SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२०८ पृ. २६६ पर भी कहा है- "केवल आत्मज्ञान ही ते तो मोक्षमार्ग होइ नाहीं। सप्त तत्त्वनिका श्रद्धान ज्ञान भए वा रागादिक दूरि किये मोक्षमार्ग होगा। सो सप्ततत्वनिका विशेष जानने को भाव-अजीव के विशेष का कर्म के जान-ब-पादिक का विशेष अवश्य जानना योग्य है, जाते सम्यग्दर्शन-ज्ञान की प्राप्ति होय । बहुरि तहाँ पीछे रागादिक दूरि करने, सो जे रागादिक बधावने के कारण तिनको छोड़ि जे रागादिक घटावने के कारण होय तहाँ उपयोगको लगावना।” यहाँ पर निश्चयनय के कथनरूप जो आत्मज्ञान उसके तो मोक्षमार्गपने का निषेध किया। और व्यवहारनय के कथन “सात तत्त्व का श्रद्धान, ज्ञान व रागादिक औपाधिक भावों का दूर करना' इसको मोक्षमार्ग कहा है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मो. मा. प्र. में स्वयं दो प्रकार का कधन पाया जाता है। अतः उपर्युक्त उपदेश को सर्वथा न समझ लेना चाहिए। मो.मा.प्र. में स्वयं कहा है- “इसलिए जो उपदेश हो उसको सर्वथा न समझ लेना चाहिए। उपदेश के अर्थ को जानकर वहाँ इतना विचार करना चाहिए कि यह उपदेश किस प्रकार है, किस प्रयोजन को लेकर है और किस जीव को कार्यकारी है।" जो उपर्युक्त कथन (पृ. ३६६ व.३६६ के कथन) को सर्वथा मान बैटे हैं क्या वे 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' के स्वाध्याय करने वाले कहे जा सकते हैं? यहाँ तक निश्चयनय व व्यवहारनय के सम्बन्ध में 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' के अनुसार कथन हुआ। अब आर्षग्रन्थ के अनुसार कथन किया जाता है यदि यह कहा जाय कि निश्चयनय की दृष्टि में व्यवहारनय का विषय अभूतार्थ है, तो इससे यह सिद्ध नहीं होता कि व्यवहारनय का विषय सर्वथा अभूतार्थ है। शंका - ववहारोऽभूयत्थो (गाथा ११ स.सा.), इसका व्यवहार असत्य है', ऐसा अर्थ करना क्या समुचित है? समाधान - समुचित है। परन्तु यहाँ अपेक्षा विशेष से ही व्यवहार को असत्य कहा है। समयसार अध्यात्मग्रन्थ है तथा अध्यात्मनिश्चयप्रधान होता है। अध्यात्म में निश्चय का ही कथन होता है। अतः १. भूत = सत्य, अर्थ = स्वरूप, भूतार्थ = सत्य स्वरूप या सत्यार्थ (मूलाचार गाथा २०३, पृष्ठ १६८ ज्ञानपीठ) तथा जिनसहस्रनामस्तोत्र (श्रुतसागरीय टीका ६/११३) स.सा.ता वृत्ति तथा लौकिक ग्रन्थ अभि.शाकु. अंक १ मृच्छकटिक्स ३/२४ आदि। इनमें भूतार्थ व अभूतार्थ क्रमशः सत्य य असत्य अर्थ के वाचक हैं। २. अ.अ.क. पृष्ठ ३। ३. स.प्रा.पृ. ४ (प्रकाशक : शान्तिलालजी कागजी, दिल्ली)
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy