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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२१० १०. व्यवहार नय भूतार्थ भी है तथा अभूतार्थ भी है । इस तरह दो प्रकार का है ।' ११. निश्चय और व्यवहार में समय लाना है। इन सब बिन्दुओं को गम्भीरता से देखने पर यह अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहारनय अध्यात्म में निश्चय नय की अपेक्षा मिथ्या कहा गया है, परन्तु व्यवहार की अपेक्षा व्यवहार सत्य ही है । बौद्ध निश्चय की अपेक्षा व्यवहार को झूठ मानते हैं उसी प्रकार के व्यवहार को व्यवहार दृष्टि से भी असत्य मानते हैं । परन्तु जैनमत में ऐसा नहीं है । जैनमत में सभी नय कथंचित् सत्यार्थ हैं ।' आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज समयसार टीका (अजमेर प्रकाशन) में पृष्ठ १४-१५ पर लिखते हैं कि यहाँ पर भूतार्थ शब्द का अर्थ सत्यार्थ व अभूतार्थ का अर्थ असत्यार्थ किया है, किन्तु यहाँ पर असत्यार्थ का अर्थ सर्वथा निस्सार नहीं लेना चाहिए किन्तु 'अ' का अर्थ ईषत् लेकर व्यवहारनय अभूतार्थ अर्थात तात्कालिक प्रयोजनवान है, ऐसा लेना चाहिए । जैसाकि स्वयं जयसेनाचार्यजी ने भी अपने तात्पर्यार्थ में बतलाया है। किंच, भूत शब्द का अर्थ संस्कृत भाषा के विश्वलोचनकोश में जिस प्रकार सत्य बतलाया है, उसी प्रकार उसका अर्थ 'सम' भी बतलाया है। अतः भूतार्थ सम है अर्थात् सामान्य धर्म को स्वीकार करने वाला है तो अभूतार्थ का अर्थ विषम अर्थात् विशेषता को कहने वाला स्वतः हो जाता है जिससे व्यवहारनय अर्थात् पर्यायार्थिकनय और निश्चयनय अर्थात् द्रव्यार्थिक नय, इसप्रकार का अर्थ अनायास ही निकल जाता है । निष्कर्ष : अ शब्द प्रसक्त अर्थ के अवयव में भी रहता है अतः भूतार्थ-विद्यमान पदार्थ है तो अभूतार्थ-विद्यमान पदार्थ की पर्याय । अतः भूतार्थ =द्रव्यार्थिक नय तथा अभूतार्थ पर्यायार्थिक नय, यह सिद्ध होता है। दूसरे जिस प्रकार निश्चयनय की दृष्टि में व्यवहारनय का विषय अभूतार्थ है उसी प्रकार व्यवहारनय की दृष्टि में निश्चयनय का विषय अभूतार्थ है । इन दोनों कथनों के समर्थन में आर्षवाक्य इस प्रकार हैं _ 'ननु सौगतोपि ब्रूते व्यवहारेण सर्वज्ञः तस्य किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति ? तत्र परिहारमाह-सौगतादिमते यथा निश्चयापेक्षया व्यवहारो मषा, तथा व्यवहाररूपेणापि व्यवहारो न १. स.सा. १३ ता. वृ. भूतााभूतार्थभेदेन व्यवहारोऽपि द्विधा । २. निश्चयव्यवहारयोः साथ्यसाधकमावत्वात् । स.सा. पृ. १६८ फलटण प्रकाशन तथा पं. का. पृ. २३० (राजचन्द्र) स.सा. गाथा १२०,१६०,१६१,२३६ की टीकाएँ तथा तत्थार्थ सार भी देखें। ३. स.सा. गाथा ३८७ से ३६६ ता.पृ. । ४. स.सा. गाथा १४ जयचन्दजी की यवनिका ।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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