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________________ सातवाँ अधिकार-२०E समयसार में प्रायः निश्चय की दृष्टि से - निश्चय की मुख्यता से ही कथन किया हुआ है। तदनुसार निश्चय की दृष्टि से ही यहाँ व्यवहार को असत्यस्वरूप कहा है। परन्तु अपने अर्थ में तो यह उतना ही सत्य है जितना कि निश्चय।' इसके लिए समयसार के निम्न प्रमाण दृष्टव्य हैं - १. व्यवहार ...... मत छोड़ो।२ २. व्यवहार नय को यदि कोई सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो....... | संसार में ही भ्रमण करेगा। ३. व्यवहार कथंचित् असत्यार्थ है। वह सर्वथा असत्यार्थ नहीं है। ४. सर्व नयों की कचित् सत्यार्थता का प्रसार करने से ही सम्यक्दृष्टि हुआ जा सकता है।' ५. व्यवहारनय व्यवहारी जीवों को परमार्थ (निश्चयनय) का कहने वाला है। ६. यदि व्यवहार को सर्वथा असत्यार्थ ही समझा जाये तो.... परमार्थ का भी लोप हो जायेगा।" ७. निश्चय और व्यवहार श्रुतज्ञान के अवयव हैं। ८. एक नय का सर्वधा पक्ष ग्रहण किया जाये तो मिथ्यात्व के साथ मिला हुआ राग होता है। प्रयोजनवश एक नय को प्रधान करके उसका ग्रहण करें तो मिथ्यात्व बिना चारित्रमोह का राग हो जाता है। ६. पांचों प्रमाण, दोनों नय तथा चारों निक्षेप साधक अवस्था में तो सत्यार्थ ही हैं। तथा भिन्न लक्षण से रहित अपने एक चेतन लक्षण रूप जीव स्वभाव का अनुभव करने पर ये सभी अभूतार्थ हैं यानी प्रमाण नय निक्षेप सविकल्प अवस्था में भूतार्थ हैं, किन्तु परम समाधि के काल में ये भी अभूतार्थ हो जाते हैं। इसी तरह नव पदार्थ प्राथमिक शिष्य की अपेक्षा भूतार्थ हैं, निर्विकल्प समाथि अवस्था में अभूतार्थ हैं।० १. वर्णी अ.न.पृ. ३५४-५. पं. फूलचन्दजी सि.शास्त्री। २. जई जिणमयं पवजह ता मा बबाणिच्छए मुयह । एकेण विणा छिज्जइ तिथं अण्णेण उण तच्च । स.सा.गा. १२ आ.रा. ३. समयप्राभृत पृ. ४६ आ.ख्या. जयचन्दजी छाबड़ाकृत वचनिका । प्रकाशक : शान्तिलालजी कागजी, २४४, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली तथा धर्मामृत अनगार पृ. ७४ (जानपीट) ४. समयप्राभृत वही पृ. ४६, ६०, ८१. १३१ आदि (गाथा १२,१४,२८,६० की यचनिका) ५. अर्थात कोई भी नय सर्वथा सत्यार्थ नहीं है। स.प्रा.प्र. ६० गाथा १४ की वचनिका तथा स.प्रा.आ ग्व्या. १४३ दचनिका। ६. स.सा. ६ आ.ख्या.। ७. स.मा. ६० आ.ख्या.. t. स.सा. १४३ आ.ख्या.। ६. स.सा. १४३ जयचन्दजी की वधानका। १०. मूलाचार पृ. १७१ सानपीट (इसी तरह व्यवहार नय शुभोपयोग के काल में भूतार्थ है। वही शुद्धोपयोग के काल में अभूताई हो जाता है। पुनः वहां से पतित होकर नीचे की भूमिका में आने पर पुनः व्यवहार भूतार्थ हो जाता है।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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