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________________ सातवाँ अधिकार-१९३ शा हैं। बहुरि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी एकतारूप मोक्षमार्ग सोई मुनिनका सांचा लक्षण है, ताको पहिचान नाहीं। जातें यहु पहिचानि भए मिध्यादृष्टी रहता नाहीं। ऐसे मुनिनका सांचा स्वरूप ही न जाने तो सांची भक्ति कैसे होय? पुण्यबंधको कारणभूत शुभक्रियारूप गुणनिको पहचानि तिनकी सेवा” अपना भला होना जानि तिनविर्ष अनुरागी होय भक्ति करै है। ऐसे गुरुभक्तिका स्वरूप कह्या। अब शास्त्रभक्तिका स्वरूप कहिए है शास्त्र-भक्ति का अन्यथा रूप केई जीव तो यह केवली भगवान की वाणी है, तातै केवलीके पूज्यपनाते यह भी पूज्य है, ऐसा जानि भक्ति करै हैं। बहुरि केई ऐसे परीक्षा कर हैं-इन शास्त्रनिविष विरागता दया क्षमा शील संतोषादिकका निरूपण है तातै ए उत्कृष्ट है, ऐसा जानि भक्ति करै है। सो ऐसा कथन तो अन्य शास्त्र वेदांतादिक तिनविष भी पाईए है। बहुरि इन शास्त्रनिवि त्रिलोकादिक का गम्भीर निरूपण है, तातै उत्कृष्टता जानि भक्ति करें हैं। सो इहाँ अनुमानादिक का तो प्रवेश नाहीं । सत्य-असत्यका निर्णयकरि महिमा कैसे जानिए। तातै ऐसे सांची परीक्षा होय नाहीं। इहाँ अनेकान्तरूप साँचा जीवादितत्त्वनिका निरूपण है अर साँचा रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग दिखाया है। ताफरि जैनशास्त्रनिकी उत्कृष्टता है, ताको नाही पहिचान हैं। जाते यहु पहचानि भए मिध्यादृष्टि रहै नाहीं। ऐसे शास्त्रभक्तिका स्वरूप कह्या। या प्रकार याकै देव गुरु शास्त्रकी प्रतीति भई, तातै व्यवहार सम्यक्त्व भया माने है। परन्तु उनका साँचा स्वरूप भास्या नाहीं । तातै प्रतीति भी साँची भई नाहीं। साँची प्रतीति बिना सम्यक्त्वकी प्राप्ति नाहीं। तातें मिध्यादृष्टि ही है। तत्त्वार्थ श्रद्धान का अयथार्थपना बहुरि शास्त्रविषै 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' (तत्त्वा.सू. १-२) ऐसा वचन कह्या है। ता” जैसे शास्त्रनिविष जीवादि तत्त्व लिखे हैं, तैसे आप सीखि लेहै। तहाँ उपयोग लगावै है। औरनिको उपदेश है परन्तु तिन तत्त्वनिका भाव मासता नाहीं। अर इहाँ तिस वस्तु के भावही का नाम तत्त्व कहा । सो भाव भासे बिना तत्त्वार्थ प्रधान कैसे होय? भावभासना कहा सो कहिए है ___ जैसे कोऊ पुरुष चतुर होनेके अर्थि शास्त्रकरि स्वर ग्राम मूर्छना रागनिका रूप ताल तानके भेद तिनको सीखै है परन्तु स्वरादिकका स्वरूप नाही पहिचान है। स्वरूप पहिचान भए बिना अन्य स्वरादिकको अन्य स्वरादिकरूप मान है वा सत्य भी माने है तो निर्णय करि नाहीं मान है, तात याकै चतुरपनो होय नाहीं। तैसे कोऊ जीव सम्यक्ती होने के अर्थ शास्त्रकरि जीवादिक तत्त्वनिका स्वरूपको सीखै है परन्तु तिनके स्वरूपको नाहीं पहिचाने है। स्वरूप पहिचाने बिना अन्य तत्त्वनिको अन्य तत्त्वरूप मानि ले है या सत्य भी मान है तो निर्णयकरि नाही मान है। तात वाकै सम्यक्त्व होय नाही। बहुरि जैसे कोई शास्त्रादि पढ़या है, वा न पढ़धा है, जो स्वरादिकका स्वरूपको पहिचान है तो वह चतुर ही है। तैसे शास्त्र पढ्या है वा न पढ़या है, जो जीवादिकका स्वरूप पहिचान है तो वह सम्यग्दृष्टी ही है। जैसे हिरण स्वर
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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