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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक- २७६ तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण में अव्याप्ति- अतिव्याप्ति असंभव - दोष का परिहार तिर्यचों के सात तत्त्वों का श्रद्धान 1 यहाँ प्रश्न उपजे है जो तिर्यंचादि तुच्छज्ञानी केई जीव सात तत्त्वनिका नाम भी न जानि सकै, तिनिकै भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति शास्त्रविषै कही है । तातैं तत्त्वार्थ श्रद्धानपना तुम सम्यक्त्वका लक्षण कला, तिसविषे अव्याप्तिदूषण लागे है । ताका समाधान - जीव अजीवादिकका नामादिक जानो वा मति जानो वा अन्यथा जानो, उनका स्वरूप यथार्थ पहचानि श्रद्धान किए सम्यक्त्व हो है। तहाँ कोई सामान्यपने स्वरूप पहिचानि श्रद्धान करें। कोई विशेषपने स्वरूप पहिचानि श्रद्धान करे। तातैं तुच्छज्ञानी तिर्यंचादिक सम्यग्दृष्टी हैं सो जीवादिक का नाम भी न जाने हैं, तथापि उनका सामान्यपने स्वरूप पहिचानि श्रद्धान करे हैं। तातैं उनके सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो है । जैसे कोई तिर्यंच अपना वा औनिका नामालिक तो नाहीं जानै परन्तु पट आपो माने है, औरनिको पर माने है। तैसे तुच्छज्ञानी जीव अजीवका नाम न जानै परन्तु जो ज्ञानादिस्वरूप आत्मा है तिसविषै तो आपो माने है अर जो शरीरादि है तिनको पर माने है- ऐसा श्रद्धान वाकै हो है, सो ही जीव अजीवका श्रद्धान है। बहुरि जैसे सोई तिर्यंच सुखादिकका नामादिक न जाने है, तथापि सुख अवस्थाको पहिचान ताके अर्थ आगामी दुःख का कारणको पहिचानि ताका त्यागको किया चाहै है । बहुरि जो दुःख का कारण बनि रह्या है, ताके अभाव का उपाय करे है। तैसे तुच्छज्ञानी मोक्षादिकका नाम न जाने, तथापि सर्वथा सुखरूप मोक्षअवस्थाको श्रद्धान करता ताके अर्थि आगामी बंधका कारण रागादिक आस्रव ताका त्यागरूप संवरको किया चाहे है। बहुरि जो संसार दुःखका कारण है, ताकी शुद्धभावकरि निर्जरा किया चाहे है। ऐसे आस्रवादिकका वाकै श्रद्धान है। या प्रकार वाकै भी सप्ततत्त्वका श्रद्धान पाइए है। जो ऐसा श्रद्धान न होय, तो रागादि त्यागि शुद्ध भाव करने की चाह न होय । सोई कहिए है जो जीव अजीवको जाति न जानि आपापरको न पहिचान तो परविषै रागादिक कैसे न करे? रागादिकको न पहिचान तो तिनिका त्याग कैसे किया चाहे । सो रागादिक ही आस्रव हैं। रागादिकका फल बुरा न जाने तो काहे को रागादिक छोड़या चाहै । सो रागादिकका फल सोई बंध है। बहुरि रागादि रहित परिणामको पहिचान है तो तिसरूप हुआ चाहे है। सो रागादिरहित परिणामका ही नाम संवर है। बहुरि पूर्व संसार अवस्थाका कारण की हानिको पहिचाने हैं तो ताके अर्थि तपश्चरणादिकरि शुद्धभाव किया चाहे है । सो पूर्व संसार अवस्थाका कारण कर्म है, ताकी हानि सोई निर्जरा है। बहुरि संसार अवस्था का अभावको न पहिचाने तो संवर निर्जरारूप काहेको प्रवर्ते । सो संसार अवस्था का अभाव सो ही मोक्ष है। तातें सातों तत्त्वनिका श्रद्धान भए ही रागादिक छोड़ि शुद्ध भाव होने की इच्छा उपजै है । जो इनविषै एक भी तत्त्वका श्रद्धान न होय तो ऐसी चाह न उपजै । बहुरि ऐसी चाह तुच्छज्ञानी तिर्यचादि सम्यग्दृष्टी हो ही है। ता वाकै सप्त तत्त्वनिका श्रद्धान पाउए है, ऐसा निश्चय करना । ज्ञानावरण का क्षयोपशम थोरा होते विशेषपने तत्त्वनिका ज्ञान न होवै, तथापि दर्शनमोहका उपशमादिकर्ते सामान्यपने तत्त्वश्रद्धान की शक्ति प्रगट हो है। ऐसे इस लक्षणविषे अव्याप्ति दूषण नाहीं है । ।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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