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________________ पोक्षमार्ग प्रकाशक-२५६ बहुरि जैसे कहीं कोई युक्तिकरि किया होय, तहाँ प्रयोजन ग्रहण करना समयसार का कलशाविवे' यह कहा- “धोबी का दृष्टान्तवत् परभावका त्यागकी दृष्टि यावत् प्रवृत्तिको न प्राप्त भई तावत् यह अनुभूति प्रगट भई । सो यहाँ यहु प्रयोजन है-परभावका त्याग होते ही अनुभूति प्रगट हो है। लोकविष काहूके आवर्त ही कोई कार्य भया होय, तहाँ ऐसे कहिए-"जो यहु आया ही नाहीं अर यहु कार्य होय गया।" ऐसा ही यहाँ प्रयोजन ग्रहण करना 1 ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि जैसे कहीं प्रमाणादिक किछु कह्या होय, सोई तहाँ न मानि लेना, तहाँ प्रयोजन होय सो जानना। ज्ञानार्णवाविषे ऐसा कह्या है- अवार दोय तीन सत्पुरुष है।"२ सो नियम” इतने ही नाही, यहाँ 'थोरे हैं ऐसा प्रयोजन जानना। ऐसे ही अन्यत्र जानना 1 इस ही रीति लिये और भी अनेक प्रकार शब्दनिके अर्थ हो हैं, तिनको यथासम्भव जानने। विपरीत अर्थ न जानना। बहुरि जो उपदेश होय, ताको यथार्थ पहचानि जो अपने योग्य उपदेश होय ताका अंगीकार करना। जैसे वैद्यकशास्त्रनिविषे अनेक औषधि कही हैं, तिनको जानै अर ग्रहण तिसहीका करे, जाकर अपना रोग दूरि होय। आपकै शीतका रोग होय तो उष्ण औषधिका ही ग्रहण करे, शीतल औषधिका ग्रहण न करे, यहु औषधि औरनिको कार्यकारी है, ऐसा जानै । और पैशा माहित ने उप हैं, तिनको जानै अर ग्रहण तिसहीका करै, जाकर अपना विकार दूरि होय। आपकै जो विकार होय ताका निषेध करनहारा उपदेशको ग्रहै, तिसका पोषक उपदेशको न ग्रहै । यहु उपदेश औरनिको कार्यकारी है, ऐसा जाने । यहाँ उदाहरण कहिए है- जैसे शास्त्रविषै कहीं निश्चयपोषक उपदेश है, कहीं व्यवहार पोषक उपदेश है। तहाँ आपकै व्यवहार का आधिक्य होय तो निश्चय पोषक उपदेशका ग्रहण करि यथावत् प्रवत्तै अर आपकै निश्चयका आधिक्य होय तो व्यवहारपोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत् प्रवतै। बहुरि पूर्व तो व्यवहार श्रद्धानः आत्मज्ञानतें प्रष्ट होय रह्या था, पीछे व्यवहार उपदेशहीकी मुख्यताकरि आत्मज्ञानका उद्यम न करै अथवा पूर्व तो निश्चयश्रद्धानतें वैराग्यनै प्रष्ट होय स्वच्छन्द होय रह्या था, पीछे निश्चय उपदेशहीकी मुख्यताकरि विषयकषाय पोषै। ऐसे विपरीत उपदेश ग्रहे बुरा ही होय। बहुरि जैसे आत्मानुशासनविषै ऐसा कहा- जो तू गुणवान् होय दोष क्यों लगाये है। दोषवान होना था तो दोषमय ही क्यों न भया।" सो जो जीव आप तो गुणवान् होय अर कोई दोष लगता होय तहाँ तिस दोष दूर करने के अर्थि तिस उपदेशको अंगीकार करना। बहुरि आप तो दोषवान् है अर इस उपदेशका ग्रहणकरि गुणवान् पुरुषनिको नीचा दिखावै तो बुरा ही होय। सर्वदोषमय १. अवतरति न यावद्वृत्तिमत्यन्तवेगादनवमपरभावत्यागदृष्टान्तदृष्टिः। झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता, स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविबभूव ।। (जीवाजीव अ. कलशा २६) २. दुःप्रजावतलुप्तवस्तुनिधया विज्ञानशून्याशयाः। विद्यन्ते प्रतिमन्दिर निजनिजस्वार्थोद्यता देहिनः ।। आनन्दामृतसिन्धुशीकरवनिर्वाप्य जन्मज्वरं, ये मुक्तेर्वदनेन्दुवीक्षणपरास्ते सन्ति वित्रा यदि ।।२४।। - झानार्णव, पृष्ठ ६८ हे चन्द्रमः किपितिलाञ्छनवानभूस्त्वं, तद्वान् भवेः किमिति तन्मय एवं नाभूः। किं ज्योत्स्नयामलमलं तव घोषयन्त्या, स्वानवजन तथा सति नाऽसि लक्ष्यः 11१४१।।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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