SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-१६६ साँचे हैं परन्तु तत्त्वश्रद्धान साँचा न भया। समयसारविर्षे' एक ही जीव के धर्म का श्रद्धान, एकदशांगका ज्ञान, महाव्रतादिकका पालना लिख्या है। प्रवचनसारविर्षे ऐसा लिख्या है- आगमज्ञान ऐसा भया जाकर सर्वपदार्थनिको हस्तामलकवत् जान है। यह भी जाने है, इनका जाननहारा मैं हूँ। परन्तु मैं ज्ञानस्वरूप हूँ ऐसा आपको परद्रव्यतै भिन्न केवल चैतन्यद्रव्य नाहीं अनुमवै है। तातें आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान भी कार्यकारी नाहीं । या प्रकार सम्यग्ज्ञानकं अधि जैनशास्त्रनिका अभ्यास करै है, तो भी याकै सम्यग्ज्ञान नाहीं। सम्यक्चारित्रके अर्थि साधनमें अयथार्थता बहुरि इनकै सम्यक्चारित्रके अर्थ कैसे प्रवृत्ति है सो कहिए है-बाह्यक्रिया ऊपरि तो इनकै दृष्टि है अर परिणाम सुधरने बिगरनेका विचार नाहीं । बहुरि जो परिणामनिका भी विचार होय, तो जैसा अपना परिणाम होता दीसै, तिनहीके ऊपरि दृष्टि रहै है। परन्तु उन परिणामनिकी परम्परा विचारे अभिप्रायविषै जो वासना है, ताको न विचारै है। अर फल लागै है सो अभिप्रायविषै वासना है ताका लागै है। सो इसका विशेष व्याख्यान आगै करेंगे, तहाँ स्वरूप नीके मासेगा। ऐसी पहिचान बिना बाह्य आचरणका ही उद्यम तहाँ केई जीव तो कुलक्रमकरि वा देखादेखी वा क्रोध मान माया लोभादिकतै आचरण आचरै हैं। सो इनकै तो धर्मबुद्धि ही नाही, सम्यक्चारित्र कहाँतै होय। ए जीव कोई तो भोले हैं या कषायी हैं, सो अज्ञानभाव वा कषाय होते सम्यक्चारित्र होता नाहीं। बहुरि केई जीव ऐसा मान है, जो जानने में कहा (अर मानने में कहा है) किछू करेगा तो फल लागेगा। ऐसे विचारि व्रत तप आदि क्रिया ही के उद्यमी रहै है अर तत्त्वज्ञानका उपाय न करै है। सो तत्त्वज्ञान बिना महाव्रतादिका आचरण भी मिथ्याचारित्र ही नाम पावै है। अर तत्त्वज्ञान भए किछू भी व्रतादिक नाहीं हैं, तो भी असंयतसम्यग्दृष्टी' नाम पावै है। तातै पहले तत्त्वज्ञान १. मोक्ख असदहतो अभवियसत्तो दु जो अथीएज्ज। पाठो ण करेदि गुणं असद्दहतस्स गाणं तु ।। गाथा २७४ ।। मोक्षं हि न तावदभव्यः श्रद्धत्ते शुद्धज्ञानमयात्मज्ञानशून्यत्वात्। ततो ज्ञानमपि नासौ श्रद्धत्ते । ज्ञानमश्रद्दधान-श्चाचाराधेकादशांग श्रुतमधीयानोऽपि श्रुताध्ययनगुणाभाबान्न ज्ञानी स्यात् । स किल गुणःश्रुताध्ययनस्य यद्विविक्तवस्तुभूतज्ञानमयात्मज्ञान; तच्च विविक्तवस्तुभूतं ज्ञानमश्रद्दधानस्याभव्यस्य श्रुताध्ययनेन न विषातुं शक्येत ततस्तस्य तद्गुणाभावः। सतश्च ज्ञानश्रद्धानाभावात सोऽजानीति प्रतिनियतः। परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो। विज्जदि जदि सो सिद्धिं ग लहदि सब्बागमधरो वि।। अ, ३ गाथा ३६ ।। ३. यहाँ इतना अवश्य जानना चाहिए कि मनुष्य असंयत सम्यक्त्यी भी ढाई द्वीप में मात्र ७०० करोड़ हैं। (घवल पु. ३/२५२, . पृ. ६४, ब्रह्मविलास पृ. ११०) तथा सकल मनुष्यों की संख्या यदि न्यूनतम २२ अंक प्रमाण भी मानी जावे (पवल पु. ३/२५५) तो भी १३ अंक प्रमाण संख्या पर एक असंयत सम्यक्त्वी मनुष्य औसतन प्राप्त होता है। अर्थात् औसतन दस खरव मनुष्यों में से एक असंयत सम्यग्दृष्टि आत्मा है। अतः हर कोई अपने आपको सम्यक्त्वी नहीं मान बैठे।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy