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________________ आटवाँ अधिकार-२५५ जीवादिका कथनविष ऋद्धि आदिका निमित्त विना स्वयमेव रुके नाहीं ताका नाम सूक्ष्म, रुकै ताका नाम बादर, ऐसा अर्थ है। वस्त्रादिकका कथनविषै महीन का नाम सूक्ष्म, मोटाका नाम बादर, ऐसा अर्थ है। (करणानुयोग के कथनविर्ष पुद्गलस्कथके निमित्तते रुक नाहीं ताका नाम सूक्ष्म है अर रुक जाय ताका नाम बादर है।) बहुरि प्रत्यक्ष शब्दका अर्थ लोकव्यवहारविषै तो इन्द्रियकरि जाननेका नाम प्रत्यक्ष है, प्रमाणभेदनिविषै स्पष्ट प्रतिभासका नाम प्रत्यक्ष है, आत्मानुभवनादिविषै आपविष अवस्था होय ताका नाम प्रत्यक्ष है। बहुरि जैसे मिथ्यादृष्टी के अज्ञान कह्या तहाँ सर्वथा ज्ञानका अभावः न जानना, सम्यग्ज्ञान के अभावः अज्ञान कपा है। बहुरि जैसे उदीरणा शब्दका अर्थ जहाँ देवादिककै उदीरणा न कही, तहाँ तो अन्य निमित्तते मरण होय ताका नाम उदीरणा है अर दश करणनिका कथनविष उदीरणाकरण देवायुकै भी कह्या, तहाँ ऊपरिके निषेकनिका द्रव्य उदयावलीविषै दीजिए ताका नाम उदीरणा है। ऐसे ही अन्यत्र यथासम्भव अर्थ जानना। बहुरि एक ही शब्दका पूर्व शब्द जोड़े अनेक प्रकार अर्थ हो है या उस ही शब्दके अनेक अर्थ हैं। तहाँ जैसा सम्भवै तैसा अर्थ जानना। जैसे 'जीत' ताका नाम 'जिन' है परन्तु धर्मपद्धतिविषै कर्मशत्रुको जीतै, ताका नाम 'जिन' जानना। यहाँ कर्मशत्रु शब्दको पूर्व जोड़े जो अर्थ होय सो ग्रहण किया, अन्य न किया, बहुरि जैसे 'प्राण धारै' ताका नाम 'जीव' है। जहाँ जीवनमरणका व्यवहार अपेक्षा कथन होय, तहाँ तो इन्द्रियादि प्राणथारै सो जीव है। बहुरि द्रव्यादिकका निश्चय अपेक्षा निरूपण होय तहाँ चैतन्यप्राणको थारै सो जीव है। बहुरि जैसे समय शब्दके अनेक अर्थ हैं तहाँ आत्माका नाम समय है, सर्व पदार्थका नाम समय है, कालका नाम समय है, समयमात्र काल का नाम समय है, शास्त्र का नाम समय है, मतका नाम समय है। ऐसे अनेक अर्थनिविषै जैसा जहाँ सम्भवै तैसा तहाँ अर्थ जानि लेना। बहुरि कहीं तो अर्थ अपेक्षा नामादिक कहिए है, कहीं रूढ़ि अपेक्षा नामादिक कहिए है, जहाँ रूढ़ि अपेक्षा नामादिक लिख्या होय, तहाँ वाका शब्दार्थ न ग्रहण करना । याका रूढ़िवाद अर्थ होय सो ही ग्रहण करना। जैसे सम्यक्तादिकको धर्म कह्या तहाँ तो यहु जीवको उत्तमस्थानविषै धारै है, तात याका नाम सार्थक है। बहुरि धर्मद्रव्यका नाम धर्म कह्या तहाँ रूढ़ि नाम है, याका अक्षरार्थ न ग्रहण करना। इस नाम धारक एक वस्तु है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना, ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि कहीं जो शब्दका अर्थ होता होई सो तो ग्रहण न करना अर सहाँ जो प्रयोजनभूत अर्थ होय सो ग्रहण करना। जैसे कहीं किसीका अभाव कह्या, होय अर तहाँ. किंचित् सद्भाव पाईए, तो तहाँ सर्वथा अभाव ग्रहण करना। किंचित् सद्भावको न गिणि अभाव कह्या है, ऐसा अर्थ जानना। सम्यग्दृष्टी के रागादिकका अभाव कह्या, तहाँ ऐसे अर्थ जानना । बहुरि नोकषायं अर्थ तो यहु- ' कषाय का निषेध ' सो तो अर्थ न ग्रहण करना अर यहाँ क्रोधादि सारिखे ए कषाय नाही, किंचित् कषाय हैं ताते नोकषाय हैं, ऐसा अर्थ ग्रहण करना। ऐसे ही, अन्यत्र जानना।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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