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________________ चौथा अधिकार-७३ अर्थ ही यह है (इच्छित) जो मोह (लोभ) के रहते हुए ही बन सकता है क्योंकि इच्छा का अर्थ ही लोभ होता है (जयपवल १२/१६२) अतः इष्ट अनिष्ट (इच्छित-अनिच्छित) विकल्प भी लोभ कषाय के अस्तित्व तक ही हो सकते हैं, इससे आगे त्रिकाल में भी नहीं। आगम में चूंकि इष्ट वियोग तथा अनिष्ट संयोग आर्तध्यान प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक बताये हैं। (प्रमत्तसंयतानां तु निदानवय॑मन्यदात्रियं प्रमायोपयोटेका(कदाचित् स्यात-सर्वार्थसिद्धि ६/३४) अत: यह ध्रुव सत्य है कि करणानुयोग की दृष्टि से इष्टवियोग तथा अनिष्ट - संयोग का अस्तित्व भावलिंगी सन्तों के भी होता है। यहाँ जो सम्यक्त्वी के भी उसका निषेध किया उसका अभिप्राय यह है कि सम्यक्त्वी के परपदार्थ के प्रति आसक्ति समन्वित राग (इष्टता) तथा प्रतिशोध संयुक्त द्वेष नहीं होता। (पं. ध. २/४२७-२८) शेष सब सुगम है। द्रव्यानुयोग से करणानुयोग का कथन सूक्ष्म है। (देखो-इसी ग्रन्थ का 'द्रव्यानुयोग में व्याख्यान का विधान' प्रकरण)। गानुले में मारें से शुलो माला पर कानुयोग में ११वें से माना। तथैव यहाँ इष्ट-अनिष्ट का विकल्प सम्यक्त्वी के निषिद्ध किया। करणानुयोग में उसे ही सातवें गुणस्थान से निषिद्ध किया। ___ इष्ट-अनिष्ट की कल्पना मिथ्या है आपको सुखदायक उपकारी होय ताको इष्ट कहिए। आपको दुःखदायक अनुपकारी होय ताको अनिष्ट कहिए। सो लोक विषै सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वभावही के कर्ता हैं। कोऊ काहूको सुखदुःखदायक उपकारी अनुपकारी है नाहीं । यह जीव ही अपने परिणामनिविषै तिनको सुखदायक उपकारी मानि इष्ट जानै है अथवा दुःखदायक अनुपकारी जानि अनिष्ट नानै है। जातें एक ही पदार्थ काहूको इष्ट लागै है, काहूको अनिष्ट लागे है। जैसे जाको वस्त्र न मिले ताको मोटा वस्त्र इष्ट लागै अर जाको महीन वस्त्र मिलै ताको वह अनिष्ट लाग है। सूकरादिकको विष्टा इष्ट लागै है, देवादिकको अनिष्ट लाग है। काहूको मेघवर्षा इष्ट लागे है, काहूको अनिष्ट लागै है। ऐसे ही अन्य जानने। बहरि याही प्रकार एक जीव को भी एक ही पदार्थ काहू कालयिचे इष्ट लागे है, काहू कालविषै अनिष्ट लागै है। बहुरि यहु जीव जाको मुख्यपने इष्ट मानै सो भी अनिष्ट होता देखिए है, इत्यादि जानने । जैसे शरीर इष्ट है सो रोगादिसहित होय तब अनिष्ट होइ जाय । पुत्रादिक इष्ट है सो कारणपाय अनिष्ट होते देखिए है, इत्यादि जानने। बहुरि यहु जीव जाको मुख्यपने अनिष्ट मानै सो भी इष्ट होता देखिये है। जैसे गाली अनिष्ट है सो सासरे में इष्ट लागै है, इत्यादि जानने। ऐसे पदार्थविषे इष्ट अनिष्टपनो है नाहीं । जो पदार्थविषै इष्ट आनष्टपनो होतो तो जो पदार्थ इष्ट होता सो सर्यको इष्ट ही होता, जो अनिष्ट होता सो अनिष्ट ही होता, सो है नाही। यह जीव आप ही कल्पनाकार तिनको इष्ट अनिष्ट मानै है सो यह कल्पना झूटी है। बहुरि पदार्थ है सो सुखदायक उपकारी या दुःखदायक अनुपकारी हो है सो आपही नाही हो है, पुण्य पापके उदयके अनुसारि हो है। जाकै पुण्यका उदय हो है ताकै पदार्थनिका संयोग सुखदायक उपकारी हो है, जाकै पापका उदय हो है ताक पदार्थनिका संयोग दुःखदायक अनुपकारी होहै सो प्रत्यक्ष देखिये है। काहूकै स्त्रीपुत्रादिक सुखदायक है, काहूकै दुःखदायक है;
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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