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________________ माक्षमागं प्रकाशक-२८० है। आस्रव बंध का श्रद्धान बिना पूर्व अवस्था को काहेको छांड है। लातें आत्रवादिक का श्रद्धान रहित आपापरका श्रद्धान करना सम्भवै नाहीं। बहुरि जो आस्वादिक का श्रद्धान सहित हो है, तो स्वयमेव ही सातों तत्त्वनिके श्रद्धान का नियम भया। बहुरि केवल आत्मा का निश्चय है, सो परका पररूप श्रद्धान भए बिना आत्मा का श्रद्धान न होय, ताः अजीव का श्रद्धान भए ही जीव का श्रद्धान होय। बहुरि ताकै पूर्ववत आस्त्रवादिक का भी श्रद्धान होय ही होय । तातै यहाँ भी सातों तत्त्वनिके ही श्रद्धान का नियम जानना। बहुरि आस्रवादिक का श्रद्धान बिना आपापर का श्रद्धान वा केवल आत्मा का श्रद्धान सांचा होता नाहीं। जाते आत्मा द्रव्य है, सो तो शुद्ध अशुद्ध पर्याय लिये है। जैसे तन्तु अवलोकन बिना पटका अवलोकन न होय, तैसे शुद्ध-अशुद्ध पर्याय पहिचाने बिना आत्मद्रव्य का श्रद्धान न होय । सो शुद्ध अशुद्ध अवस्था की पहिचानि आस्रवादिक की पहिचानतें हो है। बहुरि आसवादिक का श्रद्धान बिना आपापरका श्रद्धान वा केवल आत्मा का श्रद्धान कार्यकारी भी नाहीं ! जाते श्रद्धान करो वा मति करो, आप है सो आप है ही, पर है सो पर है। बहुरि आमवादिक का श्रद्धान होय, तो आसव बंध का अभावकरि संवर-निर्जरारूप उपायतै मोक्षपद को पावै। बहुरि जो आपापरका भी श्रद्धान कराइए है, सो तिस ही प्रयोजन के अर्थि कराइए है। तातें आस्रवादिक का श्रद्धानसहित आपापरका जानना वा आपका जानना कार्यकारी है। यहाँ प्रश्न-जो ऐसे है, तो शास्त्रनिविषै आपा पर का श्रद्धान वा केवल आत्मा का श्रद्धानहीको सम्यक्त्व कह्या वा कार्यकारी कह्या बहुरि नव तत्त्व की सन्तति छोड़ि हमारे एक आत्मा ही होहु, ऐसा कह्या । सो कैसे कह्या? ताका समाधान- जाकै सांचा आपापरका श्रद्धान वा आत्मा का श्रद्धान होय, ताकै सातों तत्त्वनिका श्रद्धान होय ही होय । बहुरि जाकै सांचा सात तत्त्वनिका श्रद्धान होय, ताकै आपापरका वा आत्मा का श्रद्धान होय ही होय । ऐसा परस्पर अविनाभावीपना जानि आपापरका श्रद्धान को वा आत्मश्रद्धान ही को सम्यक्त्व कह्या है। बहुरि इस छलकरि कोई सामान्यपने आपापरको जानि वा आत्मा को जानि कृतकृत्यपनो मानै, तो वाकै भ्रम है। तातें ऐसा कह्या है- 'निर्विशेष हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत्। याका अर्थ यहुजो विशेषरहित सामान्य है सो गधे के सींग समान है। जातें प्रयोजनभूत आम्नवादिक विशेषनिसहित आपापरका वा आत्मा का श्रद्धान करना योग्य है। अथवा सातों तत्त्वार्थनिका श्रद्धानकरि रागादिक मेटने के अर्थि परद्रव्यनिको भिन्न भाव है वा अपने आत्मा ही को भाव है, ताकै प्रयोजन की सिद्धि हो है। तातै मुख्यताकरि भेदविज्ञान को वा आत्मज्ञान को कार्यकारी कह्या है। बहुरि तत्त्वार्थश्रद्धान किए बिना सर्व . जानना कार्यकारी नाहीं । जाते प्रयोजन तो रागादिक मेटने का है, सो आस्त्रवादिक का श्रद्धान बिना यह प्रयोजन भासै नाहीं। तब केवल जानने ही तैं मानको बधावे, रागादिक छां. नाहीं, तब वाका कार्य कैसे सिद्धि होय । बहुरि नवतत्त्वसंततिका छोड़ना कह्या है। सो पूर्वे नवतत्त्व के विचार करि सम्यग्दर्शन भया, पी? निर्विकल्पदशा होने के अर्थि नवतत्त्वनिका भी विकल्प छोड़ने की चाह करी। बहुरि जाकै पहिले ही नवतत्त्वनिका विचार नाही, ताकै तिस विकल्प छोड़ने का कहा प्रयोजन है। अन्य अनेक विकल्प आपके पाइए है, तिनही का त्याग करो, ऐसे आपापरका श्रद्धानविषै वा आत्म प्रद्धानविषै सप्ततत्त्व श्रद्धान की सापेक्षा पाइए है, ताते तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यक्त्वका लक्षण है।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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