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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-७४ या प्रकार संसारी जीवकै मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्ररूप परिणमन अनादितै पाइए है। सो ऐसा परिणमन एकेन्द्रिय आदि असंज्ञीपर्यंत तो सर्व जीवनिकै पाइए है। बहुरि संज्ञी पंचेन्द्रियनिविषे सम्यग्दृष्टी बिना अन्य सर्वजीवनिकै ऐसा ही परिणमन पाइए है। परिणमनविषे जैसा जहाँ सम्भवै तैसा तहाँ जानना। जैसे एकेन्द्रियादिककै इन्द्रियादिकनिकी हीनता अधिकता पाइए है वा धन-पुत्रादिकका सम्बन्ध मनुष्यादिककै ही पाइये है सो इनके निमित्तते मिथ्यादर्शनादि का वर्णन क्रिया है। तिसविषै जैसा विशेष सम्भवै तैसा जानना । बहुरि एकेन्द्रियादिक जीव इन्द्रिय शरीरादिक का नाम जानै नाहीं है परन्तु तिस नाम का अर्थरूप जो भाव है तिसविषै पूर्वोक्त प्रकार परिणमन पाइए है। जैसे मैं स्पर्शनकरि स्पy हूँ, शरीर मेरा है ऐसा नाम न जानै है तथापि इसका अर्थरूप जो भाव है तिस रूप परिणमै है। बहुरे मनुष्यादिक केई नाम. भी जाने है अर ताकै भावरूप परिणमै है, इत्यादि विशेष सम्भवै सो जान लेना। ऐसे ए मिथ्यादर्शनादिकभाव जीवकै अनादित पाइये हैं, नवीन .ग्रहे नाहीं। देखो याकी महिमा कि जो पर्याय धरै है तहाँ बिना ही सिखाए मोहके उदयतें स्वयमेव ऐसा ही परिणमन हो है। बहुरि मनुष्यादिककै सत्यविचार होने के कारण मिले तो भी सम्यक् परिणमन होय नाहीं। अर श्रीगुरुके उपदेशका निमित्त बनै, वे बारबार समझावै, यह कछु विचार कर नाहीं। बहुरि आपको भी प्रत्यक्ष भासै सो तो न माने अर अन्यथा ही माने। कैसे? सो कहिए है - मरण होते शरीर आत्मा प्रत्यक्ष जुदा होहै। एक शरीर को छोरि आत्मा अन्य शरीर धरै है सो व्यंतरादिक अपने पूर्व भवका सम्बन्ध प्रगट करते देखिए है परन्तु याकै शरीर भिन्नबुद्धि न होय सके है। स्त्री-पुत्रादिक अपने स्वार्थके सगे प्रत्यक्ष देखिए हैं। उनका प्रयोजन न सधै तब ही विपरीत होते देखिए हैं। यहु तिन विषै ममत्व करै है अर तिनके अर्थि नरकादिकविषै गमनको कारण नाना पाप उपजावै है। धनादिक सामग्री अन्यकी होती देखिए है, यहु तिनको अपनी मानै है; बहुरि शरीर की अवस्था वा बाह्यसामग्री स्वयमेव होती विनशती दीसै है, यहु वृथा आप कर्ता हो है। तहाँ जो अपने मनोरथ अनुसार कार्य होय ताको तो कहै मैं किया अर अन्यथा होय ताको कहै मैं कहा कसै? ऐसे ही होना था वा ऐने क्यों भया ऐसा मान है। सो के तो सर्व का कर्ता ही होना था, के अकर्ता रहना था सो विचार नाहीं। बहुरि मरण अवश्य होगा ऐसा जानै परन्तु मरण का निश्चयकरि किछु कर्तव्य करै नाहीं, इस पर्याय सम्बन्धी ही यत्न कर है। बहुरि मरणका निश्चयकरि कबहूं तो कहै मैं मरूंगा, शरीर को जलावेंगे। कबहुँ कहै मोको जलावेंगे। कबहुँ कहै जस रह्या तो हम जीवते ही हैं। कबहुँ कहै पुत्रादिक रहेंगे तो मैं ही जीऊंगा। ऐसे बाउलाकीसी नाईं बकै किछू सावधानी नाहीं। बहुरि आपके परलोकविषै प्रत्यक्ष जाता जाने, ताका तो इष्ट अनिष्ट का किछू ही उपाय नाहीं अर इहां पुत्र पोता आदि मेरी संततिविष घनेकाल ताई इष्ट रह्या करै अनिष्ट न होइ, ऐसे अनेक उपाय करै है। काहूका परलोक भए पीछे इस लोक की सामग्री करि उपकार भया देख्या नाहीं परन्तु याकै परलोक होने का निश्चय भए भी इस लोककी सामग्री ही का यतन रहे है। बहुरि विषयकषायकी प्रवृत्ति करि वा हिंसादि कार्यकरि आप दुःखी होय, खेदखिन्न होय, औरनिका वैरी
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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