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________________ दूसरा अधिकार- १८. है तातै कर्म-बन्धन सहित अवस्था का नाम संसार अवस्था है। सो इस संसार अवस्थाविषै अनन्तानन्त जीव द्रव्य हैं ते अनादिही कर्मबन्धन सहित हैं। ऐसा नाहीं है जो पहले जीव न्यारा था अर कर्म न्यारा था, पीछे इनिका संयोग भया । तो कैसे है जैसे मेरुगिरि आदि अकृत्रिम स्कन्धनिविर्षे अनंते पुद्गल परमाणु अनावित एकबन्धनरूप हैं, पीछे तिनमें केई परमाणु भिन्न हो हैं कई नये मिले हैं। ऐसे मिलनो बिछुरनो हुआ करे है। तैसे इस संसार विषै एक जीव द्रव्य अर अनन्ते कर्मरूप पुद्गल परमाणु तिनिका अनादितें एकबन्धनरूप है, पीछे तिनमें कई कर्म परमाणु भिन्न हो हैं कई नये मिले हैं। ऐसे मिलनो बिधुरनो हुआ करे है। बहुरि इहां प्रश्न - जो पुद्गलपरमाणु तो रागादिक के निमित्त तें कर्मरूप हो है, अनादि कमस्य कैसे है? ताका समाधान - निमित्त तें नवीन कार्य होय तिस विषै ही सम्भव है। अनादि अवस्थावियै निमित का किछू प्रयोजन नाहीं । जैसे नवीन पुद्गल - परमाणुनिका बंधन तो स्निग्ध रूक्ष गुण के अंशन ही करि हो है अर मेरुगिरि आदि स्कन्धनिविषै अनादि पुद्गल परमाणुनिका बन्धान है तहां निमित्त का कहा प्रयोजन है ? तैसे नवीन परमाणुनिका कम्मरूप होना तो रागादिकनि ही करि हो है अर अनादि पुद्गल परमाणुनि की कर्म्मरूप ही अवस्था है। तहाँ निमित्त का कहा प्रयोजन है? बहुरि जो अनादिविषै भी निमित्त मानिए तो अनादिपना रहे नाहीं । तातैं कर्म का बन्ध अनादि मानना । सो तत्वप्रदीपिका प्रवचनसार शास्त्र की व्याख्या विषै जो सामान्यज्ञेयाधिकार है तहां का है। रागादिक का कारण तो द्रव्यकर्म है अर द्रव्यकम्र्म्म का कारण रागादिक है। तब वहाँ तर्क करी जो ऐसे इतरेतराश्रयदोष लागे, वह वाके आश्रय, वह बाके आश्रय, कहीं भाव नाहीं है, तब उत्तर ऐसा दिया है 9 नैवं अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्म्मसम्बन्धस्य तत्र हेतुत्वेनोपादानात् । , याका अर्थ - ऐसे इतरेतराश्रय दोष नाहीं है । जातै अनादिका स्वयंसिद्ध द्रव्यकम् का सम्बन्ध है ताका तहाँ कारणपनाकरि ग्रहण किया है। ऐसे आगम में कह्या है। बहुरि युक्ति तैं भी ऐसे ही सम्भवै है, जो कर्म्मनिमित्त बिना पहले जीव के रागादिक कहिए तो रागादिक जीव का एक स्वभाव हो जाय, जातैं परनिमित्त बिना होइ ताही का नाम स्वभाव हैं। तातैं कम्प का सम्बन्ध अनादि ही मानना । बहुरि इहाँ प्रश्न जो न्यारे-न्यारे द्रव्य अर अनादितैं तिनका सम्बन्ध, ऐसे कैसे सम्भवे ? ताका समाधान - जैसे डेटिहीसूं जल दूध का, वा सोना किट्टिक्का, वा तुष कण का, वा तेल तिल का सम्बन्ध देखिए है, नवीन इनका मिलाप भया नाहीं तैसे अनादिहीसों जीव कर्म्म का सम्बन्ध जानना, नवीन इनका मिलाप नाहीं भया । बहुरि तुम कही कैसे सम्भवै? अनादितैं जैसे केई जुदे द्रव्य हैं तैसे केई मिले द्रव्य हैं, इस संभवनेविषे किछू विरोध तो भासता नाहीं । ५. नहि अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्माभिसम्बद्धस्यात्मनः प्राक्तनद्रव्यकर्मणस्तत्र हेतुत्वेनोपादानात् । प्रवचनसार टीका २ / २६
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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