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________________ पहला अधिकार-७ पुण्यप्रकृतिनिका बंध हो है। बीको मह परिणाम तीर होर ने पर्ने आगताडाटि पापप्रकृति बंधी थी तिनको भी मंद करै है अथवा नष्टकरि पुण्य प्रकृतिरूप परिणमावे है। बहुरि तिस पुण्यका उदय होते स्वयमेव इन्द्रियसुखको कारणभूत सामग्री मिले है अर पापका उदय दूर होते स्वयमेव दुःख को कारणभूत सामग्री दूर हो है। ऐसे इस प्रयोजनकी भी सिद्धि तिनकरि हो है। अथवा जिनशासन के भक्त देवादिक है ते तिस भक्त पुरुषकै अनेक इन्द्रियसुखको कारणभूत सामग्रीनिका संयोग करावै है, दुःखको कारणभूत सामग्रीनिकों दूरि करे हैं। ऐसे भी इस प्रयोजन की सिद्धि तिन अरहतादिकनि करि हो है। परन्तु इस प्रयोजन किछु अपना भी हित होता नाहीं तात यह आत्मा कषायभावनितें बाह्य सामग्रीविषै इष्ट-अनिष्टपनो मानि आप ही सुख-दुःखकी कल्पना करै है। बिना कषाय बाझ सामग्री किछु सुख-दुःखकी दाता नाहीं। बहुरि कषाय है सो सब आकुलतामय है तातै इन्द्रियजनितसुख की इच्छा करनी, दुःखते डरना सो यह अम है। बहुरि इस प्रयोजन के अर्थि अरहतादिककी भक्ति किए भी तीव्रकषाय होनेकरि पापबन्ध ही हो है ताते आपको इस प्रयोजनका अर्थी होमा योग्य नाहीं। अरहंतादिककी भक्ति करतें ऐसे प्रयोजन तौ स्वयमेव हो सधै है। अरहन्तादि ही परम मंगल हैं ऐसे अरहतादिक परम इष्ट मानने योग्य हैं। बहुरि ए अरहताविक ही परममंगन हैं। इन विष भक्तिभाव भये परममंगल हो है। जाते 'मंग' कहिये सुख ताहि 'लाति' कहिये देवै अथवा 'म' कहिये पाप ताहि 'गालपति' कहिये गालै ताका नाम मंगल है सो तिनकरि पूर्वोक्त प्रकार दोऊ कार्यनिकी सिन्द्रि हो है। तातै तिनके परममंगलपना सम्भव है। मंगलाचरण करने का कारण इहां कोऊ पूछे कि प्रथम ग्रन्थकी आदि दि मंगल ही किया सो कौन कारण ? ताका उत्तर जो सुखस्यी ग्रन्थ को समाप्तता होइ, पापकरि कोऊ विघ्न न होय, या वासः इहां प्रथम मंगल किया है। हो तर्क - जो अन्यमता ऐसै मंगल नाहीं करै हैं तिनके भी ग्रन्धकी समाप्तता अर विघ्न का न होना देखिये है, तहाँ कहा हेतु है ? ताका समाधान जो अन्यमती ग्रन्ध करै है तिसविर्षे मोहके तीव्र उदयकरि मिथ्यात्व कषाय भावनिको पोषते विपरीत अर्थनिकों धौ है तात ताकी निर्विघ्न समाप्तता तो ऐसे मंगल बिना किये ही होइ । जो ऐसे मंगलनिकरि मोह मंद हो जाय तो वैसा विपरीत कार्य कैसे बने? बहुरि हमहु ग्रन्थ करै हैं तिस विषै मोहकी मंदता करि वीतराग तत्त्वज्ञानको पोषते अर्थनिको धरेंगे ताकि निर्विघ्न समाप्तता ऐसे मंगल किये ही होय । जो ऐसे मंगल न करें तो मोहका तीव्रपना रहै, तब ऐसा उत्तम कार्य कैसे बने? बहुरि वह कहै है जो ऐसे तो मानेंगे परन्तु कोऊ ऐसा मंगल न करे ताकै भी सुख देखिए है, पापका उदय न देखिये है अर कोऊ ऐसा मंगल करे है साकै भी सुख न देखिये है, पापका उदय देखिये है, तातें पूर्वोक्त मंगलपना कैसे बने? ताकी कहिये है
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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