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________________ पाँचवा अधिकार-१२७ पीछीकरि बुहारी दै, कमंडलुकरि जलादिक पावै वा मैल उतारै, तो शास्त्रादिक भी परिग्रह ही हैं। सो मुनि ऐसे कार्य कर नाहीं। तातै धर्मके साधनको परिग्रह संज्ञा नाहीं। भोगके साधनको परिग्रह संज्ञा हो है, ऐसा जानना। बहुरि कहोगे कमंडलुतें तो शरीरहीका माल दूरि करिए है, सो मुनि मल दूरि करने की इच्छाकरि कमंडलु नाहीं राखै हैं । शास्त्र बांचना आदि कार्य कर अर मलालप्त होय ती तिनका अविनय होय, लोकनिंद्य होय, ता” इस धर्मके अर्थ कमंडलु राखिए है। ऐसे पीछी आदि उपकरण सम्भवे, वस्त्रादिकी उपकरण संज्ञा सम्भवै नाहीं । काम अरति आदि मोहका उदयलें विकार बाह्य प्रगट होय अर शीतादिक सहे न जाय तातें विकार हाँकनेको वा शीलादि मिटावनेको वस्त्रादिक राखै अर मानके उदयसे अपनी महंतता भी चाहै ताते कल्पित युक्तिकरि उपकरण ठहराए हैं। बहुरि घरि-घरि याचनाकरि आहार ल्यावना टहरावै है। सो प्रथम तो यह पूछिए है, याचना धर्म का अंग है कि पापका अंग है। जो धर्मका अंग है तो मांगने वाले सर्व धर्मात्मा भए। अर पापका अंग है तो मुनिकै कैसे सम्भवै? । बहुरि जो तू कहेगा, लोभकरि किछू धनादिक याचै तो पाप होय, यहु तो धर्म-साधनके अर्थि शरीर की स्थिरता किया चाहै है तातें आहारादिक यात्रै है। ताका समाधान- आहारादिककरि धर्म होता नाही, शरीर का सुख हो है। सो शरीरका सुख के अर्थि अति लोभ भए याचना करिए है। जो अति लोभ न होता, तो आप काहेको मांगता। वे ही देते तो देते, न देते तो न देते। बहुरि अतिलोभ भए इहाँ ही पाप भया, तब मुनि धर्म नष्ट भया, और धर्म कहा साथेगा। अब वह कहै है-मनविषै तो आहारकी इच्छा होय अर याचे नाहीं तो मायाकषाय भया अर याचने में हीनता आवै है सो गर्वकरि याचे नाहीं तब मानकषाय भया। आहार लेना था सो मांगि लिया। यामें अति लोभ कहा भया अर यात मुनिधर्म कैसे नष्ट भया सो कहो। याको कहिए हैं जैसे काहू व्यापारीके कुमावने की इच्छा मन्द है सो हाटि (दुकान) ऊपरि तो बैटै अर मनविषै व्यापार करने की इच्छा भी है परन्तु काहूको वस्तु लेनेदेनेरूप व्यापारके अर्थ प्रार्थना नाहीं करै है। स्वयमेव कोई आवै तो अपनी विधि मिले व्यापार करै है तो ताकै लोम की मंदता है, माया वा मान नाहीं है। माया मानकषाय तो तब होय, जब छलकरने के अर्थि वा अपनी महंतताके अर्थि ऐसा स्वांग करै। सो मले व्यापारीकै ऐसा प्रयोजन नाहीं तातै वाकै माया मान न कहिए। तैसे मुनिनकै आहारादिककी इच्छा मन्द है सो आहार लेनेको आवै अर मनविषै आहार लेने की इच्छा भी है परन्तु आहारके अर्थि प्रार्थना नाहीं करै है। स्वयमेव कोई दे तो अपनी विधि मिले आहार ले हैं तो उनकै लोभकी मंदता है, माया वा मान नाहीं है। माया मान तो तब होय जब छल करने के अर्थि वा महंतता के अर्थि ऐसा स्वांग करै । सो मुनिनकै ऐसा प्रयोजन है नाही तातै इनिकै माया मान नाहीं है। जो ऐसे ही माया मान होय तो जे मनहीकरि पाप कर, वचनकायकरि न करे, तिन सबनिकै माया ठहरै। अर जे उच्चपदवीके धारक नीचवृत्ति अंगीकार नाहीं करै हैं, तिन सम्बनिकै मान ठहरै। ऐसे अनर्थ होय! बहुरि त कह्या- “आहार मांगने में अतिलोभ कहा भया? सो अतिकषाय होय तब लोकनिंद्य कार्य अंगीकारकरिकै भी मनोरथ पूर्ण किया चाहै। सो मांगना लोकनिंध है, ताको भी अंगीकारकरि आहारकी
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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