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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-७६ अवस्था हो है तिसविष द्वेष करै है । बहरि शरीर का इष्ट अवस्था के कारणभूत बाह्य पदार्थनिविषै तो राम करै है अर ताकै घातकनिविष द्वेष करै है। बहुरि शरीर की अनिष्ट अवस्था के कारणभूत बाह्यपदार्थनिविष तो द्वेष कर है अर ताके घातकनिविषै राग करै है। बहुरि इन विषै जिन बाह्य पदार्थनिसों राग कर है तिनके कारणभूत अन्य पदार्थनिविषै राग करै है, तिनके घातकनिविषै द्वेष करै है। बहुरि जिन बाह्य पदार्थनिस्यों द्वेष करै है तिनके कारणभृत अन्य पदार्थनिविषै द्वेष करै है, तिनके घातकनिविषै राग कर है। बहुरि इन विषै भी जिनस्यों राग कर है तिनके कारण वा घातक अन्य पदार्थनिविषे राग वा द्वेष करै है अर जिनस्यों द्वेष करै है तिनके कारण वा घातक अन्य पदार्थनिविषि द्वेष वा राग कर है। ऐसे ही रागद्वेष की परम्परा प्रक्त है। बहुरि केई बाह्य पदार्थ शरीर की अवस्था को कारण नाही तिन विर्ष भी रागद्वेष करै है। जैसे गऊ आदि के पुत्रादिकतै किछू शरीर का इष्ट होय नाहीं तथापि तहाँ राग करै है। जैसे कूकरा आदिके विलाई आदिक तें किछू शरीर का अनिष्ट होय नाहीं तथापि तहाँ द्वेष करै है। बहुरि केई वर्ण गन्ध शब्दादिकके अवलोकनादिकतै शरीर का इष्ट होता नाहीं तथापि तिनविषै राग करें है। केई वर्णादिकके अवलोकनादिकः शरीर का अनिष्ट होता नाहीं तथापि तिनविषै द्वेष करै है। ऐसे भिन्न बाह्य पदार्थनिविषै रागद्वेष हो है। बहुरि इनविषै भी जिनस्यों राग करै है तिनके कारण अर घातक अन्य पदार्थनिविषे राग या द्वेष करै है अर जिनस्यो द्वेष कर है तिनके कारण वा घातक अन्यपदार्थ तिनविषै द्वेष वा राग करै है। ऐसे ही यहाँ भी रागद्वेष की परम्परा प्रवर्त है। प्रश्न- कर्म से विकार नहीं होता। विकार भी उस समय का स्वतन्त्र परिणमन है। मतलय विकारी पर्याय भी स्वतन्त्र परिणमन है। उस समय की पर्याय की वैसी ही योग्यता है। सचमुच तो चारित्रगुण की ही उस समय की योग्यता के कारण ही रागद्वेष होता है। कर्म कुछ नहीं करते। उत्तर- यह कथन एकान्त विष से विषाक्त' है। मोक्षमार्ग प्रकाशक में लिखा है कि रागादि का कारण तो द्रव्यकर्म है। पो.मा.प्र. पृ. १६ इस तरह आचार्यकल्प पं. टोडरमलजी के वाक्य होने पर भी यदि रागादिक को अकारण मानते हैं तो रागादि के स्वभाव होने का प्रसंग आएगा। क्योंकि “पर निमिस चिना होइ ताहि का नाम स्वभाव है। और वैसा होने पर सिद्धों में भी रागादि के होने का प्रसंग आएगा। अतः स्याद्वादी भव्यों का रागादि की उत्पत्ति में द्रव्यकर्म को कारण मानना चाहिए। ऐसा विपुलाचल पर्वत पर स्थित वर्धमान भट्टारक ने अपनी दिव्यध्वनि में बार-बार कहा था। जिनको रागादि को स्वभाव मानना अनिष्ट होये वे रागादि की उत्पत्ति में द्रव्यकर्म को भी कारण माने और जिन्हें कर्मों की परतन्त्रता से जीव को पृथक् कर सर्वथा स्वतन्त्र बनाना इष्ट हो वे रागादि पर्यायों की परतन्त्रता भी स्वीकार करें। यदि रागादि पर्याय स्वतन्त्र समुत्पन्न (स्व-अथीन सात) हो, अपने कारण से बनती हों तो फिर सिखों के भी उन सर्वथा स्वतन्त्र रागादि पर्यायों के अस्तित्व का प्रसंग आए. भगवद् वीरसेन स्वामी कहते हैं कि जीवस्स परतंत भावुष्पायण अर्थात् (अभी) जीव परतन्त्र है। (पवला १२/३८॥ आदि) फिर उसकी पर्याय स्वतन्त्र कैसी ? कथंचित् द्रव्य कर्म फल नहीं देते; बल्कि भाव कर्म यानी जीव के भाव ही फल देते हैं। क्योंकि कर्मबन्ध मी तो भावों से होता है । तथा सुख-दुःख का निश्चय नय से सम्बन्ध तो जीव भाव से ही है। इस तरह एकद्रव्यग्राहीनय की अपेक्षा द्रव्यकर्म फल नहीं देते, भाव ही फल देते हैं। - स्याद्वाद, जवाहरलाल सि. शा. भीण्डर से साभार
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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