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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२० बहुरि प्रश्न-जो सम्बन्ध वा संयोग कहना तो तव संभवै जब पहले जुदे होइ पीछै मिलै । इहाँ अनादि मिले जीव कर्मनिका सम्बन्ध कैसे कह्या है। ताका समाधान- अनादितें तो मिले थे परन्तु पीछे जुदे भए तब जान्या जुदे थे तो जुदे भए। ताते पहले भा भिन्न ही थे। ऐसे अनुमान करि या केवलज्ञानकरि प्रत्यक्ष भिन्न भासै है। तिसकरि तिनका बन्धान होतें भिन्नपना पाइए है। बहुरि तिस भिन्नता की अपेक्षा तिनका सम्बन्ध या संयोग कह्या है, जात नए मिलो वा मिले ही होहु, भिन्न द्रव्यनिका मिलापविष ऐसे ही कहना समय है। ऐसे इन जीवकर्मनिका अनादि सम्बन्ध है। जीव और कर्मों की भिन्नता तहाँ जीवद्रव्य तो देखने जानने म्रूप चेतनागुण का धारक है अर इन्द्रियगम्य न होने योग्य अमूर्तीक है, संकोचविस्तारशक्तिको लिये असंख्यातादेशी एक द्रव्य है। बहुरि कर्म है सो चेतनागुणरहित जड़ है अर मूर्तीक है, अनन्त पुद्गल परमाणुनिका पिण्ड है तातै एक द्रव्य नाहीं है। ऐसे ए जीव अर कार्म हैं सो इनका अनादि सम्बन्ध है तो भी जीव का कोई प्रदेश कर्मरूप न हो है अर कर्म का कोई परमाणु जीव रूप न हो है। अपने-अपने लक्षण को धरे जुदै-जुदे ही रहे हैं। जैसे सोना रूपा का एक स्कन्ध होइ तथापि पीततादि गुणनिकों धरे सोना जुदा रहे है, स्वेततादि गुणनिको धरे रूपा जुदा रहे है, तैसे जुदै जानने। इहां प्रश्न-जो मूर्तीक मूर्तीक का तो बन्धान होना बने, अमूर्तीक मूर्तीक का बन्धान कैसे बने? ताका समाधान-जैसे व्यक्त इन्द्रियंगम्य नाहीं ऐसे सूक्ष्म पुद्गल अर व्यक्त इन्द्रियगम्य है ऐसे स्थूल पुद्गल तिनका बन्धान होना मानिए है तैसे इन्द्रियगम्य होने योग्य नाही ऐतो अमूर्तीक आत्मा अर इन्द्रियगम्य होने योग्य मूर्तीककर्म इनका भी बन्थान होना मानना । बहुरि इस बन्धानविष कोऊ किसी को करे तो है नाहीं। यावत् बन्धान रहे तावत् साथ रहे, बिछुरे नाहीं अर कारण-कार्यपना तिनकै बन्यो रहे, इतना ही इहाँ बंधान जानना । सो मूर्तीक अभूर्तीककै ऐसे बन्धान होने विषै किछू विरोध है नाहीं। या प्रकार जैसे एक जीवकै अनादि कर्मसम्बन्ध कह्या तैसे ही जुदा-जुदा अनन्त जीवनिकै जानना। विशेष-सर्वार्थसिद्धि में यही प्रश्न उठाया गया है कि अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्मों का बन्ध नहीं बनता, तो उसका उत्तर वहाँ दिया गया है-आत्मा के अमूर्तत्व के विषय में अनेकान्त है यानी यह कोई एकान्त नहीं है कि आत्मा अमूर्त ही है। कर्मबन्धरूप पर्याय की अपेक्षा उससे युक्त होने के कारण आत्मा कथंचित् मूर्त है तथैव शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा कथंचित् अमूर्त है। (स.सि. २/७ पृ.१६१) पूज्य अमृतचन्द्राचार्य ने भी कहा है कि “अमूर्तिक आत्मा का मूर्तिक कर्मों के साथ बन्ध असिद्ध नहीं है क्योंकि अनेकान्त से आत्मा में मूर्तिकपना सिद्ध है। कर्मों के साथ अनादिकालीन नित्य सम्बन्थ होने से आत्मा और कर्मों में एकत्व हो रहा है। इसी एकत्व के कारण अमूर्त आत्मा में भी मूर्तत्व माना जाता है। जिस प्रकार एक साथ पिधलाये हुए स्वर्ण तथा चांदी का एक पिण्ड बनाये जाने पर परस्पर प्रदेशों के मिलने से दोनों के एकरूपता मालूम होती है। आत्मा
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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