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________________ नवमा अधिकार- २७६ बहुरि Tea frangटी के भी हो है, ऐसा शास्त्रविषै निरूपण है। प्रवचनसारविषै आत्मज्ञानशून्य तत्त्वार्थश्रद्धान अकार्यकारी कया है । तातैं सम्यक्त्व का लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान कया है, तिस विषै अतिव्याप्ति दूषण लागे है । - ताका समाधान - मिध्यादृष्टि के जो भी तत्त्वश्रद्धान कया है, सो नामनिक्षेपकरि का है। जामें तत्त्वश्रद्धान का गुण नाहीं अर व्यवहारविषै जाका नाम तत्त्व श्रद्धान कहिए सो मिथ्यादृष्टी के हो है अथवा आगमद्रव्य निक्षेपकरि हो है । तत्त्वार्थ श्रद्धान के प्रतिपादक शास्त्रनिको अभ्यासै है, तिनिका स्वरूप निश्चय करनेविषै उपयोग नाहीं लगाये है, ऐसा जानना । बहुरि यहाँ सम्यक्त्व का लक्षण तत्त्वार्थं श्रद्धान कया है सो भाव निक्षेपकरि कह्या है । सो गुणसहित सांचा तत्त्वार्थश्रद्धान मिथ्यादृष्टी के कदाचित् न होय । बहुरि आत्मज्ञानशून्य तत्त्वार्थश्रद्धान कया है, तहाँ भी सोई अर्थ जानना । सांचा जीव अजीवादिक का जाकै श्रद्धान होय, ताकै आत्मज्ञान कैसे न होय ? होय ही होय । ऐसे कोई ही मिध्यादृष्टी के सांचा तत्त्वार्थ श्रद्धान सर्वथा न पाइए है, तार्ते तिस लक्षणविषै अतिव्याप्ति दूषण न लागे है । बहुरि जो यहु तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण कथा, सो असम्भव भी नाहीं है । जातें सम्यक्त्व का प्रतिपक्षी मिथ्यात्व - यह नाहीं है, बाका लक्षण इस विपरीतता लिये है । ऐसे अव्याप्ति अतिव्याप्ति असम्भविपनाकरि रहिल सर्व सम्यग्दृष्टीनिविषै तो पाईए अर कोई मिथ्यादृष्टिविषे न पाइए ऐसा सम्यग्दर्शन का सांचा लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान है। बहुरि प्रश्न उपजे है जो यहाँ सातों तत्त्वनिके श्रद्धान का नियम कहो हो सो बने नाहीं, जातें कहीं परतैं भिन्न आपका श्रद्धानहिीको सम्यक्त्व कहै है । समयसारविषै' 'एकत्वे नियतस्य' इत्यादि कलशा ( लिखा) है, तिसविषे ऐसा कया है- जो इस आत्मा का परद्रव्यतें भिन्न अवलोकन सो ही नियमतें सम्यग्दर्शन है। तातैं नव तत्त्व की संतति को छोड़ि हमारे यहु एक आत्मा ही होहु । बहुरि कहीं एक आत्मा के निश्चय ही को सम्यक्त्व कहे है । पुरुषार्थसियुपायविषै 'दर्शनमात्मविनिश्चितिः' ऐसा पद है। सो याका यहु ही अर्थ है। तातें जीव अजीव ही का वा केवल जीव ही का श्रद्धान भए सम्यक्त्व हो है । सातों का श्रद्धान का नियम होता तो ऐसा काहेको लिखते । ताका समाधान - परतें भिन्न आपका श्रद्धान हो हैं, सो आस्रवादिक का प्रद्धान करि रहित हो है कि सहित हो है । जो रहित हो है, तो मोक्ष का अद्धान बिना किस प्रयोजन के अर्थि ऐसा उपाय करै है। संवर निर्जरा का श्रद्धान बिना रागादिकरहित होय स्वरूपविषै उपयोग लगावने का काहेको उद्यम राखे १. एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः । पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् ।। सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयम् । तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्मायमेको ऽस्तु नः । जीवाजीव. अ. कलश ।। ६ ।। २. दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः ३ स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ॥ पु. सि. २१६ ॥ ॥
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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