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________________ नवमा अधिकार-२७७ विषयसेवन के समय सम्पापती के श्रद्धा का सिमाश नहीं बहुरि प्रश्न- जिसकालविषै सम्यग्दृष्टी विषयकषायनिके कार्यविषै प्रवर्ते है तिसकालविषै सप्त तत्त्वनिका विचार ही नाही, तहाँ प्रधान कैले सम्मकै? अर सम्यक्त्व रहै ही है, तातै तिस लक्षणविषै अव्याप्ति दूषण आवै है। ताका समाधान- विचार है, सो तो उपयोग के आधीन है। जहाँ उपयोग लागै, तिसहीका विचार हो है। बहुरि श्रद्धान है, सो प्रतीतिरूप है। तातें अन्य ज्ञेयका विचार होते वा सोवना आदि क्रिया होते तत्त्वनिका विचार नाही, तथापि तिनकी प्रतीति बनी रहै है, नष्ट न हो है। तातै वाकै सम्यक्त्वका सद्भाव है। जैसे कोई रोगी मनुष्यकै ऐसी प्रतीति है- मैं मनुष्य हूँ, निर्यचादि नाहीं हूँ। मेरे इस कारणले रोग भया है सो अब कारण मेटि रोगको घटाय नीरोग होना। बहुरि दो ही मनुष्य अन्य विचारादिरूप प्रवत्र्त है, तब वाकै ऐसा विचार न हो है परन्तु श्रद्धान ऐसा ही रह्या करै है। तैसे इस आत्माकै ऐसी प्रतीति है- मैं आत्मा हूँ, पुद्गलादि नाहीं हूँ, मेरे आम्नवतै बन्ध भया है, सो अब संवरकरि निर्जराकरि मोक्षरूप होना। बहुरि सोई आत्मा अन्यविचारादिरूप प्रवत्र्त है, तब बाकै ऐसा विचार न हो है परन्तु श्रद्धान ऐसा ही रह्या करै है। बहुरि प्रश्न- जो ऐसा श्रद्धान रहै है, तो बंध होनेके कारणविषे कैसे प्रवर्ते है? ताका उत्तर- जैसे सोई मनुष्य कोई कारण के वशतें रोग बधने के कारणनिविर्ष भी प्रयत्नैं है, व्यापारादिक कार्य वा क्रोधादिक कार्य करै है, तथापि तिप्त श्रद्धानका वाकै नाश न हो है। तैसे सोई आत्मा कर्म उदय निमित्त के वश बन्ध होने के कारणनिविषै भी प्रवत्र्त है, विषयसेवनादि कार्य वा क्रोधादि कार्य कर है, तथापि तिस श्रद्धानका वाकै नाश न हो है। इसका विशेष निर्णय आगे करेंगे। ऐसे सप्त तत्त्व का विचार न होते भी श्रद्धानका सद्भाव पाइए है, तात तहाँ अव्याप्तिपना नाहीं है। निर्विकल्प दशा में भी तत्त्वार्थ श्रद्धान का सद्भाव बहुरि प्रश्न- ऊँची दशाविषै जहाँ निर्विकल्प आत्मानुभव हो है, तहाँ तो सप्त तत्त्वादिकका विकल्प भी निषेध किया है। सो सम्यक्त्व के लक्षणका निषेध करना कैसे सम्भवे? अर तहाँ निषेध सम्भवै है तो अव्याप्ति दूषण आया। ताका उत्तर- नीचली दशाविषे सप्ततत्त्वनिके विकल्पनिविषै उपयोग लगाया, ताकरि प्रतीलिको दृढ़ कीन्हीं अर विषयादिकतें उपयोग छुड़ाय रागादि घटाया। बहुरि कार्य सिद्ध भए कारणनिका भी निषेथ कीजिए है। तातै जहाँ प्रतीति भी दृढ़ भई अर रागादिक दूर भए तहाँ उपयोग प्रमावने का खेद काहेको करिए। तातें तहाँ तिन विकल्पनिका निषेध किया है। बहुरि सम्यक्त्व का लक्षण तो प्रतीति ही है। सो प्रतीतिका तो निषेध न किया। जो प्रतीति छुड़ाई होय, तो इस लक्षणका निषेध किया कहिए। सो तो है नाहीं। सातों तत्त्वनिकी प्रतीति तहाँ भी बनी रहै है। तातै यहाँ अव्याप्तिपना नाही है। बहुरि प्रश्न- जो छद्मस्थकै तो प्रतीति अप्रतीति कहना सम्भवै, तातें तहाँ सप्ततत्त्वनिकी प्रतीति
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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