SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-७२ ऐसे मिथ्याज्ञान का स्वरूप कह्या। इसहीको तत्त्वज्ञानके अभावते अज्ञान कहिए हैं। अपना प्रयोजन न साधै ता याहीको कुज्ञान कहिए है। मिथ्याचारित्रका स्वरूप अद मिध्याचारित्रका स्वरूप कहिए है-जो चारित्रमोहके उदयतें कषाय भाव होइ ताका नाम मिथ्याचारित्र है। इहाँ अपने स्वभावरूप प्रवृत्ति नाही, झूठी परस्वभावरूप प्रवृत्ति किया चाहै सो बनै नाहीं, ताते याका नाम मिथ्याचारित्र है। सोइ दिखाइए है-अपना स्वभाव तो दृष्टा ज्ञाता है सो आप केवल देखनहारा जाननहारा तो रहै नाहीं। जिन पदार्थनिको देखै जानै तिन विषै इष्ट अनिष्टपनो माने तातै सगी द्वेषी होय काहूका सद्भावको चाहै, काहूका अभावको चाहै सो उनका सद्भाव अभाव याका किया होता नाहीं। जातें कोई द्रव्य कोई द्रव्यका कर्ता हर्ता है नाहीं। सर्व द्रव्य अपने-अपने स्वभावरूप परिणमै हैं। बहु वृथा ही कषाय भावकरि आफुलित हो है। बहुरि कदाचित् जैसे आप चाहै तैसे ही पदार्थ परिणमैं तो अपना परिणमाया तो परिणम्या नाहीं। जैसे गाड़ी चालै है अर वाको बालक धकायकरि ऐसा मानै कि याको मैं चलाऊँ हूँ। सो वह असत्य मानै है; जो वाका चलाय चाले है तो वह न चालै तब क्यों न चलावै? तैसे पदार्थ परिणमै हैं अर उनको यह जीव अनुसारी होय करि ऐसा माने याको मैं ऐसे परिणमाऊँ हूँ। सो यहु असत्य मानै है। जो याका परिणमाया परिणमै तो वह तैसे न परिणमै तब क्यों न परिणमाव? सो जैसे आप चाहै तैसे तो पदार्थ का परिणमन कदाचित् ऐसे ही बनाव बनै तब हो है, बहुत परिणमन तो आप न चाहै तैसे ही होता देखिए है। तातै यह निश्चय है, अपना किया काहू का सद्भाव अभाव होता नाहीं । बहुरि जो अपना किया सद्भाव अमाव होई ही नाही तो कषायभाव करनेसे कहा होय? केवल आप ही दुःखी होय। जैसे कोऊ विवाहादि कार्य विषै जाका किछु कह्या न होय अर वह आप कर्ता होय कषाय करै तो आप ही दुःखी होय तैसे जानना। तातें कषायभाव करना ऐसा है जैसा जल का बिलोवना किधु कार्यकारी नाहीं। तातै इन कषायनिकी प्रवृत्ति को मिथ्याचारित्र कहिए है। बहुरि कषायभाव हो है सो पदार्थनिकों इष्ट अनिष्ट माने ही है। सो इष्ट अनिष्ट मानना भी मिथ्या है। जाते कोई पदार्थ इष्ट अनिष्ट है नाहीं। कैसे? सो कहिए है। विशेष : इष्ट शब्द में इष् (इच्छा करना) धातु से क्त प्रत्यय होकर इष्ट शब्द बना है जिसका अर्थ है-इच्छित, अभिलषित या प्रिय या चाहा गया। अतः अनिष्ट यानी अनिच्छित, अनभिलषित, अप्रिय या नहीं चाहा गया। यहाँ पदार्थ को इष्ट या अनिष्ट मानना मिथ्या कहा गया है। पदार्थ इष्ट अनिष्ट नहीं होता। परन्तु ग्रन्थ में ही अन्यत्र कई जगह (पृ. ६०, ७६ से ७६, १०२, १५४, १७०, २५७, ३२५, ३३६, पर) स्वयं श्रद्धेय पण्डित जी ने इष्ट तथा अनिष्ट पदार्थ विषयक कथन किया है। एक कथन देखिए- “इस लोकविष तो इष्ट पदार्थ थोरे देखिए है, अनिष्ट घने देखिए हैं।" (पृ. १५४) (नोट-यह पृष्ठ संख्या सस्ती ग्रन्थमाला दिल्ली से प्रकाशित चतुर्थ संस्करण की है) इष्ट का ।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy