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________________ दुसरा अधिकार-२१ के मूर्तिक मानने में एक युक्ति यह भी है कि उस पर मदिरा (मूर्त पदार्थ) का प्रभाव देखा जाता है इसलिए आत्मा मूर्तिक है। क्योंकि मदिरा अमूर्तिक आकाश में मद को उत्पन्न नहीं कर सकती। (त.सार ५/१६-१६) पूज्य भगवद्वीरसेन स्वामी भी कहते हैं कि संसार अवस्था में जीवों के अमूर्तपना नहीं पाया जाता। इसलिए “जीवद्रव्य अमूर्त है तथा पुद्गलद्रव्य मूर्त; फिर इनका बन्ध कैसे हो सकता है। यह प्रश्न ही नहीं उठता। प्रश्न : यदि संसार अवस्था में जीव मूर्त है तो मुक्त होने पर वह अमूर्तपने को कैसे प्राप्त हो सकता है? उत्तर : यह कोई दोष नहीं है क्योंकि जीव में मूर्तपने का कारण कर्म है, कर्म का अभाव होने पर तज्जनित मूर्तता का भी अभाव हो जाता है और इसीलिए सिद्ध जीवों के अमूर्तपने की सिद्धि हो जाती है। (धवल १३/११, ३३३, धवल १५/३३-३४ आदि)इस प्रकार संसारी जीव कथञ्चित् मूर्त है, यह सिद्ध हुआ। इसीलिए तो मूर्तजीव का मूर्त कर्म के साथ बन्ध भी बन जाता है। कहा भी है- संसारत्या जीवा रूवी-गो.जी.। कर्म के आठ भेद और घातिया कर्मों का प्रभाव बहुरि सो कर्म ज्ञानावरणादि भेदनिकरि आठ प्रकार है। तहाँ च्यारि घातियाकर्मनि के निमित्त तो जीव के स्वभाव का घात हो है। तहाँ झानावरण दर्शनावरणकरि तो जीव के स्वभाव ज्ञान दर्शन तिनकी व्यक्तता नाहीं हो है, तिन कर्मनिका क्षयोपशम के अनुसार किंचित् ज्ञान दर्शन की व्यक्तता रहे है। बहुरि मोहनीयकरि जीव के स्वभाव नाहीं ऐसे मिथ्या श्रद्धान का क्रोध मान माया लोभादिक कषाय तिनकी व्यक्तता हो है। बहुरि अंतरायकरि जीव का स्वभाव दीक्षा लेने की समर्थतारूप वीर्य ताकी व्यक्तता न हो है, ताका क्षयोपशम के अनुसार किंचित् शक्ति हो है। ऐसे घातिकर्मनिके निमित्तते जीव के स्वभाव का घात अनादिहीत भया है। ऐसे नाहीं जो पहले तो स्वभाव रूप शुद्ध आत्मा था पीछे कर्मनिमित्त” स्वभावघात होने करि अशुद्ध भया। इहां तर्क- जो घात नाम सो अभावका है सो जाका पहले सद्भाव होय नाका अभाव कहना बने । इहा स्वभावका तो सद्भाव है ही नाही, घात किसका किया? ताका समाधान-जीवविष अनादि ही ते ऐसी शक्ति पाइए है जो कर्मका निमित्त न होइ तो . केवलज्ञानादि अपने स्वभावरूप प्रवर्तं परन्तु अनादिहीतें कर्मका सम्बन्ध पाइए है। तात तिस शक्तिका व्यक्तपना न भया सो शक्ति अपेक्षा स्वभाव है ताका व्यक्त न होने देनेकी अपेक्षा घात किया कहिए है। अधातिया कर्मों का प्रभाव बहुरि म्यारि अघातिया कर्म है तिनके निमिचत इस आत्मार्क बाघसामग्रीका सम्बन्ध बने है तहाँ वेदनीयकरि तो शरीरविणे या शरीरनै बाह्य नाना प्रकार सुख-दुःखको कारण परद्रव्यनिका संयोग जुरै है अर आयुकार अपनी स्थितिपर्यंत पाया शरीर का सम्बन्ध नाहीं छूट सबै है अर नामकरि गति जाति शरीरादिक निपजै है अर गोत्रकरि ऊँचा-नीचा कुल की प्राप्ति हो है ऐसे अघातिकानिकरि बाह्य सामग्री
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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