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________________ चौथा अधिकार-७७ .. इहाँ प्रश्न- जो अन्य पदार्थनिविषै तो रागद्वेष करने का प्रयोजन जान्या परन्तु प्रथम ही तो मूलभूत शरीर की अवस्थाविषै वा शरीर की अवस्थाको कारण नाही, तिन पदार्थनिविषे इष्ट अनिष्ट मानने का प्रयोजन कहा है - ताका समाधान- जो प्रथम मूलमूत शरीर की अवस्था आदिक है तिन विषै भी प्रयोजन विचार रागद्वेष करै तो मिथ्याचरित्र काहेको नाम पावै । तिनविषै, बिना ही प्रयोजन रागद्वेष करै है अर तिनहीके अर्थि अन्यस्यों रागद्वेष करै है ताते सर्व रागद्वेष परिणतिका नाम मिथ्याचारित्र कह्या है। इहाँ प्रश्न-जी शरारकी अवस्था वा बाय पदार्थनिवि इ ऑगष्ट मानने का प्रयोजन तो भासै नाहीं अर इष्ट अनिष्ट माने बिना रह्या जाता नाहीं सो कारण कहा है? ताका समाधान- इस जीवकै चारित्रमोह के उदयते रागद्वेषभाव होय सो ए माव कोई पदार्थका आश्रय बिना होय सके नाहीं । जैसे राग होय सो कोई पदार्थ विषै होय, वेष होय सो कोई पदार्थ विषै होय। ऐसे तिन पदार्थनिक अर रागद्वेषकै निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है। तहाँ विशेष इतना जो केई पदार्थ तो मुख्यपने रागको कारण हैं, केई पदार्थ मुख्यपने द्वेष को कारण हैं। केई पदार्थ काहूको काहू काल विषै राग के कारण हो हैं, काहूको काहूकाल विषै द्वेष के कारण हो हैं। इहाँ इतना जानना- एक कार्य होने विषे अनेक कारण चाहिए हैं सो रागादिक होने विषे अंतरंग कारण मोहका उदय है सो तो बलवान है अर बाह्य कारण पदार्थ है सो बलवान नाहीं है। महामुनिनिकै मोह मन्द होते बाह्य पदार्थनिका निमित्त होते भी रागद्वेष उपजते नाहीं। पापी जीवनिकै मोह तीव्र होते बाह्यकारण न होतें भी तिनका संकल्प ही करि रागद्वेष हो है। तात मोहका उदय होते रागादिक हो हैं तहाँ जिस बाह्यपदार्थ का आश्रय करि रागभाव होना होय, तिस विषै बिना ही प्रयोजन वा किछू प्रयोजन लिए इष्टबुद्धि हो है। बहुर जिस पदार्थका आश्रय करि द्वेषभाव होना होय, तिस विधै बिना ही प्रयोजन वा किछू प्रयोजन लिए अनिष्ट बुद्धि हो है। तातै मोहके उदयतें पदार्थनिको इष्ट अनिष्ट माने बिना रह्या जाता नाहीं। ऐसे पदार्थनि विधै इष्ट अनिष्ट बुद्धि होतें जो रागद्वेष रूप परिणमन होय ताका नाम मिथ्याचारित्र जानना। बहुरि इन रागद्वेषनि ही के विशेष क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीयेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेदरूप कषायभाव हैं। ते सर्व इस मिथ्याचारित्रहीके भेद जानने। इनका वर्णन पूर्वे किया ही है। बहुरि इस मिथ्याचारित्रविषे स्वरूपाचरणचारित्रका अभाव है ताते याका नाम अचारित्र भी कहिए। बहुरि यहाँ परिणाम मिटै नाहीं अथवा विरक्तनाहीं, ताते याहीका नाम असंयम कहिए है वा अविरति कहिए है जातें पाँच इन्द्रिय अर मनके विषयनिविषै बहुरि पंचस्थावर अर उसकी हिंसा विष स्वच्छन्दपना होय अर इनके त्यागरूप भाव न होय सोई असंयम वा अविरति बारह प्रकार कह्या है सो कषायभाव भए ऐसे कार्य हो हैं तातै मिथ्याचारित्रका नाम असंयम वा अविरति जानना। बहुरि इसही का नाम अव्रत जानना। जातें हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म, परिग्रह इन पाप कार्यनिविष प्रवृत्तिका नाम अव्रत है। सो इनका मूलकारण प्रमत्तयोग कह्या है। प्रमत्तयोग है सो कषायमय है ताते मिथ्याचारित्रका नाम अव्रत भी कहिए है। ऐसे मिथ्याचारित्र का स्वरूप कहा।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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