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________________ सातवाँ अधिकार-२०७ द्रव्यकर्म नोकर्म-रहित हो तो ज्ञानादिक की व्यक्तता क्यों नहीं? परमानन्दमय हो तो अब कर्तव्य कहा रह्या? जन्म-मरणादी दुःख ही नाहीं तो दुःखी कैसे होते हो? तातै अन्य अवस्थाविषै अन्य अवस्था मानना 'प्रम है।" पृ. २६३ पर कहा है- आपको द्रव्यपर्यायरूप अवलोकना। द्रव्यकरि सामान्यस्वरूप अवलोकना, पर्यायकरि अवस्था विशेष अवधारना। ऐसे ही चिंतवन किये सम्यग्दृष्टी हो है।" इन उपर्युक्त कथनों में यह कहा गया है कि 'निश्चय की मुख्यता करि जो कथन किया होय ताहि को ग्रहण करि मिथ्यादृष्टि होय है। यदि "निश्चयनय भूतार्थ है और वस्तु का जैसा स्वरूप है तैसा निरूपै है" (पृ. ३६६), तो निश्चयनय के कथन को ग्रहण करने वाला मिथ्यादृष्टि क्यों? 'शुद्ध रूप चिंतवन करना प्रम है' (पृ. २६२) ऐसा क्यों? व्यवहारनय करि जीव की मुक्त अवस्था है। निश्चयनय करि तो जीव न प्रमत्त है और न अप्रमत्त है, किन्तु एक अवस्थारूप है। व्यवहारनय का कथन जो मुक्तअवस्था को उपादेय न माने अर्थात् यदि व्यवहारनय को उपादेय न माने तो 'बन्ध के नाश का मुक्त होने का उद्यम काहे को करिये है, काहे को आत्मानुभव करिये है।' पृ. २६१ के इस कथन से स्पष्ट है कि व्यवहारनय के कथन को भी उपादेय माना गया है। पृ. २६८ पर भी कहा है- “बहुरि जो तू कहेगा, केई सम्यग्दृष्टी भी तपश्चरण नाहीं करे हैं। ताका उत्तर- यहु कारण विशेषतै तप न होय सकै है परन्तु श्रद्धानविषै तो तप को भला जाने हैं। ताके साधन का उद्यम राखे हैं।” यहाँ पर भी व्यवहारनय के इस कथन को सम्यग्दृष्टि उस (तप) को श्रद्धानि विष भला जानै है। (अर्थात् उपादेयरूप श्रद्धान करे है) और तप के साधन का उद्यम राखै है (अर्थात् सम्यग्दृष्टि अनशनादि तप का उपादेयरूप से श्रद्धान करे है और उसतप को उपादेय मान उसके साधन का प्रयत्न करे है) यहाँ पर भी व्यवहारनय के कथन अनशनादि तप को उपादेय रूप से श्रद्धान करने को और ग्रहण करने को कहा है। वृ. २६३ पर "द्रव्यकरि सामान्य स्वरूप अवलोकना, पर्यायकरि अवस्था विशेष अवधारना। ऐसे ही चिंतवन किए सम्यग्दृष्टी हो है।" वस्तु सामान्यरूप भी है और विशेषरूप भी है। सामान्य निश्चयनय का विषय है, 'विशेष' व्यवहारनय का विषय है। सामान्य-विशेष दोनों रूप अर्थात् 'ऐसे भी है, ऐसे भी है" इसरूप चिंतवन करने वाला सम्यग्दृष्टी है। यह इस कथन का तात्पर्य है। यदि कोई निश्चयनय के कथन 'सामान्य' को सत्यार्थ माने और व्यवहारनय के विषय विशेष (परिणमन को असत्यार्थ मानेगा तो उसके मत में वस्तु नित्य कूटस्थ हो जाने से अर्थक्कियाकारी नहीं रहेगी, जिससे वस्तु के अभाव का प्रसंग आ जायगा और सांख्यमत की तरह एकान्तमिथ्यादृष्टि हो जाएगा। इसीलिए निश्चयनय के कथन 'सामान्य और व्यवहारनय के कथन 'विशेष' दोनों की श्रद्धा करने वाले को सम्यग्दृष्टि कहा है।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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