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________________ नवमा अधिकार - २७५ तिसविषै 'दर्शन' शब्द का अर्थ सामान्य अवलोकनमात्र न ग्रहण करना । जातैं चक्षु अचक्षु दर्शनकरि सामान्य अवलोकन तो सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि के समान होय हैं, किछु याकरि मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति अप्रवृत्ति होती नाहीं । बहुरि श्रद्धान हो है सो सम्यग्दृष्टीही कै हो है, याकरि मोक्ष ार्ग की प्रवृत्ति हो है । तार्ते 'दर्शन' शब्द का अर्थ भी यहाँ श्रद्धान मात्र ही ग्रहण करना । बहुरि प्रश्न- यहाँ विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान करना कया, सो प्रयोजन कहा ? ताका समाधान- अभिनिवेश नाम अभिप्रायका है। सो जैसा तत्त्वार्थश्रद्धान का अभिप्राय है तैसा न होय, अन्यथा अभिप्राय होय, ताका नाम विपरीताभिनिवेश है। सो तत्त्वार्थ श्रद्धान करने का अभिप्राय केवल तिनिका निश्चय करना मात्र ही नाहीं है। तहाँ अभिप्राय ऐसा है- जीव अजीवको पहचानि आपको वा परको जैसा का तैसा माने बहुरि आसवको पहिचानि ताको हेय मानै । बहुरि बंधको पहिचानि ताको अहित माने । बहुरि संवर को पहचानि ताको उपादेय मानै । बहुरि निर्जराको पहचानि ताको हितका कारण मानै । बहुरि मोक्षको पहचानि ताको अपना परम हित माने। ऐसे तत्वार्थ श्रद्धानका अभिप्राय है। तिसतें उलटा अभिप्राय का नाम विपरीताभिनिवेश है। सो सांचा तत्त्वार्थ श्रद्धान भए याका अभाव होय । तातैं तत्त्वार्थ श्रद्धान है सो विपरीताभिनिवेशरहित है, ऐसा यहाँ कहा है। अथवा काहूकै आभास मात्र तत्त्वार्थश्रद्धान होय है परन्तु अभिप्रायविषै विपरीतपनो नाहीं छूटे है । कोई प्रकारकरि पूर्वोक्त अभिप्रायतें अन्यथा अभिप्राय अन्तरंगविषै पाइए है तो वाकै सम्यग्दर्शन न होय । जैसे द्रव्यलिंगी मुनि जिनवचननित तत्त्वनिकी प्रतीति करे परन्तु शरीराश्रित क्रियानिविषै अहंकार वा पुण्यास्वविषै उपादेयपनो इत्यादि विपरीत अभिप्रायतें मिथ्यादृष्टी ही रहे है तातें जो तत्त्वार्थश्रद्धान विपरीताभिनिवेश रहित है सोई सम्यग्दर्शन है । ऐसे विपरीताभिनिवेश रहित जीवादि तत्त्वार्थनिका श्रद्धानपना सो सम्यग्दर्शनका लक्षण है। सम्यग्दर्शन लक्ष्य है । सोइ तत्त्वार्यसूत्र विषे कला है- “तत्त्वार्थश्रखानं सम्यग्दर्शनम् ।। १२ ।। " तत्त्वार्थनिका श्रद्धान सोई सम्यग्दर्शन है। बहुरि सर्वार्थसिद्धि नाम सूत्रनिकी टीका है, तिसविषै तत्त्वादिक पदनिका अर्थ प्रगट लिख्या है, वा सात ही तत्त्व कैसे कहे सो प्रयोजन लिख्या है, ताका अनुसार यहाँ किछू कथन किया है ऐसा जानना । बहुरि पुरुषार्थसिद्धयुपाय विषै भी ऐसे ही कह्या है जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्त्तव्यम् । श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ।। २२ ।। याका अर्थ - विपरीताभिनिवेशकरि रहित जीव अजीव आदि तत्वार्थनिका श्रद्धान सदाकाल करना योग्य है। सो यहु श्रद्धान आत्माका स्वरूप है |दर्शनमोह उपाधि दूर भए प्रगट हो है, तातै आत्माका स्वभाव है। चतुर्थादि गुणस्थानविषे प्रगट हो है । पीछे सिद्ध अवस्थाविषै भी सदाकाल याका सद्भाव रहे है, ऐसा 'जानना ।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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