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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक- १५२ मुनिसंज्ञा तो निर्ग्रन्थ बिना कहीं-कही नाहीं । बहुरि श्रावककै तो आठ मूलगुण कहै हैं ।' सो मद्य मांस मधु पंचदंबरादि फलनिका भक्षण आवकनिकै है नाहीं, तार्तें काहू प्रकारकरि श्रावकपना तो सम्भव भी है। अर मुनिकै अट्ठाईस मूलगुण हैं, सो भेषीनिकै दीसते ही नाहीं । तातें मुनिपनो काहू प्रकार सम्भवे नाहीं । बहुरि गृहस्थ अवस्थाविषै तो पूर्वी जम्बूकुमारादिक बहुत हिंसादि कार्य किये सुनिए हैं। मुनि होयकरि तो काहूने हिंसादिक कार्य किए नाहीं, परिग्रह राखे नाहीं, तार्तें ऐसी युक्ति कार्यकारी नाहीं । बहुरि देखो, आदिनाथजी के साथ च्यारि हजार राजा दीक्षा लेय बहुरि भ्रष्ट भए, तब देव उनको कहते भए, जिनलिंगी होय अन्यथा प्रवर्त्तोगे तो हम दंड देंगे। जिनलिंग छोरि तुम्हारी इच्छा होय, सो तुम जानो । तातैं जिनलिंगी कहाय अन्यथा प्रवर्ते, ते तो दंड योग्य हैं। वंदनादि योग्य कैसे होय? अब बहुत कहा कहिए, जिनमत विषै कुभेष धार हैं। ते महापाप उपजावै हैं । अन्य जीव उनकी सुश्रूषा आदि करे हैं, ते भी पापी हो हैं । पद्मपुराणविषै यह कथा है जो श्रेष्टी धर्मात्मा चारण मुनिनिको भ्रमतें भ्रष्ट जानि आहार न दिया तो प्रत्यक्ष भ्रष्ट तिनको दानादिक देना कैसे सम्भव ? विशेष-पुराण में यह कथा पर्व घर में आई है। इसका विशिष्ट कथन इस प्रकार हैयद्यपि धर्मात्मा श्रेष्ठी ने भ्रम से भ्रष्ट जान कर उन मुनियों को आहार नहीं दिया परन्तु उन्हीं मुनियों को उसी समय धर्मात्मा सेठ अर्हदत्त की सम्यग्दृष्टि (गृहीतार्था ) पत्नी ने तो आहार दिया ही था । ( प.पु. ६२ / २१) (9) (२) उक्त धर्मात्मा श्रेष्ठी अर्हद्दत्त को बाद में उसी दिन जब यह ज्ञात हुआ कि “वे तो महासम्यक्त्वी तथा चारणऋद्धिधारी थे, अतः मथुरा में चातुर्मासरत होने पर भी आकाशमार्ग से अयोध्या में आहार हेतु आगये थे" तो ऐसा ज्ञात होने पर उस धर्मात्मा श्रेष्टी की जो मनोदशा हुई, 9. आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में पांच अणुव्रत पालन तथा मद्य- मांस-मधु का त्याग, इस तरह आ मूलगुण कहे हैं। (र.क. श्र. ६६ ) चारित्रसार में पाँच अणुव्रत तथा मद्य-मांस द्यूत (जुआ) को आट मूलगुण कहा है। (चारित्रसार पृ. ३० श्रीमहावीरजी प्रकाशन) आचार्य पद्मनन्दी ने यय-मांस-मधु तथा पंच उदुम्बर फलों के त्याग को ८ मूलगुण कहा है। ( प. पं. ६ / २३) । शिवकोटि ने रत्नमाला में मद्य-मांस-मधु के त्याग के साथ पाँच अणुव्रत - पालन को अष्ट मूलगुण कहा है। उन्होंने यह भी कहा है कि पाँच उदुम्बरों के त्याग सहित मद्य मांस-मधु के त्याग रूप ८ मूलगुण तो बालकों के लिए है। (पञ्चोदुम्बरैश्चामकेष्वपि ) पण्डित आशाधरजी ने कहा है कि म पलम धुनिशासन - पंचफलीविरति पंचकाप्तनुती । जीवदमाजलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणाः ॥ • सागरधर्मामृत २/१८ पृ. ६३ ज्ञानपीठ अर्थ :- मांस-मधु का त्याग, रात्रिभोजनत्याग, पंच उदुम्बर फलत्याग, त्रिकाल देव वन्दना, जीवदया तथा छना पानी पीना ये आठ मूलगुण हैं। 1 जिन धर्माचार्यों आज के श्रावक को लक्ष्य कर ये Ι मूलगुण कहे हैं, उन्होंने यह भी कहा है कि इनमें से एक के बिना भी गृहस्थ कहलाने का पात्र नहीं है । साथ. २/१८ टीका का श्लोक ) अर्थात् वह श्रावक कहलाने का पात्र नहीं है।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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