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________________ पूज्यपादाचार्य ने कहा भी है - "ननु च तपोऽभ्युदयाङ्गमिष्टं देवेन्द्रादिस्थानप्राप्तिहेतुत्वाभ्युपगमात्, तत् कथं निर्जराङ्ग स्यादिति? नैष दोषः, एकस्यानेक-कार्यदर्शनादग्निवत् । यथाऽग्निरेकोऽपि विक्लेदनभस्माङ्गारादिप्रयोजन उपलभ्यते तथा तपोऽभ्युदयकर्मक्षयहेतुरित्यत्र को विरोधः । शंकातप को अभ्युदय का कारण मानना इष्ट है, सोंकि वह देवेन्द्र आदि विगो दी प्राप्ति के हेतमप से स्वीकार किया गया है, इसलिए वह निर्जरा का कारण कैसे हो सकता है? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अग्नि के समान एक होते हुए भी इसके अनेक कार्य देखे जाते हैं। जैसे अग्नि एक है तो भी उसके विक्लेदन, भस्म और अंगार आदि अनेक कार्य उपलब्ध होते हैं वैसे ही तप अभ्युदय और कर्मक्षय इन दोनों का हेतु है, ऐसा मानने में क्या विरोध है। पृष्ठ १८१ पर कहा है - "भक्ति तो राग रूप है, रागतें बंध है। तातैं मोक्ष का कारण नाहीं।" "इस शुभोपयोग को बंध का ही कारण जानना, मोक्ष का कारण न जानना'' (पृ. २१७)। आचार्यों ने प्रशस्त राग को परम्परा मोक्ष का कारण माना है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं - एसा पसत्यभूवा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं। चरिया परेत्ति भणिदा ता एव परं लहदि सोक्खं ॥२५४ प्रवचनसार॥ अर्थ : यह प्रशस्तचर्या (शुभोपयोग) श्रमणों के गौण होती है और गृहस्थों के मुख्य होती है। ऐसा जिनागम में कहा है। उसी से गृहस्थ परमसौख्य को प्राप्त होते हैं। इसकी टीका में श्री अमृतचन्द्र सूरि कहते हैं – “गृहिणां तु समस्तविरतेरभावेन शुद्धात्मप्रकाशस्याभावात् कषायसभावात् प्रवर्तमानोऽपि स्फटिकसम्पर्केणार्फतेजस इवैधसां रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवनात्क्रमत: परमनिर्वाणसौख्यकारणत्याच मुख्यः । अर्थ - वह शुभोपयोग गृहस्थों के तो, सर्वविरति के अभाव से, शुद्धात्म प्रकाशन का अभाव होने से कषाय के सद्भाव के कारण प्रवर्तमान होता हुआ भी मुख्य है, क्योंकि जैसे ईंधन को स्फटिक के सम्पर्क से सूर्य के तेज का अनुभव होता है (इसीलिए वह क्रमश: जल उठता है), उसी प्रकार गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है और (इसीलिए वह शुभोपयोग) क्रमश: परम निर्वाणसुख का कारण होता है। पृष्ठ २१८ पर लिखित यह कथन "तातै मिथ्यादृष्टी का शुभोपयोग तो शुद्धोपयोग को कारण है नाहीं।' यह जिज्ञासा पैदा करता है कि क्या मिथ्यादृष्टि के शुभोपयोग सम्भव है? जयसेनाचार्य प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति १/९ में लिखते हैं-मिथ्यात्व-सासादन-मिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभोपयोग: तदनन्तरमसंयतसम्यग्दृष्टि-देशविरत-प्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये तारतम्येन गुभोपयोग:, तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तगुणस्थानषट्के तारतम्येन शुद्धोपयोगः, तदनन्तरं सयोग्ययोगीजिनगुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति भावार्थः ॥१-९॥
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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