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________________ सालका अधिकार -२२१ संस्कार वर्तमान इनका निमित्त न होय तो मी सम्यक्त होय सके है। सिद्धान्तविषै ऐसा सूत्र है"तनिसर्गादधिगमाता (तत्त्वा. सू. १,३) याका अर्थ- यहु सो सम्यग्दर्शन निसर्ग वा अधिगमते हो है। तहाँ देवादिक बाह्य निमिन बिना होय, सो निसर्गत भया कहिए। देवादिकका निमित्तते होय सा अधिगमतें भया कहिए। देखो तत्त्वविचारकी महिमा, तत्त्वविचाररहित देवादिककी प्रतीति करै, बहुत शास्त्र अभ्यास, व्रतादिक पालै, तपश्चरणादि करै, ताकै तो सम्यक्त होनेका अधिकार नाहीं। अर तत्त्वविचारवाला इन बिना भी सम्यक्त का अधिकारी हो है। बहुरि कोई जीवकै तत्त्वविचारके होने पहले किसी कारण पाय देवादिककी प्रतीति होय वा व्रत तपका अंगीकार होय, पीछै तत्त्वविचार करै। परन्तु सम्यक्तका अधिकारी तत्त्वविचार भए ही हो है। बहुरि काहूकै तत्त्वविचार भए पीछे तत्त्वप्रतीति न होनेः सम्यक्त तो न भया अर व्यवहार धर्मकी प्रतीति रुचि होय गई, तातैं देवादिक की प्रीति करै है वा व्रत तपको अंगीकार करै है। काहूकै देवादिककी प्रतीति अर सम्यक्त युगपत् होय अर व्रत तप सम्यक्तकी साथ भी होय अर पहलै पीछे भी होय, देवादिककी प्रतीतिका तो नियम है। इस बिना सम्यक्त न होय। व्रतादिकका नियम है नाहीं। घने जीव तो पहलै सम्यक्त होय पीछे ही व्रतादिकको धारै हैं । काहूकै युगपत् भी होय जाय है। ऐसे यह तत्त्वविचारवाला जीव सम्यक्तका अधिकारी है परन्तु याकै सभ्यक्त होय ही होय, ऐसा नियम नाहीं। जाते शास्त्रविषै सम्यक्त होनेतें पहलै पंच लब्धिका होना कह्या है __ पंच लब्धियों का स्वरूप क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य, करण। तहाँ जिसको होते संते तस्वविचार होय सकै, ऐसा ज्ञानावरणादि कर्मनिका क्षयोपशम होय। उदयकालको प्राप्त सर्वघाती स्पर्द्धकनिके निषेकनिका उदयका अभाव सो क्षय अर अनागतकालविष उदय आवने योग्य तिनही का सत्तारूप रहना सो उपशम, ऐसी देशघाती स्पर्द्धकनिका उदय सहित कनिकी अवस्था ताका नाम क्षयोपशम है। ताकी प्राप्ति सो क्षयोपशमलब्धि है। विशेष- क्षयोपशम लब्धि में ज्ञानावरणादि कर्म के क्षयोपशम की ही बात नहीं, अपितु अशुभ अघाति कमों की भी अनुभाग शक्ति की प्रतिसमय अनन्तगुणहानि (वेदन में) आवश्यक होती है और अघाति कर्म क्षयोपशम से असम्बद्ध हैं। क्षयोपशम की बात तो मात्र घातिया कर्मों में ही होती है। कहा भी है- “क्षयोपश लब्धि में यथासम्भव घाती और अघाती सभी अप्रशस्त को सम्बन्धी अनुभाग शक्ति प्रतिसमय अनन्तगुणहानि (उदय में) होना विवक्षित है।" ( ल.सा.पृ. ४ पं. फूलचन्द जी सि.शा., विशेषार्थ) दूसरी बात यहाँ देशघाती सर्वघाती के उदयानुदय से सम्बद्ध क्षयोपशम को क्षयोपशम लाय कहा सो ठीक नहीं है। यह तो पंच भावों में से क्षायोपशमिक भाव है। जहाँ कहीं क्षायोपशमिक भाव को क्षयोपशम लब्धि भी कदाचित् कह दिया है यदि, तो वह क्षायोपशमिक भाव अर्थ में ही
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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