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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-८ जो जीवनिकै संक्लेश विशुद्ध परिणाम अनेक जातिके हैं तिनकरि अनेक कालनिविर्षे पूर्व बंधे कर्म एक कालविषै उदय आवे हैं। तातै जैसे जाकै पूर्वं बहुत धनका संचय होय ताकै बिना कुमाए भी धन देखिए है अर देणा न देखिये है। अर जाकै पूर्वं ऋण बहुत होय ताकै धन कुमावत भी देणा देखिये है अर धन न देखिए है। परन्तु विचार किए ते कुमावना धन ही का कारण है, ऋणका कारण नाहीं। तैसें जाकै पूर्षे बहुत पुण्य बंध्या होइ ताकै इहाँ ऐसा मंगल बिना किए भी सुख देखिए है, पापका उदय न देखिए है। बहुरि जाकै पूर्वे बहुत पाप बंध्या होय ताकै इहां ऐसा मंगल किये भी सुख न देखिए है, पापका उदय देखिए है। परन्तु विचार किएतें ऐसा मंगल तो सुख ही का कारण है, पाप उदयका कारण नाहीं। ऐसे पूर्वोक्त मंगलका मगलपना बने है। बहुरि वह कह है कि यह भी मानी परन्तु जिनशासन के भक्त देवादिक हैं तिनि तिस मंगल करने वाले की सहायता न करी अर मंगल न करने वाले को दंड न दिया सो कौन कारण? ताका समाधान जो जीवनिकै सुख दुख होने का प्रबल कारण अपना कर्म का उदय है ताहीके अनुसारि बाध निमित्त बने हैं, तातें जाकै पापका उदय होइ ताकै सहायता का निमित्त न बने है अर जाकै पुण्यका उदय होइ ताकै दंडका निमित्त न बने है। यह निमित्त कैसे न बने है सो कहिये है जे देवादिक हैं ते क्षयोपशम ज्ञानः सर्वकों युगपत् जानि सकते नाही, तातें मंगल करने याले वा न करने वाले का जानपना किसी देवादिककै काहू कालविषै हो है। तातै जो तिनिका जानपना न होइ तो कैसै सहाय करै वा दंड दे। अर जानपना होय तब आपकै जो अति मंदकषाय होइ तौ सहाय करने के वा दंड देने के परिणाम ही न होइ। अर तीव्रकषाय होइ तौ धर्मानुराग होइ सके नाहीं । बहुरि मध्यम कषायरूप तिस कार्य करने के परिणाम भये अर अपनी शक्ति नाही तो कहा करै। ऐसे सहाय करने वा दंड देने का निमित्त नाही बने है। जो अपनी शक्ति होय अर आपके धर्मानुरागरूप मध्यमकषाय का उदयते तैसे ही परिणाम होइ अर तिस समय अन्य जीवका धर्म अधर्मरूप कर्तव्य जाने, तब कोई देवादिक किसी धर्मात्मा की सहाय करै है. वा किसी अधर्मीको दंड दे है। ऐसे कार्य होने का किछू निगम तौ है नाहीं, ऐसे समाधान किया। इहां इतना जानना कि सुख होने की, दुःख न होने की, सहाय करावने की, दुख द्यायने की जो इच्छा है सो कषायमय है, तत्काल विर्षे वा आगामी काल विर्षे दुखदायक है। तातें ऐसी इच्छा कू छोरि हम ती एक वीतराग विशेष ज्ञान होने के अर्थी होइ अरहतादिकको नमस्कारादिक रूप मंगल किया है। ऐसे मंगलाचरण करि अब सार्थक मोक्षमार्ग-प्रकाशकनाम ग्रन्थका उद्योत करे हैं। तहां यहु ग्रन्थ प्रमाण है ऐसी प्रतीति आवने के अर्थि पूर्व अनुसारका स्वरूप निरूपिए है ग्रन्थ की प्रामाणिकता और आगम-परम्परा अकारादि अक्षर हैं ते अनादिनिधन हैं, काहूके किए नाहीं, इनका आकार लिखना तो अपनी इच्छा के अनुसार अनेक प्रकार है परन्तु बोलने में आवै हैं ते अक्षर तो सर्वत्र सर्वदा ऐसे ही प्रवर्ते हैं, सोई कह्या है- "सिद्धो वर्णसमाम्नायः'। याका अर्थ- यहु जो अक्षरनिका सम्प्रदाय है सो स्वयंसिद्ध है। बहुरि तिन
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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