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________________ । १३ } यद्यपि आगे चलकर पण्डितजी ने स्वयं भी इसका खुलासा कर दिया है कि यहाँ उपयोग से उनका तात्पर्य केवलीज्ञानगम्य परिणामों से नहीं, छद्मस्थ के ज्ञानगम्य मन-वचन-काय की चेष्टा से है। अर्थात् वे योग की बात करते हैं, उपयोग की नहीं, इससे प्रकरण स्पष्ट हो जाता है। उपर्युक्त स्थापनाओं पर अनेक बार चर्चा, परिचर्धा, वाद-विवाद होते रहे हैं, आज भी हैं। 'वादे वादे जायते तत्त्वबोधः।' पर इन सबको सम्मिलित-संकलित करने से ग्रन्थ का कलेवर बढ़ जाता अत: ऐसी लम्बी चर्चाओं को छोड़कर मात्र ३६ विशेषार्थ ही संकलित किये गये हैं जो ग्रन्थ के मात्र ३० पृष्ठों में ही आ गये हैं। ___यहाँ पाठकों के मन में यह प्रश्न सहज ही उठ सकता है, उठना भी चाहिए कि क्या पण्डित टोडरमलजी के लेखन में कोई कमी है या कोई ऐसी त्रुटियाँ हैं जिनके निराकरण के लिए आज के विद्वानों को उनके लेखन में टिप्पण या विशेषार्थ जोड़ने पड़ रहे हैं? इस स्वाभाविक प्रश्न के उत्तर में इतना ही कहा जा सकता है कि मोक्षमार्ग-प्रकाशक की रचना-संयोजना इतने बड़े फलक पर रेखाङ्कित की गई थी जिसमें पं. टोडरमलजी ने समूचे मोक्षमार्ग को लोकभाषा में प्रस्तुत करने का ऐतिहासिक संकल्प किया था। दुर्भाग्य से वे अपने संकल्प की आंशिक पूर्ति भी नहीं कर पाये और उनकी पर्याय पूरी हो गई। इस ग्रन्थ का अपूर्ण रह जाना ही अपने आप में एक बड़ी कमी है, जिसे पूरा करने का कोई उपाय हमारे पास नहीं है। कई विषय ऐसे हैं जिनकी व्याख्याओं को वांछित विस्तार नहीं मिल पाने के कारण उनमें कतिपय भ्रान्तियों की आशंका को स्थान मिलता है। ऐसी स्थिति में, ग्रन्थकार के हार्द को समझने के लिए और उसके वर्ण्यविषय को सही सन्दों सहित सूक्ष्मता से जानने के लिए अनेक स्थलों पर कुछ स्पष्टता लाना आवश्यक समना गया, इसी प्रयोजन से प्रस्तुत संस्करण प्रकाशित किया गया है। हमारा यह प्रयास न तो अधूरे ग्रन्थ को पूरा करने के लिए हुआ है, न ही उसमें त्रुटियाँ निकालकर उनका परिमार्जन करने के लिए हुआ है। यह तो पण्डितजी के कथन को आगम की विवक्षाओं और प्रमागों के आलोक में समझने का एक लघु प्रयत्न मात्र है। किसी भी ग्रन्थकार के लेखन में किसी विशेष स्थल को अधिक स्पष्ट करने के लिए टिप्पण लिखने की परम्परा अतिप्राचीन और मान्य परम्परा है। अनेक बड़े-बड़े आचार्यों के लेखन पर इस प्रकार के टिप्पण परवर्ती आचार्यों ने लिखे हैं और शास्त्रों में उन्हें मान्य किया गया है। पूज्यपाय स्वामी की 'सर्वार्थसिद्धि' टीका के अनेक स्थलों पर सैकड़ों वर्षों बाद आचार्य प्रभाचन्द्र ने टिप्पणी लिखी थी। पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री द्वारा अनूदित, सम्पादित होकर जब यह ग्रन्थ भारतीय ज्ञानपीठ से पहली बार प्रकाशित हुआ तब ये टिप्पण इसमें नहीं दिये गये। परन्तु उनकी उपयोगिता देखते हुए पं. कैलाशचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री ने दूसरे संस्करण में उनका समावेश किया जो अब तक बराबर छप रहे हैं। निश्चित ही उन टिप्पणियों से सम्बन्धित प्रकरणों को समझने में आसानी होती है।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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