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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-१८४ रागादिकका नाम न जाने है अर ताका स्वरूप को पहिचान है तैसे तुच्छ बुद्धि जीवादिकका नाम न जनै है अर तिनका स्वरूप को पहिचान है। यह मैं हूँ, ए पर हैं; ए माव बुरे हैं, ए भले है, ऐसे स्वरूप पहिचानै ताका नाम भावमासना है। शिवभूति' मुनि जीवादिकका नाम न जानै था, अर “तुषमाषभिन्न" ऐसा घोषने लगा, सो यहु सिद्धान्त का शब्द था नाहीं परन्तु आपा परका भावरूप ध्यान किया, तातें केवली भया। अर ग्यारह अंगके पाटी जीवादि सम्पनिका विशेषभेद जानै परन्तु भाव भासे नाही, तातें मिथ्यादृष्टी ही रहे हैं। अब याकै तत्त्वश्रद्धान किस प्रकार हो है सो कहिए है जीव-अजीव तत्त्व के श्रद्धान का अन्यथा रूप जिन शास्त्रनित जीव के त्रस स्थावरादिरूप वा गुणस्थान मार्गणादिरूप भेदनिको जानै है, अजीवके पुद्गलादि भेदनिको वा तिनके वर्णादि विशेषनिको जानै है परन्तु अध्यात्मशास्त्रनिविष भेदविज्ञानको कारणभूत वा वीतरागदशा होने को कारणभूत जैसे निरूपण किया है तैसे न जाने है। बहुरि किसी प्रसंगरौं तैसे भी जानना होय तो शास्त्र अनुसारि जानि तो ले है परन्तु आपको आप जानि परका अंश भी आप विषै न मिलावना अर आपका अंश भी पर विष न मिलावना, ऐसा सांचा श्रद्धान नाहीं करै है। जैसे अन्य मिथ्यादृष्टी निर्धार बिना पर्यायबुद्धिकरि जानपना विष वा वर्णादिविषे अहंबुद्धि थारै है, तैसे यह भी आत्माश्रित ज्ञानादिविषै वा शरीराश्रित उपदेश उपवासादि क्रियानिविषै आपो मान है, बहुरि शास्त्र के अनुसार कबहूँ सांची बात भी बनावै परन्तु अंतरंग निर्धाररूप श्रद्धान नाहीं। तातै जैसे मतवाला माताको माता भी कहै तो स्याना नाहीं तैसे याको सम्यक्ती न कहिए। बहुरि जैसे कोई और ही की बातें करता होय तैसे आत्माका कथन कहै परन्तु यहु आत्मा मैं हूँ, ऐसा भाव नाहीं भासै । बहुरि जैसे कोई औरकू औरतें भिन्न बतावता होय तैसे आत्म-शरीर की भित्रता प्ररूपै परन्तु मैं इस शरीरादिकते भिन्न हूँ, ऐसा भाव भास नाहीं। बहुरि पर्यायविषै जीव पुद्गलके परस्पर निमित्तते अनेक क्रिया हो हैं, तिनको दोय द्रव्यका मिलापकार निपजी जाने। यहु जीवकी क्रिया है ताका पुद्गल निमित्त है, यहु पुद्गलकी क्रिया है ताका जीव निमित्त है, ऐसा भिन्न-भिन्न भाव भासे नाहीं। इत्यादि भाव भासे बिना जीव अजीवका सांचा श्रद्धानी न कहिए। तात जीवे अजीय जाननेका तो यह ही प्रयोजन था सो भया नाहीं। आस्रव तत्त्वके श्रद्धानका अन्यथा रूप बहुरि आस्रव तत्त्वविषे जे हिंसादिरूप पापासव हैं, तिनको हेय जाने है। अहिंसादिरूप पुण्य आस्रव हैं, तिनको उपादेय माने है। सो ए तो दोऊ ही कर्मबंध के कारण, इन विष उपादेयपनो माननो सोई मिथ्यादृष्टि है। सोही समयसार का बंधाधिकारविषै कया है२. सर्व जीवनिकै जीवन मरण सुख दुःख अपने कर्मके निमित्तते हो हैं। जहाँ अन्य जीव अन्य जीवके १. तुसमास घोसंतो भावविसुद्धो महाणुमावो य । __णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुडो जाओ ।। - भावपा. ५३।। २. समयसार गा. २५४ से २५६ ।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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