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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-१२८ इच्छा पूर्ण करने की चाहि भई। तातें यहाँ अति लोभ भया। बहुरि तें कह्या- "मुनिधर्म कैसे नष्ट भया" सो मुनिधर्म विषै ऐसी तीव्र कषाय सम्भव नाहीं। बहुरि काहूका आहार देने का परिणाम न था, यानै वाका घर में जाय याचना करी। तहाँ वाकै सकुचना भया वा न दिए लोकनिंद्य होने का भय भया तातै वाको आहार दिया। सो वाका अन्तरंग प्राण पीड़ने हिंसाका सद्भाव आया। जो आप वाका घर में न जाते, उसी कै देने का उपाय होता तो देता, वाकै हर्ष होता। यहु तो दवाय कर कार्य करावना भया। बहुरि अपना कार्यके अर्थि याचनारूप वचन है सो पापरूप है। सो यहाँ असत्य वचन भी मया । बहुरि वाकै देने की इच्छा न थी, यानै याच्या, तब वान अपनी इच्छा” दिवा नाही- सकुचिकार दिया। तातें अदत्त-ग्रहण भी भया। बहुरि गृहस्थ के घर में स्त्री जैसे तैसे तिष्ट थी, यहु चल्या गया। तहाँ ब्रह्मचर्यकी बाडिका भंग भया। बहुरि आहार ल्याय केतेक काल राख्या। आहारादि के राखनेको पात्रादिक राखे सो परिग्रह भया। ऐसे पाँच महाव्रतनिका भंग होनेः मुनिधर्म नष्ट हो है ताते याचनाकरि आहार लेना मुनिको युक्त नाहीं। बहुरि वह कहै है- मुनिकै बाईस परीषहनिविषै याचना परीषह कही है, सो मांगे बिना तिस परीषहका सहना कैसे होय? ताका समाधान- याचना करने का नाम याचना परिषह नाहीं है। याचना न करनी, ताका नाम याचनापरीषह है। जाते अरति करने का नाम अरति परीषह नाहीं, अरति न करनेका नाम अरति परीषह है, तैसे जानना। जो याचना करना परीषह टहरै, तो रंकादि घनी याचना करै है, तिनकै धना धर्म होय । अर कहोगे, मान घटावनेते याको परीषह कहै है तो कोई कषायी कार्य के अर्थि कोई कषाय छोरे भी पापी ही होय । जैसे कोई लोभके अर्थि अपना अपमानको भी न गिनै, तो वाकै लोभ की तीव्रता है। उस अपमान करावनेत भी महापाप होय है। अर आपकै इच्छा किछू नाही कोई स्वयमेव अपमान करै है तो वाकै महाधर्म है। सो यहाँ तो भोजनका लोभके अर्थि याचना करि अपमान कराया तातैं पाप ही है, धर्म नाहीं। बहुरि वस्त्रादिक के भी अर्थि याचना करै है सो वस्त्रादिक कोई धर्मका अंग नाहीं है, शरीर सुखका कारण हैं। तातै पूर्वोक्त प्रकार ताका निषेध जानना। देखो अपना धर्मरूप उच्चपद को याचना करि नीचा करै है सो यामें धर्म की हीनता हो है। इत्यादि अनेक प्रकार करि मुनिधर्म विष याचना आदि माही सम्भव है। सो ऐसी . असम्भवती क्रिया के धारक साधु गुरु कहै हैं। तातै गुरु का स्वरूप अन्यथा कहै हैं। धर्म का अन्यथा स्वरूप ___ बहुरि धर्मका स्वरूप अन्यथा कहै है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र इनकी एकता मोक्षमार्ग है, सो ही धर्म है, सो इनिका स्वरूप अन्यथा प्ररूप हैं। सो ही कहिए है तत्त्वार्थ प्रधान सम्यग्दर्शन है, ताकी तो प्रधानता नाहीं। आप जैसे अरहंत देव साधु गुरु दया धर्मको निरूपै है, तिनका श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहै है। सो प्रथम तो अरहतादिकका स्वरूप अन्यथा कहै । बहुरि इतने ही श्रद्धानते तत्त्व श्रद्धान भए बिना सम्यक्त्व कैसे होय तातै मिथ्या कहे हैं। बहुरि तत्त्वनिका भी श्रद्धानको सम्यक्त्व कहै है तो प्रयोजन लिए तत्त्वनिका श्रद्धान नाहीं कह है। गुणस्थान मार्गणादिरूप जीट
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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