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________________ म नवमा अधिकार . . . .. .. मोक्षमार्ग का स्वरूप : ... दोहा शिवउपाय करते प्रथम, कारन मंगलरूप । विघनविनाशक सुखकरन, नमी शुद्ध शिवभूप ।।१।। अथ मोक्षमार्ग का स्वरूप कहिए है- पहिलै मोक्षमार्ग के प्रतिपक्षी मिथ्यादर्शनादिक तिनिका स्वरूप दिखाया। तिनिको तो दुःख रूप दुःख का कारन जानि हेय मानि तिनिका त्याग करना। बहुरि बीच में उपदेश का स्वरूप दिखाया। ताको जानि उपदेशको यथार्थ समझना। अब मोक्ष के मार्ग सम्यग्दर्शनादिक तिनिका स्वरूप दिखाइए है। इनिको सुखरूप सुखका कारण जानि उपादेय मानि अंगीकार करना। जाते आत्मा का हित मोक्ष ही है। तिसहीका उपाय आत्माको कर्तव्य है। तारौं इसहीका उपदेश यहाँ दीजिए है। तहाँ आत्माका हित मोक्ष ही है और नाहीं. ऐसा निश्चय कैसे होय सो कहिए है आत्मा का हित एक मोक्ष ही है आत्माके नाना प्रकार गुणपर्यायरूप अवस्था पाइए है। तिनविषै और तो कोई अवस्था होडू, किछु आत्माका बिगाड़ सुधार नाहीं। एक दुःख सुख अवस्थातें बिगाड़ सुधार है। सो इहाँ किछु हेतु दृष्टांत चाहिए नाहीं। प्रत्यक्ष ऐसे ही प्रतिभासै है। लोकविर्ष जेते आत्मा हैं, तिनिकै एक उपाय यह पाईए है--दुःख न होय, सुख ही होय । बहुरि अन्य उपाय भी जेते करै हैं, तेते एक इस ही प्रयोजन लिये करै हैं, दूसरा प्रयोजन नाहीं। जिनके 'निमित्तते' दुःख होता जाने, तिनिको दूर करने का उपाय करै हैं अर जिनके निमित्ततें सुख होता जानें, तिनिके होने का उपाय करे हैं। बहुरि संकोच विस्तार आदि अवस्था भी आत्माहीकै हो है। वा अनेक परद्रव्यनिका भी संयोग मिले है परन्तु जिनकरि सुख-दुःख होता न जाने, तिनके दूर करने का वा होने का कुछ भी उपाय कोऊ करै नाहीं । सो इहाँ आत्मद्रव्यका ऐसा ही स्वभाव जानना। और तो सर्व अवस्थाको सहि सकै, एक दुःखको सह सकता नाहीं। परवश दुःख होय तो बहु कहा करै ताको भोगवै परन्तु स्ववशपने तो किंचित् भी दुःखको न सहै। अर संकोच विस्तारादि अवस्था जैसी होय तैसी होहु, तिनिको स्ववशपने भी भोगवै, सो स्वभावविर्ष
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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