दिन ही लोहाचार्य ( सुधर्माचार्य) को केवलज्ञान हुआ । लोहाचार्य के मुक्त होने के दिन ही जम्बूस्वामी को केवलज्ञान हुआ । परन्तु जम्बूस्वामी के मुक्त होने के दिन किसी अन्य को केवलज्ञान नहीं हुआ। इस कारण केवलज्ञान का जो अविनष्टधाराप्रवाह क्रम था, वह नष्ट हो गया । यानी परम्परा - सतत - अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के बाद नहीं हुए । परन्तु जम्बूस्वामी के बाद भी ६२ वर्ष के काल में अननुबद्ध केवली हुए । - परवार जैन समाज का इतिहास, प्रस्तावना पृ. २३, प्रस्तावनाकार पं. जगन्मोहन लाल जी शास्त्री, लेखक पं. श्री फूलचन्द शास्त्री ** गौतम, सुधर्म तथा जम्बूस्वामी ये तीन तो अनुबद्ध-क्रमबद्ध परिपाटीक्रम युक्त केवली
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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