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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२०६ उपचार भी नाना उपदेशरूपी औषधियों द्वारा बतलाया गया है। इसलिए किसी भी उपदेश को सर्वथा न समझ लेना चाहिए। अपने मिथ्यात्वरूपी रोग के कारण को पहिचान कर, उन नाना उपदेशरूपी औषधियों में से उस कारण को दूर करनेवाली औषधि का सेवन करेगा तो रोग उपशांत हो जायगा। यदि विपरीत औषधि का सेवन करेगा तो मिथ्यात्वरूपी रोग पुष्ट हो जायगा। समयसार गाथा ५० से ५५ तक में निश्चयनय की अपेक्षा रागादि को पुद्गलमय कहे और गाथा ५६ में व्यवहारनय की अपेक्षा जीव के कहे हैं। यदि कोई निश्चयनय के कथन को सत्यार्थ मान और व्यवहारनय के कथन को असत्यार्थ मान अपने-आपको रागादि से सर्वथा भिन्न अनुभवे तो उसको व्यवहारनय की उपदेश रूपी औषधि का सेवन करना चाहिए अर्थात् व्यवहारनयके उपदेश को सत्यार्थ मान अर्थात् रागादि को आत्मा के भाव मानकर उनको दूर करने का उपाय करना चाहिए। अन्यथा उसका मिथ्यात्वरूपी रोग दूर नहीं होगा। किन्तु निश्चयनय के उपदेशरूपी औषधि सेवन करने से उसका मिथ्यात्वरूपी रोग पुष्ट होता जायगा। इसी बात को भो. मा. प्र. पृ. २६१ (यही संस्करण) पर कहा "यहाँ कोऊ कहे- हमको तो बंध मुक्ति का विकल्प करना नाहीं, जाते शास्त्रविषे ऐसा कह्या है- 'जो बंधउ मुक्काउ मुणइ, सो बंधइ णिभंतु।' याका अर्थ - जो जीव बंध्या अर मुक्त भया मानै है, सो निःसंदेह बंधै है। ताको कहिये है- जे जीव केवल पर्यायदृष्टि होय बंध मुक्त अवस्था ही को माने हैं, द्रव्यस्वभाव का ग्रहण नाहीं करे हैं, तिनको ऐसा उपदेश दिया है, जो द्रव्यस्वभाव को न जानता जीव बंध्या मुक्त भया माने, सो बंधै है। बहुरि जो सर्वथा ही बंध मुक्ति न होय, तो सौ जीव बंधै है, ऐसा काहे को कहै । अर बंध के नाश का, मुक्त होने का उद्यम काहे को करिये है। काहे को आत्मानुभव करिए है। ता” द्रव्यदृष्टि करि एकदशा है, पर्यायदृष्टि करि अनेक अवस्था हो है, ऐसा मानना योग्य है। ऐसे ही अनेक प्रकार करि केवल निश्चयनय का अभिप्रायतें विरुद्ध श्रद्धानादिक करै है। जिनवाणी विषै तो नाना नय अपेक्षा, कहीं कैसा कहीं कैसा निरूपण किया है। यह अपने अभिप्रायतें निश्चयनय की मख्यता करि जो कथन किया होय, ताही को ग्रहिकरि मिथ्यादृष्टि को घारै है।" पृ. २६२ पर कहा है- “यहु चतवन जो द्रव्यदृष्टि करि करो हो, तो द्रव्य तो शुद्ध-अशुद्ध सर्वपर्यायनिका समुदाय है। तुम शुद्ध हो अनुभवन काहे को करो हो। अर पर्यायदृष्टि करि करो हो तो तुम्हारे तो वर्तमान अशुद्धपर्याय है। तुम आपको शुद्ध कैसे मानो हो? बहुरि जो शक्ति अपेक्षा शुद्ध मानो हो, तो मैं ऐसा होने योग्य हूँ, ऐसा मानो। मैं ऐसा हूँ ऐसे काहे को मानो हो। तात आपको शुखरूप चितवन करना भ्रम है। काहे ते-तुम आपको सिद्ध समान मान्या, तो यह संसार-अवस्था कौन की है। अर तुम्हारे केवलज्ञानादिक हैं तो ये मतिज्ञानादिक कौन के हैं। अर
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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